Books - अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य -3
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Language: HINDI
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संजीवनी ने किया नवचेतना का संचार
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(पग- पग पर गुरुदेव ने सिखाया, बचाया और सँवारा)
गुरु की चमत्कारिक कृपा को जीवन के क्षण- क्षण में अनुभव किया है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि गुरुतत्व की अदृश्य चैतन्यशक्ति सतत मार्गदर्शन, संरक्षण, मंगलमय जीवन, हर प्रगति और हर कर्म के कुशल- क्षेम वहाम्यहम् का वचन निभाती रही है। पूर्वजन्मों के संस्कारवश योग, आसन, उपवास, आदि में अभिरुचि रही। कई एक अतीन्द्रिय अनुभूतियाँ भी हुईं, लेकिन आगे के लिए गुरु की खोज रही। कई आश्रमों, मठों और चर्चित महापुरुषों के सम्पर्क में आया। अनायास ‘कादम्बिनी’ नामक पत्रिका के तंत्र- विशेषांक में आचार्य श्रीराम शर्माजी के तंत्र महाविज्ञान पर एक लेख में शान्तिकुञ्ज और ब्रह्मवर्चस् शोध- संस्थान के बारे में पढ़ने को मिला।
पत्र- व्यवहार के बाद आने की अनुमति मिली। लेकिन परिवार से जाने की अनुमति नहीं मिली। शान्तिकुञ्ज से फिर वंदनीया माताजी का पत्र पहुँचा- आयुष्यमान आए नहीं, प्रतीक्षा होती रही। यह राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए यज्ञ के राष्ट्रव्यापी अभियान का वर्ष था! दूसरी बार अकेले ही जमालपुर से हरिद्वार बगैर रिजर्वेशन के रेल यात्रा से पहुँचा। लगा, रास्ते भर कोई दिव्य शक्ति संरक्षित करती रही। पहुँचने पर शान्तिकुञ्ज का वातावरण अपूर्व, मनोरम और अलौकिक प्रतीत हुआ। वंदनीया माताजी से भेंट और परामर्श का अवसर मिला। यहाँ हालांकि प्रवचनों में गायत्री और यज्ञ की महिमा को सुना लेकिन वैज्ञानिक तर्क के स्तर पर सहमत नहीं हो पा रहा था।
क्योंकि ऐसी महिमाएँ पहले भी सुनता रहा था, किसी प्रकार का अनुभव हुआ नहीं था। कई असमंजस के साथ जब ट्रेन से लौट रहा था, सोए रहने की वजह से ट्रेन आगे बढ़ गई थी। टी.टी. किसी न किसी बहाने सबसे कुछ रकम ऐंठ रहा था। उसने मुझसे भी कुछ रकम माँगी। प्रयोग के तौर पर मैंने मन ही मन गायत्री मंत्र जपना आरंभ किया। मेरे हाथ में गुरुदेव की लिखी कोई पुस्तक थी। टीटी ने पुस्तक मेरे हाथ से लेकर पूछा- ‘कहाँ से आ रहे हैं?
मैंने कहा- ‘शांतिकुंज हरिद्वार से।’ टी. टी. ने कहा- ‘हाँ, मेरे एक चाचाजी भी यहाँ से जुड़े हैं, मेरी श्रद्धा है इस संस्था से।’ फिर टी. टी. ने मुझे ससम्मान सही ट्रेन में बैठाया। यह तो गायत्री मंत्र की शक्ति की एक झलक मात्र थी। आचार्य जी के उपलब्ध साहित्य को पढ़ते हुए एक जगह भावना ठहर गई। एक पुस्तक में उन्होंने लिखा था कि जिन्हें विश्वास न हो वे गायत्री मंत्र का जप करके तो देखें। गायत्री मंत्र जप कर रहा था। इसी बीच राज्य स्तर के प्रतिष्ठित विद्वान प्राध्यापक के पुत्र जिनसे मेरी मैत्री थी, अपने पिता के ब्रेन हैमरेज के आघात के बाद एक दिन राय- मशवरे के लिये अपने घर ले गए। मेरे जैसे अदना व्यक्ति के साथ नामी- गिरामी बुद्धिजीवी का आध्यात्मिक विषय पर चर्चा- परिचर्चा मेरे लिये अप्रत्याशित रोमांच था।
मैं लगातार सुन और पढ़ रहा था कि बिना गुरुदीक्षा के साधना फलती नहीं, मंत्र में प्राण नहीं आता। लेकिन तार्किक मन गुरुदीक्षा का अर्थ अधीनता समझ रहा था। कई बार नौ दिवसीय सत्र में दीक्षा के अवसर को टालता रहा। एक बार इसी तरह टालते हुए आश्रम की कैंटीन में बैठा। एक गुजराती महिला ने अनायास पूछा- ‘आप कितनी बार शान्तिकुञ्ज आ चुके हैं?’ मैंने कहा- ‘पाँच बार’ महिला- ‘आपने दीक्षा ली’ - ‘नहीं।’ महिला- ‘इतनी बार शान्तिकुञ्ज आ चुके हैं, दीक्षा नहीं ली?’ यह बात जैसे दिल को छू गई।
एक बार माँ और बहनों को लेकर शान्तिकुञ्ज आया। माँ पहली बार में ही दीक्षित हो गई। दूसरी बार माँ के साथ शान्तिकुञ्ज आया। माँ ने कहा इस बार अवश्य ही दीक्षा ले लो। मैंने दीक्षा तो ली लेकिन अभी भी बेशर्त समर्पण का भाव था नहीं। अभी भी बौद्धिक भूख के रूप में विभिन्न साधना, ध्यान मार्ग की पद्धतियों में भटक रहा था। कई बार ऐसा लगा कि स्वयं गुरुदेव ही मुझे ये सब जानने समझने की सुविधा और अवसर उपलब्ध करा रहे हैं। एक बार आँवलखेड़ा के युगसंधि महापुरश्चरण की अर्द्धपूर्णाहुति के अवसर पर टूंडला किसी धार्मिक सत्संग स्थल पर गया। आगरा आते हुए बस से उतरते वक्त बुरी तरह सड़क पर गिर गया।
वहाँ के लोगों ने उठाकर सड़क के किनारे लिटाया। सामने एक बड़े पोस्टर में गुरुदेव व माताजी की आशीषमय मुद्रा में बड़ी तस्वीर थी। इस स्थिति में प्रबल आत्मविश्वास से भरी प्रार्थना के साथ इन्हें संरक्षक के रूप में स्वीकारा। अद्भुत! वहाँ के बड़े परोपकारी लोग चैरिटेबिल अस्पताल ले गए। वहाँ अस्थिरोग विशेषज्ञ, चिकित्सकों ने पूरा ख्याल किया। वहाँ सहायक सज्जनों ने बड़ी सद्भावपूर्ण भावना से कांधे पर बिठाकर ट्रेन आदि के सहारे घर पहुँचाया। गायत्री परिवार के लोगों की सामूहिक प्रार्थना के बलबूते मैं स्वस्थ हुआ। कुछ लोग मिशन के कार्य से बुलाने आते। टाल- मटोल करता रहा। एक दिन आधी रात को माँ को गंभीर रूप से बीमार होने के कारण अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। ऑक्सीजन सिलेंडर लगाना पड़ा। मुझे यह गुरुकार्य की अवहेलना का दण्ड लगा।
अस्पताल के पीछे चबूतरे पर बैठकर गुरुदेव से प्रार्थना की कि अब आपकी सेवा में पूरे तौर पर तत्पर रहूँगा। आश्चर्य! माँ ठीक होने लगी। फिर गायत्री मिशन में बेशर्त पूर्णतः सक्रिय हुआ हूँ। हमारी तीनों बहिनें मिशनरी गतिविधि में अपनी गायन- वादन प्रतिभा से सक्रिय हैं। गुरु के अनुदान स्वरूप उन्हें अच्छी शिक्षा, उत्तम वैवाहिक जीवन प्राप्त हुआ।
एक और घटना जिसने चेतना को उन्नत बनाया और शारीरिक चिकित्सा के स्तर पर अद्भुत अनुभव दे गया। हुआ यूँ, पूरबसराय शक्तिपीठ (मुंगेर) से युवा सम्मेलन के कार्यक्रम से लौटते हुए गेट के पास पथरीले रास्ते से फिसल कर इतनी बुरी तरह गिरा कि बाँये पैर के घुटने में जबरदस्त चोट आई। लाख प्रयास के बावजूद न तो पैर मुड़ पा रहा था और न ही मैं उठ पा रहा था।
बेहद लाचार और असहाय विवशता की स्थिति! वहाँ उपस्थित गायत्री परिजन कई सलाह- मशवरे के बाद मुंगेर के पोलो मैदान के पास एक व्यक्ति के पास ले गए। उसने गहरी चोट कहकर पट्टी बाँध दी, तीन सौ रुपये लिये, फिर मुझे घर लाया गया। भ्रम, भय, आशंका और नासमझी में कुछ दर्द निवारक गोलियों और अन्य उपचारों से मन को बहला रहा था। करवट बदल नहीं पाता था।
करीब पन्द्रह या बीस दिनों के बाद जब स्वतः पट्टी खोली तो मेरा घुटना मुड़ता ही नहीं था। फिर एक्स- रे से जो रिपोर्ट आई उसमें घुटने की चक्री दो टुकड़े में टूटी थी। घुटना बुरी तरह फूला हुआ था। डॉक्टर की सलाह मिली कि स्टील की चक्री प्रत्यारोपित की जाए या हड्डी काटी जाए। बेहद खर्च, सहायक लोगों की कमी, स्वयं विस्तर से भी उठ नहीं पाने की असमर्थता। उस वक्त नगर में विराट गायत्री महायज्ञ का आयोजन होने को था। अत्यंत किंकर्तव्यविमूढ़ सी अवस्था में गुरुदेव से आर्त्त स्वर में रुदन से भरी प्रार्थना ने अंधेरे में पग- पग पर रोशनी बनकर चमत्कारिक कृपाएँ बरसायीं।
स्टिक के साथ चलने के प्रयास में किसी झटके में असहनीय दर्द बढ़ गया। उस रात बहुत रो- रोकर गुरुदेव से प्रार्थना की। रात्रि स्वप्र में एक दिव्य पुरुष ने घुटने को हाथ से छूते हुए कहा कि आप मेरे बताए हुए प्राणायामों को थोड़ी लंबी अवधि तक और गहरे प्रार्थना भाव से करें। पहले भी प्राणायाम के अभ्यास से पेट की बीमारी से राहत पाए थी।
एक उदाहरण द्वारा तत्कालीन गायत्री शक्तिपीठ के उपजोन समन्वयक श्री त्रिवेणी प्रसाद अग्रवाल ने अपनी पत्नी के टूटी हड्डी का केस बताया जो प्राकृतिक ढंग से ठीक हो गया था। एक धार्मिक चेनल पर एक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रख्यात अस्थि रोग विशेषज्ञ के १०० लोगों पर प्राणायाम के शिविर द्वारा सकारात्मक परिणाम को देखा। दोनों उदाहरणों से आए विश्वास और बिल्कुल सकारात्मक सोच के साथ प्रातः ३.३० बजे, संध्या ४.०० बजे में पर्याप्त समय तक प्रार्थना पूर्ण भाव से प्राणायम की आध्यात्मिक चिकित्सा का अभ्यास आरंभ किया। प्राणायाम- ध्यान के वक्त मैं मिलने वाले लोगों से कम मिलता था। आश्चर्य! पैर धीरे- धीरे मुड़ने लगा।
ढाई महिने में पैर के सहारे बैठने लगा। एक रात्रि स्वप्र में डॉ० प्रणव पण्ड्या ने निर्दिष्ट किया कि प्राणायाम के साथ- साथ रोम- रोम में, हर कोशिका में सविता संचार और सोऽहम का भाव करें। प्राणायाम करते हुए भाव रहता कि अंतरिक्ष से सर्वश्रेष्ठ ईश्वरीय चिकित्सा, औषधि की आशीषमय चेतना का प्रवाह घुटने में हो रहा है। प्रबल विश्वास के साथ हाथ के स्पर्श से ईश्वरीय चेतना को घुटनों में प्रवाहित होने का ध्यान करता। स्टिक के सहारे अब धीरे- धीरे टहलना आरंभ किया।
गायत्री जयंती के दिन सन् २००७ में रक्त- दान शिविर के कार्यक्रम में किसी तरह गया था। इस बीच आन्तरिक जगत में अद्भुत दिव्य अनुभूति, अलौकिक स्वप्रनों का क्रम बना रहा। स्टिक के सहारे ही यज्ञों की टोलियों में जाने, स्वाध्याय- मंडल चलाने जैसी कई गतिविधियों में सक्रियता बढ़ी। पहले तो स्थिति इतनी बुरी थी कि ह्वील चेयर ओर बैशाखी के सहारे चलने की अवसादजन्य सोच थी। लेकिन प्रार्थनामय प्राणायाम से टूटी हड्डी जुड़ने की अद्भुत चिकित्सा हुई। मिशन के लिय महत्वपूर्ण दायित्व निभाने के अवसर मिले। एकांत की साधना से संचित प्रारब्ध कटे। शांति, दिव्यता की अलौकिक अनुभूति और गुरुदेव के आशीषमय कृपाओं के प्रति अन्तरतम से चिर कृतज्ञ हूँ।
प्रस्तुति : मनोज मिश्र
जमालपुर (बिहार)
गुरु की चमत्कारिक कृपा को जीवन के क्षण- क्षण में अनुभव किया है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि गुरुतत्व की अदृश्य चैतन्यशक्ति सतत मार्गदर्शन, संरक्षण, मंगलमय जीवन, हर प्रगति और हर कर्म के कुशल- क्षेम वहाम्यहम् का वचन निभाती रही है। पूर्वजन्मों के संस्कारवश योग, आसन, उपवास, आदि में अभिरुचि रही। कई एक अतीन्द्रिय अनुभूतियाँ भी हुईं, लेकिन आगे के लिए गुरु की खोज रही। कई आश्रमों, मठों और चर्चित महापुरुषों के सम्पर्क में आया। अनायास ‘कादम्बिनी’ नामक पत्रिका के तंत्र- विशेषांक में आचार्य श्रीराम शर्माजी के तंत्र महाविज्ञान पर एक लेख में शान्तिकुञ्ज और ब्रह्मवर्चस् शोध- संस्थान के बारे में पढ़ने को मिला।
पत्र- व्यवहार के बाद आने की अनुमति मिली। लेकिन परिवार से जाने की अनुमति नहीं मिली। शान्तिकुञ्ज से फिर वंदनीया माताजी का पत्र पहुँचा- आयुष्यमान आए नहीं, प्रतीक्षा होती रही। यह राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए यज्ञ के राष्ट्रव्यापी अभियान का वर्ष था! दूसरी बार अकेले ही जमालपुर से हरिद्वार बगैर रिजर्वेशन के रेल यात्रा से पहुँचा। लगा, रास्ते भर कोई दिव्य शक्ति संरक्षित करती रही। पहुँचने पर शान्तिकुञ्ज का वातावरण अपूर्व, मनोरम और अलौकिक प्रतीत हुआ। वंदनीया माताजी से भेंट और परामर्श का अवसर मिला। यहाँ हालांकि प्रवचनों में गायत्री और यज्ञ की महिमा को सुना लेकिन वैज्ञानिक तर्क के स्तर पर सहमत नहीं हो पा रहा था।
क्योंकि ऐसी महिमाएँ पहले भी सुनता रहा था, किसी प्रकार का अनुभव हुआ नहीं था। कई असमंजस के साथ जब ट्रेन से लौट रहा था, सोए रहने की वजह से ट्रेन आगे बढ़ गई थी। टी.टी. किसी न किसी बहाने सबसे कुछ रकम ऐंठ रहा था। उसने मुझसे भी कुछ रकम माँगी। प्रयोग के तौर पर मैंने मन ही मन गायत्री मंत्र जपना आरंभ किया। मेरे हाथ में गुरुदेव की लिखी कोई पुस्तक थी। टीटी ने पुस्तक मेरे हाथ से लेकर पूछा- ‘कहाँ से आ रहे हैं?
मैंने कहा- ‘शांतिकुंज हरिद्वार से।’ टी. टी. ने कहा- ‘हाँ, मेरे एक चाचाजी भी यहाँ से जुड़े हैं, मेरी श्रद्धा है इस संस्था से।’ फिर टी. टी. ने मुझे ससम्मान सही ट्रेन में बैठाया। यह तो गायत्री मंत्र की शक्ति की एक झलक मात्र थी। आचार्य जी के उपलब्ध साहित्य को पढ़ते हुए एक जगह भावना ठहर गई। एक पुस्तक में उन्होंने लिखा था कि जिन्हें विश्वास न हो वे गायत्री मंत्र का जप करके तो देखें। गायत्री मंत्र जप कर रहा था। इसी बीच राज्य स्तर के प्रतिष्ठित विद्वान प्राध्यापक के पुत्र जिनसे मेरी मैत्री थी, अपने पिता के ब्रेन हैमरेज के आघात के बाद एक दिन राय- मशवरे के लिये अपने घर ले गए। मेरे जैसे अदना व्यक्ति के साथ नामी- गिरामी बुद्धिजीवी का आध्यात्मिक विषय पर चर्चा- परिचर्चा मेरे लिये अप्रत्याशित रोमांच था।
मैं लगातार सुन और पढ़ रहा था कि बिना गुरुदीक्षा के साधना फलती नहीं, मंत्र में प्राण नहीं आता। लेकिन तार्किक मन गुरुदीक्षा का अर्थ अधीनता समझ रहा था। कई बार नौ दिवसीय सत्र में दीक्षा के अवसर को टालता रहा। एक बार इसी तरह टालते हुए आश्रम की कैंटीन में बैठा। एक गुजराती महिला ने अनायास पूछा- ‘आप कितनी बार शान्तिकुञ्ज आ चुके हैं?’ मैंने कहा- ‘पाँच बार’ महिला- ‘आपने दीक्षा ली’ - ‘नहीं।’ महिला- ‘इतनी बार शान्तिकुञ्ज आ चुके हैं, दीक्षा नहीं ली?’ यह बात जैसे दिल को छू गई।
एक बार माँ और बहनों को लेकर शान्तिकुञ्ज आया। माँ पहली बार में ही दीक्षित हो गई। दूसरी बार माँ के साथ शान्तिकुञ्ज आया। माँ ने कहा इस बार अवश्य ही दीक्षा ले लो। मैंने दीक्षा तो ली लेकिन अभी भी बेशर्त समर्पण का भाव था नहीं। अभी भी बौद्धिक भूख के रूप में विभिन्न साधना, ध्यान मार्ग की पद्धतियों में भटक रहा था। कई बार ऐसा लगा कि स्वयं गुरुदेव ही मुझे ये सब जानने समझने की सुविधा और अवसर उपलब्ध करा रहे हैं। एक बार आँवलखेड़ा के युगसंधि महापुरश्चरण की अर्द्धपूर्णाहुति के अवसर पर टूंडला किसी धार्मिक सत्संग स्थल पर गया। आगरा आते हुए बस से उतरते वक्त बुरी तरह सड़क पर गिर गया।
वहाँ के लोगों ने उठाकर सड़क के किनारे लिटाया। सामने एक बड़े पोस्टर में गुरुदेव व माताजी की आशीषमय मुद्रा में बड़ी तस्वीर थी। इस स्थिति में प्रबल आत्मविश्वास से भरी प्रार्थना के साथ इन्हें संरक्षक के रूप में स्वीकारा। अद्भुत! वहाँ के बड़े परोपकारी लोग चैरिटेबिल अस्पताल ले गए। वहाँ अस्थिरोग विशेषज्ञ, चिकित्सकों ने पूरा ख्याल किया। वहाँ सहायक सज्जनों ने बड़ी सद्भावपूर्ण भावना से कांधे पर बिठाकर ट्रेन आदि के सहारे घर पहुँचाया। गायत्री परिवार के लोगों की सामूहिक प्रार्थना के बलबूते मैं स्वस्थ हुआ। कुछ लोग मिशन के कार्य से बुलाने आते। टाल- मटोल करता रहा। एक दिन आधी रात को माँ को गंभीर रूप से बीमार होने के कारण अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। ऑक्सीजन सिलेंडर लगाना पड़ा। मुझे यह गुरुकार्य की अवहेलना का दण्ड लगा।
अस्पताल के पीछे चबूतरे पर बैठकर गुरुदेव से प्रार्थना की कि अब आपकी सेवा में पूरे तौर पर तत्पर रहूँगा। आश्चर्य! माँ ठीक होने लगी। फिर गायत्री मिशन में बेशर्त पूर्णतः सक्रिय हुआ हूँ। हमारी तीनों बहिनें मिशनरी गतिविधि में अपनी गायन- वादन प्रतिभा से सक्रिय हैं। गुरु के अनुदान स्वरूप उन्हें अच्छी शिक्षा, उत्तम वैवाहिक जीवन प्राप्त हुआ।
एक और घटना जिसने चेतना को उन्नत बनाया और शारीरिक चिकित्सा के स्तर पर अद्भुत अनुभव दे गया। हुआ यूँ, पूरबसराय शक्तिपीठ (मुंगेर) से युवा सम्मेलन के कार्यक्रम से लौटते हुए गेट के पास पथरीले रास्ते से फिसल कर इतनी बुरी तरह गिरा कि बाँये पैर के घुटने में जबरदस्त चोट आई। लाख प्रयास के बावजूद न तो पैर मुड़ पा रहा था और न ही मैं उठ पा रहा था।
बेहद लाचार और असहाय विवशता की स्थिति! वहाँ उपस्थित गायत्री परिजन कई सलाह- मशवरे के बाद मुंगेर के पोलो मैदान के पास एक व्यक्ति के पास ले गए। उसने गहरी चोट कहकर पट्टी बाँध दी, तीन सौ रुपये लिये, फिर मुझे घर लाया गया। भ्रम, भय, आशंका और नासमझी में कुछ दर्द निवारक गोलियों और अन्य उपचारों से मन को बहला रहा था। करवट बदल नहीं पाता था।
करीब पन्द्रह या बीस दिनों के बाद जब स्वतः पट्टी खोली तो मेरा घुटना मुड़ता ही नहीं था। फिर एक्स- रे से जो रिपोर्ट आई उसमें घुटने की चक्री दो टुकड़े में टूटी थी। घुटना बुरी तरह फूला हुआ था। डॉक्टर की सलाह मिली कि स्टील की चक्री प्रत्यारोपित की जाए या हड्डी काटी जाए। बेहद खर्च, सहायक लोगों की कमी, स्वयं विस्तर से भी उठ नहीं पाने की असमर्थता। उस वक्त नगर में विराट गायत्री महायज्ञ का आयोजन होने को था। अत्यंत किंकर्तव्यविमूढ़ सी अवस्था में गुरुदेव से आर्त्त स्वर में रुदन से भरी प्रार्थना ने अंधेरे में पग- पग पर रोशनी बनकर चमत्कारिक कृपाएँ बरसायीं।
स्टिक के साथ चलने के प्रयास में किसी झटके में असहनीय दर्द बढ़ गया। उस रात बहुत रो- रोकर गुरुदेव से प्रार्थना की। रात्रि स्वप्र में एक दिव्य पुरुष ने घुटने को हाथ से छूते हुए कहा कि आप मेरे बताए हुए प्राणायामों को थोड़ी लंबी अवधि तक और गहरे प्रार्थना भाव से करें। पहले भी प्राणायाम के अभ्यास से पेट की बीमारी से राहत पाए थी।
एक उदाहरण द्वारा तत्कालीन गायत्री शक्तिपीठ के उपजोन समन्वयक श्री त्रिवेणी प्रसाद अग्रवाल ने अपनी पत्नी के टूटी हड्डी का केस बताया जो प्राकृतिक ढंग से ठीक हो गया था। एक धार्मिक चेनल पर एक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रख्यात अस्थि रोग विशेषज्ञ के १०० लोगों पर प्राणायाम के शिविर द्वारा सकारात्मक परिणाम को देखा। दोनों उदाहरणों से आए विश्वास और बिल्कुल सकारात्मक सोच के साथ प्रातः ३.३० बजे, संध्या ४.०० बजे में पर्याप्त समय तक प्रार्थना पूर्ण भाव से प्राणायम की आध्यात्मिक चिकित्सा का अभ्यास आरंभ किया। प्राणायाम- ध्यान के वक्त मैं मिलने वाले लोगों से कम मिलता था। आश्चर्य! पैर धीरे- धीरे मुड़ने लगा।
ढाई महिने में पैर के सहारे बैठने लगा। एक रात्रि स्वप्र में डॉ० प्रणव पण्ड्या ने निर्दिष्ट किया कि प्राणायाम के साथ- साथ रोम- रोम में, हर कोशिका में सविता संचार और सोऽहम का भाव करें। प्राणायाम करते हुए भाव रहता कि अंतरिक्ष से सर्वश्रेष्ठ ईश्वरीय चिकित्सा, औषधि की आशीषमय चेतना का प्रवाह घुटने में हो रहा है। प्रबल विश्वास के साथ हाथ के स्पर्श से ईश्वरीय चेतना को घुटनों में प्रवाहित होने का ध्यान करता। स्टिक के सहारे अब धीरे- धीरे टहलना आरंभ किया।
गायत्री जयंती के दिन सन् २००७ में रक्त- दान शिविर के कार्यक्रम में किसी तरह गया था। इस बीच आन्तरिक जगत में अद्भुत दिव्य अनुभूति, अलौकिक स्वप्रनों का क्रम बना रहा। स्टिक के सहारे ही यज्ञों की टोलियों में जाने, स्वाध्याय- मंडल चलाने जैसी कई गतिविधियों में सक्रियता बढ़ी। पहले तो स्थिति इतनी बुरी थी कि ह्वील चेयर ओर बैशाखी के सहारे चलने की अवसादजन्य सोच थी। लेकिन प्रार्थनामय प्राणायाम से टूटी हड्डी जुड़ने की अद्भुत चिकित्सा हुई। मिशन के लिय महत्वपूर्ण दायित्व निभाने के अवसर मिले। एकांत की साधना से संचित प्रारब्ध कटे। शांति, दिव्यता की अलौकिक अनुभूति और गुरुदेव के आशीषमय कृपाओं के प्रति अन्तरतम से चिर कृतज्ञ हूँ।
प्रस्तुति : मनोज मिश्र
जमालपुर (बिहार)