Books - अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान-1
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Language: HINDI
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बहुत बड़ी है, आततायी विघ्रों की फौज
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महर्षि पतंजलि के सूत्रों को यदि हृदयंगम किया जाए, तो जीवन अनायास ही नए सिरे से गढ़ता चला जाता है। यथार्थ में ये सूत्र जीवन के परिमार्जन, परिष्कार की तकनीकें हैं। कइयों ने इन्हें अपने जीवन के यौगिक रूपान्तरण की विधियों के रूप में अनुभव किया है। महर्षि पतंजलि के सूत्र सत्य को परम पूज्य गुरुदेव ने इस युग में व्यावहारिक कुशलता दी है। गुरुदेव की साधना, इनके प्रायोगिक निष्कर्ष महर्षि के सूत्रों की बड़ी प्रभावपूर्ण व्याख्या करते हैं। यह व्याख्या साधकों को किसी नए विचार अथवा नए तर्क की ओर न ले जाकर सर्वथा नवीन अनुभूति तक ले जाती है।
दूसरी तरफ ईश्वरीय अनुभूति करने में प्रमाद कर रहे लोगों को महर्षि चेतावनी देते हैं कि विघ्रों के क्रम की इति यहीं तक नहीं है। ये और भी हैं। योग साधना के अन्य विक्षेपों का खुलासा करते हुए महर्षि अपना अगला सूत्र प्रकट करते हैं-
दुःखदौर्मनस्याङ्ग्रमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः॥ १/३१॥
शब्दार्थ- (१) दुःख= आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक- इस तरह के दुःख के मुख्य तौर पर तीन भेद हैं। काम- क्रोध आदि विकारों के कारण होने वाले शरीर व मन की पीड़ा आध्यात्मिक दुःख है। मनुष्य या अन्य जीवों के कारण होने वाली पीड़ा आधिभौतिक दुःख है। ग्रहों के कुपित होने पर या दैवी आपदाएँ आने पर जो पीड़ा होती है, उसे आधिदैविक दुःख कहते हैं। (२) दौर्मनस्य= इच्छा की पुर्ति न होने पर मन में जो क्षोभ होता है, उसे दौर्मनस्य कहते हैं। (३) अङ्गमेजयत्व= शरीर के अंगों में कंपकपी होना अंगमेजयत्व है। (४)श्वास= बिना इच्छा के ही बाहर की वायु का भीतर प्रवेश कर जाना अर्थात् बाहरी कुम्भक में विघ्र हो जाना ‘श्वास’ है। (५) प्रश्वास= बिना इच्छा के ही भीतर की वायु का बाहर निकल जाना अर्थात् भीतरी कुम्भक में विघ्र हो जाना ‘प्रश्वास’ है। ये पाँचों विघ्र, विक्षेपसहभुवः= विक्षेपों के साथ- साथ होने वाले हैं।
अर्थात् दुःख, निराशा, कंपकपी और अनियमित श्वसन विक्षेपयुक्त मन के लक्षण हैं।
महर्षि अपने इस सूत्र में अन्तर्यात्रा पथ के पथिक को चिन्तन और अनुभव की गहराई में ले जाना चाहते हैं। इस सूत्र में वे इन पाँचों विघ्रों का स्वरूप बताते हुए वे कहते हैं कि ये विघ्र लक्षण हैं विक्षेपयुक्त मन के। ध्यान रहे, लक्षण बीमारी नहीं होती, बस बीमारी का परिचय भर होता है। जैसे कि बुखार का लक्षण है—शरीर का ताप बढ़ जाना। यानि कि यदि देह का ताप बढ़ा हुआ है, तो बुखार हो सकता है। अब दूसरे क्रम में बुखार भी लक्षण हो सकता है- किसी अन्य बीमारी का। यह अन्य बीमारी मलेरिया, टायफायड या फिर अन्य कोई संक्रमण कुछ भी हो सकती है। बीमारी के सही निदान के लिए हमें लक्षण को भली- भाँति परखकर बीमारी के सही स्वरूप तक पहुँचना होता है। लक्षण हमें केवल बीमारी का परिचय देते हैं। इस परिचय के आधार पर बीमारी का समग्र विश्लेषण और समर्थ उपचार ढूँढना पड़ता है।
महर्षि कहते हैं कि दुःख, निराशा, कंपकंपी एवं अनियमित श्वसन बीमार मन के लक्षण है। यानि कि यदि मन बीमार है, तो ये पाँचों अनुभूतियाँ किसी न किसी तरह से होती रहेंगी। इन लक्षणों में प्रत्येक लक्षण मन की बीमार दशा का बयान करता है। उदाहरण के लिए दुःख- इसका मतलब है कि मन तनाव से भरा है, बँटा- बिखरा है। और यह बँटा- बिखरा मन निराश ही होगा और जो सतत उदास- निराश होता है उसकी जैविक ऊर्जा का परिपथ हमेशा गड़बड़ होता है। ऐसे व्यक्तियों के शरीर में बहने वाली जैव विद्युत् कभी भी ठीक- ठीक नहीं बहती और देह में एक सूक्ष्म कंपकंपी शुरू हो जाती है। और जब प्राण ही कंपायमान है, तो भला श्वास नियमित कैसे होगा? अब यदि इन सभी लक्षणों को दूर करना है तो उपाय एक ही है कि मन स्वस्थ हो जाय। मन की बीमारी समाप्त हो जाय।
इसके लिए उपाय एक ही है- मंत्र जप। मन यदि मंत्र के स्पर्श में आए अथवा मन में यदि मंत्र स्पन्दित होने लगे तो समझो कि मन की बीमारी ज्यादा देर तक टिकने वाली नहीं है। परम पूज्य गुरुदेव अपनी आध्यात्मिक गोष्ठियों में इस सम्बन्ध में बड़ी अद्भुत बात कहते थे। उनका कहना था कि- बेटा, मंत्र मन का इंजेक्शन है। देह की चिकित्सा करने वाले चिकित्सक देह में इंजेक्शन लगाते हैं। इस इंजेक्शन की भी दो विधियाँ हैं- १. मांस पेशियों में लगाया जाने वाला इंजेक्शन, २. रक्तवाहिनी नलिकाओं में लगाया जाने वाला इंजेक्शन। चिकित्सक कहते हैं कि पहले की तुलना में दूसरी तरह से लगाया जाने वाला इंजेक्शन जल्दी असर करता है।
परम पूज्य गुरुदेव कहते थे कि मंत्र ऐसा इंजेक्शन है, जो मन में लगाया जाता है। इस इंजेक्शन का प्रयोग मंत्रविद्या के मर्मज्ञ या आध्यात्मिक चिकित्सक करते हैं। इसके प्रयोग के तीन तरीके हैं। १. स्थूल वाणी के द्वारा, २. सूक्ष्म वाणी के द्वारा एवं ३. मानसिक स्पन्दनों के द्वारा। इसमें से पहला तरीका सबसे कम असर कारक है। यदि कोई बोल- बोल कर जप करे, तो असर देर से होता है। इसकी तुलना में दूसरा तरीका ज्यादा असरकारक है। यानि कि जप यदि अस्फुट स्वर में उपांशु ढंग से मानसिक एकाग्रता के साथ किया जाय, तो असर ज्यादा गहरा होता है। इन दोनों तरीकों से कहीं ज्यादा प्रभावशाली है मंत्र जप का तीसरा तरीका कि वाणी पर सम्पूर्णता शान्त रहे और मंत्र मानसिक स्पन्दनों में स्पन्दित होता रहे। इसका असर व प्रभाव बहुत गहरा होता है।
इस अन्तिम तरीके की खास बात यह है कि मंत्र का इंजेक्शन सीधा मन में ही लग रहा है। मन के विचारों के साथ मंत्र के विचार- स्पन्दन घुल रहे हैं। यदि मंत्र गायत्री है, तो फिर यह असर हजारों- लाखों गुना ज्यादा हो जाता है। इसके प्रभाव के पहले चरण में मन की टूटी- बिखरी लय फिर से सुसम्बद्ध होने लगती है। मन में मंत्र के अनुरूप एक समस्वरता पनपती है। मानसिक चेतना में मंत्र नए प्राणों का संचार करता है। इसकी शिथिलता- निस्तेजता समाप्त होती है। एक नयी ऊर्जा प्रवाहित होने लगती है। यह प्रक्रिया अपने अगले चरण से प्राणों की खोयी हुई लय वापस लाती है। जैव विद्युत् का परिपथ फिर से सुचारु होता है। और प्राणों की अनियमितता समाप्त हो जाती है।
इस सूत्र की व्याख्या में गुरुदेव कहते थे कि दुःख और निराशा मन के तल पर पनपते हैं। कंपकंपी एवं अनियमित श्वसन प्राणों के तल पर उपजता है। मंत्र जप करने वाले साधक की सबसे पहले मानसिक संरचना में परिवर्तन आते हैं। उसका मन नए सिरे से रूपान्तरित, परिवर्तित होता है। इस रूपान्तरण में दुःख प्रसन्नता में बदलता है और निराशा उत्साह में परिवर्तित होती है। प्रक्रिया के अगले चरण में प्राण बल बढ़ने से कंपकंपी दृढ़ता एवं बल में बदल जाती है। और श्वास की गति धीमी व सम होने लगती है। ये ऐसे दिखाई देने वाले अनुभव हैं- जिन्हें गायत्री मंत्र का कोई भी साधक छहः महीनों के अन्दर कर सकता है। शर्त बस यही है कि गायत्री मंत्र का जप गायत्री महाविज्ञान में दी गई बारह तपस्याओं का अनुशासन मानकर किया जाय। यह हो सका, तो अन्तर्यात्रा मार्ग पर प्रगति का चक्र और तीव्र हो जाएगा।
दूसरी तरफ ईश्वरीय अनुभूति करने में प्रमाद कर रहे लोगों को महर्षि चेतावनी देते हैं कि विघ्रों के क्रम की इति यहीं तक नहीं है। ये और भी हैं। योग साधना के अन्य विक्षेपों का खुलासा करते हुए महर्षि अपना अगला सूत्र प्रकट करते हैं-
दुःखदौर्मनस्याङ्ग्रमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः॥ १/३१॥
शब्दार्थ- (१) दुःख= आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक- इस तरह के दुःख के मुख्य तौर पर तीन भेद हैं। काम- क्रोध आदि विकारों के कारण होने वाले शरीर व मन की पीड़ा आध्यात्मिक दुःख है। मनुष्य या अन्य जीवों के कारण होने वाली पीड़ा आधिभौतिक दुःख है। ग्रहों के कुपित होने पर या दैवी आपदाएँ आने पर जो पीड़ा होती है, उसे आधिदैविक दुःख कहते हैं। (२) दौर्मनस्य= इच्छा की पुर्ति न होने पर मन में जो क्षोभ होता है, उसे दौर्मनस्य कहते हैं। (३) अङ्गमेजयत्व= शरीर के अंगों में कंपकपी होना अंगमेजयत्व है। (४)श्वास= बिना इच्छा के ही बाहर की वायु का भीतर प्रवेश कर जाना अर्थात् बाहरी कुम्भक में विघ्र हो जाना ‘श्वास’ है। (५) प्रश्वास= बिना इच्छा के ही भीतर की वायु का बाहर निकल जाना अर्थात् भीतरी कुम्भक में विघ्र हो जाना ‘प्रश्वास’ है। ये पाँचों विघ्र, विक्षेपसहभुवः= विक्षेपों के साथ- साथ होने वाले हैं।
अर्थात् दुःख, निराशा, कंपकपी और अनियमित श्वसन विक्षेपयुक्त मन के लक्षण हैं।
महर्षि अपने इस सूत्र में अन्तर्यात्रा पथ के पथिक को चिन्तन और अनुभव की गहराई में ले जाना चाहते हैं। इस सूत्र में वे इन पाँचों विघ्रों का स्वरूप बताते हुए वे कहते हैं कि ये विघ्र लक्षण हैं विक्षेपयुक्त मन के। ध्यान रहे, लक्षण बीमारी नहीं होती, बस बीमारी का परिचय भर होता है। जैसे कि बुखार का लक्षण है—शरीर का ताप बढ़ जाना। यानि कि यदि देह का ताप बढ़ा हुआ है, तो बुखार हो सकता है। अब दूसरे क्रम में बुखार भी लक्षण हो सकता है- किसी अन्य बीमारी का। यह अन्य बीमारी मलेरिया, टायफायड या फिर अन्य कोई संक्रमण कुछ भी हो सकती है। बीमारी के सही निदान के लिए हमें लक्षण को भली- भाँति परखकर बीमारी के सही स्वरूप तक पहुँचना होता है। लक्षण हमें केवल बीमारी का परिचय देते हैं। इस परिचय के आधार पर बीमारी का समग्र विश्लेषण और समर्थ उपचार ढूँढना पड़ता है।
महर्षि कहते हैं कि दुःख, निराशा, कंपकंपी एवं अनियमित श्वसन बीमार मन के लक्षण है। यानि कि यदि मन बीमार है, तो ये पाँचों अनुभूतियाँ किसी न किसी तरह से होती रहेंगी। इन लक्षणों में प्रत्येक लक्षण मन की बीमार दशा का बयान करता है। उदाहरण के लिए दुःख- इसका मतलब है कि मन तनाव से भरा है, बँटा- बिखरा है। और यह बँटा- बिखरा मन निराश ही होगा और जो सतत उदास- निराश होता है उसकी जैविक ऊर्जा का परिपथ हमेशा गड़बड़ होता है। ऐसे व्यक्तियों के शरीर में बहने वाली जैव विद्युत् कभी भी ठीक- ठीक नहीं बहती और देह में एक सूक्ष्म कंपकंपी शुरू हो जाती है। और जब प्राण ही कंपायमान है, तो भला श्वास नियमित कैसे होगा? अब यदि इन सभी लक्षणों को दूर करना है तो उपाय एक ही है कि मन स्वस्थ हो जाय। मन की बीमारी समाप्त हो जाय।
इसके लिए उपाय एक ही है- मंत्र जप। मन यदि मंत्र के स्पर्श में आए अथवा मन में यदि मंत्र स्पन्दित होने लगे तो समझो कि मन की बीमारी ज्यादा देर तक टिकने वाली नहीं है। परम पूज्य गुरुदेव अपनी आध्यात्मिक गोष्ठियों में इस सम्बन्ध में बड़ी अद्भुत बात कहते थे। उनका कहना था कि- बेटा, मंत्र मन का इंजेक्शन है। देह की चिकित्सा करने वाले चिकित्सक देह में इंजेक्शन लगाते हैं। इस इंजेक्शन की भी दो विधियाँ हैं- १. मांस पेशियों में लगाया जाने वाला इंजेक्शन, २. रक्तवाहिनी नलिकाओं में लगाया जाने वाला इंजेक्शन। चिकित्सक कहते हैं कि पहले की तुलना में दूसरी तरह से लगाया जाने वाला इंजेक्शन जल्दी असर करता है।
परम पूज्य गुरुदेव कहते थे कि मंत्र ऐसा इंजेक्शन है, जो मन में लगाया जाता है। इस इंजेक्शन का प्रयोग मंत्रविद्या के मर्मज्ञ या आध्यात्मिक चिकित्सक करते हैं। इसके प्रयोग के तीन तरीके हैं। १. स्थूल वाणी के द्वारा, २. सूक्ष्म वाणी के द्वारा एवं ३. मानसिक स्पन्दनों के द्वारा। इसमें से पहला तरीका सबसे कम असर कारक है। यदि कोई बोल- बोल कर जप करे, तो असर देर से होता है। इसकी तुलना में दूसरा तरीका ज्यादा असरकारक है। यानि कि जप यदि अस्फुट स्वर में उपांशु ढंग से मानसिक एकाग्रता के साथ किया जाय, तो असर ज्यादा गहरा होता है। इन दोनों तरीकों से कहीं ज्यादा प्रभावशाली है मंत्र जप का तीसरा तरीका कि वाणी पर सम्पूर्णता शान्त रहे और मंत्र मानसिक स्पन्दनों में स्पन्दित होता रहे। इसका असर व प्रभाव बहुत गहरा होता है।
इस अन्तिम तरीके की खास बात यह है कि मंत्र का इंजेक्शन सीधा मन में ही लग रहा है। मन के विचारों के साथ मंत्र के विचार- स्पन्दन घुल रहे हैं। यदि मंत्र गायत्री है, तो फिर यह असर हजारों- लाखों गुना ज्यादा हो जाता है। इसके प्रभाव के पहले चरण में मन की टूटी- बिखरी लय फिर से सुसम्बद्ध होने लगती है। मन में मंत्र के अनुरूप एक समस्वरता पनपती है। मानसिक चेतना में मंत्र नए प्राणों का संचार करता है। इसकी शिथिलता- निस्तेजता समाप्त होती है। एक नयी ऊर्जा प्रवाहित होने लगती है। यह प्रक्रिया अपने अगले चरण से प्राणों की खोयी हुई लय वापस लाती है। जैव विद्युत् का परिपथ फिर से सुचारु होता है। और प्राणों की अनियमितता समाप्त हो जाती है।
इस सूत्र की व्याख्या में गुरुदेव कहते थे कि दुःख और निराशा मन के तल पर पनपते हैं। कंपकंपी एवं अनियमित श्वसन प्राणों के तल पर उपजता है। मंत्र जप करने वाले साधक की सबसे पहले मानसिक संरचना में परिवर्तन आते हैं। उसका मन नए सिरे से रूपान्तरित, परिवर्तित होता है। इस रूपान्तरण में दुःख प्रसन्नता में बदलता है और निराशा उत्साह में परिवर्तित होती है। प्रक्रिया के अगले चरण में प्राण बल बढ़ने से कंपकंपी दृढ़ता एवं बल में बदल जाती है। और श्वास की गति धीमी व सम होने लगती है। ये ऐसे दिखाई देने वाले अनुभव हैं- जिन्हें गायत्री मंत्र का कोई भी साधक छहः महीनों के अन्दर कर सकता है। शर्त बस यही है कि गायत्री मंत्र का जप गायत्री महाविज्ञान में दी गई बारह तपस्याओं का अनुशासन मानकर किया जाय। यह हो सका, तो अन्तर्यात्रा मार्ग पर प्रगति का चक्र और तीव्र हो जाएगा।