Books - अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान-1
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Language: HINDI
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जीवन कमल खिला सकती हैं—पंच वृत्तियाँ
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ऐसा अनूठा रूप परिवर्तित करने वाली वृत्तियाँ हैं कौन सी, इस तत्व को छठे सूत्र में महर्षि पतंजलि इस तत्त्व को और भी अधिक सुस्पष्ट करते हैं। इस सूत्र में वह कहते हैं-
प्रमाणविपर्यय विकल्पनिद्रास्मृतयः॥ १/६॥
यानि कि ये वृत्तियां हैं- प्रमाण (सम्यक् ज्ञान), विपर्यय (मिथ्याज्ञान), विकल्प (कल्पना), निद्रा और स्मृति। ये पाँचों वृत्तियाँ मन की पाँच सम्भावनाएँ हैं, मन के पाँच रहस्य हैं। इन्हें जान- समझ लेने पर समूचे मन को जान- समझ लिया जाता है। इन पाँच वृत्तियों को मन की पाँच शक्तियाँ भी कहा जा सकता है, जिनके सही सदुपयोग से जीवन सहस्रदल कमल की भांति पुष्पित एवं सुरभित हो उठता है।
इस बारे में परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि जीवन को समझना है, तो मन को समझना होगा और मन को समझने के लिए मन की पाँचों वृत्तियों को जान लेना बहुत जरूरी है। तो शुरूआत पहली वृत्ति से करते हैं। यह पहली वृत्ति है ‘प्रमाण’ यानि कि सम्यक् ज्ञान। ‘प्रमाण’ संस्कृत भाषा का बहुत गहरा शब्द है। इसकी गहराई इस कदर है कि किसी भी अन्य भाषा में इसका एकदम सही अनुवाद सम्भव नहीं। यह जो सम्यक् ज्ञान कहा गया, वह ‘प्रमाण’ का सही अर्थ नहीं, बल्कि अर्थ की हल्की सी छाया भर है। दरअसल प्रमाण मूल शब्द ‘प्रमा’ से आया है। इसका भावार्थ है- सत्य- अनुभव। इस प्रमा का करण यानि की प्रमाण। सार संक्षेप में प्रमाण को यथार्थ अनुभव सा सत्य अनुभव करने की शक्ति कहा जा सकता है।
महर्षि पतंजलि कहते हैं कि यह शक्ति मन में है। परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि प्रमाण हमारे मन की वह उच्चतम क्षमता है, जो सामान्य क्रम में अविकसित अथवा अल्प विकसित या अर्धविकसित दशा में होती है। यदि यह क्षमता ठीक तरह से विकसित या जाग्रत् हो जाए, तो फिर जो कुछ भी जाना जाय सत्य होता है। साधारण तौर पर प्रायः मन की यह शक्ति अविकसित ही रह जाती है। इसका प्रयोग हो ही नहीं पाता। मन की इस शक्ति को समझने के लिए पूज्य गुरुदेव एक उदाहरण दिया करते थे। वह कहते थे- ‘मान लो तुम जिस घर में रहते हो, उस घर में बिजली- बत्ती तो है, पर उसके स्विच का तुम्हें पता नहीं। एकदम घनघोर- घुप अन्धेरा वहाँ छाया रहता है। अब तुम्हें रहना उसी घर में है, और स्विच के बारे में तुम्हें पता नहीं है, तो क्या स्थिति होगी? बस जैसे- तैसे टटोल कर काम चलाना पड़ेगा। कई बार ठोकरें लगेंगी। यह भी हो सकता है कि कई बार सिर फूटे और पैर टूटे। इस अंधेरे के कारण न जाने कितनी मुश्किलें खड़ी होंगी।’
अब यदि किसी तरह प्रयास, प्रयत्न से अथवा गुरुकृपा या भगवत्कृपा से बिजली का स्विच मिल जाय, यही नहीं वह स्विच ऑन हो जाय और घर के कोने- कोने में रोशनी बिखर जाय, हर ओर उजियारा फैल जाय, तो एक पल में सारी परेशानियाँ, सारी मुश्किलें समाप्त हो जाएँगी। फिर सब कुछ साफ- साफ नजर आएगा। सत्य प्रश्र या जिज्ञासा की विषय वस्तु न बनकर जीवन का अनुभव हो जाएगा। बस यही है प्रमाणवृत्ति। इसके विकसित होने का मतलब है कि हाथ में स्विच आ गया। कहीं किसी तरह की कोई भटकन नहीं। किसी से कुछ पूछने की भी जरूरत नहीं। किसी तरह के भ्रम अथवा सन्देह की भी कोई गुंजाइश नहीं।
बुद्ध, महावीर, श्री रामकृष्ण परमहंस, महर्षि रमण या फिर स्वयं परम पूज्य गुरुदेव इन सबमें इस प्रमाणवृत्ति की स्वाभाविक जागृति थी। गुरुदेव अपने जीवन काल में हजारों जगह गए और वहाँ लाखों लोगों से मिले। लोगों से मिलने का यह सिलसिला तब भी चलता रहा, जब उन्होंने कहीं भी आना- जाना बन्द कर दिया। जहाँ कोई जो भी मिला, गुरुदेव ने उसके प्रश्रों का बड़ी सहजता से समाधान कर दिया। कई बार तो पूछने वाले ने संकोचवश प्रश्र पूछा भी नहीं, और गुरुदेव ने उसके सवाल का सही जवाब दे दिया। उनके प्रवचनों में यह बात रोज ही देखी जाती थी। उस समय जिस किसी व्यक्ति की जो भी जिज्ञासा, शंका या प्रश्र होते, गुरुदेव उसी का समाधान करते। उनके प्रवचनों में एक साथ अनेकों के समाधान का सिलसिला चलता रहता था।
किसी के पूछने पर वह हँस देते और कहते- अरे भाई! तुम सोचते हो, टटोलते हो, उलझते हो और मैं सब कुछ साफ- साफ देखता हूँ। मुझे तुम्हारा प्रश्र भी दिखाई देता है, उत्तर भी। मुझे तो तुम्हारे वे अजन्मे सवाल भी दिखाई देते हैं जो कल जन्म लेंगे। साथ ही वे समाधान भी नजर आते हैं, जिनकी तुम्हें कल जरूरत होगी। यह होती है—प्रमाण वृत्ति। इसके विकास का मतलब है सहज बोध की प्राप्ति। फिर उधार के विचारों की, किसी तरह के तर्कजाल की, बौद्धिक जोड़- तोड़ की कोई जरूरत नहीं। गुरुदेव कहते थे कि गायत्री महामंत्र की भावभरी साधना से मन की यह शक्ति अपने आप ही कुछ वर्षों में जाग जाती है। साथ ही इस शक्ति के जागरण में अवरोध उत्पन्न करने वाली शक्ति समूल नष्ट हो जाती है।
यह अवरोधक शक्ति मन की दूसरी वृत्ति है, जिसका नाम है विपर्यय। विपर्यय का मतलब है, मिथ्या ज्ञान। मिथ्या ज्ञान का मतलब है कि है कुछ, पर दिखता है कुछ। है रस्सी, पर नजर आ रहा है साँप। प्रायः जीवन में यह स्थिति बेहोशी भरे अंधकार के कारण पनपती है। जैसे शराबी, भँगेड़ी, नशा गाढ़ा होने पर कुछ अजीबोगरीब अनुभूतियाँ करते हैं। वैसे ही इन्द्रिय लालसाओं, मानसिक वासनाओं एवं कामनाओं के ज्वार में भी इस मिथ्या ज्ञान की बाढ़ आती है। सारी उम्र कभी न खत्म होने पर भटकन की पर्याय बन जाती है। ध्यान रहे इस विपर्यय की समाप्ति ही प्रमाण का जागरण है। योग साधकों को अपने प्रयासों की दिशा इसी प्रमाण वृत्ति के जागरण की ओर मोड़नी होगी। लालसाओं, वासनाओं एवं कामनाओं का नशा उतरते ही मन की विपर्यय का अवसान हो जाता है।
तीसरी वृत्ति विकल्प अथवा कल्पना है। यह मन की बड़ी अद्भुत शक्ति है। सामान्य जन इस शक्ति का दुरुपयोग करते हुए प्रायः ख्याली पुलाव पकाते रहते हैं। लेकिन जिन्हें इस शक्ति का थोड़ा- बहुत सदुपयोग करना आ जाता है, वे कवि या कलाकार बन जाते हैं। इस विकल्प वृत्ति का उत्कृष्ट उपयोग ही उनकी कला की उत्कृष्टता की पहचान बनता है। गुरुदेव कहते थे—विकल्प वृत्ति या कल्पना साधारण चीज नहीं है। यह योगियों, साधकों एवं मनस्वियों की चेतना शक्ति का माध्यम बनती है। इसके माध्यम से उनके प्राण प्रवाहित होते हैं। पश्चिम में एक मनोवैज्ञानिक हुए हैं- ‘कुए’। उसने अपने अनगिनत प्रयोगों से कल्पना शक्ति के चमत्कार को साबित कर दिखाया। उसने इस शक्ति का प्रयोग बड़े कठिन एवं जटिल रोगों से ग्रसित लोगों पर किया। अपने प्रयोगों में उसने इन रोगियों से कहा- ‘तुम अपने मन में प्रगाढ़ कल्पना करो कि मैं स्वस्थ हो रहा हूँ। अपना हर पल- हर क्षण इसी कल्पना में बिताओ।’ इस प्रयोग से कुए ने लाखों असाध्य रोगियों को ठीक किया।
अब तो पश्चिम में फेथ हीलिंग की एक समूची प्रक्रिया ही चल पड़ी है। यह और कुछ नहीं कल्पना शक्ति की प्रगाढ़ता से होने वाले परिणामों की चमत्कारी विधि है। इसकी महत्ता को न समझ करके हम इस बेशकीमती शक्ति का भारी दुरुपयोग करते हैं। परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे- कल्पना का सर्वश्रेष्ठ उपयोग शाश्वत अनन्तता की अनुभूति में है। विश्व चिन्तन ने मनुष्य जाति को जो सर्वश्रेष्ठ कल्पनाएँ दी हैं, उनमें श्रेष्ठतम कल्पनाएँ उपनिषदों में है। इनमें से किसी एक को भी अपनाकर हम अपने जीवन को सार्थक कर सकते हैं। सोऽहम्, अहं ब्रह्मास्मि जैसे श्रेष्ठतम महत्त्वाकांक्षाओं को जीवन में धारण कर कल्पना शक्ति की सहायता से उस परम तत्त्व की अनुभूति पायी जा सकती है।
मन की चौथी वृत्ति निद्रा है। निद्रा मन की अद्भुत जीवनदायिनी शक्ति है। चिकित्साशास्त्री हमें बताते हैं कि नैसर्गिक निद्रा शारीरिक स्वास्थ्य के लिए बहुत अनिवार्य है। वैसा इसका अध्यात्मिक पक्ष भी है। हालाँकि इससे विरले साधक ही परिचित हो पाते हैं। सामान्य लोग तो नैसर्गिक निद्रा का भी आनन्द नहीं उठा पाते। क्योंकि निद्रा मन की समग्र निर्विषय अवस्था है। कोई क्रिया, कोई चेष्टा मन में नहीं है, ऐसी अवस्था। जिसमें मन को सम्पूर्ण विश्रान्ति है। यह बड़ी सुन्दर, सुमधुर एवं जीवनदायिनी अवस्था है। पर इसका लाभ कम ही लोग उठा पाते हैं। अधिकांश तो स्वप्रों के मकड़जाल में उलझते रहते हैं। वे निद्रा के आनन्दमय संगीत से हमेशा वंचित रहते हैं।
जबकि योग साधक आचार्य शंकर के शब्दों में ‘निद्रा समाधिस्थितिः’ का आनन्द उठाते हैं। क्योंकि मन की समग्र निर्विषय अवस्था में यदि जागरूक हुआ जा सके, तो समाधि फलित हो जाती है। सचमुच ही निद्रा में सब कुछ वैसा ही होता है, जैसा कि समाधि में होता है। बस, जागरूकता नहीं होती। आन्तरिक जागरूकता सध जाने पर भी शरीर सोया रहता है, मन विश्रान्ति में रहता है और आन्तरिक चेतना पूर्णतया जाग्रत् होती है। परम पूज्य गुरुदेव की निद्रा ऐसी ही होती थी। सामान्य साधक इसमें धीरे- धीरे उतर सकते हैं। इस भावदशा में उतरने पर निद्रा समाधि का आनन्दोल्लास बन जाती है।
मन की पाँचवी एवं अन्तिम वृत्ति है- स्मृति। इस शक्ति का भी जीवन में प्रायः दुरुपयोग ही होता है। यदि जो घटना जैसे घटी है, उसे ठीक तरह से याद रखकर उसकी सच्चाई को जाना जाय, तो एक अनूठी ध्यान साधना जन्म लेती है। पर हममे से प्रायः किसी के जीवन में ऐसा हो नहीं पाता। हमारा अपना जीवन, तो बस स्मृतियों का एक बड़ा गोदाम भर है। जिसमें अगणित स्मृतियाँ यूँ ही बेतरतीब पड़ी हुई हैं। कौन स्मृति कहाँ किस स्मृति में जा मिली है? कोई ठिकाना नहीं है। स्मृतियों की यह गड़बड़ जब- तब हमारे सपनों में उलझती रहती है। ध्यान- साधना ही वह उपाय है, जिससे कि स्मृति को योग साधना का रूप दिया जा सकता है। भगवान् बुद्ध ने इसीलिए ध्यान को ‘सम्यक् स्मृति’ भी कहा है। इस साधना से अपने अतीत को, अपने विगत जन्मों को जानकर एक नए साधनामय जीवन की सृष्टि की जा सकती है।
प्रमाणविपर्यय विकल्पनिद्रास्मृतयः॥ १/६॥
यानि कि ये वृत्तियां हैं- प्रमाण (सम्यक् ज्ञान), विपर्यय (मिथ्याज्ञान), विकल्प (कल्पना), निद्रा और स्मृति। ये पाँचों वृत्तियाँ मन की पाँच सम्भावनाएँ हैं, मन के पाँच रहस्य हैं। इन्हें जान- समझ लेने पर समूचे मन को जान- समझ लिया जाता है। इन पाँच वृत्तियों को मन की पाँच शक्तियाँ भी कहा जा सकता है, जिनके सही सदुपयोग से जीवन सहस्रदल कमल की भांति पुष्पित एवं सुरभित हो उठता है।
इस बारे में परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि जीवन को समझना है, तो मन को समझना होगा और मन को समझने के लिए मन की पाँचों वृत्तियों को जान लेना बहुत जरूरी है। तो शुरूआत पहली वृत्ति से करते हैं। यह पहली वृत्ति है ‘प्रमाण’ यानि कि सम्यक् ज्ञान। ‘प्रमाण’ संस्कृत भाषा का बहुत गहरा शब्द है। इसकी गहराई इस कदर है कि किसी भी अन्य भाषा में इसका एकदम सही अनुवाद सम्भव नहीं। यह जो सम्यक् ज्ञान कहा गया, वह ‘प्रमाण’ का सही अर्थ नहीं, बल्कि अर्थ की हल्की सी छाया भर है। दरअसल प्रमाण मूल शब्द ‘प्रमा’ से आया है। इसका भावार्थ है- सत्य- अनुभव। इस प्रमा का करण यानि की प्रमाण। सार संक्षेप में प्रमाण को यथार्थ अनुभव सा सत्य अनुभव करने की शक्ति कहा जा सकता है।
महर्षि पतंजलि कहते हैं कि यह शक्ति मन में है। परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि प्रमाण हमारे मन की वह उच्चतम क्षमता है, जो सामान्य क्रम में अविकसित अथवा अल्प विकसित या अर्धविकसित दशा में होती है। यदि यह क्षमता ठीक तरह से विकसित या जाग्रत् हो जाए, तो फिर जो कुछ भी जाना जाय सत्य होता है। साधारण तौर पर प्रायः मन की यह शक्ति अविकसित ही रह जाती है। इसका प्रयोग हो ही नहीं पाता। मन की इस शक्ति को समझने के लिए पूज्य गुरुदेव एक उदाहरण दिया करते थे। वह कहते थे- ‘मान लो तुम जिस घर में रहते हो, उस घर में बिजली- बत्ती तो है, पर उसके स्विच का तुम्हें पता नहीं। एकदम घनघोर- घुप अन्धेरा वहाँ छाया रहता है। अब तुम्हें रहना उसी घर में है, और स्विच के बारे में तुम्हें पता नहीं है, तो क्या स्थिति होगी? बस जैसे- तैसे टटोल कर काम चलाना पड़ेगा। कई बार ठोकरें लगेंगी। यह भी हो सकता है कि कई बार सिर फूटे और पैर टूटे। इस अंधेरे के कारण न जाने कितनी मुश्किलें खड़ी होंगी।’
अब यदि किसी तरह प्रयास, प्रयत्न से अथवा गुरुकृपा या भगवत्कृपा से बिजली का स्विच मिल जाय, यही नहीं वह स्विच ऑन हो जाय और घर के कोने- कोने में रोशनी बिखर जाय, हर ओर उजियारा फैल जाय, तो एक पल में सारी परेशानियाँ, सारी मुश्किलें समाप्त हो जाएँगी। फिर सब कुछ साफ- साफ नजर आएगा। सत्य प्रश्र या जिज्ञासा की विषय वस्तु न बनकर जीवन का अनुभव हो जाएगा। बस यही है प्रमाणवृत्ति। इसके विकसित होने का मतलब है कि हाथ में स्विच आ गया। कहीं किसी तरह की कोई भटकन नहीं। किसी से कुछ पूछने की भी जरूरत नहीं। किसी तरह के भ्रम अथवा सन्देह की भी कोई गुंजाइश नहीं।
बुद्ध, महावीर, श्री रामकृष्ण परमहंस, महर्षि रमण या फिर स्वयं परम पूज्य गुरुदेव इन सबमें इस प्रमाणवृत्ति की स्वाभाविक जागृति थी। गुरुदेव अपने जीवन काल में हजारों जगह गए और वहाँ लाखों लोगों से मिले। लोगों से मिलने का यह सिलसिला तब भी चलता रहा, जब उन्होंने कहीं भी आना- जाना बन्द कर दिया। जहाँ कोई जो भी मिला, गुरुदेव ने उसके प्रश्रों का बड़ी सहजता से समाधान कर दिया। कई बार तो पूछने वाले ने संकोचवश प्रश्र पूछा भी नहीं, और गुरुदेव ने उसके सवाल का सही जवाब दे दिया। उनके प्रवचनों में यह बात रोज ही देखी जाती थी। उस समय जिस किसी व्यक्ति की जो भी जिज्ञासा, शंका या प्रश्र होते, गुरुदेव उसी का समाधान करते। उनके प्रवचनों में एक साथ अनेकों के समाधान का सिलसिला चलता रहता था।
किसी के पूछने पर वह हँस देते और कहते- अरे भाई! तुम सोचते हो, टटोलते हो, उलझते हो और मैं सब कुछ साफ- साफ देखता हूँ। मुझे तुम्हारा प्रश्र भी दिखाई देता है, उत्तर भी। मुझे तो तुम्हारे वे अजन्मे सवाल भी दिखाई देते हैं जो कल जन्म लेंगे। साथ ही वे समाधान भी नजर आते हैं, जिनकी तुम्हें कल जरूरत होगी। यह होती है—प्रमाण वृत्ति। इसके विकास का मतलब है सहज बोध की प्राप्ति। फिर उधार के विचारों की, किसी तरह के तर्कजाल की, बौद्धिक जोड़- तोड़ की कोई जरूरत नहीं। गुरुदेव कहते थे कि गायत्री महामंत्र की भावभरी साधना से मन की यह शक्ति अपने आप ही कुछ वर्षों में जाग जाती है। साथ ही इस शक्ति के जागरण में अवरोध उत्पन्न करने वाली शक्ति समूल नष्ट हो जाती है।
यह अवरोधक शक्ति मन की दूसरी वृत्ति है, जिसका नाम है विपर्यय। विपर्यय का मतलब है, मिथ्या ज्ञान। मिथ्या ज्ञान का मतलब है कि है कुछ, पर दिखता है कुछ। है रस्सी, पर नजर आ रहा है साँप। प्रायः जीवन में यह स्थिति बेहोशी भरे अंधकार के कारण पनपती है। जैसे शराबी, भँगेड़ी, नशा गाढ़ा होने पर कुछ अजीबोगरीब अनुभूतियाँ करते हैं। वैसे ही इन्द्रिय लालसाओं, मानसिक वासनाओं एवं कामनाओं के ज्वार में भी इस मिथ्या ज्ञान की बाढ़ आती है। सारी उम्र कभी न खत्म होने पर भटकन की पर्याय बन जाती है। ध्यान रहे इस विपर्यय की समाप्ति ही प्रमाण का जागरण है। योग साधकों को अपने प्रयासों की दिशा इसी प्रमाण वृत्ति के जागरण की ओर मोड़नी होगी। लालसाओं, वासनाओं एवं कामनाओं का नशा उतरते ही मन की विपर्यय का अवसान हो जाता है।
तीसरी वृत्ति विकल्प अथवा कल्पना है। यह मन की बड़ी अद्भुत शक्ति है। सामान्य जन इस शक्ति का दुरुपयोग करते हुए प्रायः ख्याली पुलाव पकाते रहते हैं। लेकिन जिन्हें इस शक्ति का थोड़ा- बहुत सदुपयोग करना आ जाता है, वे कवि या कलाकार बन जाते हैं। इस विकल्प वृत्ति का उत्कृष्ट उपयोग ही उनकी कला की उत्कृष्टता की पहचान बनता है। गुरुदेव कहते थे—विकल्प वृत्ति या कल्पना साधारण चीज नहीं है। यह योगियों, साधकों एवं मनस्वियों की चेतना शक्ति का माध्यम बनती है। इसके माध्यम से उनके प्राण प्रवाहित होते हैं। पश्चिम में एक मनोवैज्ञानिक हुए हैं- ‘कुए’। उसने अपने अनगिनत प्रयोगों से कल्पना शक्ति के चमत्कार को साबित कर दिखाया। उसने इस शक्ति का प्रयोग बड़े कठिन एवं जटिल रोगों से ग्रसित लोगों पर किया। अपने प्रयोगों में उसने इन रोगियों से कहा- ‘तुम अपने मन में प्रगाढ़ कल्पना करो कि मैं स्वस्थ हो रहा हूँ। अपना हर पल- हर क्षण इसी कल्पना में बिताओ।’ इस प्रयोग से कुए ने लाखों असाध्य रोगियों को ठीक किया।
अब तो पश्चिम में फेथ हीलिंग की एक समूची प्रक्रिया ही चल पड़ी है। यह और कुछ नहीं कल्पना शक्ति की प्रगाढ़ता से होने वाले परिणामों की चमत्कारी विधि है। इसकी महत्ता को न समझ करके हम इस बेशकीमती शक्ति का भारी दुरुपयोग करते हैं। परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे- कल्पना का सर्वश्रेष्ठ उपयोग शाश्वत अनन्तता की अनुभूति में है। विश्व चिन्तन ने मनुष्य जाति को जो सर्वश्रेष्ठ कल्पनाएँ दी हैं, उनमें श्रेष्ठतम कल्पनाएँ उपनिषदों में है। इनमें से किसी एक को भी अपनाकर हम अपने जीवन को सार्थक कर सकते हैं। सोऽहम्, अहं ब्रह्मास्मि जैसे श्रेष्ठतम महत्त्वाकांक्षाओं को जीवन में धारण कर कल्पना शक्ति की सहायता से उस परम तत्त्व की अनुभूति पायी जा सकती है।
मन की चौथी वृत्ति निद्रा है। निद्रा मन की अद्भुत जीवनदायिनी शक्ति है। चिकित्साशास्त्री हमें बताते हैं कि नैसर्गिक निद्रा शारीरिक स्वास्थ्य के लिए बहुत अनिवार्य है। वैसा इसका अध्यात्मिक पक्ष भी है। हालाँकि इससे विरले साधक ही परिचित हो पाते हैं। सामान्य लोग तो नैसर्गिक निद्रा का भी आनन्द नहीं उठा पाते। क्योंकि निद्रा मन की समग्र निर्विषय अवस्था है। कोई क्रिया, कोई चेष्टा मन में नहीं है, ऐसी अवस्था। जिसमें मन को सम्पूर्ण विश्रान्ति है। यह बड़ी सुन्दर, सुमधुर एवं जीवनदायिनी अवस्था है। पर इसका लाभ कम ही लोग उठा पाते हैं। अधिकांश तो स्वप्रों के मकड़जाल में उलझते रहते हैं। वे निद्रा के आनन्दमय संगीत से हमेशा वंचित रहते हैं।
जबकि योग साधक आचार्य शंकर के शब्दों में ‘निद्रा समाधिस्थितिः’ का आनन्द उठाते हैं। क्योंकि मन की समग्र निर्विषय अवस्था में यदि जागरूक हुआ जा सके, तो समाधि फलित हो जाती है। सचमुच ही निद्रा में सब कुछ वैसा ही होता है, जैसा कि समाधि में होता है। बस, जागरूकता नहीं होती। आन्तरिक जागरूकता सध जाने पर भी शरीर सोया रहता है, मन विश्रान्ति में रहता है और आन्तरिक चेतना पूर्णतया जाग्रत् होती है। परम पूज्य गुरुदेव की निद्रा ऐसी ही होती थी। सामान्य साधक इसमें धीरे- धीरे उतर सकते हैं। इस भावदशा में उतरने पर निद्रा समाधि का आनन्दोल्लास बन जाती है।
मन की पाँचवी एवं अन्तिम वृत्ति है- स्मृति। इस शक्ति का भी जीवन में प्रायः दुरुपयोग ही होता है। यदि जो घटना जैसे घटी है, उसे ठीक तरह से याद रखकर उसकी सच्चाई को जाना जाय, तो एक अनूठी ध्यान साधना जन्म लेती है। पर हममे से प्रायः किसी के जीवन में ऐसा हो नहीं पाता। हमारा अपना जीवन, तो बस स्मृतियों का एक बड़ा गोदाम भर है। जिसमें अगणित स्मृतियाँ यूँ ही बेतरतीब पड़ी हुई हैं। कौन स्मृति कहाँ किस स्मृति में जा मिली है? कोई ठिकाना नहीं है। स्मृतियों की यह गड़बड़ जब- तब हमारे सपनों में उलझती रहती है। ध्यान- साधना ही वह उपाय है, जिससे कि स्मृति को योग साधना का रूप दिया जा सकता है। भगवान् बुद्ध ने इसीलिए ध्यान को ‘सम्यक् स्मृति’ भी कहा है। इस साधना से अपने अतीत को, अपने विगत जन्मों को जानकर एक नए साधनामय जीवन की सृष्टि की जा सकती है।