Books - गायत्री सर्वतोन्मुखी समर्थता की अधिष्ठात्री
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Language: HINDI
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साधकों के लिए कुछ आवश्यक नियम
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गायत्री साधना करने वालों के लिए कुछ आवश्यक जानकारियाँ नीचे दी जाती हैं-
१. शरीर को शुद्ध करके साधना पर बैठना चाहिए, साधारणतः स्नान द्वारा ही शरीर की शुद्धि होती है। पर किसी विशेषता, ऋतु प्रतिकूलता य अस्वस्थता की दशा में हाथ- मुँह धोकर या गीले कपड़े से शरीर पोंछकर भी काम चलाया जा सकता है।
२. साधना के समय शरीर पर कम से कम वस्त्र रहना चाहिए। शीत की अधिकता हो तो कसे हुए कपड़े पहनने की अपेक्षा कम्बल आदि ओढ़कर शीत- निवारण कर लेना उत्तम है ।।
३. साधना के लिए एकान्त, खुली हवा की ऐसी जगह ढूँढ़नी चाहिए जहाँ का वातावरण शान्तिमय हो। खेत, बगीचा, जलाशय का किनारा, देव मन्दिर इस कार्य के लिए उपयुक्त होते हैं पर जहाँ ऐसा स्थान मिलने में असुविधा हो वहाँ घर का कोई स्वच्छ और शान्त भाग भी चुना जा सकता है ।।
४. धुला हुआ वस्त्र पहन कर साधना करना उचित है।
५. पालथी मारकर सीधे साधे ढंग से बैठना चाहिए। कष्टसाध्य आसन लगाकर बैठने से शरीर को कष्ट होता है और मन बार- बार उचटता है इसलिए ऐसी तरह बैठना चाहिए कि देर तक बैठने में असुविधा न हो ।।
६. रीढ़ की हड्डी को सदा रखना चाहिए ।। कमर झुकाकर बैठने से मेरुदण्ड टेढ़ा हो जाता है और सुषुम्ना नाड़ी में प्राण का आवागमन होने में बाधा पड़ती है ।।
७. बिना बिछाये जमीन पर साधना करने के लिये न बैठना चाहिए ।। इससे जमीन पर साधना- काल में उत्पन्न होने वाली शारीरिक विद्युत जमीन में उतर जाती है ।। घास या पत्तों से बने हुए आसन सर्वश्रेष्ठ है। कुशा का आसन, चटाई, रस्सियों का बना हुआ फर्श सबसे अच्छा है। इसके बाद सूती आसनों का नम्बर है ।। ऊन के तथा चर्म के आसन तांत्रिक कार्यों में प्रयुक्त होते हैं ।।
८. माला तुलसी या चन्दन की लेनी चाहिए। रुद्राक्ष, लाल चन्दन, शंख, मोती आदि की माला गायत्री के तांत्रिक प्रयोगों में प्रयुक्त होती है ।।
९. प्रातःकाल दो घण्टे तड़के जप प्रारम्भ किया जा सकता है। सूर्य अस्त होने के एक घण्टे बाद तक जप समाप्त कर लेना चाहिए ।। १ घण्टा शाम को, ३ घण्टा सवेरे कुल तीन घण्टों को छोड़कर रात्रि के अन्य भागों में गायत्री की दक्षिण मार्गी साधना नहीं करनी चाहिए ।। तान्त्रिक साधनायें अर्धरात्रि के आस- पास की जा सकती हैं।
१०. साधना के लिये पाँच बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए -(अ) चित्त एकाग्र रहे, इधर- उधर न उछलता फिरे ।। यदि चित्त बहुत दौड़े तो उसे माता की सुन्दर छवि के ध्यान में लगाना चाहिए ।। (ब) माता के प्रति अगाध श्रद्धा और विश्वास हो। अविश्वासी और शंका शंकित मति वाले पूरा लाभ नहीं पा सकते। (स) दृढ़ता के साथ साधना पर अड़े रहना चाहिए। अनुत्साह, मन उचटना, नीरसता प्रतीत होना, जल्दी लाभ न मिलना, अस्वस्थता तथा अन्य सांसारिक कठिनाइयों का मार्ग में आना साधना के विघ्न हैं ।। इन विघ्नों से लड़ते हुये अपने मार्ग पर दृढ़तापूर्वक बढ़ते जाना चाहिए। (द) निरन्तरता साधना का मुख्य नियम है। अत्यन्त आवश्यक कार्य होने या विषय स्थिति आने पर भी किसी न किसी रूप में चलते- फिरते भी सही, पर माता की उपासना अवश्य करनी चाहिए। किसी भी दिन नागा या भूल न करनी चाहिए ।। (य) समय को रोज- रोज न बदलना चाहिए। कभी सबेरे, कभी दोपहर, कभी तीन बजे तो कभी दस बजे, ऐसी अनियमितता ठीक नहीं। इन पाँचों नियमों के साथ की गई साधना बड़ी प्रभावशाली होती है।
११. कम से कम एक माला अर्थात् १०८ मन्त्र नित्य अवश्य जपने चाहिए, इससे अधिक जितने बन पड़े उतने उत्तम हैं ।।
१२. प्रातःकाल की साधना के लिये पूर्व को मुँह करके बैठना चाहिए। और शाम को पश्चिम को मुँह करक। प्रकाश की ओर, सूर्य की ओर, मुंह उचित है।
१३. पूजा के लिए फूल न मिलने पर चावल या नारियल की गिरी को कद्दूकस पर कसकर उसके बारीक पत्रों को काम में लाना चाहिए। यदि किसी विधान में रंगीन पुष्पों की आवश्यकता हो तो चावल या गिरी के पत्रों को केशर, हल्दी गेरू, मेंहदी के देशी रंगों से रंगा जा सकता है। विदेशी अशुद्ध चीजों से बने रंग काम में नहीं लेने चाहए ।।
१४ मन्त्र जप इस प्रकार करना चाहिए जिसमें कण्ठ, होठ, जिह्वा तो चलते रहें, पर उच्चारण इतना मन्द हो कि पास में बैठा हुआ व्यक्ति भी उसे ठीक तरह न सुन सके ।।
१५. पूजा के समय कलश रूप में जल- पात्र रखना चाहिए और अग्नि की साक्षी के लिए दीपक या धूपबत्ती जला लेनी चाहिए। इस प्रकार अग्नि और जल की साक्षी में किया हुआ जप अधिक प्रभावशाली होता है। आचमन के लिए जल- पात्र अलग से रखना चाहिए। पूजा के अन्त में कलश रूप में स्थापित जल सूर्य की दिशा में प्रातःकाल पूर्व में और सायंकाल पश्चिम में अर्ध्य जल को चढ़ा दिया जाय।
१६. महिलाएँ मासिक धर्म के दिनों में माला सहित जप न करें ।। अंगुलियों पर गिनकर मानसिक जप किसी भी स्थिति में किया जा सकता है।
१७. शाप मोचन, मुद्रा, कवच, कीलक, अर्मल आदि की आवश्यकता तांत्रिक पुरश्चरणों में पड़ती है, साधारण उपासना में उनकी आवश्यकता नहीं है।
१८. गायत्री को गुरू मन्त्र कहा गया है। जिसने कम से कम २४ लक्ष का एक गायत्री पुरश्चरण किया हो ऐसे अधिकारी गुरू से गायत्री की मन्त्र दीक्षा लेकर उपासना करना लाभप्रद होता है ।।
१९.स्त्रियों को भी पुरूषों की तरह ही गायत्री उपासना का पूर्ण अधिकार है।
२०. यज्ञोपवीत धारण करके गायत्री उपासना करना अधिक श्रेयस्कर है। पर किसी कारणवश कोई उसे धारण न कर सके तो भी गायत्री उपासना बिना यज्ञोपवीत के हो ही न सकेगी, ऐसा प्रतिबन्ध नहीं है।
२१. रात्रि में भी जप हो सकता है, पर उस समय मानसिक जप करना चाहिए ।।
२२. देर तक पालथी से, एक आसन से, बैठा रहना कठिन होता है, इसलिए जब एक तरह से बैठे- बैठे थक जावें तब उन्हें बदला जा सकता है। इसे बदलने में कोई दोष नहीं है।
२३. मल- मूत्र का त्याग या अन्य किसी अनिवार्य के लिए साधना के बीच उठना ही पड़े तो शुद्ध जल से हाथ- मुँह धोकर तब दुबारा बैठना चाहिए और विक्षेप के लिए एक माला का अतिरिक्त जप प्रायश्चित स्वरूप करना चाहिए ।।
२४. यदि किसी दिन अनिवार्य कारण से साधना स्थगित करना पड़े तो दूसरे दिन एक माला का अतिरिक्त जम दंड स्वरूप करना चाहिए ।।
२५. जन्म या मृत्यु के सूतक हो जाने पर शुद्धि होने तक माला आदि की सहायता से किये जाने वाला विधिवत् जप स्थगित रखना चाहिए। केवल मानसिक जप, मन ही मन चालू रख सकते हैं। यदि इस प्रकार का अवसर सवा लक्ष जप के अनुष्ठान- काल में आ जावे तो उतने दिनों अनुष्ठान स्थगित रखना चाहिए। सूतक- निवृत होने पर उसी संख्या में प्रारम्भ किया जा सकता है जहाँ से छोड़ा था। इस विक्षेप काल की शुद्धि के लिए एक हजार जप विशेष रूप से करना चाहिए।
२६. लम्बे सफर में होने, स्वयं रोगी हो जाने या तीव्र रोगी की सेवा में संलग्न रहने की दशा में स्नान आदि पवित्रता की सुविधा नहीं रहती ।। ऐसी दशा में मानसिक जप चालू रखना चाहिए। मानसिक जप बिस्तर पर पड़े- पड़े , रास्ता चलते या किसी पवित्र- अपवित्र दशा में किया जा सकता है।
२७. साधक का आहार- विहार सात्विक होना चाहिए। आहार में सतोगुण, सादा, सुपाच्य, ताजे तथा पवित्र हाथों से बनाये हुए पदार्थ होने चाहिए ।। अधिक मिर्च, मसाले वाले तले हुए पकवान, मिष्ठान्न, बासी, बुरे, दुर्गन्धित, मांस, नशीले, अभक्ष्य, उष्ण, दाहक, अनीति उपार्जित, गन्दे मनुष्य द्वारा बनाये हुए, तिरस्कारपूर्वक दिये हुए भोजन से जितना बचा जा सकेगा उतना ही अच्छा होगा ।।
२८. व्यवहार भी उतना ही प्राकृतिक, धर्म- संगत, सरल एवं सात्विक रह सके, उतना ही अच्छा है। फैशनपरस्ती, रात्रि में अधिक जागना, दिन में सोना, सिनेमा, नाच- रंग अधिक देखना, परनिन्दा, छिद्रान्वेषण, कलह, दुराचार, ईर्ष्या, निष्ठुरता, आलस्य, प्रमाद, मद, मत्सर आदि से जितना बचा जा सके बचने का प्रयत्न करना चाहिए।
२९. यों ब्रह्मचर्य तो सदा ही उत्तम है, पर गायत्री- अनुष्ठान के ४० दिनों में विशेष आवश्यकता है।
अनुष्ठान के कुछ विशेष नियमों का पालन करना पड़ता है, कुछ विशेष तपश्चर्यायें करनी होती हैं। तपश्चर्याओं का महत्व और स्वरूप इसी पुस्तक के भिन्न अध्याय में दर्शाया गया है। जप की तरह तप भी जितना किया जा सके शुभ ही है। किन्तु वर्तमान जीवन क्रम में अधिक कठोर तपश्चर्यायें अनुकूल नहीं पड़ती। फिर भी अनुष्ठानों के साथ कुछ नियम तो बनाने ही चाहिए। आज की स्थिति में सर्वोपयोगी या न्यूनतम तपश्चर्याओं के रूप में ५ नियम नीचे दिये जा रहे हैं
(क) अनुष्ठान काल में ब्रह्मचर्य का पालन करना ।। यह आत्म नियंत्रण की अंतःशक्ति को सुनियोजित करने के लिए है ।।
(ख) उपवास का काई क्रम अपनाना। पेय पदार्थ पर रहना, फल, शाक तक सीमित रहना, एक समय आहार का क्रम, अस्वाद व्रत का पालन जैसे व्रतों को इस क्रम में अपनी शक्ति एवं श्रद्धा के अनुसार अपनाया जाय ।।
(ग) चारपाई पर न सोना, तख्त या धरती पर सामान्य कपड़े बिछा कर सोना। यह तितीक्षा वृत्ति के विकास की दृष्टि से है ।।
(घ) अपने शरीर की सेवायें स्वयं करना ।। दाढ़ी बनाना, वस्त्र धोना आदि क्रम स्वयं करना, दूसरों से न कराना। यह स्वावलम्बन एवं सेवा वृत्ति के विकास के लिए साधना चाहिए ।। अपने शरीर एवं वस्त्रों का स्पर्श यथा साध्य दूसरों से न होने देना भी उचित है ।।
(ङ) चमड़े के जूतों का उपयोग न करना ।। अनुष्ठान काल में अधिक समय नंगे पैर नहीं चलना चाहिए, किन्तु चमड़े के जूतों का प्रयोग न करें ।।
अधिकतर चमड़ा हत्या द्वारा प्राप्त किया जाता है। उसमें क्रूरता के संस्कार रहते हैं। साधक को सद्भावना एवं संवेदना के वातावरण में रहना चाहिए। सार्वभौम आत्मीयता की दृष्टि से यह साधना अपनाई जाती है।
३०. एकान्त में जप करते समय भला माला खुले रूप से जपनी चाहिए। जहाँ बहुत आदमियों की दृष्टि पड़ती हो, वहाँ कपड़े से ढक लेना चाहिए या गोमुखी में हाथ डाल लेना चाहिए ।।
३१. माला जपते समय सुमेरु (माला के आरम्भ का सबसे बड़ा दाना) का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। एक माला पूरी करके उसे मस्तक तथा नेत्रों से लगाकर पीछे की तरफ उलटा ही वापिस कर लेना चाहिए। इस प्रकार माला पूरी होने पर हर बार उलट कर ही नया आरम्भ करना चाहिए।
३२. साधना के उपरान्त पूजा के बचे हुए अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, फूल, जल, दीपक की बत्ती हवन की भस्म आदि की यों ही जहाँ- तहाँ ऐसी जगह नहीं फेंक देना चाहिए जहाँ पर पैर तले कुचलती फिरे। किसी तीर्थ, नदी, जलाशय, देव- मन्दिर, कपास, जौ, चावल का खेत आदि पवित्र स्थानों पर विसर्जन करना चाहिए। चावल चिड़ियों के लिए डाल देना चाहिए। नैवेद्य आदि बालकों को बाँट देना चाहिए ।। जल का सूर्य के सम्मुख अर्घ्य देना चाहिए ।।
३३. वेद मन्त्रों क सस्वर उच्चारण करना उचित होता है। पर सब लोग यथाविधि सस्वर गायत्री का उच्चारण नहीं कर सकते। इसलिए जप इस प्रकार करना चाहिए कि कण्ठ से ध्वनि होती रहे, होठ हिलते रहें पर पास बैठा हुआ मनुष्य भी स्पष्ट रूप से मन्त्र को न सुन सके। इस प्रकार किया जप स्वर बन्धनों से मुक्त होता है।
३४. गायत्री साधना माता की चरण वन्दना के समान है, यह कभी निष्फल नहीं होती। उलटा परिणाम भी नहीं होता, भूल हो जाने से अनिष्ट होने की कोई आशंका नहीं। इसलिए निर्भय और प्रसन्नचित्त से उपासना करनी चाहिए। अन्य मन्त्र अविधिपूर्वक जपे जाने पर अनिष्ट करते हैं, पर गायत्री में यह बात नहीं है। वह सर्व सुलभ, अत्यन्त सुगम और सब प्रकार सुसाध्य है। हाँ, तान्त्रिक विधि से की गई उपासना पूर्ण विधि- विधान के साथ होनी चाहिए उसमें अन्तर पड़ना हानिकारक है।
३५. जैसे मिठाई को अकेले- अकेले ही चुपचाप ख लेना और समीपवर्ती लोगों को उसे न चखाना बुरा है, वैसे ही गायत्री साधना को स्वयं तो करते रहना, पर अन्य प्रियजनों, मित्रों, कुटुम्बियों को उसके लिए प्रोत्साहित न करना एक बहुत बड़ी बुराई तथा भूल है। इस बुराई से बचने के लिए हर साधक को चाहिए कि अधिक से अधिक लोगों को इस दिशा में प्रोत्साहित करे।
३६. अपनी पूजा सामग्री ऐसी जगह रखनी चाहिए जिसे अन्य लोग अधिक स्पर्श न करें ।।
३७. कोई बात समझ में न आती हो या सन्देह हो तो जवाबी पत्र भेजकर ‘शान्तिकुंज’ हरिद्वार से उसका समाधान कराया जा सकता है।
३८. गायत्री का अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि सभी वर्णों को है। वर्ण जन्म से भी होते हैं और गुण, कर्म स्वभाव से भी। आजकल जन्म से जातियों में बड़ी गड़बड़ी हो गई है। कई उच्च वर्ण समय के फेर से नीच वर्णों में गिने जाने लगे हैं और कई नीच वंश उच्च कहलाते हैं। ऐसे लोग अपनी वर्तमान सामाजिक स्थिति को ही ध्यान में रखें पर गायत्री महाशक्ति की आराधना से कोई वंचित न रहें। नवयुग की- प्रज्ञायुग की यही आधारशिला है।
३९. साधना की अनेकों विधियाँ हैं। अनेक लोग अनेक प्रकार से करते हैं। अपनी साधना विधि दूसरों को बताई जाय तो कुछ न कुछ मीन मेख निकाल कर संदेह और भ्रम उत्पन्न कर देते हैं। इसलिए अपनी साधना विधि हर किसी को नहीं बतानी चाहिए ।। यदि दूसरे मतभेद प्रकट करें तो अपने साधना गुरू के आदेश को ही सर्वोपरि मानना चाहिए। यदि कोई दोष की बातें होंगी, तो उसका पाप और उत्तरदायित्व उस साधना गुरू पर पड़ेगा। साधक को निर्दोष और श्रद्धा युक्त होने से सच्ची साधना का ही फल पायेगा। वाल्मीकि जी राम नाम उल्टा जप कर भी सिद्ध हो गये थे।
४०. तप और हवन की तरह अनुष्ठानों के साथ दान की परम्परा भी जुड़ी है। दान देवत्व का प्रतीक है। दान किसी को कुछ भी दे देना नहीं है। किसी व्यक्ति के हित की, कल्याण की भावना से प्रेरित होकर विचार पूर्वक दिया गया दान ही ‘दान’ कहला सकता है। दानों में धन दानों की अपेक्षा जल दान, अन्न दान, वस्त्र दान आदि का महत्त्व अधिक है। किन्तु इन सबसे अधिक फलप्रद ज्ञान- दान है।
गायत्री साधना के साथ दान परम्परा में जोड़ने योग्य उपयोगी प्रक्रिया है। लोगों को इस परम कल्याणकारी धारा से जोड़ना, गायत्री उपासना जैसे महान कल्याण कारक साधन को लोग भूल बैठे हैं। इसका मूल कारण गायत्री के महत्त्व, माहात्म्य एवं विज्ञान की जानकारी न होना है। जानकारी को फैलाने से ही पुनः संसार में गायत्री माता का दिव्य प्रकाश फैलेगा और असंख्यों हीन दशा में पड़ी हुई आत्मायें महापुरूष बनेंगी। इसलिए गायत्री का ज्ञान फैलाना भी अनुष्ठान की भाँति ही महान पुण्य कार्य है।
१. शरीर को शुद्ध करके साधना पर बैठना चाहिए, साधारणतः स्नान द्वारा ही शरीर की शुद्धि होती है। पर किसी विशेषता, ऋतु प्रतिकूलता य अस्वस्थता की दशा में हाथ- मुँह धोकर या गीले कपड़े से शरीर पोंछकर भी काम चलाया जा सकता है।
२. साधना के समय शरीर पर कम से कम वस्त्र रहना चाहिए। शीत की अधिकता हो तो कसे हुए कपड़े पहनने की अपेक्षा कम्बल आदि ओढ़कर शीत- निवारण कर लेना उत्तम है ।।
३. साधना के लिए एकान्त, खुली हवा की ऐसी जगह ढूँढ़नी चाहिए जहाँ का वातावरण शान्तिमय हो। खेत, बगीचा, जलाशय का किनारा, देव मन्दिर इस कार्य के लिए उपयुक्त होते हैं पर जहाँ ऐसा स्थान मिलने में असुविधा हो वहाँ घर का कोई स्वच्छ और शान्त भाग भी चुना जा सकता है ।।
४. धुला हुआ वस्त्र पहन कर साधना करना उचित है।
५. पालथी मारकर सीधे साधे ढंग से बैठना चाहिए। कष्टसाध्य आसन लगाकर बैठने से शरीर को कष्ट होता है और मन बार- बार उचटता है इसलिए ऐसी तरह बैठना चाहिए कि देर तक बैठने में असुविधा न हो ।।
६. रीढ़ की हड्डी को सदा रखना चाहिए ।। कमर झुकाकर बैठने से मेरुदण्ड टेढ़ा हो जाता है और सुषुम्ना नाड़ी में प्राण का आवागमन होने में बाधा पड़ती है ।।
७. बिना बिछाये जमीन पर साधना करने के लिये न बैठना चाहिए ।। इससे जमीन पर साधना- काल में उत्पन्न होने वाली शारीरिक विद्युत जमीन में उतर जाती है ।। घास या पत्तों से बने हुए आसन सर्वश्रेष्ठ है। कुशा का आसन, चटाई, रस्सियों का बना हुआ फर्श सबसे अच्छा है। इसके बाद सूती आसनों का नम्बर है ।। ऊन के तथा चर्म के आसन तांत्रिक कार्यों में प्रयुक्त होते हैं ।।
८. माला तुलसी या चन्दन की लेनी चाहिए। रुद्राक्ष, लाल चन्दन, शंख, मोती आदि की माला गायत्री के तांत्रिक प्रयोगों में प्रयुक्त होती है ।।
९. प्रातःकाल दो घण्टे तड़के जप प्रारम्भ किया जा सकता है। सूर्य अस्त होने के एक घण्टे बाद तक जप समाप्त कर लेना चाहिए ।। १ घण्टा शाम को, ३ घण्टा सवेरे कुल तीन घण्टों को छोड़कर रात्रि के अन्य भागों में गायत्री की दक्षिण मार्गी साधना नहीं करनी चाहिए ।। तान्त्रिक साधनायें अर्धरात्रि के आस- पास की जा सकती हैं।
१०. साधना के लिये पाँच बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए -(अ) चित्त एकाग्र रहे, इधर- उधर न उछलता फिरे ।। यदि चित्त बहुत दौड़े तो उसे माता की सुन्दर छवि के ध्यान में लगाना चाहिए ।। (ब) माता के प्रति अगाध श्रद्धा और विश्वास हो। अविश्वासी और शंका शंकित मति वाले पूरा लाभ नहीं पा सकते। (स) दृढ़ता के साथ साधना पर अड़े रहना चाहिए। अनुत्साह, मन उचटना, नीरसता प्रतीत होना, जल्दी लाभ न मिलना, अस्वस्थता तथा अन्य सांसारिक कठिनाइयों का मार्ग में आना साधना के विघ्न हैं ।। इन विघ्नों से लड़ते हुये अपने मार्ग पर दृढ़तापूर्वक बढ़ते जाना चाहिए। (द) निरन्तरता साधना का मुख्य नियम है। अत्यन्त आवश्यक कार्य होने या विषय स्थिति आने पर भी किसी न किसी रूप में चलते- फिरते भी सही, पर माता की उपासना अवश्य करनी चाहिए। किसी भी दिन नागा या भूल न करनी चाहिए ।। (य) समय को रोज- रोज न बदलना चाहिए। कभी सबेरे, कभी दोपहर, कभी तीन बजे तो कभी दस बजे, ऐसी अनियमितता ठीक नहीं। इन पाँचों नियमों के साथ की गई साधना बड़ी प्रभावशाली होती है।
११. कम से कम एक माला अर्थात् १०८ मन्त्र नित्य अवश्य जपने चाहिए, इससे अधिक जितने बन पड़े उतने उत्तम हैं ।।
१२. प्रातःकाल की साधना के लिये पूर्व को मुँह करके बैठना चाहिए। और शाम को पश्चिम को मुँह करक। प्रकाश की ओर, सूर्य की ओर, मुंह उचित है।
१३. पूजा के लिए फूल न मिलने पर चावल या नारियल की गिरी को कद्दूकस पर कसकर उसके बारीक पत्रों को काम में लाना चाहिए। यदि किसी विधान में रंगीन पुष्पों की आवश्यकता हो तो चावल या गिरी के पत्रों को केशर, हल्दी गेरू, मेंहदी के देशी रंगों से रंगा जा सकता है। विदेशी अशुद्ध चीजों से बने रंग काम में नहीं लेने चाहए ।।
१४ मन्त्र जप इस प्रकार करना चाहिए जिसमें कण्ठ, होठ, जिह्वा तो चलते रहें, पर उच्चारण इतना मन्द हो कि पास में बैठा हुआ व्यक्ति भी उसे ठीक तरह न सुन सके ।।
१५. पूजा के समय कलश रूप में जल- पात्र रखना चाहिए और अग्नि की साक्षी के लिए दीपक या धूपबत्ती जला लेनी चाहिए। इस प्रकार अग्नि और जल की साक्षी में किया हुआ जप अधिक प्रभावशाली होता है। आचमन के लिए जल- पात्र अलग से रखना चाहिए। पूजा के अन्त में कलश रूप में स्थापित जल सूर्य की दिशा में प्रातःकाल पूर्व में और सायंकाल पश्चिम में अर्ध्य जल को चढ़ा दिया जाय।
१६. महिलाएँ मासिक धर्म के दिनों में माला सहित जप न करें ।। अंगुलियों पर गिनकर मानसिक जप किसी भी स्थिति में किया जा सकता है।
१७. शाप मोचन, मुद्रा, कवच, कीलक, अर्मल आदि की आवश्यकता तांत्रिक पुरश्चरणों में पड़ती है, साधारण उपासना में उनकी आवश्यकता नहीं है।
१८. गायत्री को गुरू मन्त्र कहा गया है। जिसने कम से कम २४ लक्ष का एक गायत्री पुरश्चरण किया हो ऐसे अधिकारी गुरू से गायत्री की मन्त्र दीक्षा लेकर उपासना करना लाभप्रद होता है ।।
१९.स्त्रियों को भी पुरूषों की तरह ही गायत्री उपासना का पूर्ण अधिकार है।
२०. यज्ञोपवीत धारण करके गायत्री उपासना करना अधिक श्रेयस्कर है। पर किसी कारणवश कोई उसे धारण न कर सके तो भी गायत्री उपासना बिना यज्ञोपवीत के हो ही न सकेगी, ऐसा प्रतिबन्ध नहीं है।
२१. रात्रि में भी जप हो सकता है, पर उस समय मानसिक जप करना चाहिए ।।
२२. देर तक पालथी से, एक आसन से, बैठा रहना कठिन होता है, इसलिए जब एक तरह से बैठे- बैठे थक जावें तब उन्हें बदला जा सकता है। इसे बदलने में कोई दोष नहीं है।
२३. मल- मूत्र का त्याग या अन्य किसी अनिवार्य के लिए साधना के बीच उठना ही पड़े तो शुद्ध जल से हाथ- मुँह धोकर तब दुबारा बैठना चाहिए और विक्षेप के लिए एक माला का अतिरिक्त जप प्रायश्चित स्वरूप करना चाहिए ।।
२४. यदि किसी दिन अनिवार्य कारण से साधना स्थगित करना पड़े तो दूसरे दिन एक माला का अतिरिक्त जम दंड स्वरूप करना चाहिए ।।
२५. जन्म या मृत्यु के सूतक हो जाने पर शुद्धि होने तक माला आदि की सहायता से किये जाने वाला विधिवत् जप स्थगित रखना चाहिए। केवल मानसिक जप, मन ही मन चालू रख सकते हैं। यदि इस प्रकार का अवसर सवा लक्ष जप के अनुष्ठान- काल में आ जावे तो उतने दिनों अनुष्ठान स्थगित रखना चाहिए। सूतक- निवृत होने पर उसी संख्या में प्रारम्भ किया जा सकता है जहाँ से छोड़ा था। इस विक्षेप काल की शुद्धि के लिए एक हजार जप विशेष रूप से करना चाहिए।
२६. लम्बे सफर में होने, स्वयं रोगी हो जाने या तीव्र रोगी की सेवा में संलग्न रहने की दशा में स्नान आदि पवित्रता की सुविधा नहीं रहती ।। ऐसी दशा में मानसिक जप चालू रखना चाहिए। मानसिक जप बिस्तर पर पड़े- पड़े , रास्ता चलते या किसी पवित्र- अपवित्र दशा में किया जा सकता है।
२७. साधक का आहार- विहार सात्विक होना चाहिए। आहार में सतोगुण, सादा, सुपाच्य, ताजे तथा पवित्र हाथों से बनाये हुए पदार्थ होने चाहिए ।। अधिक मिर्च, मसाले वाले तले हुए पकवान, मिष्ठान्न, बासी, बुरे, दुर्गन्धित, मांस, नशीले, अभक्ष्य, उष्ण, दाहक, अनीति उपार्जित, गन्दे मनुष्य द्वारा बनाये हुए, तिरस्कारपूर्वक दिये हुए भोजन से जितना बचा जा सकेगा उतना ही अच्छा होगा ।।
२८. व्यवहार भी उतना ही प्राकृतिक, धर्म- संगत, सरल एवं सात्विक रह सके, उतना ही अच्छा है। फैशनपरस्ती, रात्रि में अधिक जागना, दिन में सोना, सिनेमा, नाच- रंग अधिक देखना, परनिन्दा, छिद्रान्वेषण, कलह, दुराचार, ईर्ष्या, निष्ठुरता, आलस्य, प्रमाद, मद, मत्सर आदि से जितना बचा जा सके बचने का प्रयत्न करना चाहिए।
२९. यों ब्रह्मचर्य तो सदा ही उत्तम है, पर गायत्री- अनुष्ठान के ४० दिनों में विशेष आवश्यकता है।
अनुष्ठान के कुछ विशेष नियमों का पालन करना पड़ता है, कुछ विशेष तपश्चर्यायें करनी होती हैं। तपश्चर्याओं का महत्व और स्वरूप इसी पुस्तक के भिन्न अध्याय में दर्शाया गया है। जप की तरह तप भी जितना किया जा सके शुभ ही है। किन्तु वर्तमान जीवन क्रम में अधिक कठोर तपश्चर्यायें अनुकूल नहीं पड़ती। फिर भी अनुष्ठानों के साथ कुछ नियम तो बनाने ही चाहिए। आज की स्थिति में सर्वोपयोगी या न्यूनतम तपश्चर्याओं के रूप में ५ नियम नीचे दिये जा रहे हैं
(क) अनुष्ठान काल में ब्रह्मचर्य का पालन करना ।। यह आत्म नियंत्रण की अंतःशक्ति को सुनियोजित करने के लिए है ।।
(ख) उपवास का काई क्रम अपनाना। पेय पदार्थ पर रहना, फल, शाक तक सीमित रहना, एक समय आहार का क्रम, अस्वाद व्रत का पालन जैसे व्रतों को इस क्रम में अपनी शक्ति एवं श्रद्धा के अनुसार अपनाया जाय ।।
(ग) चारपाई पर न सोना, तख्त या धरती पर सामान्य कपड़े बिछा कर सोना। यह तितीक्षा वृत्ति के विकास की दृष्टि से है ।।
(घ) अपने शरीर की सेवायें स्वयं करना ।। दाढ़ी बनाना, वस्त्र धोना आदि क्रम स्वयं करना, दूसरों से न कराना। यह स्वावलम्बन एवं सेवा वृत्ति के विकास के लिए साधना चाहिए ।। अपने शरीर एवं वस्त्रों का स्पर्श यथा साध्य दूसरों से न होने देना भी उचित है ।।
(ङ) चमड़े के जूतों का उपयोग न करना ।। अनुष्ठान काल में अधिक समय नंगे पैर नहीं चलना चाहिए, किन्तु चमड़े के जूतों का प्रयोग न करें ।।
अधिकतर चमड़ा हत्या द्वारा प्राप्त किया जाता है। उसमें क्रूरता के संस्कार रहते हैं। साधक को सद्भावना एवं संवेदना के वातावरण में रहना चाहिए। सार्वभौम आत्मीयता की दृष्टि से यह साधना अपनाई जाती है।
३०. एकान्त में जप करते समय भला माला खुले रूप से जपनी चाहिए। जहाँ बहुत आदमियों की दृष्टि पड़ती हो, वहाँ कपड़े से ढक लेना चाहिए या गोमुखी में हाथ डाल लेना चाहिए ।।
३१. माला जपते समय सुमेरु (माला के आरम्भ का सबसे बड़ा दाना) का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। एक माला पूरी करके उसे मस्तक तथा नेत्रों से लगाकर पीछे की तरफ उलटा ही वापिस कर लेना चाहिए। इस प्रकार माला पूरी होने पर हर बार उलट कर ही नया आरम्भ करना चाहिए।
३२. साधना के उपरान्त पूजा के बचे हुए अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, फूल, जल, दीपक की बत्ती हवन की भस्म आदि की यों ही जहाँ- तहाँ ऐसी जगह नहीं फेंक देना चाहिए जहाँ पर पैर तले कुचलती फिरे। किसी तीर्थ, नदी, जलाशय, देव- मन्दिर, कपास, जौ, चावल का खेत आदि पवित्र स्थानों पर विसर्जन करना चाहिए। चावल चिड़ियों के लिए डाल देना चाहिए। नैवेद्य आदि बालकों को बाँट देना चाहिए ।। जल का सूर्य के सम्मुख अर्घ्य देना चाहिए ।।
३३. वेद मन्त्रों क सस्वर उच्चारण करना उचित होता है। पर सब लोग यथाविधि सस्वर गायत्री का उच्चारण नहीं कर सकते। इसलिए जप इस प्रकार करना चाहिए कि कण्ठ से ध्वनि होती रहे, होठ हिलते रहें पर पास बैठा हुआ मनुष्य भी स्पष्ट रूप से मन्त्र को न सुन सके। इस प्रकार किया जप स्वर बन्धनों से मुक्त होता है।
३४. गायत्री साधना माता की चरण वन्दना के समान है, यह कभी निष्फल नहीं होती। उलटा परिणाम भी नहीं होता, भूल हो जाने से अनिष्ट होने की कोई आशंका नहीं। इसलिए निर्भय और प्रसन्नचित्त से उपासना करनी चाहिए। अन्य मन्त्र अविधिपूर्वक जपे जाने पर अनिष्ट करते हैं, पर गायत्री में यह बात नहीं है। वह सर्व सुलभ, अत्यन्त सुगम और सब प्रकार सुसाध्य है। हाँ, तान्त्रिक विधि से की गई उपासना पूर्ण विधि- विधान के साथ होनी चाहिए उसमें अन्तर पड़ना हानिकारक है।
३५. जैसे मिठाई को अकेले- अकेले ही चुपचाप ख लेना और समीपवर्ती लोगों को उसे न चखाना बुरा है, वैसे ही गायत्री साधना को स्वयं तो करते रहना, पर अन्य प्रियजनों, मित्रों, कुटुम्बियों को उसके लिए प्रोत्साहित न करना एक बहुत बड़ी बुराई तथा भूल है। इस बुराई से बचने के लिए हर साधक को चाहिए कि अधिक से अधिक लोगों को इस दिशा में प्रोत्साहित करे।
३६. अपनी पूजा सामग्री ऐसी जगह रखनी चाहिए जिसे अन्य लोग अधिक स्पर्श न करें ।।
३७. कोई बात समझ में न आती हो या सन्देह हो तो जवाबी पत्र भेजकर ‘शान्तिकुंज’ हरिद्वार से उसका समाधान कराया जा सकता है।
३८. गायत्री का अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि सभी वर्णों को है। वर्ण जन्म से भी होते हैं और गुण, कर्म स्वभाव से भी। आजकल जन्म से जातियों में बड़ी गड़बड़ी हो गई है। कई उच्च वर्ण समय के फेर से नीच वर्णों में गिने जाने लगे हैं और कई नीच वंश उच्च कहलाते हैं। ऐसे लोग अपनी वर्तमान सामाजिक स्थिति को ही ध्यान में रखें पर गायत्री महाशक्ति की आराधना से कोई वंचित न रहें। नवयुग की- प्रज्ञायुग की यही आधारशिला है।
३९. साधना की अनेकों विधियाँ हैं। अनेक लोग अनेक प्रकार से करते हैं। अपनी साधना विधि दूसरों को बताई जाय तो कुछ न कुछ मीन मेख निकाल कर संदेह और भ्रम उत्पन्न कर देते हैं। इसलिए अपनी साधना विधि हर किसी को नहीं बतानी चाहिए ।। यदि दूसरे मतभेद प्रकट करें तो अपने साधना गुरू के आदेश को ही सर्वोपरि मानना चाहिए। यदि कोई दोष की बातें होंगी, तो उसका पाप और उत्तरदायित्व उस साधना गुरू पर पड़ेगा। साधक को निर्दोष और श्रद्धा युक्त होने से सच्ची साधना का ही फल पायेगा। वाल्मीकि जी राम नाम उल्टा जप कर भी सिद्ध हो गये थे।
४०. तप और हवन की तरह अनुष्ठानों के साथ दान की परम्परा भी जुड़ी है। दान देवत्व का प्रतीक है। दान किसी को कुछ भी दे देना नहीं है। किसी व्यक्ति के हित की, कल्याण की भावना से प्रेरित होकर विचार पूर्वक दिया गया दान ही ‘दान’ कहला सकता है। दानों में धन दानों की अपेक्षा जल दान, अन्न दान, वस्त्र दान आदि का महत्त्व अधिक है। किन्तु इन सबसे अधिक फलप्रद ज्ञान- दान है।
गायत्री साधना के साथ दान परम्परा में जोड़ने योग्य उपयोगी प्रक्रिया है। लोगों को इस परम कल्याणकारी धारा से जोड़ना, गायत्री उपासना जैसे महान कल्याण कारक साधन को लोग भूल बैठे हैं। इसका मूल कारण गायत्री के महत्त्व, माहात्म्य एवं विज्ञान की जानकारी न होना है। जानकारी को फैलाने से ही पुनः संसार में गायत्री माता का दिव्य प्रकाश फैलेगा और असंख्यों हीन दशा में पड़ी हुई आत्मायें महापुरूष बनेंगी। इसलिए गायत्री का ज्ञान फैलाना भी अनुष्ठान की भाँति ही महान पुण्य कार्य है।