Books - गायत्री का हर अक्षर शक्ति स्रोत
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Language: HINDI
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गायत्री का तत्व दर्शन
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सामान्यतया गायत्री की पूजा-उपासना के लिए प्रयुक्त होने वाला कोई मंत्र विशेष माना जाता है और समझा जाता है कि उसका जप करने से सुख-सुविधाओं के सम्वर्धन एवं अनिष्ट निवारण में सहायता मिलती है। यह मान्यता उस महाशक्ति का प्रारम्भिक परिचय मात्र है। वस्तुतः गायत्री एक महान विज्ञान है जिससे चेतना के परिष्कार और परिष्कृत आत्म बल के साधक, साधना और परिस्थितियों का सदुपयोग कर सकना संभव होता है। इस स्तर तक पहुंचने के लिए ही विभिन्न साधनाएं की जाती हैं जिनमें गायत्री उपासना का महत्व सर्वोपरि है।
भौतिक विज्ञान के सम्बन्ध में सामान्य एवं असामान्य जानकारी सर्व-साधारण को किसी न किसी रूप में होती है। इसी के सहारे आजीविका उपार्जन से लेकर जीवन व्यवहार एवं लोक व्यवहार के अनेकानेक प्रयोजन पूरे किये जाते हैं। आत्म-विज्ञान यों इन दिनों उपेक्षित है, फिर भी उसका महत्व पदार्थ-विज्ञान से कहीं अधिक है। चेतना ही पदार्थ की उत्पादन एवं उपयोग करती है। यदि वह स्वयं ही पिछड़ेपन से ग्रसित होगी तो प्रयत्न भी उथले स्तर के होंगे और उनका प्रतिफल भी स्वल्प परिमाण में ही उपलब्ध होगा। चेतना का स्तर ऊंचा रहने से ही मनुष्य अभीष्ट प्रयोजनों में बढ़ी-चढ़ी सफलताएं प्राप्त करता है।
आत्म-विज्ञान ही ब्रह्म विद्या है। इसी को गायत्री कहते हैं। गायत्री का तत्वज्ञान रहस्यमय है। उसे जो जितनी अच्छी तरह समझने में—हृदयंगम करने में सफल होता है उसकी विभूति—सम्पदा भी उसी अनुपात से बढ़ी-चढ़ी होती है शास्त्र कहता है—
यो हवा एवं चित्त सा ब्रह्म वित्पुण्यांच कीर्ति लभते सुरभीश्च गन्धान् सोऽपहत पप्मानन्तां श्रियं मश्नुतेय एवं वेद यश्चेव विदाने बभेत वेदानां मातर सावित्रीं सम्पद उपनिषदमुपास्ति इति ब्राह्मणम् ।
—गायत्री उपनिषद्
जो वेदमाता गायत्री को ठीक तरह जान लेता है, वह ब्रह्मवति पुण्य कीर्ति एवं दिव्य विभूतियों को प्राप्त करता है और निर्मल अन्तःकरण होकर परम श्रेय का अधिकारी बनता है।
गोपथ ब्राह्मण में गायत्री के 24 अक्षरों को 24 स्तम्भों का दिव्य तेज बताया गया है। समुद्र में जहाजों का मार्गदर्शन करने के लिए जहां-तहां प्रकाश स्तम्भ खड़े रहते हैं। उनमें जलने वाले प्रकाश को देखकर नाविक अपने जलपोत को सही रास्ते से ले जाते हैं और चट्टानों से टकराने एवं कीचड़ आदि में धंसने से बच जाते हैं। इसी प्रकार गायत्री के 24 अक्षर 24 प्रकाश स्तम्भ बनकर प्रजा की जीवन नौका को प्रगति एवं समृद्धि के मार्ग पर ठीक तरह चलते रहने की प्रेरणा करते हैं। आपत्तियों से बचाते हैं और अनिश्चयता को दूर करते हैं।
गोपथ के अनुसार गायत्री चारों वेदों की प्राण, सार, रहस्य एवं तन है। साम संगीत का यह रथन्तर आत्मा के उल्लास को उद्वेलित करता है। जो इस तेज को अपने में धारण करता है, उसकी वंश परम्परा तेजस्वी बनती चली जाती है। उसकी पारिवारिक सन्तति और अनुयायियों की श्रृंखला में एक से एक बढ़कर तेजस्वी, प्रतिभाशाली उत्पन्न होते चले जाते हैं। श्रुति कहती है—
‘‘तेजो वै गायत्री छन्दसां रथन्तरमं साम्नाम् तेज श्चतुर्विशस्ते माना तेज एवं तत्सम्यक् दधाति पुत्रस्थ पुत्रस्तेजस्वी भवति ।’’
—गोपथ
‘‘गायत्री सब वेदों का तेज है। सामवेद का यह रथन्तर छन्द ही 24 स्तम्भों का यह दिव्य तेज है। इस तेज को धारण करने वाले की वंश परम्परा तेजस्वी होती है।’’
गतुर्विशाक्षरी विद्या पर तत्व विनिर्मिता । तत्करातु यात्कार पयंत शब्द ब्रह्मस्वरुपिणि ।।
—गायत्री तन्त्र
‘‘तत् से लेकर प्रचोदयात् के 24 अक्षरों वाली गायत्री पर तत्व अर्थात् परा विद्या से ओत-प्रोत हो।’’
गायत्री के 24 अक्षर आठ-आठ शब्दों के तीन पादों में विभाजित हैं। इन तीन पादों का अपना महत्व है। तीन पाद तीनों लोकों की समस्त विभूतियां अपने अन्दर धारण किये हुए हैं। जो उन्हें ठीक तरह जान-समझ लेता है, उन्हें प्रयोग में लाने की प्रक्रिया समझ लेता है वह त्रयलोक विजयी की तरह आनन्दित होता है। ‘
‘भूमिरन्तरिक्ष, द्यौरित्यष्टा व क्षराव्यष्टा क्षराध्वा एवं गायत्र्यै पद मेदुहैवस्या एत्सया एतत्सयावेदतेषु लोकेषु ताविद्धि जयति योऽस्याएतद् देवं पदं वेद ।’’
—वृहदारण्यक
अर्थात्—भूमि अन्तरिक्ष, द्यौ ये तीनों गायत्री के प्रथम पाद के आठ अक्षरों के बराबर हैं। जो गायत्री के इस प्रथम पाद को जान लेता है, सो तीनों लोकों को जीत लेता है।
वृहदारण्यक उपनिषद् में गायत्री के तीन चरणों के द्वारा उपलब्ध हो सकने वाले प्रतिफलों का उल्लेख मिलता है। जिससे जाना जाता है कि इस महामन्त्र का आश्रय लेने वाला साधक क्या कुछ प्राप्त करने में सफल हो सकता है।
तत्सवितुर्वरेण्यम् । मधुवाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धवः । माहवीनः सन्त्वेवीषधी । भूः स्वाहा भर्गो देवस्य धीमहि । मधुनक्त युतोषसो मधुमत्यार्थिक रजः । मधु द्यौ रस्तु नः पिता । भुतः स्वाहा । धियो योनः प्रचोदयात् । मधु मान्ना वनस्पति मधु या-अस्तु सूर्यः माध्वी र्गावो भवन्तुनः । स्वः स्वाहाः सर्वाश्च मधुमती रहयेवेदसर्व भूयांस भूर्भुवः स्वः स्वाहा ।
—वृहदारण्यक —(तत्सवितुर्वरेण्यं) मधुप वायु चले, नदी और समुद्र रसमय होकर रहें। औषधियां हमारे लिए मंगलमय हो। द्युलोक हमें सुख प्रदान करें।
—(भर्गोदेवस्य धीमहि) रात्रि और दिन हमारे लिये सुखकारक हों। पृथ्वी की रज हमारे लिये मंगलमय हो। द्युलोक हमें सुख प्रदान करें।
—(धियो योनः प्रचोदयात्) वनस्पतियां हमारे लिए रसमयी हों। सूर्य हमारे लिए सुखप्रद हो, उसकी रश्मियां हमारे लिए कल्याणकारी हों। सब हमारे लिए सुखप्रद हों। मैं सबके लिए मधुर बन जाऊं।
यों उपरोक्त मन्त्र में प्रार्थना जैसी शब्दावली का प्रयोग हुआ है पर उसमें जिस भावना का संकेत है उसे सहज समझा जा सकता है। प्रथम पाद में वायु, नदी समुद्र, रस और औषधियों के, दूसरे पाद में दिन, रात्रि, पृथ्वी समृद्धि एवं द्युलोक के, तीसरे पाद में धन-धान्य एवं ऋतुओं के अनुकूल होकर सुख-वैभव प्रदान करने की चर्चा है और साधक को इतना मधुर—सुसंस्कृत—बन सकने का सन्देश हैं जिससे उसके लिए सब कोई अनुकूल एवं मधुर बन सकें।
गायत्री-साधना से इस प्रकार की उपलब्धियों की कामना मात्र भावुकता की 74 प्रतिक्रिया नहीं है। महाभारत के भीष्मपर्व में 24 अक्षर वाली गायत्री के अक्षरों का रहस्य, मर्म, प्रकाश, प्रभाव एवं परिणाम जानने वालों को महान कल्याण कारी कहा गया है और पतन एवं विनाश का कष्ट न सहने का आश्वासन दिया गया है। ‘गायत्री-संहिता’ में गायत्री के 24 अक्षरों की शाब्दिक संरचना रहस्य-युक्त बताया गया है, और उन्हें ढूंढ़ निकालने के लिए विज्ञजनों को प्रोत्साहित किया गया है। शब्दार्थ की दृष्टि से गायत्री की भाव-प्रक्रिया में कोई रहस्य नहीं है।सद्बुद्धि की प्रार्थना उसका प्रकट भावार्थ एवं प्रयोजन है। यह सीधी-सादी सी बात है जो अन्यान्य वेदमंत्रों तथा आप्त वचनों में अनेकानेक स्थानों पर व्यक्त हुई हैं अक्षरों का रहस्य इतना ही है कि साधक को सत्प्रवृत्तियां अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं। इस प्रेरणा को जो जितना ग्रहण कर लेता है वह उसी अनुपात से सिद्ध पुरुष बन जाता है। कहा गया है—
चतुर्विशतिवर्णेर्या गायत्री गुम्फिता श्रुतो । रहस्यमुक्तं तत्रापि दिव्यै रहस्यवादिभिः ।।
—गायत्री संहिता
‘‘वेदों में जो गायत्री चौबीस अक्षरों में गूंथी हुई है, विधान लोग इन चौबीस अक्षरों के गूंथने में बड़े-बड़े रहस्यों को छिपा बतलाते हैं।’’ गायत्री की सिद्धियां भीतर से आती और बाहर प्रकट होती हैं। इस तथ्य को जितनी जल्दी, जितनी अच्छी तरह समझा जा सके उतना ही उत्तम है। यह भ्रम मिटना ही चाहिए कि पूजा के बदले किसी पर आकाश से वैभव टपकता है। वस्तुतः सत्प्रवृत्तियां ही लोक व्यवहार में सिद्धियां बनकर प्रकट होती हैं—
प्रादुर्यवन्ति वे सूक्ष्माश्चतुर्विशति शक्तयः । अक्षरेभ्यस्तु गायत्र्या मानवानां ह मानसे ।।
—गायत्री संहिता
‘‘मनुष्य के अन्तःकरण में गायत्री के चौबीस अक्षरों से चौबीस सूक्ष्म शक्तियां प्रकट होती हैं।’’ गायत्री के ‘‘धीमहि प्रचोदयात्’’ शब्द इन्हीं प्रेरणाओं से भरे पड़े हैं। ‘धीमहि’ अर्थात् धारण करना। यह धारणा शिथिल, निर्जीव, निष्क्रिय नहीं वरन्, इतनी प्रचण्ड होनी चाहिए, जिसे प्रेरणा का जा सके। ‘प्रचोदयात्’ में प्रेरणा भरी अन्तः स्थिति का ही महत्व बताया गया है।
गायत्री महामन्त्र के परम सामर्थ्यवान 24 अक्षर
गायत्री महामन्त्र में जिन 24 अक्षरों का प्रयोग किया गया है, उसमें मन्त्र-शास्त्र की—शब्द विज्ञान की—रहस्यमय प्रक्रिया प्रयुक्त हुई है। अर्थ की अभिलाषा के लिए इनसे भी सरल और भावपूर्ण शब्दों का प्रयोग हो सकता है। 4 वेदों में लगभग 70 मन्त्र ऐसे हैं जो गायत्री मन्त्र में दी गई शिक्षा और प्रेरणा को प्रस्तुत करते हैं। पर उनका महत्व गायत्री जैसा नहीं माना जाता। इस महामन्त्र की गरिमा में उसमें प्रयुक्त हुए क्रम का असाधारण महत्व है।
सितार के तारों को अमुक क्रम में बजाने पर उनमें से अमुक राग की झंकृति निकलती हैं। यदि उंगली फिराने का क्रम बदल दिया जाय तो दूसरी ध्वनि एवं रागनी निकलने लगेगी। तारों पर हाथ रखने का क्रम दबाव एवं उतार चढ़ाव का परिवर्तन उस एक ही सितार यन्त्र में से अगणित प्रकार की राग-ध्वनियां प्रस्तुत करता है। ठीक उसी प्रकार शब्दों का उच्चारण जिस क्रम एवं श्रृंखला से किया जाता है उसके अनुसार सूक्ष्म आकाश में, ईथर में—विभिन्न प्रकार की ध्वनि लहरियां प्रादुर्भूत होती हैं। इनका स्पर्श मानव मस्तिष्क में अलग-अलग प्रकार से प्रभाव उत्पन्न करता है।
शब्दों का सामान्य प्रभाव उनके अर्थों के आधार पर मस्तिष्क ग्रहण करता है। पर सूक्ष्म मस्तिष्क पर शब्दों के अर्थ का नहीं उनके द्वारा उत्पन्न हुई स्पन्दन स्फुरणाओं का प्रभाव पड़ता है। एक शब्द श्रृंखला को—वाक्य को—यदि उलट-पुलट कर बोला जाय तो अर्थ में अन्तर आयेगा। केवल व्याकरण सम्बन्धी अशुद्धि मानी जायेगी। किन्तु इस सामान्य-सी उलट-पुलट से सूक्ष्म आकाश में स्पन्दन क्रम बहुत बदल जायगा और उसके रहस्यमय प्रभाव में भारी अन्तर रहेगा। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए वेदों के निर्माता ने इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा है कि हर मन्त्र में उसके अक्षर इस क्रम में संजोये जायें जिससे वह शक्ति प्रखर स्तर पर प्रादुर्भूत हो सके जिसके लिए उसकी रचना की गई। मन्त्र विज्ञान का सारा ढांचा इसी तथ्य पर खड़ा हुआ है।
अर्थ न जानने पर भी मन्त्र अपना प्रभाव प्रस्तुत करते हैं। अधिकांश मन्त्रों का अर्थ उनके प्रयोक्ता जानते भी नहीं, और न उसकी आवश्यकता समझते हैं। अर्थ न जानने पर भी वे उतना ही प्रभाव प्रस्तुत करते हैं, जितना अर्थ जानने पर। अर्थ का प्रभाव विचारणा, शिक्षा एवं भावना की दृष्टि से अवश्य है, पर जहां प्रकृति के सूक्ष्म अन्तराल में स्पन्दन प्रक्रिया का वैज्ञानिक सम्बन्ध है वहां शब्द का ठीक ढंग से उच्चारण करना भी अभीष्ट प्रयोजन को पूरा कर देता है। यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि गायत्री का या दूसरे मन्त्रों का अर्थ नहीं जाना जाय। जानने से शिक्षणात्मक एवं बौद्धिक लाभ भी हैं पर यदि यह अर्थ विदित न हो तो भी शब्द शक्ति अपना वैज्ञानिक प्रयोजन अपने ढंग से करती ही रहेगी, यहां इतना भर कहा जा रहा है। यही तथ्य है जिसके आधार पर यज्ञ, अनुष्ठान एवं कर्म-काण्डों के अक्सर प्रयुक्त हुए मन्त्रों का अर्थ न जानने पर भी उस आयोजन में सम्मिलित नर-नारी लाभान्वित होते हैं। वेद परायण यज्ञों में कितने लोग सब मन्त्रों का अर्थ समझते हैं? जानने पर भी आयोजनों में सम्मिलित भरपूर लाभ उठाते हैं।
गायत्री महामन्त्र में प्रयुक्त हुए 24 अक्षर जब उच्चारित किये जाते हैं तो सर्वप्रथम मुख के विभिन्न अवयव, दन्त, ओष्ठ जिह्वा कण्ठ, तालु आदि का परिचालन होता है। इन शब्द मूल स्थलों की गतिविधियां शरीर में विभिन्न स्थानों पर अवस्थित शक्ति केन्द्रों पर प्रभाव डालती हैं और उन्हें प्रसुप्त स्थिति से जागृति में परिणित कर देती है। यहां हमें यह जानना होगा कि इस देव-देवालय के विभिन्न भागों पर ऐसे शक्ति संस्थान बने हुए हैं जिन्हें ऋषि-सिद्धियों का रत्न-भण्डार कहा जा सकता है। वे सामान्य व्यक्तियों के शरीरों में मूर्छित पड़े रहते हैं। इसलिए उनका जीवन पशु-पक्षियों एवं कीट-पतंगों जैसा आहार, निद्रा, भय, मैथुन की जीव-प्रवृत्तियों तक सीमित रह जाता है, किन्तु यदि कहीं उन मूर्छित शक्ति स्रोतों को किसी प्रकार जगाया जा सके तो सामान्य-सा दीखने वाला, शरीर को भी धारण करने वाला देखते-देखते महापुरुष, सिद्धि-पुरुष एवं देव भूमिका में विचरण करने वाला बन सकता है। गायत्री-मन्त्र में प्रयुक्त अक्षरों का उच्चारण इन शक्ति कोशों को प्रभावित करती है और उसकी प्रसुप्त क्षमता को जागृत करके आत्मबल की सम्पन्नता से लाभान्वित बनता है।
षट-चक्रों का नाम अध्यात्म-विद्या के प्रेमियों ने सुना होगा। मेरुदण्ड के आदि से लेकर अन्तिम सिरे तक पहुंचते-पहुंचते छह स्थानों पर छह शक्ति-संस्थान पाये जाते हैं। इनमें ऐसी विद्युत धाराओं का तारतम्य है जो निखिल आकाश में व्याप्त प्रचण्ड शक्तियों के साथ अपना सम्बन्ध बनाये रख रही हैं। यह षटचक्र—शक्ति संस्थान जब जागृत होते हैं तो उनकी सक्रियता बढ़ जाती है और वही बढ़ी हुई सक्रियता प्रकृति-प्रवाह में से अपने काम की धाराओं को पकड़ कर अभीष्ट प्रयोजन के लिए अपने समीप खींच लेती है। जिस प्रकार अजगर अपने नेत्रों की विद्युत धारा से छोटे-मोटे जीवों को अपनी ओर खींचता है और वे बेचारे अनायास ही घिसटते हुए उसके मुख में चले जाते हैं, उसी प्रकार षट-चक्रों के जागृत शक्ति-संस्थान निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त एक से एक बढ़ी-चढ़ी विभूतियों को अपनी ओर आकर्षित करके उनके अधिपति बन जाते हैं। सिद्धि पुरुषों में ऐसी कितनी ही विशेषतायें-विभूतियां पाई जाती हैं, जिनसे वे सामान्य व्यक्तियों के स्तर की तुलना में कहीं अधिक सामर्थ्यवान एवं सुविकसित सिद्ध होते हैं। अष्ट सिद्धि नव निधि का वर्णन योग-शास्त्रों में मिलता है। साधना मार्ग पर चलने वाले कितने ही व्यक्तियों में कुछ अलौकिक विशेषतायें देखी जाती हैं, उनका वैज्ञानिक आधार यही है कि साधना द्वारा उस साधक ने अपने शरीर में सन्निहित शक्ति-संस्थानों को जगाया और उनसे ब्रह्माण्ड-व्यापी विभूतियों के आदान-प्रदान का सम्बन्ध जोड़ लिया।
षट्चक्र प्रख्यात है। उनके अतिरिक्त 24 विशिष्ट और 24 सामान्य शक्ति केन्द्र भी इस शरीर में विद्यमान हैं। इन्हें उपत्यिकायें और विभीषिकायें कहते हैं। 24 उपत्यिकायें छोटे-छोटे षटचक्रों जैसे शक्ति संस्थान ही हैं। यह शरीर के विभिन्न स्थानों पर विद्यमान हैं। गायत्री महामंत्र में 24 अक्षर जब स्पन्दित होते हैं तब मुख में उत्पन्न हुई गतिविधियों का सूक्ष्म प्रभाव उन उपत्यिकाओं के ऊपर पड़ता है और वे स्वसंचालित हल चल बनाकर उन्हें प्रसुप्त स्थिति से जाग्रत स्थिति में परिणित करने का कार्य आरम्भ कर देती हैं। अधिक जप करने की निरन्तर चल रही प्रक्रिया पत्थर पर घिसने वाली रस्सी की तरह प्रभाव डालती रहती है और वे संस्थान जैसे-जैसे अपनी मूर्छा दूर करके चेतन भूमिका में आते जाते हैं, वैसे-वैसे उस उपासना में संलग्न व्यक्ति अपने आपको अलौकिक शक्तियों से सुसम्पन्न अनुभव करता हुआ आत्म विकास की ओर बढ़ता चला जाता है।
शरीर के किस स्थान पर कौन उपत्यिका उपस्थित है और गायत्री मंत्र का कौन-सा अक्षर उसे प्रभावित करने का प्रयोजन पूर्व करता है, इसका दिग्दर्शन अगले पृष्ठ पर छपे चित्र में दिया गया है। जिस प्रकार टाइप राइटर की कुंजियों पर उंगली दबाने उससे जुड़ी हुई तीली उठती है और कागज पर टकरा कर अपना अक्षर छाप देती है। इसी मुख से स्पन्दित हुए गायत्री मंत्र के 24 अक्षर एक-एक उपत्यिकाओं पर प्रभाव डालते हैं और वे वैज्ञानिक व्यवस्था के आधार पर सूक्ष्म होने लग जाती हैं।
आधुनिक चिकित्सा शास्त्रियों ने नवीनतम खोजों के आधार पर मानव शरीर में अव्यवस्थित कुछ विलक्षण ग्रन्थियों की खोज की है। ये छोटी-छोटी गांठ, शरीर के विभिन्न स्थानों पर पड़ी हुई निरर्थक जैसी दीखती हैं। उनसे पसीना जैसा एक रस स्रवित होता रहता है, उसे ‘हारमोन’ कहते हैं। यह हारमोन स्राव रक्त में मिलते हैं तो विभिन्न प्रकार की विलक्षणताएं पैदा करते हैं। सामान्यता सभी शरीर हाड़-मांस की दृष्ट से एक ही तरह के हैं। जीवन-यापन और आहार-विहार के तौर तरीकों में थोड़ा-बहुत ही अन्तर होता है। फिर एक दूसरे में जमीन आसमान जैसा अन्तर पाया जाता है उसका क्या कारण है? इस प्रश्न का उत्तर शरीर-शास्त्री उन हारमोनों की विचित्रता और विलक्षणता बताते हैं। उनका कहना है कि अवयव एवं आहार-विहार का क्रम भले ही एक-सा हो—मनुष्यों में यह सूक्ष्म ग्रन्थियां असामान्य स्तर की होती हैं और उनसे स्रवित होने वाले हारमोन, न्यूनाधिक होने के कारण मनुष्यों में विलक्षणता पैदा कर देते हैं। शारीरिक, बौद्धिक, भावनात्मक एवं आत्मिक विशेषताओं का उत्तरदायित्व वे इन हारमोन ग्रन्थियों पर आरोपित करते हैं और साथ ही यह भी कहते हैं कि इन शक्ति संस्थानों पर औषधि या शल्य-क्रिया कोई काम नहीं करती है। इनकी गतिविधियों को घटाना-बढ़ाना यदि किसी माध्यम से सम्भव हो सकता है तो उसमें मानवीय विद्युत-विज्ञान के विज्ञानी ही सफल हो सकते हैं, शरीर-शास्त्री नहीं।
यह आत्मिक समर्थता—अलौकिकता किसी को उपहार में नहीं मिलती, वरन् प्रबल पुरुषार्थ द्वारा अपने भीतर उत्पन्न करनी पड़ती है। इसी उपार्जन-उत्पादन का नाम साधना अथवा तपश्चर्या है। यह अन्ध-विश्वास नहीं वरन् एक विशुद्ध विज्ञान है जिसकी सत्यता प्रयोग परीक्षण की कसौटी पर कसी जा सकती हैं। गायत्री-उपासना इस मार्ग पर चलने की एक पूर्ण सुव्यवस्थित एवं पग-पग पर परीक्षित क्रिया-पद्धति है। उसका वास्तविक शुभारम्भ 24 अक्षरों को बार-बार दुहराने से—जप करने से—ही होता है। क्रमबद्ध रूप से बार-बार किसी शब्द गुच्छक—मन्त्र का उच्चारण पुनरावृत्ति करते रहने से एक विशिष्ट प्रकार का वर्तुल बन जाता है और उस आधार पर एक स्वसंचालित शक्ति-प्रवाह प्रादुर्भूत होने लगता है। यह वर्तुल प्रवाह बाह्य-जगत में अभीष्ट स्तर की हलचल पैदा करता है और शरीर के भीतर की प्रसुप्त उपात्यिकाओं को एक ऐसी क्रमबद्ध प्रक्रिया के साथ शनैः शनैः सजग करने लगता है, जिसमें कोई अवांछनीय हड़बड़ी उत्पन्न न हो तांत्रिक उपासनायें तीव्र और तीक्ष्ण होती हैं। उनसे शक्ति-केन्द्रों के जागरण में शीघ्रता तो होती है पर साथ ही यह खतरा बना रहता है कि द्रुतगामी हलचल आत्मिक क्षेत्र में हड़बड़ी पैदा कर दें और साधक को किसी अप्रत्याशित जोखिम का सामना करना पड़े। दक्षिण-मार्गी उपासनाओं में सफलता कुछ देर से तो मिलती है पर किसी प्रकार का खतरा प्रस्तुत होने की आशंका नहीं रहती। जप ऐसा ही प्रारम्भिक प्रयोग है। उसका सहारा लेकर आत्म-शक्ति के अक्षय भण्डार से पूर्ण उपत्यिकाओं को शान्ति एवं सुव्यवस्था के साथ जगाया जा सकता है। जप के द्वारा जो शक्ति की वर्तुल प्रवाह-धारा प्रादुर्भूत होती है वह अपना काम करती रहती है और समयानुसार उसका आशाजनक प्रतिफल उत्पन्न होता है।
गायत्री तत्व-ज्ञान—गायत्री-साधना की सफलता के रहस्य गोपथ ब्राह्मण में अच्छी तरह समझाये गये हैं। उसके अन्तर्गत मौदगल्य और मैत्रेय संवाद में गायत्री के तत्वदर्शन पर 33-34-35-36 कण्डिकाओं में विस्तृत प्रकाश डाला गया है।
मैत्रेय पूछते हैं—‘‘सवितुर्वरेण्यम् भर्गोदेवस्य, कवयः किश्चित आहुः’’ अर्थात् हे भगवन! यह बताइये कि ‘‘सवितुर्वरेण्यम् भर्गोदेवस्य’’ इसका अर्थ सूक्ष्मदर्शी विद्वान् क्या करते हैं?
इसका उत्तर देते हुए मौदगल्य कहते हैं—‘‘सविता प्रविश्यताः प्रचोदयात याभित्र एति’’। अर्थात् सविता की आराधना इसलिए है कि वे बुद्धि क्षेत्र में प्रवेश करके उसे शुद्ध करते और सत्कर्म परायण बनाते हैं।
वे आगे और भी कहते हैं—‘‘कवय देवस्य सवितुः वरेण्यं भर्ग अन्न पाहु’’ अर्थात् तत्वदर्शी सविता का आलोक अन्न में देखते हैं। अन्न की साधना में जो प्रखर पवित्रता बरती जाती है, उसे सविता का अनुग्रह समझा जा सकता है।
आगे और भी स्पष्ट किया गया है—‘‘मन एवं सविता वाक् सात्रित्री’’ अर्थात् परम तेजस्वी सविता जब मनः-क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो जिह्वा को प्रभावित करते हैं और वचन के दोनों प्रयोजनों में जिह्वा पवित्रता का परिचय देती हैं। इस तथ्य को आगे और भी अधिक स्पष्ट किया गया है—‘‘प्राण एवं सविता अन्नं सावित्री, यत्र ह्येव सविता प्राणस्तरन्नम् । यत्र वा अन्न तत् प्राण इत्येते ।’’ अर्थात् सवित प्राण है और सावित्री अन्न। जहां अन्न है वहां प्राण होगा और जहां प्राण है वह अन्न। प्राण जीवन, जीवठ, संकल्प, एवं प्रतिभा का प्रतीक है। यह विशिष्टता पवित्र अन्न की प्रतिक्रिया है। प्राणवान् व्यक्ति पवित्र अन्न ही स्वीकार करते हैं। एवं अन्न की पवित्रता को अपनाये रहने वाले प्राणवान बनते हैं।
इस प्रतिपादन में गायत्री महाशक्ति के अवतरण के लिए मन की—बुद्धि की—वाणी की—अन्न की पवित्रता को अत्यधिक आवश्यक बताया गया है। इसके बिना मात्र गायत्री की आराधना, अपंग एकांगी रह जाती है और अभीष्ट फल देने में असमर्थ रहती है।
सविता सूक्ष्म भी है और दूरवर्ती भी, उसका निकटतम प्रतीक यज्ञ है। यज्ञ को सविता कहा गया है। उसकी पूर्णता भी एकाकी-पन में नहीं है। सहधर्मिणी सहित यज्ञ ही समग्र एवं समर्थ माना गया है। यज्ञ पत्नी दक्षिणा है। दक्षिणा को सावित्री कह सकते हैं। 33 वीं कण्डिका में कहा गया है—‘‘यज्ञ एवं सविता दक्षिणा सावित्री’’ अर्थात् यज्ञ सविता है और दक्षिणा सावित्री। इस दोनों को अन्योन्याश्रित माना जाना चाहिए। यज्ञ के बिना दक्षिणा की और दक्षिणा के बिना यज्ञ की सार्थकता नहीं होती। यह यज्ञ का तत्त्वज्ञान उदार परमार्थ प्रयोजनों में है। यज्ञ का तात्पर्य सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में योगदान करना है। गायत्री जप की पूर्णता कृत्य द्वारा होती है। इसका तत्त्वज्ञान यह है कि पवित्र यज्ञीय जीवन जिया जाय, साथ ही सविता देवता को प्रसन्न करने वाली—उसकी प्रिय पत्नी दक्षिणा का भी सत्कार किया जाय। यहां दुष्प्रवृत्तियों के परित्याग और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन करने के निमित्त किये गये संकल्पों को ही भाव भरी दक्षिणा देव दक्षिणा समझा जाना चाहिए।
गायत्री उपासना में सफलता-असफलता मिलने की पृष्ठभूमि में शास्त्रोक्त क्रिया कृत्यों का जितना महत्व है उससे भी अधिक उस तत्वज्ञान का है जिसमें साधक को व्यक्तित्व परिष्कृत करने के लिए मन, बुद्धि और आहार को पवित्र बनाने तथा सत्प्रवृत्तियों को संवर्धन में प्रबल प्रयत्न करने वाली बात भी सम्मिलित है।
गायत्री उपासना की दिनचर्या, क्रम, पद्धति ऐसी होनी चाहिए जिसे ब्रह्मकर्म, तप, साधन कहा जा सके। कहा गया है कि—‘‘इदं ब्रह्म ह श्रियं प्रतिष्ठाम् अयवनम् ऐक्षत’’—अर्थात्—ब्रह्मा ने गायत्री में शोभा, सम्पदा और कीर्ति के सभी तत्त्व भर दिये। किन्तु साथ ही यह भी प्राविधान रखा कि—‘‘सावित्र्या ब्राह्मणं सृष्ट्वा तत् सावित्री पर्यपधात् ।’’ अर्थात् उसने गायत्री को धारण कर सकने में समर्थ ब्राह्मण को सृजा और उसे सावित्री के साथ बांध दिया। ब्राह्मण वंश से नहीं, ऐसे कम करने से बनता है, जिनमें सत्य और तप का व्रत जुड़ा हुआ है। गोपथ की इसी कण्डिका में इस तथ्य को प्रकट करते हुए कहा गया है—‘‘कर्मणा तपः, तपसः सत्यम्—सत्येन ब्रह्म ब्रह्मणा ब्राह्मणम्-ब्राह्मणेन व्रतम् समदधात् ।’’ अर्थात् सत्कर्मों को तप कहते हैं—तप से सत्य की प्राप्ति होती है सत्य ही ब्रह्म है—ब्रह्म को धारण करने वाला ब्राह्मण—ब्राह्मण वह जो आदर्शपालन का व्रत धारण करे—ऐसे ही व्रतधारी ब्राह्मण को गायत्री की प्राप्ति होती है।
शालीनता एवं तपश्चर्या की बात पढ़ते, सुनते, या सोचते रहने से काम नहीं चलता। सदाचरण को व्रत रूप में जीवन-क्रम में अविच्छिन्न रूप से समाविष्ट रखा जाना चाहिए। इस परिपालन के आधार पर ही ब्रह्मतेज प्रखर होता है और गायत्री-तत्व की उपलब्धि में कृतकृत्य होने का अवसर मिलता है। मौदगल्य कहते हैं। ‘‘व्रतेन वै ब्राह्मणः संशितः भवति-अशून्य भवति-अविच्छिन्नः अस्य तन्तुः—अविच्छिन्नं जीवनं भवति’’—अर्थात् व्रत से ब्राह्मणत्व मिलता है—जो ब्राह्मण है वही मनीषी है—ऐसा व्यक्ति समृद्ध और समर्थ रहता है- उसकी परम्परा छिन्न नहीं होती और मरण सहज पड़ता है।
गायत्री का तत्वज्ञान और उसके अनुग्रह का रहस्य बताते हुए महर्षि मौद्गल्य ने विस्तार पूर्वक यही समझाया कि चिन्तन और चरित्र की दृष्टि से—संयम और परमार्थ की दृष्टि से व्यक्तित्व को पवित्र बनाने वाले ब्रह्मपरायण व्यक्ति ही गायत्री के तत्ववेत्ता है और उन्हीं को वे सब लाभ मिलते हैं जिनका वर्णन गायत्री की महिमा एवं फलश्रुति का वर्णन करते हुए स्थान-स्थान पर प्रतिपादित किया गया है। इस रहस्य के ज्ञाता की ओर संकेत करते हुए गोपथ ब्राह्मण का ऋषि कहता है। ‘‘यः एवं वेद यः च एवं विद्वान् एवं एतम् व्याचष्टे’’—‘‘जो इस पवित्र जीवन समेत की गई सावित्री साधना का आश्रय लेता है, वही ज्ञानी है—वही मनीषी है, उसी को प्रर्णता प्राप्त होती है।’’
मानवी सत्ता से लेकर विस्तृत ब्रह्माण्ड में समान रूप से व्याप्त त्रिपदा गायत्री का भुवनेश्वरी रूप सर्व विदित है। गायत्री-बीज ‘ॐकार’ है। उसकी सत्ता तीन लोक (भूः-भुवः-स्वः) लोकों में संव्याप्त है। साधक के लिए उसके 24 अक्षर सिद्धियों एवं उपलब्धियों से भरे-पूरे हैं। इन अक्षरों में सन्निहित प्रेरणाओं को अपनाने वाले साधक निश्चित रूप से आप्तकाम बनते हैं और उस तरह खिन्न उद्विग्न नहीं रहते जिस तरह कि लिप्सा-लालसाओं की अनुपयुक्त कामनाओं की आग में जलते-भुनते हुए शोक-संताप सहते हैं। इस तथ्य को ‘‘रुद्यामल’’ में इस प्रकार प्रकट किया गया है—
गायत्री त्रिपदा देवी त्र्यक्षरी भुवनेश्वरी । चतुर्विशाक्षरा विद्या सा चैवाभीष्ट देवता ।। —रुद्रयामल
‘‘तीन पद वाली तथा तीन अक्षर (भूःभुवःस्वः) युक्त समस्त भुवनों की अधिष्ठात्री 24 अक्षर वाली परा विद्या रूप गायत्री देवी—सबको इच्छित फल देने वाली है।’’ स्पष्ट है कि गायत्री तत्वज्ञान को हृदयंगम करके उसके अनुसार पद्धति अपनाने वाले साधनों के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है।
भौतिक विज्ञान के सम्बन्ध में सामान्य एवं असामान्य जानकारी सर्व-साधारण को किसी न किसी रूप में होती है। इसी के सहारे आजीविका उपार्जन से लेकर जीवन व्यवहार एवं लोक व्यवहार के अनेकानेक प्रयोजन पूरे किये जाते हैं। आत्म-विज्ञान यों इन दिनों उपेक्षित है, फिर भी उसका महत्व पदार्थ-विज्ञान से कहीं अधिक है। चेतना ही पदार्थ की उत्पादन एवं उपयोग करती है। यदि वह स्वयं ही पिछड़ेपन से ग्रसित होगी तो प्रयत्न भी उथले स्तर के होंगे और उनका प्रतिफल भी स्वल्प परिमाण में ही उपलब्ध होगा। चेतना का स्तर ऊंचा रहने से ही मनुष्य अभीष्ट प्रयोजनों में बढ़ी-चढ़ी सफलताएं प्राप्त करता है।
आत्म-विज्ञान ही ब्रह्म विद्या है। इसी को गायत्री कहते हैं। गायत्री का तत्वज्ञान रहस्यमय है। उसे जो जितनी अच्छी तरह समझने में—हृदयंगम करने में सफल होता है उसकी विभूति—सम्पदा भी उसी अनुपात से बढ़ी-चढ़ी होती है शास्त्र कहता है—
यो हवा एवं चित्त सा ब्रह्म वित्पुण्यांच कीर्ति लभते सुरभीश्च गन्धान् सोऽपहत पप्मानन्तां श्रियं मश्नुतेय एवं वेद यश्चेव विदाने बभेत वेदानां मातर सावित्रीं सम्पद उपनिषदमुपास्ति इति ब्राह्मणम् ।
—गायत्री उपनिषद्
जो वेदमाता गायत्री को ठीक तरह जान लेता है, वह ब्रह्मवति पुण्य कीर्ति एवं दिव्य विभूतियों को प्राप्त करता है और निर्मल अन्तःकरण होकर परम श्रेय का अधिकारी बनता है।
गोपथ ब्राह्मण में गायत्री के 24 अक्षरों को 24 स्तम्भों का दिव्य तेज बताया गया है। समुद्र में जहाजों का मार्गदर्शन करने के लिए जहां-तहां प्रकाश स्तम्भ खड़े रहते हैं। उनमें जलने वाले प्रकाश को देखकर नाविक अपने जलपोत को सही रास्ते से ले जाते हैं और चट्टानों से टकराने एवं कीचड़ आदि में धंसने से बच जाते हैं। इसी प्रकार गायत्री के 24 अक्षर 24 प्रकाश स्तम्भ बनकर प्रजा की जीवन नौका को प्रगति एवं समृद्धि के मार्ग पर ठीक तरह चलते रहने की प्रेरणा करते हैं। आपत्तियों से बचाते हैं और अनिश्चयता को दूर करते हैं।
गोपथ के अनुसार गायत्री चारों वेदों की प्राण, सार, रहस्य एवं तन है। साम संगीत का यह रथन्तर आत्मा के उल्लास को उद्वेलित करता है। जो इस तेज को अपने में धारण करता है, उसकी वंश परम्परा तेजस्वी बनती चली जाती है। उसकी पारिवारिक सन्तति और अनुयायियों की श्रृंखला में एक से एक बढ़कर तेजस्वी, प्रतिभाशाली उत्पन्न होते चले जाते हैं। श्रुति कहती है—
‘‘तेजो वै गायत्री छन्दसां रथन्तरमं साम्नाम् तेज श्चतुर्विशस्ते माना तेज एवं तत्सम्यक् दधाति पुत्रस्थ पुत्रस्तेजस्वी भवति ।’’
—गोपथ
‘‘गायत्री सब वेदों का तेज है। सामवेद का यह रथन्तर छन्द ही 24 स्तम्भों का यह दिव्य तेज है। इस तेज को धारण करने वाले की वंश परम्परा तेजस्वी होती है।’’
गतुर्विशाक्षरी विद्या पर तत्व विनिर्मिता । तत्करातु यात्कार पयंत शब्द ब्रह्मस्वरुपिणि ।।
—गायत्री तन्त्र
‘‘तत् से लेकर प्रचोदयात् के 24 अक्षरों वाली गायत्री पर तत्व अर्थात् परा विद्या से ओत-प्रोत हो।’’
गायत्री के 24 अक्षर आठ-आठ शब्दों के तीन पादों में विभाजित हैं। इन तीन पादों का अपना महत्व है। तीन पाद तीनों लोकों की समस्त विभूतियां अपने अन्दर धारण किये हुए हैं। जो उन्हें ठीक तरह जान-समझ लेता है, उन्हें प्रयोग में लाने की प्रक्रिया समझ लेता है वह त्रयलोक विजयी की तरह आनन्दित होता है। ‘
‘भूमिरन्तरिक्ष, द्यौरित्यष्टा व क्षराव्यष्टा क्षराध्वा एवं गायत्र्यै पद मेदुहैवस्या एत्सया एतत्सयावेदतेषु लोकेषु ताविद्धि जयति योऽस्याएतद् देवं पदं वेद ।’’
—वृहदारण्यक
अर्थात्—भूमि अन्तरिक्ष, द्यौ ये तीनों गायत्री के प्रथम पाद के आठ अक्षरों के बराबर हैं। जो गायत्री के इस प्रथम पाद को जान लेता है, सो तीनों लोकों को जीत लेता है।
वृहदारण्यक उपनिषद् में गायत्री के तीन चरणों के द्वारा उपलब्ध हो सकने वाले प्रतिफलों का उल्लेख मिलता है। जिससे जाना जाता है कि इस महामन्त्र का आश्रय लेने वाला साधक क्या कुछ प्राप्त करने में सफल हो सकता है।
तत्सवितुर्वरेण्यम् । मधुवाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धवः । माहवीनः सन्त्वेवीषधी । भूः स्वाहा भर्गो देवस्य धीमहि । मधुनक्त युतोषसो मधुमत्यार्थिक रजः । मधु द्यौ रस्तु नः पिता । भुतः स्वाहा । धियो योनः प्रचोदयात् । मधु मान्ना वनस्पति मधु या-अस्तु सूर्यः माध्वी र्गावो भवन्तुनः । स्वः स्वाहाः सर्वाश्च मधुमती रहयेवेदसर्व भूयांस भूर्भुवः स्वः स्वाहा ।
—वृहदारण्यक —(तत्सवितुर्वरेण्यं) मधुप वायु चले, नदी और समुद्र रसमय होकर रहें। औषधियां हमारे लिए मंगलमय हो। द्युलोक हमें सुख प्रदान करें।
—(भर्गोदेवस्य धीमहि) रात्रि और दिन हमारे लिये सुखकारक हों। पृथ्वी की रज हमारे लिये मंगलमय हो। द्युलोक हमें सुख प्रदान करें।
—(धियो योनः प्रचोदयात्) वनस्पतियां हमारे लिए रसमयी हों। सूर्य हमारे लिए सुखप्रद हो, उसकी रश्मियां हमारे लिए कल्याणकारी हों। सब हमारे लिए सुखप्रद हों। मैं सबके लिए मधुर बन जाऊं।
यों उपरोक्त मन्त्र में प्रार्थना जैसी शब्दावली का प्रयोग हुआ है पर उसमें जिस भावना का संकेत है उसे सहज समझा जा सकता है। प्रथम पाद में वायु, नदी समुद्र, रस और औषधियों के, दूसरे पाद में दिन, रात्रि, पृथ्वी समृद्धि एवं द्युलोक के, तीसरे पाद में धन-धान्य एवं ऋतुओं के अनुकूल होकर सुख-वैभव प्रदान करने की चर्चा है और साधक को इतना मधुर—सुसंस्कृत—बन सकने का सन्देश हैं जिससे उसके लिए सब कोई अनुकूल एवं मधुर बन सकें।
गायत्री-साधना से इस प्रकार की उपलब्धियों की कामना मात्र भावुकता की 74 प्रतिक्रिया नहीं है। महाभारत के भीष्मपर्व में 24 अक्षर वाली गायत्री के अक्षरों का रहस्य, मर्म, प्रकाश, प्रभाव एवं परिणाम जानने वालों को महान कल्याण कारी कहा गया है और पतन एवं विनाश का कष्ट न सहने का आश्वासन दिया गया है। ‘गायत्री-संहिता’ में गायत्री के 24 अक्षरों की शाब्दिक संरचना रहस्य-युक्त बताया गया है, और उन्हें ढूंढ़ निकालने के लिए विज्ञजनों को प्रोत्साहित किया गया है। शब्दार्थ की दृष्टि से गायत्री की भाव-प्रक्रिया में कोई रहस्य नहीं है।सद्बुद्धि की प्रार्थना उसका प्रकट भावार्थ एवं प्रयोजन है। यह सीधी-सादी सी बात है जो अन्यान्य वेदमंत्रों तथा आप्त वचनों में अनेकानेक स्थानों पर व्यक्त हुई हैं अक्षरों का रहस्य इतना ही है कि साधक को सत्प्रवृत्तियां अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं। इस प्रेरणा को जो जितना ग्रहण कर लेता है वह उसी अनुपात से सिद्ध पुरुष बन जाता है। कहा गया है—
चतुर्विशतिवर्णेर्या गायत्री गुम्फिता श्रुतो । रहस्यमुक्तं तत्रापि दिव्यै रहस्यवादिभिः ।।
—गायत्री संहिता
‘‘वेदों में जो गायत्री चौबीस अक्षरों में गूंथी हुई है, विधान लोग इन चौबीस अक्षरों के गूंथने में बड़े-बड़े रहस्यों को छिपा बतलाते हैं।’’ गायत्री की सिद्धियां भीतर से आती और बाहर प्रकट होती हैं। इस तथ्य को जितनी जल्दी, जितनी अच्छी तरह समझा जा सके उतना ही उत्तम है। यह भ्रम मिटना ही चाहिए कि पूजा के बदले किसी पर आकाश से वैभव टपकता है। वस्तुतः सत्प्रवृत्तियां ही लोक व्यवहार में सिद्धियां बनकर प्रकट होती हैं—
प्रादुर्यवन्ति वे सूक्ष्माश्चतुर्विशति शक्तयः । अक्षरेभ्यस्तु गायत्र्या मानवानां ह मानसे ।।
—गायत्री संहिता
‘‘मनुष्य के अन्तःकरण में गायत्री के चौबीस अक्षरों से चौबीस सूक्ष्म शक्तियां प्रकट होती हैं।’’ गायत्री के ‘‘धीमहि प्रचोदयात्’’ शब्द इन्हीं प्रेरणाओं से भरे पड़े हैं। ‘धीमहि’ अर्थात् धारण करना। यह धारणा शिथिल, निर्जीव, निष्क्रिय नहीं वरन्, इतनी प्रचण्ड होनी चाहिए, जिसे प्रेरणा का जा सके। ‘प्रचोदयात्’ में प्रेरणा भरी अन्तः स्थिति का ही महत्व बताया गया है।
गायत्री महामन्त्र के परम सामर्थ्यवान 24 अक्षर
गायत्री महामन्त्र में जिन 24 अक्षरों का प्रयोग किया गया है, उसमें मन्त्र-शास्त्र की—शब्द विज्ञान की—रहस्यमय प्रक्रिया प्रयुक्त हुई है। अर्थ की अभिलाषा के लिए इनसे भी सरल और भावपूर्ण शब्दों का प्रयोग हो सकता है। 4 वेदों में लगभग 70 मन्त्र ऐसे हैं जो गायत्री मन्त्र में दी गई शिक्षा और प्रेरणा को प्रस्तुत करते हैं। पर उनका महत्व गायत्री जैसा नहीं माना जाता। इस महामन्त्र की गरिमा में उसमें प्रयुक्त हुए क्रम का असाधारण महत्व है।
सितार के तारों को अमुक क्रम में बजाने पर उनमें से अमुक राग की झंकृति निकलती हैं। यदि उंगली फिराने का क्रम बदल दिया जाय तो दूसरी ध्वनि एवं रागनी निकलने लगेगी। तारों पर हाथ रखने का क्रम दबाव एवं उतार चढ़ाव का परिवर्तन उस एक ही सितार यन्त्र में से अगणित प्रकार की राग-ध्वनियां प्रस्तुत करता है। ठीक उसी प्रकार शब्दों का उच्चारण जिस क्रम एवं श्रृंखला से किया जाता है उसके अनुसार सूक्ष्म आकाश में, ईथर में—विभिन्न प्रकार की ध्वनि लहरियां प्रादुर्भूत होती हैं। इनका स्पर्श मानव मस्तिष्क में अलग-अलग प्रकार से प्रभाव उत्पन्न करता है।
शब्दों का सामान्य प्रभाव उनके अर्थों के आधार पर मस्तिष्क ग्रहण करता है। पर सूक्ष्म मस्तिष्क पर शब्दों के अर्थ का नहीं उनके द्वारा उत्पन्न हुई स्पन्दन स्फुरणाओं का प्रभाव पड़ता है। एक शब्द श्रृंखला को—वाक्य को—यदि उलट-पुलट कर बोला जाय तो अर्थ में अन्तर आयेगा। केवल व्याकरण सम्बन्धी अशुद्धि मानी जायेगी। किन्तु इस सामान्य-सी उलट-पुलट से सूक्ष्म आकाश में स्पन्दन क्रम बहुत बदल जायगा और उसके रहस्यमय प्रभाव में भारी अन्तर रहेगा। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए वेदों के निर्माता ने इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा है कि हर मन्त्र में उसके अक्षर इस क्रम में संजोये जायें जिससे वह शक्ति प्रखर स्तर पर प्रादुर्भूत हो सके जिसके लिए उसकी रचना की गई। मन्त्र विज्ञान का सारा ढांचा इसी तथ्य पर खड़ा हुआ है।
अर्थ न जानने पर भी मन्त्र अपना प्रभाव प्रस्तुत करते हैं। अधिकांश मन्त्रों का अर्थ उनके प्रयोक्ता जानते भी नहीं, और न उसकी आवश्यकता समझते हैं। अर्थ न जानने पर भी वे उतना ही प्रभाव प्रस्तुत करते हैं, जितना अर्थ जानने पर। अर्थ का प्रभाव विचारणा, शिक्षा एवं भावना की दृष्टि से अवश्य है, पर जहां प्रकृति के सूक्ष्म अन्तराल में स्पन्दन प्रक्रिया का वैज्ञानिक सम्बन्ध है वहां शब्द का ठीक ढंग से उच्चारण करना भी अभीष्ट प्रयोजन को पूरा कर देता है। यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि गायत्री का या दूसरे मन्त्रों का अर्थ नहीं जाना जाय। जानने से शिक्षणात्मक एवं बौद्धिक लाभ भी हैं पर यदि यह अर्थ विदित न हो तो भी शब्द शक्ति अपना वैज्ञानिक प्रयोजन अपने ढंग से करती ही रहेगी, यहां इतना भर कहा जा रहा है। यही तथ्य है जिसके आधार पर यज्ञ, अनुष्ठान एवं कर्म-काण्डों के अक्सर प्रयुक्त हुए मन्त्रों का अर्थ न जानने पर भी उस आयोजन में सम्मिलित नर-नारी लाभान्वित होते हैं। वेद परायण यज्ञों में कितने लोग सब मन्त्रों का अर्थ समझते हैं? जानने पर भी आयोजनों में सम्मिलित भरपूर लाभ उठाते हैं।
गायत्री महामन्त्र में प्रयुक्त हुए 24 अक्षर जब उच्चारित किये जाते हैं तो सर्वप्रथम मुख के विभिन्न अवयव, दन्त, ओष्ठ जिह्वा कण्ठ, तालु आदि का परिचालन होता है। इन शब्द मूल स्थलों की गतिविधियां शरीर में विभिन्न स्थानों पर अवस्थित शक्ति केन्द्रों पर प्रभाव डालती हैं और उन्हें प्रसुप्त स्थिति से जागृति में परिणित कर देती है। यहां हमें यह जानना होगा कि इस देव-देवालय के विभिन्न भागों पर ऐसे शक्ति संस्थान बने हुए हैं जिन्हें ऋषि-सिद्धियों का रत्न-भण्डार कहा जा सकता है। वे सामान्य व्यक्तियों के शरीरों में मूर्छित पड़े रहते हैं। इसलिए उनका जीवन पशु-पक्षियों एवं कीट-पतंगों जैसा आहार, निद्रा, भय, मैथुन की जीव-प्रवृत्तियों तक सीमित रह जाता है, किन्तु यदि कहीं उन मूर्छित शक्ति स्रोतों को किसी प्रकार जगाया जा सके तो सामान्य-सा दीखने वाला, शरीर को भी धारण करने वाला देखते-देखते महापुरुष, सिद्धि-पुरुष एवं देव भूमिका में विचरण करने वाला बन सकता है। गायत्री-मन्त्र में प्रयुक्त अक्षरों का उच्चारण इन शक्ति कोशों को प्रभावित करती है और उसकी प्रसुप्त क्षमता को जागृत करके आत्मबल की सम्पन्नता से लाभान्वित बनता है।
षट-चक्रों का नाम अध्यात्म-विद्या के प्रेमियों ने सुना होगा। मेरुदण्ड के आदि से लेकर अन्तिम सिरे तक पहुंचते-पहुंचते छह स्थानों पर छह शक्ति-संस्थान पाये जाते हैं। इनमें ऐसी विद्युत धाराओं का तारतम्य है जो निखिल आकाश में व्याप्त प्रचण्ड शक्तियों के साथ अपना सम्बन्ध बनाये रख रही हैं। यह षटचक्र—शक्ति संस्थान जब जागृत होते हैं तो उनकी सक्रियता बढ़ जाती है और वही बढ़ी हुई सक्रियता प्रकृति-प्रवाह में से अपने काम की धाराओं को पकड़ कर अभीष्ट प्रयोजन के लिए अपने समीप खींच लेती है। जिस प्रकार अजगर अपने नेत्रों की विद्युत धारा से छोटे-मोटे जीवों को अपनी ओर खींचता है और वे बेचारे अनायास ही घिसटते हुए उसके मुख में चले जाते हैं, उसी प्रकार षट-चक्रों के जागृत शक्ति-संस्थान निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त एक से एक बढ़ी-चढ़ी विभूतियों को अपनी ओर आकर्षित करके उनके अधिपति बन जाते हैं। सिद्धि पुरुषों में ऐसी कितनी ही विशेषतायें-विभूतियां पाई जाती हैं, जिनसे वे सामान्य व्यक्तियों के स्तर की तुलना में कहीं अधिक सामर्थ्यवान एवं सुविकसित सिद्ध होते हैं। अष्ट सिद्धि नव निधि का वर्णन योग-शास्त्रों में मिलता है। साधना मार्ग पर चलने वाले कितने ही व्यक्तियों में कुछ अलौकिक विशेषतायें देखी जाती हैं, उनका वैज्ञानिक आधार यही है कि साधना द्वारा उस साधक ने अपने शरीर में सन्निहित शक्ति-संस्थानों को जगाया और उनसे ब्रह्माण्ड-व्यापी विभूतियों के आदान-प्रदान का सम्बन्ध जोड़ लिया।
षट्चक्र प्रख्यात है। उनके अतिरिक्त 24 विशिष्ट और 24 सामान्य शक्ति केन्द्र भी इस शरीर में विद्यमान हैं। इन्हें उपत्यिकायें और विभीषिकायें कहते हैं। 24 उपत्यिकायें छोटे-छोटे षटचक्रों जैसे शक्ति संस्थान ही हैं। यह शरीर के विभिन्न स्थानों पर विद्यमान हैं। गायत्री महामंत्र में 24 अक्षर जब स्पन्दित होते हैं तब मुख में उत्पन्न हुई गतिविधियों का सूक्ष्म प्रभाव उन उपत्यिकाओं के ऊपर पड़ता है और वे स्वसंचालित हल चल बनाकर उन्हें प्रसुप्त स्थिति से जाग्रत स्थिति में परिणित करने का कार्य आरम्भ कर देती हैं। अधिक जप करने की निरन्तर चल रही प्रक्रिया पत्थर पर घिसने वाली रस्सी की तरह प्रभाव डालती रहती है और वे संस्थान जैसे-जैसे अपनी मूर्छा दूर करके चेतन भूमिका में आते जाते हैं, वैसे-वैसे उस उपासना में संलग्न व्यक्ति अपने आपको अलौकिक शक्तियों से सुसम्पन्न अनुभव करता हुआ आत्म विकास की ओर बढ़ता चला जाता है।
शरीर के किस स्थान पर कौन उपत्यिका उपस्थित है और गायत्री मंत्र का कौन-सा अक्षर उसे प्रभावित करने का प्रयोजन पूर्व करता है, इसका दिग्दर्शन अगले पृष्ठ पर छपे चित्र में दिया गया है। जिस प्रकार टाइप राइटर की कुंजियों पर उंगली दबाने उससे जुड़ी हुई तीली उठती है और कागज पर टकरा कर अपना अक्षर छाप देती है। इसी मुख से स्पन्दित हुए गायत्री मंत्र के 24 अक्षर एक-एक उपत्यिकाओं पर प्रभाव डालते हैं और वे वैज्ञानिक व्यवस्था के आधार पर सूक्ष्म होने लग जाती हैं।
आधुनिक चिकित्सा शास्त्रियों ने नवीनतम खोजों के आधार पर मानव शरीर में अव्यवस्थित कुछ विलक्षण ग्रन्थियों की खोज की है। ये छोटी-छोटी गांठ, शरीर के विभिन्न स्थानों पर पड़ी हुई निरर्थक जैसी दीखती हैं। उनसे पसीना जैसा एक रस स्रवित होता रहता है, उसे ‘हारमोन’ कहते हैं। यह हारमोन स्राव रक्त में मिलते हैं तो विभिन्न प्रकार की विलक्षणताएं पैदा करते हैं। सामान्यता सभी शरीर हाड़-मांस की दृष्ट से एक ही तरह के हैं। जीवन-यापन और आहार-विहार के तौर तरीकों में थोड़ा-बहुत ही अन्तर होता है। फिर एक दूसरे में जमीन आसमान जैसा अन्तर पाया जाता है उसका क्या कारण है? इस प्रश्न का उत्तर शरीर-शास्त्री उन हारमोनों की विचित्रता और विलक्षणता बताते हैं। उनका कहना है कि अवयव एवं आहार-विहार का क्रम भले ही एक-सा हो—मनुष्यों में यह सूक्ष्म ग्रन्थियां असामान्य स्तर की होती हैं और उनसे स्रवित होने वाले हारमोन, न्यूनाधिक होने के कारण मनुष्यों में विलक्षणता पैदा कर देते हैं। शारीरिक, बौद्धिक, भावनात्मक एवं आत्मिक विशेषताओं का उत्तरदायित्व वे इन हारमोन ग्रन्थियों पर आरोपित करते हैं और साथ ही यह भी कहते हैं कि इन शक्ति संस्थानों पर औषधि या शल्य-क्रिया कोई काम नहीं करती है। इनकी गतिविधियों को घटाना-बढ़ाना यदि किसी माध्यम से सम्भव हो सकता है तो उसमें मानवीय विद्युत-विज्ञान के विज्ञानी ही सफल हो सकते हैं, शरीर-शास्त्री नहीं।
यह आत्मिक समर्थता—अलौकिकता किसी को उपहार में नहीं मिलती, वरन् प्रबल पुरुषार्थ द्वारा अपने भीतर उत्पन्न करनी पड़ती है। इसी उपार्जन-उत्पादन का नाम साधना अथवा तपश्चर्या है। यह अन्ध-विश्वास नहीं वरन् एक विशुद्ध विज्ञान है जिसकी सत्यता प्रयोग परीक्षण की कसौटी पर कसी जा सकती हैं। गायत्री-उपासना इस मार्ग पर चलने की एक पूर्ण सुव्यवस्थित एवं पग-पग पर परीक्षित क्रिया-पद्धति है। उसका वास्तविक शुभारम्भ 24 अक्षरों को बार-बार दुहराने से—जप करने से—ही होता है। क्रमबद्ध रूप से बार-बार किसी शब्द गुच्छक—मन्त्र का उच्चारण पुनरावृत्ति करते रहने से एक विशिष्ट प्रकार का वर्तुल बन जाता है और उस आधार पर एक स्वसंचालित शक्ति-प्रवाह प्रादुर्भूत होने लगता है। यह वर्तुल प्रवाह बाह्य-जगत में अभीष्ट स्तर की हलचल पैदा करता है और शरीर के भीतर की प्रसुप्त उपात्यिकाओं को एक ऐसी क्रमबद्ध प्रक्रिया के साथ शनैः शनैः सजग करने लगता है, जिसमें कोई अवांछनीय हड़बड़ी उत्पन्न न हो तांत्रिक उपासनायें तीव्र और तीक्ष्ण होती हैं। उनसे शक्ति-केन्द्रों के जागरण में शीघ्रता तो होती है पर साथ ही यह खतरा बना रहता है कि द्रुतगामी हलचल आत्मिक क्षेत्र में हड़बड़ी पैदा कर दें और साधक को किसी अप्रत्याशित जोखिम का सामना करना पड़े। दक्षिण-मार्गी उपासनाओं में सफलता कुछ देर से तो मिलती है पर किसी प्रकार का खतरा प्रस्तुत होने की आशंका नहीं रहती। जप ऐसा ही प्रारम्भिक प्रयोग है। उसका सहारा लेकर आत्म-शक्ति के अक्षय भण्डार से पूर्ण उपत्यिकाओं को शान्ति एवं सुव्यवस्था के साथ जगाया जा सकता है। जप के द्वारा जो शक्ति की वर्तुल प्रवाह-धारा प्रादुर्भूत होती है वह अपना काम करती रहती है और समयानुसार उसका आशाजनक प्रतिफल उत्पन्न होता है।
गायत्री तत्व-ज्ञान—गायत्री-साधना की सफलता के रहस्य गोपथ ब्राह्मण में अच्छी तरह समझाये गये हैं। उसके अन्तर्गत मौदगल्य और मैत्रेय संवाद में गायत्री के तत्वदर्शन पर 33-34-35-36 कण्डिकाओं में विस्तृत प्रकाश डाला गया है।
मैत्रेय पूछते हैं—‘‘सवितुर्वरेण्यम् भर्गोदेवस्य, कवयः किश्चित आहुः’’ अर्थात् हे भगवन! यह बताइये कि ‘‘सवितुर्वरेण्यम् भर्गोदेवस्य’’ इसका अर्थ सूक्ष्मदर्शी विद्वान् क्या करते हैं?
इसका उत्तर देते हुए मौदगल्य कहते हैं—‘‘सविता प्रविश्यताः प्रचोदयात याभित्र एति’’। अर्थात् सविता की आराधना इसलिए है कि वे बुद्धि क्षेत्र में प्रवेश करके उसे शुद्ध करते और सत्कर्म परायण बनाते हैं।
वे आगे और भी कहते हैं—‘‘कवय देवस्य सवितुः वरेण्यं भर्ग अन्न पाहु’’ अर्थात् तत्वदर्शी सविता का आलोक अन्न में देखते हैं। अन्न की साधना में जो प्रखर पवित्रता बरती जाती है, उसे सविता का अनुग्रह समझा जा सकता है।
आगे और भी स्पष्ट किया गया है—‘‘मन एवं सविता वाक् सात्रित्री’’ अर्थात् परम तेजस्वी सविता जब मनः-क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो जिह्वा को प्रभावित करते हैं और वचन के दोनों प्रयोजनों में जिह्वा पवित्रता का परिचय देती हैं। इस तथ्य को आगे और भी अधिक स्पष्ट किया गया है—‘‘प्राण एवं सविता अन्नं सावित्री, यत्र ह्येव सविता प्राणस्तरन्नम् । यत्र वा अन्न तत् प्राण इत्येते ।’’ अर्थात् सवित प्राण है और सावित्री अन्न। जहां अन्न है वहां प्राण होगा और जहां प्राण है वह अन्न। प्राण जीवन, जीवठ, संकल्प, एवं प्रतिभा का प्रतीक है। यह विशिष्टता पवित्र अन्न की प्रतिक्रिया है। प्राणवान् व्यक्ति पवित्र अन्न ही स्वीकार करते हैं। एवं अन्न की पवित्रता को अपनाये रहने वाले प्राणवान बनते हैं।
इस प्रतिपादन में गायत्री महाशक्ति के अवतरण के लिए मन की—बुद्धि की—वाणी की—अन्न की पवित्रता को अत्यधिक आवश्यक बताया गया है। इसके बिना मात्र गायत्री की आराधना, अपंग एकांगी रह जाती है और अभीष्ट फल देने में असमर्थ रहती है।
सविता सूक्ष्म भी है और दूरवर्ती भी, उसका निकटतम प्रतीक यज्ञ है। यज्ञ को सविता कहा गया है। उसकी पूर्णता भी एकाकी-पन में नहीं है। सहधर्मिणी सहित यज्ञ ही समग्र एवं समर्थ माना गया है। यज्ञ पत्नी दक्षिणा है। दक्षिणा को सावित्री कह सकते हैं। 33 वीं कण्डिका में कहा गया है—‘‘यज्ञ एवं सविता दक्षिणा सावित्री’’ अर्थात् यज्ञ सविता है और दक्षिणा सावित्री। इस दोनों को अन्योन्याश्रित माना जाना चाहिए। यज्ञ के बिना दक्षिणा की और दक्षिणा के बिना यज्ञ की सार्थकता नहीं होती। यह यज्ञ का तत्त्वज्ञान उदार परमार्थ प्रयोजनों में है। यज्ञ का तात्पर्य सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में योगदान करना है। गायत्री जप की पूर्णता कृत्य द्वारा होती है। इसका तत्त्वज्ञान यह है कि पवित्र यज्ञीय जीवन जिया जाय, साथ ही सविता देवता को प्रसन्न करने वाली—उसकी प्रिय पत्नी दक्षिणा का भी सत्कार किया जाय। यहां दुष्प्रवृत्तियों के परित्याग और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन करने के निमित्त किये गये संकल्पों को ही भाव भरी दक्षिणा देव दक्षिणा समझा जाना चाहिए।
गायत्री उपासना में सफलता-असफलता मिलने की पृष्ठभूमि में शास्त्रोक्त क्रिया कृत्यों का जितना महत्व है उससे भी अधिक उस तत्वज्ञान का है जिसमें साधक को व्यक्तित्व परिष्कृत करने के लिए मन, बुद्धि और आहार को पवित्र बनाने तथा सत्प्रवृत्तियों को संवर्धन में प्रबल प्रयत्न करने वाली बात भी सम्मिलित है।
गायत्री उपासना की दिनचर्या, क्रम, पद्धति ऐसी होनी चाहिए जिसे ब्रह्मकर्म, तप, साधन कहा जा सके। कहा गया है कि—‘‘इदं ब्रह्म ह श्रियं प्रतिष्ठाम् अयवनम् ऐक्षत’’—अर्थात्—ब्रह्मा ने गायत्री में शोभा, सम्पदा और कीर्ति के सभी तत्त्व भर दिये। किन्तु साथ ही यह भी प्राविधान रखा कि—‘‘सावित्र्या ब्राह्मणं सृष्ट्वा तत् सावित्री पर्यपधात् ।’’ अर्थात् उसने गायत्री को धारण कर सकने में समर्थ ब्राह्मण को सृजा और उसे सावित्री के साथ बांध दिया। ब्राह्मण वंश से नहीं, ऐसे कम करने से बनता है, जिनमें सत्य और तप का व्रत जुड़ा हुआ है। गोपथ की इसी कण्डिका में इस तथ्य को प्रकट करते हुए कहा गया है—‘‘कर्मणा तपः, तपसः सत्यम्—सत्येन ब्रह्म ब्रह्मणा ब्राह्मणम्-ब्राह्मणेन व्रतम् समदधात् ।’’ अर्थात् सत्कर्मों को तप कहते हैं—तप से सत्य की प्राप्ति होती है सत्य ही ब्रह्म है—ब्रह्म को धारण करने वाला ब्राह्मण—ब्राह्मण वह जो आदर्शपालन का व्रत धारण करे—ऐसे ही व्रतधारी ब्राह्मण को गायत्री की प्राप्ति होती है।
शालीनता एवं तपश्चर्या की बात पढ़ते, सुनते, या सोचते रहने से काम नहीं चलता। सदाचरण को व्रत रूप में जीवन-क्रम में अविच्छिन्न रूप से समाविष्ट रखा जाना चाहिए। इस परिपालन के आधार पर ही ब्रह्मतेज प्रखर होता है और गायत्री-तत्व की उपलब्धि में कृतकृत्य होने का अवसर मिलता है। मौदगल्य कहते हैं। ‘‘व्रतेन वै ब्राह्मणः संशितः भवति-अशून्य भवति-अविच्छिन्नः अस्य तन्तुः—अविच्छिन्नं जीवनं भवति’’—अर्थात् व्रत से ब्राह्मणत्व मिलता है—जो ब्राह्मण है वही मनीषी है—ऐसा व्यक्ति समृद्ध और समर्थ रहता है- उसकी परम्परा छिन्न नहीं होती और मरण सहज पड़ता है।
गायत्री का तत्वज्ञान और उसके अनुग्रह का रहस्य बताते हुए महर्षि मौद्गल्य ने विस्तार पूर्वक यही समझाया कि चिन्तन और चरित्र की दृष्टि से—संयम और परमार्थ की दृष्टि से व्यक्तित्व को पवित्र बनाने वाले ब्रह्मपरायण व्यक्ति ही गायत्री के तत्ववेत्ता है और उन्हीं को वे सब लाभ मिलते हैं जिनका वर्णन गायत्री की महिमा एवं फलश्रुति का वर्णन करते हुए स्थान-स्थान पर प्रतिपादित किया गया है। इस रहस्य के ज्ञाता की ओर संकेत करते हुए गोपथ ब्राह्मण का ऋषि कहता है। ‘‘यः एवं वेद यः च एवं विद्वान् एवं एतम् व्याचष्टे’’—‘‘जो इस पवित्र जीवन समेत की गई सावित्री साधना का आश्रय लेता है, वही ज्ञानी है—वही मनीषी है, उसी को प्रर्णता प्राप्त होती है।’’
मानवी सत्ता से लेकर विस्तृत ब्रह्माण्ड में समान रूप से व्याप्त त्रिपदा गायत्री का भुवनेश्वरी रूप सर्व विदित है। गायत्री-बीज ‘ॐकार’ है। उसकी सत्ता तीन लोक (भूः-भुवः-स्वः) लोकों में संव्याप्त है। साधक के लिए उसके 24 अक्षर सिद्धियों एवं उपलब्धियों से भरे-पूरे हैं। इन अक्षरों में सन्निहित प्रेरणाओं को अपनाने वाले साधक निश्चित रूप से आप्तकाम बनते हैं और उस तरह खिन्न उद्विग्न नहीं रहते जिस तरह कि लिप्सा-लालसाओं की अनुपयुक्त कामनाओं की आग में जलते-भुनते हुए शोक-संताप सहते हैं। इस तथ्य को ‘‘रुद्यामल’’ में इस प्रकार प्रकट किया गया है—
गायत्री त्रिपदा देवी त्र्यक्षरी भुवनेश्वरी । चतुर्विशाक्षरा विद्या सा चैवाभीष्ट देवता ।। —रुद्रयामल
‘‘तीन पद वाली तथा तीन अक्षर (भूःभुवःस्वः) युक्त समस्त भुवनों की अधिष्ठात्री 24 अक्षर वाली परा विद्या रूप गायत्री देवी—सबको इच्छित फल देने वाली है।’’ स्पष्ट है कि गायत्री तत्वज्ञान को हृदयंगम करके उसके अनुसार पद्धति अपनाने वाले साधनों के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है।