Books - गायत्री की चमत्कारी साधना
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Language: HINDI
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महासिद्धि दाता-गायत्री
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पिछले पृष्ठों पर गायत्री जप की विधियां हम विस्तार पूर्वक बता चुके हैं। इनमें से किसी भी विधि के साथ उपासना करने से गायत्री माता प्रसन्न होती हैं। जब अवकाश हो मानसिक जप करते रहना चाहिये, इससे एकाग्रता होती है, चित्त में स्थिरता आती है। मन में से विषय-विकार और कषाय-कल्मष कम होते हैं, जैसे जलती हुई अग्नि के निकट जाने से जंगली जानवर डरते हैं वैसे ही गायत्री का निवास जिस अन्तःकरण में है उसके भीतर घुसते हुए पाप एवं दुर्भाव भी डरते हैं। अधिक समय तक चन्दन के साथ रहने से साधारण लकड़ी भी चन्दन जैसी सुगन्धित हो जाती है वैसे ही गायत्री का सहवास करते हुए मनुष्य अन्तःकरण भी शुद्धता और सात्विकता से युक्त होने लगता है।
विधि पूर्वक जपा हुआ मन्त्र शीघ्र सिद्ध हो जाता है। राजमार्ग पर होकर चलने से वे खटके अपने निश्चित स्थान तक यात्री पहुंच जाता है। इसलिये जो नियम बताये गये हैं उनके पालन करने में जहां तक सम्भव हो सावधानी रखनी चाहिये। यदि विधि ठीक प्रकार समझ में न आवे या उसे ठीक तरह से प्रयोग करने में कुछ कठिनाई प्रतीत हो तो मानसिक जप करते रहना चाहिये। वेद मन्त्र को शुद्ध रूप से विधि पूर्वक उच्चारण करना चाहिये। किन्तु जब उच्चारण ही नहीं करना है तो वह विधान संकल्प रूप हो जाता है। मानसिक जप यदि अविधि पूर्वक भी हो तो कुछ दोष नहीं आता। इसी प्रकार ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ इतने मन्त्र का आंशिक जप करने से भी विधि व्यवस्था की पूरी पाबन्दी से बचा जा सकता है। किन्तु स्मरण रखना चाहिये पूरा मन्त्र शुद्ध उच्चारण एवं सविधि पूर्वक जपने से जो फल मिलता है वह अधूरे मन एवं अविधि पूर्वक जप का नहीं है।
साधारणतः सवालक्ष जप की एक मर्यादा समझी जाती है। दूध के नीचे आग जलाने से अमुक मात्रा की गर्मी आ जाने पर एक उफान आता है, इसी प्रकार सवालक्ष जप हो जाने पर एक प्रकार का क्षरण होता है। उसकी शक्ति से सूक्ष्म जगत में एक तेजोमय वातावरण का उफान आता है जिसके द्वारा अभीष्ट कार्य के सफल होने में सहायता मिलती है। दूध को गरम करते रहने से कई बार उफान आते हैं। एक उफान आया वह कुछ देर के लिये उतरा कि फिर थोड़ी देर बाद नया उफान आ जाता है। इसी प्रकार सवा लक्ष जप के बाद एक एक लक्ष जप पर शक्तिमय क्षरण के उफान आते हैं, उनसे निकटवर्ती वातावरण आन्दोलित होता रहता है और सफलता के अनुकूल परिस्थितियां उत्पन्न होती रहती हैं।
नीति का वचन है—‘अधिकस्य अधिकम् फलम्’ अधिक का अधिक फल होता है। गायत्री की उपासना सवालक्ष जप करने पर बन्द कर देनी चाहिये ऐसी कोई बात नहीं है, वरन् यह है कि जितना अधिक हो सकें करते रहना चाहिये, अधिक का अधिक फल है। इच्छा शक्ति, श्रद्धा, निष्ठा और व्यवस्था की कमी के कारण अनुष्ठान का पूरा फल दृष्टिगोचर नहीं होता किन्तु यदि अधिक काल तक निरन्तर साधना को जारी रखा जाय तो धीरे धीरे साधक का ब्रह्मतेज बढ़ता जाता है। यह ब्रह्मतेज आत्मिक उन्नति का मूल है, स्वर्ग मुक्ति और आत्म शांति का पथ निर्माण करता है, इसके अतिरिक्त लौकिक कार्यों की कठिनाइयों का भी समाधान करता है, विपत्ति निवारण और अभीष्ट प्राप्ति में इस ब्रह्म तेज द्वारा असाधारण सहायता मिलती है।
सिद्धि के निकट पहुंचे या नहीं? इस बात की परीक्षा के लिये कुछ चिन्ह हैं। यदि इनमें से कोई चिन्ह किसी अंश में प्रकटित होने लगें तो समझना चाहिये कि साधना में सफलता प्राप्त हो रही है। वे चिन्ह यह हैं (1) चेहरे की स्निग्धता बढ़ने लगती है, चमक आ जाती है (2) शरीर में एक विशेष प्रकार की सोंधी गन्ध आने लगती है (3) किसी वस्तु पर थोड़ी देर दृष्टि जमाई जाय तो उस वस्तु के आस पास चिनगारियां सी उड़ती दिखाई पड़ती हैं। (4) किसी आदमी को स्पर्श करें तो उसे कुछ फुरहरी, रोमांच या झटका सा मालूम देता है (5) शरीर में हलकापन और चित्त में भारीपन प्रतीत होता है (6) पवित्रता, परोपकार और सात्विकता के विचारों की ओर रुचि बढ़ती है (7) आंखों में नीलापन और नमी बढ़ जाती है (8) निद्रा में कमी हो जाती है (9) स्वप्न में प्रकाशवान और पुरुष जाति की वस्तुएं अधिक दिखाई पड़ती हैं (10) घृत युक्त पदार्थों की ओर अधिक रुचि रहती है। यह आवश्यक नहीं कि यह सब लक्षण पूर्ण रूप से प्रकट ही हों, इनमें से थोड़े से चिन्ह भी किन्हीं अंशों में प्रस्फुटित हो रहे हों तो साधक अपनी साधना पर सन्तोष कर सकता है।
साधक जप सिद्ध के रूप में परिणत होना आरम्भ करता है तो उस समय उसकी अन्तःचेतना बलयुक्त होती है। बिजली के करेन्ट को जिस ओर लगा दिया जाय उधर ही काम करने लगते हैं, पंखा, बत्ती, रेडियो, टेलीफोन, मोटर, मशीन, जिस यन्त्र के साथ बिजली का तार जुड़ जाता है उसमें क्रिया शीलता आ जाती है। इसी प्रकार साधक अपने अन्तःशक्ति को जिधर भी लगा देता है उधर चमत्कारिक सफलता दिखाई देने लगती है। सिद्धि को आठ प्रकार का और ऋद्धि को नौ प्रकार का कहा गया है परन्तु मूल में एक ही वस्तु है। अलग अलग सफलताओं के अलग अलग नाम रख लिये गये हैं तो भी उन सफलताओं का स्रोत एक ही है। जो पहलवान है वह दौड़ भी सकता है, कूद भी सकता है, कुश्ती भी लड़ सकता है और भारी वजन को भी उठा सकता है। इसी प्रकार आत्म बल जिसमें है वह विभिन्न प्रकार के कठिन कार्यों में आश्चर्यजनक सफलताएं पा सकता है।
गायत्री की उपासना से जिसने आत्मशक्ति एकत्रित की हैं, उसे चाहिये कि अपनी बुद्धि को शुद्ध, पवित्र और सात्विक बनाता हुआ जीवन को आदर्श बनावे। क्यों कि सबसे बड़ी सम्पत्ति इस दुनिया में यह है कि किसी मनुष्य को आदर्श व्यक्ति या महापुरुष कहा जाय। जिसके विचार और कार्यों की नकल करते हुए लोग अपने को भाग्यवान् समझे वह महापुरुष धन्य है। अपनी स्वार्थ भावना, लिप्सा और भोगेच्छाओं पर संयम करता हुआ परोपकार परमार्थ और सत्कार्यों में लगा रहे। स्वयं ऊंचा उठे और दूसरों को उठावे। गायत्री द्वारा बुद्धि का परिमार्जन और सन्मार्ग का अनुगमन इन दो कार्यों का करना श्रेष्ठ है। शुभ कर्मों द्वारा आत्मा को परमात्मा बना देना, मुक्तिपद प्राप्त करना भला इससे बड़ी सिद्धि और क्या हो सकती है?
आवश्यकता पड़ने पर उस शक्ति से दूसरे कार्य भी लिये जा सकते हैं। जैसे (1) मन्त्र को भोजपत्र या शुद्ध कागज पर रक्त चन्दन की स्याही बनाकर अनार की कलम से शुद्ध होकर लिखें और उसे कवच की तरह ताबीज में भर कर किसी को धारण करादें तो उसकी आपत्ति मिट जायगी और मनोवांछा पूरी होने योग्य बल मिलेगा। (2) गायत्री मन्त्र की आहुतियों से हवन करके उस भस्म को सुरक्षित रख लेना चाहिये इस भस्म को मन्त्र पढ़ते हुए किसी के मस्तक पर लगा दिया जाय तो उसको रोग, शोक, चिन्ता एवं भय से छुटकारा मिलता है। (3) गंगाजल को गायत्री मन्त्र से अभिमन्त्रित करके मार्जन करने से भूत बाधा, उन्माद, प्रलाप तथा अन्य मानसिक अव्यवस्थाओं का निवारण होता है। (4) गायत्री मन्त्र के साथ औषधि सेवन करने से रोगी को कई गुना लाभ होता है। (5) किसी मनुष्य की मूर्ति का ध्यान करते हुए गायत्री मन्त्र का जप करने से वह मनुष्य अपने प्रति उदारता एवं सहानुभूति के भाव रखने लगता है। (6) केसर की स्याही और अगर की लकड़ी की कलम से कांसे की थाली के भीतरी भाग में 108 बार गायत्री मन्त्र लिखकर गर्भवती को पिलाने से तेजस्वी पुत्र उत्पन्न होता है। (7) चांदी के पात्र में पांच तोले ताजा कुएं का जल लेकर प्रातःकाल सूर्य के सन्मुख खड़े होकर 108 बार गायत्री का जप करके पिलाने से स्त्री पुरुषों के रज तथा वीर्य के दोष दूर होते हैं। (8) रविवार मध्याह्नकाल में सूर्य के सन्मुख खड़े होकर गायत्री की पांच माला जपने से शत्रुओं के दुष्प्रयत्न निष्फल हो जाते हैं (9) गायत्री जपते हुए शयन करने से अच्छी नींद आती है और दुःस्वप्न नहीं होते (10) सिन्दूर और घृत मिलाकर व्यापार के स्थान या भण्डार गृह में गायत्री लिख देने से लक्ष्मी का निवास होता है और अच्छा लाभ रहता है।
इस प्रकार एक नहीं, अनेकों लाभ हैं जो साधक को स्वयं अनुभव में आने लगते हैं। जिस कार्य में भी गायत्री माता की सहायता लेकर हाथ डाला जाता है उसमें विजय ही मिलती है। गायत्री की महिमा अपार है। वह कहने सुनने और लिखने बांचने की नहीं वरन् स्वयं अनुभव करने की बात है।
नीति का वचन है—‘अधिकस्य अधिकम् फलम्’ अधिक का अधिक फल होता है। गायत्री की उपासना सवालक्ष जप करने पर बन्द कर देनी चाहिये ऐसी कोई बात नहीं है, वरन् यह है कि जितना अधिक हो सकें करते रहना चाहिये, अधिक का अधिक फल है। इच्छा शक्ति, श्रद्धा, निष्ठा और व्यवस्था की कमी के कारण अनुष्ठान का पूरा फल दृष्टिगोचर नहीं होता किन्तु यदि अधिक काल तक निरन्तर साधना को जारी रखा जाय तो धीरे धीरे साधक का ब्रह्मतेज बढ़ता जाता है। यह ब्रह्मतेज आत्मिक उन्नति का मूल है, स्वर्ग मुक्ति और आत्म शांति का पथ निर्माण करता है, इसके अतिरिक्त लौकिक कार्यों की कठिनाइयों का भी समाधान करता है, विपत्ति निवारण और अभीष्ट प्राप्ति में इस ब्रह्म तेज द्वारा असाधारण सहायता मिलती है।
सिद्धि के निकट पहुंचे या नहीं? इस बात की परीक्षा के लिये कुछ चिन्ह हैं। यदि इनमें से कोई चिन्ह किसी अंश में प्रकटित होने लगें तो समझना चाहिये कि साधना में सफलता प्राप्त हो रही है। वे चिन्ह यह हैं (1) चेहरे की स्निग्धता बढ़ने लगती है, चमक आ जाती है (2) शरीर में एक विशेष प्रकार की सोंधी गन्ध आने लगती है (3) किसी वस्तु पर थोड़ी देर दृष्टि जमाई जाय तो उस वस्तु के आस पास चिनगारियां सी उड़ती दिखाई पड़ती हैं। (4) किसी आदमी को स्पर्श करें तो उसे कुछ फुरहरी, रोमांच या झटका सा मालूम देता है (5) शरीर में हलकापन और चित्त में भारीपन प्रतीत होता है (6) पवित्रता, परोपकार और सात्विकता के विचारों की ओर रुचि बढ़ती है (7) आंखों में नीलापन और नमी बढ़ जाती है (8) निद्रा में कमी हो जाती है (9) स्वप्न में प्रकाशवान और पुरुष जाति की वस्तुएं अधिक दिखाई पड़ती हैं (10) घृत युक्त पदार्थों की ओर अधिक रुचि रहती है। यह आवश्यक नहीं कि यह सब लक्षण पूर्ण रूप से प्रकट ही हों, इनमें से थोड़े से चिन्ह भी किन्हीं अंशों में प्रस्फुटित हो रहे हों तो साधक अपनी साधना पर सन्तोष कर सकता है।
साधक जप सिद्ध के रूप में परिणत होना आरम्भ करता है तो उस समय उसकी अन्तःचेतना बलयुक्त होती है। बिजली के करेन्ट को जिस ओर लगा दिया जाय उधर ही काम करने लगते हैं, पंखा, बत्ती, रेडियो, टेलीफोन, मोटर, मशीन, जिस यन्त्र के साथ बिजली का तार जुड़ जाता है उसमें क्रिया शीलता आ जाती है। इसी प्रकार साधक अपने अन्तःशक्ति को जिधर भी लगा देता है उधर चमत्कारिक सफलता दिखाई देने लगती है। सिद्धि को आठ प्रकार का और ऋद्धि को नौ प्रकार का कहा गया है परन्तु मूल में एक ही वस्तु है। अलग अलग सफलताओं के अलग अलग नाम रख लिये गये हैं तो भी उन सफलताओं का स्रोत एक ही है। जो पहलवान है वह दौड़ भी सकता है, कूद भी सकता है, कुश्ती भी लड़ सकता है और भारी वजन को भी उठा सकता है। इसी प्रकार आत्म बल जिसमें है वह विभिन्न प्रकार के कठिन कार्यों में आश्चर्यजनक सफलताएं पा सकता है।
गायत्री की उपासना से जिसने आत्मशक्ति एकत्रित की हैं, उसे चाहिये कि अपनी बुद्धि को शुद्ध, पवित्र और सात्विक बनाता हुआ जीवन को आदर्श बनावे। क्यों कि सबसे बड़ी सम्पत्ति इस दुनिया में यह है कि किसी मनुष्य को आदर्श व्यक्ति या महापुरुष कहा जाय। जिसके विचार और कार्यों की नकल करते हुए लोग अपने को भाग्यवान् समझे वह महापुरुष धन्य है। अपनी स्वार्थ भावना, लिप्सा और भोगेच्छाओं पर संयम करता हुआ परोपकार परमार्थ और सत्कार्यों में लगा रहे। स्वयं ऊंचा उठे और दूसरों को उठावे। गायत्री द्वारा बुद्धि का परिमार्जन और सन्मार्ग का अनुगमन इन दो कार्यों का करना श्रेष्ठ है। शुभ कर्मों द्वारा आत्मा को परमात्मा बना देना, मुक्तिपद प्राप्त करना भला इससे बड़ी सिद्धि और क्या हो सकती है?
आवश्यकता पड़ने पर उस शक्ति से दूसरे कार्य भी लिये जा सकते हैं। जैसे (1) मन्त्र को भोजपत्र या शुद्ध कागज पर रक्त चन्दन की स्याही बनाकर अनार की कलम से शुद्ध होकर लिखें और उसे कवच की तरह ताबीज में भर कर किसी को धारण करादें तो उसकी आपत्ति मिट जायगी और मनोवांछा पूरी होने योग्य बल मिलेगा। (2) गायत्री मन्त्र की आहुतियों से हवन करके उस भस्म को सुरक्षित रख लेना चाहिये इस भस्म को मन्त्र पढ़ते हुए किसी के मस्तक पर लगा दिया जाय तो उसको रोग, शोक, चिन्ता एवं भय से छुटकारा मिलता है। (3) गंगाजल को गायत्री मन्त्र से अभिमन्त्रित करके मार्जन करने से भूत बाधा, उन्माद, प्रलाप तथा अन्य मानसिक अव्यवस्थाओं का निवारण होता है। (4) गायत्री मन्त्र के साथ औषधि सेवन करने से रोगी को कई गुना लाभ होता है। (5) किसी मनुष्य की मूर्ति का ध्यान करते हुए गायत्री मन्त्र का जप करने से वह मनुष्य अपने प्रति उदारता एवं सहानुभूति के भाव रखने लगता है। (6) केसर की स्याही और अगर की लकड़ी की कलम से कांसे की थाली के भीतरी भाग में 108 बार गायत्री मन्त्र लिखकर गर्भवती को पिलाने से तेजस्वी पुत्र उत्पन्न होता है। (7) चांदी के पात्र में पांच तोले ताजा कुएं का जल लेकर प्रातःकाल सूर्य के सन्मुख खड़े होकर 108 बार गायत्री का जप करके पिलाने से स्त्री पुरुषों के रज तथा वीर्य के दोष दूर होते हैं। (8) रविवार मध्याह्नकाल में सूर्य के सन्मुख खड़े होकर गायत्री की पांच माला जपने से शत्रुओं के दुष्प्रयत्न निष्फल हो जाते हैं (9) गायत्री जपते हुए शयन करने से अच्छी नींद आती है और दुःस्वप्न नहीं होते (10) सिन्दूर और घृत मिलाकर व्यापार के स्थान या भण्डार गृह में गायत्री लिख देने से लक्ष्मी का निवास होता है और अच्छा लाभ रहता है।
इस प्रकार एक नहीं, अनेकों लाभ हैं जो साधक को स्वयं अनुभव में आने लगते हैं। जिस कार्य में भी गायत्री माता की सहायता लेकर हाथ डाला जाता है उसमें विजय ही मिलती है। गायत्री की महिमा अपार है। वह कहने सुनने और लिखने बांचने की नहीं वरन् स्वयं अनुभव करने की बात है।