Books - ज्ञानयोग की साधना
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
ज्ञानयोग की साधना
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
ज्ञान का महत्व समझिये
जीवन की समस्त विकृतियों, अनुभव होने वाले सुख-दुःख, उलझनों अशांति आदि का बहुत कुछ मूल कारण मनुष्य का अपना अज्ञान ही होता है, यही मनुष्य का परम शत्रु है। चाणक्य ने कहा—‘‘अज्ञान के समान मनुष्य का और कोई दूसरा शत्रु नहीं है।’’ हितोपदेश में आया है—
‘‘आरभन्तेऽल्पमेवाज्ञाः कामं व्यग्रा भविन्त च।’’
‘‘अज्ञानी लोग थोड़ा-सा काम शुरू करते हैं किन्तु बहुत ज्यादा व्याकुल होते हैं।’’ शेक्सपीयर ने लिखा है—‘‘अज्ञान ही अन्धकार है।’’ प्रसिद्ध दार्शनिक पलेटो ने कहा—‘‘अज्ञानी रहने से जन्म न लेना ही अच्छा है, क्योंकि अज्ञान समस्त विपत्तियों का मूल है।’’
इस तरह अज्ञान जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है। यही जीवन की समस्त विकृतियों और कुरूपता का कारण है। कुरूपता का सम्बन्ध मनुष्य की शारीरिक बनावट से इतना नहीं है जितना अज्ञान और अविद्या से उत्पन्न होने वाली बुराइयों से है। समस्त विकृतियों, बुराइयों, शारीरिक व मानसिक अस्वस्थता का कारण अज्ञान और अविद्या ही है। सुख-सुविधापूर्ण जीवन बिताने के पर्याप्त साधन उपलब्ध होने पर भी कई लोग अपने अज्ञान और अविद्या के कारण सन्तप्त, उद्विग्नमना, अशान्त देखे जाते हैं। इसके विपरीत ज्ञान और विद्या के धनी सन्त, महात्मा, ऋषि प्रवृत्ति के व्यक्ति सामान्य साधनों में, यहां तक कि अभावों में भी सुख, शान्ति, सन्तोष का जीवन बिता लेते हैं। जीवन के सहज आनन्द को प्राप्त करते हैं।
अतः ज्ञान की उपलब्धि—विद्यार्जन और अज्ञान का निवारण जीवन की एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। ज्ञान संसार का सर्वोपरि उत्कृष्ट और पवित्र तत्त्व है।
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
‘‘इस संसार में ज्ञान के समान और कुछ पवित्र नहीं है।’’ [गीता] ‘‘ज्ञान बहुमूल्य रत्नों से भी अधिक मूल्यवान् है।’’
ज्ञान ही जीवन का सार है, ज्ञान आत्मा का प्रकाश है जो सदा एकरस और बन्धनों से मुक्त रहने वाला है। सर डब्लू. टेम्पिल ने लिखा है—‘‘ज्ञान ही मनुष्य का परम मित्र है और अज्ञान ही उसका परम शत्रु है।’’ बेकर ने कहा है—‘‘ज्ञान ही शक्ति है।’’
इस तरह ज्ञान जीवन का सर्वोपरि तत्त्व है। ज्ञान-धन जीवन का बहुमूल्य धन है। सभी प्रकार की भौतिक सम्पत्तियां समय पर नष्ट हो जाती हैं किन्तु ज्ञान-धन हर स्थिति में मनुष्य के पास रहता है और दिनों दिन विकास को प्राप्त करता है। ज्ञान अमोघ शक्ति है जिसके समक्ष सभी शक्तियां निष्प्रभ हो जाती हैं। ज्ञान जीवन का प्रकाश-बिन्दु है जो मनुष्य को सभी द्वन्द्वों, उलझनों, अन्धकारों की दीवार से निकालकर शाश्वत पथ पर अग्रसर करता है।
शुभाशुभ कर्मों से उत्पन्न होने वाले हर्ष, शोक, विक्षोभ, प्रसन्नता, मानसिक असन्तुलन मनुष्य के मन और शरीर में तीव्र प्रतिक्रिया पैदा करते हैं। हर्ष के प्रति आसक्ति, शोक से उत्पन्न होने वाली दुःखानुभूति दोनों ही मानव मन को मोहित कर उसे विवेकशून्य बना देने हैं और इसका परिणाम होता है गलत कार्य, गलत विद्या, जिनका पर्यवसान दुःख, द्वन्द्व, क्लेश, शोक आदि में ही होता है किन्तु ज्ञान का प्रकाश मनुष्य को इन दोनों ही प्रपंचों से मुक्त कर आत्मस्थिर, निःस्पृह और मुक्त बना देता है। इसी तथ्य की पुष्टि करते हुए गीताकार ने लिखा है—
‘‘यथैधांसि समिद्धोग्निर्भस्मसात्कुरुतेर्जुन।
ज्ञानाग्नि सर्व कर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।’’
‘‘हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मों को जलाकर नष्ट कर देती है।’’ ज्ञानी कर्म में लिप्त और आसक्त नहीं होता वरन् तटस्थ, निःस्पृह, निष्काम भाव से अपने कर्म में लगा रहता है। इसलिये वह कर्म बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
ज्ञान मनुष्य के चरित्र और व्यवहारिक जीवन को उत्कृष्ट बनाता है। ज्ञानी शुभ कर्म, शुभाचरण करके अपने आन्तरिक व बाह्य जीवन को पवित्र और उत्कृष्ट बना लेता है। महर्षि व्यास ने लिखा है—‘‘ज्ञान जीवन के सत्य का दर्शन ही नहीं कराता वरन् वह मनुष्य को बोलना, व्यवहार करना सिखाता है।’’ सन्त विनोबा भावे ने कहा है—‘‘मनुष्य जितना ज्ञान में घुसता जाता है उतना ही वह कर्म के रंग में रंगता है। ज्ञानी अपने कर्मों को अधिक उत्कृष्टता के साथ कर सकता है बजाय एक अज्ञानी के।’’ कर्म को पोषण देने वाला ज्ञान ही वस्तुतः सच्चा ज्ञान है। जो कर्म त्याग या अकर्मण्यता की ओर प्रेरित करे वह ज्ञान नहीं अज्ञान और अविद्या ही है।
ज्ञान का ध्येय सत्य है और सत्य ही आत्मा का लक्ष्य है। ज्ञान मनुष्य को सत्य के दर्शन कराता है। ‘‘बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान् माम् प्रपद्यते।’’ अर्थात् बहुत जन्मों के अन्त में ज्ञानी ही मुझे पाता है। (गीता)
स्वर्ग और नर्क मनुष्य के ज्ञान और अज्ञान का परिणाम है। ज्ञानी मनुष्य के लिए यह संसार स्वर्ग है। वह जहां भी रहता है स्वर्गीय वातावरण का सृजन कर लेता है तो अज्ञानी को पग पग पर अपने दुष्कृत्य और कुविचारों के कारण नारकीय प्रेरणाओं का सामना करना पड़ता है। इसलिए अज्ञान से निकल कर ज्ञान प्रकाश को प्राप्त करने की प्रेरणा देते हुए वेद भगवान् ने कहा है—
‘‘आरोह तमसो ज्योतिः।’’
‘‘अज्ञानान्धकार से निकल कर ज्ञान-प्रकाश की ओर बढ़ो।’’
‘‘केतुं कृण्वन्न केतवे पेशोमर्या आपेशसे। समुषद्रिभजायथाः।’’
‘‘हे मनुष्यों! अज्ञानियों के लिये ज्ञान देते हुए, कुरूप को रूप देते हुए विद्यादि से प्रकाशित लोगों के साथ प्रसिद्धि प्राप्त करो।’’ इन शब्दों में मानव-जीवन के एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि जीवन में अज्ञान को हटाकर ज्ञान की स्थापना की जाय और अपने अर्जित ज्ञान से उन लोगों की सहायता की जाय जिनका जीवन अज्ञान की विभीषिकाओं से कुरूप हो गया है और जो सदैव अपने आपको दुःखी, पीड़ित, असहाय महसूस करते हैं।
ज्ञान की साधना करना और उसके अनुसार आचरण करना, अपने उपार्जित ज्ञान से दूसरों का मार्गदर्शन करना ज्ञान-यज्ञ कहा गया है जिसे सर्वोत्कृष्ट बताते हुए गीताकार ने लिखा है—
‘‘श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाद् ज्ञान यज्ञः परंतपः।
सर्व कर्माखिलं पार्थ जाने परिसमाप्यते।’’
‘‘हे परंतप? द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है क्योंकि जितने भी कर्म हैं वे सब ज्ञान में ही समाप्त होते हैं। ज्ञानदान सर्वोपरि पुण्य है, शुभ कार्य है।’’ पदार्थ, धन सामग्री से किसी सीमा तक ही किसी की सहायता की जा सकती है और लेने वाला इनका दुरुपयोग करके उल्टी अपनी हानि भी कर सकता है, किंतु ज्ञान-दान मनुष्य का स्थायी रूप से भला करता है, उसे जीवन जीने में सहायक बनता है। इसलिये ज्ञानी को सबसे बड़ा वृद्ध माना गया है चाहे वह कितनी ही उम्र का क्यों न हो।
न तेन स्थगिरो भवति येनास्य पलितं शिरः।
बालोपि यः प्रजानाति तं देवाः स्थविरं विदुः।।
—महर्षि व्यास
‘‘कोई सिर के बाल सफेद होने से वृद्ध नहीं होता। बालक होकर भी यदि कोई ज्ञान सम्पन्न है तो वही वृद्ध माना जाता है।’’
शास्त्रकार, मनीषियों ने जिस ज्ञान और शिक्षा के संचय और प्रचार की आवश्यकता पर बल दिया है वह यह स्कूली, शिक्षा नहीं है। इसे तो लौकिक जीवन को साधन सम्पन्न बनाने की दृष्टि से प्राप्त करना ही चाहिये। लोग अपने आप भी करते रहते हैं। इससे लौकिक आवश्यकताओं की ही एक अंश तक पूर्ति हो सकती है पर अपनी आत्मा का कल्याण, आत्मसंतोष प्राप्त करने एवं दूसरों को अज्ञानान्धकार से छुड़ाकर सदाचार और शान्ति के मार्ग पर चलने की शक्ति जिस ज्ञान में है वह लौकिक नहीं आध्यात्मिक ज्ञान है।
आत्मा की अमरता का, परमात्मा की न्यायशीलता का और मानव-जीवन के कर्त्तव्य की जिससे जानकारी होती हो और जिससे कुविचारों और दुष्कर्मों के प्रति घृणा एवं सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती हो वही ज्ञान है यह शिक्षा ऋषियों ने धर्मग्रन्थों के अक्षय भाण्डागारों में पर्याप्त मात्रा में भर अपने उत्तराधिकार के रूप में हमारे लिये छोड़ी है। इस धर्म-ज्ञान का अधिकाधिक प्रसार करना प्रत्येक ज्ञानी का कर्त्तव्य है। जो स्वयं ऐसा नहीं कर सकते वे ज्ञान प्रसार साहित्य को जुटाकर तथा अन्य तरह सहयोग देकर सहायता कर सकते हैं।
जीवन की समस्त विकृतियों, अनुभव होने वाले सुख-दुःख, उलझनों अशांति आदि का बहुत कुछ मूल कारण मनुष्य का अपना अज्ञान ही होता है, यही मनुष्य का परम शत्रु है। चाणक्य ने कहा—‘‘अज्ञान के समान मनुष्य का और कोई दूसरा शत्रु नहीं है।’’ हितोपदेश में आया है—
‘‘आरभन्तेऽल्पमेवाज्ञाः कामं व्यग्रा भविन्त च।’’
‘‘अज्ञानी लोग थोड़ा-सा काम शुरू करते हैं किन्तु बहुत ज्यादा व्याकुल होते हैं।’’ शेक्सपीयर ने लिखा है—‘‘अज्ञान ही अन्धकार है।’’ प्रसिद्ध दार्शनिक पलेटो ने कहा—‘‘अज्ञानी रहने से जन्म न लेना ही अच्छा है, क्योंकि अज्ञान समस्त विपत्तियों का मूल है।’’
इस तरह अज्ञान जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है। यही जीवन की समस्त विकृतियों और कुरूपता का कारण है। कुरूपता का सम्बन्ध मनुष्य की शारीरिक बनावट से इतना नहीं है जितना अज्ञान और अविद्या से उत्पन्न होने वाली बुराइयों से है। समस्त विकृतियों, बुराइयों, शारीरिक व मानसिक अस्वस्थता का कारण अज्ञान और अविद्या ही है। सुख-सुविधापूर्ण जीवन बिताने के पर्याप्त साधन उपलब्ध होने पर भी कई लोग अपने अज्ञान और अविद्या के कारण सन्तप्त, उद्विग्नमना, अशान्त देखे जाते हैं। इसके विपरीत ज्ञान और विद्या के धनी सन्त, महात्मा, ऋषि प्रवृत्ति के व्यक्ति सामान्य साधनों में, यहां तक कि अभावों में भी सुख, शान्ति, सन्तोष का जीवन बिता लेते हैं। जीवन के सहज आनन्द को प्राप्त करते हैं।
अतः ज्ञान की उपलब्धि—विद्यार्जन और अज्ञान का निवारण जीवन की एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। ज्ञान संसार का सर्वोपरि उत्कृष्ट और पवित्र तत्त्व है।
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
‘‘इस संसार में ज्ञान के समान और कुछ पवित्र नहीं है।’’ [गीता] ‘‘ज्ञान बहुमूल्य रत्नों से भी अधिक मूल्यवान् है।’’
ज्ञान ही जीवन का सार है, ज्ञान आत्मा का प्रकाश है जो सदा एकरस और बन्धनों से मुक्त रहने वाला है। सर डब्लू. टेम्पिल ने लिखा है—‘‘ज्ञान ही मनुष्य का परम मित्र है और अज्ञान ही उसका परम शत्रु है।’’ बेकर ने कहा है—‘‘ज्ञान ही शक्ति है।’’
इस तरह ज्ञान जीवन का सर्वोपरि तत्त्व है। ज्ञान-धन जीवन का बहुमूल्य धन है। सभी प्रकार की भौतिक सम्पत्तियां समय पर नष्ट हो जाती हैं किन्तु ज्ञान-धन हर स्थिति में मनुष्य के पास रहता है और दिनों दिन विकास को प्राप्त करता है। ज्ञान अमोघ शक्ति है जिसके समक्ष सभी शक्तियां निष्प्रभ हो जाती हैं। ज्ञान जीवन का प्रकाश-बिन्दु है जो मनुष्य को सभी द्वन्द्वों, उलझनों, अन्धकारों की दीवार से निकालकर शाश्वत पथ पर अग्रसर करता है।
शुभाशुभ कर्मों से उत्पन्न होने वाले हर्ष, शोक, विक्षोभ, प्रसन्नता, मानसिक असन्तुलन मनुष्य के मन और शरीर में तीव्र प्रतिक्रिया पैदा करते हैं। हर्ष के प्रति आसक्ति, शोक से उत्पन्न होने वाली दुःखानुभूति दोनों ही मानव मन को मोहित कर उसे विवेकशून्य बना देने हैं और इसका परिणाम होता है गलत कार्य, गलत विद्या, जिनका पर्यवसान दुःख, द्वन्द्व, क्लेश, शोक आदि में ही होता है किन्तु ज्ञान का प्रकाश मनुष्य को इन दोनों ही प्रपंचों से मुक्त कर आत्मस्थिर, निःस्पृह और मुक्त बना देता है। इसी तथ्य की पुष्टि करते हुए गीताकार ने लिखा है—
‘‘यथैधांसि समिद्धोग्निर्भस्मसात्कुरुतेर्जुन।
ज्ञानाग्नि सर्व कर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।’’
‘‘हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मों को जलाकर नष्ट कर देती है।’’ ज्ञानी कर्म में लिप्त और आसक्त नहीं होता वरन् तटस्थ, निःस्पृह, निष्काम भाव से अपने कर्म में लगा रहता है। इसलिये वह कर्म बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
ज्ञान मनुष्य के चरित्र और व्यवहारिक जीवन को उत्कृष्ट बनाता है। ज्ञानी शुभ कर्म, शुभाचरण करके अपने आन्तरिक व बाह्य जीवन को पवित्र और उत्कृष्ट बना लेता है। महर्षि व्यास ने लिखा है—‘‘ज्ञान जीवन के सत्य का दर्शन ही नहीं कराता वरन् वह मनुष्य को बोलना, व्यवहार करना सिखाता है।’’ सन्त विनोबा भावे ने कहा है—‘‘मनुष्य जितना ज्ञान में घुसता जाता है उतना ही वह कर्म के रंग में रंगता है। ज्ञानी अपने कर्मों को अधिक उत्कृष्टता के साथ कर सकता है बजाय एक अज्ञानी के।’’ कर्म को पोषण देने वाला ज्ञान ही वस्तुतः सच्चा ज्ञान है। जो कर्म त्याग या अकर्मण्यता की ओर प्रेरित करे वह ज्ञान नहीं अज्ञान और अविद्या ही है।
ज्ञान का ध्येय सत्य है और सत्य ही आत्मा का लक्ष्य है। ज्ञान मनुष्य को सत्य के दर्शन कराता है। ‘‘बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान् माम् प्रपद्यते।’’ अर्थात् बहुत जन्मों के अन्त में ज्ञानी ही मुझे पाता है। (गीता)
स्वर्ग और नर्क मनुष्य के ज्ञान और अज्ञान का परिणाम है। ज्ञानी मनुष्य के लिए यह संसार स्वर्ग है। वह जहां भी रहता है स्वर्गीय वातावरण का सृजन कर लेता है तो अज्ञानी को पग पग पर अपने दुष्कृत्य और कुविचारों के कारण नारकीय प्रेरणाओं का सामना करना पड़ता है। इसलिए अज्ञान से निकल कर ज्ञान प्रकाश को प्राप्त करने की प्रेरणा देते हुए वेद भगवान् ने कहा है—
‘‘आरोह तमसो ज्योतिः।’’
‘‘अज्ञानान्धकार से निकल कर ज्ञान-प्रकाश की ओर बढ़ो।’’
‘‘केतुं कृण्वन्न केतवे पेशोमर्या आपेशसे। समुषद्रिभजायथाः।’’
‘‘हे मनुष्यों! अज्ञानियों के लिये ज्ञान देते हुए, कुरूप को रूप देते हुए विद्यादि से प्रकाशित लोगों के साथ प्रसिद्धि प्राप्त करो।’’ इन शब्दों में मानव-जीवन के एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि जीवन में अज्ञान को हटाकर ज्ञान की स्थापना की जाय और अपने अर्जित ज्ञान से उन लोगों की सहायता की जाय जिनका जीवन अज्ञान की विभीषिकाओं से कुरूप हो गया है और जो सदैव अपने आपको दुःखी, पीड़ित, असहाय महसूस करते हैं।
ज्ञान की साधना करना और उसके अनुसार आचरण करना, अपने उपार्जित ज्ञान से दूसरों का मार्गदर्शन करना ज्ञान-यज्ञ कहा गया है जिसे सर्वोत्कृष्ट बताते हुए गीताकार ने लिखा है—
‘‘श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाद् ज्ञान यज्ञः परंतपः।
सर्व कर्माखिलं पार्थ जाने परिसमाप्यते।’’
‘‘हे परंतप? द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है क्योंकि जितने भी कर्म हैं वे सब ज्ञान में ही समाप्त होते हैं। ज्ञानदान सर्वोपरि पुण्य है, शुभ कार्य है।’’ पदार्थ, धन सामग्री से किसी सीमा तक ही किसी की सहायता की जा सकती है और लेने वाला इनका दुरुपयोग करके उल्टी अपनी हानि भी कर सकता है, किंतु ज्ञान-दान मनुष्य का स्थायी रूप से भला करता है, उसे जीवन जीने में सहायक बनता है। इसलिये ज्ञानी को सबसे बड़ा वृद्ध माना गया है चाहे वह कितनी ही उम्र का क्यों न हो।
न तेन स्थगिरो भवति येनास्य पलितं शिरः।
बालोपि यः प्रजानाति तं देवाः स्थविरं विदुः।।
—महर्षि व्यास
‘‘कोई सिर के बाल सफेद होने से वृद्ध नहीं होता। बालक होकर भी यदि कोई ज्ञान सम्पन्न है तो वही वृद्ध माना जाता है।’’
शास्त्रकार, मनीषियों ने जिस ज्ञान और शिक्षा के संचय और प्रचार की आवश्यकता पर बल दिया है वह यह स्कूली, शिक्षा नहीं है। इसे तो लौकिक जीवन को साधन सम्पन्न बनाने की दृष्टि से प्राप्त करना ही चाहिये। लोग अपने आप भी करते रहते हैं। इससे लौकिक आवश्यकताओं की ही एक अंश तक पूर्ति हो सकती है पर अपनी आत्मा का कल्याण, आत्मसंतोष प्राप्त करने एवं दूसरों को अज्ञानान्धकार से छुड़ाकर सदाचार और शान्ति के मार्ग पर चलने की शक्ति जिस ज्ञान में है वह लौकिक नहीं आध्यात्मिक ज्ञान है।
आत्मा की अमरता का, परमात्मा की न्यायशीलता का और मानव-जीवन के कर्त्तव्य की जिससे जानकारी होती हो और जिससे कुविचारों और दुष्कर्मों के प्रति घृणा एवं सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती हो वही ज्ञान है यह शिक्षा ऋषियों ने धर्मग्रन्थों के अक्षय भाण्डागारों में पर्याप्त मात्रा में भर अपने उत्तराधिकार के रूप में हमारे लिये छोड़ी है। इस धर्म-ज्ञान का अधिकाधिक प्रसार करना प्रत्येक ज्ञानी का कर्त्तव्य है। जो स्वयं ऐसा नहीं कर सकते वे ज्ञान प्रसार साहित्य को जुटाकर तथा अन्य तरह सहयोग देकर सहायता कर सकते हैं।