Books - ज्ञानयोग की साधना
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Language: HINDI
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श्रेष्ठतम विभूति—ज्ञान
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सच्चा ज्ञान वह है जो हमें हमारे गुण, कर्म, स्वभाव की त्रुटियां सुधारने, अच्छाइयां बढ़ाने एवं आत्म-निर्माण की प्रेरणा प्रस्तुत करता है। यह सच्चा ज्ञान ही हमारे स्वाध्याय और सत्संग का चिन्तन और मनन का विषय होना चाहिये। कहते हैं कि संजीवनी बूटी का सेवन करने से मृतक व्यक्ति जीवित हो जाते हैं। हनुमान द्वारा पर्वत समेत यह बूटी लक्ष्मण जी की मूर्छा जगाने के लिये काम में लाई गई थी। वह बूटी औषधि के रूप में तो मिलती नहीं है पर सूक्ष्म रूप में अभी भी मौजूद है आत्म-निर्माण की विद्या—संजीवनी विद्या—कही जाती है। इससे मूर्छित पड़ा हुआ मृतक तुल्य अंतःकरण पुनः जागृत हो जाता है और प्रगति में बाधक अपनी आदतों को, विचार-शृंखलाओं को सुव्यवस्थित बनाने में लगाकर अपने आपका कायाकल्प ही कर लेता है। सुधरी विचार-धारा का मनुष्य ही देवता कहलाता है। कहते हैं देवता स्वर्ग में रहते हैं। देव वृत्तियों वाले मनुष्य जहां कहीं भी रहते हैं वहां स्वर्ग जैसी परिस्थितियां अपने आप बन जाती हैं। अपने सुधारने से चारों ओर बिखरी हुई परिस्थितियां उसी प्रकार सुधर जाती हैं जैसे दीपक के जलते ही चारों ओर फैला हुआ अन्धेरा उजाले में बदल जाता है।
स्वाध्याय और सत्संग का विषय प्राचीनकाल में आत्म-विश्लेषण और आत्म-निर्माण ही हुआ करता था। गुरुजन इसी विषय की शिक्षा दिया करते थे। उच्च शिक्षा वस्तुतः यही है। कला-कौशल की अर्थकरी जो विद्या स्कूल कालेजों में पढ़ाई जाती है वह हमारी जानकारी और कार्य कुशलता को तो बढ़ा सकती है पर आदतों और दृष्टिकोण को सुधारने की उसमें कोई विशेष व्यवस्था नहीं है। इसी प्रकार कथा वार्ता के आधार पर होने वाले सत्संग प्राचीन काल में किन्हीं देवताओं या अवतारों के चरित्र सुनने या ब्रह्म प्राप्ति—स्वर्ग मुक्ति जैसी दार्शनिक बातों पर तो कुछ चर्चा करते हैं पर यह नहीं बताते कि हम अपने व्यक्तित्व का विकास कैसे करें? आत्म निर्माण का विषय इतना महत्व हीन नहीं है कि उसे विधिवत जानने समझने के लिये कहीं कोई स्थान न मिले। ज्ञान की प्रशंसा तो लोग करते हैं उसकी आवश्यकता भी अनुभव करते हैं पर आत्म-ज्ञान उपयोगी विषय की ओर कुछ भी ध्यान नहीं देते। आत्म-विद्या और आत्म-ज्ञान का आरम्भ अपनी छोटी-छोटी आदतों के बारे में जानने और छोटी-छोटी बातों को सुधारने से ही हो सकता है। सोना, जागना, बोलना, बात करना, सोचना, समझना, खाना पीना, चलना, फिरना, भी सही ढंग से नहीं आता वह आत्मा और परमात्मा की अत्यंत ऊंची शिक्षा को व्यवहारिक जीवन में ढाल सकेगा इसमें पूरा-पूरा सन्देह है। आत्म ज्ञान का आरम्भ अपनी आन्तरिक स्थिति को जानने और छोटी आदतों के द्वारा उत्पन्न हो सकने वाले बड़े-बड़े परिणामों को समझने से किया जाना चाहिये। आत्म-विद्या का तात्पर्य है अपने आपको, अपने व्यक्तित्व और दृष्टिकोण को उपयुक्त ढांचे में ढालने की कुशलता। मोटर-विद्या में कुशल वही कहा जायगा जो मोटर चलाना और उसे सुधारना जानता है। आत्म-विद्या का ज्ञाता वही है जो आत्म-संयम और आत्म-निर्माण जैसे महत्वपूर्ण विषय पर क्रियात्मक रूप से निष्णात हो चुका है। वेदान्त और दर्शन शास्त्र को घोंटते रहने वाले या उन लम्बे-चौड़े प्रवचन करने वाले आचरण रहित वक्ता को नहीं, आत्मज्ञानी उस व्यक्ति को कहा जायगा जो अपने मन की दुर्बलता से सतर्क रहता है और अपने आपको ठीक दिशा में ढालने के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहता है, चाहे वह अशिक्षित ही क्यों न हो।
स्वाध्याय और सत्संग का विषय प्राचीनकाल में आत्म-विश्लेषण और आत्म-निर्माण ही हुआ करता था। गुरुजन इसी विषय की शिक्षा दिया करते थे। उच्च शिक्षा वस्तुतः यही है। कला-कौशल की अर्थकरी जो विद्या स्कूल कालेजों में पढ़ाई जाती है वह हमारी जानकारी और कार्य कुशलता को तो बढ़ा सकती है पर आदतों और दृष्टिकोण को सुधारने की उसमें कोई विशेष व्यवस्था नहीं है। इसी प्रकार कथा वार्ता के आधार पर होने वाले सत्संग प्राचीन काल में किन्हीं देवताओं या अवतारों के चरित्र सुनने या ब्रह्म प्राप्ति—स्वर्ग मुक्ति जैसी दार्शनिक बातों पर तो कुछ चर्चा करते हैं पर यह नहीं बताते कि हम अपने व्यक्तित्व का विकास कैसे करें? आत्म निर्माण का विषय इतना महत्व हीन नहीं है कि उसे विधिवत जानने समझने के लिये कहीं कोई स्थान न मिले। ज्ञान की प्रशंसा तो लोग करते हैं उसकी आवश्यकता भी अनुभव करते हैं पर आत्म-ज्ञान उपयोगी विषय की ओर कुछ भी ध्यान नहीं देते। आत्म-विद्या और आत्म-ज्ञान का आरम्भ अपनी छोटी-छोटी आदतों के बारे में जानने और छोटी-छोटी बातों को सुधारने से ही हो सकता है। सोना, जागना, बोलना, बात करना, सोचना, समझना, खाना पीना, चलना, फिरना, भी सही ढंग से नहीं आता वह आत्मा और परमात्मा की अत्यंत ऊंची शिक्षा को व्यवहारिक जीवन में ढाल सकेगा इसमें पूरा-पूरा सन्देह है। आत्म ज्ञान का आरम्भ अपनी आन्तरिक स्थिति को जानने और छोटी आदतों के द्वारा उत्पन्न हो सकने वाले बड़े-बड़े परिणामों को समझने से किया जाना चाहिये। आत्म-विद्या का तात्पर्य है अपने आपको, अपने व्यक्तित्व और दृष्टिकोण को उपयुक्त ढांचे में ढालने की कुशलता। मोटर-विद्या में कुशल वही कहा जायगा जो मोटर चलाना और उसे सुधारना जानता है। आत्म-विद्या का ज्ञाता वही है जो आत्म-संयम और आत्म-निर्माण जैसे महत्वपूर्ण विषय पर क्रियात्मक रूप से निष्णात हो चुका है। वेदान्त और दर्शन शास्त्र को घोंटते रहने वाले या उन लम्बे-चौड़े प्रवचन करने वाले आचरण रहित वक्ता को नहीं, आत्मज्ञानी उस व्यक्ति को कहा जायगा जो अपने मन की दुर्बलता से सतर्क रहता है और अपने आपको ठीक दिशा में ढालने के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहता है, चाहे वह अशिक्षित ही क्यों न हो।