Books - ज्ञानयोग की साधना
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Language: HINDI
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आत्म ज्ञान सबसे बड़ा ज्ञान
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छान्दोग्य उपनिषद् में एक कथा आती है। एक बार इन्द्र और विरोचन—दो व्यक्तियों में एक जिज्ञासा पैदा हुई ‘मैं क्या हूं।’ वे बार-बार सोचते विचारते लेकिन उन्हें ‘‘मैं’’ का पता नहीं लगा। आखिर दोनों मिलकर आदर पूर्वक शिष्य भाव से हाथ में समिधायें लेकर आचार्य प्रजापति के पास गये और नम्रतापूर्वक उनसे अपनी जिज्ञासा प्रकट की। उनके प्रश्न का जवाब देते इसके पूर्व ही प्रजापति ने उसकी योग्यता, पात्रता को जानने के लिये एक युक्ति निकाली। उन्होंने कहा ‘‘थाली में पानी भरकर अपना-अपना मुंह देखो उसमें तुम्हें अपना स्वरूप दिखाई देगा।’’
इन्द्र और विरोचन दोनों झट से सजधज कर पानी से भरी थाली में अपने को देखने लगे। विरोचन को अपना सजा संवारा रूप देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई और अपने साथियों में जाकर अभिमान से कहने लगा—‘‘भाई मैंने तो ‘‘मैं’’ का पता लगा लिया है इन्द्र कुछ बुद्धिमान् था उसे सन्तोष नहीं हुआ और वह आचार्य प्रजापति के पास जाकर कहने लगा—‘‘भगवान् असंस्कृत शरीर की प्रतिच्छाया ही प्रतिबिम्ब में दिखाई देती है। यदि यह शरीर काना-लूला, लंगड़ा होता तो प्रतिच्छाया भी वैसी ही दिखाई देती, वस्त्र-अलंकारों को उतार देने पर प्रतिबिम्ब का सौन्दर्य भी नष्ट हो जाता है और शरीर के नष्ट हो जाने पर यह भी नहीं रहता। इसलिये इसे अपना स्वरूप कैसे मानूं। मुझे इससे शान्ति नहीं मिलती।’’ (छान्दोग्य 8।9।2)
फट जाने वाले, नष्ट हो जाने वाले वस्त्राभूषणों से युक्त प्रतिबिम्ब को ‘मैं’ का स्वरूप जान लेने से हमारी जिज्ञासा शान्त नहीं होती। क्योंकि उन्हें धारण करके हम अच्छे लगते हैं और उतार फेंकने पर कुरूप इस तरह स्पष्ट है कि वस्त्र आभूषण ‘‘मैं’’ का परिचय नहीं हो सकते। अपना वस्त्र फट जाने पर यह भास नहीं होता कि मैं फट गया। वस्त्राभूषण उतार देने या पहने-रहने पर ‘‘मैं’’ का अस्तित्व बना ही रहता है।
ठीक यही स्थिति शरीर के साथ भी है। वस्त्रों की तरह हमारा शरीर नित्य ही किसी न किसी रूप में नष्ट होता रहता है। मल—शरीर से निकलने वाले दूषित तत्व—क्या हैं? नष्ट हुये शरीर का अवशेष। रसायन-शास्त्रियों, वैज्ञानिकों के प्रयोग से यह सिद्ध हो चुका है कि शरीर में नित्य असंख्यों कोष नष्ट होते हैं असंख्यों ही नये पैदा हो जाते हैं इस तरह शरीर की दृष्टि से तो हम नित्य ही मरते हैं और नित्य ही जन्म लेते हैं। लेकिन ‘‘मैं’’ के अस्तित्व में कोई परिवर्तन नहीं होता।’’
‘‘मैं’’ की खोज में हम आगे बढ़ें इससे पहले यह जान लेना आवश्यक है कि आखिर ‘मैं’ को जान लेने की आवश्यकता क्यों है? बहुत से लोग तो इस सम्बन्ध में कुछ सोचते-विचारते ही नहीं। ऐसे लोगों को खाने-पीने, मौज-मजे उड़ाने से फुर्सत नहीं मिलती लेकिन इस तरह की प्रवृत्ति पशुत्व का द्योतक है।
कुछ बुद्धिमान् कहे जाने वाले लोग इस महा-प्रश्न में बेकार न लगकर अपना काम करना ही अधिक अच्छा समझते हैं। वे इस जटिल प्रश्न को सुलझाने में व्यर्थ श्रम करना अच्छा नहीं समझते। लेकिन हमें क्या करना चाहिए यह निश्चय करना इससे भी कठिन है। और बिना निश्चय के किये गये कार्य अन्ततः मनुष्य के लिये अशान्ति, असन्तोष के कारण ही बनते हैं। कर्त्तव्य का निश्चय भी तभी हो सकता है जब हम अपने असली अस्तित्व की जानकारी कर सकें। यदि हम शरीर ही हैं तो फिर हमारे कर्त्तव्यों की सीमा भी शरीर तक ही सीमित रहेगी। किसी भी कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का निर्णय हमें वहीं तक करना होगा जितना इसी जीवन से सम्बन्धित है।
तात्पर्य यह है कि अपने जाने बिना जीवन-पथ पर, कर्त्तव्य-मार्ग पर हम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते इसके अभाव में तो हमारी स्थिति ठीक वैसी होगी जैसे कोई मनुष्य आंखें बन्द किये जंगल में तेजी से दौड़ रहा हो। उससे पूछा जाय, ‘भाई तुम क्यों दौड़ रहे हो, तुम्हें कहां जाना है, कहां से आये हो?’ और इनका उत्तर वह अपनी जानकारी में दे तो हम उसे पागल ही कहेंगे। क्या हमारी स्थिति भी अपने स्वरूप को जाने बिना कुछ ऐसी ही नहीं है इसलिये ‘‘मैं’’ के स्वरूप की जानकारी करना इस सम्बन्ध में प्रारम्भिक आधार खोजकर आगे बढ़ना नितान्त आवश्यक है। इसके बिना हम अपने जीवन की सही-सही रूपरेखा न बना सकेंगे न अपने कर्त्तव्यों का, अपनी गति की दिशा का, सही-सही निर्धारण कर सकेंगे।
सचमुच जीवन का वास्तविक लाभ वे ही उठा पाते हैं जो पहले अपने आपको जानने का प्रयत्न करते हैं। अपने को न जानने वाले व्यक्ति तो उन आधार हीन वस्तुओं की तरह हैं जिन्हें वायु का झोंका किधर भी बहा कर ले जा सकता है। ऐसे लोगों को संसार-प्रवाह में बलात् बहते रहना पड़ता है।
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इन्द्र और विरोचन दोनों झट से सजधज कर पानी से भरी थाली में अपने को देखने लगे। विरोचन को अपना सजा संवारा रूप देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई और अपने साथियों में जाकर अभिमान से कहने लगा—‘‘भाई मैंने तो ‘‘मैं’’ का पता लगा लिया है इन्द्र कुछ बुद्धिमान् था उसे सन्तोष नहीं हुआ और वह आचार्य प्रजापति के पास जाकर कहने लगा—‘‘भगवान् असंस्कृत शरीर की प्रतिच्छाया ही प्रतिबिम्ब में दिखाई देती है। यदि यह शरीर काना-लूला, लंगड़ा होता तो प्रतिच्छाया भी वैसी ही दिखाई देती, वस्त्र-अलंकारों को उतार देने पर प्रतिबिम्ब का सौन्दर्य भी नष्ट हो जाता है और शरीर के नष्ट हो जाने पर यह भी नहीं रहता। इसलिये इसे अपना स्वरूप कैसे मानूं। मुझे इससे शान्ति नहीं मिलती।’’ (छान्दोग्य 8।9।2)
फट जाने वाले, नष्ट हो जाने वाले वस्त्राभूषणों से युक्त प्रतिबिम्ब को ‘मैं’ का स्वरूप जान लेने से हमारी जिज्ञासा शान्त नहीं होती। क्योंकि उन्हें धारण करके हम अच्छे लगते हैं और उतार फेंकने पर कुरूप इस तरह स्पष्ट है कि वस्त्र आभूषण ‘‘मैं’’ का परिचय नहीं हो सकते। अपना वस्त्र फट जाने पर यह भास नहीं होता कि मैं फट गया। वस्त्राभूषण उतार देने या पहने-रहने पर ‘‘मैं’’ का अस्तित्व बना ही रहता है।
ठीक यही स्थिति शरीर के साथ भी है। वस्त्रों की तरह हमारा शरीर नित्य ही किसी न किसी रूप में नष्ट होता रहता है। मल—शरीर से निकलने वाले दूषित तत्व—क्या हैं? नष्ट हुये शरीर का अवशेष। रसायन-शास्त्रियों, वैज्ञानिकों के प्रयोग से यह सिद्ध हो चुका है कि शरीर में नित्य असंख्यों कोष नष्ट होते हैं असंख्यों ही नये पैदा हो जाते हैं इस तरह शरीर की दृष्टि से तो हम नित्य ही मरते हैं और नित्य ही जन्म लेते हैं। लेकिन ‘‘मैं’’ के अस्तित्व में कोई परिवर्तन नहीं होता।’’
‘‘मैं’’ की खोज में हम आगे बढ़ें इससे पहले यह जान लेना आवश्यक है कि आखिर ‘मैं’ को जान लेने की आवश्यकता क्यों है? बहुत से लोग तो इस सम्बन्ध में कुछ सोचते-विचारते ही नहीं। ऐसे लोगों को खाने-पीने, मौज-मजे उड़ाने से फुर्सत नहीं मिलती लेकिन इस तरह की प्रवृत्ति पशुत्व का द्योतक है।
कुछ बुद्धिमान् कहे जाने वाले लोग इस महा-प्रश्न में बेकार न लगकर अपना काम करना ही अधिक अच्छा समझते हैं। वे इस जटिल प्रश्न को सुलझाने में व्यर्थ श्रम करना अच्छा नहीं समझते। लेकिन हमें क्या करना चाहिए यह निश्चय करना इससे भी कठिन है। और बिना निश्चय के किये गये कार्य अन्ततः मनुष्य के लिये अशान्ति, असन्तोष के कारण ही बनते हैं। कर्त्तव्य का निश्चय भी तभी हो सकता है जब हम अपने असली अस्तित्व की जानकारी कर सकें। यदि हम शरीर ही हैं तो फिर हमारे कर्त्तव्यों की सीमा भी शरीर तक ही सीमित रहेगी। किसी भी कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का निर्णय हमें वहीं तक करना होगा जितना इसी जीवन से सम्बन्धित है।
तात्पर्य यह है कि अपने जाने बिना जीवन-पथ पर, कर्त्तव्य-मार्ग पर हम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते इसके अभाव में तो हमारी स्थिति ठीक वैसी होगी जैसे कोई मनुष्य आंखें बन्द किये जंगल में तेजी से दौड़ रहा हो। उससे पूछा जाय, ‘भाई तुम क्यों दौड़ रहे हो, तुम्हें कहां जाना है, कहां से आये हो?’ और इनका उत्तर वह अपनी जानकारी में दे तो हम उसे पागल ही कहेंगे। क्या हमारी स्थिति भी अपने स्वरूप को जाने बिना कुछ ऐसी ही नहीं है इसलिये ‘‘मैं’’ के स्वरूप की जानकारी करना इस सम्बन्ध में प्रारम्भिक आधार खोजकर आगे बढ़ना नितान्त आवश्यक है। इसके बिना हम अपने जीवन की सही-सही रूपरेखा न बना सकेंगे न अपने कर्त्तव्यों का, अपनी गति की दिशा का, सही-सही निर्धारण कर सकेंगे।
सचमुच जीवन का वास्तविक लाभ वे ही उठा पाते हैं जो पहले अपने आपको जानने का प्रयत्न करते हैं। अपने को न जानने वाले व्यक्ति तो उन आधार हीन वस्तुओं की तरह हैं जिन्हें वायु का झोंका किधर भी बहा कर ले जा सकता है। ऐसे लोगों को संसार-प्रवाह में बलात् बहते रहना पड़ता है।
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