Books - इक्कीसवीं सदी का गंगावतरण
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घर-घर अलख जगाने की प्रक्रिया दीप यज्ञों के माध्यम से
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मिशन का कार्य असीम है। उसके लिए देश-देशान्तरों में नगर, कसबों, गाँवों, मुहल्लों, घरों में जाना पड़ेगा और सम्पर्क साधने के लिए जनसाधारण को छोटे-बड़े सम्मेलनों के रूप में एकत्रित करते रहने की आवश्यकता पड़ती रहेगी। साथ ही यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि वे भावनाशील, श्रद्धालु प्रकृति के उदारचेता मानस के हों। ऐसे सम्मेलन एवं समारोहों की आवश्यकता गाँव-गाँव मुहल्ले-मुहल्ले पड़ेगी, जिससे हर क्षेत्र में नए युग का, नव जागरण का, नए परिवर्तन का सन्देश पहुँचाया जा सकें।
आजकल सम्मेलन-समारोहों में जनता की अरुचि बढ़ जाने से बड़ी संख्या में लोगों को एकत्रित करना कठिन पड़ता है, विशेष रूप से श्रद्धावानों को। इस कठिनाई का नया हल निकाल लिया गया है-‘‘दीपयज्ञ’’ इस प्रक्रिया के माध्यम से। पुरातन विधि-विधान के अनुसार यज्ञ आयोजन में ढेरों पैसा खर्च होता है, ढेरों खाद्य पदार्थ जलते हैं, कर्मकाण्डों में ढेरों समय खर्च होता है। पुरोहित लोगों का कथन ब्रह्म वाक्य मानकर अपनाना पड़ता है। उनमें बहुत-से लोग अश्रद्धावश पहुँँच भी नहीं पाते हैं। जो पहुँचते हैं, वे टिकते नहीं। आयोजकों पर अनेक आक्षेप लगते हैं, फलत: संगठन के स्थान पर आयोजन में विघटन पैदा हो जाता है।’’
इन कठिनाइयों को देखते हुए युग धर्म के अनुरूप ‘‘दीपयज्ञ’’ की परम्परा प्रचलित की गई है। वह व्यापक, विस्तृत, सुलभ और स्वल्प साधनों में बन पड़ने के कारण उन सभी उद्देश्यों में सफल हुए हैं, जिनके निमित्त प्राचीनकाल में यज्ञ किए जाते थे।
हर याजक अपनी थाली पर पाँच अगरबत्ती और एक दीपक लेकर आता है। सभी वर्ग के नर-नारी पंक्तिबद्ध होकर बैठते हैं। सामूहिक गायत्री मन्त्रोच्चारण होता है, साथ ही संगीत और प्रवचन के माध्यम से वह सब बताया जाता है कि स्थानीय लोगों को किस प्रकार प्रगतिशीलता के पथ पर चलना चाहिए और वर्तमान प्रचलनों में से किसमें क्या सुधार करना चाहिए? बाद में उपस्थित प्रतिभावानों का एक प्रज्ञा मण्डल बना दिया जाता है।
प्रात:काल यज्ञ, दोपहर में विचारगोष्ठी करने की और सायं सभा-सम्मेलन होने की विधा ने जन-जागृति के क्षेत्र में असाधारण कार्य किया है और सर्वतोमुखी प्रगति का उत्साहवर्धक वातावरण तैयार किया है। अगले दिनों इसी प्रक्रिया को अपना कर हर गाँव-नगर में पहुँचने और हर व्यक्ति से सम्पर्क साधने का निश्चय किया गया है। हर वर्ष इस प्रकार के आयोजन समारोह, कार्यकर्ताओं के माध्यम से हजारों की संख्या में सम्पन्न हो जाते हैं उससे लाखों लोगों का मन प्रगतिशीलता के साथ जोड़ने का अवसर मिलता है। युग सन्धि के इन १२ वर्षों में इस प्रक्रिया को देश-विदेशों में अत्यधिक व्यापक बनाने की योजना है।
आजकल सम्मेलन-समारोहों में जनता की अरुचि बढ़ जाने से बड़ी संख्या में लोगों को एकत्रित करना कठिन पड़ता है, विशेष रूप से श्रद्धावानों को। इस कठिनाई का नया हल निकाल लिया गया है-‘‘दीपयज्ञ’’ इस प्रक्रिया के माध्यम से। पुरातन विधि-विधान के अनुसार यज्ञ आयोजन में ढेरों पैसा खर्च होता है, ढेरों खाद्य पदार्थ जलते हैं, कर्मकाण्डों में ढेरों समय खर्च होता है। पुरोहित लोगों का कथन ब्रह्म वाक्य मानकर अपनाना पड़ता है। उनमें बहुत-से लोग अश्रद्धावश पहुँँच भी नहीं पाते हैं। जो पहुँचते हैं, वे टिकते नहीं। आयोजकों पर अनेक आक्षेप लगते हैं, फलत: संगठन के स्थान पर आयोजन में विघटन पैदा हो जाता है।’’
इन कठिनाइयों को देखते हुए युग धर्म के अनुरूप ‘‘दीपयज्ञ’’ की परम्परा प्रचलित की गई है। वह व्यापक, विस्तृत, सुलभ और स्वल्प साधनों में बन पड़ने के कारण उन सभी उद्देश्यों में सफल हुए हैं, जिनके निमित्त प्राचीनकाल में यज्ञ किए जाते थे।
हर याजक अपनी थाली पर पाँच अगरबत्ती और एक दीपक लेकर आता है। सभी वर्ग के नर-नारी पंक्तिबद्ध होकर बैठते हैं। सामूहिक गायत्री मन्त्रोच्चारण होता है, साथ ही संगीत और प्रवचन के माध्यम से वह सब बताया जाता है कि स्थानीय लोगों को किस प्रकार प्रगतिशीलता के पथ पर चलना चाहिए और वर्तमान प्रचलनों में से किसमें क्या सुधार करना चाहिए? बाद में उपस्थित प्रतिभावानों का एक प्रज्ञा मण्डल बना दिया जाता है।
प्रात:काल यज्ञ, दोपहर में विचारगोष्ठी करने की और सायं सभा-सम्मेलन होने की विधा ने जन-जागृति के क्षेत्र में असाधारण कार्य किया है और सर्वतोमुखी प्रगति का उत्साहवर्धक वातावरण तैयार किया है। अगले दिनों इसी प्रक्रिया को अपना कर हर गाँव-नगर में पहुँचने और हर व्यक्ति से सम्पर्क साधने का निश्चय किया गया है। हर वर्ष इस प्रकार के आयोजन समारोह, कार्यकर्ताओं के माध्यम से हजारों की संख्या में सम्पन्न हो जाते हैं उससे लाखों लोगों का मन प्रगतिशीलता के साथ जोड़ने का अवसर मिलता है। युग सन्धि के इन १२ वर्षों में इस प्रक्रिया को देश-विदेशों में अत्यधिक व्यापक बनाने की योजना है।