Books - इक्कीसवीं सदी का गंगावतरण
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विचार क्रांति-जनमानस का परिष्कार
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छोटा मकान बनाने में, कितने साधन जुटाने पड़ते हैं और कितना ध्यान देना पड़ता है; उसे सभी भुक्तभोगी भली प्रकार जानते हैं। फिर जहाँ खण्डहर स्तर की दुनिया को नवयुग के भव्य भवन में विकसित करना है, वहाँ कितने अधिक कौशल की—कितने साधनों की—कितनी प्रतिभाओं की आश्यकता पड़ेगी, इसका अनुमान लगाना, किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए। सुधार और सृजन के दो मोर्चे पर, दुधारी तलवार से लड़ा जाने वाला यह पुरुषार्थ कितना व्यापक और कितना बड़ा होगा, इसका अनुमान लगाने पर प्रतीत होगा कि यह प्राचीनकाल के समुद्र सेतु बन्धन, लंका दहन, संजीवनी बूटी वाला पर्वत उखाड़कर लाने जैसा कठिन होना चाहिए। इसे गोवर्धन उठाए जाने की उपमा दी जा सकती है और अगस्त्य द्वारा समुद्र को पी जाने जैसा अद्भुत भी कहा जा सकता है। अवतारों द्वारा समय-समय पर प्रस्तुत किए जाते रहे परिवर्तनों के समकक्ष भी इसे कहा जा सकता है।
पूर्वकाल में संसार भर की आबादी बहुत कम थी। अब से दो हजार वर्ष पूर्व संसार में प्राय: तीस करोड़ व्यक्ति रहते थे। उनमें से एक छोटी संख्या ही उद्दण्डों की पनपी थी और तोड़-फोड़ में लगी थी। उस पर नियन्त्रण स्थापित करने के लिए परशुराम ने कुल्हाड़ा उठाया था और जिन्हें बदलना आवश्यक था, उनका सिर (चिन्तन) पूरी तरह फेर दिया था। अब संसार की आबादी ६०० करोड़ है। इसमें से अधिकांश जन समुदाय विचार विकृति और आस्था संकट से ग्रसित है। अधिकांश का चिन्तन मानवी गरिमा के अनुरूप चल नहीं रहा है। आवांछनीयताएँ हर क्षेत्र पर अपना कब्जा जमाती चली जा रही हैं। इसके लिए विश्वव्यापी विचार क्रान्ति की आवश्यकता है।
एक प्रयोजन के लिए खड़ी की गई छोटी-मोटी क्षेत्रीय क्रान्तियाँ कितनी कठिन पड़ी हैं, इसे इतिहासवेत्ता जानते हैं। अब मन:क्षेत्र में व्याप्त अभ्यस्त दृष्टिकोणों का आमूलचूल परिवर्तन किया जाना है। यही जनमानस का परिष्कार है। आवांछनीयताओं का उन्मूलन और सत्प्रवृतियों का संवर्धन भी यही है। इसे धरती के एक छोर से दूसरे छोर तक सम्पन्न करना इतना बड़ा काम है, जिसके लिए हजारों परशुराम भी कम पड़ेंगे। इतने पर भी यह निश्चित है कि यह भवितव्यता सम्पन्न होकर रहेगी। शालीनता, आत्मीयता, सद्भावना और सहकारिता का नवयुग अवतरित होकर रहेगा। इस पुण्य-प्रवाह को प्रगतिशील करने के लिए असंख्य भगीरथों की आवश्यकता पड़ेगी। ध्वंस सरल है और सृजन कठिन। माचिस की एक तीली समूचे छप्पर और गाँव-मुहल्लों को जला सकती है, पर एक राज्य बसाने के लिए तो अनेक समर्थों का कौशल चाहिए।
पूर्वकाल में संसार भर की आबादी बहुत कम थी। अब से दो हजार वर्ष पूर्व संसार में प्राय: तीस करोड़ व्यक्ति रहते थे। उनमें से एक छोटी संख्या ही उद्दण्डों की पनपी थी और तोड़-फोड़ में लगी थी। उस पर नियन्त्रण स्थापित करने के लिए परशुराम ने कुल्हाड़ा उठाया था और जिन्हें बदलना आवश्यक था, उनका सिर (चिन्तन) पूरी तरह फेर दिया था। अब संसार की आबादी ६०० करोड़ है। इसमें से अधिकांश जन समुदाय विचार विकृति और आस्था संकट से ग्रसित है। अधिकांश का चिन्तन मानवी गरिमा के अनुरूप चल नहीं रहा है। आवांछनीयताएँ हर क्षेत्र पर अपना कब्जा जमाती चली जा रही हैं। इसके लिए विश्वव्यापी विचार क्रान्ति की आवश्यकता है।
एक प्रयोजन के लिए खड़ी की गई छोटी-मोटी क्षेत्रीय क्रान्तियाँ कितनी कठिन पड़ी हैं, इसे इतिहासवेत्ता जानते हैं। अब मन:क्षेत्र में व्याप्त अभ्यस्त दृष्टिकोणों का आमूलचूल परिवर्तन किया जाना है। यही जनमानस का परिष्कार है। आवांछनीयताओं का उन्मूलन और सत्प्रवृतियों का संवर्धन भी यही है। इसे धरती के एक छोर से दूसरे छोर तक सम्पन्न करना इतना बड़ा काम है, जिसके लिए हजारों परशुराम भी कम पड़ेंगे। इतने पर भी यह निश्चित है कि यह भवितव्यता सम्पन्न होकर रहेगी। शालीनता, आत्मीयता, सद्भावना और सहकारिता का नवयुग अवतरित होकर रहेगा। इस पुण्य-प्रवाह को प्रगतिशील करने के लिए असंख्य भगीरथों की आवश्यकता पड़ेगी। ध्वंस सरल है और सृजन कठिन। माचिस की एक तीली समूचे छप्पर और गाँव-मुहल्लों को जला सकती है, पर एक राज्य बसाने के लिए तो अनेक समर्थों का कौशल चाहिए।