Books - कर्मकाण्ड नहीं, भावना प्रधान
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Language: HINDI
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कर्मकाण्ड नहीं, भावना प्रधान
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मित्रो! कर्मकाण्ड, क्रियाकृत्य आवश्यक हैं और वांछनीय भी, लेकिन आफत तब आ जाती है, जब आप कर्मकाण्डों को ही सब कुछ मान बैठते हैं और भावना के संशोधन और परिष्कार की जरूरत नहीं समझते। आपको भावना के संशोधन की जरूरत समझनी चाहिए और कर्मकाण्डों को माध्यम समझना चाहिए और उसी के अनुरूप उनका उपयोग करना चाहिए। इसके कितने ही उदाहरण मैंने आपको दिए हैं। उदाहरण के लिए अच्छी चिट्ठी लिखने के लिए अच्छा लेख लिखने के लिए आपको कलम की जरूरत है। मैंने किससे कहा कि कलम की जरूरत नहीं है। बिना कलम के हम चिट्ठी नहीं लिख सकते। हमारी कलम जब खराब हो जाएगी तो हम चिट्ठी नहीं लिख सकते। इस तरह जब हमारी जबान में छाले हो जाएँगे तो हम व्याख्यान नहीं कर सकते। इन मीडियमों की, माध्यमों की हमको बेहद जरूरत है।
आपकी जीभ तो है, लेकिन उसके द्वारा आप ज्ञान का आनंद नहीं बता सकते, जो कि एक विकसित एवं परिष्कृत व्यक्तित्व के द्वारा होना चाहिए। तो गुरुजी, हमें भी व्याख्यान सिखा दीजिए जैसा कि आप देते हैं। बेटे, याद कर ले और तू भी वैसा ही व्याख्यान किया कर। महीने-पंद्रह दिन में तुझे अभ्यास हो जाएगा। अगर किसी ने पकड़ लिया और कहा कि अमुक विषय पर बोलिए तब? तब बेटे कह देना कि मैंने इतनी ही नकल की हैं। अब मैं कहाँ से बोल सकता हूँ? अरे महाराज, आप अपने जैसा विद्वान बना दीजिए। अरे बेटा, यह ज्ञान की साधना है, अक्षरों की नकल करने से नहीं हो सकता।
इसलिए कर्मकाण्डों की बावत आपको एक बात साफ−तौर से समझ लेनी चाहिए। कर्मकाण्ड बेहद जरूरी और बेहद आवश्यक हैं। कर्मकाण्ड की जमीन आसमान जैसी आवश्यकता है, लेकिन कर्मकाण्ड अधूरा और अपंग है। वह कब अधूरा और अपंग है? जब तक उसका हमारे भावना क्षेत्र पर प्रभाव न पड़े और उसका संशोधन न हो। भाव संवेदनाओं की जाग्रति न हो, भावनाओं में कोई हेर फेर नहीं हुआ हो। भावना और चिंतन हमारा जहाँ का तहाँ बना रहा तो आप विश्वास रखना, आपको हमेशा शिकायत करनी पड़ेगी कि हमारी पूजा बेकार जा रही है। हमारा भजन बेकार जा रहा है। हमारी उपासना बेकार चली गई, हमारा अनुष्ठान बेकार चला गया। यही एक भूल है, जिसकी चट्टान से टक्कर खाकर बहुत सारे जहाज डूब गए; बहुत सी नावें डूब गईं और लोगों के भजन डूब गए और संन्यास डूब गए। उपासनाएँ डूब गईं और सब कुछ डूब गया। लेकिन जिन्होंने टक्कर खाकर यह समझ लिया कि कर्मकाण्ड काफी नहीं है, वे भवसागर से पार हो गए। कर्मकाण्ड आवश्यक तो हैं, महत्त्वपूर्ण तो हैं, पर काफी नहीं हैं। वे एकांगी और अपूर्ण हैं।
आपकी जीभ तो है, लेकिन उसके द्वारा आप ज्ञान का आनंद नहीं बता सकते, जो कि एक विकसित एवं परिष्कृत व्यक्तित्व के द्वारा होना चाहिए। तो गुरुजी, हमें भी व्याख्यान सिखा दीजिए जैसा कि आप देते हैं। बेटे, याद कर ले और तू भी वैसा ही व्याख्यान किया कर। महीने-पंद्रह दिन में तुझे अभ्यास हो जाएगा। अगर किसी ने पकड़ लिया और कहा कि अमुक विषय पर बोलिए तब? तब बेटे कह देना कि मैंने इतनी ही नकल की हैं। अब मैं कहाँ से बोल सकता हूँ? अरे महाराज, आप अपने जैसा विद्वान बना दीजिए। अरे बेटा, यह ज्ञान की साधना है, अक्षरों की नकल करने से नहीं हो सकता।
इसलिए कर्मकाण्डों की बावत आपको एक बात साफ−तौर से समझ लेनी चाहिए। कर्मकाण्ड बेहद जरूरी और बेहद आवश्यक हैं। कर्मकाण्ड की जमीन आसमान जैसी आवश्यकता है, लेकिन कर्मकाण्ड अधूरा और अपंग है। वह कब अधूरा और अपंग है? जब तक उसका हमारे भावना क्षेत्र पर प्रभाव न पड़े और उसका संशोधन न हो। भाव संवेदनाओं की जाग्रति न हो, भावनाओं में कोई हेर फेर नहीं हुआ हो। भावना और चिंतन हमारा जहाँ का तहाँ बना रहा तो आप विश्वास रखना, आपको हमेशा शिकायत करनी पड़ेगी कि हमारी पूजा बेकार जा रही है। हमारा भजन बेकार जा रहा है। हमारी उपासना बेकार चली गई, हमारा अनुष्ठान बेकार चला गया। यही एक भूल है, जिसकी चट्टान से टक्कर खाकर बहुत सारे जहाज डूब गए; बहुत सी नावें डूब गईं और लोगों के भजन डूब गए और संन्यास डूब गए। उपासनाएँ डूब गईं और सब कुछ डूब गया। लेकिन जिन्होंने टक्कर खाकर यह समझ लिया कि कर्मकाण्ड काफी नहीं है, वे भवसागर से पार हो गए। कर्मकाण्ड आवश्यक तो हैं, महत्त्वपूर्ण तो हैं, पर काफी नहीं हैं। वे एकांगी और अपूर्ण हैं।