Books - कर्मकाण्ड भास्कर
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Language: HINDI
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॥ यज्ञोपवीत दीक्षा संस्कार॥
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॥ यज्ञोपवीत संस्कार॥
संस्कार प्रयोजन- शिखा और सूत्र भारतीय संस्कृति के दो सर्वमान्य प्रतीक हैं। शिखा भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था की प्रतीक है, जो मुण्डन संस्कार के समय स्थापित की जाती है। यज्ञोपवीत सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर अपने जीवन में आमूलचूल परिवर्तन के सङ्कल्प का प्रतीक है। इसके साथ ही गायत्री मन्त्र की गुरुदीक्षा भी दी जाती है। दीक्षा यज्ञोपवीत मिलकर द्विजत्व का संस्कार पूरा करते हैं। इसका अर्थ होता है- ‘ दूसरा जन्म ’।
शास्त्रवचन है- ‘ जन्मनः जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते॥’ -स्कन्द० ६.२३९.३१
जन्म से मनुष्य एक प्रकार का पशु ही है। उसमें स्वार्थपरता की वृत्ति अन्य जीव- जन्तुओं जैसी ही होती है, पर उत्कृष्ट आदर्शवादी मान्यताओं द्वारा वह मनुष्य बनता है। जब मानव की आस्था यह बन जाती है कि उसे इनसान की तरह ऊँचा जीवन जीना है और उसी आधार पर वह अपनी कार्य पद्धति निर्धारित करता है, तभी कहा जा सकता है कि इसने पशु- योनि छोड़कर मनुष्य योनि में प्रवेश किया है। अन्यथा नर- नारियों से तो यह संसार भरा पड़ा है। स्वार्थ की संकीर्णता से निकलकर परमार्थ की महानता में प्रवेश करने को, पशुता को त्याग कर मनुष्यता ग्रहण करने को दूसरा जन्म कहते हैं। शरीर जन्म माता- पिता के रज- वीर्य से वैसा ही होता है, जैसा अन्य जीवों का। आदर्शवादी जीवन लक्ष्य अपना लेने की प्रतिज्ञा करना ही वास्तविक मनुष्य जन्म में प्रवेश करना है। इसी को द्विजत्व कहते हैं। द्विजत्व का अर्थ है दूसरा जन्म। हर हिन्दू धर्मानुयायी को आदर्शवादी जीवन जीना चाहिए, द्विज बनना चाहिए। इस मूल तथ्य को अपनाने की प्रक्रिया को समारोहपूर्वक यज्ञोपवीत संस्कार के नाम से सम्पन्न किया जाता है। इस व्रत बन्धन को आजीवन स्मरण रखने और व्यवहार में लाने की प्रतिज्ञा का प्रतीक तीन लड़ों वाला यज्ञोपवीत कन्धे पर डाले रहना होता है।
यज्ञोपवीत बालक को तब देना चाहिए, जब उसकी बुद्धि और भावना का इतना विकास हो जाए कि इस संस्कार के प्रयोजन को समझकर उसके निर्वाह के लिए उत्साहपूर्वक लग सके।
यज्ञोपवीत से सम्बन्धित स्थूल- सूक्ष्म मर्यादाएँ इस प्रकार हैं-
१- यज्ञोपवीत गायत्री की मूर्तिमान् प्रतिमा है। गायत्री त्रिपदा है, गायत्री मन्त्र में तीन चरण हैं, इसी आधार पर यज्ञोपवीत में तीन लड़ें हैं। यज्ञोपवीत की प्रत्येक लड़ में तीन धागे होते हैं। यज्ञोपवीत में तीन गाँठों को भूः, भुवः, स्वः तीन व्याहृतियाँ माना गया है। गायत्री के ‘ॐकार’ को बड़ी ब्रह्म ग्रन्थि कहा गया है। गायत्री के एक- एक पद को लेकर ही उपवीत की रचना हुई है। इस प्रतिमा को शरीर मन्दिर में स्थापित करने पर उसकी पूजा- अर्चना करने का उत्तरदायित्व भी स्वीकार करना होता है। इसके लिए नित्य कम से कम एक माला गायत्री मन्त्र जप की साधना करनी चाहिए।
२- यज्ञोपवीत को व्रत बन्ध कहते हैं। व्रतों से बँधे बिना मनुष्य का उत्थान सम्भव नहीं। यज्ञोपवीत को व्रतशीलता का प्रतीक मानते हैं। इसीलिए इसे सूत्र (फार्मूला- सहारा) भी कहते हैं। यज्ञोपवीत के नौ धागे नौ गुणों के प्रतीक हैं। प्रत्येक धारण करने वाले को इन गुणों को अपने में बढ़ाने का निरन्तर ध्यान बना रहे, यह स्मरण जनेऊ के धागे दिलाते रहते हैं। गायत्री गीता (गायत्री महाविज्ञान भाग- २) के अनुसार गायत्री मन्त्र के नौ शब्दों में सन्निहित सूत्र इस प्रकार हैं-
१. तत्- यह परमात्मा के उस जीवन्त अनुशासन का प्रतीक है, जन्म और मृत्यु जिसके ताने- बाने हैं। इसे आस्तिकता- ईश्वर निष्ठा के सहारे जाना जाता है। उपासना इसका आधार है।
२. सवितुर्- सविता, शक्ति उत्पादक केन्द्र है। साधक में शक्ति विकास का क्रम चलना चाहिए। यह जीवन साधना से साध्य है।
३. वरेण्यम्- श्रेष्ठता का वरण, आदर्श- निष्ठा, सत्य, न्याय, ईमानदारी के रूप में यह भाव फलित होता है।
४. भर्गो- विकारनाशक तेज है, जो मन्यु साहस के रूप में उभरता और निर्मलता, निर्भयता के रूप में फलित होता है।
५. देवस्य- दिव्यतावर्द्धक है। सन्तोष, शान्ति, निस्पृहता, संवेदना, करुणा आदि के रूप में प्रकट होता है।
६. धीमहि- सद्गुण धारण का गुण, जो पात्रता विकास और समृद्धिरूप में फलित होता है।
७. धियो- दिव्य मेधा, विवेक का प्रतीक शब्द है, समझदारी, विचारशीलता, निर्णायक क्षमता आदि का संवर्द्धक है।
८. यो नः- दिव्य अनुदानों के सुनियोजन, संयम का प्रतीक है। धैर्य, ब्रह्मचर्यादि का उन्नायक है।
९. प्रचोदयात्- दिव्य प्रेरणा, आत्मीयताजन्य सेवा साधना, सत्कर्त्तव्य निष्ठा का विकासक है।
यज्ञोपवीत के धागों में नीति का सम्पूर्ण सार सन्निहित कर दिया गया है। जैसे कागज और स्याही के सहारे किसी नगण्य से पत्र या तुच्छ सी लगने वाली पुस्तक में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ज्ञान- विज्ञान भर दिया जाता है, उसी प्रकार सूत्र के इन नौ धागों में जीवन- विकास का सारा मार्गदर्शन समाविष्ट कर दिया गया है। इन धागों को कन्धे पर, कलेजे पर, हृदय पर, पीठ पर प्रतिष्ठित करने का प्रयोजन यह है कि सन्निहित शिक्षा का यज्ञोपवीत के धागे स्मरण कराते रहें, ताकि उन्हें जीवन व्यवहार में उतारा जा सके।
यज्ञोपवीत को माँ गायत्री और यज्ञ पिता की संयुक्त प्रतिमा मानते हैं। उसकी मर्यादा के कई नियम हैं, जैसे-
(१) यज्ञोपवीत को मल- मूत्र विसर्जन के पूर्व दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। इसका स्थूल भाव यह है कि यज्ञोपवीत कमर से ऊँचा हो जाए और अपवित्र न हो। अपने व्रतशीलता के सङ्कल्प का ध्यान इसी बहाने बार- बार किया जाए।
(२) यज्ञोपवीत का कोई तार टूट जाए या ६ माह से अधिक समय हो जाए, तो बदल देना चाहिए। खण्डित प्रतिमा शरीर पर नहीं रखते। धागे कच्चे और गन्दे होने लगें, तो पहले ही बदल देना उचित है।
(३) जन्म- मरण के सूतक के बाद इसे बदल देने की परम्परा है। जिनके गोद में छोटे बच्चे नहीं हैं, वे महिलाएँ भी यज्ञोपवीत सँभाल सकती हैं, किन्तु उन्हें हर मास मासिक शौच के बाद उसे बदल देना पड़ता है।
(४) यज्ञोपवीत शरीर से बाहर नहीं निकाला जाता। साफ करने के लिए उसे कण्ठ में पहने रहकर ही घुमाकर धो लेते हैं। भूल से उतर जाए, तो प्रायश्चित की एक माला जप करने या बदल लेने का नियम है।
(५) देव प्रतिमा की मर्यादा बनाये रखने के लिए उसमें चाबी के गुच्छे आदि न बाँधें। इसके लिए भिन्न व्यवस्था रखें।
बालक जब इन नियमों के पालन करने योग्य हो जाएँ, तभी उनका यज्ञोपवीत करना चाहिए।
यज्ञोपवीत भारतीय धर्म का पिता है और गायत्री भारतीय संस्कृति की माता, दोनों का जोड़ा है। यज्ञ पिता को कन्धे पर और गायत्री माता को हृदय में एक साथ धारण किया जाता है। गायत्री प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी का गुरु मन्त्र है। उसे यज्ञोपवीत के समय पर ही विधिवत् ग्रहण करना चाहिए। आज उस स्तर के गुरु दीख नहीं पड़ते, जो स्वयं पार हो चले हों और दूसरों को अपनी नाव पर बिठा कर पार लगा सकें। जिधर भी दृष्टि डाली जाती है, नकलीपन और धोखा ही भरा मिलता है। अस्तु, यह अच्छा है कि व्यक्तियों को गुरु न बनाया जाए। अन्तःकरण के प्रकाश को तथा प्रत्यक्ष में ज्ञान- यज्ञ की दिव्य ज्योति- लाल मशाल को सद्गुरु माना जाए और यज्ञोपवीत के समय शुद्ध उच्चारण की दृष्टि से किसी भी श्रेष्ठ व्यक्ति से मन्त्रारम्भ की प्रक्रिया पूरी की जाए।
विशेष व्यवस्था- यज्ञोपवीत संस्कार के लिए यज्ञादि की सामान्य व्यवस्था के साथ- साथ नीचे लिखी व्यवस्थाओं पर भी दृष्टि रखनी चाहिए-
१- पुरानी परम्परा के अनुसार यज्ञोपवीत लेने वाले बालकों का मुण्डन करा दिया जाता था, उद्देश्य था शरीर की शृंगारिकता के प्रति उदासीनता। जिन्हें यज्ञोपवीत लेना हो, उनसे एक दिन पूर्व बाल कटवा- छँटवा कर शालीनता के अनुरूप करा लेने का आग्रह किया जा सकता है।
२- जितनों का यज्ञोपवीत होना है, उसके अनुसार मेखला, कोपीन, दण्ड, यज्ञोपवीत, पीले दुपट्टों की व्यवस्था करा लेनी चाहिए।
मेखला और कोपीन संयुक्त रूप से दी जाती है। मेखला कहते हैं कमर में बाँधने योग्य नाड़े जैसे सूत्र को। कपड़े की सिली हुई सूत की डोरी, कलावे के लम्बे टुकड़े से मेखला बना लेनी चाहिए। कोपीन लगभग ४ इंच चौड़ी डेढ़ फुट लम्बी लँगोटी होती है। इसे मेखला के साथ टाँक कर भी रखा जा सकता है। दण्ड के लिए लाठी या ब्रह्म दण्ड जैसा रोल भी रखा जा सकता है। यज्ञोपवीत पीले रँगकर रखे जाने चाहिए। न रँग पाएँ, तो उनकी गाँठ को हल्दी से पीला कर देना चाहिए। संस्कार कराने वालों से पहले से ही कहकर रखा जाए कि सभी या कम से कम एक नया वस्त्र धारण करके बैठें। नया दुपट्टा भी लेना पर्याप्त है। संस्कार कराने वाले हर व्यक्ति के लिए पीले दुपट्टे की व्यवस्था करा ही लेनी चाहिए।
३- गुरु पूजन के लिए लाल मशाल का चित्र रखना चाहिए। गुरु व्यक्ति नहीं चेतना रूप है, ऐसा समझकर युग शक्ति की प्रतीक मशाल को ही गुरु का प्रतीक मानकर रखना अधिक उपयुक्त है।
४- वेद का अर्थ है- ज्ञान। वेद पूजन के लिए वेद की पुस्तक उपलब्ध न हो, तो कोई पवित्र पुस्तक पीले वस्त्र में लपेट कर पूजा वेदी पर रख देनी चाहिए।
५- गायत्री, सावित्री एवं सरस्वती पूजन के लिए पूजन वेदी पर चावल की तीन छोटी- छोटी ढेरियाँ रख देनी चाहिए।
देव पूजन, रक्षाविधान तक के उपचार पूरे करके विशेष कर्मकाण्डों को क्रमबद्ध रूप से कराया जाता है। समय और परिस्थितियों के अनुरूप प्रेरणाएँ एवं व्याख्याएँ भी की जानी चाहिए। क्रिया- निर्देश और भाव- संयोग का क्रम पूरी सावधानी के साथ बनाया जाए।
॥ मेखला- कोपीन धारण॥
शिक्षण एवं प्रेरणा- मेखला कोपीन धारण करने का प्रयोजन ब्रह्मचर्य पालन और प्रत्येक कार्य में जागरूक, निरालस्य एवं कर्त्तव्य पालन में कटिबद्ध रहने की प्रेरणा देना है। कोपीन पहनना अर्थात् लँगोट बाँधना। ब्रह्मचारी भी पहलवान की तरह लँगोट बाँधते हैं। लँगोट बाँधना ब्रह्मचर्य पालन का प्रतीक है। किशोरों को यही रीति- नीति अपनानी चाहिए, उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि शारीरिक बढ़ोत्तरी की उम्र में आवश्यक शक्ति का उपयोग शरीर एवं मन को विकसित होने में लगाना चाहिए। यदि उस अवधि में उसे नष्ट किया गया, तो शरीर और मन दोनों का ही विकास रुक जायेगा। अपव्यय के कारण जो खोखलापन इन दिनों उत्पन्न हो जायेगा, उसकी क्षतिपूर्ति फिर कभी न हो सकेगी, लड़कियों की शारीरिक अभिवृद्धि २० वर्ष की आयु तक और लड़कों की २५ वर्ष तक होती है। यह समय दोनों के लिए सतर्कतापूर्वक शक्तियों के संरक्षण का है, ताकि उनका उपयोग शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की नींव पक्की करने में हो सके। यह अवधि विद्या पढ़ने, मानसिक विकास करने एवं व्यायाम, ब्रह्मचर्य आदि के द्वारा शारीरिक परिपुष्टता प्राप्त करने की है। जो कच्ची उम्र में जीवन रस के साथ खिलवाड़ करना शुरू कर देते हैं। वे एक प्रकार से आत्म- हत्या करते हैं।
कमर में मेखला बाँधने का प्रयोजन वही है, जो पुलिस तथा फौज के सैनिक कमर में पेटी बाँधकर पूरा करते हैं। कमर बाँधकर कटिबद्ध रहना जागरूकता एवं सतर्कता का चिह्न है। आलस्य और प्रमाद छोड़कर अपने नियत कर्त्तव्य- कर्म के लिए मनुष्य को सदा उत्साह एवं प्रसन्नता के साथ तत्पर रहना चाहिए। आलस्य, प्रमाद, लापरवाही, ढील- पोल, दीर्घसूत्रता जैसे दुर्गुणों को पास भी नहीं फटकने देना चाहिए, आलसी और लापरवाह व्यक्ति हर दिशा में अपनी अपार क्षति करते हैं। आलस्य चाहे शारीरिक, आर्थिक हो, चाहे मानसिक उसे साक्षात् मूर्तिमान् दारिद्र्य या दुर्भाग्य ही कहना चाहिए। इस बुरी आदत से सर्वथा बचा जाए, इसके लिए मेखला पहनाते हुए यज्ञोपवीतधारी को यह प्रेरणा दी जाती है कि वह कार्य क्षेत्र में संसार में सदा अपने कर्त्तव्य पालन के लिए फौजी सैनिक की तरह कटिबद्ध रहें। जागरूकता और सतर्कता को, स्फूर्ति और आशा को, साहस और धैर्य को अपना सच्चा सहचर समझें।
क्रिया और भावना- मेखला और कोपीन एकत्रित रखकर आचार्य तीन बार गायत्री मन्त्र बोलते हुए उन पर जल के छींटे लगायें। भावना करें कि इनमें समय और तत्परता के संस्कार पैदा किये जा रहे हैं।
सिंचन के बाद उन्हें संस्कार कराने वालों के पास पहुँचा दिया जाए। वे उन्हें हाथों के सम्पुट में रखें। मन्त्रोच्चार के साथ भावना करें कि प्राण शक्ति का संरक्षण तथा सही योजना कराने का उत्तरदायित्व हम पर आ रहा है। उसे हम साहस और प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करते हैं। उस दिशा में मिलने वाले हर विचार, सहयोग एवं भावना को हम सम्मान के साथ स्वीकार करते रहेंगे। मेखला, कोपीन के साथ दैवी संस्कार का वरण हम कर रहे हैं। मन्त्र पूरा होने पर उसे कमर में स्वयं बाँध लें या खोंस लें। लँगोट पहनने का अभ्यास बनाने का आग्रह भी किया जाए।
ॐ इयं दुरुक्तं परिबाधमाना, वर्णं पवित्रं पुनतीमऽ आगात्।
प्राणापानाभ्यां बलमादधाना, स्वसादेवी सुभगा मेखलेयम्॥ -पार०गृ०सू० २.२.८
॥ दण्ड धारण॥
शिक्षण और प्रेरणा- आश्रमवासी ब्रह्मचारियों को दण्ड धारण कराया जाता था। उसके साथ अनेक स्थूल प्रेरणाएँ जुड़ी हैं। दैनिक उपयोग में कुत्ते, साँप, बिच्छू आदि से रक्षा, पानी की थाह लेना, आक्रमणकारियों से आत्मरक्षा, अपनी शक्ति एवं साहसिकता का प्रदर्शन आदि इसके कितने ही छिटपुट लाभ हैं। शस्त्र सज्जा में लाठी सर्वसुलभ और अधिक विश्वस्त है। उसे साथ रखने से साहस बढ़ता है। लाठी चलाना एक बहुत ही उच्च स्तर का व्यायाम है। इससे देहबल तथा मनोबल भी बढ़ता है। लाठी चलाना हर धर्म प्रेमी को आना चाहिए, ताकि दुष्ट, आतताई और अधर्मियों के हौंसले पस्त करने की सामर्थ्य दिखा सकें।
अन्याय सहना अन्याय करने के समान ही पाप है। अन्याय करने वाला मरने के बाद नरक को जाता है और अन्याय सहने वाला इसी जन्म में हानि, अपमान, असुविधा, आघात आदि के कष्ट सहता है। इसलिए हर धर्मप्रेमी को अनीति का प्रबल विरोध करने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए। इस तत्परता का एक प्रतीक उपकरण लाठी है। यज्ञोपवीत धारण करने का अर्थ है- पशुता का परित्याग एवं मानवता को अङ्गीकार करना। इस परिवर्तन की प्रक्रिया में यह तो होता ही है कि नर- पशुओं के रोष एवं असन्तोष का निमित्त बनना पड़े। जहाँ सौ झूठे रहते हों, वहाँ एक सत्यवादी को सताया एवं तिरस्कृत किया जाता है। ऐसी सम्भावनाओं को ध्यान में रखते हुए धैर्य, साहस एवं आत्मबल का एकत्रीकरण करना होता है, इस तैयारी को- इस बात को सदा स्मरण रखने के लिए दण्ड का विधान रखा गया है।
लाठी आमतौर से बाँस की होती है। बाँस की अनेक गाँठें मिलकर पूरा दण्ड बनाती हैं। इसका प्रयोजन यह है कि अनेक व्यक्तियों के मिलजुल कर रहने से, संगठित होने से ही धर्मरक्षा की शक्ति का निर्माण होता है। सङ्घ शक्ति ही इस युग में सर्वोपरि है। उसी के द्वारा धर्म रक्षा एवं अधर्म का प्रतिकार हो सकता है। धर्मात्मा व्यक्ति वैसे ही थोड़े हैं। इस पर भी वे असंगठित रहें, तो फिर उनके आदर्श अच्छे रहते हुए भी व्यवहार की दृष्टि से उन्हें बेवकूफ कहा जायेगा। बेवकूफ सदा पिटते रहते हैं। असंगठित धर्म प्रेमियों को यदि तिरस्कृत एवं असफल रहना पड़े, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। खण्डों से मिलकर बना हुआ दण्ड हाथ में धारण करते समय यज्ञोपवीतधारी- आदर्शों को अपनाने वाले को यह ध्यान रखना पड़ता है कि उसे साहसी- शूरवीर ही नहीं, संगठन की उपयोगिता एवं आवश्यकता को भी समझना और स्वीकार करना है। अपने क्षेत्र के धर्मप्रेमियों को संगठित करने की बात सदा ध्यान में रखनी चाहिए।
क्रिया और भावना- दण्ड पर गायत्री मन्त्र के साथ कलावा बाँध देना चाहिए। यह कार्य पहले से भी करके रखा जा सकता है और उसी समय भी किया जा सकता है। दण्ड मन्त्र के साथ संस्कार कराने वालों को दिया जाए। वे उसे दोनों हाथों से लेकर मस्तक से लगाएँ। भावना करें कि अध्यात्म खेत्र के प्रखर अनुशासन को ग्रहण किया जा रहा है, इसके साथ देव शक्तियों द्वारा उसके अनुरूप प्रवृत्ति और शक्ति प्रदान की जा रही है।
आचार्य निम्न मन्त्र बोलते हुए ब्रह्मचारी को दण्ड प्रदान करें-
ॐ यो मे दण्डः परापतद्, वैहायसोऽधिभूम्याम्।
तमहं पुनराददऽ आयुषे, ब्रह्मणे ब्रह्मवर्चसाय॥ - पार० गृ०सू० २.२.१२
॥ यज्ञोपवीत पूजन॥
यज्ञोपवीत देव प्रतिमा है। उसकी स्थापना के पूर्व उसकी शुद्धि तथा उसमें प्राण- प्रतिष्ठा का उपक्रम किया जाता है। जनेऊ को सबसे प्रथम पवित्र करना चाहिए। उसे शुद्ध जल से और यदि सम्भव हो, तो गंगाजल से धोया जाए, ताकि अब तक उस पर पड़े हुए स्पर्श संस्कार दूर हो जाएँ। इसके बाद उसे दोनों हाथों के बीच रखकर १० बार गायत्री मन्त्र का मानसिक जप किया जाए। इतना करने से वह पवित्र एवं अभिमन्त्रित हो जाता है। फिर हाथ में अक्षत, पुष्प लेकर यज्ञोपवीत पूजन का मन्त्र बोला जाए। मन्त्र पूरा होने पर अक्षत पुष्प उस पर चढ़ा दिये जाएँ। भावना की जाए कि सूत्र की बनी इस देव प्रतिमा को शुद्ध एवं संस्कारवान् बनाकर उसमें सन्निहित देवत्व के प्रति अपनी भावना आस्था समर्पित की जा रही है।
ॐ मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य, बृहस्पतिर्यज्ञमिमं, तनोत्वरिष्टं, यज्ञं œ समिमं दधातु। विश्वे देवास ऽ इह मादयन्तामो३म्प्रतिष्ठ। - २.१३
॥ पंच देवावाहन॥
शिक्षण और प्रेरणा- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, यज्ञ और सूर्य- इन पाँचों देवताओं को पाँच दिव्य भावनाओं का प्रतीक माना गया है। ब्रह्मा अर्थात् आत्मबल, विष्णु अर्थात् समृद्धि, महेश अर्थात् व्यवस्था, यज्ञ अर्थात् परमार्थ, सूर्य अर्थात् पराक्रम- इन पाँचों गुणों को देवता मानकर हम यज्ञोपवीत के माध्यम से अपने हृदय और कलेजे पर धारण करें अर्थात् उन्हें अपनी आस्था एवं प्रकृति का अङ्ग बनाएँ, तभी वास्तविक कल्याण का मार्ग मिलेगा। देवता भावनाओं के प्रतिबिम्ब होते हैं।
(१) ब्रह्मा- जीवन के भौतिक और आत्मिक दोनों ही पहलू सुविकसित होने चाहिए। हमें आत्मबल से सम्पन्न होने के लिए संयमी, सदाचारी, मधुरभाषी, शालीन, नेक, सज्जन, आस्तिक, सद्गुणी होना चाहिए, जिसका व्यक्तित्व जीवन पवित्र एवं सद्भावना युक्त है, उसी का आत्मबल बढ़ता है। यज्ञोपवीत में आवाहित प्रथम ब्रह्मा का धारण करने का तात्पर्य इस मान्यता को हृदयंगम करना एवं उसके लिए प्रयत्नशील रहना ही है।
क्रिया और भावना- यज्ञोपवीत खोलकर उसे हाथ के दोनों अँगूठों में फैला लें, ताकि फिर से न उलझे। अब दोनों हाथों के सम्पुट में लें। मन्त्रोच्चार के साथ भावना करें कि आवाहित देवशक्ति का प्रवाह इस सूत्र में स्थापित हो रहा है। मन्त्र पूरा होने पर हाथों को मस्तक से लगाएँ।
ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्, विसीमतः सुरुचो वेनऽआवः।
सबुध्न्याऽउपमाऽअस्य विष्ठाः,सतश्च योनिमसतश्च विवः॥
ॐ ब्रह्मणे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। - १३.३, अथर्व० ५.६.१
(२) विष्णु- विष्णु लक्ष्मी के स्वामी हैं, हमें भी दीन, दरिद्र, हेय, परावलम्बी, गई- गुजरी स्थिति में नहीं पड़ा रहना चाहिए। स्वास्थ्य, शिक्षा, कुशलता आदि गुणों को बढ़ाना चाहिए, ताकि उसकी कीमत पर सुख- साधनों को, समृद्धि को प्राप्त किया जा सके। समृद्धि उपलब्ध करने का सही मार्ग केवल एक ही है, अपनी सर्वांगीण प्रतिभा एवं योग्यता को बढ़ाना। इस दिशा में जो जितना कर लेगा, उसे उस मूल्य पर आसानी से अधिक सुख- साधन मिल जायेंगे। समृद्धि को मनुष्य अपनी तथा दूसरों की सुविधा बढ़ाने में खर्च करें, तो उससे लोक एवं परलोक की सुख- शान्ति बढ़ेगी। यज्ञोपवीत में स्थापित विष्णु का यही सन्देश है।
ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे, त्रेधा निदधे पदम्। समूढमस्य
पा œ सुरे स्वाहा॥ ॐ विष्णवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -५.१५
(३) महेश- महेश का अर्थ है- नियंत्रण, व्यवस्था, क्रमबद्धता, उचित का चुनाव। ब्रह्मा को उत्पादन का, विष्णु को पालन का और शिव को संहार का देवता माना गया है। संहार का अर्थ है- अनुपयोगिता एवं अनौचित्य का निवारण। हमारी आधी से अधिक शक्ति सामर्थ्य अव्यवस्था एवं अनौचित्य को अपनाये रहने से नष्ट होती है, इसे बचाया जाना चाहिए। यज्ञोपवीत में शिव देवता का आवाहन इन्हीं मान्यताओं को हृदयङ्गम करने के लिए किया जाता है।
ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽ, उतो त ऽ इषवे नमः। बाहुभ्यामुत ते नमः।
ॐ रुद्राय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -१६.१
(४) यज्ञ- आत्मबल बढ़ाने के लिए एक अनिवार्य माध्यम परमार्थ है, यज्ञ इसी प्रवृत्ति का परिचायक है। धार्मिक व्यक्ति वही है, जिसके जीवन में सेवा, उदारता, सहायता एवं परोपकार की वृत्ति फूट पड़ती है, जिसे सभी अपने लगते हैं, जिसे सभी से प्रेम है, वही सच्चा अध्यात्मवादी कहा जायेगा। उसे अनिवार्यतः अपनी आकांक्षाओं और गतिविधियों में परमार्थ को प्रधानता देनी ही होगी। ब्रह्म और यज्ञ इन दो देवताओं की- वैयक्तिक जीवन की पवित्रता एवं लोक सेवा की प्रवृत्ति को अपनाने से आत्मिक बल बढ़ता है और मनुष्यत्व से देवत्व की ओर प्रगति होती है।
यज्ञोपवीत खोलकर कनिष्ठिका व अँगुष्ठ में फँसाकर यज्ञ भगवान् के सामने करें।
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः, तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त, यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥
ॐ यज्ञपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। ३१.१६
(५) सूर्य- सूर्य अर्थात् तेजस्विता, पराक्रम, श्रमशीलता। सूर्य की तरह हम निरन्तर कार्य में संलग्न रहें, परिश्रम को अपना जीवन सहचर एवं गौरव का आधार मानें। आलस्य और प्रमाद को पास न फटकने दें। सदा जागरूक एवं चैतन्य रहें। पुरुषार्थी बनें। आत्महीनता एवं दीनता की भावना मन में न आने दें। तेजस्वी बनें। एक पैर से खड़े होकर पानी का लोटा सूर्य के सामने लुढ़का देने से नहीं, सूर्य की सच्ची उपासना उसकी प्रेरणाओं को अपनाने से होती है। यज्ञोपवीत को लिए हुए दोनों हाथ ऊपर उठाएँ, सूर्य भगवान् का ध्यान करें-
ॐ आकृष्णेन रजसा वर्त्तमानो, निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।
हिरण्ययेन सविता रथेना, देवो याति भुवनानि पश्यन्॥
ॐ सूर्याय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -३३.४३
॥ यज्ञोपवीत धारण॥
शिक्षण और प्रेरणा- कोई भी वस्त्र- आभूषण हो, अपनी शोभा प्रतिष्ठा तब बढ़ाता है, जब उसे धारण किया जाए। यज्ञोपवीत प्रतीक को धारण करते हुए यह ध्यान रखा जाए कि यह सूत्र नहीं, इस माध्यम से जीवन में दिव्यता- आदर्शवादिता को धारण किया जा रहा है। इसे सहज ही धारण किया जाना चाहिए, क्योंकि इसके बिना मनुष्य में मनुष्यता का विकास सम्भव नहीं।
क्रिया और भावना- पाँच यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति मिलकर यज्ञोपवीत पहनाते हैं। भाव यह है कि इस दिशा में नया प्रयास, प्रवेश करने वाले को अनुभवियों का सहयोग एवं मार्गदर्शन मिलता रहे। पहनाने वाले जब यज्ञोपवीत पकड़ लें, तो धारण करने वाला उसे छोड़ दे। बायाँ हाथ नीचे कर ले और दाहिना हाथ ऊपर ही उठाये रहे। मन्त्र के साथ यज्ञोपवीत पहना दिया जाए। मन्दिर में प्रतिमा स्थापना जैसा दिव्य भाव बनाये रखें।
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥ -पार० गृ०सू० २.२.११
॥ सूर्य दर्शन॥
शिक्षण एवं प्रेरणा- तदुपरान्त सूर्य दर्शन एवं सूर्य अर्घ्यदान की क्रिया है। संस्कारार्थी सूर्य भगवान् को देखता है और तीन अञ्जलि भर के उन्हें जल प्रदान करता है।
सूर्य के समान तेजस्वी बनना, उष्णता धारण किये रहना, गतिशील रहना, लोक कल्याण के लिए जीवन समर्पित करना, अन्धकार रूपी अज्ञान दूर करना, अपने प्रकाश से दूसरों को प्रकाशित करना जैसी अनेक प्रेरणाएँ सूर्य दर्शन करते हुए ग्रहण की जाती हैं। सूर्य आगे बढ़ता चलता है, पर साथ में अपने अन्य ग्रह, उपग्रहों को भी घसीटता ले चलता है। यज्ञोपवीतधारी को स्वयं तो प्रगति के पथ पर आगे बढ़ना ही है, पर साथ ही यह भी ध्यान रखना है कि व्यक्तिगत उन्नति से ही सन्तोष न कर लिया जाए, अपने साथी समीपवर्ती लोगों को भी आगे बढ़ाते हुए साथ चलने का प्रयत्न करना है। सूर्य उदय और अस्त में, लाभ और हानि में मनुष्य को सन्तुलित धैर्य युक्त एवं एक- सा रहना चाहिए। न तो सम्पत्ति से उन्मत्त हो और न विपत्ति में शोकसन्ताप से विक्षुब्ध हो। धूप- छाँव की तरह जीवन में प्रिय- अप्रिय परिस्थितियाँ आती- जाती रहती हैं। उन्हें हँसते- खेलते एवं क्रीड़ा विनोद की तरह देखना चाहिए और शान्त चित्त से अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर बिना एक क्षण भी उद्वेगों में गँवाये, आगे बढ़ते रहना चाहिए। सूर्य के समान लोककल्याण के आयोजनों में पूरी अभिरुचि रखने की कार्य पद्धति अपनाने की योजना बनानी चाहिए। भगवान् भास्कर अपनी किरणों द्वारा समुद्र के पानी को भाप बनाकर बादलों के रूप में परिणत करते हैं। बादलों से वर्षा होती है। उसी पर वृक्ष, वनस्पति, जीव- जन्तु, पशु- पक्षी और मनुष्य का जीवन निर्भर है।
सूर्य किरणों की गर्मी निर्जीव प्रकृति को सजीव बनाती है। संसार में जितना जीवन तत्त्व है, वह सब सूर्य से ही आया है। इसलिए सूर्य को जगत् की आत्मा भी कहा गया है। हमें भी सूर्य के दर्शन करते हुए इसी रीति- नीति को अपनाना चाहिए और श्रद्धापूर्वक तीन बार अञ्जलि जल देते हुए शरीर, मन और धन से इन आदर्शों में तत्पर रहने की सहमति- स्वीकृति प्रकट करनी होती है।
क्रिया और भावना- मन्त्रोच्चार के साथ सूर्य नारायण का ध्यान करते हुए तीन अञ्जलि या पात्र से तीन बार जल समर्पित करें तथा हाथजोड़कर नमस्कार करें, भावना करें कि जगदात्मा सूर्य जिस प्रकार सारी प्रकृति को शक्ति देते हैं, वैसे ही उनका सूक्ष्म प्रवाह हमें भी मिल रहा है, हम उससे धारण और नियोजन की सामर्थ्य पा रहे हैं।
ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं, जीवेम शरदः शत œ, शृणुयाम शरदः शतं, प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः, स्याम शरदः शतं, भूयश्च शरदः शतात्॥ -३६.२४
॥ त्रिपदा पूजन॥
शिक्षण और प्रेरणा- गायत्री के तीन चरण कहे गये हैं। यज्ञोपवीत की तीन लड़ें उनकी प्रतीक हैं। उन्हें सूत्र रूप में गायत्री, सरस्वती और सावित्री शक्तियों के रूप में जाना जाता है। इनकी प्रतिनिधि धाराएँ क्रमशः श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा हैं। ये मनुष्य के कारण, सूक्ष्म और स्थूल कलेवरों को नियन्त्रित, विकसित करने वाली हैं। इन्हीं के सहारे देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋणों से मुक्त हुआ जा सकता है। इन्हें ही भक्ति, ज्ञान और कर्म की धाराओं की गंगोत्री माना जाता है। इनका मर्म समझने तथा अनुसरण करने के भाव से त्रिपदा पूजन के अन्तर्गत इन्हीं तीन शक्तियों का पूजन किया जाता है।
क्रिया और भावना- पूजन वेदी पर स्थापित चावल की तीन ढेरियों को गायत्री, सरस्वती एवं सावित्री का प्रतीक मानकर उनके मन्त्र बोलकर अक्षत, पुष्प उन पर चढ़ाएँ। भावना की जाए कि ऊँची सतह का पानी निचली सतह पर आता है। इन शक्तियों के आगे उनका पूजन करके झुककर उनके प्रवाह को हम प्राप्त कर रहे हैं। गायत्री पूजन के साथ श्रद्धा, सरस्वती के साथ प्रज्ञा और सावित्री के साथ निष्ठा सम्पदाओं के सम्वर्धन की भावना की जाए।
॥ गायत्री पूजन॥
ॐ ता सवितुर्वरेण्यस्य, चित्रामाऽहं वृणे सुमतिं विश्वजन्याम्।
यामस्य कण्वो अदुहत्प्रपीना, सहस्रधारां पयसा महीं गाम्।
ॐ भूर्भुवः स्वः गायत्र्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ - १७.७४
॥ सरस्वती पूजन॥
ॐ पावका न सरस्वती, वाजेभिर्वाजिनीवती। यज्ञं वष्टु धियावसुः॥
ॐ भूर्भुवः स्वः सरस्वत्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ - २०.८४
॥ सावित्री पूजन॥
ॐ सवित्रा प्रसवित्रा सरस्वत्या, वाचा त्वष्ट्रा रूपैः पूष्णा पशुभिरिन्द्रेणास्मे, बृहस्पतिना ब्रह्मणा वरुणेनौजसाऽग्निना, तेजसा सोमेन राज्ञा विष्णुना, दशम्या देवतया प्रसूतः प्रसर्पामि॥
ॐ भूर्भुवः स्वः सावित्र्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -१०.३०
॥ दीक्षा प्रकरण॥
यज्ञोपवीत संस्कार के साथ दीक्षा अनिवार्य रूप से जुड़ी है। बहुत बार प्रतिनिधि के रूप में आस्थावान् व्यक्तियों को भी दीक्षा देनी पड़ती है। दोनों ही प्रकरणों में दीक्षा के उद्देश्य, महत्त्व और मर्यादाओं पर उनका ध्यान दिला देना चाहिए।
महत्त्व और मर्यादाएँ- दीक्षा पाने के लिए व्यक्ति बहुधा सहज श्रद्धावश पहुँच जाते हैं। दीक्षा के पूर्व उन्हें इस कृत्य का महत्त्व और उसकी मर्यादाएँ समझा देनी चाहिए। उसके मुख्य सूत्र ये हैं-
(१) गुरु दीक्षा सामान्य कर्मकाण्ड नहीं, एक सूक्ष्म आध्यात्मिक प्रयोग है। उसके अन्तर्गत शिष्य अपनी श्रद्धा और सङ्कल्प के सहारे गुरु के समर्थ व्यक्तित्व के साथ जुड़ता है। कर्मकाण्ड उस सूक्ष्म प्रक्रिया का एक अङ्ग है।
(२) दीक्षा में समर्थ गुरु के विकसित प्राण का एक अंश शिष्य के अन्दर स्थापित किया जाता है। यह कार्य समर्थ गुरु ही कर सकता है। उन्हीं का प्राणानुदान दीक्षा लेने वालों को मिलता है, कर्मकाण्ड कराने वाला स्वयंसेवक मात्र होता है।
(३) व्यक्ति अपने पुुरुषार्थ से आगे बढ़ता है, यह उसी प्रकार ठीक है, जैसे पौधा अपनी ही जड़ों से जीवित रहता है और बढ़ता है, किन्तु यह भी सत्य है कि वृक्ष की कलम सामान्य पौधे में बाँध देने पर उसके उत्पादन में भारी परिवर्तन हो जाता है। दीक्षा में साधक रूपी सामान्य पौधे पर गुरु रूपी श्रेष्ठ वृक्ष की टहनी प्राणानुदान के रूप में स्थापित की जाती है। साधक इसका अनुपम लाभ उठा सकता है।
(४) कलम बाँधना एक कार्य है। यह कार्य गुरु द्वारा किया जाता है। उसे रक्षित और विकसित करना दूसरा कार्य है, जिसके लिए शिष्य को पुरुषार्थ करना पड़ता है। दीक्षा लेने वालों को अपने इस दायित्व के प्रति जागरूक रहना चाहिए। इसके लिए गुरु के विचारों के सतत सान्निध्य में रहना आवश्यक है, मिशन की पत्रिकाओं से उनका मार्गदर्शन पाते रहना तथा तद्नुरूप जीवन क्रम बनाने का प्रयास करना चाहिए।
(५) दीक्षा के बाद गुरु- शिष्य परम्परा पूरक बन जाते हैं। गुरु की शक्ति शिष्य के उत्कर्ष के लिए लगती रहती है, पर यह तभी सम्भव है, जब शिष्य की शक्ति गुरु के कार्यों- लोकमंगल के लिए नियमित रूप से लगती रहे। इसे देवत्व की साझेदारी कहा जा सकता है। शिष्य को अपने समय, पुरुषार्थ, प्रभाव, ज्ञान एवं धन का एक अंश नियमित रूप से गुरु के कार्य के लिए लगाना होता है। यह क्रम चलता रहे, तो लगाई हुई कलम का फलित होना अवश्यम्भावी है।
क्रम व्यवस्था- यदि यज्ञोपवीत के साथ दीक्षा क्रम चलाना है, तो त्रिपदा पूजन के बाद गुरु पूजन- नमस्कार कराके दीक्षा दे दी जाए। यदि अलग से दीक्षा क्रम चलता है, तो नीचे लिखे क्रम से उपचार कराते हुए आगे बढ़ें।
(१) पहले षट्कर्म- पवित्रीकरण, आचमन, शिखावन्दन, प्राणायाम, न्यास एवं भूमिपूजन कराएँ। इसके साथ संक्षिप्त भावभरी सारगर्भित व्याख्याएँ की जाएँ।
(२) षट्कर्म के बाद देवपूजन एवं सर्वदेव नमस्कार कराएँ।
(३) नमस्कार के बाद हाथ में पुष्प, अक्षत, जल लेकर स्वस्तिवाचन कराया जाए। स्वस्तिवाचन के अक्षत, पुष्प एकत्रित करने के साथ ही नियुक्त स्वयंसेवकों द्वारा ही कलावा बाँधने एवं तिलक करने का क्रम चलाया जाए। उसके मन्त्र एवं व्याख्याएँ संचालक बोलते रहें।
यदि दीक्षा क्रम यज्ञ के साथ चल रहा है, तो उपर्युक्त में से जो उपचार पहले कराये जा चुके हैं, उन्हें पुनः कराना आवश्यक नहीं। उस स्थिति में गुरु पूजन करके ही दीक्षा दी जाए।
॥ गुरु पूजन॥
जिस प्रकार भगवान् मूर्ति नहीं एक चेतना है, उसी प्रकार गुरु को व्यक्ति नहीं चेतना रूप मानना चाहिए। जो ईश्वर को मूर्तियों, चित्रों तक सीमित मानता है, वह ईश्वरीय सत्ता का समुचित लाभ नहीं उठा सकता। इसी प्रकार जो गुरु को शरीर तक सीमित मानता है, वह गुरु सत्ता का लाभ नहीं उठा सकता। जिस प्रकार ईश्वर सर्वसमर्थ है, पर भक्त की मान्यता और भावना के अनुरूप ही प्रत्यक्ष फल देता है, वैसे ही गुरु भी शिष्य की आस्था के अनुरूप फलित होता है। यह ध्यान में रखकर गुरु वन्दना के साथ अन्तःकरण में गुरु चेतना के प्रकटीकरण होने की प्रार्थना की जानी चाहिए।
क्रिया और भावना- गुरु के प्रतीक चित्र पर मन्त्र के साथ अक्षत- पुष्प चढ़ाकर उनका पूजन करें। फिर हाथ जोड़कर भावभरी वन्दना करें। भावना करें कि उनकी कृपा से उन्हें चेतना के रूप में समझने, अपनाने की क्षमता का विकास हो रहा है।
ॐ बृहस्पते ऽअति यदर्यो, अर्हाद् द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु। यद्दीदयच्छवसऽ ऋतप्रजात, तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्। उपयामगृहीतोऽसि बृहस्पतये, त्वैष ते योनिर्बृहस्पतये त्वा।
ॐ श्री गुरवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
ततो नमस्कारं करोमि। -२६.३, तै०सं० १.८.२२.२, ऋ० २.२३.१५
ॐ वन्दे बोधमयं नित्यं, गुरुं शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि, चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥
अज्ञानतिमिरान्धस्य, ज्ञानांजनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः॥
नमोऽस्तु गुरवे तस्मै, गायत्रीरूपिणे सदा।
यस्य वागमृतं हन्ति, विषं संसारसंज्ञकम्॥
मातृवत् लालयित्री च, पितृवत् मार्गदर्शिका।
नमोऽस्तु गुरुसत्तायै, श्रद्धाप्रज्ञायुता च या॥
॥ मन्त्र दीक्षा॥
शिक्षण और प्रेरणा- गायत्री मन्त्र सहज रूप से एक छन्द है, प्रार्थना है। गुरु जब उसके साथ अपने तप, पुण्य और प्राण को जोड़ देता है, तो वह मन्त्र बन जाता है। यह सब देने की सामर्थ्य जिसमें न हो, वह दीक्षा देने का प्रयास करे, तो निरर्थक रूप से पातक का भागी बनता है। स्वयंसेवक भाव से गुरु की ही चेतना का प्रवाह दीक्षित व्यक्ति से जोड़ने में अपनी सद्भावना का प्रयोग करना उचित है।
क्रिया और भावना- अब साधकों को सावधान होकर बैठने को कहें। कमर सीधी, हाथ की अँगुलियाँ परस्पर फँसाकर हाथ के अँगूठों को सीधा रखते हुए परस्पर मिलाएँ। अँगूठे के नाखूनों पर साधक अपनी दृष्टि टिकाएँ। यह स्थिति मन्त्र दीक्षा चलने तक बनी रहे। कहीं इधर- उधर न देखें। मन्त्र दीक्षा के बाद जब सिंचन हो जाए, तब दृष्टि हटाएँ और हाथ खोलें। उपर्युक्त मुद्रा बनाने के बाद दीक्षा कर्मकाण्ड कराने वाला स्वयंसेवक गुरु का ध्यान करते हुए गायत्री मन्त्र का एक- एक शब्द अलग- अलग करके बोले। दीक्षा वाले उसे दुहराते चलें। इस क्रम से पाँच बार गायत्री मन्त्र दुहराया जाए।
भावना की जाए ‘गुरु की दिव्य सामर्थ्य, उनके तप, पुण्य, और प्राण का अंश मन्त्राक्षरों के साथ साधक के अन्दर प्रविष्ट- स्थापित हो रहा है। उपयुक्त मनोभूमि में वह फलित होकर ही रहेगा।’
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥ -३६.३
॥ सिंचन- अभिषेक॥
शिक्षण एवं प्रेरणा- वृक्ष, बीज या कलम आरोपित करने के बाद उसमें पानी दिया जाता है। पानी उसके अनुरूप होना चाहिए अन्यथा तेल, साबुन, तेजाबयुक्त पानी पौधे को नष्ट करेगा। गुरु के अनुदानों को दिव्य रस- श्रेष्ठ कर्मों तथा उनके द्वारा निर्दिष्ट अनुशासनों के पालन में उल्लास की अनुभूति से सींचा जाता है। पेड़ लगे, फले- फूले यह भाव सींचने का है। अभिषेक राजाओं, योद्धाओं, सत्पुरुषों का किया जाता है। दीक्षा लेकर नया श्रेष्ठ जीवन प्रारम्भ किये जाने का अभिनन्दन करते हुए अभिषेक किया जाता है।
क्रिया और भावना- कुछ स्वयंसेवक कलश लें। आम के पत्ते, कुश या पुष्प द्वारा मन्त्र के साथ जल के छींटे दीक्षितों पर लगाएँ। भावना की जाए कि सिंचन के साथ दैवी शक्तियों, स्नेहियों के सद्भावों की वर्षा हो रही है, साधकों की साधना फलीभूत होने की स्थिति बन रही है।
ॐ आपो हि ष्ठा मयोभुवः, तानऽऊर्जे दधातन। महे रणाय
चक्षसे। ॐ यो वः शिवतमो रसः, तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः।
ॐ तस्मा ऽअरं गमाम वो, यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः। - ३६.१४, ११.५०- ५२
यदि केवल दीक्षा क्रम अलग से चल रहा है, तो सिंचन के बाद गुरु दक्षिणा सङ्कल्प कराएँ। यज्ञोपवीत के साथ दीक्षा है, तो यज्ञोपवीत के शेष कर्म पूरे कराकर सङ्कल्प कराएँ।
॥ भिक्षाचरण॥
शिक्षण एवं प्रेरणा- गुरु दक्षिणा द्वारा साधक अपने विकास की सुनिश्चित मर्यादा घोषित करता है। सदुद्देश्य के लिए अपना अंशदान देता है, परन्तु बात यहीं समाप्त नहीं होती। सत्कार्यों में अपने योगदान के लिए औरों के योगदान भी जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए। इसके लिए देने की स्थिति और इच्छा जिनमें है, उनसे लेकर उसे सत्कार्यों में लगाना परम पुनीत कार्य माना जाता है। भिक्षा की परम्परा इसी दृष्टि से श्रेष्ठ मानी जाती थी। शिष्य इस परिपाटी के पालन का साहस करे। अपने अहं को गलाकर जन सहयोग एकत्रित करके गुरुकार्य में लगाए। इसी भाव से यज्ञोपवीत के साथ भिक्षाचरण का क्रम भी जुड़ा रहता है।
क्रिया और भावना- शिष्य दुपट्टे की झोली बनाकर भिक्षा माँगे। पहले माँ के पास जाए, कहे ‘भवति भिक्षां देहि’ फिर पिता के पास जाकर कहे ‘भवान् भिक्षां देहि’। फिर इसी प्रकार कहता हुआ अपने कुटुम्बियों महिलाओं- पुरुषों से याचना करें, जो मिले उसे गुरु के सम्मुख अर्पित कर दे। भिक्षा देने वालों के हाथों में अक्षत दे दिये जाएँ। अपनी इच्छा से वे कुछ द्रव्य डालना चाहें, तो डाल सकते हैं।
‘भवति भिक्षां देहि’ (महिलाओं से )) और ‘भवान् भिक्षां देहि’ (पुरुषों से) कहते हुए भिक्षा पूरी करके उपलब्ध सामान गुरु के सम्मुख चढ़ा दिया जाता है।
॥ वेद पूजन- अध्ययन॥
वेदों का सार गायत्री है। गायत्री को ही वेदमाता, वेदबीज या वेदमूल कहते हैं। वेदमाता गायत्री के निर्देशों के अनुरूप, जीवन निर्माण की अपनी आस्था के प्रतीक रूप में वेद भगवान् का पूजन किया जाता है।
क्रिया और भावना- हाथ में पुष्प- अक्षत लेकर वेदों का प्रतीक पूजन किया जाए। फिर नीचे दिये प्रत्येक वेद के एक- एक मन्त्र बुलवाये जाएँ। आचार्य कहें, दीक्षित व्यक्ति दुहराएँ।
ॐ वेदोऽसि येन त्वं देव वेद, देवेभ्यो वेदोऽभवस्तेन मह्यं वेदो भूयाः।
देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित। मनसस्पत ऽइमं देव, यज्ञ स्वाहा वाते धाः।
ॐ वेदपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। - २.२१
॥ वेदाध्ययन॥
ॐ अग्निमीळे पुरोहितं, यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्॥ - ऋ० १.१.१
ॐ इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः, सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽ,
आप्यायध्व मघ्न्याऽइन्द्राय भागं, प्रजावतीरनमीवाऽ अयक्ष्मा, मा व स्तेनऽईशत माघश ,
सो ध्रुवा ऽअस्मिन् गोपतौ स्यात, बह्वीर्यजमानस्य पशून्पाहि॥ - १.१
ॐ अग्न आ याहि वीतये, गृणानो हव्य दातये। निहोता सत्सि बर्हिषि॥ -साम०१.१.१
ॐ ये त्रिषप्ताः परियन्ति, विश्वारूपाणि बिभ्रतः।
वाचस्पतिर्बला तेषां, तन्वोऽ अद्य दधातु मे॥ -अथर्व० १.१.१
॥ विशेष- आहुतिः॥
इसके बाद अग्नि स्थापन से लेकर गायत्री मन्त्र की आहुतियों तक के उपचार पूरे करें। स्विष्टकृत् आहुति के पूर्व विशेष आहुतियाँ प्रदान करें।
शिक्षण एवं प्रेरणा- यज्ञोपवीत व्रतबन्ध है। व्रतशील तेजस्वी जीवन जीने का आरम्भ यहाँ से किया जाता है। इस व्रतशीलता के लिए पाँच व्रतपति देवताओं के नाम की आहुतियाँ डालते हैं। ये देवशक्तियाँ हैं- अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र और इन्द्र। अग्नि से ऊष्मा, प्रकाश, ऊँचे उठना, सबको अपने जैसा बनाना तथा प्राप्त को वितरित करके अपने लिए कुछ शेष न रखना आदि प्रेरणाएँ प्राप्त होती हैं।
वायु से सतत गतिशीलता, जीवों की प्राण रक्षा के लिए स्वयं उन तक पहुँचना, सहज उपलब्ध रहना, बादल, सुगन्धि जैसी सत्प्रवृत्तियों के प्रसार- वितरण का माध्यम बनने की प्रेरणाएँ उभरती हैं।
सूर्य से प्रकाश, नियमितता, सतत चलते रहना, बिना भेदभाव सब तक अपनी किरणें पहुँचाने जैसा श्रेष्ठ शिक्षण प्राप्त होता है।
चन्द्र स्वप्रकाशित नहीं, फिर भी प्रकाश देता है। स्वयं सूर्य ताप सहकर शीतल प्रकाश फैलाता है- ऐसी सत्प्रवृत्तियों के प्रतीक चन्द्रदेव से प्रेरणाएँ प्राप्त करते हैं।
इन्द्र देवत्व के सङ्गठक हैं। बिखराव से ही देवत्व का पराभव होता है, देववृत्तियों के एकीकरण तथा हजार नेत्रों से सतत जागरूकता की प्रेरणा इन्द्रदेव से प्राप्त होती है।
क्रिया और भावना- मन्त्र के साथ आहुतियाँ दें। प्रत्येक आहुति के साथ भावना करें कि इस देवशक्ति के पोषण के लिए यह हमारा योगदान है। वह हमें संरक्षण और मार्गदर्शन देंगे। यह वृत्तियाँ उनके आशीर्वाद से हमें मिल रही हैं, जिससे हमारा कल्याण होता है।
ॐ अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनर्ध्यासमिदमहम्,
अनृतात्सत्यमुपैमि स्वाहा। इदं अग्नये इदं न मम।
ॐ वायो व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनर्ध्यासमिदमहम्,
अनृतात्सत्यमुपैमि स्वाहा। इदं वायवे इदं न मम।
ॐ सूर्य व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनर्ध्यासमिदमहम्,
अनृतात्सत्यमुपैमि स्वाहा। इदं सूर्याय इदं न मम।
ॐ चन्द्र व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि स्वाहा।
इदं चन्द्राय इदं न मम।
ॐ व्रतानां व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्।
तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि स्वाहा। इदं इन्द्राय व्रतपतये इदं न मम। -म०ब्रा० १.६.९- १३
॥ वैश्वानर - नमस्कार॥
हाथ जोड़कर अग्निदेव को नमस्कार करें। भावना करें कि यज्ञाग्नि जिसके सान्निध्य से देवत्व मिलता है, उसके प्रति हम श्रद्धा प्रकट कर रहे हैं।
ॐ वैश्वानरो नऽऊतयऽ, आ प्र यातु परावतः। अग्निर्नः सुष्टुतीरुप। ॐ वैश्वानराय नमः।
आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। - १८.७२
इसके बाद पूर्णाहुति आदि कृत्य कराये जाएँ। विसर्जन के पूर्व गुरु दक्षिणा सङ्कल्प करायें।
॥ गुरु दक्षिणा संकल्प॥
शिक्षण एवं प्रेरणा- दीक्षा के साथ व्रतशीलता की शर्त जुड़ी है। व्रत कहते हैं सुनिश्चित लक्ष्य के लिए सुनिश्चित साधना- क्रम बनाना। जो व्रतशील नहीं, वह जीवन के ढर्रे को बदल नहीं सकता। उसे बदले बिना दीक्षा फलित नहीं होती। यह ढर्रा बदलने के लिए गुरु दक्षिणा दी जाती है। अपने समय, प्रभाव, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश गुरु के निर्देशानुसार खर्च करने का सङ्कल्प ही गुरु दक्षिणा में किया जाता है। इसके लिए न्यूनतम एक रुपया तथा दो घण्टे का समय प्रतिदिन निकालना चाहिए। इससे अधिक करने की जिनकी स्थिति हो, वे महीने में एक दिन का वेतन दे सकते हैं। दीक्षा लेने वालों के सङ्कल्प पत्र पहले से भरवा लेने चाहिए। सङ्कल्प के साथ सङ्कल्प पत्र में ऊपरी बातों का स्मरण किया जाता है।
गुरु, दीक्षा के साथ अपनी शक्ति देता है, शिष्य दक्षिणा देकर अपनी पात्रता, प्रामाणिकता सिद्ध करता है। दीक्षा आहार प्रदान करने जैसा है। दक्षिणा उसे पचाने की क्रिया है। दीक्षा कलम लगाने जैसी प्रक्रिया है, दक्षिणा जड़ों का रस उस कलम तक पहुँचाकर उसे विकसित फलित करने का उपक्रम है।
क्रिया और भावना- साधकों के हाथ में अक्षत, पुष्प देकर दक्षिणा सङ्कल्प बोला जाए। भावना की जाए कि इस दिव्य आदान- प्रदान द्वारा गुरु- शिष्य का व्यक्तित्व मिलकर एक नया व्यक्तित्व बन रहा है।
सङ्कल्प- गोत्र और नाम तक यथावत क्रम से बोला जाए। आगे जोड़ा जाए-
.........श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त- फलप्राप्त्यर्थं मम कायिक- वाचिक मानसिक ज्ञाताज्ञात - सकलदोषनिवारणार्थं, आत्मकल्याणलोककल्याणार्थं- गायत्री महाविद्यायां श्रद्धापूर्वकं दीक्षितो भवामि। तन्निमित्तकं युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ परम पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्येण, वन्दनीया माता भगवती देवी शर्मणा च निर्धारितानि अनुशासनानि स्वीकृत्य, तयोः प्राणतपः पुण्यांशं स्वान्तःकरणे दधामि, तत्साधयितुं च समयप्रतिभा- साधनानां एकांशं .........नवनिर्माणकार्येषु प्रयोक्तुं गुुरुदक्षिणायाः संकल्पम् अहं करिष्ये।
सङ्कल्प बोले जाने के बाद इतने व्रतों की घोषणा सहित संकल्प- पत्र दक्षिणा, फल आदि गुरुदेव के प्रतीक के आगे चढ़वाये जाएँ। आचार्य की भूमिका निभा रहे स्वयंसेवक या कोई वरिष्ठ साधक कार्यकर्त्ता उन्हें तिलक करे। दीक्षित व्यक्ति सबको नमस्कार प्रणाम करे, सभी लोग उन पर शुभकामना, आशीर्वाद के अक्षत- पुष्प छोड़ें। जय घोष आदि के साथ संस्कार क्रम समाप्त किया जाए।
संस्कार प्रयोजन- शिखा और सूत्र भारतीय संस्कृति के दो सर्वमान्य प्रतीक हैं। शिखा भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था की प्रतीक है, जो मुण्डन संस्कार के समय स्थापित की जाती है। यज्ञोपवीत सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर अपने जीवन में आमूलचूल परिवर्तन के सङ्कल्प का प्रतीक है। इसके साथ ही गायत्री मन्त्र की गुरुदीक्षा भी दी जाती है। दीक्षा यज्ञोपवीत मिलकर द्विजत्व का संस्कार पूरा करते हैं। इसका अर्थ होता है- ‘ दूसरा जन्म ’।
शास्त्रवचन है- ‘ जन्मनः जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते॥’ -स्कन्द० ६.२३९.३१
जन्म से मनुष्य एक प्रकार का पशु ही है। उसमें स्वार्थपरता की वृत्ति अन्य जीव- जन्तुओं जैसी ही होती है, पर उत्कृष्ट आदर्शवादी मान्यताओं द्वारा वह मनुष्य बनता है। जब मानव की आस्था यह बन जाती है कि उसे इनसान की तरह ऊँचा जीवन जीना है और उसी आधार पर वह अपनी कार्य पद्धति निर्धारित करता है, तभी कहा जा सकता है कि इसने पशु- योनि छोड़कर मनुष्य योनि में प्रवेश किया है। अन्यथा नर- नारियों से तो यह संसार भरा पड़ा है। स्वार्थ की संकीर्णता से निकलकर परमार्थ की महानता में प्रवेश करने को, पशुता को त्याग कर मनुष्यता ग्रहण करने को दूसरा जन्म कहते हैं। शरीर जन्म माता- पिता के रज- वीर्य से वैसा ही होता है, जैसा अन्य जीवों का। आदर्शवादी जीवन लक्ष्य अपना लेने की प्रतिज्ञा करना ही वास्तविक मनुष्य जन्म में प्रवेश करना है। इसी को द्विजत्व कहते हैं। द्विजत्व का अर्थ है दूसरा जन्म। हर हिन्दू धर्मानुयायी को आदर्शवादी जीवन जीना चाहिए, द्विज बनना चाहिए। इस मूल तथ्य को अपनाने की प्रक्रिया को समारोहपूर्वक यज्ञोपवीत संस्कार के नाम से सम्पन्न किया जाता है। इस व्रत बन्धन को आजीवन स्मरण रखने और व्यवहार में लाने की प्रतिज्ञा का प्रतीक तीन लड़ों वाला यज्ञोपवीत कन्धे पर डाले रहना होता है।
यज्ञोपवीत बालक को तब देना चाहिए, जब उसकी बुद्धि और भावना का इतना विकास हो जाए कि इस संस्कार के प्रयोजन को समझकर उसके निर्वाह के लिए उत्साहपूर्वक लग सके।
यज्ञोपवीत से सम्बन्धित स्थूल- सूक्ष्म मर्यादाएँ इस प्रकार हैं-
१- यज्ञोपवीत गायत्री की मूर्तिमान् प्रतिमा है। गायत्री त्रिपदा है, गायत्री मन्त्र में तीन चरण हैं, इसी आधार पर यज्ञोपवीत में तीन लड़ें हैं। यज्ञोपवीत की प्रत्येक लड़ में तीन धागे होते हैं। यज्ञोपवीत में तीन गाँठों को भूः, भुवः, स्वः तीन व्याहृतियाँ माना गया है। गायत्री के ‘ॐकार’ को बड़ी ब्रह्म ग्रन्थि कहा गया है। गायत्री के एक- एक पद को लेकर ही उपवीत की रचना हुई है। इस प्रतिमा को शरीर मन्दिर में स्थापित करने पर उसकी पूजा- अर्चना करने का उत्तरदायित्व भी स्वीकार करना होता है। इसके लिए नित्य कम से कम एक माला गायत्री मन्त्र जप की साधना करनी चाहिए।
२- यज्ञोपवीत को व्रत बन्ध कहते हैं। व्रतों से बँधे बिना मनुष्य का उत्थान सम्भव नहीं। यज्ञोपवीत को व्रतशीलता का प्रतीक मानते हैं। इसीलिए इसे सूत्र (फार्मूला- सहारा) भी कहते हैं। यज्ञोपवीत के नौ धागे नौ गुणों के प्रतीक हैं। प्रत्येक धारण करने वाले को इन गुणों को अपने में बढ़ाने का निरन्तर ध्यान बना रहे, यह स्मरण जनेऊ के धागे दिलाते रहते हैं। गायत्री गीता (गायत्री महाविज्ञान भाग- २) के अनुसार गायत्री मन्त्र के नौ शब्दों में सन्निहित सूत्र इस प्रकार हैं-
१. तत्- यह परमात्मा के उस जीवन्त अनुशासन का प्रतीक है, जन्म और मृत्यु जिसके ताने- बाने हैं। इसे आस्तिकता- ईश्वर निष्ठा के सहारे जाना जाता है। उपासना इसका आधार है।
२. सवितुर्- सविता, शक्ति उत्पादक केन्द्र है। साधक में शक्ति विकास का क्रम चलना चाहिए। यह जीवन साधना से साध्य है।
३. वरेण्यम्- श्रेष्ठता का वरण, आदर्श- निष्ठा, सत्य, न्याय, ईमानदारी के रूप में यह भाव फलित होता है।
४. भर्गो- विकारनाशक तेज है, जो मन्यु साहस के रूप में उभरता और निर्मलता, निर्भयता के रूप में फलित होता है।
५. देवस्य- दिव्यतावर्द्धक है। सन्तोष, शान्ति, निस्पृहता, संवेदना, करुणा आदि के रूप में प्रकट होता है।
६. धीमहि- सद्गुण धारण का गुण, जो पात्रता विकास और समृद्धिरूप में फलित होता है।
७. धियो- दिव्य मेधा, विवेक का प्रतीक शब्द है, समझदारी, विचारशीलता, निर्णायक क्षमता आदि का संवर्द्धक है।
८. यो नः- दिव्य अनुदानों के सुनियोजन, संयम का प्रतीक है। धैर्य, ब्रह्मचर्यादि का उन्नायक है।
९. प्रचोदयात्- दिव्य प्रेरणा, आत्मीयताजन्य सेवा साधना, सत्कर्त्तव्य निष्ठा का विकासक है।
यज्ञोपवीत के धागों में नीति का सम्पूर्ण सार सन्निहित कर दिया गया है। जैसे कागज और स्याही के सहारे किसी नगण्य से पत्र या तुच्छ सी लगने वाली पुस्तक में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ज्ञान- विज्ञान भर दिया जाता है, उसी प्रकार सूत्र के इन नौ धागों में जीवन- विकास का सारा मार्गदर्शन समाविष्ट कर दिया गया है। इन धागों को कन्धे पर, कलेजे पर, हृदय पर, पीठ पर प्रतिष्ठित करने का प्रयोजन यह है कि सन्निहित शिक्षा का यज्ञोपवीत के धागे स्मरण कराते रहें, ताकि उन्हें जीवन व्यवहार में उतारा जा सके।
यज्ञोपवीत को माँ गायत्री और यज्ञ पिता की संयुक्त प्रतिमा मानते हैं। उसकी मर्यादा के कई नियम हैं, जैसे-
(१) यज्ञोपवीत को मल- मूत्र विसर्जन के पूर्व दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। इसका स्थूल भाव यह है कि यज्ञोपवीत कमर से ऊँचा हो जाए और अपवित्र न हो। अपने व्रतशीलता के सङ्कल्प का ध्यान इसी बहाने बार- बार किया जाए।
(२) यज्ञोपवीत का कोई तार टूट जाए या ६ माह से अधिक समय हो जाए, तो बदल देना चाहिए। खण्डित प्रतिमा शरीर पर नहीं रखते। धागे कच्चे और गन्दे होने लगें, तो पहले ही बदल देना उचित है।
(३) जन्म- मरण के सूतक के बाद इसे बदल देने की परम्परा है। जिनके गोद में छोटे बच्चे नहीं हैं, वे महिलाएँ भी यज्ञोपवीत सँभाल सकती हैं, किन्तु उन्हें हर मास मासिक शौच के बाद उसे बदल देना पड़ता है।
(४) यज्ञोपवीत शरीर से बाहर नहीं निकाला जाता। साफ करने के लिए उसे कण्ठ में पहने रहकर ही घुमाकर धो लेते हैं। भूल से उतर जाए, तो प्रायश्चित की एक माला जप करने या बदल लेने का नियम है।
(५) देव प्रतिमा की मर्यादा बनाये रखने के लिए उसमें चाबी के गुच्छे आदि न बाँधें। इसके लिए भिन्न व्यवस्था रखें।
बालक जब इन नियमों के पालन करने योग्य हो जाएँ, तभी उनका यज्ञोपवीत करना चाहिए।
यज्ञोपवीत भारतीय धर्म का पिता है और गायत्री भारतीय संस्कृति की माता, दोनों का जोड़ा है। यज्ञ पिता को कन्धे पर और गायत्री माता को हृदय में एक साथ धारण किया जाता है। गायत्री प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी का गुरु मन्त्र है। उसे यज्ञोपवीत के समय पर ही विधिवत् ग्रहण करना चाहिए। आज उस स्तर के गुरु दीख नहीं पड़ते, जो स्वयं पार हो चले हों और दूसरों को अपनी नाव पर बिठा कर पार लगा सकें। जिधर भी दृष्टि डाली जाती है, नकलीपन और धोखा ही भरा मिलता है। अस्तु, यह अच्छा है कि व्यक्तियों को गुरु न बनाया जाए। अन्तःकरण के प्रकाश को तथा प्रत्यक्ष में ज्ञान- यज्ञ की दिव्य ज्योति- लाल मशाल को सद्गुरु माना जाए और यज्ञोपवीत के समय शुद्ध उच्चारण की दृष्टि से किसी भी श्रेष्ठ व्यक्ति से मन्त्रारम्भ की प्रक्रिया पूरी की जाए।
विशेष व्यवस्था- यज्ञोपवीत संस्कार के लिए यज्ञादि की सामान्य व्यवस्था के साथ- साथ नीचे लिखी व्यवस्थाओं पर भी दृष्टि रखनी चाहिए-
१- पुरानी परम्परा के अनुसार यज्ञोपवीत लेने वाले बालकों का मुण्डन करा दिया जाता था, उद्देश्य था शरीर की शृंगारिकता के प्रति उदासीनता। जिन्हें यज्ञोपवीत लेना हो, उनसे एक दिन पूर्व बाल कटवा- छँटवा कर शालीनता के अनुरूप करा लेने का आग्रह किया जा सकता है।
२- जितनों का यज्ञोपवीत होना है, उसके अनुसार मेखला, कोपीन, दण्ड, यज्ञोपवीत, पीले दुपट्टों की व्यवस्था करा लेनी चाहिए।
मेखला और कोपीन संयुक्त रूप से दी जाती है। मेखला कहते हैं कमर में बाँधने योग्य नाड़े जैसे सूत्र को। कपड़े की सिली हुई सूत की डोरी, कलावे के लम्बे टुकड़े से मेखला बना लेनी चाहिए। कोपीन लगभग ४ इंच चौड़ी डेढ़ फुट लम्बी लँगोटी होती है। इसे मेखला के साथ टाँक कर भी रखा जा सकता है। दण्ड के लिए लाठी या ब्रह्म दण्ड जैसा रोल भी रखा जा सकता है। यज्ञोपवीत पीले रँगकर रखे जाने चाहिए। न रँग पाएँ, तो उनकी गाँठ को हल्दी से पीला कर देना चाहिए। संस्कार कराने वालों से पहले से ही कहकर रखा जाए कि सभी या कम से कम एक नया वस्त्र धारण करके बैठें। नया दुपट्टा भी लेना पर्याप्त है। संस्कार कराने वाले हर व्यक्ति के लिए पीले दुपट्टे की व्यवस्था करा ही लेनी चाहिए।
३- गुरु पूजन के लिए लाल मशाल का चित्र रखना चाहिए। गुरु व्यक्ति नहीं चेतना रूप है, ऐसा समझकर युग शक्ति की प्रतीक मशाल को ही गुरु का प्रतीक मानकर रखना अधिक उपयुक्त है।
४- वेद का अर्थ है- ज्ञान। वेद पूजन के लिए वेद की पुस्तक उपलब्ध न हो, तो कोई पवित्र पुस्तक पीले वस्त्र में लपेट कर पूजा वेदी पर रख देनी चाहिए।
५- गायत्री, सावित्री एवं सरस्वती पूजन के लिए पूजन वेदी पर चावल की तीन छोटी- छोटी ढेरियाँ रख देनी चाहिए।
देव पूजन, रक्षाविधान तक के उपचार पूरे करके विशेष कर्मकाण्डों को क्रमबद्ध रूप से कराया जाता है। समय और परिस्थितियों के अनुरूप प्रेरणाएँ एवं व्याख्याएँ भी की जानी चाहिए। क्रिया- निर्देश और भाव- संयोग का क्रम पूरी सावधानी के साथ बनाया जाए।
॥ मेखला- कोपीन धारण॥
शिक्षण एवं प्रेरणा- मेखला कोपीन धारण करने का प्रयोजन ब्रह्मचर्य पालन और प्रत्येक कार्य में जागरूक, निरालस्य एवं कर्त्तव्य पालन में कटिबद्ध रहने की प्रेरणा देना है। कोपीन पहनना अर्थात् लँगोट बाँधना। ब्रह्मचारी भी पहलवान की तरह लँगोट बाँधते हैं। लँगोट बाँधना ब्रह्मचर्य पालन का प्रतीक है। किशोरों को यही रीति- नीति अपनानी चाहिए, उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि शारीरिक बढ़ोत्तरी की उम्र में आवश्यक शक्ति का उपयोग शरीर एवं मन को विकसित होने में लगाना चाहिए। यदि उस अवधि में उसे नष्ट किया गया, तो शरीर और मन दोनों का ही विकास रुक जायेगा। अपव्यय के कारण जो खोखलापन इन दिनों उत्पन्न हो जायेगा, उसकी क्षतिपूर्ति फिर कभी न हो सकेगी, लड़कियों की शारीरिक अभिवृद्धि २० वर्ष की आयु तक और लड़कों की २५ वर्ष तक होती है। यह समय दोनों के लिए सतर्कतापूर्वक शक्तियों के संरक्षण का है, ताकि उनका उपयोग शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की नींव पक्की करने में हो सके। यह अवधि विद्या पढ़ने, मानसिक विकास करने एवं व्यायाम, ब्रह्मचर्य आदि के द्वारा शारीरिक परिपुष्टता प्राप्त करने की है। जो कच्ची उम्र में जीवन रस के साथ खिलवाड़ करना शुरू कर देते हैं। वे एक प्रकार से आत्म- हत्या करते हैं।
कमर में मेखला बाँधने का प्रयोजन वही है, जो पुलिस तथा फौज के सैनिक कमर में पेटी बाँधकर पूरा करते हैं। कमर बाँधकर कटिबद्ध रहना जागरूकता एवं सतर्कता का चिह्न है। आलस्य और प्रमाद छोड़कर अपने नियत कर्त्तव्य- कर्म के लिए मनुष्य को सदा उत्साह एवं प्रसन्नता के साथ तत्पर रहना चाहिए। आलस्य, प्रमाद, लापरवाही, ढील- पोल, दीर्घसूत्रता जैसे दुर्गुणों को पास भी नहीं फटकने देना चाहिए, आलसी और लापरवाह व्यक्ति हर दिशा में अपनी अपार क्षति करते हैं। आलस्य चाहे शारीरिक, आर्थिक हो, चाहे मानसिक उसे साक्षात् मूर्तिमान् दारिद्र्य या दुर्भाग्य ही कहना चाहिए। इस बुरी आदत से सर्वथा बचा जाए, इसके लिए मेखला पहनाते हुए यज्ञोपवीतधारी को यह प्रेरणा दी जाती है कि वह कार्य क्षेत्र में संसार में सदा अपने कर्त्तव्य पालन के लिए फौजी सैनिक की तरह कटिबद्ध रहें। जागरूकता और सतर्कता को, स्फूर्ति और आशा को, साहस और धैर्य को अपना सच्चा सहचर समझें।
क्रिया और भावना- मेखला और कोपीन एकत्रित रखकर आचार्य तीन बार गायत्री मन्त्र बोलते हुए उन पर जल के छींटे लगायें। भावना करें कि इनमें समय और तत्परता के संस्कार पैदा किये जा रहे हैं।
सिंचन के बाद उन्हें संस्कार कराने वालों के पास पहुँचा दिया जाए। वे उन्हें हाथों के सम्पुट में रखें। मन्त्रोच्चार के साथ भावना करें कि प्राण शक्ति का संरक्षण तथा सही योजना कराने का उत्तरदायित्व हम पर आ रहा है। उसे हम साहस और प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करते हैं। उस दिशा में मिलने वाले हर विचार, सहयोग एवं भावना को हम सम्मान के साथ स्वीकार करते रहेंगे। मेखला, कोपीन के साथ दैवी संस्कार का वरण हम कर रहे हैं। मन्त्र पूरा होने पर उसे कमर में स्वयं बाँध लें या खोंस लें। लँगोट पहनने का अभ्यास बनाने का आग्रह भी किया जाए।
ॐ इयं दुरुक्तं परिबाधमाना, वर्णं पवित्रं पुनतीमऽ आगात्।
प्राणापानाभ्यां बलमादधाना, स्वसादेवी सुभगा मेखलेयम्॥ -पार०गृ०सू० २.२.८
॥ दण्ड धारण॥
शिक्षण और प्रेरणा- आश्रमवासी ब्रह्मचारियों को दण्ड धारण कराया जाता था। उसके साथ अनेक स्थूल प्रेरणाएँ जुड़ी हैं। दैनिक उपयोग में कुत्ते, साँप, बिच्छू आदि से रक्षा, पानी की थाह लेना, आक्रमणकारियों से आत्मरक्षा, अपनी शक्ति एवं साहसिकता का प्रदर्शन आदि इसके कितने ही छिटपुट लाभ हैं। शस्त्र सज्जा में लाठी सर्वसुलभ और अधिक विश्वस्त है। उसे साथ रखने से साहस बढ़ता है। लाठी चलाना एक बहुत ही उच्च स्तर का व्यायाम है। इससे देहबल तथा मनोबल भी बढ़ता है। लाठी चलाना हर धर्म प्रेमी को आना चाहिए, ताकि दुष्ट, आतताई और अधर्मियों के हौंसले पस्त करने की सामर्थ्य दिखा सकें।
अन्याय सहना अन्याय करने के समान ही पाप है। अन्याय करने वाला मरने के बाद नरक को जाता है और अन्याय सहने वाला इसी जन्म में हानि, अपमान, असुविधा, आघात आदि के कष्ट सहता है। इसलिए हर धर्मप्रेमी को अनीति का प्रबल विरोध करने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए। इस तत्परता का एक प्रतीक उपकरण लाठी है। यज्ञोपवीत धारण करने का अर्थ है- पशुता का परित्याग एवं मानवता को अङ्गीकार करना। इस परिवर्तन की प्रक्रिया में यह तो होता ही है कि नर- पशुओं के रोष एवं असन्तोष का निमित्त बनना पड़े। जहाँ सौ झूठे रहते हों, वहाँ एक सत्यवादी को सताया एवं तिरस्कृत किया जाता है। ऐसी सम्भावनाओं को ध्यान में रखते हुए धैर्य, साहस एवं आत्मबल का एकत्रीकरण करना होता है, इस तैयारी को- इस बात को सदा स्मरण रखने के लिए दण्ड का विधान रखा गया है।
लाठी आमतौर से बाँस की होती है। बाँस की अनेक गाँठें मिलकर पूरा दण्ड बनाती हैं। इसका प्रयोजन यह है कि अनेक व्यक्तियों के मिलजुल कर रहने से, संगठित होने से ही धर्मरक्षा की शक्ति का निर्माण होता है। सङ्घ शक्ति ही इस युग में सर्वोपरि है। उसी के द्वारा धर्म रक्षा एवं अधर्म का प्रतिकार हो सकता है। धर्मात्मा व्यक्ति वैसे ही थोड़े हैं। इस पर भी वे असंगठित रहें, तो फिर उनके आदर्श अच्छे रहते हुए भी व्यवहार की दृष्टि से उन्हें बेवकूफ कहा जायेगा। बेवकूफ सदा पिटते रहते हैं। असंगठित धर्म प्रेमियों को यदि तिरस्कृत एवं असफल रहना पड़े, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। खण्डों से मिलकर बना हुआ दण्ड हाथ में धारण करते समय यज्ञोपवीतधारी- आदर्शों को अपनाने वाले को यह ध्यान रखना पड़ता है कि उसे साहसी- शूरवीर ही नहीं, संगठन की उपयोगिता एवं आवश्यकता को भी समझना और स्वीकार करना है। अपने क्षेत्र के धर्मप्रेमियों को संगठित करने की बात सदा ध्यान में रखनी चाहिए।
क्रिया और भावना- दण्ड पर गायत्री मन्त्र के साथ कलावा बाँध देना चाहिए। यह कार्य पहले से भी करके रखा जा सकता है और उसी समय भी किया जा सकता है। दण्ड मन्त्र के साथ संस्कार कराने वालों को दिया जाए। वे उसे दोनों हाथों से लेकर मस्तक से लगाएँ। भावना करें कि अध्यात्म खेत्र के प्रखर अनुशासन को ग्रहण किया जा रहा है, इसके साथ देव शक्तियों द्वारा उसके अनुरूप प्रवृत्ति और शक्ति प्रदान की जा रही है।
आचार्य निम्न मन्त्र बोलते हुए ब्रह्मचारी को दण्ड प्रदान करें-
ॐ यो मे दण्डः परापतद्, वैहायसोऽधिभूम्याम्।
तमहं पुनराददऽ आयुषे, ब्रह्मणे ब्रह्मवर्चसाय॥ - पार० गृ०सू० २.२.१२
॥ यज्ञोपवीत पूजन॥
यज्ञोपवीत देव प्रतिमा है। उसकी स्थापना के पूर्व उसकी शुद्धि तथा उसमें प्राण- प्रतिष्ठा का उपक्रम किया जाता है। जनेऊ को सबसे प्रथम पवित्र करना चाहिए। उसे शुद्ध जल से और यदि सम्भव हो, तो गंगाजल से धोया जाए, ताकि अब तक उस पर पड़े हुए स्पर्श संस्कार दूर हो जाएँ। इसके बाद उसे दोनों हाथों के बीच रखकर १० बार गायत्री मन्त्र का मानसिक जप किया जाए। इतना करने से वह पवित्र एवं अभिमन्त्रित हो जाता है। फिर हाथ में अक्षत, पुष्प लेकर यज्ञोपवीत पूजन का मन्त्र बोला जाए। मन्त्र पूरा होने पर अक्षत पुष्प उस पर चढ़ा दिये जाएँ। भावना की जाए कि सूत्र की बनी इस देव प्रतिमा को शुद्ध एवं संस्कारवान् बनाकर उसमें सन्निहित देवत्व के प्रति अपनी भावना आस्था समर्पित की जा रही है।
ॐ मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य, बृहस्पतिर्यज्ञमिमं, तनोत्वरिष्टं, यज्ञं œ समिमं दधातु। विश्वे देवास ऽ इह मादयन्तामो३म्प्रतिष्ठ। - २.१३
॥ पंच देवावाहन॥
शिक्षण और प्रेरणा- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, यज्ञ और सूर्य- इन पाँचों देवताओं को पाँच दिव्य भावनाओं का प्रतीक माना गया है। ब्रह्मा अर्थात् आत्मबल, विष्णु अर्थात् समृद्धि, महेश अर्थात् व्यवस्था, यज्ञ अर्थात् परमार्थ, सूर्य अर्थात् पराक्रम- इन पाँचों गुणों को देवता मानकर हम यज्ञोपवीत के माध्यम से अपने हृदय और कलेजे पर धारण करें अर्थात् उन्हें अपनी आस्था एवं प्रकृति का अङ्ग बनाएँ, तभी वास्तविक कल्याण का मार्ग मिलेगा। देवता भावनाओं के प्रतिबिम्ब होते हैं।
(१) ब्रह्मा- जीवन के भौतिक और आत्मिक दोनों ही पहलू सुविकसित होने चाहिए। हमें आत्मबल से सम्पन्न होने के लिए संयमी, सदाचारी, मधुरभाषी, शालीन, नेक, सज्जन, आस्तिक, सद्गुणी होना चाहिए, जिसका व्यक्तित्व जीवन पवित्र एवं सद्भावना युक्त है, उसी का आत्मबल बढ़ता है। यज्ञोपवीत में आवाहित प्रथम ब्रह्मा का धारण करने का तात्पर्य इस मान्यता को हृदयंगम करना एवं उसके लिए प्रयत्नशील रहना ही है।
क्रिया और भावना- यज्ञोपवीत खोलकर उसे हाथ के दोनों अँगूठों में फैला लें, ताकि फिर से न उलझे। अब दोनों हाथों के सम्पुट में लें। मन्त्रोच्चार के साथ भावना करें कि आवाहित देवशक्ति का प्रवाह इस सूत्र में स्थापित हो रहा है। मन्त्र पूरा होने पर हाथों को मस्तक से लगाएँ।
ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्, विसीमतः सुरुचो वेनऽआवः।
सबुध्न्याऽउपमाऽअस्य विष्ठाः,सतश्च योनिमसतश्च विवः॥
ॐ ब्रह्मणे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। - १३.३, अथर्व० ५.६.१
(२) विष्णु- विष्णु लक्ष्मी के स्वामी हैं, हमें भी दीन, दरिद्र, हेय, परावलम्बी, गई- गुजरी स्थिति में नहीं पड़ा रहना चाहिए। स्वास्थ्य, शिक्षा, कुशलता आदि गुणों को बढ़ाना चाहिए, ताकि उसकी कीमत पर सुख- साधनों को, समृद्धि को प्राप्त किया जा सके। समृद्धि उपलब्ध करने का सही मार्ग केवल एक ही है, अपनी सर्वांगीण प्रतिभा एवं योग्यता को बढ़ाना। इस दिशा में जो जितना कर लेगा, उसे उस मूल्य पर आसानी से अधिक सुख- साधन मिल जायेंगे। समृद्धि को मनुष्य अपनी तथा दूसरों की सुविधा बढ़ाने में खर्च करें, तो उससे लोक एवं परलोक की सुख- शान्ति बढ़ेगी। यज्ञोपवीत में स्थापित विष्णु का यही सन्देश है।
ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे, त्रेधा निदधे पदम्। समूढमस्य
पा œ सुरे स्वाहा॥ ॐ विष्णवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -५.१५
(३) महेश- महेश का अर्थ है- नियंत्रण, व्यवस्था, क्रमबद्धता, उचित का चुनाव। ब्रह्मा को उत्पादन का, विष्णु को पालन का और शिव को संहार का देवता माना गया है। संहार का अर्थ है- अनुपयोगिता एवं अनौचित्य का निवारण। हमारी आधी से अधिक शक्ति सामर्थ्य अव्यवस्था एवं अनौचित्य को अपनाये रहने से नष्ट होती है, इसे बचाया जाना चाहिए। यज्ञोपवीत में शिव देवता का आवाहन इन्हीं मान्यताओं को हृदयङ्गम करने के लिए किया जाता है।
ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽ, उतो त ऽ इषवे नमः। बाहुभ्यामुत ते नमः।
ॐ रुद्राय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -१६.१
(४) यज्ञ- आत्मबल बढ़ाने के लिए एक अनिवार्य माध्यम परमार्थ है, यज्ञ इसी प्रवृत्ति का परिचायक है। धार्मिक व्यक्ति वही है, जिसके जीवन में सेवा, उदारता, सहायता एवं परोपकार की वृत्ति फूट पड़ती है, जिसे सभी अपने लगते हैं, जिसे सभी से प्रेम है, वही सच्चा अध्यात्मवादी कहा जायेगा। उसे अनिवार्यतः अपनी आकांक्षाओं और गतिविधियों में परमार्थ को प्रधानता देनी ही होगी। ब्रह्म और यज्ञ इन दो देवताओं की- वैयक्तिक जीवन की पवित्रता एवं लोक सेवा की प्रवृत्ति को अपनाने से आत्मिक बल बढ़ता है और मनुष्यत्व से देवत्व की ओर प्रगति होती है।
यज्ञोपवीत खोलकर कनिष्ठिका व अँगुष्ठ में फँसाकर यज्ञ भगवान् के सामने करें।
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः, तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त, यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥
ॐ यज्ञपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। ३१.१६
(५) सूर्य- सूर्य अर्थात् तेजस्विता, पराक्रम, श्रमशीलता। सूर्य की तरह हम निरन्तर कार्य में संलग्न रहें, परिश्रम को अपना जीवन सहचर एवं गौरव का आधार मानें। आलस्य और प्रमाद को पास न फटकने दें। सदा जागरूक एवं चैतन्य रहें। पुरुषार्थी बनें। आत्महीनता एवं दीनता की भावना मन में न आने दें। तेजस्वी बनें। एक पैर से खड़े होकर पानी का लोटा सूर्य के सामने लुढ़का देने से नहीं, सूर्य की सच्ची उपासना उसकी प्रेरणाओं को अपनाने से होती है। यज्ञोपवीत को लिए हुए दोनों हाथ ऊपर उठाएँ, सूर्य भगवान् का ध्यान करें-
ॐ आकृष्णेन रजसा वर्त्तमानो, निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।
हिरण्ययेन सविता रथेना, देवो याति भुवनानि पश्यन्॥
ॐ सूर्याय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -३३.४३
॥ यज्ञोपवीत धारण॥
शिक्षण और प्रेरणा- कोई भी वस्त्र- आभूषण हो, अपनी शोभा प्रतिष्ठा तब बढ़ाता है, जब उसे धारण किया जाए। यज्ञोपवीत प्रतीक को धारण करते हुए यह ध्यान रखा जाए कि यह सूत्र नहीं, इस माध्यम से जीवन में दिव्यता- आदर्शवादिता को धारण किया जा रहा है। इसे सहज ही धारण किया जाना चाहिए, क्योंकि इसके बिना मनुष्य में मनुष्यता का विकास सम्भव नहीं।
क्रिया और भावना- पाँच यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति मिलकर यज्ञोपवीत पहनाते हैं। भाव यह है कि इस दिशा में नया प्रयास, प्रवेश करने वाले को अनुभवियों का सहयोग एवं मार्गदर्शन मिलता रहे। पहनाने वाले जब यज्ञोपवीत पकड़ लें, तो धारण करने वाला उसे छोड़ दे। बायाँ हाथ नीचे कर ले और दाहिना हाथ ऊपर ही उठाये रहे। मन्त्र के साथ यज्ञोपवीत पहना दिया जाए। मन्दिर में प्रतिमा स्थापना जैसा दिव्य भाव बनाये रखें।
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥ -पार० गृ०सू० २.२.११
॥ सूर्य दर्शन॥
शिक्षण एवं प्रेरणा- तदुपरान्त सूर्य दर्शन एवं सूर्य अर्घ्यदान की क्रिया है। संस्कारार्थी सूर्य भगवान् को देखता है और तीन अञ्जलि भर के उन्हें जल प्रदान करता है।
सूर्य के समान तेजस्वी बनना, उष्णता धारण किये रहना, गतिशील रहना, लोक कल्याण के लिए जीवन समर्पित करना, अन्धकार रूपी अज्ञान दूर करना, अपने प्रकाश से दूसरों को प्रकाशित करना जैसी अनेक प्रेरणाएँ सूर्य दर्शन करते हुए ग्रहण की जाती हैं। सूर्य आगे बढ़ता चलता है, पर साथ में अपने अन्य ग्रह, उपग्रहों को भी घसीटता ले चलता है। यज्ञोपवीतधारी को स्वयं तो प्रगति के पथ पर आगे बढ़ना ही है, पर साथ ही यह भी ध्यान रखना है कि व्यक्तिगत उन्नति से ही सन्तोष न कर लिया जाए, अपने साथी समीपवर्ती लोगों को भी आगे बढ़ाते हुए साथ चलने का प्रयत्न करना है। सूर्य उदय और अस्त में, लाभ और हानि में मनुष्य को सन्तुलित धैर्य युक्त एवं एक- सा रहना चाहिए। न तो सम्पत्ति से उन्मत्त हो और न विपत्ति में शोकसन्ताप से विक्षुब्ध हो। धूप- छाँव की तरह जीवन में प्रिय- अप्रिय परिस्थितियाँ आती- जाती रहती हैं। उन्हें हँसते- खेलते एवं क्रीड़ा विनोद की तरह देखना चाहिए और शान्त चित्त से अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर बिना एक क्षण भी उद्वेगों में गँवाये, आगे बढ़ते रहना चाहिए। सूर्य के समान लोककल्याण के आयोजनों में पूरी अभिरुचि रखने की कार्य पद्धति अपनाने की योजना बनानी चाहिए। भगवान् भास्कर अपनी किरणों द्वारा समुद्र के पानी को भाप बनाकर बादलों के रूप में परिणत करते हैं। बादलों से वर्षा होती है। उसी पर वृक्ष, वनस्पति, जीव- जन्तु, पशु- पक्षी और मनुष्य का जीवन निर्भर है।
सूर्य किरणों की गर्मी निर्जीव प्रकृति को सजीव बनाती है। संसार में जितना जीवन तत्त्व है, वह सब सूर्य से ही आया है। इसलिए सूर्य को जगत् की आत्मा भी कहा गया है। हमें भी सूर्य के दर्शन करते हुए इसी रीति- नीति को अपनाना चाहिए और श्रद्धापूर्वक तीन बार अञ्जलि जल देते हुए शरीर, मन और धन से इन आदर्शों में तत्पर रहने की सहमति- स्वीकृति प्रकट करनी होती है।
क्रिया और भावना- मन्त्रोच्चार के साथ सूर्य नारायण का ध्यान करते हुए तीन अञ्जलि या पात्र से तीन बार जल समर्पित करें तथा हाथजोड़कर नमस्कार करें, भावना करें कि जगदात्मा सूर्य जिस प्रकार सारी प्रकृति को शक्ति देते हैं, वैसे ही उनका सूक्ष्म प्रवाह हमें भी मिल रहा है, हम उससे धारण और नियोजन की सामर्थ्य पा रहे हैं।
ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं, जीवेम शरदः शत œ, शृणुयाम शरदः शतं, प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः, स्याम शरदः शतं, भूयश्च शरदः शतात्॥ -३६.२४
॥ त्रिपदा पूजन॥
शिक्षण और प्रेरणा- गायत्री के तीन चरण कहे गये हैं। यज्ञोपवीत की तीन लड़ें उनकी प्रतीक हैं। उन्हें सूत्र रूप में गायत्री, सरस्वती और सावित्री शक्तियों के रूप में जाना जाता है। इनकी प्रतिनिधि धाराएँ क्रमशः श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा हैं। ये मनुष्य के कारण, सूक्ष्म और स्थूल कलेवरों को नियन्त्रित, विकसित करने वाली हैं। इन्हीं के सहारे देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋणों से मुक्त हुआ जा सकता है। इन्हें ही भक्ति, ज्ञान और कर्म की धाराओं की गंगोत्री माना जाता है। इनका मर्म समझने तथा अनुसरण करने के भाव से त्रिपदा पूजन के अन्तर्गत इन्हीं तीन शक्तियों का पूजन किया जाता है।
क्रिया और भावना- पूजन वेदी पर स्थापित चावल की तीन ढेरियों को गायत्री, सरस्वती एवं सावित्री का प्रतीक मानकर उनके मन्त्र बोलकर अक्षत, पुष्प उन पर चढ़ाएँ। भावना की जाए कि ऊँची सतह का पानी निचली सतह पर आता है। इन शक्तियों के आगे उनका पूजन करके झुककर उनके प्रवाह को हम प्राप्त कर रहे हैं। गायत्री पूजन के साथ श्रद्धा, सरस्वती के साथ प्रज्ञा और सावित्री के साथ निष्ठा सम्पदाओं के सम्वर्धन की भावना की जाए।
॥ गायत्री पूजन॥
ॐ ता सवितुर्वरेण्यस्य, चित्रामाऽहं वृणे सुमतिं विश्वजन्याम्।
यामस्य कण्वो अदुहत्प्रपीना, सहस्रधारां पयसा महीं गाम्।
ॐ भूर्भुवः स्वः गायत्र्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ - १७.७४
॥ सरस्वती पूजन॥
ॐ पावका न सरस्वती, वाजेभिर्वाजिनीवती। यज्ञं वष्टु धियावसुः॥
ॐ भूर्भुवः स्वः सरस्वत्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ - २०.८४
॥ सावित्री पूजन॥
ॐ सवित्रा प्रसवित्रा सरस्वत्या, वाचा त्वष्ट्रा रूपैः पूष्णा पशुभिरिन्द्रेणास्मे, बृहस्पतिना ब्रह्मणा वरुणेनौजसाऽग्निना, तेजसा सोमेन राज्ञा विष्णुना, दशम्या देवतया प्रसूतः प्रसर्पामि॥
ॐ भूर्भुवः स्वः सावित्र्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -१०.३०
॥ दीक्षा प्रकरण॥
यज्ञोपवीत संस्कार के साथ दीक्षा अनिवार्य रूप से जुड़ी है। बहुत बार प्रतिनिधि के रूप में आस्थावान् व्यक्तियों को भी दीक्षा देनी पड़ती है। दोनों ही प्रकरणों में दीक्षा के उद्देश्य, महत्त्व और मर्यादाओं पर उनका ध्यान दिला देना चाहिए।
महत्त्व और मर्यादाएँ- दीक्षा पाने के लिए व्यक्ति बहुधा सहज श्रद्धावश पहुँच जाते हैं। दीक्षा के पूर्व उन्हें इस कृत्य का महत्त्व और उसकी मर्यादाएँ समझा देनी चाहिए। उसके मुख्य सूत्र ये हैं-
(१) गुरु दीक्षा सामान्य कर्मकाण्ड नहीं, एक सूक्ष्म आध्यात्मिक प्रयोग है। उसके अन्तर्गत शिष्य अपनी श्रद्धा और सङ्कल्प के सहारे गुरु के समर्थ व्यक्तित्व के साथ जुड़ता है। कर्मकाण्ड उस सूक्ष्म प्रक्रिया का एक अङ्ग है।
(२) दीक्षा में समर्थ गुरु के विकसित प्राण का एक अंश शिष्य के अन्दर स्थापित किया जाता है। यह कार्य समर्थ गुरु ही कर सकता है। उन्हीं का प्राणानुदान दीक्षा लेने वालों को मिलता है, कर्मकाण्ड कराने वाला स्वयंसेवक मात्र होता है।
(३) व्यक्ति अपने पुुरुषार्थ से आगे बढ़ता है, यह उसी प्रकार ठीक है, जैसे पौधा अपनी ही जड़ों से जीवित रहता है और बढ़ता है, किन्तु यह भी सत्य है कि वृक्ष की कलम सामान्य पौधे में बाँध देने पर उसके उत्पादन में भारी परिवर्तन हो जाता है। दीक्षा में साधक रूपी सामान्य पौधे पर गुरु रूपी श्रेष्ठ वृक्ष की टहनी प्राणानुदान के रूप में स्थापित की जाती है। साधक इसका अनुपम लाभ उठा सकता है।
(४) कलम बाँधना एक कार्य है। यह कार्य गुरु द्वारा किया जाता है। उसे रक्षित और विकसित करना दूसरा कार्य है, जिसके लिए शिष्य को पुरुषार्थ करना पड़ता है। दीक्षा लेने वालों को अपने इस दायित्व के प्रति जागरूक रहना चाहिए। इसके लिए गुरु के विचारों के सतत सान्निध्य में रहना आवश्यक है, मिशन की पत्रिकाओं से उनका मार्गदर्शन पाते रहना तथा तद्नुरूप जीवन क्रम बनाने का प्रयास करना चाहिए।
(५) दीक्षा के बाद गुरु- शिष्य परम्परा पूरक बन जाते हैं। गुरु की शक्ति शिष्य के उत्कर्ष के लिए लगती रहती है, पर यह तभी सम्भव है, जब शिष्य की शक्ति गुरु के कार्यों- लोकमंगल के लिए नियमित रूप से लगती रहे। इसे देवत्व की साझेदारी कहा जा सकता है। शिष्य को अपने समय, पुरुषार्थ, प्रभाव, ज्ञान एवं धन का एक अंश नियमित रूप से गुरु के कार्य के लिए लगाना होता है। यह क्रम चलता रहे, तो लगाई हुई कलम का फलित होना अवश्यम्भावी है।
क्रम व्यवस्था- यदि यज्ञोपवीत के साथ दीक्षा क्रम चलाना है, तो त्रिपदा पूजन के बाद गुरु पूजन- नमस्कार कराके दीक्षा दे दी जाए। यदि अलग से दीक्षा क्रम चलता है, तो नीचे लिखे क्रम से उपचार कराते हुए आगे बढ़ें।
(१) पहले षट्कर्म- पवित्रीकरण, आचमन, शिखावन्दन, प्राणायाम, न्यास एवं भूमिपूजन कराएँ। इसके साथ संक्षिप्त भावभरी सारगर्भित व्याख्याएँ की जाएँ।
(२) षट्कर्म के बाद देवपूजन एवं सर्वदेव नमस्कार कराएँ।
(३) नमस्कार के बाद हाथ में पुष्प, अक्षत, जल लेकर स्वस्तिवाचन कराया जाए। स्वस्तिवाचन के अक्षत, पुष्प एकत्रित करने के साथ ही नियुक्त स्वयंसेवकों द्वारा ही कलावा बाँधने एवं तिलक करने का क्रम चलाया जाए। उसके मन्त्र एवं व्याख्याएँ संचालक बोलते रहें।
यदि दीक्षा क्रम यज्ञ के साथ चल रहा है, तो उपर्युक्त में से जो उपचार पहले कराये जा चुके हैं, उन्हें पुनः कराना आवश्यक नहीं। उस स्थिति में गुरु पूजन करके ही दीक्षा दी जाए।
॥ गुरु पूजन॥
जिस प्रकार भगवान् मूर्ति नहीं एक चेतना है, उसी प्रकार गुरु को व्यक्ति नहीं चेतना रूप मानना चाहिए। जो ईश्वर को मूर्तियों, चित्रों तक सीमित मानता है, वह ईश्वरीय सत्ता का समुचित लाभ नहीं उठा सकता। इसी प्रकार जो गुरु को शरीर तक सीमित मानता है, वह गुरु सत्ता का लाभ नहीं उठा सकता। जिस प्रकार ईश्वर सर्वसमर्थ है, पर भक्त की मान्यता और भावना के अनुरूप ही प्रत्यक्ष फल देता है, वैसे ही गुरु भी शिष्य की आस्था के अनुरूप फलित होता है। यह ध्यान में रखकर गुरु वन्दना के साथ अन्तःकरण में गुरु चेतना के प्रकटीकरण होने की प्रार्थना की जानी चाहिए।
क्रिया और भावना- गुरु के प्रतीक चित्र पर मन्त्र के साथ अक्षत- पुष्प चढ़ाकर उनका पूजन करें। फिर हाथ जोड़कर भावभरी वन्दना करें। भावना करें कि उनकी कृपा से उन्हें चेतना के रूप में समझने, अपनाने की क्षमता का विकास हो रहा है।
ॐ बृहस्पते ऽअति यदर्यो, अर्हाद् द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु। यद्दीदयच्छवसऽ ऋतप्रजात, तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्। उपयामगृहीतोऽसि बृहस्पतये, त्वैष ते योनिर्बृहस्पतये त्वा।
ॐ श्री गुरवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
ततो नमस्कारं करोमि। -२६.३, तै०सं० १.८.२२.२, ऋ० २.२३.१५
ॐ वन्दे बोधमयं नित्यं, गुरुं शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि, चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥
अज्ञानतिमिरान्धस्य, ज्ञानांजनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः॥
नमोऽस्तु गुरवे तस्मै, गायत्रीरूपिणे सदा।
यस्य वागमृतं हन्ति, विषं संसारसंज्ञकम्॥
मातृवत् लालयित्री च, पितृवत् मार्गदर्शिका।
नमोऽस्तु गुरुसत्तायै, श्रद्धाप्रज्ञायुता च या॥
॥ मन्त्र दीक्षा॥
शिक्षण और प्रेरणा- गायत्री मन्त्र सहज रूप से एक छन्द है, प्रार्थना है। गुरु जब उसके साथ अपने तप, पुण्य और प्राण को जोड़ देता है, तो वह मन्त्र बन जाता है। यह सब देने की सामर्थ्य जिसमें न हो, वह दीक्षा देने का प्रयास करे, तो निरर्थक रूप से पातक का भागी बनता है। स्वयंसेवक भाव से गुरु की ही चेतना का प्रवाह दीक्षित व्यक्ति से जोड़ने में अपनी सद्भावना का प्रयोग करना उचित है।
क्रिया और भावना- अब साधकों को सावधान होकर बैठने को कहें। कमर सीधी, हाथ की अँगुलियाँ परस्पर फँसाकर हाथ के अँगूठों को सीधा रखते हुए परस्पर मिलाएँ। अँगूठे के नाखूनों पर साधक अपनी दृष्टि टिकाएँ। यह स्थिति मन्त्र दीक्षा चलने तक बनी रहे। कहीं इधर- उधर न देखें। मन्त्र दीक्षा के बाद जब सिंचन हो जाए, तब दृष्टि हटाएँ और हाथ खोलें। उपर्युक्त मुद्रा बनाने के बाद दीक्षा कर्मकाण्ड कराने वाला स्वयंसेवक गुरु का ध्यान करते हुए गायत्री मन्त्र का एक- एक शब्द अलग- अलग करके बोले। दीक्षा वाले उसे दुहराते चलें। इस क्रम से पाँच बार गायत्री मन्त्र दुहराया जाए।
भावना की जाए ‘गुरु की दिव्य सामर्थ्य, उनके तप, पुण्य, और प्राण का अंश मन्त्राक्षरों के साथ साधक के अन्दर प्रविष्ट- स्थापित हो रहा है। उपयुक्त मनोभूमि में वह फलित होकर ही रहेगा।’
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥ -३६.३
॥ सिंचन- अभिषेक॥
शिक्षण एवं प्रेरणा- वृक्ष, बीज या कलम आरोपित करने के बाद उसमें पानी दिया जाता है। पानी उसके अनुरूप होना चाहिए अन्यथा तेल, साबुन, तेजाबयुक्त पानी पौधे को नष्ट करेगा। गुरु के अनुदानों को दिव्य रस- श्रेष्ठ कर्मों तथा उनके द्वारा निर्दिष्ट अनुशासनों के पालन में उल्लास की अनुभूति से सींचा जाता है। पेड़ लगे, फले- फूले यह भाव सींचने का है। अभिषेक राजाओं, योद्धाओं, सत्पुरुषों का किया जाता है। दीक्षा लेकर नया श्रेष्ठ जीवन प्रारम्भ किये जाने का अभिनन्दन करते हुए अभिषेक किया जाता है।
क्रिया और भावना- कुछ स्वयंसेवक कलश लें। आम के पत्ते, कुश या पुष्प द्वारा मन्त्र के साथ जल के छींटे दीक्षितों पर लगाएँ। भावना की जाए कि सिंचन के साथ दैवी शक्तियों, स्नेहियों के सद्भावों की वर्षा हो रही है, साधकों की साधना फलीभूत होने की स्थिति बन रही है।
ॐ आपो हि ष्ठा मयोभुवः, तानऽऊर्जे दधातन। महे रणाय
चक्षसे। ॐ यो वः शिवतमो रसः, तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः।
ॐ तस्मा ऽअरं गमाम वो, यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः। - ३६.१४, ११.५०- ५२
यदि केवल दीक्षा क्रम अलग से चल रहा है, तो सिंचन के बाद गुरु दक्षिणा सङ्कल्प कराएँ। यज्ञोपवीत के साथ दीक्षा है, तो यज्ञोपवीत के शेष कर्म पूरे कराकर सङ्कल्प कराएँ।
॥ भिक्षाचरण॥
शिक्षण एवं प्रेरणा- गुरु दक्षिणा द्वारा साधक अपने विकास की सुनिश्चित मर्यादा घोषित करता है। सदुद्देश्य के लिए अपना अंशदान देता है, परन्तु बात यहीं समाप्त नहीं होती। सत्कार्यों में अपने योगदान के लिए औरों के योगदान भी जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए। इसके लिए देने की स्थिति और इच्छा जिनमें है, उनसे लेकर उसे सत्कार्यों में लगाना परम पुनीत कार्य माना जाता है। भिक्षा की परम्परा इसी दृष्टि से श्रेष्ठ मानी जाती थी। शिष्य इस परिपाटी के पालन का साहस करे। अपने अहं को गलाकर जन सहयोग एकत्रित करके गुरुकार्य में लगाए। इसी भाव से यज्ञोपवीत के साथ भिक्षाचरण का क्रम भी जुड़ा रहता है।
क्रिया और भावना- शिष्य दुपट्टे की झोली बनाकर भिक्षा माँगे। पहले माँ के पास जाए, कहे ‘भवति भिक्षां देहि’ फिर पिता के पास जाकर कहे ‘भवान् भिक्षां देहि’। फिर इसी प्रकार कहता हुआ अपने कुटुम्बियों महिलाओं- पुरुषों से याचना करें, जो मिले उसे गुरु के सम्मुख अर्पित कर दे। भिक्षा देने वालों के हाथों में अक्षत दे दिये जाएँ। अपनी इच्छा से वे कुछ द्रव्य डालना चाहें, तो डाल सकते हैं।
‘भवति भिक्षां देहि’ (महिलाओं से )) और ‘भवान् भिक्षां देहि’ (पुरुषों से) कहते हुए भिक्षा पूरी करके उपलब्ध सामान गुरु के सम्मुख चढ़ा दिया जाता है।
॥ वेद पूजन- अध्ययन॥
वेदों का सार गायत्री है। गायत्री को ही वेदमाता, वेदबीज या वेदमूल कहते हैं। वेदमाता गायत्री के निर्देशों के अनुरूप, जीवन निर्माण की अपनी आस्था के प्रतीक रूप में वेद भगवान् का पूजन किया जाता है।
क्रिया और भावना- हाथ में पुष्प- अक्षत लेकर वेदों का प्रतीक पूजन किया जाए। फिर नीचे दिये प्रत्येक वेद के एक- एक मन्त्र बुलवाये जाएँ। आचार्य कहें, दीक्षित व्यक्ति दुहराएँ।
ॐ वेदोऽसि येन त्वं देव वेद, देवेभ्यो वेदोऽभवस्तेन मह्यं वेदो भूयाः।
देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित। मनसस्पत ऽइमं देव, यज्ञ स्वाहा वाते धाः।
ॐ वेदपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। - २.२१
॥ वेदाध्ययन॥
ॐ अग्निमीळे पुरोहितं, यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्॥ - ऋ० १.१.१
ॐ इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः, सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽ,
आप्यायध्व मघ्न्याऽइन्द्राय भागं, प्रजावतीरनमीवाऽ अयक्ष्मा, मा व स्तेनऽईशत माघश ,
सो ध्रुवा ऽअस्मिन् गोपतौ स्यात, बह्वीर्यजमानस्य पशून्पाहि॥ - १.१
ॐ अग्न आ याहि वीतये, गृणानो हव्य दातये। निहोता सत्सि बर्हिषि॥ -साम०१.१.१
ॐ ये त्रिषप्ताः परियन्ति, विश्वारूपाणि बिभ्रतः।
वाचस्पतिर्बला तेषां, तन्वोऽ अद्य दधातु मे॥ -अथर्व० १.१.१
॥ विशेष- आहुतिः॥
इसके बाद अग्नि स्थापन से लेकर गायत्री मन्त्र की आहुतियों तक के उपचार पूरे करें। स्विष्टकृत् आहुति के पूर्व विशेष आहुतियाँ प्रदान करें।
शिक्षण एवं प्रेरणा- यज्ञोपवीत व्रतबन्ध है। व्रतशील तेजस्वी जीवन जीने का आरम्भ यहाँ से किया जाता है। इस व्रतशीलता के लिए पाँच व्रतपति देवताओं के नाम की आहुतियाँ डालते हैं। ये देवशक्तियाँ हैं- अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र और इन्द्र। अग्नि से ऊष्मा, प्रकाश, ऊँचे उठना, सबको अपने जैसा बनाना तथा प्राप्त को वितरित करके अपने लिए कुछ शेष न रखना आदि प्रेरणाएँ प्राप्त होती हैं।
वायु से सतत गतिशीलता, जीवों की प्राण रक्षा के लिए स्वयं उन तक पहुँचना, सहज उपलब्ध रहना, बादल, सुगन्धि जैसी सत्प्रवृत्तियों के प्रसार- वितरण का माध्यम बनने की प्रेरणाएँ उभरती हैं।
सूर्य से प्रकाश, नियमितता, सतत चलते रहना, बिना भेदभाव सब तक अपनी किरणें पहुँचाने जैसा श्रेष्ठ शिक्षण प्राप्त होता है।
चन्द्र स्वप्रकाशित नहीं, फिर भी प्रकाश देता है। स्वयं सूर्य ताप सहकर शीतल प्रकाश फैलाता है- ऐसी सत्प्रवृत्तियों के प्रतीक चन्द्रदेव से प्रेरणाएँ प्राप्त करते हैं।
इन्द्र देवत्व के सङ्गठक हैं। बिखराव से ही देवत्व का पराभव होता है, देववृत्तियों के एकीकरण तथा हजार नेत्रों से सतत जागरूकता की प्रेरणा इन्द्रदेव से प्राप्त होती है।
क्रिया और भावना- मन्त्र के साथ आहुतियाँ दें। प्रत्येक आहुति के साथ भावना करें कि इस देवशक्ति के पोषण के लिए यह हमारा योगदान है। वह हमें संरक्षण और मार्गदर्शन देंगे। यह वृत्तियाँ उनके आशीर्वाद से हमें मिल रही हैं, जिससे हमारा कल्याण होता है।
ॐ अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनर्ध्यासमिदमहम्,
अनृतात्सत्यमुपैमि स्वाहा। इदं अग्नये इदं न मम।
ॐ वायो व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनर्ध्यासमिदमहम्,
अनृतात्सत्यमुपैमि स्वाहा। इदं वायवे इदं न मम।
ॐ सूर्य व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनर्ध्यासमिदमहम्,
अनृतात्सत्यमुपैमि स्वाहा। इदं सूर्याय इदं न मम।
ॐ चन्द्र व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि स्वाहा।
इदं चन्द्राय इदं न मम।
ॐ व्रतानां व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्।
तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि स्वाहा। इदं इन्द्राय व्रतपतये इदं न मम। -म०ब्रा० १.६.९- १३
॥ वैश्वानर - नमस्कार॥
हाथ जोड़कर अग्निदेव को नमस्कार करें। भावना करें कि यज्ञाग्नि जिसके सान्निध्य से देवत्व मिलता है, उसके प्रति हम श्रद्धा प्रकट कर रहे हैं।
ॐ वैश्वानरो नऽऊतयऽ, आ प्र यातु परावतः। अग्निर्नः सुष्टुतीरुप। ॐ वैश्वानराय नमः।
आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। - १८.७२
इसके बाद पूर्णाहुति आदि कृत्य कराये जाएँ। विसर्जन के पूर्व गुरु दक्षिणा सङ्कल्प करायें।
॥ गुरु दक्षिणा संकल्प॥
शिक्षण एवं प्रेरणा- दीक्षा के साथ व्रतशीलता की शर्त जुड़ी है। व्रत कहते हैं सुनिश्चित लक्ष्य के लिए सुनिश्चित साधना- क्रम बनाना। जो व्रतशील नहीं, वह जीवन के ढर्रे को बदल नहीं सकता। उसे बदले बिना दीक्षा फलित नहीं होती। यह ढर्रा बदलने के लिए गुरु दक्षिणा दी जाती है। अपने समय, प्रभाव, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश गुरु के निर्देशानुसार खर्च करने का सङ्कल्प ही गुरु दक्षिणा में किया जाता है। इसके लिए न्यूनतम एक रुपया तथा दो घण्टे का समय प्रतिदिन निकालना चाहिए। इससे अधिक करने की जिनकी स्थिति हो, वे महीने में एक दिन का वेतन दे सकते हैं। दीक्षा लेने वालों के सङ्कल्प पत्र पहले से भरवा लेने चाहिए। सङ्कल्प के साथ सङ्कल्प पत्र में ऊपरी बातों का स्मरण किया जाता है।
गुरु, दीक्षा के साथ अपनी शक्ति देता है, शिष्य दक्षिणा देकर अपनी पात्रता, प्रामाणिकता सिद्ध करता है। दीक्षा आहार प्रदान करने जैसा है। दक्षिणा उसे पचाने की क्रिया है। दीक्षा कलम लगाने जैसी प्रक्रिया है, दक्षिणा जड़ों का रस उस कलम तक पहुँचाकर उसे विकसित फलित करने का उपक्रम है।
क्रिया और भावना- साधकों के हाथ में अक्षत, पुष्प देकर दक्षिणा सङ्कल्प बोला जाए। भावना की जाए कि इस दिव्य आदान- प्रदान द्वारा गुरु- शिष्य का व्यक्तित्व मिलकर एक नया व्यक्तित्व बन रहा है।
सङ्कल्प- गोत्र और नाम तक यथावत क्रम से बोला जाए। आगे जोड़ा जाए-
.........श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त- फलप्राप्त्यर्थं मम कायिक- वाचिक मानसिक ज्ञाताज्ञात - सकलदोषनिवारणार्थं, आत्मकल्याणलोककल्याणार्थं- गायत्री महाविद्यायां श्रद्धापूर्वकं दीक्षितो भवामि। तन्निमित्तकं युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ परम पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्येण, वन्दनीया माता भगवती देवी शर्मणा च निर्धारितानि अनुशासनानि स्वीकृत्य, तयोः प्राणतपः पुण्यांशं स्वान्तःकरणे दधामि, तत्साधयितुं च समयप्रतिभा- साधनानां एकांशं .........नवनिर्माणकार्येषु प्रयोक्तुं गुुरुदक्षिणायाः संकल्पम् अहं करिष्ये।
सङ्कल्प बोले जाने के बाद इतने व्रतों की घोषणा सहित संकल्प- पत्र दक्षिणा, फल आदि गुरुदेव के प्रतीक के आगे चढ़वाये जाएँ। आचार्य की भूमिका निभा रहे स्वयंसेवक या कोई वरिष्ठ साधक कार्यकर्त्ता उन्हें तिलक करे। दीक्षित व्यक्ति सबको नमस्कार प्रणाम करे, सभी लोग उन पर शुभकामना, आशीर्वाद के अक्षत- पुष्प छोड़ें। जय घोष आदि के साथ संस्कार क्रम समाप्त किया जाए।