Books - कर्मकाण्ड भास्कर
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
॥ भूमि पूजन प्रकरण॥ - || गृह प्रवेश- वास्तु शान्ति प्रयोग ||
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
॥ भूमि पूजन प्रकरण॥
सूत्र सङ्केत- भूमि में बीज ही नहीं, संस्कार भी उपजते हैं। मरघटों के वीभत्स- चीत्कार भरे डरावने और आश्रमों के शान्त, सुरभित, मनोरम वातावरण को हर कोई स्पष्ट अनुभव कर सकता है। इस अन्तर का कारण इन स्थानों में प्रसन्नता का प्रस्फुटन है, यह तथ्य का प्रतीक है कि भूमि में अच्छे- बुरे संस्कार ग्रहण करने, आत्मसात् करने की विलक्षण शक्ति होती है। इसी कारण भारतीय संस्कृति में प्रत्येक कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व भूमि पूजन आवश्यक माना गया है। गायत्री शक्तिपीठें प्रज्ञा आलोक की प्रेरणा केन्द्र बनने जा रही हैं। अतः इन देवालयों में प्रारम्भ से ही वह संस्कार पैदा किये जाने चाहिए। इसके लिए भूमि पूजन समारोह अनिवार्य बना दिये गये हैं। पौरोहित्य की परम्परा की दृष्टि से भी भूमि पूजन कृत्य अपने उत्तरदायी सभी परिजनों को अवश्य जानना चाहिए। भवन बनाने के पूर्व, नये स्थान पर बड़े यज्ञादि करने के पूर्व तथा गृह प्रवेश क्रम में भी इस प्रक्रिया का उपयोग किया जा सकता है।
क्रम व्यवस्था- भूमि पूजन जहाँ करना हो, उस स्थान पर सामर्थ्य के अनुसार सुरुचि एवं स्वच्छता का वातावरण बनाना चाहिए। कर्मकाण्ड के लिए ऐसा स्थान चुनना चाहिए, जहाँ पर होने वाले पूजन उपचार को उपस्थित समुदाय भली प्रकार देख- सुन सके। भूमि पूजन का विशेष कर्मकाण्ड भर यहाँ दिया जा रहा है। उसके आगे- पीछे सामान्य कर्मकाण्डों की विवेकपूर्ण शृङ्खला जोड़ लेनी चाहिए। यदि समय हो और व्यवस्था ठीक प्रकार बनाई- सँभाली जा सके, तो यह कार्य यज्ञ सहित सम्पन्न किया जा सकता है। पहले षट्कर्म से लेकर रक्षाविधान तक का कृत्य पूरा कर लिया जाए। उसके बाद भूमि पूजन का विशेष क्रम चलाया जाए। उसके पूर्ण होने पर अग्नि स्थापना से लेकर अन्त तक के शेष कर्मकाण्ड पूरे किये जाएँ।
यदि समय और व्यवस्था की दृष्टि से यह अधिक कठिन लगे, तो षट्कर्म के बाद सङ्कल्प, सर्वदेव नमस्कार, स्वस्तिवाचन कराकर भूमि पूजन कर्म कराया जाए। उसके बाद गायत्री मन्त्र बोलते हुए पाँच घी के दीपक जलाए जाएँ। अन्त में क्षमा प्रार्थना, नमस्कार, शुभकामना, अभिसिञ्चन, विसर्जन एवं जयघोष कराकर कार्यक्रम समाप्त किया जा सकता है। क्रम इस प्रकार है-
१. षट्कर्म- उपयुक्त प्रतिनिधियों को पूजा स्थान पर बिठाकर पहले षट्कर्म अर्थात् १.पवित्रीकरण, २. आचमन, ३.शिखावन्दन, ४.प्राणायाम, ५.न्यास, ६.पृथ्वी पूजन कराये जाएँ। यदि बिठाकर षट्कर्म कराने की स्थिति न हो, तो खड़े- खड़े ही केवल पवित्रीकरण मन्त्र से सामूहिक सिंचन कराकर आगे बढ़ा जा सकता है।
२. सङ्कल्प- प्रतिनिधियों के हाथ में अक्षत, पुष्प, जल आदि देकर भूमि पूजन का सङ्कल्प बोला जाए। मन्त्र बोलने के बाद पुष्प- अक्षत उसीभूमि पर चढ़ा दिये जाएँ, जिसका पूजन किया जा रहा हो।
.......नामाहं पृथिवीमातुः ऋणं अपाकर्त्तुं तां प्रतिस्वकर्त्तव्यं स्मर्त्तुं अस्याः निकृष्टसंस्कार- निस्सारणार्थं श्रेष्ठसंस्कार- स्थापनार्थञ्च देवपूजनपूर्वकं सपरिजनाः श्रद्धापूर्वकं भूमिपूजनं वयं करिष्यामहे।
३. सामान्य पूजा उपचार- सङ्कल्प के बाद व्यवस्थानुसार देवपूजन, स्वस्तिवाचन आदि कार्य कराए जाएँ।
४. भूमि अभिसिञ्चन- शुभ कार्य के लिए जिस भूमि का प्रयोग किया जाना है, उसमें पवित्रता के संचार के लिए यह प्रक्रिया है। एक प्रतिनिधि पात्र में पवित्र जल लेकर कुशाओं, आम्र- पल्लवों या पुष्पों से भूमि के चारों ओर छींटे लगाएँ। नीचे लिखे पाँचों मन्त्रों के साथ देवशक्तियों से उस क्षेत्र सहित सभी परिजनों के लिए पवित्रता की याचना की जाए।
ॐ पुनन्तु मा देवजनाः, पुनन्तु मनसा धियः।
पुनन्तु विश्वा भूतानि, जातवेदः पुनीहि मा॥ - १९.३९
ॐ पुनाति ते परिस्रुत , सोम सूर्यस्य दुहिता।
वारेण शश्वता तना॥ - १९.४
ॐ पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः, प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण, पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः। तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य, यत्कामः पुने तच्छकेयम्॥ - १.१२, ४.४
ॐ पवित्रेण पुनीहि मा, शुक्रेण देव दीद्यत्। अग्ने कृत्वा क्रतूँ१रनु॥ - १९.४०
ॐ पवमानः सो अद्य नः, पवित्रेण विचर्षणिः।
यः पोता स पुनातु मा॥ - १९.४२
५. प्राण- प्रतिष्ठा एवं पूजन- प्राणवान्- तेजस्वितायुक्त व्यक्तित्व ही अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील हो सकता है और उसे हस्तगत कर सकता है। स्थान विशेष को भी प्राण- सम्पन्न बनाने के उद्देश्य से भूमि- प्राण एवं पूजन का क्रम बनाया गया है। दाहिने हाथ में अक्षत- पुष्प लेकर पृथ्वी पर प्राण तत्त्व संचारणार्थ निम्न मन्त्र बोलकर छोड़े जाएँ।
ॐ मही द्यौः पृथिवी च न ऽ, इमं यज्ञं मिमिक्षताम्। पिपृतां नो भरीमभिः॥ - ८.३२
तत्पश्चात् गन्धाक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्यादि से पृथ्वी पूजन करें।
ॐ गन्धाक्षतं, पुष्पाणि, धूपं, दीपं, नैवेद्यं समर्पयामि।
ॐ श्री पृथिव्यै नमः।
पूजन के पश्चात् दोनों हाथ जोड़कर नीचे लिखे मन्त्र बोलकर धरती माता को नमस्कार करें-
ॐ शेषमूर्ध्निस्थितां रम्यां, नानासुखविधायिनीम्।
विश्वधात्रीं महाभागां, विश्वस्य जननीं पराम्॥
यज्ञभागं प्रतीक्षस्व, सुखार्थं प्रणमाम्यहम्।
तवोपरि करिष्यामि, मण्डपं सुमनोहरम्।
क्षन्तव्यं च त्वया देवि, सानुकूला मखे भव।
निर्विघ्न मम कर्मेदं, यथा स्यात्त्वं तथा कुरु॥ - गा०पु० प०
६. मांगलिक द्रव्य स्थापना- पूजन के उपरान्त भूमि में मांगलिक द्रव्य स्थापित किये जाते हैं। यह धरती माँ के प्रति अपनी सद्भावना की अभिव्यक्ति भी है और होने वाले कार्य का शुभारम्भ भी। हम धरती माँ के आँचल में मांगलिक पदार्थ रखकर अपनी सद्भावना का परिचय देते हैं। इस कर्म के दो भाग हैं-
१. खनित्र (खोदने वाले उपकरणों) का पूजन एवं उत्खनन। २.द्रव्य स्थापना।
सत्कार्य के लिए जो माध्यम बनते हैं, वे सम्मानीय हैं, उन्हें भी सुसंस्कारित करना चाहिए। इन भावों के साथ खनित्र पूजन करें। प्रतिनिधि दाहिने हाथ में रोली, अक्षत, पुष्प एवं जल लें, मन्त्र बोलते हुए उन्हें खनित्र पर चढ़ाएँ, साथ ही निर्धारित स्थान पर उससे छोटा सा गड्ढा खोद लें।
ॐ शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता, नमस्ते अस्तु मा मा हि सीः। निवर्त्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय, प्रजननाय रायस्पोषाय, सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय॥ -३.६३
इसके बाद पाँच द्रव्य हल्दी, दूर्वा, सुपारी, कलावा एवं अक्षत लिये जाते हैं। हल्दी शुभ, सौभाग्य एवं आरोग्यदात्री मानी जाती है। दूर्वा (दूब) विकास एवं अजरता की प्रतीक है। सुपारी स्थिर सुपरिणाम वाले फल का प्रतीक है। कलावा व्रत- संयम के बन्धन का प्रतीक एवं अक्षत श्री, समृद्धि और पूर्णता का प्रतीक माना जाता है। भूमि में इन सभी विशेषताओं की स्थापना के भाव सहित मन्त्र के साथ द्रव्यों को भूमि में स्थापित करें।
ॐ हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे, भूतस्य जातः पतिरेकऽआसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां, कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ -२३.१
अन्त में आवश्यक उद्बोधन, पूर्णाहुति, आरती आदि सम्पन्न करें।
॥ गृह प्रवेश- वास्तु शान्ति प्रयोग॥
नये- पुराने निर्मित मकान, दुकान आदि में निवास प्रारम्भ करने के पूर्व या रहने के समय गृह प्रवेश या वास्तु शान्ति का प्रयोग सम्पन्न करना प्रायः अनिवार्य- सा माना जाता है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए इस कर्मकाण्ड की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की जा रही है-
सर्वप्रथम षट्कर्म, तिलक, रक्षासूत्र, कलशपूजन, दीपपूजन, देवावाहन पूजन, सर्वदेव नमस्कार, स्वस्तिवाचन, रक्षाविधान तक की प्रक्रिया पूरी करके पूजावेदी पर वास्तुपुरुष का आवाहन- पूजन सम्पन्न करें।
॥ वास्तुपुरुषपूजन॥
प्रत्येक वस्तु, पदार्थ में एक देवशक्ति सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहती है, जिसे उस वस्तु पदार्थ का अधिष्ठाता देवता कहा जाता है। इस प्रकार मकान, दुकान आदि के अधिष्ठाता देवता की अनुकूलता प्राप्त करने एवं उस स्थान की प्रतिकूलता दूर करने के लिए वास्तुपुरुष (अधिष्ठाता देवता) का अक्षत पुष्प से आवाहन स्थापन करें-
ॐ वास्तोष्पते प्रतिजानीहि अस्मान्, स्वावेशो अनमीवो भवा नः।
यत्त्वेमहे प्रतितन्नो जुषस्व, शन्नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥ -ऋ० ७.५४.१
ॐ भूर्भुवः स्वः वास्तुपुुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। गन्धाक्षतं, पुष्पाणि, धूपं, दीपं, नैवेद्यं समर्पयामि। ततो नमस्कारं करोमि-
ॐ विशन्तु भूतले नागाः, लोकपालाश्च सर्वतः।
मण्डलेऽ त्रावतिष्ठन्तु, ह्यायुर्बलकराः सदा॥
वास्तुपुरुष देवेश ! सर्वविघ्न- विदारण।
शान्तिं कुरु सुखं देहि, यज्ञेऽस्मिन्मम सर्वदा॥
तत्पश्चात् अग्निस्थापन, प्रदीपन आदि करते हुए २४ बार गायत्री मन्त्र की विशेष आहुति समर्पित करें। इसके बाद खीर, मिष्टान्न या केवल घृत से ५ बार विशेष आहुति समर्पित करें।
|| विशेषाहुतिः ||
१. ॐ वास्तोष्पते प्रतिजानीहि अस्मान्, स्वावेशो अनमीवो भवा नः। यत्त्वेमहे प्रतितन्नो जुषस्व, शन्नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे स्वाहा। इदं वास्तोष्पतये इदं न मम॥ - ऋ०७.५४.१
२. ॐ वास्तोष्पते प्रतरणो न एधि, गयस्फानो गोभिरश्वेभिरिन्दो।अजरासस्ते सख्ये स्याम पितेव, पुत्रान् प्रति नो जुषस्व स्वाहा।इदं वास्तोष्पतये इदं न मम॥- ऋ० ७.५४.२
३. ॐ वास्तोष्पते शग्मया संसदा, ते सक्षीमहि रण्वया गातुमत्या।पाहि क्षेम उत योगे वरं नो, यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः स्वाहा। इदं वास्तोष्पतये इदं न मम॥ - ऋ०७.५४.३
४. ॐ अमीवहा वास्तोष्पते, विश्वा रूपाण्याविशन्।सखा सुशेव एधि नः स्वाहा। इदं वास्तोष्पतये इदं न मम।। - ऋ०७.५५.१
५. ॐ वास्तोष्पते ध्रुवा स्थूणां, सन्नं सोम्यानाम्।द्रप्सो भेत्ता पुरां शश्वतीनाम्, इन्द्रो मुनीनां सखा स्वाहा। इदं वास्तोष्पतये इदं न मम।। - ऋ० ८.१७.१४
तत्पश्चात् पूर्णाहुति, वसोर्धारा, आरती आदि का क्रम सम्पन्न करते हुए कार्यक्रम पूर्ण किया जाए।
सूत्र सङ्केत- भूमि में बीज ही नहीं, संस्कार भी उपजते हैं। मरघटों के वीभत्स- चीत्कार भरे डरावने और आश्रमों के शान्त, सुरभित, मनोरम वातावरण को हर कोई स्पष्ट अनुभव कर सकता है। इस अन्तर का कारण इन स्थानों में प्रसन्नता का प्रस्फुटन है, यह तथ्य का प्रतीक है कि भूमि में अच्छे- बुरे संस्कार ग्रहण करने, आत्मसात् करने की विलक्षण शक्ति होती है। इसी कारण भारतीय संस्कृति में प्रत्येक कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व भूमि पूजन आवश्यक माना गया है। गायत्री शक्तिपीठें प्रज्ञा आलोक की प्रेरणा केन्द्र बनने जा रही हैं। अतः इन देवालयों में प्रारम्भ से ही वह संस्कार पैदा किये जाने चाहिए। इसके लिए भूमि पूजन समारोह अनिवार्य बना दिये गये हैं। पौरोहित्य की परम्परा की दृष्टि से भी भूमि पूजन कृत्य अपने उत्तरदायी सभी परिजनों को अवश्य जानना चाहिए। भवन बनाने के पूर्व, नये स्थान पर बड़े यज्ञादि करने के पूर्व तथा गृह प्रवेश क्रम में भी इस प्रक्रिया का उपयोग किया जा सकता है।
क्रम व्यवस्था- भूमि पूजन जहाँ करना हो, उस स्थान पर सामर्थ्य के अनुसार सुरुचि एवं स्वच्छता का वातावरण बनाना चाहिए। कर्मकाण्ड के लिए ऐसा स्थान चुनना चाहिए, जहाँ पर होने वाले पूजन उपचार को उपस्थित समुदाय भली प्रकार देख- सुन सके। भूमि पूजन का विशेष कर्मकाण्ड भर यहाँ दिया जा रहा है। उसके आगे- पीछे सामान्य कर्मकाण्डों की विवेकपूर्ण शृङ्खला जोड़ लेनी चाहिए। यदि समय हो और व्यवस्था ठीक प्रकार बनाई- सँभाली जा सके, तो यह कार्य यज्ञ सहित सम्पन्न किया जा सकता है। पहले षट्कर्म से लेकर रक्षाविधान तक का कृत्य पूरा कर लिया जाए। उसके बाद भूमि पूजन का विशेष क्रम चलाया जाए। उसके पूर्ण होने पर अग्नि स्थापना से लेकर अन्त तक के शेष कर्मकाण्ड पूरे किये जाएँ।
यदि समय और व्यवस्था की दृष्टि से यह अधिक कठिन लगे, तो षट्कर्म के बाद सङ्कल्प, सर्वदेव नमस्कार, स्वस्तिवाचन कराकर भूमि पूजन कर्म कराया जाए। उसके बाद गायत्री मन्त्र बोलते हुए पाँच घी के दीपक जलाए जाएँ। अन्त में क्षमा प्रार्थना, नमस्कार, शुभकामना, अभिसिञ्चन, विसर्जन एवं जयघोष कराकर कार्यक्रम समाप्त किया जा सकता है। क्रम इस प्रकार है-
१. षट्कर्म- उपयुक्त प्रतिनिधियों को पूजा स्थान पर बिठाकर पहले षट्कर्म अर्थात् १.पवित्रीकरण, २. आचमन, ३.शिखावन्दन, ४.प्राणायाम, ५.न्यास, ६.पृथ्वी पूजन कराये जाएँ। यदि बिठाकर षट्कर्म कराने की स्थिति न हो, तो खड़े- खड़े ही केवल पवित्रीकरण मन्त्र से सामूहिक सिंचन कराकर आगे बढ़ा जा सकता है।
२. सङ्कल्प- प्रतिनिधियों के हाथ में अक्षत, पुष्प, जल आदि देकर भूमि पूजन का सङ्कल्प बोला जाए। मन्त्र बोलने के बाद पुष्प- अक्षत उसीभूमि पर चढ़ा दिये जाएँ, जिसका पूजन किया जा रहा हो।
.......नामाहं पृथिवीमातुः ऋणं अपाकर्त्तुं तां प्रतिस्वकर्त्तव्यं स्मर्त्तुं अस्याः निकृष्टसंस्कार- निस्सारणार्थं श्रेष्ठसंस्कार- स्थापनार्थञ्च देवपूजनपूर्वकं सपरिजनाः श्रद्धापूर्वकं भूमिपूजनं वयं करिष्यामहे।
३. सामान्य पूजा उपचार- सङ्कल्प के बाद व्यवस्थानुसार देवपूजन, स्वस्तिवाचन आदि कार्य कराए जाएँ।
४. भूमि अभिसिञ्चन- शुभ कार्य के लिए जिस भूमि का प्रयोग किया जाना है, उसमें पवित्रता के संचार के लिए यह प्रक्रिया है। एक प्रतिनिधि पात्र में पवित्र जल लेकर कुशाओं, आम्र- पल्लवों या पुष्पों से भूमि के चारों ओर छींटे लगाएँ। नीचे लिखे पाँचों मन्त्रों के साथ देवशक्तियों से उस क्षेत्र सहित सभी परिजनों के लिए पवित्रता की याचना की जाए।
ॐ पुनन्तु मा देवजनाः, पुनन्तु मनसा धियः।
पुनन्तु विश्वा भूतानि, जातवेदः पुनीहि मा॥ - १९.३९
ॐ पुनाति ते परिस्रुत , सोम सूर्यस्य दुहिता।
वारेण शश्वता तना॥ - १९.४
ॐ पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः, प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण, पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः। तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य, यत्कामः पुने तच्छकेयम्॥ - १.१२, ४.४
ॐ पवित्रेण पुनीहि मा, शुक्रेण देव दीद्यत्। अग्ने कृत्वा क्रतूँ१रनु॥ - १९.४०
ॐ पवमानः सो अद्य नः, पवित्रेण विचर्षणिः।
यः पोता स पुनातु मा॥ - १९.४२
५. प्राण- प्रतिष्ठा एवं पूजन- प्राणवान्- तेजस्वितायुक्त व्यक्तित्व ही अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील हो सकता है और उसे हस्तगत कर सकता है। स्थान विशेष को भी प्राण- सम्पन्न बनाने के उद्देश्य से भूमि- प्राण एवं पूजन का क्रम बनाया गया है। दाहिने हाथ में अक्षत- पुष्प लेकर पृथ्वी पर प्राण तत्त्व संचारणार्थ निम्न मन्त्र बोलकर छोड़े जाएँ।
ॐ मही द्यौः पृथिवी च न ऽ, इमं यज्ञं मिमिक्षताम्। पिपृतां नो भरीमभिः॥ - ८.३२
तत्पश्चात् गन्धाक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्यादि से पृथ्वी पूजन करें।
ॐ गन्धाक्षतं, पुष्पाणि, धूपं, दीपं, नैवेद्यं समर्पयामि।
ॐ श्री पृथिव्यै नमः।
पूजन के पश्चात् दोनों हाथ जोड़कर नीचे लिखे मन्त्र बोलकर धरती माता को नमस्कार करें-
ॐ शेषमूर्ध्निस्थितां रम्यां, नानासुखविधायिनीम्।
विश्वधात्रीं महाभागां, विश्वस्य जननीं पराम्॥
यज्ञभागं प्रतीक्षस्व, सुखार्थं प्रणमाम्यहम्।
तवोपरि करिष्यामि, मण्डपं सुमनोहरम्।
क्षन्तव्यं च त्वया देवि, सानुकूला मखे भव।
निर्विघ्न मम कर्मेदं, यथा स्यात्त्वं तथा कुरु॥ - गा०पु० प०
६. मांगलिक द्रव्य स्थापना- पूजन के उपरान्त भूमि में मांगलिक द्रव्य स्थापित किये जाते हैं। यह धरती माँ के प्रति अपनी सद्भावना की अभिव्यक्ति भी है और होने वाले कार्य का शुभारम्भ भी। हम धरती माँ के आँचल में मांगलिक पदार्थ रखकर अपनी सद्भावना का परिचय देते हैं। इस कर्म के दो भाग हैं-
१. खनित्र (खोदने वाले उपकरणों) का पूजन एवं उत्खनन। २.द्रव्य स्थापना।
सत्कार्य के लिए जो माध्यम बनते हैं, वे सम्मानीय हैं, उन्हें भी सुसंस्कारित करना चाहिए। इन भावों के साथ खनित्र पूजन करें। प्रतिनिधि दाहिने हाथ में रोली, अक्षत, पुष्प एवं जल लें, मन्त्र बोलते हुए उन्हें खनित्र पर चढ़ाएँ, साथ ही निर्धारित स्थान पर उससे छोटा सा गड्ढा खोद लें।
ॐ शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता, नमस्ते अस्तु मा मा हि सीः। निवर्त्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय, प्रजननाय रायस्पोषाय, सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय॥ -३.६३
इसके बाद पाँच द्रव्य हल्दी, दूर्वा, सुपारी, कलावा एवं अक्षत लिये जाते हैं। हल्दी शुभ, सौभाग्य एवं आरोग्यदात्री मानी जाती है। दूर्वा (दूब) विकास एवं अजरता की प्रतीक है। सुपारी स्थिर सुपरिणाम वाले फल का प्रतीक है। कलावा व्रत- संयम के बन्धन का प्रतीक एवं अक्षत श्री, समृद्धि और पूर्णता का प्रतीक माना जाता है। भूमि में इन सभी विशेषताओं की स्थापना के भाव सहित मन्त्र के साथ द्रव्यों को भूमि में स्थापित करें।
ॐ हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे, भूतस्य जातः पतिरेकऽआसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां, कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ -२३.१
अन्त में आवश्यक उद्बोधन, पूर्णाहुति, आरती आदि सम्पन्न करें।
॥ गृह प्रवेश- वास्तु शान्ति प्रयोग॥
नये- पुराने निर्मित मकान, दुकान आदि में निवास प्रारम्भ करने के पूर्व या रहने के समय गृह प्रवेश या वास्तु शान्ति का प्रयोग सम्पन्न करना प्रायः अनिवार्य- सा माना जाता है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए इस कर्मकाण्ड की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की जा रही है-
सर्वप्रथम षट्कर्म, तिलक, रक्षासूत्र, कलशपूजन, दीपपूजन, देवावाहन पूजन, सर्वदेव नमस्कार, स्वस्तिवाचन, रक्षाविधान तक की प्रक्रिया पूरी करके पूजावेदी पर वास्तुपुरुष का आवाहन- पूजन सम्पन्न करें।
॥ वास्तुपुरुषपूजन॥
प्रत्येक वस्तु, पदार्थ में एक देवशक्ति सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहती है, जिसे उस वस्तु पदार्थ का अधिष्ठाता देवता कहा जाता है। इस प्रकार मकान, दुकान आदि के अधिष्ठाता देवता की अनुकूलता प्राप्त करने एवं उस स्थान की प्रतिकूलता दूर करने के लिए वास्तुपुरुष (अधिष्ठाता देवता) का अक्षत पुष्प से आवाहन स्थापन करें-
ॐ वास्तोष्पते प्रतिजानीहि अस्मान्, स्वावेशो अनमीवो भवा नः।
यत्त्वेमहे प्रतितन्नो जुषस्व, शन्नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥ -ऋ० ७.५४.१
ॐ भूर्भुवः स्वः वास्तुपुुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। गन्धाक्षतं, पुष्पाणि, धूपं, दीपं, नैवेद्यं समर्पयामि। ततो नमस्कारं करोमि-
ॐ विशन्तु भूतले नागाः, लोकपालाश्च सर्वतः।
मण्डलेऽ त्रावतिष्ठन्तु, ह्यायुर्बलकराः सदा॥
वास्तुपुरुष देवेश ! सर्वविघ्न- विदारण।
शान्तिं कुरु सुखं देहि, यज्ञेऽस्मिन्मम सर्वदा॥
तत्पश्चात् अग्निस्थापन, प्रदीपन आदि करते हुए २४ बार गायत्री मन्त्र की विशेष आहुति समर्पित करें। इसके बाद खीर, मिष्टान्न या केवल घृत से ५ बार विशेष आहुति समर्पित करें।
|| विशेषाहुतिः ||
१. ॐ वास्तोष्पते प्रतिजानीहि अस्मान्, स्वावेशो अनमीवो भवा नः। यत्त्वेमहे प्रतितन्नो जुषस्व, शन्नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे स्वाहा। इदं वास्तोष्पतये इदं न मम॥ - ऋ०७.५४.१
२. ॐ वास्तोष्पते प्रतरणो न एधि, गयस्फानो गोभिरश्वेभिरिन्दो।अजरासस्ते सख्ये स्याम पितेव, पुत्रान् प्रति नो जुषस्व स्वाहा।इदं वास्तोष्पतये इदं न मम॥- ऋ० ७.५४.२
३. ॐ वास्तोष्पते शग्मया संसदा, ते सक्षीमहि रण्वया गातुमत्या।पाहि क्षेम उत योगे वरं नो, यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः स्वाहा। इदं वास्तोष्पतये इदं न मम॥ - ऋ०७.५४.३
४. ॐ अमीवहा वास्तोष्पते, विश्वा रूपाण्याविशन्।सखा सुशेव एधि नः स्वाहा। इदं वास्तोष्पतये इदं न मम।। - ऋ०७.५५.१
५. ॐ वास्तोष्पते ध्रुवा स्थूणां, सन्नं सोम्यानाम्।द्रप्सो भेत्ता पुरां शश्वतीनाम्, इन्द्रो मुनीनां सखा स्वाहा। इदं वास्तोष्पतये इदं न मम।। - ऋ० ८.१७.१४
तत्पश्चात् पूर्णाहुति, वसोर्धारा, आरती आदि का क्रम सम्पन्न करते हुए कार्यक्रम पूर्ण किया जाए।