Books - कर्मकाण्ड भास्कर
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श्री कृष्ण जन्माष्टमी - गीता जयन्ती
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माहात्म्य बोध- युग निर्माण परिवार भारतीय धर्म के अवतारी आत्माओं में राम और कृष्ण को सूर्य- चन्द्र की उपमा देता रहा है। राम का जन्म दिवस रामनवमी को मनाया जाता है। कृष्ण का दर्शन जन्माष्टमी की अपेक्षा गीता जयन्ती में अधिक प्रखर हुआ है। अर्जुन को भ्रम- जंजाल से छुड़ाकर उन्होंने जिस प्रकार कर्मयोग में प्रवृत्त किया, उसे न केवल महाभारत के घटनाक्रम की दृष्टि से ही; वरन् भारतीय दर्शन में उन दिनों चल रहे अवसाद को तेजी से बदलने की दृष्टि से भी अत्यन्त क्रान्तिकारी कहा जा सकता है। भगवान् कृष्ण के प्रति श्रद्धाभिव्यक्ति तथा उनके जीवन से प्रेरणा प्राप्त करने के लिए सामूहिक आयोजन चाहे कृष्ण जन्माष्टमी (भाद्रपद कृष्ण ८) को किया जाए, चाहे गीता जयन्ती (मार्गशीर्ष शुक्ल ११ )) पर, विधि- विधान एक से ही रखे जाते हैं। भगवान् कृष्ण के व्यक्तित्व और उनके जीवन दर्शन गीता को भिन्न- भिन्न मानकर नहीं चला जा सकता है। दोनों एक- दूसरे से गुँथे हुए हैं। प्रेरणा उभारने के लिए दोनों का ही उपयोग किया जाना आवश्यक है। भगवान् श्रीकृष्ण ने जीवन में समग्र सन्तुलन को रख दिया है।
उन दिनों- त्याग की हवा जोरों से चल रही थी। ईश्वर भक्ति और आत्म कल्याण जैसे महान् लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आमतौर से गृह- त्याग, एकान्तवास, संन्यासधारण, भिक्षाचरण, कायाकष्ट जैसे क्रिया-कलाप ही अपनाये जाने लगे थे। उसी का प्रचलन- परम्परा बन गया था। प्रतिभावान् विभूतियाँ सांसारिक, सामाजिक कर्त्तव्यों की उपेक्षा करके आत्मलाभ में लगती थीं। फलतः सारा समाज दुर्बल और अस्त- व्यस्त होता चला जा रहा था। इस प्रवाह की दिशा बदले बिना न अध्यात्म का उद्देश्य पूरा होता था और न व्यक्ति का आत्म- कल्याण सम्भव था। भगवान् ने अर्जुन के माध्यम से समस्त मानव जाति को यही सन्देश दिया कि आत्म- कल्याण एवं ईश्वर प्राप्ति के लिए सर्वांग साधना कर्मयोग से ही हो सकती है। भावनाओं को निःस्वार्थ उदात्त परमार्थपरक बनाते हुए लोकमंगल के लिए किए गये सभी कर्म योगसाधना एवं तपश्चर्या हैं। उन्हें अपनाने से आत्म- कल्याण ही नहीं, लोकमंगल का उभयपक्षीय प्रयोजन भी पूरा होता है। अस्तु; जप- तप तक सीमित न रहकर लोकहित के क्रिया कलाप को पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने का माध्यम बनाया जाना चाहिए।
गीता में भगवान् ने अर्जुन को अपने विराट् रूप का दर्शन कराते हुए यह बताया कि यह प्रत्यक्ष विश्व ही मेरा साकार रूप है। संसार को सुन्दर, समुन्नत, सुविकसित और सुव्यवस्थित बनाने के लिए किये गये समस्त प्रयत्न ईश्वर- आराधना के श्रेष्ठतम उपचार हैं। यह प्रतिपादन उस एकांगी मान्यता का प्रकारान्तर से खण्डन है, जिसमें अमुक नाम रूप का अनुष्ठानपरक, उपासना को जीवन का लक्ष्य की पूर्ति का साधन माना जाता था, और परमार्थ प्रेमी उसी में अपना सारा समय- श्रम एवं साधन नियोजित किये रहते थे।
गीता में कर्म करने की एक उत्कृष्ट मनोवैज्ञानिक शैली को उभारा गया है। लक्ष्य ऊँचा रखते हुए भी, शक्ति भर प्रयत्न करते हुए भी- सफलता पूर्णतया निश्चित नहीं रहती। परिस्थितियाँ भी अपना काम करती हैं और कई बार ऐसे परिणाम सामने आ खड़े होते हैं, जिनमें श्रेष्ठ प्रयास भी असफलता के निकट जा पहुँचते हैं। ऐसी घटनाओं से कर्मयोगी को भी बहुत आघात लग सकता है और वह उदास होकर अपना साहस एवं प्रयास ही गवाँ सकता है। भगवान् ने इस स्थिति से बचने के लिए यह मनोवैज्ञानिक मोड़ दिया है कि श्रेष्ठ कर्म करने भर को सन्तोष, गौरव, उल्लास एवं श्रेय का केन्द्रबिन्दु मान लिया जाए। श्रेष्ठ कर्म किया गया, उसमें पूरी तत्परता बरती गई, इसी को अपनी महानता एवं साहसिकता की सफलता अभिव्यंजना मान लिया जाए और कर्मफल को गौण समझा जाए। भौतिक सफलता असफलता तो बाद में मिलती है, उसका मूल्यांकन तो दूसरे करते हैं, अपना मूल्यांकन और अपनी सफलता- सन्तोष तो उस शुभारम्भ के साथ ही उपलब्ध कर लिया जाए, जिसमें कि श्रेष्ठ कर्म करने की दिशा में वह कदम उठाया गया, जिसे आमतौर से लोभ- मोहग्रस्त व्यक्ति उठाते हुए कतराते हैं।
कर्मयोग दर्शन में सफलता की परिभाषा और सन्तोष का केन्द्र- बिन्दु बदला गया है; ताकि अनाचारी लोगों द्वारा अनुचित मार्ग पर चलकर प्राप्त की गयी सफलताओं की ओर किसी का भी जी न ललचाने लगे। अपने सत्प्रयत्नों का भौतिक परिणाम कुछ बढ़- चढ़ कर न मिलने से किसी की हिम्मत टूटने लगे। कर्मयोग का दर्शन उस मानसिक असन्तुलन से बचाता है, जो शारीरिक रोगों से भी हजार गुना अधिक कष्टकर और हानिकारक सिद्ध होता है, घटनाक्रम किसी के हाथ में नहीं, प्रिय और अप्रिय परिस्थितियाँ धूप- छाँव की तरह आती रहती हैं। मनुष्यों में भी सर्वथा सज्जनता ही कहाँ? व्यक्तियों तथा घटनाओं द्वारा बार- बार ऐसे व्यवधान प्रस्तुत किये जाते रहे हैं, जो उद्वेग और आवेश उत्पन्न करें। क्रोध, चिन्ता, भय, निराशा, घृणा उत्पन्न करने वाले अवसर आये दिन सामने खड़े रहते हैं, उन्हें बदलने सुधारने के लिए सन्तुलित मस्तिष्क रहने पर कुछ ठीक तरह सोचा और ठीक तरह किया जा सकता है, पर मानसिक दुर्बलता के कारण घटनाक्रम ने पहले मस्तिष्क द्वारा उलटा ही सोचा अथवा किया जाता है, फलस्वरूप विपत्ति और कई गुनी बढ़ जाती है। दूसरों के द्वारा प्रस्तुत व्यवधान की अपेक्षा अपने असन्तुलन की हानि अनेक गुनी होती है। यदि विवेक स्थिर रखा जा सके, तो अपना सन्तुलन तो बनाया ही जा सकता है और संकट उतना सीमित ही बना रह सकता है, जिसके साथ विवेक बुद्धि से जूझा- निपटा जा सके।
मनोविज्ञान शास्त्री जानते हैं कि व्यक्तियों या घटनाओं के कारण मनुष्य को सीमित हानि ही हो सकती है। असीम हानि तो उसकी आवेशग्रस्तता ही उत्पन्न करती है। असफलता अथवा दुर्व्यवहार के कारण मनुष्य का साहस टूट जाता है और वह निराश, हताश होकर अपना भविष्य अन्धकारमय बना लेता है, अविश्वासी पलायनवादी बन जाते हैं। यदि सफलता मिली, तो वह अहंकारी, उद्धत, अतिवादी, दुस्साहसी बन जाता है और वह हर्षातिरेक स्थिति भी एक तरह का उन्माद उत्पन्न करके अवास्तविकतावादी बना देती है। इस प्रकार सफलताओं की उपलब्धि भी यदि असन्तुलन उत्पन्न करे, तो वह असफलता से भी मँहगी पड़ती है।
स्थितप्रज्ञ की- समत्व योग की चर्चा करते हुए भगवान् कृष्ण ने गीता के माध्यम से सबसे बड़ी विशेषता और गरिमा उसके मानसिक सन्तुलन की स्थिरता को बताया है। उस आधार पर मनुष्य अपने विवेक को आड़े समय में स्थिर रख सकता है और संकटापन्न लगने वाली स्थिति को खिलाड़ी की- अभिनेता की भावना से निर्वाह करता हुआ, मानसिक आघात से बचा रह सकता है। प्रसन्नता, प्रफुल्लता को अक्षुण्ण बनाये रह सकता है। ऐसी मानसिक स्थिति वस्तुतः एक बहुत बड़ी उपलब्धि है और उसके दूरगामी परिणाम होते हैं। तीन- चौथाई से अधिक त्रास देने वाले मनोविकारों से छुटकारा मिल जाता है और हलके चित्त वाला व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को किस तरह समुन्नत बनाता चला जाता है तथा सफलताओं को वरण करता चला जाता है, यह किसी भी मनः शास्त्र के विद्यार्थी की समझ में सहज ही आ सकता है। व्यक्तियों को प्यार करते हुए भी उनके दोषों को सहन न किया जाए, यह विश्लेषण की अद्भुत शैली है। आमतौर से मित्र के दोष भी सहन किये जाते हैं और शत्रु के गुण भी दम्भ लगते हैं, इस व्यामोह से पक्षपात बढ़ता है और सुधार- परिष्कार की गति अवरुद्ध हो जाती है। गीता ने रोगी से प्यार और रोग पर तलवार बरसाने की परिष्कृत दृष्टि अर्जुन को दी, तभी वह महाभारत का, जीवन- संग्राम का महत्त्वपूर्ण पात्र बन सका।
ऐसे अगणित सन्दर्भ गीता के श्लोकों में भरे पड़े हैं। जिनकी प्रकाश किरणें यदि हमारे अन्तःकरण को थोड़ा भी स्पर्शित कर सकें, तो निस्सन्देह हम जीवन रंगमंच के सफल अभिनेता और दिग्भ्रान्त जन समाज का मार्गदर्शन कर सकने वाले ऐतिहासिक लोक- नेता बन सकते हैं। कृष्ण चरित्र में अनेक प्रेरणाप्रद प्रसङ्ग हैं। आरम्भ काल से ही असुर आततायियों से जूझते रहना, सामूहिक श्रमदान की व्यवस्था जुटाकर गोवर्धन पर्वत खड़ा कर देना, गो- संवर्धन की महत्ता को सर्वसाधरण के मन में गहराई तक बिठाने के लिए गाँधीजी द्वारा काते जाने वाले चर्खे की तरह उस कार्य में स्वयं निरत रहना, न्याय पक्ष को समर्थन देने के लिए अड़े रहना, सारथी बनने जैसे छोटे समझे जाने वाले कार्य को भी अपनाकर श्रमजीवी वर्ग की गरिमा सुरक्षित रखना, सुदामा के गुरुकुल में आर्थिक कमी पड़ने पर उन्हें याचना का अवसर दिये बिना ही उसका अर्थाभाव दूर करना, बहेलिये द्वारा पैर में तीर लगने से होने वाली मृत्यु द्वारा यह सिद्ध करना कि इस जन्म में शुद्ध चरित्र रहने पर भी पूर्वकृत पाप फल की अनिवार्यता बनी ही रहती है, उससे कोई बच नहीं सकता। उल्लेखनीय है कि रामावतार द्वारा छिपकर बालि को मारने का दण्ड कृष्णावतार में भोगना पड़ा, बालि बहेलिया बनकर बदला चुकाने आया था। कंस द्वारा व्रज के समस्त दूध- घी को अपने लिए माँगना और उसे बरबाद करना कृष्ण को न भाया और उन्होंने ले जाने वाली गोपियों का रास्ता रोका, इसकी गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन और सत्याग्रह प्रयोग से तुलना कर सकते हैं। नर- नारी का परस्पर मिलन काम विकृति ही पैदा करेगा, इसलिए उसे सहन न किया जाए, जैसी उन दिनों की प्रचलित मान्यता को उन्होने चुनौती दी और कहा नर- नारी का साथ रहना पवित्र दृष्टिकोण में बाधक नहीं हो सकता। दोनों को पृथक् प्रतिबन्धित करना हर दृष्टि से अहितकर है। मनुष्य मात्र मिलकर रहें। नर- नारी साथ- साथ हँसते- खेलते जीवन निर्वाह करें। दृष्टिकोण की पवित्रता तो भावनाओं पर निर्भर है, सहचरत्व उसमें बाधक नहीं होता, यह शिक्षण उन्होंने गोप- गोपियों की सम्मिलित रासलीला द्वारा दिया है।
जयद्रथ- वध के समय सूर्य प्रकाश में नकलीपन उत्पन्न करना, कर्ण के शस्त्र विहीन होने पर अर्जुन को आक्रमण के लिए कहना- एक पत्नी व्रत को अनिवार्य न मानना, द्रोपदी को पाँच पति रखने और अपनी कई पत्नियों का एक अभिनव प्रयोग करना, जैसे कितने ही प्रसङ्ग ऐसे हैं, जिन्हें सामान्य लोक परम्परा से ऊँचे उठकर इसी दृष्टि से विचार करना पड़ेगा कि उच्च आदर्शों की रक्षा के लिए प्रचलित आचार संहिता में हेर- फेर भी किया जा सकता है। गुप्तचर विभाग को छल और झूठ के आधार पर ही अपनी राष्ट्र सेवा करने का अवसर मिलता है। सैनिक, योद्धा हिंसा का प्रयोग करते हैं, उन्हें सामान्य दृष्टि से हेय कहा जा सकता है, पर सूक्ष्म विवेचना इसकी भी आवश्यकता अनुभव करती है। दुष्टता से निपटने के लिए आपत्ति धर्म के आधार पर अथवा अपरिहार्य आवश्यकता उत्पन्न हो जाने पर, वैसे व्यतिक्रम भी सहन किये जाने चाहिए, कृष्ण के कुछ चरित्र इसी मान्यता का समर्थन करते हैं। उनकी माखनचोरी- लीला आदि की क्रान्तिकारियों की डकैती से तुलना की जा सकती है। विश्वामित्र ऋषि द्वारा आपत्तिकाल में कुत्ते का माँस खाकर अपनी प्राण रक्षा करने जैसे प्रसंगो को भी इसी श्रेणी में लिया जा सकता है।
जो हो, हम उन्हें दार्शनिक गुत्थियों पर नये ढंग से सोचने का एक तरीका भी समझें और उन पर दूसरे लोगों को विचार करने दें। जन- संख्या निरोध में एक उपाय द्रोपदी वाला भी प्रचलित है। पर्वतीय क्षेत्रों में भूमि की कमी और परिवार विस्तार की गुंजायश न देखकर वहाँ एक भाई का विवाह होता है और शेष सहपति रहते हैं।
जर्मनी में द्वितीय विश्वयुद्ध के समय बहुशः लोग मर- खप गये थे। बढ़ी हुई नारी संख्या की अस्त- व्यस्तता रोकने के लिए पुरुषों को कई पत्नियाँ रखने का कानूनी अधिकार दे दिया गया था। ऐसे ही विशेष परिस्थितियों में विशेष प्रथाएँ- विशेष रूप से बदली जा सकती हैं। इसी का समर्थन भगवान् कृष्ण ने किया है। उन्होंने मान्यताओं को पत्थर की लकीर न बनाये रखकर परिस्थितियों में कुछ विशेष ढंग से सोचने के लिए जो किया या कहा है, उसे विशेषज्ञों के लिए छोड़ देना पड़ता है ।। जन सामान्य को उसमें नहीं उलझना चाहिए।
॥ पूर्व व्यवस्था॥
श्री कृष्ण जन्माष्टमी- गीता जयन्ती पर सामान्य पर्वों जैसी व्यवस्था से ही काम चल जाता है। पूजन मंच पर भगवान् कृष्ण का ,सखाओं के प्रतीक अर्जुन या ग्वालबालों का चित्र, गीता की पुस्तक आदि सजाकर रखें। आवाहन पूजन के लिए प्रतीक स्थापना आवश्यक है।
पर्व पूजन का समय ऐसा रखें कि जिसमें सबको पहुँचने में कठिनाई न हो। जन्म समारोह के नाम पर रात्रि के १२ बजे आयोजन की बात न सोचें। पर्व के सन्दर्भ में भगवान् कृष्ण का अभिवादन- पूजन करने का भाव रखें। श्रद्धा और उपयोगिता दोनों दृष्टियों से यह भाव उपयुक्त रहता है।
॥ पर्वपूजन क्रम॥
प्रारम्भ में प्रेरणा संचार के लिए गीत एवं संक्षिप्त उद्बोधन करके पूजन क्रम आरम्भ करें। षट्कर्म से रक्षा विधान तक का क्रम अन्य पर्वों की तरह चले। विशेष पूजन में भगवान् कृष्ण का आवाहन, सखा आवाहन एवं गीता आवाहन करें। तीनों का संयुक्त पूजन षोडशोपचार से करें। भगवान् कृष्ण को नैवेद्य के रूप में विशेष रूप से गो द्रव्य चढ़ायें जाएँ। अन्त में यज्ञ- दीपयज्ञ ,, समापन देव दक्षिणा सङ्कल्प, संगीत आदि का क्रम रहे।
॥ विशेष पूजन॥
प्रेरणा प्रवाह- पर्व पूजन में भगवान् कृष्ण, उनके सखा एवं गीता का आवाहन- पूजन किया जाता है। विशेष नैवेद्य में गो द्रव्य चढ़ाये जाते हैं। इन उपचारों से सम्बद्ध प्रेरणा, उपचार के पूर्व उभारी जानी चाहिए।
भगवान् कृष्ण के सन्दर्भ में भूमिका में बहुत कुछ सङ्केत किये जा चुके हैं। उनमें से कुछ आवाहन के पूर्व उभारे जा सकते हैं। सखा सहयोग- सहकारिता के प्रतीक हैं। यह ऐसी वृत्ति है, जिसकी आवश्यकता भिन्न- भिन्न सामाजिक व्यवस्थाओं के समर्थक भी एक मत से स्वीकार करते हैं। उनके जीवन में बाल्यकाल से लेकर अन्त तक सखाओं का- सहकारिता का प्रवाह बड़ी स्पष्टता से उभरा है। सखा आवाहन के साथ उसे उभारें।
गीता को उनका शाश्वत कलेवर कह सकते हैं। ज्ञान को जन सुलभ और सर्वोपयोगी बनाने का उसमें अपने ही ढंग से प्रयास किया गया है। व्यक्ति का जीवन- दर्शन ही उसका असली स्वरूप है, इस तत्त्व को गीता पूजन के साथ उभारें। गो- द्रव्य कृष्ण को विशेष प्रिय थे। उन्होंने गो- सवंर्धन अभियान, चर्खा और सर्वोदय के ढंग से चलाया था। भारत में गोवंश व गो- द्रव्यों के उपयोग का महत्त्व हर स्तर पर सिद्ध किया जा चुका है, परन्तु संकीर्णतावश उसका महत्त्व जन- जीवन में उतर नहीं रहा है। गो- द्रव्य के द्वारा व्यापक बनाने की प्रेरणा उभारना, प्रार्थना करना अभीष्ट है।
॥ श्री कृष्ण आवाहन॥
ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि। तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्॥ - कृ० गा०.
ॐ वंशी विभूषितकरान्नवनीरदाभात्, पीताम्बरादरुणविम्बफलाधरोष्ठात्।
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्, कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने॥
ॐ श्रीकृष्णाय नमः, आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
॥ श्रीकृष्ण- सखा आवाहन॥
ॐ सखायः सं वः सम्यञ्चमिष œ स्तोमं चाग्नये।
वर्षिष्ठाय क्षितीनामूर्जो नप्त्रे सहस्वते॥ - १५.२९
ॐ श्रीकृष्ण- सखिभ्यो नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
॥ गीता आवाहन॥
ॐ गीता सुगीता कर्त्तव्या, किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य, मुखपद्माद्विनिःसृता॥
गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि, गीता मे चोत्तमं गृहम्।
गीताज्ञानमुपाश्रित्य, त्रींल्लोकान्पालयाम्यहम्॥
सर्वोपनिषदो गावो, दोग्धा गोपालनन्दनः।
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता, दुग्धं गीतामृतं महत्॥
ॐ श्री गीतायै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥
आवाहन के पश्चात् पुरुषसूक्त से षोडशोपचारपूजन करें।
॥ गोद्रव्य- अर्पण॥
मन्त्र के साथ पंचामृत भगवान् कृष्ण को अर्पित करें।
ॐ माता रुद्राणां दुहिता वसूनां, स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय, मा गामनागामदितिं वधिष्ट॥ - ऋ० ८.१०१.१५
॥ सङ्कल्प॥
........ नामाहं कृष्णजन्मोत्सवे/ गीताजयन्तीपर्वणि स्वशक्ति- अनुरूपं न्यायपक्षवरणं तत्समर्थनं च करिष्ये। तत्प्रतीकरूपेण......नियमपालनार्थं संकल्पयिष्ये।
उन दिनों- त्याग की हवा जोरों से चल रही थी। ईश्वर भक्ति और आत्म कल्याण जैसे महान् लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आमतौर से गृह- त्याग, एकान्तवास, संन्यासधारण, भिक्षाचरण, कायाकष्ट जैसे क्रिया-कलाप ही अपनाये जाने लगे थे। उसी का प्रचलन- परम्परा बन गया था। प्रतिभावान् विभूतियाँ सांसारिक, सामाजिक कर्त्तव्यों की उपेक्षा करके आत्मलाभ में लगती थीं। फलतः सारा समाज दुर्बल और अस्त- व्यस्त होता चला जा रहा था। इस प्रवाह की दिशा बदले बिना न अध्यात्म का उद्देश्य पूरा होता था और न व्यक्ति का आत्म- कल्याण सम्भव था। भगवान् ने अर्जुन के माध्यम से समस्त मानव जाति को यही सन्देश दिया कि आत्म- कल्याण एवं ईश्वर प्राप्ति के लिए सर्वांग साधना कर्मयोग से ही हो सकती है। भावनाओं को निःस्वार्थ उदात्त परमार्थपरक बनाते हुए लोकमंगल के लिए किए गये सभी कर्म योगसाधना एवं तपश्चर्या हैं। उन्हें अपनाने से आत्म- कल्याण ही नहीं, लोकमंगल का उभयपक्षीय प्रयोजन भी पूरा होता है। अस्तु; जप- तप तक सीमित न रहकर लोकहित के क्रिया कलाप को पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने का माध्यम बनाया जाना चाहिए।
गीता में भगवान् ने अर्जुन को अपने विराट् रूप का दर्शन कराते हुए यह बताया कि यह प्रत्यक्ष विश्व ही मेरा साकार रूप है। संसार को सुन्दर, समुन्नत, सुविकसित और सुव्यवस्थित बनाने के लिए किये गये समस्त प्रयत्न ईश्वर- आराधना के श्रेष्ठतम उपचार हैं। यह प्रतिपादन उस एकांगी मान्यता का प्रकारान्तर से खण्डन है, जिसमें अमुक नाम रूप का अनुष्ठानपरक, उपासना को जीवन का लक्ष्य की पूर्ति का साधन माना जाता था, और परमार्थ प्रेमी उसी में अपना सारा समय- श्रम एवं साधन नियोजित किये रहते थे।
गीता में कर्म करने की एक उत्कृष्ट मनोवैज्ञानिक शैली को उभारा गया है। लक्ष्य ऊँचा रखते हुए भी, शक्ति भर प्रयत्न करते हुए भी- सफलता पूर्णतया निश्चित नहीं रहती। परिस्थितियाँ भी अपना काम करती हैं और कई बार ऐसे परिणाम सामने आ खड़े होते हैं, जिनमें श्रेष्ठ प्रयास भी असफलता के निकट जा पहुँचते हैं। ऐसी घटनाओं से कर्मयोगी को भी बहुत आघात लग सकता है और वह उदास होकर अपना साहस एवं प्रयास ही गवाँ सकता है। भगवान् ने इस स्थिति से बचने के लिए यह मनोवैज्ञानिक मोड़ दिया है कि श्रेष्ठ कर्म करने भर को सन्तोष, गौरव, उल्लास एवं श्रेय का केन्द्रबिन्दु मान लिया जाए। श्रेष्ठ कर्म किया गया, उसमें पूरी तत्परता बरती गई, इसी को अपनी महानता एवं साहसिकता की सफलता अभिव्यंजना मान लिया जाए और कर्मफल को गौण समझा जाए। भौतिक सफलता असफलता तो बाद में मिलती है, उसका मूल्यांकन तो दूसरे करते हैं, अपना मूल्यांकन और अपनी सफलता- सन्तोष तो उस शुभारम्भ के साथ ही उपलब्ध कर लिया जाए, जिसमें कि श्रेष्ठ कर्म करने की दिशा में वह कदम उठाया गया, जिसे आमतौर से लोभ- मोहग्रस्त व्यक्ति उठाते हुए कतराते हैं।
कर्मयोग दर्शन में सफलता की परिभाषा और सन्तोष का केन्द्र- बिन्दु बदला गया है; ताकि अनाचारी लोगों द्वारा अनुचित मार्ग पर चलकर प्राप्त की गयी सफलताओं की ओर किसी का भी जी न ललचाने लगे। अपने सत्प्रयत्नों का भौतिक परिणाम कुछ बढ़- चढ़ कर न मिलने से किसी की हिम्मत टूटने लगे। कर्मयोग का दर्शन उस मानसिक असन्तुलन से बचाता है, जो शारीरिक रोगों से भी हजार गुना अधिक कष्टकर और हानिकारक सिद्ध होता है, घटनाक्रम किसी के हाथ में नहीं, प्रिय और अप्रिय परिस्थितियाँ धूप- छाँव की तरह आती रहती हैं। मनुष्यों में भी सर्वथा सज्जनता ही कहाँ? व्यक्तियों तथा घटनाओं द्वारा बार- बार ऐसे व्यवधान प्रस्तुत किये जाते रहे हैं, जो उद्वेग और आवेश उत्पन्न करें। क्रोध, चिन्ता, भय, निराशा, घृणा उत्पन्न करने वाले अवसर आये दिन सामने खड़े रहते हैं, उन्हें बदलने सुधारने के लिए सन्तुलित मस्तिष्क रहने पर कुछ ठीक तरह सोचा और ठीक तरह किया जा सकता है, पर मानसिक दुर्बलता के कारण घटनाक्रम ने पहले मस्तिष्क द्वारा उलटा ही सोचा अथवा किया जाता है, फलस्वरूप विपत्ति और कई गुनी बढ़ जाती है। दूसरों के द्वारा प्रस्तुत व्यवधान की अपेक्षा अपने असन्तुलन की हानि अनेक गुनी होती है। यदि विवेक स्थिर रखा जा सके, तो अपना सन्तुलन तो बनाया ही जा सकता है और संकट उतना सीमित ही बना रह सकता है, जिसके साथ विवेक बुद्धि से जूझा- निपटा जा सके।
मनोविज्ञान शास्त्री जानते हैं कि व्यक्तियों या घटनाओं के कारण मनुष्य को सीमित हानि ही हो सकती है। असीम हानि तो उसकी आवेशग्रस्तता ही उत्पन्न करती है। असफलता अथवा दुर्व्यवहार के कारण मनुष्य का साहस टूट जाता है और वह निराश, हताश होकर अपना भविष्य अन्धकारमय बना लेता है, अविश्वासी पलायनवादी बन जाते हैं। यदि सफलता मिली, तो वह अहंकारी, उद्धत, अतिवादी, दुस्साहसी बन जाता है और वह हर्षातिरेक स्थिति भी एक तरह का उन्माद उत्पन्न करके अवास्तविकतावादी बना देती है। इस प्रकार सफलताओं की उपलब्धि भी यदि असन्तुलन उत्पन्न करे, तो वह असफलता से भी मँहगी पड़ती है।
स्थितप्रज्ञ की- समत्व योग की चर्चा करते हुए भगवान् कृष्ण ने गीता के माध्यम से सबसे बड़ी विशेषता और गरिमा उसके मानसिक सन्तुलन की स्थिरता को बताया है। उस आधार पर मनुष्य अपने विवेक को आड़े समय में स्थिर रख सकता है और संकटापन्न लगने वाली स्थिति को खिलाड़ी की- अभिनेता की भावना से निर्वाह करता हुआ, मानसिक आघात से बचा रह सकता है। प्रसन्नता, प्रफुल्लता को अक्षुण्ण बनाये रह सकता है। ऐसी मानसिक स्थिति वस्तुतः एक बहुत बड़ी उपलब्धि है और उसके दूरगामी परिणाम होते हैं। तीन- चौथाई से अधिक त्रास देने वाले मनोविकारों से छुटकारा मिल जाता है और हलके चित्त वाला व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को किस तरह समुन्नत बनाता चला जाता है तथा सफलताओं को वरण करता चला जाता है, यह किसी भी मनः शास्त्र के विद्यार्थी की समझ में सहज ही आ सकता है। व्यक्तियों को प्यार करते हुए भी उनके दोषों को सहन न किया जाए, यह विश्लेषण की अद्भुत शैली है। आमतौर से मित्र के दोष भी सहन किये जाते हैं और शत्रु के गुण भी दम्भ लगते हैं, इस व्यामोह से पक्षपात बढ़ता है और सुधार- परिष्कार की गति अवरुद्ध हो जाती है। गीता ने रोगी से प्यार और रोग पर तलवार बरसाने की परिष्कृत दृष्टि अर्जुन को दी, तभी वह महाभारत का, जीवन- संग्राम का महत्त्वपूर्ण पात्र बन सका।
ऐसे अगणित सन्दर्भ गीता के श्लोकों में भरे पड़े हैं। जिनकी प्रकाश किरणें यदि हमारे अन्तःकरण को थोड़ा भी स्पर्शित कर सकें, तो निस्सन्देह हम जीवन रंगमंच के सफल अभिनेता और दिग्भ्रान्त जन समाज का मार्गदर्शन कर सकने वाले ऐतिहासिक लोक- नेता बन सकते हैं। कृष्ण चरित्र में अनेक प्रेरणाप्रद प्रसङ्ग हैं। आरम्भ काल से ही असुर आततायियों से जूझते रहना, सामूहिक श्रमदान की व्यवस्था जुटाकर गोवर्धन पर्वत खड़ा कर देना, गो- संवर्धन की महत्ता को सर्वसाधरण के मन में गहराई तक बिठाने के लिए गाँधीजी द्वारा काते जाने वाले चर्खे की तरह उस कार्य में स्वयं निरत रहना, न्याय पक्ष को समर्थन देने के लिए अड़े रहना, सारथी बनने जैसे छोटे समझे जाने वाले कार्य को भी अपनाकर श्रमजीवी वर्ग की गरिमा सुरक्षित रखना, सुदामा के गुरुकुल में आर्थिक कमी पड़ने पर उन्हें याचना का अवसर दिये बिना ही उसका अर्थाभाव दूर करना, बहेलिये द्वारा पैर में तीर लगने से होने वाली मृत्यु द्वारा यह सिद्ध करना कि इस जन्म में शुद्ध चरित्र रहने पर भी पूर्वकृत पाप फल की अनिवार्यता बनी ही रहती है, उससे कोई बच नहीं सकता। उल्लेखनीय है कि रामावतार द्वारा छिपकर बालि को मारने का दण्ड कृष्णावतार में भोगना पड़ा, बालि बहेलिया बनकर बदला चुकाने आया था। कंस द्वारा व्रज के समस्त दूध- घी को अपने लिए माँगना और उसे बरबाद करना कृष्ण को न भाया और उन्होंने ले जाने वाली गोपियों का रास्ता रोका, इसकी गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन और सत्याग्रह प्रयोग से तुलना कर सकते हैं। नर- नारी का परस्पर मिलन काम विकृति ही पैदा करेगा, इसलिए उसे सहन न किया जाए, जैसी उन दिनों की प्रचलित मान्यता को उन्होने चुनौती दी और कहा नर- नारी का साथ रहना पवित्र दृष्टिकोण में बाधक नहीं हो सकता। दोनों को पृथक् प्रतिबन्धित करना हर दृष्टि से अहितकर है। मनुष्य मात्र मिलकर रहें। नर- नारी साथ- साथ हँसते- खेलते जीवन निर्वाह करें। दृष्टिकोण की पवित्रता तो भावनाओं पर निर्भर है, सहचरत्व उसमें बाधक नहीं होता, यह शिक्षण उन्होंने गोप- गोपियों की सम्मिलित रासलीला द्वारा दिया है।
जयद्रथ- वध के समय सूर्य प्रकाश में नकलीपन उत्पन्न करना, कर्ण के शस्त्र विहीन होने पर अर्जुन को आक्रमण के लिए कहना- एक पत्नी व्रत को अनिवार्य न मानना, द्रोपदी को पाँच पति रखने और अपनी कई पत्नियों का एक अभिनव प्रयोग करना, जैसे कितने ही प्रसङ्ग ऐसे हैं, जिन्हें सामान्य लोक परम्परा से ऊँचे उठकर इसी दृष्टि से विचार करना पड़ेगा कि उच्च आदर्शों की रक्षा के लिए प्रचलित आचार संहिता में हेर- फेर भी किया जा सकता है। गुप्तचर विभाग को छल और झूठ के आधार पर ही अपनी राष्ट्र सेवा करने का अवसर मिलता है। सैनिक, योद्धा हिंसा का प्रयोग करते हैं, उन्हें सामान्य दृष्टि से हेय कहा जा सकता है, पर सूक्ष्म विवेचना इसकी भी आवश्यकता अनुभव करती है। दुष्टता से निपटने के लिए आपत्ति धर्म के आधार पर अथवा अपरिहार्य आवश्यकता उत्पन्न हो जाने पर, वैसे व्यतिक्रम भी सहन किये जाने चाहिए, कृष्ण के कुछ चरित्र इसी मान्यता का समर्थन करते हैं। उनकी माखनचोरी- लीला आदि की क्रान्तिकारियों की डकैती से तुलना की जा सकती है। विश्वामित्र ऋषि द्वारा आपत्तिकाल में कुत्ते का माँस खाकर अपनी प्राण रक्षा करने जैसे प्रसंगो को भी इसी श्रेणी में लिया जा सकता है।
जो हो, हम उन्हें दार्शनिक गुत्थियों पर नये ढंग से सोचने का एक तरीका भी समझें और उन पर दूसरे लोगों को विचार करने दें। जन- संख्या निरोध में एक उपाय द्रोपदी वाला भी प्रचलित है। पर्वतीय क्षेत्रों में भूमि की कमी और परिवार विस्तार की गुंजायश न देखकर वहाँ एक भाई का विवाह होता है और शेष सहपति रहते हैं।
जर्मनी में द्वितीय विश्वयुद्ध के समय बहुशः लोग मर- खप गये थे। बढ़ी हुई नारी संख्या की अस्त- व्यस्तता रोकने के लिए पुरुषों को कई पत्नियाँ रखने का कानूनी अधिकार दे दिया गया था। ऐसे ही विशेष परिस्थितियों में विशेष प्रथाएँ- विशेष रूप से बदली जा सकती हैं। इसी का समर्थन भगवान् कृष्ण ने किया है। उन्होंने मान्यताओं को पत्थर की लकीर न बनाये रखकर परिस्थितियों में कुछ विशेष ढंग से सोचने के लिए जो किया या कहा है, उसे विशेषज्ञों के लिए छोड़ देना पड़ता है ।। जन सामान्य को उसमें नहीं उलझना चाहिए।
॥ पूर्व व्यवस्था॥
श्री कृष्ण जन्माष्टमी- गीता जयन्ती पर सामान्य पर्वों जैसी व्यवस्था से ही काम चल जाता है। पूजन मंच पर भगवान् कृष्ण का ,सखाओं के प्रतीक अर्जुन या ग्वालबालों का चित्र, गीता की पुस्तक आदि सजाकर रखें। आवाहन पूजन के लिए प्रतीक स्थापना आवश्यक है।
पर्व पूजन का समय ऐसा रखें कि जिसमें सबको पहुँचने में कठिनाई न हो। जन्म समारोह के नाम पर रात्रि के १२ बजे आयोजन की बात न सोचें। पर्व के सन्दर्भ में भगवान् कृष्ण का अभिवादन- पूजन करने का भाव रखें। श्रद्धा और उपयोगिता दोनों दृष्टियों से यह भाव उपयुक्त रहता है।
॥ पर्वपूजन क्रम॥
प्रारम्भ में प्रेरणा संचार के लिए गीत एवं संक्षिप्त उद्बोधन करके पूजन क्रम आरम्भ करें। षट्कर्म से रक्षा विधान तक का क्रम अन्य पर्वों की तरह चले। विशेष पूजन में भगवान् कृष्ण का आवाहन, सखा आवाहन एवं गीता आवाहन करें। तीनों का संयुक्त पूजन षोडशोपचार से करें। भगवान् कृष्ण को नैवेद्य के रूप में विशेष रूप से गो द्रव्य चढ़ायें जाएँ। अन्त में यज्ञ- दीपयज्ञ ,, समापन देव दक्षिणा सङ्कल्प, संगीत आदि का क्रम रहे।
॥ विशेष पूजन॥
प्रेरणा प्रवाह- पर्व पूजन में भगवान् कृष्ण, उनके सखा एवं गीता का आवाहन- पूजन किया जाता है। विशेष नैवेद्य में गो द्रव्य चढ़ाये जाते हैं। इन उपचारों से सम्बद्ध प्रेरणा, उपचार के पूर्व उभारी जानी चाहिए।
भगवान् कृष्ण के सन्दर्भ में भूमिका में बहुत कुछ सङ्केत किये जा चुके हैं। उनमें से कुछ आवाहन के पूर्व उभारे जा सकते हैं। सखा सहयोग- सहकारिता के प्रतीक हैं। यह ऐसी वृत्ति है, जिसकी आवश्यकता भिन्न- भिन्न सामाजिक व्यवस्थाओं के समर्थक भी एक मत से स्वीकार करते हैं। उनके जीवन में बाल्यकाल से लेकर अन्त तक सखाओं का- सहकारिता का प्रवाह बड़ी स्पष्टता से उभरा है। सखा आवाहन के साथ उसे उभारें।
गीता को उनका शाश्वत कलेवर कह सकते हैं। ज्ञान को जन सुलभ और सर्वोपयोगी बनाने का उसमें अपने ही ढंग से प्रयास किया गया है। व्यक्ति का जीवन- दर्शन ही उसका असली स्वरूप है, इस तत्त्व को गीता पूजन के साथ उभारें। गो- द्रव्य कृष्ण को विशेष प्रिय थे। उन्होंने गो- सवंर्धन अभियान, चर्खा और सर्वोदय के ढंग से चलाया था। भारत में गोवंश व गो- द्रव्यों के उपयोग का महत्त्व हर स्तर पर सिद्ध किया जा चुका है, परन्तु संकीर्णतावश उसका महत्त्व जन- जीवन में उतर नहीं रहा है। गो- द्रव्य के द्वारा व्यापक बनाने की प्रेरणा उभारना, प्रार्थना करना अभीष्ट है।
॥ श्री कृष्ण आवाहन॥
ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि। तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्॥ - कृ० गा०.
ॐ वंशी विभूषितकरान्नवनीरदाभात्, पीताम्बरादरुणविम्बफलाधरोष्ठात्।
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्, कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने॥
ॐ श्रीकृष्णाय नमः, आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
॥ श्रीकृष्ण- सखा आवाहन॥
ॐ सखायः सं वः सम्यञ्चमिष œ स्तोमं चाग्नये।
वर्षिष्ठाय क्षितीनामूर्जो नप्त्रे सहस्वते॥ - १५.२९
ॐ श्रीकृष्ण- सखिभ्यो नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
॥ गीता आवाहन॥
ॐ गीता सुगीता कर्त्तव्या, किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य, मुखपद्माद्विनिःसृता॥
गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि, गीता मे चोत्तमं गृहम्।
गीताज्ञानमुपाश्रित्य, त्रींल्लोकान्पालयाम्यहम्॥
सर्वोपनिषदो गावो, दोग्धा गोपालनन्दनः।
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता, दुग्धं गीतामृतं महत्॥
ॐ श्री गीतायै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥
आवाहन के पश्चात् पुरुषसूक्त से षोडशोपचारपूजन करें।
॥ गोद्रव्य- अर्पण॥
मन्त्र के साथ पंचामृत भगवान् कृष्ण को अर्पित करें।
ॐ माता रुद्राणां दुहिता वसूनां, स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय, मा गामनागामदितिं वधिष्ट॥ - ऋ० ८.१०१.१५
॥ सङ्कल्प॥
........ नामाहं कृष्णजन्मोत्सवे/ गीताजयन्तीपर्वणि स्वशक्ति- अनुरूपं न्यायपक्षवरणं तत्समर्थनं च करिष्ये। तत्प्रतीकरूपेण......नियमपालनार्थं संकल्पयिष्ये।