Books - कर्मकाण्ड भास्कर
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Language: HINDI
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॥ जन्मदिवस संस्कार॥
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यों प्रचलित अनेक पर्व- त्यौहार आते और मनाये जाते हैं, पर व्यक्तिगत दृष्टि से मनुष्य का अपना जन्मदिन ही उसके लिए सबसे बड़े हर्ष, गौरव एवं सौभाग्य का दिन हो सकता है। राम के जन्मदिन की तिथि रामनवमी और कृष्ण का जन्मदिन- जन्माष्टमी जितना महत्त्वपूर्ण है, उतना ही किसी सामान्य व्यक्ति के जीवन में उसका जन्मदिन किसी भी प्रकार कम आनन्द एवं उल्लास का नहीं होता। उसे ठीक तरह मनाया जाए, तो अपना प्रसुप्त आनन्द और उल्लास जगेगा। इसी अवसर पर यदि थोड़ा अधिक गम्भीर आत्म- निरीक्षण कर लिया जाए और आगे के लिए कुछ ठोस सदुपयोग की बात सोच ली जाए, तो वह दिन एक नये सूर्योदय जैसा प्रकाशवान् हो सकता है। बुद्ध, वाल्मीकि, सूर, तुलसी, अंगुलिमाल आदि के पूर्व जीवन बहुत अच्छे न थे, पर एक दिन उनकी अन्तःस्फुरणा जग पड़ी, तो उनने अपनी दिशा ही बदल दी। यह बदलना इतना महत्त्वपूर्ण हुआ कि वे नर से नारायण बन गये। जन्मदिन की उल्लास भरी घड़ी में यदि मनुष्य यत्किञ्चित् भी आत्म- निर्माण की बात सोचने लगे, तो वह उसी अनुपात में उसके सौभाग्य की घड़ी सिद्ध हो सकती है।
जन्मदिन दिखने में सामान्य; किन्तु प्रभाव में असामान्य संस्कार है। किसी वर्ग, किसी भी स्तर के व्यक्तियों के बीच इसे लोकप्रिय बनाया जा सकता है। एक इसी संस्कार के माध्यम से मनुष्य की चेतना को झकझोर कर सदाशयता से जोड़ देने का काम बड़ी कुशलता से सम्पन्न किया जा सकता है। सभी सृजन शिल्पियों को कटिबद्ध होकर इसे लोकप्रिय बनाना चाहिए।
॥ विशेष व्यवस्था॥
जन्मदिन संस्कार यज्ञ के साथ ही मनाया जाना चाहिए। अन्तःकरण को प्रभावित करने की यज्ञ की अपनी क्षमता विशेष है; परन्तु चूँकि इसे जन- जन का आन्दोलन बनाना है, इसलिए यदि परिस्थितियाँ अनुकूल न हों, तो केवल दीपयज्ञ करके भी जन्मदिन संस्कार कराये जा सकते हैं। नीचे लिखी व्यवस्थाएँ पहले से बनाकर रखी जाएँ।
पंच तत्त्व पूजन के लिए चावल की पाँच छोटी ढेरियाँ पूजन वेदी पर बना देनी चाहिए। पाँच तत्त्वों के लिए पाँच रंग के चावल भी रँगकर अलग- अलग छोटी डिबियों या पुड़ियों में रखे जा सकते हैं। उनकी रंगीन ढेरियाँ लगा देने से शोभा और भी अच्छी बन जाती है। तत्त्वों के क्रम और रङ्ग इस प्रकार हैं- १. पृथ्वी- हरा, २.वरुण- काला, ३. अग्नि- लाल, ४. वायु- पीला और ५. आकाश- सफेद। इसी क्रम से ढेरियाँ लगाकर रखनी चाहिए।
दीपदान- जन्मोत्सव के लिए दीपक बनाकर रखें जाएँ। जितने वर्ष पूरे किये हों, उतने छोटे दीपक तथा नये वर्ष का थोड़ा बड़ा दीपक बनाया जाए। दीपक आटे के भी बनाये जा सकते हैं और मिट्टी के भी रखे जा सकते हैं। अभाव में मोमबत्तियों के टुकड़े भी प्रयुक्त किये जा सकते हैं, उन्हें थाली या ट्रे में सुन्दर आकारों में सजाकर रखना चाहिए।
व्रत धारण में क्या व्रत लिया जाना है? इसकी चर्चा पहले से ही कर लेनी चाहिए।
॥ विशेष कर्मकाण्ड॥
अन्य संस्कारों की तरह मंगलाचरण से रक्षाविधान तक के उपचार पूरे किये जाएँ। इसके बाद क्रमशः ये कर्मकाण्ड कराये जाएँ।
॥ पंचतत्त्व पूजन॥
शिक्षण एवं प्रेरणा- शरीर पंच तत्त्व से बना है। इस संसार का प्रत्येक पदार्थ मिट्टी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन पाँच तत्त्वों से बना है। इसलिए इस सृष्टि के आधारभूत ये पाँच ही दिव्य तत्त्व देवता हैं। उपकारी के प्रति कृतज्ञता की भावनाओं से अन्तःकरण ओत- प्रोत रखना भारतीय संस्कृति का अविच्छिन्न अङ्ग है। हम जड़ और चेतन सभी उपकारियों के प्रति कृतज्ञता- भावना की अभिव्यक्ति के लिए पूजा- प्रक्रिया का अवलम्बन लेते हैं। पूजा से इन जड़ पदार्थों, अदृश्य शक्तियों, स्वर्गीय आत्माओं का भले ही कोई लाभ न होता हो, पर हमारी कृतज्ञता का प्रसुप्त भाव जाग्रत् होने से हमारी आन्तरिक उत्कृष्टता बढ़ती ही है। पंच तत्त्वों का पूजन विश्व के आधार स्तम्भ होने की महत्ता के निमित्त किया जाता है।
इस पूजन का दूसरा उद्देश्य यह है कि इन पाँचों के सदुपयोग का ध्यान रखा जाए। शरीर जिन तत्त्वों से बना है, उनका यदि सही रीति- नीति से उपयोग करते रहा जाए, तो कभी भी अस्वस्थ होने का अवसर न आए। पृथ्वी से उत्पन्न अन्न का कितना, कब और कैसे उपयोग किया जाए, इसका ध्यान रखें तो पेट खराब न हो। यदि आहार की सात्त्विकता, मात्रा एवं व्यवस्था का ध्यान रखा जाए, तो न अपच हो और न किसी रोग की सम्भावना बने। जल की स्वच्छता एवं उचित मात्रा में सेवन करने का, विधिवत् स्नान का, वस्त्र, बर्तन, घर आदि की सफाई, जल के उचित प्रयोग का ध्यान रखा जाए, तो समग्र स्वच्छता बनी रहे, शरीर, मन तथा वातावरण सभी कुछ स्वच्छ रहे। अग्नि की उपयोगिता सूर्य ताप को शरीर, वस्त्र, घर आदि में पूरी तरह प्रयोग करने में है। भोजन में अग्नि का सदुपयोग भाप द्वारा पकाये जाने में है। शरीर के भीतर अग्नि ब्रह्मचर्य द्वारा सुरक्षित रहती एवं बढ़ती है। स्वच्छ वायु का सेवन, खुली जगहों में निवास, प्रातः टहलने जाना, प्राणायाम, गन्दगी से वायु को दूषित न होने देना आदि वायु की प्रतिष्ठा है। आकाश की पोल ईथर में, विचार, शब्द आदि भरे पड़े हैं, उनका मानसिक एवं भावना क्षेत्र में इस प्रकार उपयोग किया जाए कि हमारी अन्तःचेतना उत्कृष्ट स्तर की ओर चले, यह जानना, समझना आकाश तत्त्व का उपयोग है। इसी सदुपयोग के द्वारा हम सुख- शान्ति और समृद्धि का पथ- प्रशस्त कर सकते हैं। पंच तत्त्वों का पूजन, हमारा ध्यान इनके सदुपयोग की ओर आकर्षित करता है।
तीसरी प्रेरणा यह है कि शरीर पंच तत्त्वों का बना होने के कारण जरा, मृत्यु से बँधा हुआ है। यह एक वाहन और माध्यम है। जड़ होने के कारण इसका महत्त्व कम है। इसे एक उपकरण मात्र माना जाए। शरीर की सुख- सुविधा को इतना महत्त्व न दिया जाए कि आत्मा के स्वार्थ पिछड़ जाएँ। आत्मा की उन्नति के लिए पंच तत्त्वों से बना यह शरीर मिलता है, इसलिए उसका सदुपयोग निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति के लिए ही किया जाए।
क्रिया और भावना- प्रत्येक तत्त्व के पूजन के पूर्व उसकी प्रेरणाएँ उभारी जाएँ। हाथ में अक्षत, पुष्प देकर मन्त्रोच्चार के साथ सम्बन्धित प्रतीक पर अर्पित कराएँ। भावना की जाए कि सृष्टि रचना के इन घटकों के अन्दर जो सूक्ष्म संस्कार हैं, वे पूजन के द्वारा साधक को प्राप्त हो रहे हैं।
॥ पृथ्वी॥
ॐ मही द्यौः पृथिवी च न ऽ, इमं यज्ञं मिमिक्षताम्। पिपृतां नो भरीमभिः। ॐ पृथिव्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि,पूजयामि, ध्यायामि। - ८.३२
॥ वरुण॥
ॐ तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानः, तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः। अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुश œ, समानऽ आयुः प्रमोषीः॥
ॐ वरुणाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि। - १८.४९
॥ अग्नि॥
ॐ त्वं नो ऽ अग्ने वरुणस्य विद्वान्, देवस्य हेडोऽ अवयासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो, विश्वा द्वेषाœ सि प्रमुमुग्ध्यस्मत्। ॐ अग्नये नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि। - २१.३
॥ वायु॥
ॐ आ नो नियुद्भिः शतिनीभिरध्वर œ, सहस्रिणीभिरुप याहि यज्ञम्। वायो अस्मिन्त्सवने मादयस्व, यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः। ॐ वायवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि। -२७.२८
॥ आकाश॥
ॐ या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती। तया यज्ञं मिमिक्षतम्। उपयामगृहीतोऽस्यश्विभ्यां, त्वैष ते योनिर्माध्वीभ्यां त्वा।
ॐ आकाशाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि। -७.११
॥ दीपदान॥
शिक्षण और प्रेरणा- जन्मोत्सव का दूसरा कर्मकाण्ड दीपदान है। जितने वर्ष की आयु हो, उतने दीपक एक सुसज्जित चौकी पर बनाकर सजाये जाते हैं। आटे के ऊपर बत्ती वाले घृत दीप एक थाली में इस तरह सजाकर रखे जा सकते हैं कि उनका ॐ, स्वस्तिक अथवा कोई और सुन्दर रूप बन जाए। इन दीपकों के आसपास पुष्प, फल, धूपबत्तियाँ, गुलदस्ते या कोई दूसरी चीजें सुन्दरता बढ़ाने के लिए रखी जा सकती हैं। कलात्मक सुरुचि भीतर हो, तो सुसज्जा के अनेक प्रकार बन सकते हैं। इन दीपकों का पूजन किया जाता है।
जीवन का प्रत्येक वर्ष दीपक के समान प्रकाशवान् रहे, तभी उसकी सार्थकता है। दीपक स्वयं तिल- तिल करके जलता है और अन्धकार में प्रकाश उत्पन्न करता है, इस रीति- नीति का प्रतीक होने के कारण ही दीपक को प्रत्येक मांगलिक कार्य में पूजा जाता है एवं उसे प्रधानता मिलती है। हमारे जीवन की रीति- नीति भी ऐसी ही होनी चाहिए।
दीपक को ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। अज्ञान को अन्धकार व ज्ञान को प्रकाश की उपमा दी जाती है। जिस सीमा तक हमारा मस्तिष्क या हृदय अज्ञानग्रस्त है, उतना ही हम अँधेरे में भटक रहे हैं। मस्तिष्क का अन्धकार दूर करने के लिए हमें शिक्षा और हृदय का अन्धकार दूर करने के लिए विद्या- ऋतम्भरा ज्ञान का अधिकाधिक मात्रा में संग्रह करना चाहिए। आत्मज्ञान का वैसा दीपक हमें अन्तःकरण में जलाना चाहिए, जैसा रामायण के उत्तरकाण्ड में विस्तारपूर्वक बताया गया है। दीपदान में ऐसी ही अनेक प्रेरणाएँ सन्निहित हैं।
क्रिया और भावना- थाली में सजाये दीपकों को क्रमशः प्रज्वलित किया जाए। उसके साथ सस्वर गायत्री मन्त्र का पाठ चलाएँ। यदि यज्ञ न करके केवल दीपयज्ञ ही करना हो, तो गायत्री मन्त्र के साथ स्वाहा लगाकर दीपक जलाने की प्रक्रिया को आहुति मानते हुए यज्ञीय वातावरण बनाया जाए।
भावना की जाए कि मनुष्य कितने भी कम साधनों में जी रहा हो, छोटे से नाचीज दीपक की तरह सबका प्रिय प्रकाशदाता बन सकता है। छोटी- सी पात्रता, थोड़ा- सा स्नेह और जरा- सी वर्तिका (लगन) को ठीक क्रम से सजाकर ज्योतिदान प्राप्त कर सकता है। ज्योतित जीवन की कामना, प्रार्थना करते हुए दिव्य शक्तियों द्वारा उसकी पूर्ति की भावना की जानी चाहिए।
ॐ अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा। सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा। अग्निर्वर्च्चो ज्योतिर्वर्च्चः स्वाहा। सूर्यो वर्च्चो ज्योतिर्वर्च्चः स्वाहा। ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा॥ -३.९
॥ व्रतधारण॥
अगला क्रम जन्मोत्सव का व्रत धारण है। व्रतों के बन्धन में बँधा हुआ व्यक्ति ही किसी उच्च लक्ष्य की ओर दूर तक अग्रसर हो सकने में समर्थ होता है। मनुष्य को शुभ अवसरों पर भावनात्मक वातावरण में देवताओं की उपस्थिति में- अग्नि की साक्षी में व्रतधारण करने चाहिए और उनका पालन करने के लिए साहस एकत्रित करना चाहिए।
शिक्षण एवं प्रेरणा- दुष्प्रवृत्तियों का त्याग, व्रतशीलता का आरम्भिक चरण है। मांसाहार, तम्बाकू, भाँग, गाँजा, अफीम, शराब आदि नशों का सेवन, व्यभिचार, चोरी, बेईमानी, जुआ, फैशन- परस्ती, आलस्य, गन्दगी, क्रोध, चटोरापन, कामुकता, शेखीखोरी, कटुभाषण, ईर्ष्या, द्वेष, कृतघ्नता आदि बुराइयों को जो अपने में विद्यमान हों, उन्हें छोड़ना चाहिए। कितनी ही भयानक कुरीतियाँ हमारे समाज में ऐसी हैं, जो अतीव हेय होते हुए भी धर्म के नाम पर प्रचलित हैं। किसी वंश में जन्म लेने के कारण किसी को नीच मानना, स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा अनधिकारिणी समझना, विवाहों में उन्मादी की तरह पैसे की होली जलाना, दहेज, मृत्युभोज, देवताओं के नाम पर पशुबलि, भूत- पलीत, टोना- टोटका, अन्धविश्वास, शरीर को छेदना या गोदना, गाली- गलौज की असभ्यता, बाल- विवाह, अनमेल विवाह, श्रम का तिरस्कार आदि अनेक सामाजिक कुरीतियाँ हमारे समाज में प्रचलित हैं। इन मान्यताओं के विरुद्ध- विद्रोह करने की आवश्यकता है। इन्हें तो स्वयं हमें ही त्यागना चाहिए। इसी प्रकार अनेक बुराइयाँ हो सकती हैं। उनमें से जो अपने में हों, उन्हें संकल्पपूर्वक त्यागने के लिए जन्मदिन का शुभ अवसर बहुत ही उत्तम है।
यदि इस प्रकार की बुराइयाँ न हों, उन्हें पहले से ही छोड़ा जा चुका हो, तो अपने में सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन का व्रत इस अवसर पर ग्रहण करना चाहिए। रात को जल्दी सोना, प्रातः जल्दी उठना, व्यायाम, नियमित उपासना, स्वाध्याय, गुरुजनों का चरण स्पर्शपूर्वक अभिवादन, सादगी, मितव्ययिता, प्रसन्न रहने की आदत, मधुर भाषण, दिनचर्या बनाकर समय क्षेप, निरालस्य, परिवार निर्माण के लिए नियमित समय देना, लोकसेवा के लिए समयदान आदि अनेक सत्कार्य ऐसे हो सकते हैं, जो अपने गुण, कर्म, स्वभाव में सम्मिलित किये जाने चाहिए। इस प्रकार कम से कम एक अच्छी आदत अपनाने का सङ्कल्प लेना चाहिए और कम से कम एक बुराई भी उसी अवसर पर छोड़ देना चाहिए। ये दुष्प्रवृत्तियाँ छोड़ने और सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने का क्रम यदि हर जन्मदिन पर चलता रहे, तो कुछ ही वर्षों में उसका परिणाम व्यक्तित्व में कायाकल्प की तरह दृष्टिगोचर होने लगेगा और जन्मोत्सवों का क्रम जीवन में दैवी वरदान की तरह मंगलमय परिणाम प्रस्तुत कर सकेगा।
क्रिया और भावना- लिये गये व्रतों का उल्लेख किया जाए। उनका स्मरण रखते हुए व्रतपति देवशक्तियों से उनकी वृत्ति एवं शक्ति सहित मार्गदर्शन की याचना करें। दोनों हाथ उठाकर व्रतधारण के मन्त्र बोलें-
ॐ अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्।
तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥१॥
ॐ वायो व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्।
तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥२॥
ॐ सूर्य व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्।
तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥३॥
ॐ चन्द्र व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्।
तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥ ४॥
ॐ व्रतानां व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्।
तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥ ५॥ - मं० ब्रा० १.६.९- १३
॥ विशेष- आहुति॥
व्रत धारण के बाद यज्ञादि क्रम पूरे किये जाएँ। गायत्री मन्त्र की आहुति के बाद मृत्युञ्जय मन्त्र की आहुतियाँ दी जाएँ। यदि केवल दीपयज्ञ किया गया हो, तो सभी लोग ५ बार मृत्युञ्जय मन्त्र का सस्वर पाठ करें।
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे, सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्, मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् स्वाहा।
इदं महामृत्युञ्जयाय इदं न मम। -३.६०
इसके बाद यज्ञ के शेष उपचार पूरे करके आशीर्वाद आदि के साथ समापन किया जाए।
*****
॥ पर्व प्रकरण॥
पर्व आयोजन क्यों? कैसे?
भारतीय संस्कृति को देवसंस्कृति भी कहा जाता है, इसमें मनुष्य को, मनुष्यता को, आदर्शनिष्ठ बनाये रखने के लिए हर स्तर पर प्रखर दर्शन और विवेक संगत परम्पराओं का ऐसा क्रम बनाया गया है कि मनुष्य सहज रूप में ही प्रगति तथा सद्गति का अधिकारी बन सके।
मनुष्य का हित मात्र जानकारियों से नहीं होता, वह बार- बार भूलता है और याद रहते हुए भी अनेक बातें चरितार्थ नहीं कर पाता। इसके लिए सतत याद रखने या नियमित रूप से अभ्यास करने के लिए व्यवस्था बनाई गयी है। व्यक्तिगत स्तर पर उपासना, साधना, स्वाध्याय, मनन, चिन्तन के क्रम बनाये गये। पारिवारिक स्तर पर श्रेष्ठ गुणों के विकास तथा उत्तरदायित्वों के पालन का वातावरण बनाये रखने के लिए षोडश संस्कारों का ताना- बाना बुना गया। इसके प्रभाव से परिवार व्यक्तिगत स्वार्थ के साधन नहीं- श्रेय साधना के आश्रम- तपोवन बन गये। परिवार भाव भी रक्तसम्बन्धों की सीमा से आगे बढ़ते हुए ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ तक विकसित होता चला गया।
व्यक्ति और परिवार के बाद विश्व की तीसरी इकाई है- समाज। व्यक्तिगत दृष्टिकोण परिष्कृत करने के लिए पूजा- उपासना, पारिवारिक रीति- नीति को उत्कृष्ट बनाये रखने के लिए संस्कार प्रक्रिया है। ठीक इसी प्रकार समाज को समुन्नत- सुविकसित बनाने के लिए सामूहिकता, ईमानदारी, कर्त्तव्यनिष्ठा, नागरिकता, परमार्थ- परायणता, देशभक्ति, लोकमंगल जैसी सत्प्रवृत्तियाँ विकसित करनी पड़ती हैं। उन्हें सुस्थिर रखना होता है, यह भी बार- बार स्मरण दिलाते रहने वाला प्रसङ्ग है- इस प्रयोजन के लिए पर्व- त्यौहार मनाये जाते हैं, इन्हें सामाजिक संस्कार प्रक्रिया ही समझना चाहिए। साधना से व्यक्तित्व, संस्कारों से परिवार और पर्वों से समाज का स्तर ऊँचा बनाने की पद्धति दूरदर्शिता पूर्ण है, इसे हजारों- लाखों वर्षों तक आजमाया जाता रहा है। प्राचीन भारत की महानता का श्रेय इन छोटी- छोटी सत्प्रवृत्तियाँ उत्पन्न करने वाली धर्म के नाम पर प्रचलित विधि व्यवस्थाओं को ही है।
विश्व का आध्यात्मिक नेतृत्व भारत करेगा, यह एक सुनिश्चित तथ्य है। इस उत्तरदायित्व को वहन करने के लिए उसे अपनी आत्मा जगानी पड़ेगी, यह जागरण मात्र लेखनी- वाणी से ही सम्पन्न न हो सकेगा। वरन् इसमें धार्मिक, आध्यात्मिक उन क्रिया- कलापों को भी सम्मिलित करना पड़ेगा, जो परोक्ष रूप से व्यक्ति, परिवार और समाज को देव भूमिका में पहुँचाने और स्वर्गीय वातावरण का सृजन करने में सर्वथा समर्थ हैं। उपर्युक्त त्रिविध क्रिया- कलापों को, उपर्युक्त संस्कार प्रक्रिया को प्राचीन भारत की तरह अब पुनः प्रचलित किया जाना है, ताकि भूले हुए आदर्शों और कर्त्तव्यों को हर क्षेत्र में भली प्रकार स्वीकार- शिरोधार्य किया जा सके। नव निर्माण के लिए धर्मतन्त्र की यह क्रिया पद्धति कितनी महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी, इसे कल हर कोई प्रत्यक्ष देखेगा।
पर्वों की रचना इसी दृष्टि से हुई कि प्राचीनकाल की महान् घटनाओं एवं महान् प्रेरणाओं का प्रकाश जनमानस में भावनात्मक एवं सामूहिक वातावरण के साथ उत्पन्न किया जाए। इसके लिए कितने ही पर्व- त्यौहार प्रचलित हैं। उनमें से देश- काल के अनुसार जब, जहाँ, जिन पर्वों को उपयुक्त माना जाए, उन्हीं के माध्यम से सामाजिक चेतना को परिष्कृत करते रहने के लिए पर्वायोजनों की व्यवस्था बनायी जा सकती है।
आज की स्थिति में पर्व आयोजनों की संख्या सीमित ही रखी जानी चाहिए। बहुत जल्दी- जल्दी किये जाने वाले आयोजन भार लगते हैं, उनसे सामूहिकता के संस्कारों में शिथिलता आने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। इसलिए प्रयास यह करना चाहिए कि लगभग दो माह के अन्तर से कोई न कोई सामूहिक पर्वायोजन होते रहें। इसे सामाजिक चेतना की, सामूहिक उल्लास की तथा जीवन्तता की कसौटी मान कर चलना चाहिए। प्राणवान् व्यक्तियों को प्रयास करना चाहिए कि अपने क्षेत्र में इस प्रकार के पर्वायोजन होते रहें।
॥ उपयुक्त पर्वों का चुनाव॥
हिन्दू धर्म में प्रचलित पर्वों की संख्या बहुत अधिक है। सामूहिक पर्वायोजन के लिए ऐसे ही पर्व चुने जाने चाहिए, जिनका महत्त्व भी बहुत माना जाता हो और उनमें प्रेरणाएँ भी सशक्त उभारी जा सकती हों, ऐसे पर्वों को भी क्षेत्र- क्षेत्र के अन्तर से कहीं कम, कहीं अधिक माना जाता हो और उन्हें सामूहिक रूप से मनाया जाना सम्भव हो, उन्हें मनाने का क्रम बना लिया जाना चाहिए। वर्ष में ४- ६ बार हर्षोल्लास के वातावरण में सामूहिक पर्व मनाने की व्यवस्था बनायी जा सके, तो क्षेत्र में सामाजिक चेतना को जीवन्त और प्रगतिशील बनाये रखने में बड़ी सुविधा मिल सकती है। इस प्रकरण में कुछ सर्वमान्य महत्त्वपूर्ण पर्व मनाने की पद्धतियाँ दी गयी हैं। अपनी परिस्थितियों और क्षमता को देखते हुए यह निर्णय विवेकपूर्वक किया जा सकता है कि कौन- कौन से कितने पर्व सामूहिक रूप से मनाये जाएँ?
जहाँ गायत्री शक्तिपीठें- प्रज्ञापीठें अथवा गायत्री परिवार, युग निर्माण अभियान की सक्रिय शाखाएँ हैं, वहाँ चैत्र और आश्विन नवरात्रों में सामूहिक साधना क्रम चलाने का प्रयास तो अनिवार्य रूप से करना ही चाहिए। पूर्णाहुति के साथ रामनवमी पर्व को भी जोड़ा जा सकता है। आश्विन नवरात्र के साथ दशहरा पर्व जुड़ा रहता है। उसमें साधना अनुष्ठान की व्यवस्था को नौ दिन तक और बनाये रखकर, थोड़ा- सा हेर- फेर करके ही यह पर्व भी साधना शृङ्खला के अन्तर्गत ही मनाया जा सकता है। नवरात्र साधनाओं के साथ पर्वों को जोड़ना आवश्यक नहीं है, किन्तु बगैर किसी अतिरिक्त दबाव के नाम मात्र का समय और श्रम जोड़कर ये पर्व उस शृङ्खला में जोड़े जा सकें, तो अच्छा ही है।
इस पुस्तक में जिन पर्वों के विधान दिये गये हैं, वे इस प्रकार हैं- १. चैत्र नवरात्र- चैत्र शुक्ल १ से चैत्र शुक्ल ९ तक। २. श्रीरामनवमी- चैत्र शुक्ल नवमी। ३. गायत्री जयन्ती- गङ्गा दशहरा- ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, ४- गुरु पूर्णिमा- आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा। ५. श्रावणी- रक्षाबन्धन श्रावण शुक्ल पूर्णिमा। ६. श्रीकृष्ण जन्माष्टमी- भाद्रपद कृष्ण अष्टमी। ७. सर्वपितृ अमावस्या- आश्विन की अमावस्या। ८. शारदीय नवरात्र- आश्विन शुक्ल १ से ९ तक। ९. विजयादशमी- (दशहरा) आश्विन शुक्ल दशमी। १०. दीपावली- कार्तिक कृष्ण अमावस्या। ११. गीता जयन्ती- मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी। १२. वसन्त पंचमी- माघ शुक्ल पंचमी। १३. शिवरात्रि- फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी। १४. होली- फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा।
इनमें दोनों नवरात्रों के विधि- विधान एक जैसे ही हैं। कृष्ण जन्माष्टमी तथा गीता जयन्ती दोनों के विधान एक जैसे हैं। प्रेरणा की दृष्टि से दोनों में से कोई एक पर्व मना लेना पर्याप्त मान लेना चाहिए। यह सभी पर्व मनाये जाएँ अथवा इनके अतिरिक्त कोई अन्य पर्व सामूहिक रूप से न मनाएँ, ऐसा कोई नियम- बन्धन नहीं है। अपने क्षेत्र में प्रचलित महत्ता तथा आयोजन की व्यावहारिक सुविधा, सम्भावना को लक्ष्य करके इनमें से उपयुक्त पर्वों को सामूहिक आयोजन का रूप देने के लिए चुना जा सकता है।
कुछ क्षेत्रों में इनके अतिरिक्त कई पर्वों को बहुत अधिक मान्यता प्राप्त है, उन्हें भी सामाजिक चेतना जागरण के लिए सामूहिक आयोजन का रूप दिया जा सकता है। उन सब के स्वतन्त्र विधान देने से तो पुस्तक का कलेवर बहुत बढ़ जाता, इसलिए संयम से काम लेना पड़ा, परन्तु जिस प्रेरणाप्रद ढंग से इन पर्वों को मनाने का क्रम बनाया गया है, उसी ढंग से अन्य किसी पर्व को मनाने की विधि- व्यवस्था बनाई जा सकती है। पर्वायोजन का सर्वसुलभ प्रारूप नीचे दिया जा रहा है। इस पुस्तक में जिन पर्वों के विधि- विधान दिये गये हैं, वे भी इसी अनुशासन के अन्तर्गत हैं।
॥ अनेक पर्वों का एक प्रारूप॥
प्रारम्भ में ही उल्लेख किया जा चुका है कि पर्वों की परिपाटी समाज में प्रेरणा और उल्लास के जागरण की दृष्टि से आवश्यक है। उन्हें मनाने के विधान भी इसी ढंग से बनाये गये हैं। जिनसे अभीष्ट उद्देश्य पूरा हो सके। किसी पर्व के लिए विधि- विधान का क्रम इस प्रकार रहता है-
* पर्व के प्रमुख देवता के चित्र सहित पूजन मंच सजाया जाए। इसके दोनों ओर कलश एवं दीपक स्थापित किये जाएँ।
* पर्वायोजन के साथ गायत्री यज्ञ अवश्य जोड़कर रखना चाहिए। उससे स्थूल तथा सूक्ष्म वातावरण में जो प्रभाव पैदा होता है, वह अन्य प्रकार सम्भव नहीं होता। यदि किसी कारण यज्ञ असम्भव सा लगे, तो दीपयज्ञ करके काम चला लेना चाहिए।
* यज्ञ करना हो, तो देवमंच के सामने यज्ञ वेदी बनाई जाए। यदि उठाकर रखने योग्य (पोर्टेबिल) यज्ञकुण्ड है, तो वह भी रखा जा सकता है। वेदी का धरातल देवमंच से तो नीचा हो, किन्तु अन्य लोगों के बैठने के धरातल से ऊँचा होना चाहिए।
* यदि यज्ञ करने की स्थिति नहीं है, तो वेदी के स्थान पर सजाई हुई चौकियों पर थालियों में दीपयज्ञ के लिए २४ दीपक रखे जाने चाहिए।
* श्रद्धालु आगन्तुकों को हाथ- पैर धुलाकर पंक्तिबद्ध बिठाया जाए।
* निर्धारित समय पर पहले युग संगीत, भजन, कीर्तन का क्रम प्रारम्भ कर दिया जाए। इससे वातावरण में सरसता और गम्भीरता आती है।
* मंच पर पूजन तथा यज्ञ के लिए प्रतिनिधि रूप में जहाँ तक हो सके, कुमारी कन्याओं को बिठाया जाए। वे कन्याएँ पीले वस्त्र पहने हों तथा पूजन- यज्ञ आदि के क्रम, अनुशासन से भली प्रकार परिचित, अभ्यस्त हों, उनकी संख्या दो से पाँच तक हो सकती है।
* संगीत के बाद संक्षेप में पर्व के उद्देश्य और अनुशासन पर सबका ध्यान आकर्षित किया जाए। यह गिने- चुने शब्दों में हो। कहीं भी भाषण जैसा लम्बा क्रम न चले। विभिन्न कर्मकाण्डों के साथ खण्ड- खण्ड में संक्षिप्त एवं सारगर्भित प्रेरणाएँ उभारने का क्रम चलाया जाना चाहिए।
* कर्मकाण्ड प्रारम्भ करने से पूर्व सबसे सामूहिक सस्वर गायत्री मन्त्र का उच्चारण एक बार कराया जाए।
* पवित्रीकरण मन्त्र के साथ स्वयंसेवक कलश हाथ में लेकर पुष्प या पल्लवों से सबके ऊपर जल का सिंचन करें। कलशों की संख्या उपस्थिति के अनुरूप कम या अधिक निर्धारित कर लेनी चाहिए।
* प्रतिनिधियों- कन्याओं से पूरे षट्कर्म कराये जाएँ।
* सभी उपस्थित जनों के हाथ में अक्षत, पुष्प पहुँचा दिये जाएँ। इन्हें वे श्रद्धापूर्वक हाथ में लिये रहें, पूजन का भाव बनाये रहें।
* चन्दन धारण के क्रम में सभी के मस्तक पर चन्दन लगाया जाए। घिसा हुआ चन्दन अथवा गोपी चन्दन (पीला रंग मिला खड़िया मिट्टी का गाढ़ा घोल) प्रयुक्त किया जा सकता है। रोली का भी प्रयोग हो सकता है। इनके साथ थोड़ा कपूर मिलाकर रखा जाए, तो इसकी सुगन्धि और शीतलता श्रद्धा संचार में सहायक सिद्ध होती है।
* कलश पूजन से रक्षाविधान तक का क्रम पूरा किया जाए, समय कम हो, तो विवेकपूर्वक कुछ अंश घटाये जा सकते हैं।
* पर्व देवता के विशेष पूजन के लिए भावनाएँ उभारी जाएँ। उनकी विशेषताओं पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जाए। प्रेरणा उभारने के लिए देवता- उनके अङ्ग, वाहन, आयुध, आभूषण, सहयोगी आदि का भी उल्लेख किया जा सकता है। एक- एक का उल्लेख करें और उनका आवाहन किया जाए। इससे प्रेरणा और श्रद्धा का मिला- जुला वातावरण बन जाता है।
* आवाहन, नमन के बाद उन सबका संयुक्त षोडशोपचार पूजन पुरुष सूक्त से किया जाए।
* पूजन पूरा होने पर उनके आदर्शों के अनुरूप कोई छोटा- सा ही सही, किन्तु सुनिश्चित नियम धारण करने की प्रेरणा देते हुए सङ्कल्प बोला जाए।
* सङ्कल्प के बाद प्रारम्भ में दिये गये पुष्प- अक्षत आदि एकत्र करके देवमंच पर अर्पित कर दिये जाएँ।
* सङ्कल्प को धारण किये रह सकने की सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए यजन (यज्ञ) करने की महत्ता बतलाते हुए यज्ञ या दीपयज्ञ सम्पन्न कराया जाए। यज्ञ किया जाए, तो यज्ञ आरती के साथ पर्वदेवता की आरती भी करें। दीपयज्ञ करें, तो उसी के बाद पर्वदेवता की आरती करें।
* अन्त में विसर्जन, जयघोष आदि कराया जाए। युग निर्माण सत्संकल्प दुहराया जाए। प्रसाद वितरण के साथ क्रम समाप्त किया जाए।
यह क्रम प्रत्येक पर्व के लिए एक जैसा है। पर्वदेवता के अनुरूप उनके पूरक अङ्ग, आयुध- आभूषण, वाहन आदि का ही अन्तर पर्व- पर्व में पड़ता है। पर्व प्रसाद सङ्कल्प में भी गुण विशेष धारण करने का क्रम बदलता है। जिन पर्वों के विधान यहाँ दिये गये हैं, उनके तो हैं ही, जिनके नहीं हैं, उन्हें मनाना हो, तो विवेकपूर्वक उनके लिए सामान्य प्रकरण, मङ्गलाचरण आदि से मन्त्र चुनकर लिये जा सकते हैं, इस प्रकार एक ही अनुशासन में नवीनता, रोचकता, विविधता का समावेश किया जाना सम्भव है।
॥ पर्व व्यवस्था सूत्र- संकेत॥
जो पर्व मनाया जाना है, उसके बारे में लगभग एक माह पूर्व निर्णय कर लेना चाहिए। परिजन जहाँ- तहाँ उत्साहवर्धक चर्चा करते रहें, अपने परिचितों से उसमें शामिल होने का आग्रह भी करते रहें। सप्ताह या ३- ४ दिन पूर्व पुरुष एवं महिला टोलियाँ पीले चावल घर- घर देकर आमन्त्रण दें। आवश्यक समझा जाए, तो छोटे पर्चे भी छपवाकर बाँटे जा सकते हैं। पर्वायोजन का समय ऐसा रखा जाए, जब नर- नारियों को उसमें सम्मिलित होने में कठिनाई न हो। आयोजन स्थल पर सुन्दर मण्डप सजाकर पर्व देवता की झाँकी सजाई जाए, आमन्त्रित व्यक्तियों को क्रमबद्ध ढंग से बिठाया जाए।
पर्व पूजन के लिए जितने श्रद्धालु नर- नारियों के उपस्थित होने की सम्भावना हो, उनके लिए क्रमबद्ध ढंग से बैठने योग्य स्थान आयोजन स्थल पर होना चाहिए। स्थल का चयन अथवा व्यक्तियों का आमन्त्रण उसी हिसाब से किया जाना चाहिए। अभ्यागतों के जूते- चप्पल उतरवाने, उन्हें व्यवस्थित रखने तथा सुरक्षा के लिए स्वयंसेवक नियुक्त रखना चाहिए।
पुरुषों, महिलाओं को क्रमबद्ध ढंग से बिठाने के लिए अनुभवी और शालीन परिजन नियुक्त किये जाएँ। बच्चों की आदत आगे घुसने की होती है, उन्हें काबू में रखा जाए। छोटे बच्चों वाली महिलाएँ एक ओर बिठा ली जाएँ, ताकि बच्चे गड़बड़ करें, तो उन्हें उठकर- जाने में कठिनाई न हो। पर्व पूजन के समय सबके पास अक्षत, पुष्प पहुँचाने, तिलक लगाने, सिंचन करने आदि के लिए सधे हुए परिजनों को पहले से नियुक्त करके रखा जाए।
पर्वायोजन पूजन से सम्बन्धित सभी वस्तुएँ समय से पूर्व एकत्र कर लेनी चाहिए तथा उन्हें एक बार जाँच करके यथास्थान रख देनी चाहिए, ताकि समय पर विसंगतियाँ न उठें। समय का ध्यान रखा जाए। पर्व पूजन का समय निर्धारित करते समय भली प्रकार सोच- समझ लें कि कौन- सा समय लोगों के लिए अनुकूल पड़ेगा। सुविधाजनक समय घोषित करने के बाद समय का अनुशासन पाला जाए। कार्यक्रम समय पर आरम्भ कर दिया जाए तथा समय पर समाप्त भी कर दिया जाए। इससे लोगों का समय नष्ट नहीं होगा और भावी आयोजनों के लिए जन उत्साह बढ़ेगा।
वातावरण को रमणीक, पवित्र बनाने का प्रयास करें। वन्दनवार सज्जा, झण्डियाँ, बैनर आदि लगाये जाएँ। शान्ति बनाये रखकर, अगरबत्तियाँ लगाकर वातावरण में श्रद्धा का संचार किया जाए। इस प्रकार के छोटे- छोटे उपचारों से वातावरण में भव्यता भर जाती है। आयोजन को खर्चीला न बनाने का ध्यान रखा जाए। प्रसाद में पंचामृत, चीनी की गोलियाँ (चिनौरी, चिरौंजी दाना) पँजीरी जैसी कोई एक ही सस्ती वस्तु रखी जाए।
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जन्मदिन दिखने में सामान्य; किन्तु प्रभाव में असामान्य संस्कार है। किसी वर्ग, किसी भी स्तर के व्यक्तियों के बीच इसे लोकप्रिय बनाया जा सकता है। एक इसी संस्कार के माध्यम से मनुष्य की चेतना को झकझोर कर सदाशयता से जोड़ देने का काम बड़ी कुशलता से सम्पन्न किया जा सकता है। सभी सृजन शिल्पियों को कटिबद्ध होकर इसे लोकप्रिय बनाना चाहिए।
॥ विशेष व्यवस्था॥
जन्मदिन संस्कार यज्ञ के साथ ही मनाया जाना चाहिए। अन्तःकरण को प्रभावित करने की यज्ञ की अपनी क्षमता विशेष है; परन्तु चूँकि इसे जन- जन का आन्दोलन बनाना है, इसलिए यदि परिस्थितियाँ अनुकूल न हों, तो केवल दीपयज्ञ करके भी जन्मदिन संस्कार कराये जा सकते हैं। नीचे लिखी व्यवस्थाएँ पहले से बनाकर रखी जाएँ।
पंच तत्त्व पूजन के लिए चावल की पाँच छोटी ढेरियाँ पूजन वेदी पर बना देनी चाहिए। पाँच तत्त्वों के लिए पाँच रंग के चावल भी रँगकर अलग- अलग छोटी डिबियों या पुड़ियों में रखे जा सकते हैं। उनकी रंगीन ढेरियाँ लगा देने से शोभा और भी अच्छी बन जाती है। तत्त्वों के क्रम और रङ्ग इस प्रकार हैं- १. पृथ्वी- हरा, २.वरुण- काला, ३. अग्नि- लाल, ४. वायु- पीला और ५. आकाश- सफेद। इसी क्रम से ढेरियाँ लगाकर रखनी चाहिए।
दीपदान- जन्मोत्सव के लिए दीपक बनाकर रखें जाएँ। जितने वर्ष पूरे किये हों, उतने छोटे दीपक तथा नये वर्ष का थोड़ा बड़ा दीपक बनाया जाए। दीपक आटे के भी बनाये जा सकते हैं और मिट्टी के भी रखे जा सकते हैं। अभाव में मोमबत्तियों के टुकड़े भी प्रयुक्त किये जा सकते हैं, उन्हें थाली या ट्रे में सुन्दर आकारों में सजाकर रखना चाहिए।
व्रत धारण में क्या व्रत लिया जाना है? इसकी चर्चा पहले से ही कर लेनी चाहिए।
॥ विशेष कर्मकाण्ड॥
अन्य संस्कारों की तरह मंगलाचरण से रक्षाविधान तक के उपचार पूरे किये जाएँ। इसके बाद क्रमशः ये कर्मकाण्ड कराये जाएँ।
॥ पंचतत्त्व पूजन॥
शिक्षण एवं प्रेरणा- शरीर पंच तत्त्व से बना है। इस संसार का प्रत्येक पदार्थ मिट्टी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन पाँच तत्त्वों से बना है। इसलिए इस सृष्टि के आधारभूत ये पाँच ही दिव्य तत्त्व देवता हैं। उपकारी के प्रति कृतज्ञता की भावनाओं से अन्तःकरण ओत- प्रोत रखना भारतीय संस्कृति का अविच्छिन्न अङ्ग है। हम जड़ और चेतन सभी उपकारियों के प्रति कृतज्ञता- भावना की अभिव्यक्ति के लिए पूजा- प्रक्रिया का अवलम्बन लेते हैं। पूजा से इन जड़ पदार्थों, अदृश्य शक्तियों, स्वर्गीय आत्माओं का भले ही कोई लाभ न होता हो, पर हमारी कृतज्ञता का प्रसुप्त भाव जाग्रत् होने से हमारी आन्तरिक उत्कृष्टता बढ़ती ही है। पंच तत्त्वों का पूजन विश्व के आधार स्तम्भ होने की महत्ता के निमित्त किया जाता है।
इस पूजन का दूसरा उद्देश्य यह है कि इन पाँचों के सदुपयोग का ध्यान रखा जाए। शरीर जिन तत्त्वों से बना है, उनका यदि सही रीति- नीति से उपयोग करते रहा जाए, तो कभी भी अस्वस्थ होने का अवसर न आए। पृथ्वी से उत्पन्न अन्न का कितना, कब और कैसे उपयोग किया जाए, इसका ध्यान रखें तो पेट खराब न हो। यदि आहार की सात्त्विकता, मात्रा एवं व्यवस्था का ध्यान रखा जाए, तो न अपच हो और न किसी रोग की सम्भावना बने। जल की स्वच्छता एवं उचित मात्रा में सेवन करने का, विधिवत् स्नान का, वस्त्र, बर्तन, घर आदि की सफाई, जल के उचित प्रयोग का ध्यान रखा जाए, तो समग्र स्वच्छता बनी रहे, शरीर, मन तथा वातावरण सभी कुछ स्वच्छ रहे। अग्नि की उपयोगिता सूर्य ताप को शरीर, वस्त्र, घर आदि में पूरी तरह प्रयोग करने में है। भोजन में अग्नि का सदुपयोग भाप द्वारा पकाये जाने में है। शरीर के भीतर अग्नि ब्रह्मचर्य द्वारा सुरक्षित रहती एवं बढ़ती है। स्वच्छ वायु का सेवन, खुली जगहों में निवास, प्रातः टहलने जाना, प्राणायाम, गन्दगी से वायु को दूषित न होने देना आदि वायु की प्रतिष्ठा है। आकाश की पोल ईथर में, विचार, शब्द आदि भरे पड़े हैं, उनका मानसिक एवं भावना क्षेत्र में इस प्रकार उपयोग किया जाए कि हमारी अन्तःचेतना उत्कृष्ट स्तर की ओर चले, यह जानना, समझना आकाश तत्त्व का उपयोग है। इसी सदुपयोग के द्वारा हम सुख- शान्ति और समृद्धि का पथ- प्रशस्त कर सकते हैं। पंच तत्त्वों का पूजन, हमारा ध्यान इनके सदुपयोग की ओर आकर्षित करता है।
तीसरी प्रेरणा यह है कि शरीर पंच तत्त्वों का बना होने के कारण जरा, मृत्यु से बँधा हुआ है। यह एक वाहन और माध्यम है। जड़ होने के कारण इसका महत्त्व कम है। इसे एक उपकरण मात्र माना जाए। शरीर की सुख- सुविधा को इतना महत्त्व न दिया जाए कि आत्मा के स्वार्थ पिछड़ जाएँ। आत्मा की उन्नति के लिए पंच तत्त्वों से बना यह शरीर मिलता है, इसलिए उसका सदुपयोग निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति के लिए ही किया जाए।
क्रिया और भावना- प्रत्येक तत्त्व के पूजन के पूर्व उसकी प्रेरणाएँ उभारी जाएँ। हाथ में अक्षत, पुष्प देकर मन्त्रोच्चार के साथ सम्बन्धित प्रतीक पर अर्पित कराएँ। भावना की जाए कि सृष्टि रचना के इन घटकों के अन्दर जो सूक्ष्म संस्कार हैं, वे पूजन के द्वारा साधक को प्राप्त हो रहे हैं।
॥ पृथ्वी॥
ॐ मही द्यौः पृथिवी च न ऽ, इमं यज्ञं मिमिक्षताम्। पिपृतां नो भरीमभिः। ॐ पृथिव्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि,पूजयामि, ध्यायामि। - ८.३२
॥ वरुण॥
ॐ तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानः, तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः। अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुश œ, समानऽ आयुः प्रमोषीः॥
ॐ वरुणाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि। - १८.४९
॥ अग्नि॥
ॐ त्वं नो ऽ अग्ने वरुणस्य विद्वान्, देवस्य हेडोऽ अवयासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो, विश्वा द्वेषाœ सि प्रमुमुग्ध्यस्मत्। ॐ अग्नये नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि। - २१.३
॥ वायु॥
ॐ आ नो नियुद्भिः शतिनीभिरध्वर œ, सहस्रिणीभिरुप याहि यज्ञम्। वायो अस्मिन्त्सवने मादयस्व, यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः। ॐ वायवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि। -२७.२८
॥ आकाश॥
ॐ या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती। तया यज्ञं मिमिक्षतम्। उपयामगृहीतोऽस्यश्विभ्यां, त्वैष ते योनिर्माध्वीभ्यां त्वा।
ॐ आकाशाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि। -७.११
॥ दीपदान॥
शिक्षण और प्रेरणा- जन्मोत्सव का दूसरा कर्मकाण्ड दीपदान है। जितने वर्ष की आयु हो, उतने दीपक एक सुसज्जित चौकी पर बनाकर सजाये जाते हैं। आटे के ऊपर बत्ती वाले घृत दीप एक थाली में इस तरह सजाकर रखे जा सकते हैं कि उनका ॐ, स्वस्तिक अथवा कोई और सुन्दर रूप बन जाए। इन दीपकों के आसपास पुष्प, फल, धूपबत्तियाँ, गुलदस्ते या कोई दूसरी चीजें सुन्दरता बढ़ाने के लिए रखी जा सकती हैं। कलात्मक सुरुचि भीतर हो, तो सुसज्जा के अनेक प्रकार बन सकते हैं। इन दीपकों का पूजन किया जाता है।
जीवन का प्रत्येक वर्ष दीपक के समान प्रकाशवान् रहे, तभी उसकी सार्थकता है। दीपक स्वयं तिल- तिल करके जलता है और अन्धकार में प्रकाश उत्पन्न करता है, इस रीति- नीति का प्रतीक होने के कारण ही दीपक को प्रत्येक मांगलिक कार्य में पूजा जाता है एवं उसे प्रधानता मिलती है। हमारे जीवन की रीति- नीति भी ऐसी ही होनी चाहिए।
दीपक को ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। अज्ञान को अन्धकार व ज्ञान को प्रकाश की उपमा दी जाती है। जिस सीमा तक हमारा मस्तिष्क या हृदय अज्ञानग्रस्त है, उतना ही हम अँधेरे में भटक रहे हैं। मस्तिष्क का अन्धकार दूर करने के लिए हमें शिक्षा और हृदय का अन्धकार दूर करने के लिए विद्या- ऋतम्भरा ज्ञान का अधिकाधिक मात्रा में संग्रह करना चाहिए। आत्मज्ञान का वैसा दीपक हमें अन्तःकरण में जलाना चाहिए, जैसा रामायण के उत्तरकाण्ड में विस्तारपूर्वक बताया गया है। दीपदान में ऐसी ही अनेक प्रेरणाएँ सन्निहित हैं।
क्रिया और भावना- थाली में सजाये दीपकों को क्रमशः प्रज्वलित किया जाए। उसके साथ सस्वर गायत्री मन्त्र का पाठ चलाएँ। यदि यज्ञ न करके केवल दीपयज्ञ ही करना हो, तो गायत्री मन्त्र के साथ स्वाहा लगाकर दीपक जलाने की प्रक्रिया को आहुति मानते हुए यज्ञीय वातावरण बनाया जाए।
भावना की जाए कि मनुष्य कितने भी कम साधनों में जी रहा हो, छोटे से नाचीज दीपक की तरह सबका प्रिय प्रकाशदाता बन सकता है। छोटी- सी पात्रता, थोड़ा- सा स्नेह और जरा- सी वर्तिका (लगन) को ठीक क्रम से सजाकर ज्योतिदान प्राप्त कर सकता है। ज्योतित जीवन की कामना, प्रार्थना करते हुए दिव्य शक्तियों द्वारा उसकी पूर्ति की भावना की जानी चाहिए।
ॐ अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा। सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा। अग्निर्वर्च्चो ज्योतिर्वर्च्चः स्वाहा। सूर्यो वर्च्चो ज्योतिर्वर्च्चः स्वाहा। ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा॥ -३.९
॥ व्रतधारण॥
अगला क्रम जन्मोत्सव का व्रत धारण है। व्रतों के बन्धन में बँधा हुआ व्यक्ति ही किसी उच्च लक्ष्य की ओर दूर तक अग्रसर हो सकने में समर्थ होता है। मनुष्य को शुभ अवसरों पर भावनात्मक वातावरण में देवताओं की उपस्थिति में- अग्नि की साक्षी में व्रतधारण करने चाहिए और उनका पालन करने के लिए साहस एकत्रित करना चाहिए।
शिक्षण एवं प्रेरणा- दुष्प्रवृत्तियों का त्याग, व्रतशीलता का आरम्भिक चरण है। मांसाहार, तम्बाकू, भाँग, गाँजा, अफीम, शराब आदि नशों का सेवन, व्यभिचार, चोरी, बेईमानी, जुआ, फैशन- परस्ती, आलस्य, गन्दगी, क्रोध, चटोरापन, कामुकता, शेखीखोरी, कटुभाषण, ईर्ष्या, द्वेष, कृतघ्नता आदि बुराइयों को जो अपने में विद्यमान हों, उन्हें छोड़ना चाहिए। कितनी ही भयानक कुरीतियाँ हमारे समाज में ऐसी हैं, जो अतीव हेय होते हुए भी धर्म के नाम पर प्रचलित हैं। किसी वंश में जन्म लेने के कारण किसी को नीच मानना, स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा अनधिकारिणी समझना, विवाहों में उन्मादी की तरह पैसे की होली जलाना, दहेज, मृत्युभोज, देवताओं के नाम पर पशुबलि, भूत- पलीत, टोना- टोटका, अन्धविश्वास, शरीर को छेदना या गोदना, गाली- गलौज की असभ्यता, बाल- विवाह, अनमेल विवाह, श्रम का तिरस्कार आदि अनेक सामाजिक कुरीतियाँ हमारे समाज में प्रचलित हैं। इन मान्यताओं के विरुद्ध- विद्रोह करने की आवश्यकता है। इन्हें तो स्वयं हमें ही त्यागना चाहिए। इसी प्रकार अनेक बुराइयाँ हो सकती हैं। उनमें से जो अपने में हों, उन्हें संकल्पपूर्वक त्यागने के लिए जन्मदिन का शुभ अवसर बहुत ही उत्तम है।
यदि इस प्रकार की बुराइयाँ न हों, उन्हें पहले से ही छोड़ा जा चुका हो, तो अपने में सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन का व्रत इस अवसर पर ग्रहण करना चाहिए। रात को जल्दी सोना, प्रातः जल्दी उठना, व्यायाम, नियमित उपासना, स्वाध्याय, गुरुजनों का चरण स्पर्शपूर्वक अभिवादन, सादगी, मितव्ययिता, प्रसन्न रहने की आदत, मधुर भाषण, दिनचर्या बनाकर समय क्षेप, निरालस्य, परिवार निर्माण के लिए नियमित समय देना, लोकसेवा के लिए समयदान आदि अनेक सत्कार्य ऐसे हो सकते हैं, जो अपने गुण, कर्म, स्वभाव में सम्मिलित किये जाने चाहिए। इस प्रकार कम से कम एक अच्छी आदत अपनाने का सङ्कल्प लेना चाहिए और कम से कम एक बुराई भी उसी अवसर पर छोड़ देना चाहिए। ये दुष्प्रवृत्तियाँ छोड़ने और सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने का क्रम यदि हर जन्मदिन पर चलता रहे, तो कुछ ही वर्षों में उसका परिणाम व्यक्तित्व में कायाकल्प की तरह दृष्टिगोचर होने लगेगा और जन्मोत्सवों का क्रम जीवन में दैवी वरदान की तरह मंगलमय परिणाम प्रस्तुत कर सकेगा।
क्रिया और भावना- लिये गये व्रतों का उल्लेख किया जाए। उनका स्मरण रखते हुए व्रतपति देवशक्तियों से उनकी वृत्ति एवं शक्ति सहित मार्गदर्शन की याचना करें। दोनों हाथ उठाकर व्रतधारण के मन्त्र बोलें-
ॐ अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्।
तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥१॥
ॐ वायो व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्।
तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥२॥
ॐ सूर्य व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्।
तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥३॥
ॐ चन्द्र व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्।
तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥ ४॥
ॐ व्रतानां व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्।
तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥ ५॥ - मं० ब्रा० १.६.९- १३
॥ विशेष- आहुति॥
व्रत धारण के बाद यज्ञादि क्रम पूरे किये जाएँ। गायत्री मन्त्र की आहुति के बाद मृत्युञ्जय मन्त्र की आहुतियाँ दी जाएँ। यदि केवल दीपयज्ञ किया गया हो, तो सभी लोग ५ बार मृत्युञ्जय मन्त्र का सस्वर पाठ करें।
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे, सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्, मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् स्वाहा।
इदं महामृत्युञ्जयाय इदं न मम। -३.६०
इसके बाद यज्ञ के शेष उपचार पूरे करके आशीर्वाद आदि के साथ समापन किया जाए।
*****
॥ पर्व प्रकरण॥
पर्व आयोजन क्यों? कैसे?
भारतीय संस्कृति को देवसंस्कृति भी कहा जाता है, इसमें मनुष्य को, मनुष्यता को, आदर्शनिष्ठ बनाये रखने के लिए हर स्तर पर प्रखर दर्शन और विवेक संगत परम्पराओं का ऐसा क्रम बनाया गया है कि मनुष्य सहज रूप में ही प्रगति तथा सद्गति का अधिकारी बन सके।
मनुष्य का हित मात्र जानकारियों से नहीं होता, वह बार- बार भूलता है और याद रहते हुए भी अनेक बातें चरितार्थ नहीं कर पाता। इसके लिए सतत याद रखने या नियमित रूप से अभ्यास करने के लिए व्यवस्था बनाई गयी है। व्यक्तिगत स्तर पर उपासना, साधना, स्वाध्याय, मनन, चिन्तन के क्रम बनाये गये। पारिवारिक स्तर पर श्रेष्ठ गुणों के विकास तथा उत्तरदायित्वों के पालन का वातावरण बनाये रखने के लिए षोडश संस्कारों का ताना- बाना बुना गया। इसके प्रभाव से परिवार व्यक्तिगत स्वार्थ के साधन नहीं- श्रेय साधना के आश्रम- तपोवन बन गये। परिवार भाव भी रक्तसम्बन्धों की सीमा से आगे बढ़ते हुए ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ तक विकसित होता चला गया।
व्यक्ति और परिवार के बाद विश्व की तीसरी इकाई है- समाज। व्यक्तिगत दृष्टिकोण परिष्कृत करने के लिए पूजा- उपासना, पारिवारिक रीति- नीति को उत्कृष्ट बनाये रखने के लिए संस्कार प्रक्रिया है। ठीक इसी प्रकार समाज को समुन्नत- सुविकसित बनाने के लिए सामूहिकता, ईमानदारी, कर्त्तव्यनिष्ठा, नागरिकता, परमार्थ- परायणता, देशभक्ति, लोकमंगल जैसी सत्प्रवृत्तियाँ विकसित करनी पड़ती हैं। उन्हें सुस्थिर रखना होता है, यह भी बार- बार स्मरण दिलाते रहने वाला प्रसङ्ग है- इस प्रयोजन के लिए पर्व- त्यौहार मनाये जाते हैं, इन्हें सामाजिक संस्कार प्रक्रिया ही समझना चाहिए। साधना से व्यक्तित्व, संस्कारों से परिवार और पर्वों से समाज का स्तर ऊँचा बनाने की पद्धति दूरदर्शिता पूर्ण है, इसे हजारों- लाखों वर्षों तक आजमाया जाता रहा है। प्राचीन भारत की महानता का श्रेय इन छोटी- छोटी सत्प्रवृत्तियाँ उत्पन्न करने वाली धर्म के नाम पर प्रचलित विधि व्यवस्थाओं को ही है।
विश्व का आध्यात्मिक नेतृत्व भारत करेगा, यह एक सुनिश्चित तथ्य है। इस उत्तरदायित्व को वहन करने के लिए उसे अपनी आत्मा जगानी पड़ेगी, यह जागरण मात्र लेखनी- वाणी से ही सम्पन्न न हो सकेगा। वरन् इसमें धार्मिक, आध्यात्मिक उन क्रिया- कलापों को भी सम्मिलित करना पड़ेगा, जो परोक्ष रूप से व्यक्ति, परिवार और समाज को देव भूमिका में पहुँचाने और स्वर्गीय वातावरण का सृजन करने में सर्वथा समर्थ हैं। उपर्युक्त त्रिविध क्रिया- कलापों को, उपर्युक्त संस्कार प्रक्रिया को प्राचीन भारत की तरह अब पुनः प्रचलित किया जाना है, ताकि भूले हुए आदर्शों और कर्त्तव्यों को हर क्षेत्र में भली प्रकार स्वीकार- शिरोधार्य किया जा सके। नव निर्माण के लिए धर्मतन्त्र की यह क्रिया पद्धति कितनी महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी, इसे कल हर कोई प्रत्यक्ष देखेगा।
पर्वों की रचना इसी दृष्टि से हुई कि प्राचीनकाल की महान् घटनाओं एवं महान् प्रेरणाओं का प्रकाश जनमानस में भावनात्मक एवं सामूहिक वातावरण के साथ उत्पन्न किया जाए। इसके लिए कितने ही पर्व- त्यौहार प्रचलित हैं। उनमें से देश- काल के अनुसार जब, जहाँ, जिन पर्वों को उपयुक्त माना जाए, उन्हीं के माध्यम से सामाजिक चेतना को परिष्कृत करते रहने के लिए पर्वायोजनों की व्यवस्था बनायी जा सकती है।
आज की स्थिति में पर्व आयोजनों की संख्या सीमित ही रखी जानी चाहिए। बहुत जल्दी- जल्दी किये जाने वाले आयोजन भार लगते हैं, उनसे सामूहिकता के संस्कारों में शिथिलता आने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। इसलिए प्रयास यह करना चाहिए कि लगभग दो माह के अन्तर से कोई न कोई सामूहिक पर्वायोजन होते रहें। इसे सामाजिक चेतना की, सामूहिक उल्लास की तथा जीवन्तता की कसौटी मान कर चलना चाहिए। प्राणवान् व्यक्तियों को प्रयास करना चाहिए कि अपने क्षेत्र में इस प्रकार के पर्वायोजन होते रहें।
॥ उपयुक्त पर्वों का चुनाव॥
हिन्दू धर्म में प्रचलित पर्वों की संख्या बहुत अधिक है। सामूहिक पर्वायोजन के लिए ऐसे ही पर्व चुने जाने चाहिए, जिनका महत्त्व भी बहुत माना जाता हो और उनमें प्रेरणाएँ भी सशक्त उभारी जा सकती हों, ऐसे पर्वों को भी क्षेत्र- क्षेत्र के अन्तर से कहीं कम, कहीं अधिक माना जाता हो और उन्हें सामूहिक रूप से मनाया जाना सम्भव हो, उन्हें मनाने का क्रम बना लिया जाना चाहिए। वर्ष में ४- ६ बार हर्षोल्लास के वातावरण में सामूहिक पर्व मनाने की व्यवस्था बनायी जा सके, तो क्षेत्र में सामाजिक चेतना को जीवन्त और प्रगतिशील बनाये रखने में बड़ी सुविधा मिल सकती है। इस प्रकरण में कुछ सर्वमान्य महत्त्वपूर्ण पर्व मनाने की पद्धतियाँ दी गयी हैं। अपनी परिस्थितियों और क्षमता को देखते हुए यह निर्णय विवेकपूर्वक किया जा सकता है कि कौन- कौन से कितने पर्व सामूहिक रूप से मनाये जाएँ?
जहाँ गायत्री शक्तिपीठें- प्रज्ञापीठें अथवा गायत्री परिवार, युग निर्माण अभियान की सक्रिय शाखाएँ हैं, वहाँ चैत्र और आश्विन नवरात्रों में सामूहिक साधना क्रम चलाने का प्रयास तो अनिवार्य रूप से करना ही चाहिए। पूर्णाहुति के साथ रामनवमी पर्व को भी जोड़ा जा सकता है। आश्विन नवरात्र के साथ दशहरा पर्व जुड़ा रहता है। उसमें साधना अनुष्ठान की व्यवस्था को नौ दिन तक और बनाये रखकर, थोड़ा- सा हेर- फेर करके ही यह पर्व भी साधना शृङ्खला के अन्तर्गत ही मनाया जा सकता है। नवरात्र साधनाओं के साथ पर्वों को जोड़ना आवश्यक नहीं है, किन्तु बगैर किसी अतिरिक्त दबाव के नाम मात्र का समय और श्रम जोड़कर ये पर्व उस शृङ्खला में जोड़े जा सकें, तो अच्छा ही है।
इस पुस्तक में जिन पर्वों के विधान दिये गये हैं, वे इस प्रकार हैं- १. चैत्र नवरात्र- चैत्र शुक्ल १ से चैत्र शुक्ल ९ तक। २. श्रीरामनवमी- चैत्र शुक्ल नवमी। ३. गायत्री जयन्ती- गङ्गा दशहरा- ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, ४- गुरु पूर्णिमा- आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा। ५. श्रावणी- रक्षाबन्धन श्रावण शुक्ल पूर्णिमा। ६. श्रीकृष्ण जन्माष्टमी- भाद्रपद कृष्ण अष्टमी। ७. सर्वपितृ अमावस्या- आश्विन की अमावस्या। ८. शारदीय नवरात्र- आश्विन शुक्ल १ से ९ तक। ९. विजयादशमी- (दशहरा) आश्विन शुक्ल दशमी। १०. दीपावली- कार्तिक कृष्ण अमावस्या। ११. गीता जयन्ती- मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी। १२. वसन्त पंचमी- माघ शुक्ल पंचमी। १३. शिवरात्रि- फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी। १४. होली- फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा।
इनमें दोनों नवरात्रों के विधि- विधान एक जैसे ही हैं। कृष्ण जन्माष्टमी तथा गीता जयन्ती दोनों के विधान एक जैसे हैं। प्रेरणा की दृष्टि से दोनों में से कोई एक पर्व मना लेना पर्याप्त मान लेना चाहिए। यह सभी पर्व मनाये जाएँ अथवा इनके अतिरिक्त कोई अन्य पर्व सामूहिक रूप से न मनाएँ, ऐसा कोई नियम- बन्धन नहीं है। अपने क्षेत्र में प्रचलित महत्ता तथा आयोजन की व्यावहारिक सुविधा, सम्भावना को लक्ष्य करके इनमें से उपयुक्त पर्वों को सामूहिक आयोजन का रूप देने के लिए चुना जा सकता है।
कुछ क्षेत्रों में इनके अतिरिक्त कई पर्वों को बहुत अधिक मान्यता प्राप्त है, उन्हें भी सामाजिक चेतना जागरण के लिए सामूहिक आयोजन का रूप दिया जा सकता है। उन सब के स्वतन्त्र विधान देने से तो पुस्तक का कलेवर बहुत बढ़ जाता, इसलिए संयम से काम लेना पड़ा, परन्तु जिस प्रेरणाप्रद ढंग से इन पर्वों को मनाने का क्रम बनाया गया है, उसी ढंग से अन्य किसी पर्व को मनाने की विधि- व्यवस्था बनाई जा सकती है। पर्वायोजन का सर्वसुलभ प्रारूप नीचे दिया जा रहा है। इस पुस्तक में जिन पर्वों के विधि- विधान दिये गये हैं, वे भी इसी अनुशासन के अन्तर्गत हैं।
॥ अनेक पर्वों का एक प्रारूप॥
प्रारम्भ में ही उल्लेख किया जा चुका है कि पर्वों की परिपाटी समाज में प्रेरणा और उल्लास के जागरण की दृष्टि से आवश्यक है। उन्हें मनाने के विधान भी इसी ढंग से बनाये गये हैं। जिनसे अभीष्ट उद्देश्य पूरा हो सके। किसी पर्व के लिए विधि- विधान का क्रम इस प्रकार रहता है-
* पर्व के प्रमुख देवता के चित्र सहित पूजन मंच सजाया जाए। इसके दोनों ओर कलश एवं दीपक स्थापित किये जाएँ।
* पर्वायोजन के साथ गायत्री यज्ञ अवश्य जोड़कर रखना चाहिए। उससे स्थूल तथा सूक्ष्म वातावरण में जो प्रभाव पैदा होता है, वह अन्य प्रकार सम्भव नहीं होता। यदि किसी कारण यज्ञ असम्भव सा लगे, तो दीपयज्ञ करके काम चला लेना चाहिए।
* यज्ञ करना हो, तो देवमंच के सामने यज्ञ वेदी बनाई जाए। यदि उठाकर रखने योग्य (पोर्टेबिल) यज्ञकुण्ड है, तो वह भी रखा जा सकता है। वेदी का धरातल देवमंच से तो नीचा हो, किन्तु अन्य लोगों के बैठने के धरातल से ऊँचा होना चाहिए।
* यदि यज्ञ करने की स्थिति नहीं है, तो वेदी के स्थान पर सजाई हुई चौकियों पर थालियों में दीपयज्ञ के लिए २४ दीपक रखे जाने चाहिए।
* श्रद्धालु आगन्तुकों को हाथ- पैर धुलाकर पंक्तिबद्ध बिठाया जाए।
* निर्धारित समय पर पहले युग संगीत, भजन, कीर्तन का क्रम प्रारम्भ कर दिया जाए। इससे वातावरण में सरसता और गम्भीरता आती है।
* मंच पर पूजन तथा यज्ञ के लिए प्रतिनिधि रूप में जहाँ तक हो सके, कुमारी कन्याओं को बिठाया जाए। वे कन्याएँ पीले वस्त्र पहने हों तथा पूजन- यज्ञ आदि के क्रम, अनुशासन से भली प्रकार परिचित, अभ्यस्त हों, उनकी संख्या दो से पाँच तक हो सकती है।
* संगीत के बाद संक्षेप में पर्व के उद्देश्य और अनुशासन पर सबका ध्यान आकर्षित किया जाए। यह गिने- चुने शब्दों में हो। कहीं भी भाषण जैसा लम्बा क्रम न चले। विभिन्न कर्मकाण्डों के साथ खण्ड- खण्ड में संक्षिप्त एवं सारगर्भित प्रेरणाएँ उभारने का क्रम चलाया जाना चाहिए।
* कर्मकाण्ड प्रारम्भ करने से पूर्व सबसे सामूहिक सस्वर गायत्री मन्त्र का उच्चारण एक बार कराया जाए।
* पवित्रीकरण मन्त्र के साथ स्वयंसेवक कलश हाथ में लेकर पुष्प या पल्लवों से सबके ऊपर जल का सिंचन करें। कलशों की संख्या उपस्थिति के अनुरूप कम या अधिक निर्धारित कर लेनी चाहिए।
* प्रतिनिधियों- कन्याओं से पूरे षट्कर्म कराये जाएँ।
* सभी उपस्थित जनों के हाथ में अक्षत, पुष्प पहुँचा दिये जाएँ। इन्हें वे श्रद्धापूर्वक हाथ में लिये रहें, पूजन का भाव बनाये रहें।
* चन्दन धारण के क्रम में सभी के मस्तक पर चन्दन लगाया जाए। घिसा हुआ चन्दन अथवा गोपी चन्दन (पीला रंग मिला खड़िया मिट्टी का गाढ़ा घोल) प्रयुक्त किया जा सकता है। रोली का भी प्रयोग हो सकता है। इनके साथ थोड़ा कपूर मिलाकर रखा जाए, तो इसकी सुगन्धि और शीतलता श्रद्धा संचार में सहायक सिद्ध होती है।
* कलश पूजन से रक्षाविधान तक का क्रम पूरा किया जाए, समय कम हो, तो विवेकपूर्वक कुछ अंश घटाये जा सकते हैं।
* पर्व देवता के विशेष पूजन के लिए भावनाएँ उभारी जाएँ। उनकी विशेषताओं पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जाए। प्रेरणा उभारने के लिए देवता- उनके अङ्ग, वाहन, आयुध, आभूषण, सहयोगी आदि का भी उल्लेख किया जा सकता है। एक- एक का उल्लेख करें और उनका आवाहन किया जाए। इससे प्रेरणा और श्रद्धा का मिला- जुला वातावरण बन जाता है।
* आवाहन, नमन के बाद उन सबका संयुक्त षोडशोपचार पूजन पुरुष सूक्त से किया जाए।
* पूजन पूरा होने पर उनके आदर्शों के अनुरूप कोई छोटा- सा ही सही, किन्तु सुनिश्चित नियम धारण करने की प्रेरणा देते हुए सङ्कल्प बोला जाए।
* सङ्कल्प के बाद प्रारम्भ में दिये गये पुष्प- अक्षत आदि एकत्र करके देवमंच पर अर्पित कर दिये जाएँ।
* सङ्कल्प को धारण किये रह सकने की सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए यजन (यज्ञ) करने की महत्ता बतलाते हुए यज्ञ या दीपयज्ञ सम्पन्न कराया जाए। यज्ञ किया जाए, तो यज्ञ आरती के साथ पर्वदेवता की आरती भी करें। दीपयज्ञ करें, तो उसी के बाद पर्वदेवता की आरती करें।
* अन्त में विसर्जन, जयघोष आदि कराया जाए। युग निर्माण सत्संकल्प दुहराया जाए। प्रसाद वितरण के साथ क्रम समाप्त किया जाए।
यह क्रम प्रत्येक पर्व के लिए एक जैसा है। पर्वदेवता के अनुरूप उनके पूरक अङ्ग, आयुध- आभूषण, वाहन आदि का ही अन्तर पर्व- पर्व में पड़ता है। पर्व प्रसाद सङ्कल्प में भी गुण विशेष धारण करने का क्रम बदलता है। जिन पर्वों के विधान यहाँ दिये गये हैं, उनके तो हैं ही, जिनके नहीं हैं, उन्हें मनाना हो, तो विवेकपूर्वक उनके लिए सामान्य प्रकरण, मङ्गलाचरण आदि से मन्त्र चुनकर लिये जा सकते हैं, इस प्रकार एक ही अनुशासन में नवीनता, रोचकता, विविधता का समावेश किया जाना सम्भव है।
॥ पर्व व्यवस्था सूत्र- संकेत॥
जो पर्व मनाया जाना है, उसके बारे में लगभग एक माह पूर्व निर्णय कर लेना चाहिए। परिजन जहाँ- तहाँ उत्साहवर्धक चर्चा करते रहें, अपने परिचितों से उसमें शामिल होने का आग्रह भी करते रहें। सप्ताह या ३- ४ दिन पूर्व पुरुष एवं महिला टोलियाँ पीले चावल घर- घर देकर आमन्त्रण दें। आवश्यक समझा जाए, तो छोटे पर्चे भी छपवाकर बाँटे जा सकते हैं। पर्वायोजन का समय ऐसा रखा जाए, जब नर- नारियों को उसमें सम्मिलित होने में कठिनाई न हो। आयोजन स्थल पर सुन्दर मण्डप सजाकर पर्व देवता की झाँकी सजाई जाए, आमन्त्रित व्यक्तियों को क्रमबद्ध ढंग से बिठाया जाए।
पर्व पूजन के लिए जितने श्रद्धालु नर- नारियों के उपस्थित होने की सम्भावना हो, उनके लिए क्रमबद्ध ढंग से बैठने योग्य स्थान आयोजन स्थल पर होना चाहिए। स्थल का चयन अथवा व्यक्तियों का आमन्त्रण उसी हिसाब से किया जाना चाहिए। अभ्यागतों के जूते- चप्पल उतरवाने, उन्हें व्यवस्थित रखने तथा सुरक्षा के लिए स्वयंसेवक नियुक्त रखना चाहिए।
पुरुषों, महिलाओं को क्रमबद्ध ढंग से बिठाने के लिए अनुभवी और शालीन परिजन नियुक्त किये जाएँ। बच्चों की आदत आगे घुसने की होती है, उन्हें काबू में रखा जाए। छोटे बच्चों वाली महिलाएँ एक ओर बिठा ली जाएँ, ताकि बच्चे गड़बड़ करें, तो उन्हें उठकर- जाने में कठिनाई न हो। पर्व पूजन के समय सबके पास अक्षत, पुष्प पहुँचाने, तिलक लगाने, सिंचन करने आदि के लिए सधे हुए परिजनों को पहले से नियुक्त करके रखा जाए।
पर्वायोजन पूजन से सम्बन्धित सभी वस्तुएँ समय से पूर्व एकत्र कर लेनी चाहिए तथा उन्हें एक बार जाँच करके यथास्थान रख देनी चाहिए, ताकि समय पर विसंगतियाँ न उठें। समय का ध्यान रखा जाए। पर्व पूजन का समय निर्धारित करते समय भली प्रकार सोच- समझ लें कि कौन- सा समय लोगों के लिए अनुकूल पड़ेगा। सुविधाजनक समय घोषित करने के बाद समय का अनुशासन पाला जाए। कार्यक्रम समय पर आरम्भ कर दिया जाए तथा समय पर समाप्त भी कर दिया जाए। इससे लोगों का समय नष्ट नहीं होगा और भावी आयोजनों के लिए जन उत्साह बढ़ेगा।
वातावरण को रमणीक, पवित्र बनाने का प्रयास करें। वन्दनवार सज्जा, झण्डियाँ, बैनर आदि लगाये जाएँ। शान्ति बनाये रखकर, अगरबत्तियाँ लगाकर वातावरण में श्रद्धा का संचार किया जाए। इस प्रकार के छोटे- छोटे उपचारों से वातावरण में भव्यता भर जाती है। आयोजन को खर्चीला न बनाने का ध्यान रखा जाए। प्रसाद में पंचामृत, चीनी की गोलियाँ (चिनौरी, चिरौंजी दाना) पँजीरी जैसी कोई एक ही सस्ती वस्तु रखी जाए।
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