Books - विश्व की महान नारियाँ-1
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Language: HINDI
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कस्तूरबा गांधी
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यह उस समय की बात है जब महात्मा गांधी भारतवासियों पर किये जाने वाले
अत्याचारों के विरूद्ध दक्षिण अफ्रीका में गोरों की सरकार से जूझ रहे थे।
सरकार हिंदुस्तानियों को पदावनत और दीन-हीन बनाने के लिए नये- नये कानून
बना रही थी और गांधी जी अपने अहिंसात्मक सत्याग्रह से उसके आक्रमण को
व्यर्थ करने का प्रयत्न कर रहे थे। उन्हीं दिनों सरकारी अधिकारियों ने एक
नियम यह बनाया कि भारतवासियों के अपनी धार्मिक पद्धति के अनुसार किये विवाह
गैर कानूनी माने जायेंगे और उनकी स्त्रियाँ पत्नी नहीं 'रखैल' के दर्जे की
समझी जायेंगी। गांधी जी तो इसके विरूद्ध सत्याग्रह करने ही वाले थे, पर
उन्होंने विचार किया कि इस प्रश्न पर यदि स्त्रियाँ भी सत्याग्रह में भाग
लेकर जेल जायें तो ठीक रहेगा। साथ ही वे यह भी जानते थे कि स्त्रियों का
जेल जाना खतरे का काम है। इसलिए उन्होंने विचार किया कि सबसे पहले अपनी
पत्नी कस्तूर-बा को ही इसके लिए तैयार किया जाए। वे जानते थे कि यदि वे
इसके लिए बा-को कहेंगे, तो वह इनकार तो नहीं करेंगी, पर बाद में उसका कहाँ
तक निर्वाह कर सकेंगी, इसका निश्चय न था। इसलिए वे ऐसा अवसर खोजने लगे, जब
सामान्य बातचीत करते हुए इसकी चर्चा कर ली जाय।
उस दिन जब बा "फीनिक्स-आश्रम" वालों के लिए रोटी बेल रही थीं, पास में बैठे गांधी जी ने कोई अन्य काम करते-करते उससे कहा-"तुझे नये कानून का पता चला या नहीं ?"
बा ने पूछा- "क्या ?"
गांधी जी ने हँसते हुए कहा-"आज तक तू मेरी ब्याही हुई पत्नी थी। अब तू ब्याही पत्नी नहीं रही।"
बा ने भौहें चढ़ाकर पूछा-"ऐसा किसने कह दिया ? आप तो रोज-रोज ही नई समस्याएँ खोज निकालते हैं।"
गांधी जी बोले-"मैं कहाँ खोज निकालता हूँ ? वह जनरल स्मट्स कहता है कि ईसाई लोगों के विवाहों की तरह हमारा विवाह सरकारी अदालत के रजिस्टर में दर्ज नहीं हुआ है, इसलिए उसे गैर कानूनी माना जायेगा। इस कानून के अनुसार तू मेरी ब्याही हुई पत्नी नहीं, लेकिन "रखैल स्त्री" मानी जायेगी।"
यह सुनकर बा-का चेहरा तमतमा उठा। वे बोलीं-"उसका सिर उस निठल्ले को ऐसी बातें कहाँ से सूझती हैं ?" गांधी जी- लेकिन अब तुम स्त्रियाँ क्या करोगी ?"
बा- आप ही बताइये, हम क्या करें ?"
गांधी जी ने मुस्कुराते हुए कहा-"हम पुरुष जिस तरह सरकार से लड़ते हैं, वैसे ही तुम स्त्रियाँ भी लडो़। सच्ची ब्याही हुई पत्नी बनना हो और 'रखैल' न कहलाना हो और अगर तुम लोगों को अपनी आबरू प्यारी हो, तो हमारी तरह तुमको भी सरकार से लड़ना चाहिए।"
बा- "आप तो जेल में जाते हैं !"
गांधी जी- "तू भी अपनी आबरू को बचाने के लिए जेल जाने को तैयार हो बा।"
बा- हाँ मैं जेल जाऊँ ! स्त्रियाँ भी कभी जेल जा सकती है ?"
गांधी जी-"क्यों, स्त्रियाँ जेल में क्यों नहीं जा सकतीं ? पुरुष जो सुख-दुःख भोगें, उन्हें स्त्रियाँ क्यों नहीं भोग सकती ? राम के पीछे सीता गई थी। हरिश्चंद्र के पीछे तारा गई थी और नल के पीछे दमयंती गई थी और इन सब ने जंगल मे अपार द़ुःख सहन किये।" बा-"वे सब देवताओं जैसे थे। उनके कदमों पर चलने की शक्ति हम में कहाँ है ?"
गांधी जी ने गंभीरता के साथ कहा- "इसमें क्या है ? हम भी उनके जैसा आचरण करें, तो उनके समान बन सकते हैं, देवता हो सकते हैं। राम के कुल का मैं हूँ और सीता के कुल की तू है। मैं राम बन सकता हूँ, तो तू भी सीता बन सकती है। सीता अपने धर्म का पालन करने के लिए राम के पीछे वन में न गई होती और राजमहलों में ही आराम से रहती, तो कोई उसे सीता माता न कहता। तारामती हरिश्चंद्र के सत्य के लिए बिकी ना होती तो हरिश्चंद्र के सत्यवव्रत में कमी रह जाती। तब हरिश्चंद्र को कोई सत्यवादी न कहता और तारामती को कोई सती न कहता। दंमयती नल के साथ जंगल में दु:ख भोगने में शामिल न होती तो उसे भी कोई सती न कहता। उसी तरह अगर तुझे अपनी आबरू बचानी हो, मेरी ब्याही हुई स्त्री कहलाना हो, तो तू सरकार से लड़ और जेल जाने के लिए तैयार हो जा।"
बा थोडी़ देर चुप बैठी रही , फिर बोली- "तो आपको मुझे जेल भेजना है, है न ? अब इतना ही बाकी रहा है ! जाऊँगी, जेल में भी जाऊँगी। लेकिन जेल का खाना मुझे अनुकूल आयेगा ?"
गांधी जी- "मैं तुझ से नहीं कहता कि तू जेल में जा। अपनी आबरू की खातिर जेल जाने का उत्साह तुझ में हो, तो जा, और जेल का खाना अनुकूल न आये तो वहाँ के फलों पर रहना।"
बा-"जेल में सरकार मुझे फल खाने को देगी ?"
गांधी जी-"फल न दें तब तक उपवास करना।
बा (हंसते हुए)-"ठीक, यह आपने मुझे अच्छा मरने का रास्ता बताया ! मुझे लगता है कि जेल में गई तो जरूर मर जाऊँगी।"
गांधी जी इस पर बडे़ जोर से हँस पडे़ और कहा-"हाँ, हाँ मैं भी यही चाहता हूँ, तू जेल में जाकर मरेगी तो मैं जगदम्बा की तरह तुझे पूजूगाँ।"
बा-"अच्छा, तब तो मैं जेल जाने को तैयार हूँ।"
गांधी जी बा का निर्णय सुनकर बडे़ प्रसन्न हुए। बाद में बा किसी काम से बाहर गई तो गांधी जी ने वहाँ उपस्थित एक अन्य सज्जन से कहा-"बा की खूबी यही है कि मन से या बेमन से मेरी इच्छा का अनुकरण करती है।" आरंभिक जीवन-
कस्तूरबा का जन्म पोरबंदर (सौराष्ट्र) के उसी मोहल्ले में हुआ था जिसमें गांधी जी का घर था। वे आयु में गांधी जी से छह महीना बडी़ थी, पर इन दोनों का विवाह संबंध (सगाई) उस समय की परंपरा के अनुसार सात वर्ष की आयु में ही निश्चित हो गयी थी और तेरह वर्ष की आयु में पाणिग्रहण संस्कार होकर वे पतिगृहं में आ गई। उस समय उनको अक्षर ज्ञान भी नहीं था। स्वयं गांधी जी ने ही रात्री के समय एकांत में थोडा़-थोड़ा समय देकर उन्हें इस योग्य बनाया कि वे साधारण चिट्ठी-पत्री बाँच सकें और लिख सकें। इसके पश्चात् सार्वजनिक जीवन में रहने और देश के बडे़-बडे़ नेताओं के संपर्क में आने से उनका ज्ञान काफी बढ़ गया, पर पुस्तकीय शिक्षा की दृष्टि से उनकी स्थिति सामान्य ही रही।
इतनी छोटी अवस्था में विवाह हो जाने से बा और गांधी जी और बा का दांपत्य जीवन भी धीरे-धीरे और अनेक प्रकार के उतार-चढ़ावों में होकर विकसित हुआ। आरंभ से तो वह इसके महत्व और विशेषताओं से सर्वथा अनजान ही थे। उस समय की स्थिति की चर्चा करते हुए गांधी जी ने अपनी 'आत्म-कथा' में लिखा है-
"मुझे याद नहीं पड़ता कि सगाई के समय मुझसे कुछ कहा गया था। इसी प्रकार ब्याह के वक्त भी कुछ पूछा नहीं गया। सिर्फ तैयारियों से ही पता चला कि ब्याह होने वाला है। उस समय अच्छे-अच्छे कपडे़ पहनेंगे, बाजे बजेंगे, जुलूस निकलेंगे अच्छा-अच्छा खाना खाने को मिलेगा, एक नई लड़की के साथ हँसी-खेल करेंगे-ऐसी इच्छाओं के सिवा और कोई भाव मेरे मन में रहा हो ऐसा याद नहीं आता। ब्याह के समय मंडप में बैठे, फेरे फिरे "कसार" खाया-खिलाया और वर-वधू दोनों साथ रहने लगे ! दो अबोध बालक बिना जाने, बिना समझे संसार-सागर में कूद पडे़। कुछ ऐसा ख्याल आता है कि हम दोनों एक दूसरे से डरते थे, एक दूसरे से शरमाते तो थे ही। बातें किस तरह करना, क्या करना, सो मैं क्या जानूँ ? धीरे-धीरे एक दूसरे को पहिचानने लगे, बोलने लगे।"
"मुझे अपनी स्त्री को आदर्श स्त्री बनाना था। वह साफ बने, साफ रहे मैं जो सीखूँ वह भी उसे सीखे, हम एक दूसरे में ओत-प्रोत रहें, यह मेरी भावना थी। मुझे याद नहीं पड़ता कि कस्तूर-बा की भी ऐसी भावना थी। वे निरक्षर थीं, स्वभाव की सीधी, स्वतंत्र, मेहनती और मेरे साथ कम बोलने वाली। उनको अपने अज्ञान से असंतोष न था। मैंने अपने बचपन में उनकों कभी यह इच्छा करते नहीं पाया कि जिस तरह मैं पढ़ता हूँ, उस तरह वे खुद भी पढे़ तो अच्छा हो। उन्हें पढा़ने की मेरी बडी़ इच्छा थी। लेकिन उसमें दो कठिनाइयाँ थीं। एक तो बा की पढ़ने की भूख खुली नहीं थी, दूसरे बा अनुकूल हो जातीं तो भी उस जमाने में भरे-पूरे परिवार में इस इच्छा को पूरा करना आसान नहीं था।"
दक्षिण अफ्रीका में-
पर यह स्थिति थोडे़ ही दिन रही। इसके कुछ वर्ष बाद जब कस्तूर-बा गांधी जी के साथ द० अफ्रीका गई, तो उनकी दुनिया ही बदल गई। कहाँ एक कट्टर वैष्णव संप्रदाय के नियमों का पालन करने वाली, अधिकांश विषयों में रूढ़ियों और परंपरा के अनुसार जीवन व्यतीत करने वाली, भारतीय नारी और कहाँ यूरोपियन सभ्यता और वहाँ का बिल्कुल भिन्न प्रकार का रहन-सहन ? यद्यपि द० अफ्रीका में भारतवासियों और विशेषतः गुजरातियों की संख्या बहुत अधिक थी, पर विदेशी वातावरण में रहने और वहाँ के बडे़ लोगों का अनुकरण करने से उनके रहन-सहन में बहुत अंतर आ गया था। सबसे पहली बात तो वहाँ की वेष-भूषा की ही थी। हिंदुस्तान में जिस प्रकार स्त्रियाँ प्राय: नंगे पैर चलती हैं, यह वहाँ की सभ्यता के विरूद्ध है। दूसरी बात यह है कि ठंड ज्यादा पड़ने से वहाँ नंगे पैर रहना कठिन है। इसलिए गांधी जी ने शुरू से ही बा को जूता और मोजा पहिनने को कहा। यद्यपि इसमें कोई दोष की बात नहीं थी, पर फिर भी बा ब़डी कठिनाई से इसके लिए तैयार हुई।
बा की परीक्षा-
दक्षिण अफ्रीका में जिस मकान में गांधी जी रहते थे, वह भारतीय घरों की तरह नहीं था। यूरोपियन लोग कमरों में मोरियाँ नहीं रखते थे। इसलिए वे पेशाब के लिए एक बर्तन रखते हैं। जिसे कोई नौकर या वे स्वयं उठाकर फेंक देते हैं। गांधी जी के घर में उनके साथ ही उनके मुहर्रिर (कलर्क) भी रहा करते थे। उनमें से कुछ तो अपने पेशाब का बर्तन स्वयं उठाकर साफ कर लाते थे, और जो ऐसा नहीं करते थे उनके बर्तन गांधी जी या बा को उठा कर साफ करने पड़ते थे। आरंभ में तो बा को यह बहुत बुरा लगता था, पर धीरे-धीरे आदत पड़ गई। पर कुछ समय बाद जब एक ईसाई क्लर्क आया,
जिसका बाप सबसे नीची जाति का था, तो बा को उसका बर्तन साफ करना असहाय जान पड़ने लगा। पर वे स्वयं खडी़ रहकर यह भी नहीं देख सकती थीं कि गांधी जी उस बर्तन को उठाकर ले जायें। बा उस बर्तन को उठाकर तो ले गई, पर उनकी आँखों से आँसू बहते जाते थे और वे लाल-लाल आँखों से गांधी जी की और देखती जाती थीं। उनकी यह विरक्त्ततापूर्ण मनोवृत्ति गांधी जी को बहुत खटकी। वे एक पति प्रेमी होने के साथ ही सिद्धान्तों के मामले में भी सदा कठोर थे। इसलिए तुरंत चिल्लाकर कहने लगे-"मेरे घर में यह बखेड़ा नहीं चलेगा ?"
कस्तूर-बा भी रोष से भर कर बोल उठी-"तो अपना घर अपने पास रखो- मैं चली।"
इस पर गांधी जी परिस्थिति को भूलकर एकदम बा का हाथ पकड़कर दरवाजे तक खींच कर ले गये और उनको बाहर निकालने लगे। तब वह कहने लगीं-"तुम्हें शरम नहीं, पर मुझे तो है। मैं बाहर निकलकर कहाँ जाऊँगी ? यहाँ मेरे माँ-बाप भी नहीं, जो मैं उनके यहाँ चली जाऊँ। मैं औरत ठहरी इसलिए तुम्हारी चपत खानी ही पड़ेंगी । अब जरा शरम करो और दरवाजा बंद कर दो। कोई देखेगा तो दोनों की फजीहत होगी।"
इस तरह बडे़ संघर्ष के साथ बा अपने को कुछ अंशों में विदेशी वातावरण के अनुकूल बना पाईं। इसका आशय यह है जहाँ तक बाहरी लोगों से संबंध का पड़ता था, वहाँ तक वे इस प्रकार का व्यवहार करने लगीं, जिससे कोई उनको सभ्यता के नियमों से अनजान या मूर्ख न समझे। पर निजी व्यवहार में और आंतरिक भावनाओं में वे तब भी पक्की हिंदू ही थीं। खान-पान के विषय में भी वे बडी़ कट्टर थीं और कभी कोई ऐसी चीज ग्रहण करने को तैयार नहीं होती थीं जिसमें अंडा या मांस आदि की मिलावट का संदेह हो। इस संबंध में एक बडी़ गंभीर घटना हो गई।
कस्तूर-बा को खूनी बवासीर की शिकायत पैदा हो गई थी, जिससे प्राय: रक्तस्राव होता था। गांधी जी के डॉक्ट्रर मित्र ने उसको ऑपरेशन करके ठीक करने को कहा। बा बडी़ कठिनाई से इसके लिए तैयार हुईं। वह बहुत कमजोर हो गई थी इसलिए उनको ऑपरेशन के बाद कुछ दिन डॉक्ट्रर के घर पर ही रखने का निश्चय किया गया। डॉक्टर का घर डरबन में था और गांधी जी उस समय फीनिक्स आश्रम में रहते थे। ऑपरेशन के बाद डॉक्टर और उसकी पत्नी द्वारा बहुत सेवा किये जाने पर भी बा की तबियत बराबर गिरती गई। एक दिन कमजोरी के कारण बेहोशी भी आ गई। इसलिए ताकत लाने को डॉक्टर ने मांस का शोरबा देना आवश्यक समझा, पर इसके लिए गांधी जी से पूछना आवश्यक था। उसने टेलीफोन पर उनको अपना विचार बतलाया।
गांधी जी-"मैं तो इसकी इजाजत नहीं दे सकता। पर कस्तूरबा इस संबंध में स्वतंत्र है अगर वह स्वीकार करे तो आप अवश्य दे सकते हैं।"
डॉक्टर- "रोगी से इस तरह की बात मैं पूछ नहीं सकता। आपको यहाँ आ जाना चाहिए। अगर आप मैं जो वह खिलाने की इजाजत नहीं देते तो मैं आपकी स्त्री के लिए जिम्मेदार नहीं हूँ।" गांधी जी उस समय डरबन के लिए चल दिये। वहाँ पहुँचने पर डॉक्टर ने बतलाया-"मैंने तो उनको शोरबा पिलाकर ही आपको फोन किया था।"
गांधी जी- डॉक्टर, मैं इसको दगा समझता हूँ।
डॉक्टर- इलाज करते समय मैं दगा-वगा कुछ नहीं जनता। हम डॉक्ट्रर लोग ऐसे समय में रोगी को और उसके रिश्तेदारों को धोखा देने में पुण्य समझते हैं। हमारा धर्म तो किसी तरह भी रोगी को बचाना है।
गांधी जी-खैर जो हुआ सो हुआ, पर में जान-बूझ कर अपनी पत्नी को उसकी इच्छा के बिना मांस नहीं लेने दूगाँ। इससे उसकी मृत्यु हो जाय तो मैं उसे सहने को तैयार हूँ।
डॉक्टर-आपकी फिलॉसफी मेरे घर बिल्कुल नहीं चलेगी। जब तक वह मेरे यहाँ है, मैं उसको मांस या जो कुछ मुनासिब होगा-जरूर दूगाँ। अगर यह आपको स्वीकार न हो, तो आप अपनी पत्नी को ले जाइये। अपने घर में जान-बूझ कर मैं उनकी मौत नहीं होने दूगाँ।
गांधी जी फिर कस्तूर-बा के पास गये और सब बातें संक्षेप में समझा दीं। वह अत्यंत कमजोर थी, पर उसने दृढ़तापूर्वक कहा-मैं मांस का शोरबा नहीं लूँगी। मानुष-देह बार-बार नहीं मिलती। भले ही मैं आपकी गोद में मर जाऊँ पर अपनी देह को भ्रष्ट नहीं करूँगी।"
जब मैंने यह बात डॉक्टर को बतलाई, तो वह कहने लगा-"तुम तो बडे़ निष्ठुर पति मालूम होते हो। ऐसी बीमारी में उस बेचारी से ऐसी बात कहते तुम्हें शर्म नहीं आई। मैं तुमसे कहता हूँ कि तुम्हारी पत्नी यहाँ से जाने लायक नहीं है। रास्ते में ही उसका प्राण छूट जाय तो आश्चर्य नहीं, इतने पर भी तुम हठवश नहीं मानोगे, तो तुम्हारी तुम जानो। अगर मैं उसे शोरबा नहीं दे सकता, तो उसे अपने घर में रखने का जोखिम भी नहीं उठा सकता"
पर कस्तूर-बा बराबर अपनी बात पर दृढ़ रही। गांधी जी ने उसे उठाया तो देखा कि उस हड्डियों के ढाँचे में कुछ भी वजन नहीं रह गया है। गांधी जी यह देखकर घबड़ाने लगे, पर कस्तूर-बा ने उन्हें हिम्मत बँधाते हुए कहा-"मुझे कुछ नहीं होगा आप चिंता न करें" अंत में वह लंबी यात्रा तय करके फीनिक्स पहुँच गई और गांधी जी के प्राकृतिक उपचार और सेवा-सुश्रूषा से स्वस्थ हो गई।
बा की त्याग वृत्ति-
खान-पान और फैशन की दृष्टि से तो बा का जीवन आरंभ से ही बहुत सादा था, पर अपरिग्रह के विषय में उसको गांधी जी क दबाव सहन करना पडा़। सन् १९०० में जब वे द० अफ्रीका से वापस आने लगे तो नेटाल के भारतवासियों ने उनकी विदाई के उपलक्ष्य में बहुत बडा़ समारोह किया और उनको सोने, चांदी तथा जवाहरात के बहुत से पदार्थ भेंट दिये। उसमें ५० गिन्नियों से बना एक हार कस्तूरबा के लिए था। इन भेंटों को पाकर गांधी जी बडी़ चिंता में पड़ गये और उस रात उनको जरा भी नींद नहीं आई। हजारों के मूल्य के उपहारों को छोड़ देना कठिन जान पड़ता था, पर उनको रखना उससे भी कठिन लगता था। अंत में वे इसी निर्णय पर पहुँचे कि अपनी सेवा का इस प्रकार का बदला लेना किसी प्रकार का उचित नहीं। इससे कभी दूसरों को तथा अपने स्त्री-बच्चों को भी अच्छी प्रेरणा नहीं मिल सकती। इसलिए उचित यही है कि उनको कुछ ट्रस्टियों के सुपुर्द करके सार्वजनिक कार्यों में खर्च कर दिया जाय।
गांधी जी ने तो अपने दार्शनिक विचारों के अनुसार थोडी़ देर में यह निर्णय कर लिया, पर कस्तूर-बा को इसके लिए तैयार करना सहज न था। वह कहने लगी-"चाहे तुम को जरूरत न हो और मुझे भी तुम गहने न पहनने दो, पर मेरी बहुओं को तो उनकी जरूरत होगी। इतने प्रेम से दी गई चीज लौटाई नहीं जाती।"
गांधी जी ने समझाने के ढंग से धीरे से कहा-"लड़को की शादी तो होने दो। हमें कौन बचपन में ही इन्हें ब्याहना है। बडे़ होने पर वे जो चाहे सो करें और हमें कौन गहनों की शौकीन बहुएँ ढूँढ़नी हैं। फिर भी कुछ बनवाना ही पडा़ तो मैं तो हूँ ही न ?"
बा-"तुम्हे तो मैं जानती हूँ तुम तो वही हो न, जिन्होंने मेरे गहने छीन लिए ? तुमने जब मुझे सुख से नहीं पहनने दिया तो मेरी बहुओं के लिए क्या लाओगे ? बच्चों को तो तुम अभी से बैरागी बनाना चाहते हो और मेरे हार पर तुम्हारा क्या हक है ?"
गांधी जी-" लेकिन यह हार तुमको तुम्हारी सेवा के लिए मिला है या मेरी सेवा के कारण ?"
बा- कुछ भी हो, तुम्हारी सेवा मेरी भी सेवा हुई। मुझ से रात दिन मजदूरी कराई, सो क्या सेवा नहीं मानी जायेगी ? मुझे रूला-रूलाकर हर किसी को घर में रखा और चाकरी कराई, उसका कोई हिसाब नहीं ?उस समय तो गांधी जी के दबाव से ही बा उन गहनों को वापस देने को राजी हो हुई, पर बाद में उन्होंने उसका औचित्य समझ लिया कि सार्वजनिक सेवकों को निश्चय ही निस्पृह होना चाहिए, अन्यथा उनकी सेवा का मूल्य बहुत घट जाता है। आजकल तो हमारे देश में इस प्रकार के लोभ-लालच की हद हो गई है। लोग काम तो करेंगे छटाँक भर, पर उसका बदला चाहेंगे सेर भर। इससे सार्वजनिक जीवन की और विशेषकर राजनैतिक क्षेत्र में कार्य करने वालों की मिट्टी पलीत हो रही है और जनता कि दृष्टि में वे सम्मान के बजाय उपेक्षा और निंदा के पात्र हो रहे हैं। हम अपने पाठकों को बडी़ दृढ़टा के साथ यह सम्मति देगें कि चाहे वे सार्वजनिक सेवा और जन-कल्याण के कार्य अधिक न करें, उनके लिए अपनी कम से कम हानि सहन करें, पर जो कुछ करे वह निःस्वार्थ भाव से अपना धर्म-कर्तव्य समझकर करें, ऐसा करने से उनका वह थोडा़-सा सेवा-कार्य भी महान् बन जायेगा। सेवा-कार्य की महत्ता सब हमारी मानसिक भावना में है। अगर हम स्वार्थ की भावन रखते हुए कोई "परमार्थ-कार्य" करते हैं तो वह कभी श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकेगा।
पहली स्त्री सत्याग्रही-
जैसा आरंभ में लिखा जा चुका है, जब दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार ने हिंदू-मुसलमानों के विवाह को गैरकानूनी बनाकर उनकी स्त्रियों को पत्नी के बजाय "रखैल" कहने का निश्चय किया, तो गांधी जी ने उसके विरूद्ध सत्याग्रह किया और उसमें स्त्रियों को शामिल करना उन्होंने आवश्यक समझा। पर यह एक खतरनाक काम था। जेलों का वातावरण दूषित होता और वहाँ का व्यवहार भी अपमानजनक जैसा ही होता है। इसलिए घर के भीतर रहने वाली और तरह-तरह के छुआछूत और शुद्ध-अशुद्ध के जंजालों में फँसी हिंदू स्त्रियाँ, यदि जेल-जीवन से घबराकर दो-चार दिन में ही माफी मांगकर चली आवें तो इसमें समस्त सत्याग्रह-आंदोलन की बडी़ बदनामी और हानि थी। यधपि गांधी जी ने बातों ही बातों में इसकी चर्चा बा से कर दी, पर उन्होंने यह स्पष्ट आग्रह कभी नहीं किया कि वे सत्याग्रह करके अवश्य जेल जायें। इसके बजाय उन्होंने अन्य बहनों से इसके लिए पूछा। उन सबने अपनी रजामंदी बतलाई और कहा कि चाहे जितना भी कष्ट सहन करना पडे़, हम लोग जेल की सजा पूरी करके आयेंगी। बा ने जब ये सब बातें सुनीं तो उनको कुछ बुरा लगा और उन्होंने गांधी जी से कहा-"मुझसे आप जेल जाने को क्यों नहीं कहते ? मुझमें ऐसी कौन सी कमी है, जिससे मैं जेल न जा सकूँ ?"
गांधी जी ने उत्तर दिया-"मैं न तो तुमको कभी दुःखी कर सकता हूँ, न तुम्हारे ऊपर अविश्वास कर सकता हूँ। तुम्हारे जेल जाने से तो मुझे बडा़ संतोष होगा, पर यदि मेरे मन में यह ख्याल बना रहे कि तुम मेरी आज्ञापालन करके जेल गई हो तो यह मुझे बुरा जान पड़े़गा। ऐसे काम सबको अपनी हिम्मत से ही करने चाहिए। तुम जेल में जाकर जेल के कष्टों से उब जाओ, तो यह मुझे कैसे अच्छा लगेगा"
बा-" मैं हार मानकर जेल से बहार चली आऊँ तो मुझे अपने पास मत रहने देना। मेरे बच्चें तक सह सकें, आप सब सहन करते रहें और मैं अकेली ही उसे न सह सकूँ, ऐसा कैसे हो सकता है ? ऐसा आप क्यों सोचते हैं ? मुझे इस सत्याग्रह की लडा़ई में भाग लेना ही होगा।"
जेल में जाकर बा ने बहुत कष्ट सहन किये। वहाँ का अशुद्ध ढंग से बनाया गंदे बर्तनों में रखा गया भोजन तो वे खा ही कैसे सकती थीं ? इसलिए जेल में पहुँचकर उन्हें भूखा ही रहना पड़ा। पांच दिन के बाद सरकार झुकी और उनको फल देने की आज्ञा दी। पर केवल तीन केला, चार प्रून्स, दो टमाटर और दो नीबू मिलते थे। इस प्रकार तीन महीने तक जेल के भीतर बा को आधा पेट ही रहना पडा़। इसलिए जेल की सजा पूरी करके जब वे बाहर आई तो हड़िड्यों का ढाँचा मात्र रह गई थीं। उस समय सब कोई उनको देखकर शोकाकुल हो गए। अफ्रीका के गोरे जैसे विदेशी और विधर्मी लोगों की जेल में एक धार्मिक विचारों की हिंदू स्त्री का रहना वास्तव में बडा़ कठिन था, पर बा ने साहस करके सब संकटों को सहन कर लिया, यह एक ऐसा आदर्श था, जिससे हमारी सब बहनें लाभ उठा सकती हैं।
बा की परिश्रमशीलता-
बा का जीवन आरंभ से ही परिश्रम करने का था। गांधी जी सदा से ही बडी़ देख-रेख और जाँच पड़ताल करने वाले पति थे। यह कस्तूर-बा की निरालस्यता और सेवा परायणता का ही परिणाम था कि वह उनकी पसंद का कार्य करके उन्हें संतुष्ट रखती थीं। इसलिए वे रात को चाहे जल्दी सो गई हो या देर से, ३ बजे प्रार्थना होने के समय अवश्य जग जाती थी। गांधी जी तो प्रार्थना समाप्त हो जाने पर फिर थोडी़ देर के लिए सो जाते थे, पर बा उसी समय से उनके स्नान के लिए पानी गरम करने और जलपान के लिए शहद या वैसी ही कोई चीज तैयार करने में लग जाती थीं। वैसे अन्य अनेक व्यक्ति गांधी जी की किसी प्रकार की सेवा करने को इच्छुक रहते थे, पर बा जानती थी कि गांधी जी जिस प्रकार प्रत्येक विषय में गहरी छानबीन करते रहते हैं, उसे देखते हुए अन्य लोगों के कार्य में कोई त्रुटि निकल आना बहुत संभव है। इसलिए अगर किसी के आग्रह करने पर बा दूसरों को कोई काम करने का मौका दे भी देती थीं, तो भी बराबर यह निरीक्षण करती रहती थी कि उसमें कोई कमी तो नहीं रह गई। खास कर बर्तनों की सफाई की तरफ उनका बहुत अधिक ध्यान रहता था। जब वे देखती कि किसी लड़की के मजे हुए बर्तनों में कुछ कमी रह गई है तो स्वयं उनको पूरी तरह साफ कर डालती थीं। वे प्रातःकाल से ही दिन भर किस प्रकार व्यस्त रहती थी, इसका वर्णन करते हुए एक आश्रमवासी ने लिखा है-
बापू सबेरे लगभग ७ बजे घूमने निकलते। उस समय बा अपने स्नान आदि के कामों से निपट लेतीं और पूजा-पाठ पर बैठ जाती। लगभग एक घंटा गीता जी और तुलसी-रामायण का पाठ करतीं। इसके बाद वे रसोई घर में पहुँच जातीं और वहाँ सब ठीक ढंग से चल रहा है या नहीं, इसका पता एक निगाह में ही लगा लेतीं। कोई खाद्य सामग्री खुली पडी़ हों, शाक या फल बिगड़ने की हालत में हों तो वह तुरंत उसको ठीक करने लगतीं। वे बहुत स्पष्टवक्ता थीं, इसलिए जिसको जो कहना होता, साफ-साफ कह देतीं। मुँह से हाँ-हाँ कहने और अंगीकृत काम को भली-भांति न करने वालों से बा बडी़ नाराज रहा करती। इसलिए नये आये हुए लोगों को कभी-कभी बा की बात बुरी भी लग जाती। वे प्रत्येक वस्तु को ठीक जगह सफाई से रखना पसंद करती थीं और जो कुछ गिरा या पडा़ देखतीं, उसे अपने हाथों से ठीक करने लग जातीं। अगर कभी किसी के नाराज होने की चर्चा गांधी जी के पास पहुँचती तो वे कहते-"अगर बा के पास थोडा़-बहुत कडुवा नीम है, तो मीठी मिसरी तो बहुत ज्यादा है।"
गांधी जी का भोजन बा स्वयं ही तैयार करती थीं। अगर कोई और बनाने लगता तो पास ही खडी़ हुई देखती रहतीं कि हर एक चीज ठीक बन रही है या नहीं। वे भोजन बनाने में बहुत निपुण थीं। और गांधी जी की रूचि के अनुकूल खाध पदार्थ बनाने का पूरा ध्यान रखती थी। भोजन की घंटी बजने पर वे सब मेहमानों को भोजन परोसकर स्वयं भी गांधी जी के पास ही खाने बैठ जातीं। उस समय भी उनकी एक आँख तो बापू की तरफ ही रहती। एक मक्खी को भी आते देखतीं तो उनका बाँया हाथ तुरंत पंखे को सँभाल लेता। भोजन समाप्त होने पर वे बापू के साथ उनके कमरे में आतीं और १५-२० मिनट के लिए लेट जातीं। उसके बाद उठकर अखबार पढ़ने लग जातीं"
यद्यपि बा ज्यादा पढी़-लिखी नहीं थीं, तो भी अखबारों के जरिये देश की हालत का पता रखती थीं। वह "हरिजन बंधु" को इसलिए पूरा पढ़ डालतीं कि विभिन्न कार्यक्रमों के विषय में गांधी जी के विचारों का पता चलता रहे। अखबारों में दुनिया की मुसीबतों और तकलीफों का हाल पढ़कर बा को बहुत दुःख होता। महायुद्ध का हाल पढ़कर वे कहने लगती "क्या यह लड़ाई दुनिया को तबाह करके ही बंद होगी" बंगाल के भीषण अकाल की खबरें पढ़कर बा ने "आगाखान महल" के जेलखाने से एक पत्र में लिखा- "बंगाल के समाचार पढ़कर तो दिल फटता है। वहाँ तो आसमान ही फट पडा़ है। न जाने ईश्वर क्या करने वाला है ?"
पढ़ने की हार्दिक आकांक्षा-बचपन में तो बा को किसी ने पढा़या नहीं, पर बडी़ उम्र में वातावरण बदल जाने पर उनको पढ़ने का शौक हो गया था। हर रोज एक-आध घंटा वे किसी न किसी के पास कुछ न कुछ पढा़ ही करती थी। राष्ट्रभाषा होने के ख्याल से हिंदी का अभ्यास वे प्राय: किया करती थी। कभी किसी की मदद से तुलसी-परायण पढ़ती और कभी गीता का अभ्यास करती। अपनी आयु के अंतिम वर्षों में आगाखान महल में कैद रहते हुए वे गांधी जी से गीता के श्लोकों का शुद्ध उच्चारण करना सीखती थी। इन दोनों ७५-७५ वर्ष की आयु के 'शिक्षक और विधार्थी' का दृश्य देखते ही बनता था। बा जो कुछ सीखना शुरू करती थी, बडी़ श्रद्धा के साथ सीखती और इतनी उम्र हो जाने पर भी एक विनम्र विद्यार्थी की तरह पढ़ने को बैठती। उन्हें कुछ लिखने को दिया जाता तो उसे भी वे छोटे विद्यार्थी जिस प्रकार अपना सबक तैयार करके लाते हैं, उसी तरह दूसरे दिन लिखकर लाती। लिखने में कितनी ही अधिक गलतियाँ क्यों न हुई हों, उन्हें सुधारकर दुबारा लिखने में वे कभी उकताती न थी।
बा के अंग्रेजी सीखने का वर्णन भी बडा़ मनोरंजक है। यह तो कहा ही जा चुका है कि आरंभ में वे कुछ पढी़-लिखी न थी। पर जब गांधी जी के साथ दक्षिण अफ्रीका गई, तो वहाँ उनको लाचार होकर अंग्रेजी ही सुनना और बोलना पड़ा। उन्होंने दूसरों से सुनकर कुछ शब्द याद कर लिए और उन्हीं को बोलकर अपना भाव प्रकट कर देती थी। कुछ समय बाद गांधी जी के सहकारी मि०पोलक की पत्नी भी गांधी जी के द० अफ्रिका स्थित "फिनिक्स-आश्रम" में रहने लगी। उनकी संगत में रहने से उनको बोलने का इतना अभ्यास हो गया, जिससे भारतवर्ष में वापस आने पर गांधी जी से मिलने को आने वाले विदेशी मेहमानों से सामान्य बातचीत कर लेती थी। सन् १९३० में जब उनको सत्याग्रह में जेल का दंड दिया गया, तो वहाँ उन्होंने अंग्रेजी लिखना व सीखने का भी प्रयत्न किया। इस संबंध में सो० लाभु बहन ने, जो उनके साथ जेल में थीं, एक संस्मरण में लिखा है-
"बा को पता चला कि मैं अंग्रेजी जानती हूँ, तो उन्होंने मुझ से अंग्रेजी पढ़ना शुरू किया। इतनी बडी़ उमर में, इतने बडे़ पद पर पहुँचने बाद के बाद भी मेरे पास बैठकर अंग्रेजी सीखने में उनको न तो हीनता मालूम हुई, न शरम। उन्हें तो एक ही धुन लगी थी कि स्वयं बापू का पता अंग्रेजी में लिख सकें। "ए-बी-सी-डी" पर लगातार कई-कई दिन तक मेहनत करने पर भी वे उकताती नहीं। एक ही नाम को २०-२५ बार लिखते वे कभी थकी नहीं और न जल्दी-जल्दी नये-नये शब्दों या वाक्यों को सीखने की उन्होंने कभी इच्छा की। वे कहा करती-"अंग्रेजी आ जाय तो बापू को जो पत्र लिखती हूँ, उसका पता तो किसी से न लिखवाना पडे़ और उनके पास जो ढे़र की ढे़र डाक आती है, उसमें से मेरा पत्र खुद ही पहचाना जा सके न !"
अंग्रेजी पढी़ हुई न होने पर भी बा कभी-कभी बडी़-बडी़ मार्मिक बात बोल देती थी। सन् १९२२ से १९२४ तक जब गांधी जी यरवदा जेल में थे तो उन्होंने किसी कैदी की खुराक के संबंध में कुछ माँगे पेश की। पर जब सुपरिंटेंडेंट ने उनको नामंजूर कर दिया तो गांधी जी को बुरा लगा और उन्होंने केवल दूध पर ही रहने का निश्चय किया। इस तरह चार सप्ताह बीत गये और उनका वजन १०४ से घटकर ९० पौंड रह गया। जब बा के साथ परिवार के कुछ लोग उनसे मिलने गए और यह सब हाल मालूम हुआ तो उन्होंने आग्रह किया कि कि वे इस प्रयोग को छोड़कर फल लेगें।
यह देखकर सुपरिंटेंडेंट ने बा से कहा-"मि० गांधी यह जो सब करते हैं, उसमें मेरा कोई कसूर नहीं है।"
बा ने जवाब दिया-"यस, आई नो माई हसबैंड, ही आलवेज मिसचीफ।" अर्थात् "ठीक है, मैं अपने पति को पहचानती हूँ। उन्हें रोज कुछ ना कुछ शरारत ही सूझती है।"
यद्यपि बा ने "मिसचिफ" (शरारत) शब्द का प्रयोग अन्य कोई शब्द न आने से ही किया था, पर यदि गहराई से देखा जाय तो वह गांधी जी के चरित्र का बिल्कुल सही चित्रण था। उनका आशय यही था कि गांधी जी कभी चुप बैठने वाले नहीं हैं, न वे कभी खुद चैन से बैठते हैं और न दूसरे को बैठने देते हैं। ऐसे व्यक्ति को यदि प्यार में "शरारती" कह दिया जाय तो कोई दोष नहीं।
बा के इस उदाहरण से हमारी अन्य महिलाएँ बहुत प्रेरणा ले सकती हैं। यहाँ कुछ ही अधिक उमर हो जाने पर स्त्रियाँ कहने लगती हैं-"अब गृहस्थी के झंझट में पढ़ना-लिखना कैसे संभव हो सकता है ?" वे दिन में कई घंटे व्यर्थ की बातों में खर्च कर देती हैं, पर केवल पढ़ना ही उनको पहाड़ नजर आता है। वास्तव में यह उनकी श्रद्धा और धैर्य की कमी ही होती है, जिससे वे शिक्षा जैसी जीवन की कायापलट करने वाली चीज से वंचित रह जाती हैं। बा के ऊपर गांधी जी के रहन-सहन की व्यवस्था और आश्रम के कितने ही कार्यों का पर्याप्त भार था, तो भी वह पढ़ने-लिखने का कुछ समय नियमित रूप से निकाल ही लेती थी। इसका यह परिणाम हुआ कि वे देश और विदेशों के माननीय पुरुषों से बात-चीत करने
उस दिन जब बा "फीनिक्स-आश्रम" वालों के लिए रोटी बेल रही थीं, पास में बैठे गांधी जी ने कोई अन्य काम करते-करते उससे कहा-"तुझे नये कानून का पता चला या नहीं ?"
बा ने पूछा- "क्या ?"
गांधी जी ने हँसते हुए कहा-"आज तक तू मेरी ब्याही हुई पत्नी थी। अब तू ब्याही पत्नी नहीं रही।"
बा ने भौहें चढ़ाकर पूछा-"ऐसा किसने कह दिया ? आप तो रोज-रोज ही नई समस्याएँ खोज निकालते हैं।"
गांधी जी बोले-"मैं कहाँ खोज निकालता हूँ ? वह जनरल स्मट्स कहता है कि ईसाई लोगों के विवाहों की तरह हमारा विवाह सरकारी अदालत के रजिस्टर में दर्ज नहीं हुआ है, इसलिए उसे गैर कानूनी माना जायेगा। इस कानून के अनुसार तू मेरी ब्याही हुई पत्नी नहीं, लेकिन "रखैल स्त्री" मानी जायेगी।"
यह सुनकर बा-का चेहरा तमतमा उठा। वे बोलीं-"उसका सिर उस निठल्ले को ऐसी बातें कहाँ से सूझती हैं ?" गांधी जी- लेकिन अब तुम स्त्रियाँ क्या करोगी ?"
बा- आप ही बताइये, हम क्या करें ?"
गांधी जी ने मुस्कुराते हुए कहा-"हम पुरुष जिस तरह सरकार से लड़ते हैं, वैसे ही तुम स्त्रियाँ भी लडो़। सच्ची ब्याही हुई पत्नी बनना हो और 'रखैल' न कहलाना हो और अगर तुम लोगों को अपनी आबरू प्यारी हो, तो हमारी तरह तुमको भी सरकार से लड़ना चाहिए।"
बा- "आप तो जेल में जाते हैं !"
गांधी जी- "तू भी अपनी आबरू को बचाने के लिए जेल जाने को तैयार हो बा।"
बा- हाँ मैं जेल जाऊँ ! स्त्रियाँ भी कभी जेल जा सकती है ?"
गांधी जी-"क्यों, स्त्रियाँ जेल में क्यों नहीं जा सकतीं ? पुरुष जो सुख-दुःख भोगें, उन्हें स्त्रियाँ क्यों नहीं भोग सकती ? राम के पीछे सीता गई थी। हरिश्चंद्र के पीछे तारा गई थी और नल के पीछे दमयंती गई थी और इन सब ने जंगल मे अपार द़ुःख सहन किये।" बा-"वे सब देवताओं जैसे थे। उनके कदमों पर चलने की शक्ति हम में कहाँ है ?"
गांधी जी ने गंभीरता के साथ कहा- "इसमें क्या है ? हम भी उनके जैसा आचरण करें, तो उनके समान बन सकते हैं, देवता हो सकते हैं। राम के कुल का मैं हूँ और सीता के कुल की तू है। मैं राम बन सकता हूँ, तो तू भी सीता बन सकती है। सीता अपने धर्म का पालन करने के लिए राम के पीछे वन में न गई होती और राजमहलों में ही आराम से रहती, तो कोई उसे सीता माता न कहता। तारामती हरिश्चंद्र के सत्य के लिए बिकी ना होती तो हरिश्चंद्र के सत्यवव्रत में कमी रह जाती। तब हरिश्चंद्र को कोई सत्यवादी न कहता और तारामती को कोई सती न कहता। दंमयती नल के साथ जंगल में दु:ख भोगने में शामिल न होती तो उसे भी कोई सती न कहता। उसी तरह अगर तुझे अपनी आबरू बचानी हो, मेरी ब्याही हुई स्त्री कहलाना हो, तो तू सरकार से लड़ और जेल जाने के लिए तैयार हो जा।"
बा थोडी़ देर चुप बैठी रही , फिर बोली- "तो आपको मुझे जेल भेजना है, है न ? अब इतना ही बाकी रहा है ! जाऊँगी, जेल में भी जाऊँगी। लेकिन जेल का खाना मुझे अनुकूल आयेगा ?"
गांधी जी- "मैं तुझ से नहीं कहता कि तू जेल में जा। अपनी आबरू की खातिर जेल जाने का उत्साह तुझ में हो, तो जा, और जेल का खाना अनुकूल न आये तो वहाँ के फलों पर रहना।"
बा-"जेल में सरकार मुझे फल खाने को देगी ?"
गांधी जी-"फल न दें तब तक उपवास करना।
बा (हंसते हुए)-"ठीक, यह आपने मुझे अच्छा मरने का रास्ता बताया ! मुझे लगता है कि जेल में गई तो जरूर मर जाऊँगी।"
गांधी जी इस पर बडे़ जोर से हँस पडे़ और कहा-"हाँ, हाँ मैं भी यही चाहता हूँ, तू जेल में जाकर मरेगी तो मैं जगदम्बा की तरह तुझे पूजूगाँ।"
बा-"अच्छा, तब तो मैं जेल जाने को तैयार हूँ।"
गांधी जी बा का निर्णय सुनकर बडे़ प्रसन्न हुए। बाद में बा किसी काम से बाहर गई तो गांधी जी ने वहाँ उपस्थित एक अन्य सज्जन से कहा-"बा की खूबी यही है कि मन से या बेमन से मेरी इच्छा का अनुकरण करती है।" आरंभिक जीवन-
कस्तूरबा का जन्म पोरबंदर (सौराष्ट्र) के उसी मोहल्ले में हुआ था जिसमें गांधी जी का घर था। वे आयु में गांधी जी से छह महीना बडी़ थी, पर इन दोनों का विवाह संबंध (सगाई) उस समय की परंपरा के अनुसार सात वर्ष की आयु में ही निश्चित हो गयी थी और तेरह वर्ष की आयु में पाणिग्रहण संस्कार होकर वे पतिगृहं में आ गई। उस समय उनको अक्षर ज्ञान भी नहीं था। स्वयं गांधी जी ने ही रात्री के समय एकांत में थोडा़-थोड़ा समय देकर उन्हें इस योग्य बनाया कि वे साधारण चिट्ठी-पत्री बाँच सकें और लिख सकें। इसके पश्चात् सार्वजनिक जीवन में रहने और देश के बडे़-बडे़ नेताओं के संपर्क में आने से उनका ज्ञान काफी बढ़ गया, पर पुस्तकीय शिक्षा की दृष्टि से उनकी स्थिति सामान्य ही रही।
इतनी छोटी अवस्था में विवाह हो जाने से बा और गांधी जी और बा का दांपत्य जीवन भी धीरे-धीरे और अनेक प्रकार के उतार-चढ़ावों में होकर विकसित हुआ। आरंभ से तो वह इसके महत्व और विशेषताओं से सर्वथा अनजान ही थे। उस समय की स्थिति की चर्चा करते हुए गांधी जी ने अपनी 'आत्म-कथा' में लिखा है-
"मुझे याद नहीं पड़ता कि सगाई के समय मुझसे कुछ कहा गया था। इसी प्रकार ब्याह के वक्त भी कुछ पूछा नहीं गया। सिर्फ तैयारियों से ही पता चला कि ब्याह होने वाला है। उस समय अच्छे-अच्छे कपडे़ पहनेंगे, बाजे बजेंगे, जुलूस निकलेंगे अच्छा-अच्छा खाना खाने को मिलेगा, एक नई लड़की के साथ हँसी-खेल करेंगे-ऐसी इच्छाओं के सिवा और कोई भाव मेरे मन में रहा हो ऐसा याद नहीं आता। ब्याह के समय मंडप में बैठे, फेरे फिरे "कसार" खाया-खिलाया और वर-वधू दोनों साथ रहने लगे ! दो अबोध बालक बिना जाने, बिना समझे संसार-सागर में कूद पडे़। कुछ ऐसा ख्याल आता है कि हम दोनों एक दूसरे से डरते थे, एक दूसरे से शरमाते तो थे ही। बातें किस तरह करना, क्या करना, सो मैं क्या जानूँ ? धीरे-धीरे एक दूसरे को पहिचानने लगे, बोलने लगे।"
"मुझे अपनी स्त्री को आदर्श स्त्री बनाना था। वह साफ बने, साफ रहे मैं जो सीखूँ वह भी उसे सीखे, हम एक दूसरे में ओत-प्रोत रहें, यह मेरी भावना थी। मुझे याद नहीं पड़ता कि कस्तूर-बा की भी ऐसी भावना थी। वे निरक्षर थीं, स्वभाव की सीधी, स्वतंत्र, मेहनती और मेरे साथ कम बोलने वाली। उनको अपने अज्ञान से असंतोष न था। मैंने अपने बचपन में उनकों कभी यह इच्छा करते नहीं पाया कि जिस तरह मैं पढ़ता हूँ, उस तरह वे खुद भी पढे़ तो अच्छा हो। उन्हें पढा़ने की मेरी बडी़ इच्छा थी। लेकिन उसमें दो कठिनाइयाँ थीं। एक तो बा की पढ़ने की भूख खुली नहीं थी, दूसरे बा अनुकूल हो जातीं तो भी उस जमाने में भरे-पूरे परिवार में इस इच्छा को पूरा करना आसान नहीं था।"
दक्षिण अफ्रीका में-
पर यह स्थिति थोडे़ ही दिन रही। इसके कुछ वर्ष बाद जब कस्तूर-बा गांधी जी के साथ द० अफ्रीका गई, तो उनकी दुनिया ही बदल गई। कहाँ एक कट्टर वैष्णव संप्रदाय के नियमों का पालन करने वाली, अधिकांश विषयों में रूढ़ियों और परंपरा के अनुसार जीवन व्यतीत करने वाली, भारतीय नारी और कहाँ यूरोपियन सभ्यता और वहाँ का बिल्कुल भिन्न प्रकार का रहन-सहन ? यद्यपि द० अफ्रीका में भारतवासियों और विशेषतः गुजरातियों की संख्या बहुत अधिक थी, पर विदेशी वातावरण में रहने और वहाँ के बडे़ लोगों का अनुकरण करने से उनके रहन-सहन में बहुत अंतर आ गया था। सबसे पहली बात तो वहाँ की वेष-भूषा की ही थी। हिंदुस्तान में जिस प्रकार स्त्रियाँ प्राय: नंगे पैर चलती हैं, यह वहाँ की सभ्यता के विरूद्ध है। दूसरी बात यह है कि ठंड ज्यादा पड़ने से वहाँ नंगे पैर रहना कठिन है। इसलिए गांधी जी ने शुरू से ही बा को जूता और मोजा पहिनने को कहा। यद्यपि इसमें कोई दोष की बात नहीं थी, पर फिर भी बा ब़डी कठिनाई से इसके लिए तैयार हुई।
बा की परीक्षा-
दक्षिण अफ्रीका में जिस मकान में गांधी जी रहते थे, वह भारतीय घरों की तरह नहीं था। यूरोपियन लोग कमरों में मोरियाँ नहीं रखते थे। इसलिए वे पेशाब के लिए एक बर्तन रखते हैं। जिसे कोई नौकर या वे स्वयं उठाकर फेंक देते हैं। गांधी जी के घर में उनके साथ ही उनके मुहर्रिर (कलर्क) भी रहा करते थे। उनमें से कुछ तो अपने पेशाब का बर्तन स्वयं उठाकर साफ कर लाते थे, और जो ऐसा नहीं करते थे उनके बर्तन गांधी जी या बा को उठा कर साफ करने पड़ते थे। आरंभ में तो बा को यह बहुत बुरा लगता था, पर धीरे-धीरे आदत पड़ गई। पर कुछ समय बाद जब एक ईसाई क्लर्क आया,
जिसका बाप सबसे नीची जाति का था, तो बा को उसका बर्तन साफ करना असहाय जान पड़ने लगा। पर वे स्वयं खडी़ रहकर यह भी नहीं देख सकती थीं कि गांधी जी उस बर्तन को उठाकर ले जायें। बा उस बर्तन को उठाकर तो ले गई, पर उनकी आँखों से आँसू बहते जाते थे और वे लाल-लाल आँखों से गांधी जी की और देखती जाती थीं। उनकी यह विरक्त्ततापूर्ण मनोवृत्ति गांधी जी को बहुत खटकी। वे एक पति प्रेमी होने के साथ ही सिद्धान्तों के मामले में भी सदा कठोर थे। इसलिए तुरंत चिल्लाकर कहने लगे-"मेरे घर में यह बखेड़ा नहीं चलेगा ?"
कस्तूर-बा भी रोष से भर कर बोल उठी-"तो अपना घर अपने पास रखो- मैं चली।"
इस पर गांधी जी परिस्थिति को भूलकर एकदम बा का हाथ पकड़कर दरवाजे तक खींच कर ले गये और उनको बाहर निकालने लगे। तब वह कहने लगीं-"तुम्हें शरम नहीं, पर मुझे तो है। मैं बाहर निकलकर कहाँ जाऊँगी ? यहाँ मेरे माँ-बाप भी नहीं, जो मैं उनके यहाँ चली जाऊँ। मैं औरत ठहरी इसलिए तुम्हारी चपत खानी ही पड़ेंगी । अब जरा शरम करो और दरवाजा बंद कर दो। कोई देखेगा तो दोनों की फजीहत होगी।"
इस तरह बडे़ संघर्ष के साथ बा अपने को कुछ अंशों में विदेशी वातावरण के अनुकूल बना पाईं। इसका आशय यह है जहाँ तक बाहरी लोगों से संबंध का पड़ता था, वहाँ तक वे इस प्रकार का व्यवहार करने लगीं, जिससे कोई उनको सभ्यता के नियमों से अनजान या मूर्ख न समझे। पर निजी व्यवहार में और आंतरिक भावनाओं में वे तब भी पक्की हिंदू ही थीं। खान-पान के विषय में भी वे बडी़ कट्टर थीं और कभी कोई ऐसी चीज ग्रहण करने को तैयार नहीं होती थीं जिसमें अंडा या मांस आदि की मिलावट का संदेह हो। इस संबंध में एक बडी़ गंभीर घटना हो गई।
कस्तूर-बा को खूनी बवासीर की शिकायत पैदा हो गई थी, जिससे प्राय: रक्तस्राव होता था। गांधी जी के डॉक्ट्रर मित्र ने उसको ऑपरेशन करके ठीक करने को कहा। बा बडी़ कठिनाई से इसके लिए तैयार हुईं। वह बहुत कमजोर हो गई थी इसलिए उनको ऑपरेशन के बाद कुछ दिन डॉक्ट्रर के घर पर ही रखने का निश्चय किया गया। डॉक्टर का घर डरबन में था और गांधी जी उस समय फीनिक्स आश्रम में रहते थे। ऑपरेशन के बाद डॉक्टर और उसकी पत्नी द्वारा बहुत सेवा किये जाने पर भी बा की तबियत बराबर गिरती गई। एक दिन कमजोरी के कारण बेहोशी भी आ गई। इसलिए ताकत लाने को डॉक्टर ने मांस का शोरबा देना आवश्यक समझा, पर इसके लिए गांधी जी से पूछना आवश्यक था। उसने टेलीफोन पर उनको अपना विचार बतलाया।
गांधी जी-"मैं तो इसकी इजाजत नहीं दे सकता। पर कस्तूरबा इस संबंध में स्वतंत्र है अगर वह स्वीकार करे तो आप अवश्य दे सकते हैं।"
डॉक्टर- "रोगी से इस तरह की बात मैं पूछ नहीं सकता। आपको यहाँ आ जाना चाहिए। अगर आप मैं जो वह खिलाने की इजाजत नहीं देते तो मैं आपकी स्त्री के लिए जिम्मेदार नहीं हूँ।" गांधी जी उस समय डरबन के लिए चल दिये। वहाँ पहुँचने पर डॉक्टर ने बतलाया-"मैंने तो उनको शोरबा पिलाकर ही आपको फोन किया था।"
गांधी जी- डॉक्टर, मैं इसको दगा समझता हूँ।
डॉक्टर- इलाज करते समय मैं दगा-वगा कुछ नहीं जनता। हम डॉक्ट्रर लोग ऐसे समय में रोगी को और उसके रिश्तेदारों को धोखा देने में पुण्य समझते हैं। हमारा धर्म तो किसी तरह भी रोगी को बचाना है।
गांधी जी-खैर जो हुआ सो हुआ, पर में जान-बूझ कर अपनी पत्नी को उसकी इच्छा के बिना मांस नहीं लेने दूगाँ। इससे उसकी मृत्यु हो जाय तो मैं उसे सहने को तैयार हूँ।
डॉक्टर-आपकी फिलॉसफी मेरे घर बिल्कुल नहीं चलेगी। जब तक वह मेरे यहाँ है, मैं उसको मांस या जो कुछ मुनासिब होगा-जरूर दूगाँ। अगर यह आपको स्वीकार न हो, तो आप अपनी पत्नी को ले जाइये। अपने घर में जान-बूझ कर मैं उनकी मौत नहीं होने दूगाँ।
गांधी जी फिर कस्तूर-बा के पास गये और सब बातें संक्षेप में समझा दीं। वह अत्यंत कमजोर थी, पर उसने दृढ़तापूर्वक कहा-मैं मांस का शोरबा नहीं लूँगी। मानुष-देह बार-बार नहीं मिलती। भले ही मैं आपकी गोद में मर जाऊँ पर अपनी देह को भ्रष्ट नहीं करूँगी।"
जब मैंने यह बात डॉक्टर को बतलाई, तो वह कहने लगा-"तुम तो बडे़ निष्ठुर पति मालूम होते हो। ऐसी बीमारी में उस बेचारी से ऐसी बात कहते तुम्हें शर्म नहीं आई। मैं तुमसे कहता हूँ कि तुम्हारी पत्नी यहाँ से जाने लायक नहीं है। रास्ते में ही उसका प्राण छूट जाय तो आश्चर्य नहीं, इतने पर भी तुम हठवश नहीं मानोगे, तो तुम्हारी तुम जानो। अगर मैं उसे शोरबा नहीं दे सकता, तो उसे अपने घर में रखने का जोखिम भी नहीं उठा सकता"
पर कस्तूर-बा बराबर अपनी बात पर दृढ़ रही। गांधी जी ने उसे उठाया तो देखा कि उस हड्डियों के ढाँचे में कुछ भी वजन नहीं रह गया है। गांधी जी यह देखकर घबड़ाने लगे, पर कस्तूर-बा ने उन्हें हिम्मत बँधाते हुए कहा-"मुझे कुछ नहीं होगा आप चिंता न करें" अंत में वह लंबी यात्रा तय करके फीनिक्स पहुँच गई और गांधी जी के प्राकृतिक उपचार और सेवा-सुश्रूषा से स्वस्थ हो गई।
बा की त्याग वृत्ति-
खान-पान और फैशन की दृष्टि से तो बा का जीवन आरंभ से ही बहुत सादा था, पर अपरिग्रह के विषय में उसको गांधी जी क दबाव सहन करना पडा़। सन् १९०० में जब वे द० अफ्रीका से वापस आने लगे तो नेटाल के भारतवासियों ने उनकी विदाई के उपलक्ष्य में बहुत बडा़ समारोह किया और उनको सोने, चांदी तथा जवाहरात के बहुत से पदार्थ भेंट दिये। उसमें ५० गिन्नियों से बना एक हार कस्तूरबा के लिए था। इन भेंटों को पाकर गांधी जी बडी़ चिंता में पड़ गये और उस रात उनको जरा भी नींद नहीं आई। हजारों के मूल्य के उपहारों को छोड़ देना कठिन जान पड़ता था, पर उनको रखना उससे भी कठिन लगता था। अंत में वे इसी निर्णय पर पहुँचे कि अपनी सेवा का इस प्रकार का बदला लेना किसी प्रकार का उचित नहीं। इससे कभी दूसरों को तथा अपने स्त्री-बच्चों को भी अच्छी प्रेरणा नहीं मिल सकती। इसलिए उचित यही है कि उनको कुछ ट्रस्टियों के सुपुर्द करके सार्वजनिक कार्यों में खर्च कर दिया जाय।
गांधी जी ने तो अपने दार्शनिक विचारों के अनुसार थोडी़ देर में यह निर्णय कर लिया, पर कस्तूर-बा को इसके लिए तैयार करना सहज न था। वह कहने लगी-"चाहे तुम को जरूरत न हो और मुझे भी तुम गहने न पहनने दो, पर मेरी बहुओं को तो उनकी जरूरत होगी। इतने प्रेम से दी गई चीज लौटाई नहीं जाती।"
गांधी जी ने समझाने के ढंग से धीरे से कहा-"लड़को की शादी तो होने दो। हमें कौन बचपन में ही इन्हें ब्याहना है। बडे़ होने पर वे जो चाहे सो करें और हमें कौन गहनों की शौकीन बहुएँ ढूँढ़नी हैं। फिर भी कुछ बनवाना ही पडा़ तो मैं तो हूँ ही न ?"
बा-"तुम्हे तो मैं जानती हूँ तुम तो वही हो न, जिन्होंने मेरे गहने छीन लिए ? तुमने जब मुझे सुख से नहीं पहनने दिया तो मेरी बहुओं के लिए क्या लाओगे ? बच्चों को तो तुम अभी से बैरागी बनाना चाहते हो और मेरे हार पर तुम्हारा क्या हक है ?"
गांधी जी-" लेकिन यह हार तुमको तुम्हारी सेवा के लिए मिला है या मेरी सेवा के कारण ?"
बा- कुछ भी हो, तुम्हारी सेवा मेरी भी सेवा हुई। मुझ से रात दिन मजदूरी कराई, सो क्या सेवा नहीं मानी जायेगी ? मुझे रूला-रूलाकर हर किसी को घर में रखा और चाकरी कराई, उसका कोई हिसाब नहीं ?उस समय तो गांधी जी के दबाव से ही बा उन गहनों को वापस देने को राजी हो हुई, पर बाद में उन्होंने उसका औचित्य समझ लिया कि सार्वजनिक सेवकों को निश्चय ही निस्पृह होना चाहिए, अन्यथा उनकी सेवा का मूल्य बहुत घट जाता है। आजकल तो हमारे देश में इस प्रकार के लोभ-लालच की हद हो गई है। लोग काम तो करेंगे छटाँक भर, पर उसका बदला चाहेंगे सेर भर। इससे सार्वजनिक जीवन की और विशेषकर राजनैतिक क्षेत्र में कार्य करने वालों की मिट्टी पलीत हो रही है और जनता कि दृष्टि में वे सम्मान के बजाय उपेक्षा और निंदा के पात्र हो रहे हैं। हम अपने पाठकों को बडी़ दृढ़टा के साथ यह सम्मति देगें कि चाहे वे सार्वजनिक सेवा और जन-कल्याण के कार्य अधिक न करें, उनके लिए अपनी कम से कम हानि सहन करें, पर जो कुछ करे वह निःस्वार्थ भाव से अपना धर्म-कर्तव्य समझकर करें, ऐसा करने से उनका वह थोडा़-सा सेवा-कार्य भी महान् बन जायेगा। सेवा-कार्य की महत्ता सब हमारी मानसिक भावना में है। अगर हम स्वार्थ की भावन रखते हुए कोई "परमार्थ-कार्य" करते हैं तो वह कभी श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकेगा।
पहली स्त्री सत्याग्रही-
जैसा आरंभ में लिखा जा चुका है, जब दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार ने हिंदू-मुसलमानों के विवाह को गैरकानूनी बनाकर उनकी स्त्रियों को पत्नी के बजाय "रखैल" कहने का निश्चय किया, तो गांधी जी ने उसके विरूद्ध सत्याग्रह किया और उसमें स्त्रियों को शामिल करना उन्होंने आवश्यक समझा। पर यह एक खतरनाक काम था। जेलों का वातावरण दूषित होता और वहाँ का व्यवहार भी अपमानजनक जैसा ही होता है। इसलिए घर के भीतर रहने वाली और तरह-तरह के छुआछूत और शुद्ध-अशुद्ध के जंजालों में फँसी हिंदू स्त्रियाँ, यदि जेल-जीवन से घबराकर दो-चार दिन में ही माफी मांगकर चली आवें तो इसमें समस्त सत्याग्रह-आंदोलन की बडी़ बदनामी और हानि थी। यधपि गांधी जी ने बातों ही बातों में इसकी चर्चा बा से कर दी, पर उन्होंने यह स्पष्ट आग्रह कभी नहीं किया कि वे सत्याग्रह करके अवश्य जेल जायें। इसके बजाय उन्होंने अन्य बहनों से इसके लिए पूछा। उन सबने अपनी रजामंदी बतलाई और कहा कि चाहे जितना भी कष्ट सहन करना पडे़, हम लोग जेल की सजा पूरी करके आयेंगी। बा ने जब ये सब बातें सुनीं तो उनको कुछ बुरा लगा और उन्होंने गांधी जी से कहा-"मुझसे आप जेल जाने को क्यों नहीं कहते ? मुझमें ऐसी कौन सी कमी है, जिससे मैं जेल न जा सकूँ ?"
गांधी जी ने उत्तर दिया-"मैं न तो तुमको कभी दुःखी कर सकता हूँ, न तुम्हारे ऊपर अविश्वास कर सकता हूँ। तुम्हारे जेल जाने से तो मुझे बडा़ संतोष होगा, पर यदि मेरे मन में यह ख्याल बना रहे कि तुम मेरी आज्ञापालन करके जेल गई हो तो यह मुझे बुरा जान पड़े़गा। ऐसे काम सबको अपनी हिम्मत से ही करने चाहिए। तुम जेल में जाकर जेल के कष्टों से उब जाओ, तो यह मुझे कैसे अच्छा लगेगा"
बा-" मैं हार मानकर जेल से बहार चली आऊँ तो मुझे अपने पास मत रहने देना। मेरे बच्चें तक सह सकें, आप सब सहन करते रहें और मैं अकेली ही उसे न सह सकूँ, ऐसा कैसे हो सकता है ? ऐसा आप क्यों सोचते हैं ? मुझे इस सत्याग्रह की लडा़ई में भाग लेना ही होगा।"
जेल में जाकर बा ने बहुत कष्ट सहन किये। वहाँ का अशुद्ध ढंग से बनाया गंदे बर्तनों में रखा गया भोजन तो वे खा ही कैसे सकती थीं ? इसलिए जेल में पहुँचकर उन्हें भूखा ही रहना पड़ा। पांच दिन के बाद सरकार झुकी और उनको फल देने की आज्ञा दी। पर केवल तीन केला, चार प्रून्स, दो टमाटर और दो नीबू मिलते थे। इस प्रकार तीन महीने तक जेल के भीतर बा को आधा पेट ही रहना पडा़। इसलिए जेल की सजा पूरी करके जब वे बाहर आई तो हड़िड्यों का ढाँचा मात्र रह गई थीं। उस समय सब कोई उनको देखकर शोकाकुल हो गए। अफ्रीका के गोरे जैसे विदेशी और विधर्मी लोगों की जेल में एक धार्मिक विचारों की हिंदू स्त्री का रहना वास्तव में बडा़ कठिन था, पर बा ने साहस करके सब संकटों को सहन कर लिया, यह एक ऐसा आदर्श था, जिससे हमारी सब बहनें लाभ उठा सकती हैं।
बा की परिश्रमशीलता-
बा का जीवन आरंभ से ही परिश्रम करने का था। गांधी जी सदा से ही बडी़ देख-रेख और जाँच पड़ताल करने वाले पति थे। यह कस्तूर-बा की निरालस्यता और सेवा परायणता का ही परिणाम था कि वह उनकी पसंद का कार्य करके उन्हें संतुष्ट रखती थीं। इसलिए वे रात को चाहे जल्दी सो गई हो या देर से, ३ बजे प्रार्थना होने के समय अवश्य जग जाती थी। गांधी जी तो प्रार्थना समाप्त हो जाने पर फिर थोडी़ देर के लिए सो जाते थे, पर बा उसी समय से उनके स्नान के लिए पानी गरम करने और जलपान के लिए शहद या वैसी ही कोई चीज तैयार करने में लग जाती थीं। वैसे अन्य अनेक व्यक्ति गांधी जी की किसी प्रकार की सेवा करने को इच्छुक रहते थे, पर बा जानती थी कि गांधी जी जिस प्रकार प्रत्येक विषय में गहरी छानबीन करते रहते हैं, उसे देखते हुए अन्य लोगों के कार्य में कोई त्रुटि निकल आना बहुत संभव है। इसलिए अगर किसी के आग्रह करने पर बा दूसरों को कोई काम करने का मौका दे भी देती थीं, तो भी बराबर यह निरीक्षण करती रहती थी कि उसमें कोई कमी तो नहीं रह गई। खास कर बर्तनों की सफाई की तरफ उनका बहुत अधिक ध्यान रहता था। जब वे देखती कि किसी लड़की के मजे हुए बर्तनों में कुछ कमी रह गई है तो स्वयं उनको पूरी तरह साफ कर डालती थीं। वे प्रातःकाल से ही दिन भर किस प्रकार व्यस्त रहती थी, इसका वर्णन करते हुए एक आश्रमवासी ने लिखा है-
बापू सबेरे लगभग ७ बजे घूमने निकलते। उस समय बा अपने स्नान आदि के कामों से निपट लेतीं और पूजा-पाठ पर बैठ जाती। लगभग एक घंटा गीता जी और तुलसी-रामायण का पाठ करतीं। इसके बाद वे रसोई घर में पहुँच जातीं और वहाँ सब ठीक ढंग से चल रहा है या नहीं, इसका पता एक निगाह में ही लगा लेतीं। कोई खाद्य सामग्री खुली पडी़ हों, शाक या फल बिगड़ने की हालत में हों तो वह तुरंत उसको ठीक करने लगतीं। वे बहुत स्पष्टवक्ता थीं, इसलिए जिसको जो कहना होता, साफ-साफ कह देतीं। मुँह से हाँ-हाँ कहने और अंगीकृत काम को भली-भांति न करने वालों से बा बडी़ नाराज रहा करती। इसलिए नये आये हुए लोगों को कभी-कभी बा की बात बुरी भी लग जाती। वे प्रत्येक वस्तु को ठीक जगह सफाई से रखना पसंद करती थीं और जो कुछ गिरा या पडा़ देखतीं, उसे अपने हाथों से ठीक करने लग जातीं। अगर कभी किसी के नाराज होने की चर्चा गांधी जी के पास पहुँचती तो वे कहते-"अगर बा के पास थोडा़-बहुत कडुवा नीम है, तो मीठी मिसरी तो बहुत ज्यादा है।"
गांधी जी का भोजन बा स्वयं ही तैयार करती थीं। अगर कोई और बनाने लगता तो पास ही खडी़ हुई देखती रहतीं कि हर एक चीज ठीक बन रही है या नहीं। वे भोजन बनाने में बहुत निपुण थीं। और गांधी जी की रूचि के अनुकूल खाध पदार्थ बनाने का पूरा ध्यान रखती थी। भोजन की घंटी बजने पर वे सब मेहमानों को भोजन परोसकर स्वयं भी गांधी जी के पास ही खाने बैठ जातीं। उस समय भी उनकी एक आँख तो बापू की तरफ ही रहती। एक मक्खी को भी आते देखतीं तो उनका बाँया हाथ तुरंत पंखे को सँभाल लेता। भोजन समाप्त होने पर वे बापू के साथ उनके कमरे में आतीं और १५-२० मिनट के लिए लेट जातीं। उसके बाद उठकर अखबार पढ़ने लग जातीं"
यद्यपि बा ज्यादा पढी़-लिखी नहीं थीं, तो भी अखबारों के जरिये देश की हालत का पता रखती थीं। वह "हरिजन बंधु" को इसलिए पूरा पढ़ डालतीं कि विभिन्न कार्यक्रमों के विषय में गांधी जी के विचारों का पता चलता रहे। अखबारों में दुनिया की मुसीबतों और तकलीफों का हाल पढ़कर बा को बहुत दुःख होता। महायुद्ध का हाल पढ़कर वे कहने लगती "क्या यह लड़ाई दुनिया को तबाह करके ही बंद होगी" बंगाल के भीषण अकाल की खबरें पढ़कर बा ने "आगाखान महल" के जेलखाने से एक पत्र में लिखा- "बंगाल के समाचार पढ़कर तो दिल फटता है। वहाँ तो आसमान ही फट पडा़ है। न जाने ईश्वर क्या करने वाला है ?"
पढ़ने की हार्दिक आकांक्षा-बचपन में तो बा को किसी ने पढा़या नहीं, पर बडी़ उम्र में वातावरण बदल जाने पर उनको पढ़ने का शौक हो गया था। हर रोज एक-आध घंटा वे किसी न किसी के पास कुछ न कुछ पढा़ ही करती थी। राष्ट्रभाषा होने के ख्याल से हिंदी का अभ्यास वे प्राय: किया करती थी। कभी किसी की मदद से तुलसी-परायण पढ़ती और कभी गीता का अभ्यास करती। अपनी आयु के अंतिम वर्षों में आगाखान महल में कैद रहते हुए वे गांधी जी से गीता के श्लोकों का शुद्ध उच्चारण करना सीखती थी। इन दोनों ७५-७५ वर्ष की आयु के 'शिक्षक और विधार्थी' का दृश्य देखते ही बनता था। बा जो कुछ सीखना शुरू करती थी, बडी़ श्रद्धा के साथ सीखती और इतनी उम्र हो जाने पर भी एक विनम्र विद्यार्थी की तरह पढ़ने को बैठती। उन्हें कुछ लिखने को दिया जाता तो उसे भी वे छोटे विद्यार्थी जिस प्रकार अपना सबक तैयार करके लाते हैं, उसी तरह दूसरे दिन लिखकर लाती। लिखने में कितनी ही अधिक गलतियाँ क्यों न हुई हों, उन्हें सुधारकर दुबारा लिखने में वे कभी उकताती न थी।
बा के अंग्रेजी सीखने का वर्णन भी बडा़ मनोरंजक है। यह तो कहा ही जा चुका है कि आरंभ में वे कुछ पढी़-लिखी न थी। पर जब गांधी जी के साथ दक्षिण अफ्रीका गई, तो वहाँ उनको लाचार होकर अंग्रेजी ही सुनना और बोलना पड़ा। उन्होंने दूसरों से सुनकर कुछ शब्द याद कर लिए और उन्हीं को बोलकर अपना भाव प्रकट कर देती थी। कुछ समय बाद गांधी जी के सहकारी मि०पोलक की पत्नी भी गांधी जी के द० अफ्रिका स्थित "फिनिक्स-आश्रम" में रहने लगी। उनकी संगत में रहने से उनको बोलने का इतना अभ्यास हो गया, जिससे भारतवर्ष में वापस आने पर गांधी जी से मिलने को आने वाले विदेशी मेहमानों से सामान्य बातचीत कर लेती थी। सन् १९३० में जब उनको सत्याग्रह में जेल का दंड दिया गया, तो वहाँ उन्होंने अंग्रेजी लिखना व सीखने का भी प्रयत्न किया। इस संबंध में सो० लाभु बहन ने, जो उनके साथ जेल में थीं, एक संस्मरण में लिखा है-
"बा को पता चला कि मैं अंग्रेजी जानती हूँ, तो उन्होंने मुझ से अंग्रेजी पढ़ना शुरू किया। इतनी बडी़ उमर में, इतने बडे़ पद पर पहुँचने बाद के बाद भी मेरे पास बैठकर अंग्रेजी सीखने में उनको न तो हीनता मालूम हुई, न शरम। उन्हें तो एक ही धुन लगी थी कि स्वयं बापू का पता अंग्रेजी में लिख सकें। "ए-बी-सी-डी" पर लगातार कई-कई दिन तक मेहनत करने पर भी वे उकताती नहीं। एक ही नाम को २०-२५ बार लिखते वे कभी थकी नहीं और न जल्दी-जल्दी नये-नये शब्दों या वाक्यों को सीखने की उन्होंने कभी इच्छा की। वे कहा करती-"अंग्रेजी आ जाय तो बापू को जो पत्र लिखती हूँ, उसका पता तो किसी से न लिखवाना पडे़ और उनके पास जो ढे़र की ढे़र डाक आती है, उसमें से मेरा पत्र खुद ही पहचाना जा सके न !"
अंग्रेजी पढी़ हुई न होने पर भी बा कभी-कभी बडी़-बडी़ मार्मिक बात बोल देती थी। सन् १९२२ से १९२४ तक जब गांधी जी यरवदा जेल में थे तो उन्होंने किसी कैदी की खुराक के संबंध में कुछ माँगे पेश की। पर जब सुपरिंटेंडेंट ने उनको नामंजूर कर दिया तो गांधी जी को बुरा लगा और उन्होंने केवल दूध पर ही रहने का निश्चय किया। इस तरह चार सप्ताह बीत गये और उनका वजन १०४ से घटकर ९० पौंड रह गया। जब बा के साथ परिवार के कुछ लोग उनसे मिलने गए और यह सब हाल मालूम हुआ तो उन्होंने आग्रह किया कि कि वे इस प्रयोग को छोड़कर फल लेगें।
यह देखकर सुपरिंटेंडेंट ने बा से कहा-"मि० गांधी यह जो सब करते हैं, उसमें मेरा कोई कसूर नहीं है।"
बा ने जवाब दिया-"यस, आई नो माई हसबैंड, ही आलवेज मिसचीफ।" अर्थात् "ठीक है, मैं अपने पति को पहचानती हूँ। उन्हें रोज कुछ ना कुछ शरारत ही सूझती है।"
यद्यपि बा ने "मिसचिफ" (शरारत) शब्द का प्रयोग अन्य कोई शब्द न आने से ही किया था, पर यदि गहराई से देखा जाय तो वह गांधी जी के चरित्र का बिल्कुल सही चित्रण था। उनका आशय यही था कि गांधी जी कभी चुप बैठने वाले नहीं हैं, न वे कभी खुद चैन से बैठते हैं और न दूसरे को बैठने देते हैं। ऐसे व्यक्ति को यदि प्यार में "शरारती" कह दिया जाय तो कोई दोष नहीं।
बा के इस उदाहरण से हमारी अन्य महिलाएँ बहुत प्रेरणा ले सकती हैं। यहाँ कुछ ही अधिक उमर हो जाने पर स्त्रियाँ कहने लगती हैं-"अब गृहस्थी के झंझट में पढ़ना-लिखना कैसे संभव हो सकता है ?" वे दिन में कई घंटे व्यर्थ की बातों में खर्च कर देती हैं, पर केवल पढ़ना ही उनको पहाड़ नजर आता है। वास्तव में यह उनकी श्रद्धा और धैर्य की कमी ही होती है, जिससे वे शिक्षा जैसी जीवन की कायापलट करने वाली चीज से वंचित रह जाती हैं। बा के ऊपर गांधी जी के रहन-सहन की व्यवस्था और आश्रम के कितने ही कार्यों का पर्याप्त भार था, तो भी वह पढ़ने-लिखने का कुछ समय नियमित रूप से निकाल ही लेती थी। इसका यह परिणाम हुआ कि वे देश और विदेशों के माननीय पुरुषों से बात-चीत करने