Books - विश्व की महान नारियाँ-1
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स्वतंत्रता के लिए प्राण अर्पण करने वाली- रानी दुर्गावती
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स्वतंत्रता के लिए प्राण अर्पण करने वाली- रानी दुर्गावती
मानव सभ्यता के आदिकाल से नारी का कार्यक्षेत्र घर माना गया है। वही संतान की जननी, पालन करने वाली और संरक्षिका है। पुरुष को वह जैसा बनाती है, वह प्रायः वैसा ही बन जाता है। इस दृष्टि से यदि उसे मानव जाति की निर्माणकर्ता कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है। वैसे प्रकृति ने नारी को सब प्रकार की शक्तियाँ और प्रतिभाएँ पूर्ण मात्रा में प्रदान की हैं, पर गृह- संचालन की जिम्मेदारी के कारण उसमें मातृत्व और पत्नीत्व के गुणों का ही विकास सर्वाधिक होता है। उसको अपने इस क्षेत्र से बाहर निकलने की आवश्यकता बहुत कम पड़ती है, पर जब आवश्यकता पड़ती है तो वह अन्य क्षेत्रों में भी ऐसे महानता के कार्य कर दिखाती है कि दुनिया चकित रह जाती है।
यद्यपि वर्तमान समय में परिस्थितियों में परिवर्तन हो जाने के कारण स्त्रियाँ विभिन्न प्रकार के पेशों में प्रवेश कर रही हैं और शिक्षा, व्यवसाय, कला उद्योग- धंधे, सार्वजनिक सेवा आदि अनेक क्षेत्रों में पर्याप्त संख्या में स्त्रियाँ दिखाई पड़ने लगी हैं। यद्यपि हमारे देश में अभी यह प्रकृति आरंभिक दशा में है, पर विदेशों में तो करोडों स्त्रियाँ सब प्रकार के जीवन- निर्वाह के पेशों में भाग ले रही हैं। यदि यह कहा जाए कि इंग्लैंड, अमेरिका, रूस आदि देशों की तीन चौथाई से अधिक स्त्रियाँ गृह- व्यवस्था के अतिरिक्त अर्थोपार्जन और समाज- संचालन के अन्य कार्यों में भी संलग्न हैं तो इसे गलत नहीं कहा जा सकता।
पर एक क्षेत्र ऐसा अवश्य है, जिसमें हमारे देश तथा अन्य देशों की स्त्रियों ने बहुत कम भाग लिया है, वह है, सेना और युद्ध का विभाग। हमारे देश में बहुत समय से नारी को कभी इस कार्य के लिए उपयुक्त माना ही नहीं गया और इसलिए उसका एक नाम 'अबला' भी रख दिया गया है। लोगों का ख्याल है कि अधिकांश में घर के भीतर रहने से स्त्रियों में दुर्धर्षता का वह गुण उत्पन्न ही नहीं हो पाता, जो सैनिक कार्यों के लिए आवश्यक है।
पर फिर भी कोई यह नहीं कह सकता कि स्त्रियाँ इस क्षेत्र में कुछ कर ही नहीं सकतीं। यद्यपि सामाजिक परिस्थितियाँ तथा नियमों के कारण ऐसे अवसर बहुत कम आते हैं, पर समय- समय पर ऐसी विरागंनायें उत्पन्न हुई हैं, जिन्होंने वीरता तथा युद्ध संबंधी कार्यों में पुरुषों से अधिक साहस और योग्यता दिखलाई है। ऐसी एक वीर नारी तो हमारे समय ही हो चुकी है। वह थी झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई जिसने सन् १८५७ के स्वाधीनता- संग्राम के इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया है। यद्यपि गदर में सैकडो़ ही सरदारों राजाओं और नवाबों ने भाग लिया था, पर इतिहासकार मुक्त कंठ से स्वीकार करते हैं कि उनमें से किसी ने झाँसी की रानी से बढ़कर शौर्य- वीरता का परिचय नहीं दिया। झाँसी के किले में और कालपी तथा ग्वालियर युद्ध- क्षेत्रों में उसने जैसा पराक्रम, युद्ध संबंधी कुशलता दिखाई, उस पर मुग्ध होकर अंग्रेजी सेनाओं के मुख्य सेनापति और युद्ध- कला में निष्णांत सरह्यूरोज ने अपने संस्मरणों में स्पष्ट लिखा है कि "भारतीय विद्रोही दल में अगर कोई मर्द था तो वह झाँसी की रानी थी।" इसीलिए हम आज भी गाँव- गाँव और गली- गली में बच्चों के मुख से भी सुनते रहते हैं- "खूब लडी़ मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।"
अकबर का मान- मर्दन करने वाली दुर्गावती-
एक ऐसी ही वीराँगना आज से लगभग चार सौ वर्ष पहले भी हुई थी। उस समय भी सम्राट अकबर के दबदबे से बडे़- बडे़ राजा उसके आधीन हो गये थे। जयपुर, जोधपुर, बीकानेर आदि के प्रसिद्ध क्षत्रिय नरेशों ने अकबर की अधीनता ही स्वीकार नहीं कर ली थी; वे उसके सहायक भी बन गये थे। एकमात्र चितौड़ के महाराणा प्रताप सिंह को छोड़कर किसी राजा ने अकबर का सामना करने का साहस नहीं किया। पर उस समय भी नारी होते हुए भी रानी दुर्गावती ने दिल्ली- सम्राट् की विशाल सेना के सामने खडे़ होने का साहस किया और उसे दो बार पराजित करके पीछे खदेड़ दिया।
रानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिराय की पुत्री थी। उनकी एकमात्र संतान वही थी और इसलिए उन्होंने उसे पुत्र के समान ही पाला था। उसने शस्त्र चलाने की शिक्षा बचपन से पाई थी और तेरह- चौदह वर्ष की आयु में ही वह सिंह, तेंदुआ आदि भयंकर वन जंतुओं का शिकार करने लग गई थी।
दलपतिशाह से विवाह-
दुर्गावती के विवाह की घटना कम रोमांचकारी नहीं है। दलपतिशाह एक प्रसिद्ध, वीर और योग्य शासक था। उसके राज्य की सुव्यवस्था ऐसी उत्तम थी और सुरक्षा की दृष्टि से भी उसकी सेना इतनी तैयार और समस्त साधनों से युक्त थी कि मुसलमान शासकों का उस पर आक्रमण करने का कभी साहस नहीं होता था। जब दलपतिशाह ने राजकुमारी दुर्गावती के रूप और वीरता की चर्चा सुनी तो उसने उसी को अपनी पत्नी बनाने का निश्चय किया। उसने पुरोहित और एक- दो सरदारों को कालिंजर भेजा कि वे राजा कीर्तिराय के सम्मुख इस प्रस्ताव को रखें। दुर्भाग्यवश कीर्तिराय कुछ पुराने ढर्रे के व्यक्ति थे और जात- पाँति की मर्यादा को ही सबसे बडी़ चीज मानते थे। वे मोरबा के चंदेल राजाओं के वंशज थे, जिनके दरबार में आल्हा, ऊदल जैसे भारत प्रसिद्ध वीर रहते थे। यद्यपि उनका अंत हुए पाँच सौ वर्ष बीत चुके थे और इसी बीच में मुसलमानों ने हिंदू धर्म और जाति की खूब दुर्गति की थी, पर कीर्तिराय उन लोगों में से थे, जो इन बातों से शिक्षा ग्रहण करने के बजाय पुरानी शान में डूबे हुए थे। उनको मालूम हुआ कि दलपती शाह उनकी अपेक्षा कुछ नीची श्रेणी का क्षत्री है, बस उन्होंने अन्य सब बातों की अपेक्षा करके इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए स्पष्ट कह दिया कि हम अपने से निम्न श्रेणी के क्षत्रिय को अपनी पुत्री नहीं दे सकते।
जिस प्रकार दलपतिशाह दुर्गावती के रूप गुण की चर्चा सुनकर उसकी तरफ आकर्षित हुआ था, उसी प्रकार दुर्गावती भी उसकी प्रशंसा सुनकर अपने मन में उसे अपना पति बनाने का विचार करती रहती थी। पर उस समय यहाँ के क्षत्रियों की बुद्धि कुछ ऐसी विपरीत हो गई थी कि वे विवाह- शादी के अवसर पर प्रायः लडा़ई- झगडा़ पैदा कर लेते थे। आल्हा- ऊदल की कथाएँ चाहे जितनी अतिशयोक्तिपूर्ण हों, पर इतना मानना पडे़गा कि निम्न श्रेणी के होने के कारण अधिकांश राजा उनके साथ अपनी पुत्रियों का विवाह करने को राजी न होते थे और उन्हें लड़कर ही अपनी पत्नियाँ प्राप्त करनी पडी़ थीं। इतना ही क्यों, इतिहास प्रसिद्ध महाराज पृथ्वीराज भी कनौज के राजा जयचंद्र की पुत्री को स्वयंवर में से बलपूर्वक हरकर लाये थे, इसी के प्रतिकार- स्वरूप जयचंद ने विदेशी आक्रमणकारी मुहम्मद गौरी को दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया था। पृथ्वीराज को पराजित कर लेने के उपरांत पठान आक्रमणकारियों ने किस प्रकार एक- एक करके भारत के समस्त राजाओं को पद- दलित किया और हिंदू- धर्म के पवित्र स्थानों की कैसी दुर्दशा की, यह भी इतिहास के पढ़ने वालों से छिपा नहीं है।
सच पूछा जाय तो भारतवर्ष की पराधीनता का एक बडा़ कारण यहाँ के शासक वर्ग का झूठा अहंकार और जात- पाँत का भेदभाव ही था। इससे उनकी एकता नष्ट हो गई और वे जात- पाँत का भेदभाव ही था। इससे उनकी एकता नष्ट हो गई और वे छोटे- छोटे टुकड़ों में बँटकर तीन- तेरह हो गये। उनकी देखा- देखी उनकी प्रजा में भी ऊँच- नीच और छोटी- बडी़ जाति का विष फैल गया और समस्त देश का संगठित शक्ति होने के बजाय छोटे- छोटे भागों में विभाजित लोगों की भीड़ की तरह हो गया। ऐसी दशा देखकर विदेशियों का लार टपकना स्वाभाविक ही था। वे धर्म, सामाजिक आचार विचार, वेश भाषा आदि सब दृष्टियों से एक समान थे और इस आधार पर पूर्णतः संगठित थे। जब उन्होंने देखा कि भारतवर्ष जैसा समृद्ध तथा सब प्रकार के साधनों से संपन्न देश ऐसे असंगठित और आपस में फूट रखने वाले लोगों के अधिकार में हैं, तो उन्होंने उसे बलपूर्वक छीन लिया। यदि ऐसा न होता तो कोई कारण न था कि कुछ हजार आक्रमणकारी, करोडों की आबादी वाले देश को कुछ वर्षों में पद दलित करके यहाँ अपना शासन स्थापित कर सकते।
बिहार के कई नगरों के लिए तो इतिहासकारों ने यहाँ तक लिखा है कि बख्तियार खिलजी ने केवल अठारह सवारों को लेकर कब्जा कर लिया।
कीर्तिराय की अहमन्यतापूर्ण उत्तर को सुनकर दलपतिराय को बुरा लगा और उसने एक शक्तिशाली सेना लेकर कालिंजर पर हमला कर दिया। कीर्तिराय भी वीर था, पर दलपतिराय उसके मुकाबले नई उम्र का जोशिला व्यक्ति था। उसने दो- चार मुठभेडों़ के बाद ही, जिनमें सैकडों़ वीर मारे गये, कालिंजर पर अधिकार कर लिया। फिर भी उसने पराजित कीर्तिराय से किसी प्रकार का दुर्व्यवहार नहीं किया और उसकी कन्या दुर्गावती की उसी प्रकार याचना की मानो कोई बात ही न हुई हो। उसकी सज्जनता देखकर कीर्तिराय को अपनी करनी पर बड़ा पश्चाताप हुआ और उसने विधिपूर्वक दुर्गावती का विवाह उसके साथ कर दिया।
पुत्र का जन्म और पति का निधन-
विवाह के पश्चात् दंपत्ति सुखपूर्वक अपनी राजधानी गढ़मंडला में रहने लगे और वर्ष भर बाद ही एक पुत्र का जन्म होने से उनकी प्रसन्न्ता का ठिकाना न रहा। पर होनहार को कौन जानता है? दो साल बाद ही दलपतिराय बीमार पडे़ और कुछ ही समय में उनके बचने की आशा न रही। दुर्गावती के शोक- संताप का ठिकाना न रहा। पति के न रहने पर उसने सती होकर उसी के साथ जाने का निश्चय कर लिया, पर दलपतिराय ने तीन वर्ष के राजकुमार के अनाथ हो जाने का भय दिखाकर उसे ऐसा कृत्य करने से सर्वथा रोक दिया। पुत्र के मुँह को देखकर दुर्गावती को भी विवश होकर इसे स्वीकार करना पडा़।
पति के मरने पर दुर्गावती ने अपने पुत्र वीर नारायण को गद्दी पर बैठाया और स्वयं संरक्षिका के रूप में राज्य की व्यवस्था करने लगी। उसने यह कार्य ऐसे मनोयोग, योग्यता और परिश्रम से किया कि थोडे़ ही समय में वहाँ की काया पलट हो गई। प्रजा के सुखी और संतुष्ट होने से राज्य का वैभव भी बढ़ने लगा और दुर्गावती का नाम चारों तरफ फैल गया। उसने राजकुमार की शिक्षा का भी बहुत अच्छा प्रबंध किया और स्वयं उसको हर तरह के हाथियार चलाना और अपनी रक्षा करना सिखाने लगी। लोगों को आशा हो गई कि वीर नारायण अवश्य ही बडा़ होकर एक आदर्श नृपति बनेगा।
स्त्रीत्व का अभिशाप-
पर पर्दे के पीछे दुर्गावती के लिए विपत्ति सिर उठा रही थी। जैसे- जैसे उसके राज्य की समृद्धि बढ़ती जाती थी और चारों तरफ यश फैलता जाता था, वैसे ही वैसे उससे अनेक ईर्ष्या करने वाले भी पैदा होते जाते थे। अगर कोई पुरुष शासक ऐसी उन्नति करता तो संभवतः लोगों का ध्यान उसकी तरफ अधिक आकर्षित न होता। पर एक स्त्री का इतना आगे बढ़ना और अधिकांश पुरुष शासकों के लिए उदाहरणस्वरूप बन जाना, उनको खटकने लगा। वास्तव में दलपतिराय का देहांत हो जाने पर आस- पास के शासकों ने तो उसके गोंडवाना राज्य को लावारिसी माल समझ लिया था कि अब हमारे ही अधिकार में आयेगा। पर जब दुर्गावती के सुप्रबंध और शक्ति बढ़ते जाने से उसकी स्थिति और भी मजबूत हो गई तो उनकी आँखे खुली। पहले तो मालवा के शासक बाज बहादुर ने गढ़ मंडल पर हमला किया, पर दुर्गावती ने उसे ऐसी करारी हार दी कि उसे अपना सब कुछ छोड़कर जान बचाकर भागना पडा़। उसके बाद अन्य किसी छोटे शासक की यह हिम्मत न हुई कि गढ़मंडला की तरफ आँख उठाकर देख सके।
इस समय दिल्ली के तख्त पर अकबर विराजमान था। वह भी कम उम्र का ही था, पर परिस्थितियों ने उसे उसी उम्र में महत्त्वकांक्षी और कूटनितिज्ञ बना दिया था। उसने देखा कि इस देश में जम कर सफलतापूर्वक शासन करना है, तो यहाँ के प्रभावशाली व्यक्तियों को मिलाकर ही चलना चाहिए। इसलिए उसने राजपूत राजाओं के साथ शादी विवाह का प्रस्ताव किया और दो- एक स्थानों के शासक से ऐसा संबंध स्थापित करके उसके पक्के हितैषी और मित्र भी बन गया। जो लोग इस तरह की चालों में आये उनको ताकत के जोर से दबा दिया गया। उसने मालवा और बंगाल को अपने अधिकार में कर लिया था और अब गोंडवाना (मध्य प्रदेश) तथा दक्षिण की तरफ बढ़ने की कोशिश कर रहा था। रानी दुर्गावती ने भी उसके ईरादों का अनुमान कर लिया था, पर इतने बडे़ सम्राट् का सामना करने की शक्ति गढ़मंडला में थी नहीं। फिर भी रानी समय को निकालती हुई चुपचाप अपनी सैनिक शक्ति को बढा़ती रही। उसने निश्चय कर लिया कि चाहे वह एक स्त्री ही है, तो भी अकबर के किसी अन्यायपूर्ण आदेश को नहीं मानेगी और न अपनी स्वाधीनता को सहज में चली जाने देगी।
अकबर की दुरभिसंधि-
अकबर ने कडा़ (प्रायग) के सूबेदार आसफखाँ को आदेश दे रखा था कि वह गोंडवाना राज्य का हाल- चाल लेता रहे और भीतर ही भीतर ऐसी तोड़- फोड़ करता रहे कि वह प्रदेश सहज में ही अपने अधिकार में आ जाय। आसफखाँ स्वयं ही गोंडवाना के वैभव को देखकर ललचा रहा था कि दिल्ली से सैनिक सहायता मिल जाए तो उसका एक ही बार में सफाया कर दिया जाए। उसने अपने गुप्तचर भेजकर रानी दुर्गावती के कुछ लालची और चरित्रहीन सरदारों को भी धन और पद का लोभ दिखाकर अपनी ओर कर लिया।
इतनी तैयारी की खबर पाकर अकबर युद्ध का बहाना ढूँढ़ने लगा। उसने सुन रखा था कि गढ़मंडला का पुराना मंत्री आधारसिंह बडा़ योग्य और स्वामिभक्त है और रानी की सफलता में उसका बडा़ हाथ है। बस उसने एक चाल सोची और दूत के हाथ एक पत्र दुर्गावती को भेजा कि वह मंत्री आधारसिंह को दिल्ली भेज दे, जहाँ उससे कुछ शासन संबंधी कार्य कराया जायेगा। अकबर का वास्तविक इरादा यह था कि अगर रानी आधारसिंह को भेजने से इनकार करेगी तो इसी बहाने उस पर चढा़ई कर दी जायेगी और यदि वह दिल्ली आ गया तो उसे हर तरह का लालच दिखाकर अपनी ओर मिला लिया जायेगा और उसी को आगे करके गोंडवाने पर आक्रमण किया जायेगा, जिससे वहाँ कि प्रजा में भी फूट पड़ जाये।
इस पत्र को पाकर रानी सोच- विचार में पड़ गई। वह अपने स्वामिभक्त मंत्री को किसी प्रकार की विपत्ति में फँसने देना नहीं चाहती थी। पर यह भी समझती थी की यदि वह बादशाह के आदेश को अमान्य कर देगी तो यही उसके लिए एक बहाना मिल जायेगा। अंत में उसने यही निर्णय किया कि जब घटना एक दिन होनी है तो इसी समय क्यों न हो जाए। व्यर्थ में अपने सच्चे हितैषी मंत्री के प्राण संकट में क्यों डाले जाएँ? पर आधारसिंह ने स्वयं इस विचार से असहमति प्रकट की। उसने कहा कि अगर मेरे वहाँ जाने से यह बला टल जाए तो इससे अच्छा क्या होगा? मैं कोई बच्चा या नमक हराम तो हूँ नहीं, कि मुझे अकबर अपनी तरफ मोड़ ले। इसके बजाय दिल्ली जाकर मैं स्वयं उसकी योजना और चालों का पता लगाऊँगा और उनको निष्फल करने का भी प्रयत्न करूँगा। मैं आपके स्वाधीनता प्रेम का जिक्र उसके सामने अच्छी तरह कर दूँगा और समझा दूँगा कि गोंडवाना को जीतना उतना सहज नहीं है, जितना उसने समझ रखा है। अगर वह किसी तरह मान जाए तो अच्छा ही है, अन्यथा अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राण देना तो प्रत्येक स्वाभिमानी पुरुष का कर्तव्य ही है।
रानी ने मंत्री को रोकने की बहुत चेष्टा की, पर अंत में उसका दृढ़ आग्रह देखकर वह चुप हो गई। दिल्ली पहुँचने पर आधारसिंह ने वही बात पाई जिसकी आशंका थी। अकबर ने पहले तो उसी को गोंडवाने का शासक अथवा अपना मंत्री बनाने का लालच दिया, पर जब उस पर इसका कोई प्रभाव न पडा़ तो जेलखाने में बंद कर दिया। इसके बाद उसने आसफखाँ को शीघ्र ही गोंडवाना पर चढा़ई की तैयारियाँ करने का आदेश दिया।
यद्यपि इतिहास में अकबर को महान् कहा गया है और वास्तव में भारत में मुगल- साम्राज्य की जड़ को मजबूत जमाने वाला वही था। वह बडा़ दूरदर्शी और प्रतिभाशाली शासक था और बिना पढा़- लिखा होने पर भी उसने वह काम कर दिखाया, जो सैकडो़ं विद्वानों के लिए भी संभव नहीं। उसने एक तरफ अपना राज्य चारों तरफ खूब बढा़या और दूसरी तरफ, प्रजा की रक्षा और सुख- सुविधा की वृद्धि करके श्रेष्ठ शासक होने की ख्याति भी प्राप्त की। वह पक्का साम्राज्यवादी था और उत्तर से दक्षिण तक तथा पूरब से पश्चिम तक संपूर्ण देश को अपने अधिकार में कर लेना चाहता था। इसमें उसे बहुत कुछ सफलता भी मिली।
पर फिर भी हम रानी दुर्गावती पर चढा़ई करने की उसकी कार्यवाही का समर्थन किसी प्रकार से नहीं कर सकते। साम्राज्यवादियों के लिए अकारण भी दूसरे राजाओं पर चढा़ई करना और उनका राज्य छीन लेना कोई नई बात नहीं है। सिकंदर महान् और चंगेजखाँ जैसे शासकों ने ही दूर- दूर के देशों पर आक्रमण नहीं किया। हमारे भारतीय पुराणों में सैकडो़ं चक्रवर्ती नरेशों का उल्लेख है, जिन्होंने उस समय तक विदित सभी देशों पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित कर ली थी। इसका आशय यही निकलता है कि साम्राज्यवाद एक प्रकार का अभिशाप है, जो लाखों निर्दोष लोगों का संहार कर डालता है और लाखों का ही घरबार नष्ट करके उन्हें पथ का भिखारी बना देता है।
पर अकबर का गोंडवाना पर आक्रमण इस श्रेणी में भी नहीं आता। रानी दुर्गावती से कभी यह आशंका नहीं हो सकती थी कि वह अकबर की सल्तनत पर आक्रमण करेगी या उससे शत्रुता ठानकर किसी प्रकार से हानि पहुँचाने का ही प्रयत्न करेगी। फिर स्त्री पर आक्रमण करना एक प्रकार से कायरता की बात समझी जाती है। दुर्गावती एक ऐसे प्रदेश में पडी़ हुई थी, जो अर्द्धसभ्य मनुष्यों का निवास स्थान समझा जाता था। दिल्ली, आगरा जैसे सभ्यता के केंद्रों से बहुत दूर था। उसका कैसा भी भला या बुरा प्रभाव मुगल- साम्राज्य पर नहीं पड़ सकता था। पर इनमें से किसी बात का विचार किए बिना उसने गोंडवाना को रौंद डालने का निश्चय कर लिया। सच है धन और राज्य की लालसा मनुष्य को न्याय- अन्याय के प्रति अंधा बना देती है। वह यह विचार कर ही नहीं सकता कि इसके लिए मुझे लोग भला कहेंगे या बुरा? लोभ उसकी आँखों पर ऐसी पट्टी बाँध देता है कि उसे सिवाय अपनी लालसा पूर्ति के और कोई बात दिखाई ही नहीं देती।
पर इस प्रकार का आचरण और आदर्श मनुष्य को कभी स्थायी रूप से लाभदायक नहीं हो सकता। उसका दूषित प्रभाव दूर- दूर तक पड़ता है और सब किए धरे पर पानी फेर देता है। इस प्रकार के मामलों में प्रायः "जैसी करनी वैसी भरनी" की कहावत ही चरितार्थ होती दिखाई पड़ती है। राज्य के लोभ से ही अकबर के इकलौते बेटे जहाँगीर ने विद्रोह किया। जहाँगीर के बेटे खुर्रम ने और भी अधिक उत्पात मचाया और औरंगजेब ने तो राज्य पाने के लिए तीनों भाईयों का सिर काटकर बाप को भी सात वर्ष कैद रखा। कुछ लोगों ने लिखा है कि अकबर को किसी ने शाप दे दिया था कि तुम्हारे समस्त आगामी वशंज एक- दूसरे के शत्रु होंगे। पर हमारी मान्यता तो यही है कि हम स्वयं जैसा आचरण करेंगे, वैसे ही संस्कार हमारी आगामी पीढि़यों के भी बनेंगे। रानी दुर्गावती पर आक्रमण करने का कोई कारण न होते हुए केवल इस भावना से चढ़- दौड़ना कि हमारी शक्ति और साधनों का वह मुकाबला कर ही नहीं सकेगी, तो उसे लूटा- मारा क्यों ना जाय? उच्चता तथा श्रेष्ठता का प्रमाण नहीं माना जा सकता। यों तो डाकू- दल भी अपनी संगठन शक्ति और अस्त्र- शस्त्रों के बल पर चाहे जिसको लूटते- मारते हैं और अपने को बडा़ बहादुर ख्याल करते हैं। पर कभी किसी डाकू का अंत अच्छा हुआ हो, यह आज तक नहीं सुना गया।
आधारसिंह को कैद करना भी नीचता का ही कार्य माना जायेगा। एक भिन्न राज्य का व्यक्ति यदि आप पर भरोसा करके आ जाता है, तो उसके साथ किसी प्रकार का अनुचित व्यवहार करना श्रेष्ठ पुरुषों का कार्य नहीं। वह एक प्रकार से दुर्गावती के प्रतिनिधि अथवा दूत की हैसियत से दिल्ली आया था। दूत यदि कोई कठोर बात कह देता है, तो भी उसे अवध्य माना जाता है और उसे अपने यहाँ से राजी खुशी घर जाने देना आर्य संस्कृति का एक नियम है। यवन- संस्कृति में अवश्य इससे विपरीत आचरण होता देखने में आता है। औरंगजेब ने शिवाजी को बहुत विश्वास दिलाकर बुलाया, पर बाद में अपने यहाँ कैद कर लिया। इसी प्रकार का उदाहरण अकबर ने भी उपस्थित किया, तो इसे उसके लिए कलंक स्वरूप ही कहा जायेगा। श्रेष्ठ व्यक्तियों का अपनी प्रतिज्ञा के विपरीत आचरण कभी न करना चाहिए।
गढ़मंडला पर आक्रमण-
अकबर का आदेश पाकर और यह जानकर कि अब आधारसिंह भी दिल्ली में कैद है, आसफखाँ ने चटपट चढा़ई की तैयारी की और गोंडवाना राज्य में घुस गया। पर मुगल शासक फिर भी इस वीरांगना से सशंक थे और उन्होंने एक साथ दो 'मोरचों' पर आक्रमण करने की योजना बनाई। एक तरफ तो बादशाही फौज मार्ग में पड़ने वाले छोटे राजाओं तथा जागीरदारों आदि को दबाती हुई आगे बढे़ और दूसरी ओर बहुत से गुप्तचर समस्त रियासत में फैलकर प्रजा में रानी के विरुद्ध प्रचार करें और अकबर की उदारता, दानशीलता, गुण ग्राहकता की प्रशंसा लोगों को सुनायें। साथ ही कुछ विशेष गुप्तचरों को इसलिए भेजा गया कि वे गढ़मंडला के कुछ उच्च अधिकारियों और फौजी अफसरों को धन और पद का लालच देकर उन्हें अपनी ओर मिला लें। दुर्भाग्यवश भारत में ऐसे लोगों की कमी कभी नहीं रही। सन् ११०० में मुहम्मद गौरी के हमले से लेकर सन् १७५७ तक क्लाइव द्वारा बंगाल के शासक सिराजुद्दौला के पतन तक जयचंद तथा मीरजाफर जैसे देशघातक पैदा होते रहे, जिन्होंने भारतभूमि पर आक्रमण करने वालों का प्रतिरोध करने के बजाय उनको सहयोग दिया और देश को दासता के बंधनों में डालने का पाप कमाया। मुगलों को गढ़मंडला में भी ऐसे कई देशद्रोही मिल गये। उनमें से बदनसिंह नाम का सरदार कुछ व्यक्तियों को लेकर अकबर से जा मिला और गढ़मंडला के समस्त सैनिक रहस्य उसे बतला दिये। इससे अकबर वहाँ के शक्तिशाली और कमजोर पहलुओं को अच्छी तरह समझ गया और उसने अपनी सेना में उन सभी साधनों तथा युद्ध सामग्री की व्यवस्था कर दी जिसकी वहाँ आवश्यकता पड़ने वाली थी।
तोपखाने का अभाव-
एक तरफ दिल्ली के साधन संपन्न शासकों की तरफ से गढ़मंडला को ध्वस्त करने की इस तरह की तैयारियाँ हो रही थी और दूसरी ओर रानी दुर्गावती अपने पूर्वजों की भूमि की रक्षा के लिए प्राणपण से संलग्न थी। उसे इस बात का बडा़ खेद था कि उसके साथियों में से ही कुछ "घर का भेदिया" बनकर शत्रु को आगे बढ़ने में मदद पहुँचा रहे हैं, तो भी वह अपने मार्ग से च्युत नहीं हुई। वह अच्छी तरह जानती थी कि मुगल बादशाह के साधनों की तुलना में गढ़मंडला के साधन अल्प ही हैं, तो भी उसने अपने मन में एक क्षण के लिए भी न तो निराशा आने दी और न कायरता। उसकी दृष्टि अपने कर्तव्य पालन की तरफ थी, फिर परिणाम चाहे जो कुछ निकले।
मुगल सेना के आगे बढ़ने का समाचार पाकर रानी ने अपनी सेना को भी पूरी तरह तैयार हो जाने की आज्ञा दे दी। सिपाहियों की संख्या बढा़ई गई और उनको कारगर हथियार दिये गये। इसके अतिरिक्त वह अपनी प्रजा में भी हर तरह से शत्रु का प्रतिरोध करने का उत्साह उत्पन्न करने लगी। वह स्वयं और उसका पुत्र वीर नारायण जो अब सोलह वर्ष का हो चुका था, चारों तरह घूमकर सैनिक तैयारियों का निरीक्षण करते और उत्साहपूर्ण वार्तालाप से लोगों के साहस को बढा़ते। अभी तक समस्त युद्धों में गढ़मंडला की सेना ने जिस प्रकार वीरता दिखाकर विजय प्राप्त की थी, उसकी चर्चा करके इस बार उससे भी अधिक जोर से लड़ने की सैनिकों को प्रेरणा देते। उन्होंने अपने व्यवहार और परिश्रम से लोगों में एक नई चेतना उत्पन्न कर दी, जिससे वे युद्ध- भावना से भरकर मरने- मारने को उद्यत हो गये।
गढ़मंडला की सेना की सबसे बडी़ कमजोरी तोपखाने का अभाव था। मुगल लोग तोप बनाने तथा चलाने में निपुण हो चुके थे और तोपों के जोर से ही अकबर के पितामह बाबर ने दिल्ली के पठान बादशाह इब्राहीम लोदी को हराकर अपनी हकूमत कायम की थी, चितौड़ के सुप्रसिद्ध किले पर भी तोपों और बंदूकों से विजय प्राप्त की गई थी। पर अभी तक भारतीय राजा इस दिशा में ज्यादा प्रगति नहीं कर सके थे। पर्याप्त संख्या में तोपों का शीघ्र बना सकना संभव भी न था। इसलिए गढ़मंडला की सेना को ज्यादा भरोसा अपने तीर कमान, तलवार, भाले आदि का ही था। बंदूकों का व्यवहार भी वे करने लगे थे और रानी दुर्गावती तो उससे अचूक निशाना लगाती थी। उनके पास घोडे़ और हथियारों की भी काफी संख्या थी और अभी तक इन्हीं के द्वारा गढ़मंडला की सेना कई बार शत्रुओं को हरा चुकी थी।
युद्ध का आरंभ-
जब शत्रु सेना काफी नजदीक आ पहुँची तो रानी दुर्गावती स्वयं घोडे़ पर सवार होकर आगे बढी़। उस समय हाथ में नंगी तलवार लिए वह साक्षात् दानव दलनी दुर्गा कि तरह ही दिखाई पड़ रही थी। उसने मुगलों की तोपों को व्यर्थ करने के लिए अपना मोर्चा ऐसे पहाडी़ स्थान में लगाया, जहाँ तोपों के गोले के निशाने तक पहुँच ही नहीं सकते थे, बीच में पहाड़ से टकराकर व्यर्थ हो जाते थे।
मानव सभ्यता के आदिकाल से नारी का कार्यक्षेत्र घर माना गया है। वही संतान की जननी, पालन करने वाली और संरक्षिका है। पुरुष को वह जैसा बनाती है, वह प्रायः वैसा ही बन जाता है। इस दृष्टि से यदि उसे मानव जाति की निर्माणकर्ता कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है। वैसे प्रकृति ने नारी को सब प्रकार की शक्तियाँ और प्रतिभाएँ पूर्ण मात्रा में प्रदान की हैं, पर गृह- संचालन की जिम्मेदारी के कारण उसमें मातृत्व और पत्नीत्व के गुणों का ही विकास सर्वाधिक होता है। उसको अपने इस क्षेत्र से बाहर निकलने की आवश्यकता बहुत कम पड़ती है, पर जब आवश्यकता पड़ती है तो वह अन्य क्षेत्रों में भी ऐसे महानता के कार्य कर दिखाती है कि दुनिया चकित रह जाती है।
यद्यपि वर्तमान समय में परिस्थितियों में परिवर्तन हो जाने के कारण स्त्रियाँ विभिन्न प्रकार के पेशों में प्रवेश कर रही हैं और शिक्षा, व्यवसाय, कला उद्योग- धंधे, सार्वजनिक सेवा आदि अनेक क्षेत्रों में पर्याप्त संख्या में स्त्रियाँ दिखाई पड़ने लगी हैं। यद्यपि हमारे देश में अभी यह प्रकृति आरंभिक दशा में है, पर विदेशों में तो करोडों स्त्रियाँ सब प्रकार के जीवन- निर्वाह के पेशों में भाग ले रही हैं। यदि यह कहा जाए कि इंग्लैंड, अमेरिका, रूस आदि देशों की तीन चौथाई से अधिक स्त्रियाँ गृह- व्यवस्था के अतिरिक्त अर्थोपार्जन और समाज- संचालन के अन्य कार्यों में भी संलग्न हैं तो इसे गलत नहीं कहा जा सकता।
पर एक क्षेत्र ऐसा अवश्य है, जिसमें हमारे देश तथा अन्य देशों की स्त्रियों ने बहुत कम भाग लिया है, वह है, सेना और युद्ध का विभाग। हमारे देश में बहुत समय से नारी को कभी इस कार्य के लिए उपयुक्त माना ही नहीं गया और इसलिए उसका एक नाम 'अबला' भी रख दिया गया है। लोगों का ख्याल है कि अधिकांश में घर के भीतर रहने से स्त्रियों में दुर्धर्षता का वह गुण उत्पन्न ही नहीं हो पाता, जो सैनिक कार्यों के लिए आवश्यक है।
पर फिर भी कोई यह नहीं कह सकता कि स्त्रियाँ इस क्षेत्र में कुछ कर ही नहीं सकतीं। यद्यपि सामाजिक परिस्थितियाँ तथा नियमों के कारण ऐसे अवसर बहुत कम आते हैं, पर समय- समय पर ऐसी विरागंनायें उत्पन्न हुई हैं, जिन्होंने वीरता तथा युद्ध संबंधी कार्यों में पुरुषों से अधिक साहस और योग्यता दिखलाई है। ऐसी एक वीर नारी तो हमारे समय ही हो चुकी है। वह थी झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई जिसने सन् १८५७ के स्वाधीनता- संग्राम के इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया है। यद्यपि गदर में सैकडो़ ही सरदारों राजाओं और नवाबों ने भाग लिया था, पर इतिहासकार मुक्त कंठ से स्वीकार करते हैं कि उनमें से किसी ने झाँसी की रानी से बढ़कर शौर्य- वीरता का परिचय नहीं दिया। झाँसी के किले में और कालपी तथा ग्वालियर युद्ध- क्षेत्रों में उसने जैसा पराक्रम, युद्ध संबंधी कुशलता दिखाई, उस पर मुग्ध होकर अंग्रेजी सेनाओं के मुख्य सेनापति और युद्ध- कला में निष्णांत सरह्यूरोज ने अपने संस्मरणों में स्पष्ट लिखा है कि "भारतीय विद्रोही दल में अगर कोई मर्द था तो वह झाँसी की रानी थी।" इसीलिए हम आज भी गाँव- गाँव और गली- गली में बच्चों के मुख से भी सुनते रहते हैं- "खूब लडी़ मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।"
अकबर का मान- मर्दन करने वाली दुर्गावती-
एक ऐसी ही वीराँगना आज से लगभग चार सौ वर्ष पहले भी हुई थी। उस समय भी सम्राट अकबर के दबदबे से बडे़- बडे़ राजा उसके आधीन हो गये थे। जयपुर, जोधपुर, बीकानेर आदि के प्रसिद्ध क्षत्रिय नरेशों ने अकबर की अधीनता ही स्वीकार नहीं कर ली थी; वे उसके सहायक भी बन गये थे। एकमात्र चितौड़ के महाराणा प्रताप सिंह को छोड़कर किसी राजा ने अकबर का सामना करने का साहस नहीं किया। पर उस समय भी नारी होते हुए भी रानी दुर्गावती ने दिल्ली- सम्राट् की विशाल सेना के सामने खडे़ होने का साहस किया और उसे दो बार पराजित करके पीछे खदेड़ दिया।
रानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिराय की पुत्री थी। उनकी एकमात्र संतान वही थी और इसलिए उन्होंने उसे पुत्र के समान ही पाला था। उसने शस्त्र चलाने की शिक्षा बचपन से पाई थी और तेरह- चौदह वर्ष की आयु में ही वह सिंह, तेंदुआ आदि भयंकर वन जंतुओं का शिकार करने लग गई थी।
दलपतिशाह से विवाह-
दुर्गावती के विवाह की घटना कम रोमांचकारी नहीं है। दलपतिशाह एक प्रसिद्ध, वीर और योग्य शासक था। उसके राज्य की सुव्यवस्था ऐसी उत्तम थी और सुरक्षा की दृष्टि से भी उसकी सेना इतनी तैयार और समस्त साधनों से युक्त थी कि मुसलमान शासकों का उस पर आक्रमण करने का कभी साहस नहीं होता था। जब दलपतिशाह ने राजकुमारी दुर्गावती के रूप और वीरता की चर्चा सुनी तो उसने उसी को अपनी पत्नी बनाने का निश्चय किया। उसने पुरोहित और एक- दो सरदारों को कालिंजर भेजा कि वे राजा कीर्तिराय के सम्मुख इस प्रस्ताव को रखें। दुर्भाग्यवश कीर्तिराय कुछ पुराने ढर्रे के व्यक्ति थे और जात- पाँति की मर्यादा को ही सबसे बडी़ चीज मानते थे। वे मोरबा के चंदेल राजाओं के वंशज थे, जिनके दरबार में आल्हा, ऊदल जैसे भारत प्रसिद्ध वीर रहते थे। यद्यपि उनका अंत हुए पाँच सौ वर्ष बीत चुके थे और इसी बीच में मुसलमानों ने हिंदू धर्म और जाति की खूब दुर्गति की थी, पर कीर्तिराय उन लोगों में से थे, जो इन बातों से शिक्षा ग्रहण करने के बजाय पुरानी शान में डूबे हुए थे। उनको मालूम हुआ कि दलपती शाह उनकी अपेक्षा कुछ नीची श्रेणी का क्षत्री है, बस उन्होंने अन्य सब बातों की अपेक्षा करके इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए स्पष्ट कह दिया कि हम अपने से निम्न श्रेणी के क्षत्रिय को अपनी पुत्री नहीं दे सकते।
जिस प्रकार दलपतिशाह दुर्गावती के रूप गुण की चर्चा सुनकर उसकी तरफ आकर्षित हुआ था, उसी प्रकार दुर्गावती भी उसकी प्रशंसा सुनकर अपने मन में उसे अपना पति बनाने का विचार करती रहती थी। पर उस समय यहाँ के क्षत्रियों की बुद्धि कुछ ऐसी विपरीत हो गई थी कि वे विवाह- शादी के अवसर पर प्रायः लडा़ई- झगडा़ पैदा कर लेते थे। आल्हा- ऊदल की कथाएँ चाहे जितनी अतिशयोक्तिपूर्ण हों, पर इतना मानना पडे़गा कि निम्न श्रेणी के होने के कारण अधिकांश राजा उनके साथ अपनी पुत्रियों का विवाह करने को राजी न होते थे और उन्हें लड़कर ही अपनी पत्नियाँ प्राप्त करनी पडी़ थीं। इतना ही क्यों, इतिहास प्रसिद्ध महाराज पृथ्वीराज भी कनौज के राजा जयचंद्र की पुत्री को स्वयंवर में से बलपूर्वक हरकर लाये थे, इसी के प्रतिकार- स्वरूप जयचंद ने विदेशी आक्रमणकारी मुहम्मद गौरी को दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया था। पृथ्वीराज को पराजित कर लेने के उपरांत पठान आक्रमणकारियों ने किस प्रकार एक- एक करके भारत के समस्त राजाओं को पद- दलित किया और हिंदू- धर्म के पवित्र स्थानों की कैसी दुर्दशा की, यह भी इतिहास के पढ़ने वालों से छिपा नहीं है।
सच पूछा जाय तो भारतवर्ष की पराधीनता का एक बडा़ कारण यहाँ के शासक वर्ग का झूठा अहंकार और जात- पाँत का भेदभाव ही था। इससे उनकी एकता नष्ट हो गई और वे जात- पाँत का भेदभाव ही था। इससे उनकी एकता नष्ट हो गई और वे छोटे- छोटे टुकड़ों में बँटकर तीन- तेरह हो गये। उनकी देखा- देखी उनकी प्रजा में भी ऊँच- नीच और छोटी- बडी़ जाति का विष फैल गया और समस्त देश का संगठित शक्ति होने के बजाय छोटे- छोटे भागों में विभाजित लोगों की भीड़ की तरह हो गया। ऐसी दशा देखकर विदेशियों का लार टपकना स्वाभाविक ही था। वे धर्म, सामाजिक आचार विचार, वेश भाषा आदि सब दृष्टियों से एक समान थे और इस आधार पर पूर्णतः संगठित थे। जब उन्होंने देखा कि भारतवर्ष जैसा समृद्ध तथा सब प्रकार के साधनों से संपन्न देश ऐसे असंगठित और आपस में फूट रखने वाले लोगों के अधिकार में हैं, तो उन्होंने उसे बलपूर्वक छीन लिया। यदि ऐसा न होता तो कोई कारण न था कि कुछ हजार आक्रमणकारी, करोडों की आबादी वाले देश को कुछ वर्षों में पद दलित करके यहाँ अपना शासन स्थापित कर सकते।
बिहार के कई नगरों के लिए तो इतिहासकारों ने यहाँ तक लिखा है कि बख्तियार खिलजी ने केवल अठारह सवारों को लेकर कब्जा कर लिया।
कीर्तिराय की अहमन्यतापूर्ण उत्तर को सुनकर दलपतिराय को बुरा लगा और उसने एक शक्तिशाली सेना लेकर कालिंजर पर हमला कर दिया। कीर्तिराय भी वीर था, पर दलपतिराय उसके मुकाबले नई उम्र का जोशिला व्यक्ति था। उसने दो- चार मुठभेडों़ के बाद ही, जिनमें सैकडों़ वीर मारे गये, कालिंजर पर अधिकार कर लिया। फिर भी उसने पराजित कीर्तिराय से किसी प्रकार का दुर्व्यवहार नहीं किया और उसकी कन्या दुर्गावती की उसी प्रकार याचना की मानो कोई बात ही न हुई हो। उसकी सज्जनता देखकर कीर्तिराय को अपनी करनी पर बड़ा पश्चाताप हुआ और उसने विधिपूर्वक दुर्गावती का विवाह उसके साथ कर दिया।
पुत्र का जन्म और पति का निधन-
विवाह के पश्चात् दंपत्ति सुखपूर्वक अपनी राजधानी गढ़मंडला में रहने लगे और वर्ष भर बाद ही एक पुत्र का जन्म होने से उनकी प्रसन्न्ता का ठिकाना न रहा। पर होनहार को कौन जानता है? दो साल बाद ही दलपतिराय बीमार पडे़ और कुछ ही समय में उनके बचने की आशा न रही। दुर्गावती के शोक- संताप का ठिकाना न रहा। पति के न रहने पर उसने सती होकर उसी के साथ जाने का निश्चय कर लिया, पर दलपतिराय ने तीन वर्ष के राजकुमार के अनाथ हो जाने का भय दिखाकर उसे ऐसा कृत्य करने से सर्वथा रोक दिया। पुत्र के मुँह को देखकर दुर्गावती को भी विवश होकर इसे स्वीकार करना पडा़।
पति के मरने पर दुर्गावती ने अपने पुत्र वीर नारायण को गद्दी पर बैठाया और स्वयं संरक्षिका के रूप में राज्य की व्यवस्था करने लगी। उसने यह कार्य ऐसे मनोयोग, योग्यता और परिश्रम से किया कि थोडे़ ही समय में वहाँ की काया पलट हो गई। प्रजा के सुखी और संतुष्ट होने से राज्य का वैभव भी बढ़ने लगा और दुर्गावती का नाम चारों तरफ फैल गया। उसने राजकुमार की शिक्षा का भी बहुत अच्छा प्रबंध किया और स्वयं उसको हर तरह के हाथियार चलाना और अपनी रक्षा करना सिखाने लगी। लोगों को आशा हो गई कि वीर नारायण अवश्य ही बडा़ होकर एक आदर्श नृपति बनेगा।
स्त्रीत्व का अभिशाप-
पर पर्दे के पीछे दुर्गावती के लिए विपत्ति सिर उठा रही थी। जैसे- जैसे उसके राज्य की समृद्धि बढ़ती जाती थी और चारों तरफ यश फैलता जाता था, वैसे ही वैसे उससे अनेक ईर्ष्या करने वाले भी पैदा होते जाते थे। अगर कोई पुरुष शासक ऐसी उन्नति करता तो संभवतः लोगों का ध्यान उसकी तरफ अधिक आकर्षित न होता। पर एक स्त्री का इतना आगे बढ़ना और अधिकांश पुरुष शासकों के लिए उदाहरणस्वरूप बन जाना, उनको खटकने लगा। वास्तव में दलपतिराय का देहांत हो जाने पर आस- पास के शासकों ने तो उसके गोंडवाना राज्य को लावारिसी माल समझ लिया था कि अब हमारे ही अधिकार में आयेगा। पर जब दुर्गावती के सुप्रबंध और शक्ति बढ़ते जाने से उसकी स्थिति और भी मजबूत हो गई तो उनकी आँखे खुली। पहले तो मालवा के शासक बाज बहादुर ने गढ़ मंडल पर हमला किया, पर दुर्गावती ने उसे ऐसी करारी हार दी कि उसे अपना सब कुछ छोड़कर जान बचाकर भागना पडा़। उसके बाद अन्य किसी छोटे शासक की यह हिम्मत न हुई कि गढ़मंडला की तरफ आँख उठाकर देख सके।
इस समय दिल्ली के तख्त पर अकबर विराजमान था। वह भी कम उम्र का ही था, पर परिस्थितियों ने उसे उसी उम्र में महत्त्वकांक्षी और कूटनितिज्ञ बना दिया था। उसने देखा कि इस देश में जम कर सफलतापूर्वक शासन करना है, तो यहाँ के प्रभावशाली व्यक्तियों को मिलाकर ही चलना चाहिए। इसलिए उसने राजपूत राजाओं के साथ शादी विवाह का प्रस्ताव किया और दो- एक स्थानों के शासक से ऐसा संबंध स्थापित करके उसके पक्के हितैषी और मित्र भी बन गया। जो लोग इस तरह की चालों में आये उनको ताकत के जोर से दबा दिया गया। उसने मालवा और बंगाल को अपने अधिकार में कर लिया था और अब गोंडवाना (मध्य प्रदेश) तथा दक्षिण की तरफ बढ़ने की कोशिश कर रहा था। रानी दुर्गावती ने भी उसके ईरादों का अनुमान कर लिया था, पर इतने बडे़ सम्राट् का सामना करने की शक्ति गढ़मंडला में थी नहीं। फिर भी रानी समय को निकालती हुई चुपचाप अपनी सैनिक शक्ति को बढा़ती रही। उसने निश्चय कर लिया कि चाहे वह एक स्त्री ही है, तो भी अकबर के किसी अन्यायपूर्ण आदेश को नहीं मानेगी और न अपनी स्वाधीनता को सहज में चली जाने देगी।
अकबर की दुरभिसंधि-
अकबर ने कडा़ (प्रायग) के सूबेदार आसफखाँ को आदेश दे रखा था कि वह गोंडवाना राज्य का हाल- चाल लेता रहे और भीतर ही भीतर ऐसी तोड़- फोड़ करता रहे कि वह प्रदेश सहज में ही अपने अधिकार में आ जाय। आसफखाँ स्वयं ही गोंडवाना के वैभव को देखकर ललचा रहा था कि दिल्ली से सैनिक सहायता मिल जाए तो उसका एक ही बार में सफाया कर दिया जाए। उसने अपने गुप्तचर भेजकर रानी दुर्गावती के कुछ लालची और चरित्रहीन सरदारों को भी धन और पद का लोभ दिखाकर अपनी ओर कर लिया।
इतनी तैयारी की खबर पाकर अकबर युद्ध का बहाना ढूँढ़ने लगा। उसने सुन रखा था कि गढ़मंडला का पुराना मंत्री आधारसिंह बडा़ योग्य और स्वामिभक्त है और रानी की सफलता में उसका बडा़ हाथ है। बस उसने एक चाल सोची और दूत के हाथ एक पत्र दुर्गावती को भेजा कि वह मंत्री आधारसिंह को दिल्ली भेज दे, जहाँ उससे कुछ शासन संबंधी कार्य कराया जायेगा। अकबर का वास्तविक इरादा यह था कि अगर रानी आधारसिंह को भेजने से इनकार करेगी तो इसी बहाने उस पर चढा़ई कर दी जायेगी और यदि वह दिल्ली आ गया तो उसे हर तरह का लालच दिखाकर अपनी ओर मिला लिया जायेगा और उसी को आगे करके गोंडवाने पर आक्रमण किया जायेगा, जिससे वहाँ कि प्रजा में भी फूट पड़ जाये।
इस पत्र को पाकर रानी सोच- विचार में पड़ गई। वह अपने स्वामिभक्त मंत्री को किसी प्रकार की विपत्ति में फँसने देना नहीं चाहती थी। पर यह भी समझती थी की यदि वह बादशाह के आदेश को अमान्य कर देगी तो यही उसके लिए एक बहाना मिल जायेगा। अंत में उसने यही निर्णय किया कि जब घटना एक दिन होनी है तो इसी समय क्यों न हो जाए। व्यर्थ में अपने सच्चे हितैषी मंत्री के प्राण संकट में क्यों डाले जाएँ? पर आधारसिंह ने स्वयं इस विचार से असहमति प्रकट की। उसने कहा कि अगर मेरे वहाँ जाने से यह बला टल जाए तो इससे अच्छा क्या होगा? मैं कोई बच्चा या नमक हराम तो हूँ नहीं, कि मुझे अकबर अपनी तरफ मोड़ ले। इसके बजाय दिल्ली जाकर मैं स्वयं उसकी योजना और चालों का पता लगाऊँगा और उनको निष्फल करने का भी प्रयत्न करूँगा। मैं आपके स्वाधीनता प्रेम का जिक्र उसके सामने अच्छी तरह कर दूँगा और समझा दूँगा कि गोंडवाना को जीतना उतना सहज नहीं है, जितना उसने समझ रखा है। अगर वह किसी तरह मान जाए तो अच्छा ही है, अन्यथा अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राण देना तो प्रत्येक स्वाभिमानी पुरुष का कर्तव्य ही है।
रानी ने मंत्री को रोकने की बहुत चेष्टा की, पर अंत में उसका दृढ़ आग्रह देखकर वह चुप हो गई। दिल्ली पहुँचने पर आधारसिंह ने वही बात पाई जिसकी आशंका थी। अकबर ने पहले तो उसी को गोंडवाने का शासक अथवा अपना मंत्री बनाने का लालच दिया, पर जब उस पर इसका कोई प्रभाव न पडा़ तो जेलखाने में बंद कर दिया। इसके बाद उसने आसफखाँ को शीघ्र ही गोंडवाना पर चढा़ई की तैयारियाँ करने का आदेश दिया।
यद्यपि इतिहास में अकबर को महान् कहा गया है और वास्तव में भारत में मुगल- साम्राज्य की जड़ को मजबूत जमाने वाला वही था। वह बडा़ दूरदर्शी और प्रतिभाशाली शासक था और बिना पढा़- लिखा होने पर भी उसने वह काम कर दिखाया, जो सैकडो़ं विद्वानों के लिए भी संभव नहीं। उसने एक तरफ अपना राज्य चारों तरफ खूब बढा़या और दूसरी तरफ, प्रजा की रक्षा और सुख- सुविधा की वृद्धि करके श्रेष्ठ शासक होने की ख्याति भी प्राप्त की। वह पक्का साम्राज्यवादी था और उत्तर से दक्षिण तक तथा पूरब से पश्चिम तक संपूर्ण देश को अपने अधिकार में कर लेना चाहता था। इसमें उसे बहुत कुछ सफलता भी मिली।
पर फिर भी हम रानी दुर्गावती पर चढा़ई करने की उसकी कार्यवाही का समर्थन किसी प्रकार से नहीं कर सकते। साम्राज्यवादियों के लिए अकारण भी दूसरे राजाओं पर चढा़ई करना और उनका राज्य छीन लेना कोई नई बात नहीं है। सिकंदर महान् और चंगेजखाँ जैसे शासकों ने ही दूर- दूर के देशों पर आक्रमण नहीं किया। हमारे भारतीय पुराणों में सैकडो़ं चक्रवर्ती नरेशों का उल्लेख है, जिन्होंने उस समय तक विदित सभी देशों पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित कर ली थी। इसका आशय यही निकलता है कि साम्राज्यवाद एक प्रकार का अभिशाप है, जो लाखों निर्दोष लोगों का संहार कर डालता है और लाखों का ही घरबार नष्ट करके उन्हें पथ का भिखारी बना देता है।
पर अकबर का गोंडवाना पर आक्रमण इस श्रेणी में भी नहीं आता। रानी दुर्गावती से कभी यह आशंका नहीं हो सकती थी कि वह अकबर की सल्तनत पर आक्रमण करेगी या उससे शत्रुता ठानकर किसी प्रकार से हानि पहुँचाने का ही प्रयत्न करेगी। फिर स्त्री पर आक्रमण करना एक प्रकार से कायरता की बात समझी जाती है। दुर्गावती एक ऐसे प्रदेश में पडी़ हुई थी, जो अर्द्धसभ्य मनुष्यों का निवास स्थान समझा जाता था। दिल्ली, आगरा जैसे सभ्यता के केंद्रों से बहुत दूर था। उसका कैसा भी भला या बुरा प्रभाव मुगल- साम्राज्य पर नहीं पड़ सकता था। पर इनमें से किसी बात का विचार किए बिना उसने गोंडवाना को रौंद डालने का निश्चय कर लिया। सच है धन और राज्य की लालसा मनुष्य को न्याय- अन्याय के प्रति अंधा बना देती है। वह यह विचार कर ही नहीं सकता कि इसके लिए मुझे लोग भला कहेंगे या बुरा? लोभ उसकी आँखों पर ऐसी पट्टी बाँध देता है कि उसे सिवाय अपनी लालसा पूर्ति के और कोई बात दिखाई ही नहीं देती।
पर इस प्रकार का आचरण और आदर्श मनुष्य को कभी स्थायी रूप से लाभदायक नहीं हो सकता। उसका दूषित प्रभाव दूर- दूर तक पड़ता है और सब किए धरे पर पानी फेर देता है। इस प्रकार के मामलों में प्रायः "जैसी करनी वैसी भरनी" की कहावत ही चरितार्थ होती दिखाई पड़ती है। राज्य के लोभ से ही अकबर के इकलौते बेटे जहाँगीर ने विद्रोह किया। जहाँगीर के बेटे खुर्रम ने और भी अधिक उत्पात मचाया और औरंगजेब ने तो राज्य पाने के लिए तीनों भाईयों का सिर काटकर बाप को भी सात वर्ष कैद रखा। कुछ लोगों ने लिखा है कि अकबर को किसी ने शाप दे दिया था कि तुम्हारे समस्त आगामी वशंज एक- दूसरे के शत्रु होंगे। पर हमारी मान्यता तो यही है कि हम स्वयं जैसा आचरण करेंगे, वैसे ही संस्कार हमारी आगामी पीढि़यों के भी बनेंगे। रानी दुर्गावती पर आक्रमण करने का कोई कारण न होते हुए केवल इस भावना से चढ़- दौड़ना कि हमारी शक्ति और साधनों का वह मुकाबला कर ही नहीं सकेगी, तो उसे लूटा- मारा क्यों ना जाय? उच्चता तथा श्रेष्ठता का प्रमाण नहीं माना जा सकता। यों तो डाकू- दल भी अपनी संगठन शक्ति और अस्त्र- शस्त्रों के बल पर चाहे जिसको लूटते- मारते हैं और अपने को बडा़ बहादुर ख्याल करते हैं। पर कभी किसी डाकू का अंत अच्छा हुआ हो, यह आज तक नहीं सुना गया।
आधारसिंह को कैद करना भी नीचता का ही कार्य माना जायेगा। एक भिन्न राज्य का व्यक्ति यदि आप पर भरोसा करके आ जाता है, तो उसके साथ किसी प्रकार का अनुचित व्यवहार करना श्रेष्ठ पुरुषों का कार्य नहीं। वह एक प्रकार से दुर्गावती के प्रतिनिधि अथवा दूत की हैसियत से दिल्ली आया था। दूत यदि कोई कठोर बात कह देता है, तो भी उसे अवध्य माना जाता है और उसे अपने यहाँ से राजी खुशी घर जाने देना आर्य संस्कृति का एक नियम है। यवन- संस्कृति में अवश्य इससे विपरीत आचरण होता देखने में आता है। औरंगजेब ने शिवाजी को बहुत विश्वास दिलाकर बुलाया, पर बाद में अपने यहाँ कैद कर लिया। इसी प्रकार का उदाहरण अकबर ने भी उपस्थित किया, तो इसे उसके लिए कलंक स्वरूप ही कहा जायेगा। श्रेष्ठ व्यक्तियों का अपनी प्रतिज्ञा के विपरीत आचरण कभी न करना चाहिए।
गढ़मंडला पर आक्रमण-
अकबर का आदेश पाकर और यह जानकर कि अब आधारसिंह भी दिल्ली में कैद है, आसफखाँ ने चटपट चढा़ई की तैयारी की और गोंडवाना राज्य में घुस गया। पर मुगल शासक फिर भी इस वीरांगना से सशंक थे और उन्होंने एक साथ दो 'मोरचों' पर आक्रमण करने की योजना बनाई। एक तरफ तो बादशाही फौज मार्ग में पड़ने वाले छोटे राजाओं तथा जागीरदारों आदि को दबाती हुई आगे बढे़ और दूसरी ओर बहुत से गुप्तचर समस्त रियासत में फैलकर प्रजा में रानी के विरुद्ध प्रचार करें और अकबर की उदारता, दानशीलता, गुण ग्राहकता की प्रशंसा लोगों को सुनायें। साथ ही कुछ विशेष गुप्तचरों को इसलिए भेजा गया कि वे गढ़मंडला के कुछ उच्च अधिकारियों और फौजी अफसरों को धन और पद का लालच देकर उन्हें अपनी ओर मिला लें। दुर्भाग्यवश भारत में ऐसे लोगों की कमी कभी नहीं रही। सन् ११०० में मुहम्मद गौरी के हमले से लेकर सन् १७५७ तक क्लाइव द्वारा बंगाल के शासक सिराजुद्दौला के पतन तक जयचंद तथा मीरजाफर जैसे देशघातक पैदा होते रहे, जिन्होंने भारतभूमि पर आक्रमण करने वालों का प्रतिरोध करने के बजाय उनको सहयोग दिया और देश को दासता के बंधनों में डालने का पाप कमाया। मुगलों को गढ़मंडला में भी ऐसे कई देशद्रोही मिल गये। उनमें से बदनसिंह नाम का सरदार कुछ व्यक्तियों को लेकर अकबर से जा मिला और गढ़मंडला के समस्त सैनिक रहस्य उसे बतला दिये। इससे अकबर वहाँ के शक्तिशाली और कमजोर पहलुओं को अच्छी तरह समझ गया और उसने अपनी सेना में उन सभी साधनों तथा युद्ध सामग्री की व्यवस्था कर दी जिसकी वहाँ आवश्यकता पड़ने वाली थी।
तोपखाने का अभाव-
एक तरफ दिल्ली के साधन संपन्न शासकों की तरफ से गढ़मंडला को ध्वस्त करने की इस तरह की तैयारियाँ हो रही थी और दूसरी ओर रानी दुर्गावती अपने पूर्वजों की भूमि की रक्षा के लिए प्राणपण से संलग्न थी। उसे इस बात का बडा़ खेद था कि उसके साथियों में से ही कुछ "घर का भेदिया" बनकर शत्रु को आगे बढ़ने में मदद पहुँचा रहे हैं, तो भी वह अपने मार्ग से च्युत नहीं हुई। वह अच्छी तरह जानती थी कि मुगल बादशाह के साधनों की तुलना में गढ़मंडला के साधन अल्प ही हैं, तो भी उसने अपने मन में एक क्षण के लिए भी न तो निराशा आने दी और न कायरता। उसकी दृष्टि अपने कर्तव्य पालन की तरफ थी, फिर परिणाम चाहे जो कुछ निकले।
मुगल सेना के आगे बढ़ने का समाचार पाकर रानी ने अपनी सेना को भी पूरी तरह तैयार हो जाने की आज्ञा दे दी। सिपाहियों की संख्या बढा़ई गई और उनको कारगर हथियार दिये गये। इसके अतिरिक्त वह अपनी प्रजा में भी हर तरह से शत्रु का प्रतिरोध करने का उत्साह उत्पन्न करने लगी। वह स्वयं और उसका पुत्र वीर नारायण जो अब सोलह वर्ष का हो चुका था, चारों तरह घूमकर सैनिक तैयारियों का निरीक्षण करते और उत्साहपूर्ण वार्तालाप से लोगों के साहस को बढा़ते। अभी तक समस्त युद्धों में गढ़मंडला की सेना ने जिस प्रकार वीरता दिखाकर विजय प्राप्त की थी, उसकी चर्चा करके इस बार उससे भी अधिक जोर से लड़ने की सैनिकों को प्रेरणा देते। उन्होंने अपने व्यवहार और परिश्रम से लोगों में एक नई चेतना उत्पन्न कर दी, जिससे वे युद्ध- भावना से भरकर मरने- मारने को उद्यत हो गये।
गढ़मंडला की सेना की सबसे बडी़ कमजोरी तोपखाने का अभाव था। मुगल लोग तोप बनाने तथा चलाने में निपुण हो चुके थे और तोपों के जोर से ही अकबर के पितामह बाबर ने दिल्ली के पठान बादशाह इब्राहीम लोदी को हराकर अपनी हकूमत कायम की थी, चितौड़ के सुप्रसिद्ध किले पर भी तोपों और बंदूकों से विजय प्राप्त की गई थी। पर अभी तक भारतीय राजा इस दिशा में ज्यादा प्रगति नहीं कर सके थे। पर्याप्त संख्या में तोपों का शीघ्र बना सकना संभव भी न था। इसलिए गढ़मंडला की सेना को ज्यादा भरोसा अपने तीर कमान, तलवार, भाले आदि का ही था। बंदूकों का व्यवहार भी वे करने लगे थे और रानी दुर्गावती तो उससे अचूक निशाना लगाती थी। उनके पास घोडे़ और हथियारों की भी काफी संख्या थी और अभी तक इन्हीं के द्वारा गढ़मंडला की सेना कई बार शत्रुओं को हरा चुकी थी।
युद्ध का आरंभ-
जब शत्रु सेना काफी नजदीक आ पहुँची तो रानी दुर्गावती स्वयं घोडे़ पर सवार होकर आगे बढी़। उस समय हाथ में नंगी तलवार लिए वह साक्षात् दानव दलनी दुर्गा कि तरह ही दिखाई पड़ रही थी। उसने मुगलों की तोपों को व्यर्थ करने के लिए अपना मोर्चा ऐसे पहाडी़ स्थान में लगाया, जहाँ तोपों के गोले के निशाने तक पहुँच ही नहीं सकते थे, बीच में पहाड़ से टकराकर व्यर्थ हो जाते थे।