Books - विश्व की महान नारियाँ-1
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Language: HINDI
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अवंतिका बाई गोखले
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सेवा व्रत का आदर्श उपस्थित करने वाली- अवंतिका बाई गोखले
महात्मा गांधी ने सन् १९१५ में अफ्रीका से भारतवर्ष आकर जब यहाँ के सार्वजनिक जीवन में भाग लेना आरंभ किया तो उनको अनुभव हुआ कि इस समय सबसे अधिक आवश्यकता भारतीय किसानों की दुरावस्था का सुधार करने और उनमें जाग्रति उत्पन्न करने की है। यद्यपि उस समय देश में स्वराज्य आंदोलन जोर पकड़ रहा था और लोकमान्य तिलक तथा मिसेज एनीबेसेंट जैसे प्रसिद्ध नेता राजनीतिक जाग्रति बडे़ परिमाण में फैला रहे थे, पर उनके प्रयत्न अधिकांश में बडे़ नगरों में रहने वाले शिक्षित- वर्ग तक ही सीमित थे। गाँवों में जाने का कोई साहस ही नहीं करता था, क्योंकि न तो वहाँ किसी तरह सुविधायें मिल सकती थी और न वहाँ की अज्ञानांधकार में डूबी हुई जनता को उठा सकना ही सहज था।
पर गाँधी जी की कार्य प्रणाली प्रत्येक कार्य को जड़ से आरंभ करने की थी। भारतवर्ष की जड़ गाँवों में ही है। किसानों की संख्या संपूर्ण आबादी का ८० प्रतिशत थी और वे ही लोग समाज के 'अन्नदाता' थे। पर अशिक्षा, अज्ञान तथा विदेशी शासन ने उनको लुंज- पुंज बना रखा था। इस बात को समझकर गाँधी जी ने सबसे पहले खेडा़ और चंपारन के 'किसान- सत्याग्रह' जैसे आंदोलन ही आरंभ किये।
चंपारन में कुछ अंग्रेज नील की खेती कराने का कार्य करते थे। वे बडे़ स्वार्थी और अहंकारी थे और अपने सम्मुख किसी का कुछ भी महत्व समझते ही न थे। देहाती किसान तो उनकी निगाह में भेड़- बकरियों की तरह ही थे। इसलिए बात- बात पर धमकाना, दंड़ देना, तंग करना उनका स्वभाव हो गया था। लखनऊ कांग्रेस में किसानों के एक प्रतिनिधि श्री रामकुमार शुक्ल द्वारा जब ये बातें गाँधी जी तक पहुँची और किसानों पर होने वाले अत्याचारों की कहानियाँ सुनी, तो उन्होंने उन पीडि़त लोगों की सहायता करने का निश्चय कर लिया। वे समझते थे कि यद्यपि "निलहे गोरे" इन लोगों पर अपने स्वार्थ की दृष्टि से ही जुल्म करते रहते हैं, पर इसमें किसानों के अज्ञान, निरक्षरता तथा कितनी ही हानिकारक रूढि़यों का दोष भी कम नहीं है। इसलिए एक तरफ तो गोरों के अन्यायों के विरुद्ध आंदोलन आरंभ किया गया और दूसरी तरफ कुछ ऐसे चुने हुए कार्यकर्ताओं को गुजरात और महाराष्ट्र प्रांतों से बुलाया गया, जो केवल सेवाभाव से बिहार के पिछ्डे़ गाँवों में रहकर, वहाँ की समस्त असुविधायें सहन करके, साथ ही गोरों की धमकियों की परवाह न करके, किसानों में सुधार का कार्य करते रहें। इन्हीं कार्यकर्ताओं में से एक अवंतिका बाई गोखले भी थी।
अवंतिका बाई बंबई की रहने वाली सुशिक्षित, सुसभ्य महिला थी, जो विलायत जाकर अंग्रेजों की सामाजिक प्रथाओं का अच्छा अनुभव प्राप्त कर चुकी थी। उसका पति श्री बबनराव इंगलैंड में ५ वर्ष तक एक अंग्रेज परिवार में रहा था और वे लोग उसकी योग्यता और सज्जनता को देखकर उसके साथ अपनी एक लड़की का विवाह करने को तैयार थे। बंबई में वे बढि़या मकान में रहते थे, जिसमें बिजली और गैस आदि की सब सुविधायें प्राप्त थी और बिहार के जिन गाँवों में उनको कई महीने रहना था, उनमें एक अच्छी लालटेन का मिल सकना भी कठिन था। पर गाँधी जी का आदेश मिलते ही वे दोनों पति- पत्नी चंपारन के लिए चल पडे़। अब तक वे सदैव सैकेंड क्लास में सफर किया करते थे, पर इस बार गाँधी जी के बुलाने पर जा रहे थे, इसलिए थर्ड क्लास में ही सवार हुए। महात्मा जी के पास पहले से ही खबर पहुँच गई थी, इसलिए उन्होंने कुछ लोगों को उनको लाने को भेजा, जिनमें देवदास गाँधी (महात्मा जी के सबसे छोटे पुत्र) भी थे। वे कहने लगे कि अवंतिका बाई तो दूसरे दर्जे में आयेंगी। महात्मा जी ने कहा- "अगर वे तीसरे दर्जे में आयेंगी तो उन्हें यहाँ रखूँगा, वरना बंबई ही वापस भेज दूँगा।" गाडी़ रात के एक बजे आती थी। देवदास ने अवंतिका बाई को दूसरे दर्जे के डिब्बे में ही ढूँढा और जब वे न मिली तो कुछ देर बाद वापस चले आये। पर अवंतिका बाई अपने पति के साथ इससे पहले ही तीसरे दर्जे से उतरकर गाँधी जी के पास पहुँचकर एक कमरे में ठहर गई थी। देवदास ने महात्मा जी से कहा कि "अवंतिका बाई तो इस गाडी़ में नहीं आई।" यह सुनकर सब लोग हँसने लगे और महात्मा जी ने कहा- "मैंने तो पहले ही कहा था कि अवंतिका बाई तीसरे दर्जे में आयेगी।"
महात्मा गाँधी में मनुष्य के अंतःकरण को पहिचानने की विलक्षण शक्ति थी। इसी के बल पर उन्होंने उस "अंग्रेजियत" के दौर- दौरा के युग में ऐसे व्यक्तियों को ढूँढ़कर निकाल लिया, जिन्होंने बिना किसी आनाकानी के तुरंत अपने वैभवशाली जीवन क्रम का त्याग कर दिया और रेशम के स्थान पर मोटा खद्दर पहनकर जन- सेवा के कार्य में संलग्न हो गये। अवंतिका बाई भी गाँधी जी की इस कसौटी पर खरी उतरी। उनके जीवन का उद्देश्य जनसेवा ही था, और जब उन्होंने गांधी जी के सिद्धांतों की वास्तविकता को समझ लिया तो स्वयं तदनुसार परिवर्तित होने में देर न लगाई।
निरक्षर से विदुषी कैसे बनी ??
अंवतिका बाई का जन्म सन् १८८२ में इंदौर में हुआ था। उस समय तक स्त्री शिक्षा का प्रचार बहुत कम हुआ था। उनके पिता श्री विष्णुपंत जोशी इंदौर में रेलवे कर्मचारी थे। वे पक्के ईमानदार व्यक्ति थे। जिस कार्य में दूसरे लोगों ने लाखों रूपये की कामाई कर ली उसमें वे एक पैसा भी "ऊपरी आमदनी" का लेना बुरा समझते थे। पर वैसे वे पुरानी परंपरा के अनुयायी थे और उन्होंने अवंतिका बाई का विवाह नौ वर्ष की आयु में ही कर दिया। उधर अवंतिका बाई के पति बबनराव का घर सुधारक विचारों का था। इसलिए एक निरक्षर लड़की का सम्मानपूर्वक निर्वाह हो सकना कठिन ही था। मराठी तो काम चलाऊ उसकी सास ने ही पढा़ दी। पर कुछ साल बाद जब बबनराव इंजीनियरिंग कॉलेज में शिक्षा प्राप्त करके अधिक अनुभव प्राप्त करने के लिए विलायत गये, तो उन्होंने कहा कि अगर मेरे प्रवास- काल में अवंतिका बाई ने अंग्रेजी न सीख ली तो मैं विलायत से किसी अंग्रेज लेडी को विवाह करके ले आऊँगा। इस बात का प्रभाव अवंतिका बाई पर ऐसा पडा़ कि उन्होंने एक- दो वर्ष में ही अच्छी तरह अंग्रेजी सीख ली।
जब बबनराव इंगलैंड और चीन में सात वर्ष काम करके भारत वापस आये तो एक मशीन संबंधी दुर्घटना में अंगूठों को छोड़कर उनके हाथों के पंजे कट गये थे। इंगलैंड की कंपनी फिर भी उनसे काम करते रहने का बहुत आग्रेह कर रही थी, पर घर वालों के कहने- सुनने से उनको रुक जाना पडा़। वे यंत्र- विद्या में बहुत होशियार थे और इसलिए बंबई रहकर भी काफी व्यवसाय चला सके, तो भी भविष्य का ख्याल करके उन्होंने अवंतिका बाई को नर्स की शिक्षा प्राप्त करने की सम्मति दी। तदनुसार बंबई के "मोटलबाई अस्पताल" में उनको भर्ती कराया गया। यद्यपि 'शिक्षणालय' के नियमानुसार उनकी आयु दो- तीन वर्ष कम थी, पर किसी प्रकार अधिकारियों को राजी कर लिया गया। "नर्सिंग" कार्य उस समय विशेष रूप से योरोपियन और एंग्लो इंडियन स्त्रियाँ ही करती थी। इसलिए शिक्षणालय में सिर्फ छह- सात हिंदू लड़कियाँ थी। हिंदू लड़कियों को मराठी में और योरोपियनों को अंग्रेजी में शिक्षा दी जाती थी। अवंतिका बाई को पहले "मराठी- विभाग" में ही रखा गया, पर कुछ समय पश्चात् उनकी योग्यता देखकर उन्हें "अंगेजी- विभाग" में बदल दिया गया। एक वर्ष तक ट्रेनिंग प्राप्त करके उन्होंने परीक्षा दी और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुई। कुछ समय बाद ही घर में उसकी चचेरी सास को प्रसव हुआ और उस कार्य में उन्होंने अपनी योग्यता प्रमाणित कर दी।
भारतीय स्त्रीयाँ इतना समय बीत जाने पर भी, अभी तक 'नर्स' के कार्य की महत्ता को नहीं समझ सकी हैं और जो कोई इस कार्य को करती हैं, उन्हें हीनता की दृष्टि से देखती हैं। विदेशों में मिस नाइटेंगिल जैसे विदुषी महिला सौ वर्ष से भी पहले अपने उच्च परिवार की शान- शौकत और बड़प्पन को त्याग कर 'नर्सिंग' के पेशे में पर्दापण किया था और हर तरह से स्वार्थ- त्याग करके उसे एक सम्माननीय कार्य का रूप दिया था। पर भारतवर्ष में सभ्य- समाज के कहलाने वाले अधिकांश स्त्री- पुरूष नर्सिंग का लाभ उठाते हुए भी उसे "इज्जत" का पेशा नहीं समझते। ऐसी दशा में बबनराव और अवंतिका बाई का कार्य निस्संदेह प्रशंसनीय था कि उन्होंने ब्राह्मण जैसे उच्च वर्ण और संपन्न परिवार के होते हुए भी आज से सत्तर वर्ष पूर्व नर्सिंग की शिक्षा प्राप्त की। यद्यपि घर की स्थिति के कारण उनको नर्स की नौकरी नहीं करनी पडी़, पर उन्होंने दीनजनों की सेवा में इसका बहुत उपयोग किया। चंपारन में भी गाँधी ने उन्हें सबसे पहले यही सोचकर बुलाया था कि वे ग्रामीण स्त्री- पुरूषों तथा बालकों की सेवा करके, उनको स्वास्थ संबंधी सहायता देकर अपनी तरफ आकर्षित कर सकती हैं। फिर इसी गुण के कारण वह बंबई की सुप्रसिद्ध संस्था 'सेवा- सदन' की भी एक प्रमुख कार्यकर्ता बन गई।
इसमें संदेह नहीं कि सेवा भावी महिलाओं के लिए 'नर्सिंग' की शिक्षा बहुत अधिक उपयोगी है। 'नर्स' का कार्य विदेशों में इतना सम्मानजनक समझा जाता है कि बडे़- बडे़ लोग भी उनका आदर करते हैं और किसी भी सामाजिक समारोह में उनको प्राथमिकता दी जाती है। यदि जीवन निर्वाह के धंधे के रूप में काम करने वाली नर्सों का इतना महत्व है, तो जो समाज सेविका निःस्वार्थ भाव से, असहाय पीडि़तजनों के कष्टों का मोचन करने की भावना से इस कार्य को करेंगी तो उसकी पूजा- प्रतिष्ठा कौन नहीं करेगा?
सेवा कार्य का व्यवहारिक रूप-
जिस समय अवंतिका बाई 'नर्सिंग' का कोर्स पढ़ रही थी, उस समय बात- चीत होते- होते किसी डॉक्टर ने कहा कि "नर्सिंग" कार्य में योरोपियन महिलायें जितनी कुशल, साहसी और संलग्नता से कार्य करने वाली होती हैं, इतनी हिंदू स्त्रियाँ हो ही नहीं सकती।" अवंतिका बाई ने उसी समय उत्तर दिया कि यदि कोई अवसर आया तो मैं सिद्ध कर दूँगी कि इस दृष्टि से भारतीय महिलायें किसी प्रकार कम नहीं है। संयोग से एक ही वर्ष बाद बंबई में चेचक की बीमारी बडे़ भयंकर रूप से फैली और सैकडों मौतें होने लगी। अस्पताल रोगियों से भर गये। अवंतिका बाई उस समय व्यारा नामक स्थान में जो बडौ़दा (गुजरात) में है, अपने पति के साथ दियासलाई के सर्वप्रथम भारतीय कारखाने का संचालन कर रही थी। उस डॉक्टर ने वहीं पत्र भेजकर अवंतिका बाई को बंबई आने और चेचक के मरीजों की सेवा करके अपने शब्दों को चरितार्थ करने के लिए सूचित किया। यद्यपि उस समय बंबई में चेचक ने बडा़ भंयकर और घातक रूप धारण कर रखा था और उसकी छूत से बडे़- बडे़ डॉक्टर घबराने लगे थे। पर अवंतिका बाई निर्भय होकर कार्यक्षेत्र में पहुँच गई और छह महीने तक ऐसी तत्परता से चेचक के मरणासन्न रोगियों की सेवा करती रही कि अस्पताल के बडे़ डॉक्टर भी दंग रह गये। उनके परिश्रम और कुशलता से बहुसंख्यक व्यक्तियों की प्राण रक्षा हो सकी। उसको चुनौती देने वाले डॉक्टर साहब का तो कहना ही क्या? उन्होंने मुक्त- कंठ से अपनी भूल और अवंतिका बाई की श्रेष्ठता स्वीकार की। इस प्रकार उन्होंने स्वयं अपने को संकट में डालकर भी भारतीय महिलाओं की कीर्ति को बढा़या।
पति की सेवा -
बबनराव ने दियासलाई का कारखाना उस युग में लगाया था, जब भारत में स्वदेशी आंदोलन आरंभ नहीं हुआ था और छोटी- बडी़ सभी चीजें विदेशों से बनकर आती थी। पर बबनराव और बडौ़दा के महाराज सयाजी राव दोनों को देश से प्रेम था और वे भारतीय उद्योग- धंधों की उन्नति की अभिलाषा करते थे महाराज बडौ़दा, बबनराव से मित्रवत् व्यवहार करते थे और कभी- कभी व्यारा आकर उनके कार्य का निरीक्षण करते थे। जब उनको मालूम हुआ कि व्यापार संबंधी कार्य से बबनराव के बाहर चले जाने पर कारखाने की देखभाल और व्यवस्था अकेली अवंतिका बाई करती हैं, तो महाराज बडे़ प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि "अगर भारतीय महिलायें इसी तरह अपने पति के कंधे से कंधा मिलाकर जीवन के हर क्षेत्र में काम करती रही, तो भारत थोडे़ ही दिनों में स्वतंत्र हो जायेगा और उसकी गुलामी दूर हो जायेगी।"
बबनराव ने डाइनामाइट का विस्फोट करके मछलियों को पकड़ने का एक नया तरीका निकाला था। एक दिन उसका प्रयोग करते हुए, उनका हाथ बहुत घायल हो गया। खबर मिलते ही अवंतिका बाई उनके पास पहुँची और उसी समय अपनी साडी़ में से कपडा़ फाड़कर घाव को बाँध दिया, जिससे खून का बहना बंद हो गया। फिर वह उनको लेकर सूरत गई और एक प्रसिद्ध डॉक्टर से हाथ का ऑपरेशन कराया। डॉक्टर ने अवंतिका बाई की कम उम्र को देखकर (वह उस समय लगभग २० वर्ष की ही थी) ख्याल किया कि यह ऑपरेशन होते देखकर घबडा़ जायगी। इसलिए उन्होंने कहा कि आप इस समय बाहर जाकर बैठ जायें। पर अवंतिका बाई ने उत्तर दिया- "डॉक्टर, आप इसके लिए चिंता न कीजिये। मैंने नर्सिंग- कोर्स पूरा किया है। पिछले ४८ घंटों में मैंने ही उनकी मरहम पट्टी की है। आप ऑपरेशन का काम कीजिये, मैं इनकी नाडी़ देखती रहूँगी।"
ऑपरेशन के बाद जब सब कोई घर आये और पहली बार अवंतिका बाई ने अपने हाथ से बनबराव को बच्चे की तरह खाना खिलाया, तो उनको यह ख्याल आया कि अब मैं कितना पराश्रित हो गया। चीन में हाथ की अँगुललियाँ कट गई और अब दाहिना हाथ कलाई पर से अलग हो गया। इस पर अवंतिका बाई ने कहा- आपकी अँगुलियाँ चली गई तो क्या हुआ, मेरी तो दसों अँगुलियाँ मौजूद हैं। मेरे रहते आपको किसी तरह की तकलीफ नहीं हो सकेगी।"
हमारे देश के पुराने ख्यालात के लोग प्रायः कहा करते हैं कि अंग्रेजी पढ़- लिखकर स्त्रियाँ स्वच्छंद हो जाती हैं और पतियों की परवाह नहीं करती। पश्चिमीय औरतों की तो वे सदा बुराई किया ही करते हैं। उनके कथनानुसार अंग्रेजी ढ़ग की पढा़ई से स्त्रियों में से श्रद्धा, भक्ति, पति सेवा आदि का भाव मिट जाता हैं और वे भारतीय आदर्श से गिर जाती हैं। पर अवंतिका बाई ने अपने उदाहरण से यह सिद्ध कर दिया कि इस प्रकार का आक्षेप निराधार है। अंग्रेजी पढ़कर और विलायत जाकर भी स्त्री पूरी तरह पतिव्रता रह सकती है, और अपने सेवा भाव से घर के सब लोगों को संतुष्ट कर सकती है। शिक्षा और अनुभव के द्वारा किसी का पतन नहीं हो सकता। यदि कोई अनुचित मार्ग पर चलता है तो इसे व्यक्तिगत दोष ही समझना चाहिए।
आगे चलकर जब दियासलाई का कारखाना बंद करके बबनराव बंबई चले गये, तब अवंतिका बाई ने डेढ़ वर्ष तक नर्सिंग का कार्य करके उनकी आर्थिक चिंताओं को भी मिटाया। उस समय उनकी आमदनी ३०० रू॰ मासिक थी, जिसे आजकल के भावों से दस हजार तो माना ही जा सकता है। जीवन के अंतिम समय तक वे पति को अपने हाथ का भोजन बनाकर खिलाती रही। मृत्यु के कुछ समय पहले कैंसर के कारण रोग शैय्या पर पड़ जाने पर ही उनका यह कार्य बंद हुआ।
समाज- सेवा का व्रत-
सन् १९१३ में इंगलैंड यात्रा के अवसर पर प्रतिष्ठित घरों की महिलाओं के समाज सेवा के कार्यों को देखकर अवंतिका बाई ने अपना जीवन इसी उद्देश्य के लिए खर्च करने का निश्चय कर लिया था। वहाँ से स्वदेश आते ही "भारत सेवक समिति" (सर्वेंर्ट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी) के प्रसिद्ध कार्यकर्ता श्री देवधर की प्रेरणा से वे बंबई की प्रसिद्ध संस्था "सेवा सदन" में कार्य करने लगीं। उसी समय बडौ़दा की महारानी पद्मावती ने उनको अपने पास सहचरी की हैसियत से रहने को बुलाया था, पर सेवा व्रतधारी अवंतिका बाई ने इस "राजसी जीवन" को दूर से ही नमस्कार कर लिया।
सेवा- सदन में सबसे पहले वह स्त्री- शिक्षा का कार्य करने लगी। पढा़ने की विधी उन्होंने देवधर जी से ही सीखी और कुछ समय बाद स्वतंत्र रूप से स्त्रियों को अंग्रेजी पढा़ने लगी। पर उनका विशेष ध्यान मजदूरों की तरफ था। उन्होंने विलायत की मजदूर बस्तियों में इस प्रकार के सेवाकार्य को देखा था, इसलिए वे भी प्रति सप्ताह बंबई की लाल बाग स्थित मजदूर बस्ती में जाकर तीन घंटे मजदूरों को सफाई और स्वास्थ्यप्रद रहन- सहन की शिक्षा देती थी। वे स्त्रियों को शिशुपालन का सही तरीका समझाती। अछूतों की दुर्दशा उनको बडी़ दुःखदायी प्रतीत होती थी। इसलिए प्रायः उनके मुहल्ले में जाकर उनकी दशा का अवलोकन करती और जिस प्रकार होता उनकी सहायता को तत्पर रहती। मकर संक्रांति के त्यौहार पर, जिसे महाराष्ट्र में "हल्दी कूँक" कहते हैं, वे हरिजनों के मुहल्ले में जाकर उनकी स्त्रियों को "हल्दी- रोरी" देती और सबको तिल के लड्डू बाटँती।
अछूतों की समस्या अभी तक सुलझ नहीं रही है। महात्मा गाँधी के अपार त्याग और कष्ट सहन के परिणाम स्वरूप आजकल अछूतों को कुछ कानूनी अधिकार मिल गये हैं और छोटी- बडी़ सरकारी नौकरियों में भी वे कुछ स्थान पा जाते हैं, पर अभी तक सामाजिक भेदभाव के व्यवहार में, जो उनके साथ पुराने समय से होता आया है, अधिक अंतर नहीं पडा़ है। शिक्षितजनों का एक भाग चाहे छुआछूत की व्याधि से कुछ मुक्त हो गया है, ग्रामीण और अशिक्षित जनता जिसकी संख्या सौ में से अस्सी के लगभग है, अभी तक बहुत कम बदली हैं। अवंतिका बाई के लिए यह बडे़ गौरव की बात थी कि उसने आज से ९०- ९५ वर्ष पहले अछूतों के साथ भाईचारे का व्यवहार करके, लोगों का ध्यान इस महत्वपूर्ण समस्या की तरफ आकर्षित किया।
शिशु पालन गृह की स्थापना-
कारखानों में जाने वाली मजदूर स्त्रियाँ काम पर जाते हुए अपने छोटे बच्चों को अफीम खिलाकर घरों में बंद कर जाती थी जिससे वे बीच में उठकर रोयें नहीं। यह प्रथा बडी़ हानिकारक थी और इससे बच्चे आरंभ से ही सुस्त, निस्तेज और अकर्मण्य से हो जाते थे। अवंतिका बाई ने मजदूर स्त्रियों को समझाया कि इस प्रकार अपने हाथ से अपनी संतान का अनहित करना बडा़ अनुचित है। वे स्त्रियाँ भी इस बात को मान गई, पर प्रश्न था कि वे यदि अफीम न दें, तो पीछे से बच्चों की देखभाल कौन करे? अवंतिका बाई ने इसका भार अपने ऊपर लिया और कुछ उदार सज्जनों की सहायता से एक शिशुपालन- गृह स्थापित कर दिया। अनेक उच्च पदाधिकारी अंग्रेज महिलायें भी इस कार्य में सहयोग देती थी। ऐसे "शिशुपालन गृहों" को अंग्रेजी में "क्रेश" कहते हैं और विदेशों में सभी बडे़ कारखानों में, जहाँ स्त्रियाँ मजदूरी करती हैं, इस प्रकार की व्यवस्था रहती है। यद्यपि अवंतिका बाई की योजना कुछ वर्ष ही चल सकी, फिर गाँधी जी के आंदोलन में कूद पड़ने के कारण, उसे बंद कर देना पडा़। पर इसने अन्य कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन किया और अब देश के बडे़ कारखानों में ऐसे "शिशुपालन- गृह" कारखानेदारों की तरफ से ही खोल दिये दिये गये हैं। इनमें माताओं के काम पर चले जाने पर बच्चों की देखभाल, सफाई, खिलाना, पिलाना, उसके वस्त्रों को धोकर ठीक कर देना आदि सब कार्य वहाँ के कार्यकर्ताओं द्वारा ही किये जाते हैं। मजदूरों तथा अछूतों आदि के लिए छोटे नगरों में इस तरह के सहायता कार्य करने की अब भी बडी़ आवश्यकता है और सेवाभावी स्त्री- पुरूष इस पुण्य- कार्य में सहयोग देकर अपने जीवन को सार्थक कर सकते हैं।
हिंद महिला समाज-
गाँधी जी के कार्यक्रमों में भाग लेने का एक परिणाम यह हुआ कि समाज- सेवा के संबंध में भी उनका दृष्टिकोण बदल गया।
यद्यपि वे आरंभ से ही गरीबों की सेवा की अभिलाषा रखती थी, क्योंकि सेवा के वास्तविक पात्र वे ही होते हैं। पर जिन संस्थाओं से वे संबंधित थी, उनकी अन्य सदस्याओं का दृष्टिकोण कुछ भिन्न था। उनमें से अधिकांश धनिक वर्ग की ही थी और वे इस "सेवा कार्य" को कुछ अंशों में एक फैशन के ढंग पर करती थी। जिस प्रकार इंगलैंड के महिला क्लबों में धनी घरों की स्त्रियाँ तरह- तरह के मनोरंजनों, खेल- कूद और गप्पे लडा़ने में समय बिताया करती हैं, वही हालत प्रायः बंबई की सेवा संस्थाओं की थी। गरीबों की तो बात क्या, मध्यम श्रेणी की स्त्रियाँ भी उनकी सदस्या नहीं बन सकती थी।
यह देखकर चंपारन से वापस आते ही सन् १९१८ में अवंतिका बाई ने उद्योग करके "हिंद महिला समाज" के नाम से एक नई संस्था की स्थापना की, जिसका उद्देश्य मध्यम श्रेणी की महिलाओं को कार्य क्षेत्र में लाना था। चंपारन की किसान और बंबई के मजदूर- वर्ग की स्त्रियों में काम करने से उन्हें यह अनुभव हुआ कि यहाँ की सामान्य स्त्रियों का स्वभाव अपने परिवार और जाति के स्वार्थ तक सीमित रहता है। इससे आगे बढ़कर समाज और देश की समस्याओं को समझने या इसके लिए कुछ कर सकने की रुचि उनमें नहीं पायी जाती। इसलिए उन्होंने 'हिंद महिला समाज' का संगठन इस तरह तैयार किया कि सभी वर्ग की महिलायें उसमें भाग ले सकें। जिस दिन इस संस्था की स्थापना की गई उसी दिन बंबई की कई हजार मध्यम श्रेणी की महिलायें उसमें उपस्थित हुई और उन्होंने उसके कार्यों में सब तरह से सहायता देने की अभिलाषा प्रकट की। अवंतिका बाई ने श्री जयकर की माता सोनाबाई को 'समाज' की अध्यक्षा बनाने का विचार प्रकट किया, पर सोनाबाई ने कहा कि- "मेरे जैसी वृद्धा से यह काम ठीक ढंग से नहीं चलाया जा सकेगा। इसके लिए किसी कर्मठ और उत्साही युवती को ही चुनना चाहिए।" उसने स्वयं अवंतिका बाई को ही अध्यक्ष बनाने का सुझाव दिया और सभा ने सर्व सम्मति से उसे स्वीकार किया। तब से जीवन के अंतिम दिन तक वे ही उस पद पर काम करती रही। इस 'समाज' के कार्यक्रम का सारांश इन शब्दों में मिल सकता है-
"स्त्री- समाज में परस्पर स्नेह और सहयोग की भावना उत्पन्न करना, शिक्षा का प्रचार, स्त्री जाति के सम्मुख पारस्परिक सहायता तथा सद्भावना का आदर्श उपस्थित करना, महिलाओं में साहित्य के लिए प्रेम बढा़ना और इसके लिए पुस्तकालय तथा वाचनालय खोलना, विद्वान वक्ताओं के व्याख्यान कराना, प्रवचन, कीर्तन आदि द्वारा ज्ञान का प्रसार करना, वाद- विवाद (डिबेट) की प्रतियोगिता की व्यवस्था करना, विविध कलायें सिखाना, स्वदेशी अर्थशास्त्र समझाना इत्यादि।"
पर जब 'समाज' की तरफ से एक वाचनालय खोला गया, तो उसमें समाचार पत्र तथा पुस्तकें पढ़ने कोई स्त्री नहीं आती थी। उस समय यह एक निराली बात समझी जाती थी कि स्त्रियाँ वाचनालय में जाकर अखबार पढे़ ।। उनके पति भी इसके विरुद्ध थे। अगर कोई स्त्री संयोगवश वहाँ चली जाती तो उस पर डाँट- फटकार पड़ती थी। यह देखकर अवंतिका बाई ने एक नया तरीका यह निकाला कि वह मिशनरी महिलाओं की तरह 'चालों' (सामूहिक निवास स्थानों) में अखबार और पुस्तकें लेकर घूमती और स्त्रियों को पढ़ने को दे आती अथवा किसी कमरे में बैठकर, आसपास की दस- बीस स्त्रियों को इकट्ठा कर लेती और उनको अखबार और पुस्तकें पढ़कर सुनाती। इस प्रकार जो कार्य हम "झोला पुस्तकालयों" द्वारा आज कर रहे हैं, वैसी ही कार्य प्रणाली अवंतिका बाई ने सौ वर्ष पहले अपनाई थी और आरंभ में निराशा हाथ लगने पर भी छह महीने में उसे सफल बनाकर दिखा दिया था।
फिर एक "व्याख्यान माला" की योजना की गई, उसमें स्त्रियों द्वारा राष्ट्रीय कार्य किये जाने के संबंध में, प्रतिमास किसी बहुत बडे़ विद्वान् का भाषण कराया जाता था। इसमें लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, मालवीय जी जैसे महान् नेताओं के भी भाषण हुए। इनका प्रभाव महिलाओं पर बहुत अधिक पडा़ और उनमें से आगे बढ़कर असहयोग तथा सत्याग्रह आंदोलनों में भाग लेने लगी। सन् १९३० के कानून- भंग आंदोलन में तो उन्होंने इतना काम किया कि देश में चारों ओर उनकी प्रशंसा होने लगी। इस दृष्टी से अवंतिका बाई का कार्यक्रम भी महात्मा गाँधी के स्वतंत्रता- संग्राम का एक महत्वपूर्ण अंग बन गया।
जब कांग्रेस की तरफ से लोकमान्य तिलक के स्मारक के रूप में एक फंड जमा किया जाने लगा, तो 'समाज' की सदस्याओं ने ३९०० रू॰ जमा करके महात्मा जी को दिया। उस समय गाँधी जी ने कहा कि- "इस ३९०० रू॰ में से १६०० रू॰) तो मेरी बहन अवंतिका बाई ने ही दिए हैं। दानदाताओं की सूची में १०० रू० देने वाले के नाम भी बहुत कम दिखाई पड़ते हैं। मैने यह कभी नहीं सोचा था कि लोकमान्य के प्रति महाराष्ट्र में इतनी उदासीनता होगी।" महात्मा जी के इतना कहते ही महिलाओं की तरफ से नोट और गहनों की वर्षा होने लगी और कुछ ही मिनटों में ४००० रू॰ और इकट्ठा हो गया।
"हिंद महिला समाज" ने कांग्रेस के सूत कातने तथा खादी बुनने के कार्य में भी अच्छी प्रगति करके दिखाई।
महात्मा गांधी ने सन् १९१५ में अफ्रीका से भारतवर्ष आकर जब यहाँ के सार्वजनिक जीवन में भाग लेना आरंभ किया तो उनको अनुभव हुआ कि इस समय सबसे अधिक आवश्यकता भारतीय किसानों की दुरावस्था का सुधार करने और उनमें जाग्रति उत्पन्न करने की है। यद्यपि उस समय देश में स्वराज्य आंदोलन जोर पकड़ रहा था और लोकमान्य तिलक तथा मिसेज एनीबेसेंट जैसे प्रसिद्ध नेता राजनीतिक जाग्रति बडे़ परिमाण में फैला रहे थे, पर उनके प्रयत्न अधिकांश में बडे़ नगरों में रहने वाले शिक्षित- वर्ग तक ही सीमित थे। गाँवों में जाने का कोई साहस ही नहीं करता था, क्योंकि न तो वहाँ किसी तरह सुविधायें मिल सकती थी और न वहाँ की अज्ञानांधकार में डूबी हुई जनता को उठा सकना ही सहज था।
पर गाँधी जी की कार्य प्रणाली प्रत्येक कार्य को जड़ से आरंभ करने की थी। भारतवर्ष की जड़ गाँवों में ही है। किसानों की संख्या संपूर्ण आबादी का ८० प्रतिशत थी और वे ही लोग समाज के 'अन्नदाता' थे। पर अशिक्षा, अज्ञान तथा विदेशी शासन ने उनको लुंज- पुंज बना रखा था। इस बात को समझकर गाँधी जी ने सबसे पहले खेडा़ और चंपारन के 'किसान- सत्याग्रह' जैसे आंदोलन ही आरंभ किये।
चंपारन में कुछ अंग्रेज नील की खेती कराने का कार्य करते थे। वे बडे़ स्वार्थी और अहंकारी थे और अपने सम्मुख किसी का कुछ भी महत्व समझते ही न थे। देहाती किसान तो उनकी निगाह में भेड़- बकरियों की तरह ही थे। इसलिए बात- बात पर धमकाना, दंड़ देना, तंग करना उनका स्वभाव हो गया था। लखनऊ कांग्रेस में किसानों के एक प्रतिनिधि श्री रामकुमार शुक्ल द्वारा जब ये बातें गाँधी जी तक पहुँची और किसानों पर होने वाले अत्याचारों की कहानियाँ सुनी, तो उन्होंने उन पीडि़त लोगों की सहायता करने का निश्चय कर लिया। वे समझते थे कि यद्यपि "निलहे गोरे" इन लोगों पर अपने स्वार्थ की दृष्टि से ही जुल्म करते रहते हैं, पर इसमें किसानों के अज्ञान, निरक्षरता तथा कितनी ही हानिकारक रूढि़यों का दोष भी कम नहीं है। इसलिए एक तरफ तो गोरों के अन्यायों के विरुद्ध आंदोलन आरंभ किया गया और दूसरी तरफ कुछ ऐसे चुने हुए कार्यकर्ताओं को गुजरात और महाराष्ट्र प्रांतों से बुलाया गया, जो केवल सेवाभाव से बिहार के पिछ्डे़ गाँवों में रहकर, वहाँ की समस्त असुविधायें सहन करके, साथ ही गोरों की धमकियों की परवाह न करके, किसानों में सुधार का कार्य करते रहें। इन्हीं कार्यकर्ताओं में से एक अवंतिका बाई गोखले भी थी।
अवंतिका बाई बंबई की रहने वाली सुशिक्षित, सुसभ्य महिला थी, जो विलायत जाकर अंग्रेजों की सामाजिक प्रथाओं का अच्छा अनुभव प्राप्त कर चुकी थी। उसका पति श्री बबनराव इंगलैंड में ५ वर्ष तक एक अंग्रेज परिवार में रहा था और वे लोग उसकी योग्यता और सज्जनता को देखकर उसके साथ अपनी एक लड़की का विवाह करने को तैयार थे। बंबई में वे बढि़या मकान में रहते थे, जिसमें बिजली और गैस आदि की सब सुविधायें प्राप्त थी और बिहार के जिन गाँवों में उनको कई महीने रहना था, उनमें एक अच्छी लालटेन का मिल सकना भी कठिन था। पर गाँधी जी का आदेश मिलते ही वे दोनों पति- पत्नी चंपारन के लिए चल पडे़। अब तक वे सदैव सैकेंड क्लास में सफर किया करते थे, पर इस बार गाँधी जी के बुलाने पर जा रहे थे, इसलिए थर्ड क्लास में ही सवार हुए। महात्मा जी के पास पहले से ही खबर पहुँच गई थी, इसलिए उन्होंने कुछ लोगों को उनको लाने को भेजा, जिनमें देवदास गाँधी (महात्मा जी के सबसे छोटे पुत्र) भी थे। वे कहने लगे कि अवंतिका बाई तो दूसरे दर्जे में आयेंगी। महात्मा जी ने कहा- "अगर वे तीसरे दर्जे में आयेंगी तो उन्हें यहाँ रखूँगा, वरना बंबई ही वापस भेज दूँगा।" गाडी़ रात के एक बजे आती थी। देवदास ने अवंतिका बाई को दूसरे दर्जे के डिब्बे में ही ढूँढा और जब वे न मिली तो कुछ देर बाद वापस चले आये। पर अवंतिका बाई अपने पति के साथ इससे पहले ही तीसरे दर्जे से उतरकर गाँधी जी के पास पहुँचकर एक कमरे में ठहर गई थी। देवदास ने महात्मा जी से कहा कि "अवंतिका बाई तो इस गाडी़ में नहीं आई।" यह सुनकर सब लोग हँसने लगे और महात्मा जी ने कहा- "मैंने तो पहले ही कहा था कि अवंतिका बाई तीसरे दर्जे में आयेगी।"
महात्मा गाँधी में मनुष्य के अंतःकरण को पहिचानने की विलक्षण शक्ति थी। इसी के बल पर उन्होंने उस "अंग्रेजियत" के दौर- दौरा के युग में ऐसे व्यक्तियों को ढूँढ़कर निकाल लिया, जिन्होंने बिना किसी आनाकानी के तुरंत अपने वैभवशाली जीवन क्रम का त्याग कर दिया और रेशम के स्थान पर मोटा खद्दर पहनकर जन- सेवा के कार्य में संलग्न हो गये। अवंतिका बाई भी गाँधी जी की इस कसौटी पर खरी उतरी। उनके जीवन का उद्देश्य जनसेवा ही था, और जब उन्होंने गांधी जी के सिद्धांतों की वास्तविकता को समझ लिया तो स्वयं तदनुसार परिवर्तित होने में देर न लगाई।
निरक्षर से विदुषी कैसे बनी ??
अंवतिका बाई का जन्म सन् १८८२ में इंदौर में हुआ था। उस समय तक स्त्री शिक्षा का प्रचार बहुत कम हुआ था। उनके पिता श्री विष्णुपंत जोशी इंदौर में रेलवे कर्मचारी थे। वे पक्के ईमानदार व्यक्ति थे। जिस कार्य में दूसरे लोगों ने लाखों रूपये की कामाई कर ली उसमें वे एक पैसा भी "ऊपरी आमदनी" का लेना बुरा समझते थे। पर वैसे वे पुरानी परंपरा के अनुयायी थे और उन्होंने अवंतिका बाई का विवाह नौ वर्ष की आयु में ही कर दिया। उधर अवंतिका बाई के पति बबनराव का घर सुधारक विचारों का था। इसलिए एक निरक्षर लड़की का सम्मानपूर्वक निर्वाह हो सकना कठिन ही था। मराठी तो काम चलाऊ उसकी सास ने ही पढा़ दी। पर कुछ साल बाद जब बबनराव इंजीनियरिंग कॉलेज में शिक्षा प्राप्त करके अधिक अनुभव प्राप्त करने के लिए विलायत गये, तो उन्होंने कहा कि अगर मेरे प्रवास- काल में अवंतिका बाई ने अंग्रेजी न सीख ली तो मैं विलायत से किसी अंग्रेज लेडी को विवाह करके ले आऊँगा। इस बात का प्रभाव अवंतिका बाई पर ऐसा पडा़ कि उन्होंने एक- दो वर्ष में ही अच्छी तरह अंग्रेजी सीख ली।
जब बबनराव इंगलैंड और चीन में सात वर्ष काम करके भारत वापस आये तो एक मशीन संबंधी दुर्घटना में अंगूठों को छोड़कर उनके हाथों के पंजे कट गये थे। इंगलैंड की कंपनी फिर भी उनसे काम करते रहने का बहुत आग्रेह कर रही थी, पर घर वालों के कहने- सुनने से उनको रुक जाना पडा़। वे यंत्र- विद्या में बहुत होशियार थे और इसलिए बंबई रहकर भी काफी व्यवसाय चला सके, तो भी भविष्य का ख्याल करके उन्होंने अवंतिका बाई को नर्स की शिक्षा प्राप्त करने की सम्मति दी। तदनुसार बंबई के "मोटलबाई अस्पताल" में उनको भर्ती कराया गया। यद्यपि 'शिक्षणालय' के नियमानुसार उनकी आयु दो- तीन वर्ष कम थी, पर किसी प्रकार अधिकारियों को राजी कर लिया गया। "नर्सिंग" कार्य उस समय विशेष रूप से योरोपियन और एंग्लो इंडियन स्त्रियाँ ही करती थी। इसलिए शिक्षणालय में सिर्फ छह- सात हिंदू लड़कियाँ थी। हिंदू लड़कियों को मराठी में और योरोपियनों को अंग्रेजी में शिक्षा दी जाती थी। अवंतिका बाई को पहले "मराठी- विभाग" में ही रखा गया, पर कुछ समय पश्चात् उनकी योग्यता देखकर उन्हें "अंगेजी- विभाग" में बदल दिया गया। एक वर्ष तक ट्रेनिंग प्राप्त करके उन्होंने परीक्षा दी और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुई। कुछ समय बाद ही घर में उसकी चचेरी सास को प्रसव हुआ और उस कार्य में उन्होंने अपनी योग्यता प्रमाणित कर दी।
भारतीय स्त्रीयाँ इतना समय बीत जाने पर भी, अभी तक 'नर्स' के कार्य की महत्ता को नहीं समझ सकी हैं और जो कोई इस कार्य को करती हैं, उन्हें हीनता की दृष्टि से देखती हैं। विदेशों में मिस नाइटेंगिल जैसे विदुषी महिला सौ वर्ष से भी पहले अपने उच्च परिवार की शान- शौकत और बड़प्पन को त्याग कर 'नर्सिंग' के पेशे में पर्दापण किया था और हर तरह से स्वार्थ- त्याग करके उसे एक सम्माननीय कार्य का रूप दिया था। पर भारतवर्ष में सभ्य- समाज के कहलाने वाले अधिकांश स्त्री- पुरूष नर्सिंग का लाभ उठाते हुए भी उसे "इज्जत" का पेशा नहीं समझते। ऐसी दशा में बबनराव और अवंतिका बाई का कार्य निस्संदेह प्रशंसनीय था कि उन्होंने ब्राह्मण जैसे उच्च वर्ण और संपन्न परिवार के होते हुए भी आज से सत्तर वर्ष पूर्व नर्सिंग की शिक्षा प्राप्त की। यद्यपि घर की स्थिति के कारण उनको नर्स की नौकरी नहीं करनी पडी़, पर उन्होंने दीनजनों की सेवा में इसका बहुत उपयोग किया। चंपारन में भी गाँधी ने उन्हें सबसे पहले यही सोचकर बुलाया था कि वे ग्रामीण स्त्री- पुरूषों तथा बालकों की सेवा करके, उनको स्वास्थ संबंधी सहायता देकर अपनी तरफ आकर्षित कर सकती हैं। फिर इसी गुण के कारण वह बंबई की सुप्रसिद्ध संस्था 'सेवा- सदन' की भी एक प्रमुख कार्यकर्ता बन गई।
इसमें संदेह नहीं कि सेवा भावी महिलाओं के लिए 'नर्सिंग' की शिक्षा बहुत अधिक उपयोगी है। 'नर्स' का कार्य विदेशों में इतना सम्मानजनक समझा जाता है कि बडे़- बडे़ लोग भी उनका आदर करते हैं और किसी भी सामाजिक समारोह में उनको प्राथमिकता दी जाती है। यदि जीवन निर्वाह के धंधे के रूप में काम करने वाली नर्सों का इतना महत्व है, तो जो समाज सेविका निःस्वार्थ भाव से, असहाय पीडि़तजनों के कष्टों का मोचन करने की भावना से इस कार्य को करेंगी तो उसकी पूजा- प्रतिष्ठा कौन नहीं करेगा?
सेवा कार्य का व्यवहारिक रूप-
जिस समय अवंतिका बाई 'नर्सिंग' का कोर्स पढ़ रही थी, उस समय बात- चीत होते- होते किसी डॉक्टर ने कहा कि "नर्सिंग" कार्य में योरोपियन महिलायें जितनी कुशल, साहसी और संलग्नता से कार्य करने वाली होती हैं, इतनी हिंदू स्त्रियाँ हो ही नहीं सकती।" अवंतिका बाई ने उसी समय उत्तर दिया कि यदि कोई अवसर आया तो मैं सिद्ध कर दूँगी कि इस दृष्टि से भारतीय महिलायें किसी प्रकार कम नहीं है। संयोग से एक ही वर्ष बाद बंबई में चेचक की बीमारी बडे़ भयंकर रूप से फैली और सैकडों मौतें होने लगी। अस्पताल रोगियों से भर गये। अवंतिका बाई उस समय व्यारा नामक स्थान में जो बडौ़दा (गुजरात) में है, अपने पति के साथ दियासलाई के सर्वप्रथम भारतीय कारखाने का संचालन कर रही थी। उस डॉक्टर ने वहीं पत्र भेजकर अवंतिका बाई को बंबई आने और चेचक के मरीजों की सेवा करके अपने शब्दों को चरितार्थ करने के लिए सूचित किया। यद्यपि उस समय बंबई में चेचक ने बडा़ भंयकर और घातक रूप धारण कर रखा था और उसकी छूत से बडे़- बडे़ डॉक्टर घबराने लगे थे। पर अवंतिका बाई निर्भय होकर कार्यक्षेत्र में पहुँच गई और छह महीने तक ऐसी तत्परता से चेचक के मरणासन्न रोगियों की सेवा करती रही कि अस्पताल के बडे़ डॉक्टर भी दंग रह गये। उनके परिश्रम और कुशलता से बहुसंख्यक व्यक्तियों की प्राण रक्षा हो सकी। उसको चुनौती देने वाले डॉक्टर साहब का तो कहना ही क्या? उन्होंने मुक्त- कंठ से अपनी भूल और अवंतिका बाई की श्रेष्ठता स्वीकार की। इस प्रकार उन्होंने स्वयं अपने को संकट में डालकर भी भारतीय महिलाओं की कीर्ति को बढा़या।
पति की सेवा -
बबनराव ने दियासलाई का कारखाना उस युग में लगाया था, जब भारत में स्वदेशी आंदोलन आरंभ नहीं हुआ था और छोटी- बडी़ सभी चीजें विदेशों से बनकर आती थी। पर बबनराव और बडौ़दा के महाराज सयाजी राव दोनों को देश से प्रेम था और वे भारतीय उद्योग- धंधों की उन्नति की अभिलाषा करते थे महाराज बडौ़दा, बबनराव से मित्रवत् व्यवहार करते थे और कभी- कभी व्यारा आकर उनके कार्य का निरीक्षण करते थे। जब उनको मालूम हुआ कि व्यापार संबंधी कार्य से बबनराव के बाहर चले जाने पर कारखाने की देखभाल और व्यवस्था अकेली अवंतिका बाई करती हैं, तो महाराज बडे़ प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि "अगर भारतीय महिलायें इसी तरह अपने पति के कंधे से कंधा मिलाकर जीवन के हर क्षेत्र में काम करती रही, तो भारत थोडे़ ही दिनों में स्वतंत्र हो जायेगा और उसकी गुलामी दूर हो जायेगी।"
बबनराव ने डाइनामाइट का विस्फोट करके मछलियों को पकड़ने का एक नया तरीका निकाला था। एक दिन उसका प्रयोग करते हुए, उनका हाथ बहुत घायल हो गया। खबर मिलते ही अवंतिका बाई उनके पास पहुँची और उसी समय अपनी साडी़ में से कपडा़ फाड़कर घाव को बाँध दिया, जिससे खून का बहना बंद हो गया। फिर वह उनको लेकर सूरत गई और एक प्रसिद्ध डॉक्टर से हाथ का ऑपरेशन कराया। डॉक्टर ने अवंतिका बाई की कम उम्र को देखकर (वह उस समय लगभग २० वर्ष की ही थी) ख्याल किया कि यह ऑपरेशन होते देखकर घबडा़ जायगी। इसलिए उन्होंने कहा कि आप इस समय बाहर जाकर बैठ जायें। पर अवंतिका बाई ने उत्तर दिया- "डॉक्टर, आप इसके लिए चिंता न कीजिये। मैंने नर्सिंग- कोर्स पूरा किया है। पिछले ४८ घंटों में मैंने ही उनकी मरहम पट्टी की है। आप ऑपरेशन का काम कीजिये, मैं इनकी नाडी़ देखती रहूँगी।"
ऑपरेशन के बाद जब सब कोई घर आये और पहली बार अवंतिका बाई ने अपने हाथ से बनबराव को बच्चे की तरह खाना खिलाया, तो उनको यह ख्याल आया कि अब मैं कितना पराश्रित हो गया। चीन में हाथ की अँगुललियाँ कट गई और अब दाहिना हाथ कलाई पर से अलग हो गया। इस पर अवंतिका बाई ने कहा- आपकी अँगुलियाँ चली गई तो क्या हुआ, मेरी तो दसों अँगुलियाँ मौजूद हैं। मेरे रहते आपको किसी तरह की तकलीफ नहीं हो सकेगी।"
हमारे देश के पुराने ख्यालात के लोग प्रायः कहा करते हैं कि अंग्रेजी पढ़- लिखकर स्त्रियाँ स्वच्छंद हो जाती हैं और पतियों की परवाह नहीं करती। पश्चिमीय औरतों की तो वे सदा बुराई किया ही करते हैं। उनके कथनानुसार अंग्रेजी ढ़ग की पढा़ई से स्त्रियों में से श्रद्धा, भक्ति, पति सेवा आदि का भाव मिट जाता हैं और वे भारतीय आदर्श से गिर जाती हैं। पर अवंतिका बाई ने अपने उदाहरण से यह सिद्ध कर दिया कि इस प्रकार का आक्षेप निराधार है। अंग्रेजी पढ़कर और विलायत जाकर भी स्त्री पूरी तरह पतिव्रता रह सकती है, और अपने सेवा भाव से घर के सब लोगों को संतुष्ट कर सकती है। शिक्षा और अनुभव के द्वारा किसी का पतन नहीं हो सकता। यदि कोई अनुचित मार्ग पर चलता है तो इसे व्यक्तिगत दोष ही समझना चाहिए।
आगे चलकर जब दियासलाई का कारखाना बंद करके बबनराव बंबई चले गये, तब अवंतिका बाई ने डेढ़ वर्ष तक नर्सिंग का कार्य करके उनकी आर्थिक चिंताओं को भी मिटाया। उस समय उनकी आमदनी ३०० रू॰ मासिक थी, जिसे आजकल के भावों से दस हजार तो माना ही जा सकता है। जीवन के अंतिम समय तक वे पति को अपने हाथ का भोजन बनाकर खिलाती रही। मृत्यु के कुछ समय पहले कैंसर के कारण रोग शैय्या पर पड़ जाने पर ही उनका यह कार्य बंद हुआ।
समाज- सेवा का व्रत-
सन् १९१३ में इंगलैंड यात्रा के अवसर पर प्रतिष्ठित घरों की महिलाओं के समाज सेवा के कार्यों को देखकर अवंतिका बाई ने अपना जीवन इसी उद्देश्य के लिए खर्च करने का निश्चय कर लिया था। वहाँ से स्वदेश आते ही "भारत सेवक समिति" (सर्वेंर्ट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी) के प्रसिद्ध कार्यकर्ता श्री देवधर की प्रेरणा से वे बंबई की प्रसिद्ध संस्था "सेवा सदन" में कार्य करने लगीं। उसी समय बडौ़दा की महारानी पद्मावती ने उनको अपने पास सहचरी की हैसियत से रहने को बुलाया था, पर सेवा व्रतधारी अवंतिका बाई ने इस "राजसी जीवन" को दूर से ही नमस्कार कर लिया।
सेवा- सदन में सबसे पहले वह स्त्री- शिक्षा का कार्य करने लगी। पढा़ने की विधी उन्होंने देवधर जी से ही सीखी और कुछ समय बाद स्वतंत्र रूप से स्त्रियों को अंग्रेजी पढा़ने लगी। पर उनका विशेष ध्यान मजदूरों की तरफ था। उन्होंने विलायत की मजदूर बस्तियों में इस प्रकार के सेवाकार्य को देखा था, इसलिए वे भी प्रति सप्ताह बंबई की लाल बाग स्थित मजदूर बस्ती में जाकर तीन घंटे मजदूरों को सफाई और स्वास्थ्यप्रद रहन- सहन की शिक्षा देती थी। वे स्त्रियों को शिशुपालन का सही तरीका समझाती। अछूतों की दुर्दशा उनको बडी़ दुःखदायी प्रतीत होती थी। इसलिए प्रायः उनके मुहल्ले में जाकर उनकी दशा का अवलोकन करती और जिस प्रकार होता उनकी सहायता को तत्पर रहती। मकर संक्रांति के त्यौहार पर, जिसे महाराष्ट्र में "हल्दी कूँक" कहते हैं, वे हरिजनों के मुहल्ले में जाकर उनकी स्त्रियों को "हल्दी- रोरी" देती और सबको तिल के लड्डू बाटँती।
अछूतों की समस्या अभी तक सुलझ नहीं रही है। महात्मा गाँधी के अपार त्याग और कष्ट सहन के परिणाम स्वरूप आजकल अछूतों को कुछ कानूनी अधिकार मिल गये हैं और छोटी- बडी़ सरकारी नौकरियों में भी वे कुछ स्थान पा जाते हैं, पर अभी तक सामाजिक भेदभाव के व्यवहार में, जो उनके साथ पुराने समय से होता आया है, अधिक अंतर नहीं पडा़ है। शिक्षितजनों का एक भाग चाहे छुआछूत की व्याधि से कुछ मुक्त हो गया है, ग्रामीण और अशिक्षित जनता जिसकी संख्या सौ में से अस्सी के लगभग है, अभी तक बहुत कम बदली हैं। अवंतिका बाई के लिए यह बडे़ गौरव की बात थी कि उसने आज से ९०- ९५ वर्ष पहले अछूतों के साथ भाईचारे का व्यवहार करके, लोगों का ध्यान इस महत्वपूर्ण समस्या की तरफ आकर्षित किया।
शिशु पालन गृह की स्थापना-
कारखानों में जाने वाली मजदूर स्त्रियाँ काम पर जाते हुए अपने छोटे बच्चों को अफीम खिलाकर घरों में बंद कर जाती थी जिससे वे बीच में उठकर रोयें नहीं। यह प्रथा बडी़ हानिकारक थी और इससे बच्चे आरंभ से ही सुस्त, निस्तेज और अकर्मण्य से हो जाते थे। अवंतिका बाई ने मजदूर स्त्रियों को समझाया कि इस प्रकार अपने हाथ से अपनी संतान का अनहित करना बडा़ अनुचित है। वे स्त्रियाँ भी इस बात को मान गई, पर प्रश्न था कि वे यदि अफीम न दें, तो पीछे से बच्चों की देखभाल कौन करे? अवंतिका बाई ने इसका भार अपने ऊपर लिया और कुछ उदार सज्जनों की सहायता से एक शिशुपालन- गृह स्थापित कर दिया। अनेक उच्च पदाधिकारी अंग्रेज महिलायें भी इस कार्य में सहयोग देती थी। ऐसे "शिशुपालन गृहों" को अंग्रेजी में "क्रेश" कहते हैं और विदेशों में सभी बडे़ कारखानों में, जहाँ स्त्रियाँ मजदूरी करती हैं, इस प्रकार की व्यवस्था रहती है। यद्यपि अवंतिका बाई की योजना कुछ वर्ष ही चल सकी, फिर गाँधी जी के आंदोलन में कूद पड़ने के कारण, उसे बंद कर देना पडा़। पर इसने अन्य कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन किया और अब देश के बडे़ कारखानों में ऐसे "शिशुपालन- गृह" कारखानेदारों की तरफ से ही खोल दिये दिये गये हैं। इनमें माताओं के काम पर चले जाने पर बच्चों की देखभाल, सफाई, खिलाना, पिलाना, उसके वस्त्रों को धोकर ठीक कर देना आदि सब कार्य वहाँ के कार्यकर्ताओं द्वारा ही किये जाते हैं। मजदूरों तथा अछूतों आदि के लिए छोटे नगरों में इस तरह के सहायता कार्य करने की अब भी बडी़ आवश्यकता है और सेवाभावी स्त्री- पुरूष इस पुण्य- कार्य में सहयोग देकर अपने जीवन को सार्थक कर सकते हैं।
हिंद महिला समाज-
गाँधी जी के कार्यक्रमों में भाग लेने का एक परिणाम यह हुआ कि समाज- सेवा के संबंध में भी उनका दृष्टिकोण बदल गया।
यद्यपि वे आरंभ से ही गरीबों की सेवा की अभिलाषा रखती थी, क्योंकि सेवा के वास्तविक पात्र वे ही होते हैं। पर जिन संस्थाओं से वे संबंधित थी, उनकी अन्य सदस्याओं का दृष्टिकोण कुछ भिन्न था। उनमें से अधिकांश धनिक वर्ग की ही थी और वे इस "सेवा कार्य" को कुछ अंशों में एक फैशन के ढंग पर करती थी। जिस प्रकार इंगलैंड के महिला क्लबों में धनी घरों की स्त्रियाँ तरह- तरह के मनोरंजनों, खेल- कूद और गप्पे लडा़ने में समय बिताया करती हैं, वही हालत प्रायः बंबई की सेवा संस्थाओं की थी। गरीबों की तो बात क्या, मध्यम श्रेणी की स्त्रियाँ भी उनकी सदस्या नहीं बन सकती थी।
यह देखकर चंपारन से वापस आते ही सन् १९१८ में अवंतिका बाई ने उद्योग करके "हिंद महिला समाज" के नाम से एक नई संस्था की स्थापना की, जिसका उद्देश्य मध्यम श्रेणी की महिलाओं को कार्य क्षेत्र में लाना था। चंपारन की किसान और बंबई के मजदूर- वर्ग की स्त्रियों में काम करने से उन्हें यह अनुभव हुआ कि यहाँ की सामान्य स्त्रियों का स्वभाव अपने परिवार और जाति के स्वार्थ तक सीमित रहता है। इससे आगे बढ़कर समाज और देश की समस्याओं को समझने या इसके लिए कुछ कर सकने की रुचि उनमें नहीं पायी जाती। इसलिए उन्होंने 'हिंद महिला समाज' का संगठन इस तरह तैयार किया कि सभी वर्ग की महिलायें उसमें भाग ले सकें। जिस दिन इस संस्था की स्थापना की गई उसी दिन बंबई की कई हजार मध्यम श्रेणी की महिलायें उसमें उपस्थित हुई और उन्होंने उसके कार्यों में सब तरह से सहायता देने की अभिलाषा प्रकट की। अवंतिका बाई ने श्री जयकर की माता सोनाबाई को 'समाज' की अध्यक्षा बनाने का विचार प्रकट किया, पर सोनाबाई ने कहा कि- "मेरे जैसी वृद्धा से यह काम ठीक ढंग से नहीं चलाया जा सकेगा। इसके लिए किसी कर्मठ और उत्साही युवती को ही चुनना चाहिए।" उसने स्वयं अवंतिका बाई को ही अध्यक्ष बनाने का सुझाव दिया और सभा ने सर्व सम्मति से उसे स्वीकार किया। तब से जीवन के अंतिम दिन तक वे ही उस पद पर काम करती रही। इस 'समाज' के कार्यक्रम का सारांश इन शब्दों में मिल सकता है-
"स्त्री- समाज में परस्पर स्नेह और सहयोग की भावना उत्पन्न करना, शिक्षा का प्रचार, स्त्री जाति के सम्मुख पारस्परिक सहायता तथा सद्भावना का आदर्श उपस्थित करना, महिलाओं में साहित्य के लिए प्रेम बढा़ना और इसके लिए पुस्तकालय तथा वाचनालय खोलना, विद्वान वक्ताओं के व्याख्यान कराना, प्रवचन, कीर्तन आदि द्वारा ज्ञान का प्रसार करना, वाद- विवाद (डिबेट) की प्रतियोगिता की व्यवस्था करना, विविध कलायें सिखाना, स्वदेशी अर्थशास्त्र समझाना इत्यादि।"
पर जब 'समाज' की तरफ से एक वाचनालय खोला गया, तो उसमें समाचार पत्र तथा पुस्तकें पढ़ने कोई स्त्री नहीं आती थी। उस समय यह एक निराली बात समझी जाती थी कि स्त्रियाँ वाचनालय में जाकर अखबार पढे़ ।। उनके पति भी इसके विरुद्ध थे। अगर कोई स्त्री संयोगवश वहाँ चली जाती तो उस पर डाँट- फटकार पड़ती थी। यह देखकर अवंतिका बाई ने एक नया तरीका यह निकाला कि वह मिशनरी महिलाओं की तरह 'चालों' (सामूहिक निवास स्थानों) में अखबार और पुस्तकें लेकर घूमती और स्त्रियों को पढ़ने को दे आती अथवा किसी कमरे में बैठकर, आसपास की दस- बीस स्त्रियों को इकट्ठा कर लेती और उनको अखबार और पुस्तकें पढ़कर सुनाती। इस प्रकार जो कार्य हम "झोला पुस्तकालयों" द्वारा आज कर रहे हैं, वैसी ही कार्य प्रणाली अवंतिका बाई ने सौ वर्ष पहले अपनाई थी और आरंभ में निराशा हाथ लगने पर भी छह महीने में उसे सफल बनाकर दिखा दिया था।
फिर एक "व्याख्यान माला" की योजना की गई, उसमें स्त्रियों द्वारा राष्ट्रीय कार्य किये जाने के संबंध में, प्रतिमास किसी बहुत बडे़ विद्वान् का भाषण कराया जाता था। इसमें लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, मालवीय जी जैसे महान् नेताओं के भी भाषण हुए। इनका प्रभाव महिलाओं पर बहुत अधिक पडा़ और उनमें से आगे बढ़कर असहयोग तथा सत्याग्रह आंदोलनों में भाग लेने लगी। सन् १९३० के कानून- भंग आंदोलन में तो उन्होंने इतना काम किया कि देश में चारों ओर उनकी प्रशंसा होने लगी। इस दृष्टी से अवंतिका बाई का कार्यक्रम भी महात्मा गाँधी के स्वतंत्रता- संग्राम का एक महत्वपूर्ण अंग बन गया।
जब कांग्रेस की तरफ से लोकमान्य तिलक के स्मारक के रूप में एक फंड जमा किया जाने लगा, तो 'समाज' की सदस्याओं ने ३९०० रू॰ जमा करके महात्मा जी को दिया। उस समय गाँधी जी ने कहा कि- "इस ३९०० रू॰ में से १६०० रू॰) तो मेरी बहन अवंतिका बाई ने ही दिए हैं। दानदाताओं की सूची में १०० रू० देने वाले के नाम भी बहुत कम दिखाई पड़ते हैं। मैने यह कभी नहीं सोचा था कि लोकमान्य के प्रति महाराष्ट्र में इतनी उदासीनता होगी।" महात्मा जी के इतना कहते ही महिलाओं की तरफ से नोट और गहनों की वर्षा होने लगी और कुछ ही मिनटों में ४००० रू॰ और इकट्ठा हो गया।
"हिंद महिला समाज" ने कांग्रेस के सूत कातने तथा खादी बुनने के कार्य में भी अच्छी प्रगति करके दिखाई।