Books - विश्व की महान नारियाँ-1
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Language: HINDI
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तत्त्वज्ञान की संदेशवाहिका- श्रीमति एनीबेसेंट
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तत्त्वज्ञान की संदेशवाहिका- श्रीमति एनीबेसेंट
मानव- समाज का निर्माण नर- नारी के संयोग से हुआ है। समाज के स्थायित्व और संचालन के लिए जितनी आवश्यकता नर की है उससे किसी प्रकार कम नारी की नहीं है। केवल संतानोत्पत्ति और उसका पालन करने की दृष्टि से ही स्त्री का दर्जा महत्त्वपूर्ण नहीं है, पर वास्तव में प्राचीन समय से उसने समाज के विकास और उसके संरक्षण में बहुत अधिक सहयोग दिया है। मानव- जाति के आदिकालीन इतिहास में एक समय तो ऐसा था, जब पुरुष केवल शिकार ही करता रहता था और घर की समस्त देखभाल, व्यवस्था, रक्षा, पालन- पोषण एकमात्र स्त्री के ऊपर ही निर्भर था।
पर इसके बाद जब निजी संपत्ति और जायदाद की प्रणाली बढ़ने लगी और उसके संरक्षण के लिए शक्ति के प्रयोग और संघर्ष की आवश्यकता बढ़ गई, तो घर और समाज की बागडोर विशेष रूप से पुरुषों के हाथ में आने लग गई। स्त्री स्वभाव से निर्माणकर्त्री थी, लड़ने- भिड़ने का संहारक कृत्य उसकी प्रकृति के अनुकूल न था। इससे पुरुष के अधिकार और उसका नियंत्रण दिन पर दिन बढ़ने लगा और कुछ काल पश्चात् ऐसी परिस्थिति आ गई जब स्त्री को एक प्रकार से पुरुष की संपत्ति बना लिया गया। हमारे देश के बडे़ पुरुष, खासकर राजा- महाराजा अनेकों रानियाँ, दासियाँ रखने लगे। इसका परिणाम समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ। स्त्री बौद्धिक और व्यवहारिक दृष्टि से हीन मानी जाने लगी और घर की चहारदीवारी में आबद्ध हो जाने से उसका सांसारिक ज्ञान घटने लगा। इस प्रकार पुरुषों ने आधी मानव जाति की शक्ति और उपयोगिता को बहुत कुछ नष्ट कर डाला। उच्च श्रेणी के समाज में तो स्त्री की स्थिति उपयोगिता के बजाय केवल शोभा की रह गई और वे एक भारस्वरूप बन गई, जिसकी हमेशा रक्षा करते रहना
आवश्यक हो गया।
यह स्थिति मानव- जाति की प्रगति की दृष्टि से अंत में हानिकारक ही सिद्ध हुई। इससे करोड़ों स्त्रियों की उपार्जन- क्षमता नष्ट हो जाने के साथ ही संतान के लालन- पालन में भी दुष्परिणाम दिखलाई पड़ने लगा। घर में आबद्ध हो जाने के कारण स्त्री में जो संकीर्णता की भावना उत्पन्न हो गई थी, वही उसकी संतान को भी प्रभावित करने लगी और मनुष्यों में सामूहिक हित और सामाजिक एकता के बजाय व्यक्तिगत लाभ और पार्थक्य की वृत्तियाँ पनपने लगीं। इससे समाज, देश, राष्ट्र, संसार अनगिनत टुकड़ों में बँट गया और उनमें सहयोग के बजाय संघर्ष की प्रवृत्ति ने उचित से अधिक स्थान पा लिया।
अब पिछले सौ- डेढ़ सौ वर्षों से जब विचारकों और समाज- हितैषियों ने इस अवस्था की हानियों को अनुभव किया, तो उन्होंने नारी- स्वाधीनता की आवाज उठाई, जिससे स्त्रियों में कुछ जागृति के लक्षण प्रकट होने लगे और अनेक महिलाएँ आगे बढ़कर समाज, देश, राष्ट्र संबंधी मामलों में भाग लेने लगीं। उनमें से अनेक विद्या, बुद्धि, कर्तृव्य शक्ति की दृष्टि से उच्च स्थान पर पहुँच गई और उन्होंने मानव- समाज को मार्गदर्शन कराने में प्रशंसनीय कार्य कर दिखाया। श्रीमती एनीबेसेंट की गणना ऐसी ही महिमामयी नारियों में की जाती है।
श्रीमती एनीबेसेंट की सबसे बडी़ विशेषता यह थी कि संकीर्णता की जो भावना बहुत काल से नारी- जाति की प्रधान त्रुटि हो गई थी, वे उससे सर्वथा पृथक् थीं और इस दृष्टि से उनका उदाहरण नारी- समाज के लिए बहुत बडा़ प्रेरक है। वे इंग्लैंड में पैदा हुईं, पर उन्होंने भारतवर्ष को अपना घर बना लिया और उनका उनका कार्य- क्षेत्र संसार के दूर- दूर के देशों तक फैला हुआ था। इसी प्रकार जन्म से वे ईसाई थीं, आरंभ में उनको उस धर्म की शिक्षा भी दी गई, पर आगे चलकर वे हिंदू- धर्म के नियमों का पालन करने लग गईं। अपने उद्योग से ही वे संसार के सब धर्मों की ज्ञाता बन गईं और उन्होंने एक ऐसे सार्वभौम धार्मिक- समाज का संचलान किया जिसने सभी मजहबों और देशों के व्यक्तियों में एकता और प्रेम की भावना उत्पन्न करने में बडा़ काम किया।
श्रीमती बेसेंट का जन्म १८४७ में इंग्लैंड के एक मध्य श्रेणी के गृहस्थ के घर में हुआ था, उनके पिता गणितशास्त्र के विद्वान् थे और डॉक्टरी में भी उनको बडी़ रुचि थी। उनकी माता भी एक प्रसिद्ध वंश में से थी, जिससे उनको अपने परिवार के सम्मान का सदा ध्यान रहता था। वे आगे चलकर अनेक प्रकार की विपत्तियों में भी इसीलिये यथासंभव स्वावलंबिनी बनीं रहीं और श्रीमती बेसेंट ने भी उनसे स्वावलंबन का जो पाठ सीखा- उसके सहारे बिना किसी बडे़ साधन के वे अपने ही उद्योग से इतना आगे बढ़ सकीं कि संसार भर में एक सम्माननीय धार्मिक और राजनीतिक नेता के रूप में उन्होंने ख्याति प्राप्त कर ली।
जब श्रीमती बेसेंट पाँच वर्ष की हुईं तो इनके पिता का देहांत हो गया। इससे उनकी माता के ऊपर बडा़ भार आ पडा़। घर में कोई बडी़ संपत्ति अथवा जायदाद न थी और ये अपने बच्चों को ऊँची शिक्षा दिलाकर सभ्य समाज के योग्य बनाना चाहती थीं। इसलिए वे 'हैरो' नामक स्थान में जाकर रहने लगीं, जो छोटा होने से कम खर्च का था, पर जहाँ एक ऐसा स्कूल था, जिसका नाम शिक्षा- जगत् में दूर- दूर तक प्रसिद्ध था। यहाँ उनकों एक ऐसा व्यक्ति मिल गया, जिसने इन्हें अपने लड़के की देखभाल और शिक्षा की व्यवस्था करने को नियुक्त कर दिया। इस प्रकार उसके लड़के के साथ इनके बच्चों की शिक्षा होने लगी। इसके पश्चात् हैरो स्कूल के हैडमास्टर डॉ॰ बोथम और उनकी पत्नी से इनका परिचय हो गया और उनकी सहायता से उनको एक ऐसे मकान में रहने को स्थान मिल गया, जिसमें कुछ लड़के रहते थे। बेसेंट की माता उस 'होस्टल' की व्यवस्थापिका बन दी गई। उसी मकान में एक अध्यापक भी रहने लगे। इस तरह उनको जीवन निर्वाह का एक कार्य मिल गया और बच्चों की शिक्षा भी अधिक नियमित रूप से होने लगी।
माता- पिता का संतान के प्रति सबसे बडा़ कर्तव्य यही है कि वह उसको शिक्षित और कर्मठ बना दें। यदि बच्चों में ये दो गुण आ गये तो आगे चलकर वे अपना रास्ता आप बना लेगें। पर अभी तक हमारे देश की मातायें इस तरफ बहुत कम ध्यान देती हैं। वे स्वयं अशिक्षित होती हैं और इसलिए अपनी संतान की शिक्षा को भी बहुत कम महत्त्व देती हैं। वे बचपन में संतान का लाड़- दुलार करना और जहाँ तक बन पडे़ उनके खाने- पहनने की अच्छी व्यवस्था करना ही अपना कर्तव्य समझती हैं। पर इस प्रकार के व्यवहार से बच्चों का अहित ही होता है। उनको आराम से, फैशन से रहने की आदत पड़ जाती है और परिश्रम तथा काम से वे जी चुराने लगते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनको आगामी जीवन में तरह- तरह की कठिनाइयाँ सहन करनी पड़ती हैं और वे समाज का हित करने के बजाय उसमें प्रायः विकृतियाँ उत्पन्न करने के ही निमित्त बन जाते हैं।
शिक्षा और देश भ्रमण-
इस समय संयोग से कुमारी मेरियट नाम की एक धनी वृद्ध महिला हैरो में आई और एनीबेसेंट की माता का उनसे परिचय हो गया। कुमारी मेरियट ने आजन्म विवाह नहीं किया था और अपना समस्त जीवन अपने परिचितों, कुटुंबियों, दीन- दुःखियों की सहायता में ही लगाया था। उन्होंने जब ऐनीबेसेंट को देखा तो वे उनकी तरफ आकर्षित हो गई और उनकी माता से कहा कि- "इस लड़की को मेरे साथ रख दो, जिससे इसकी शिक्षा- दीक्षा की उचित व्यवस्था हो सके।" पहले तो माता को अपनी पुत्री का वियोग कठिन जान पडा़, पर जब उन्होंने उसके भविष्य पर विचार किया तो वे राजी हो गईं।
आरंभिक जीवन में एनी को धार्मिक शिक्षा दी गई और 'पिलीग्रिम्ज प्रोग्रेस' और 'पैरेडाइज लास्ट' जैसी पुस्तकें पढ़ने से उनमें धर्म- कार्यों के लिए बडा़ उत्साह उत्पन्न हो गया। परिवार की धार्मिक सभा में सबको अलग- अलग खडे़ होकर प्रभु ईसा की प्रार्थना करनी पड़ती थी। पाँच वर्ष की एनी को जब कहा जाता, तो पहले तो उनको भय लगता, पर जब मुँह खुल जाता तो ऐसे मधुर ढंग से बोलतीं कि सभी सराहना करने लग जाते। इस प्रकार उसी समय से उनमें भाषण कला का गुण विकसित होने लगा, जिसके बल से आगे चलकर उन्होंने जीवन में बहुत बडी़ सफलता पाई और संसार भर में लाखों अनुयायी बना लिये।
कुमारी मेरियट स्वयं बडी़ समझदार और परोपकारी महिला थीं, अगर कोई भूखा गरीब मनुष्य उनके पास आता तो वे उसे पैसा न देकर स्वयं भोजन करातीं। यदि वह स्वस्थ और कार्य करने लायक होता तो उसके लिये स्वयं दौड़- धूप करके कोई रोजगार तलाश कर देती थी। उनके इन गुणों का प्रभाव एनी तथा अन्य लड़कियों पर भी पडा़। जब वे लोग किसी दीन- दुःखी को देखकर उसकी सहायता की प्रार्थन करतीं, तो कुमारी मेरियट उनको समझाती कि "तुम लोग एक सप्ताह तक चीनी न खाकर या कोई दूसरी आराम की चीज छोड़कर पैसा बचाओ और उससे इसकी सहायता करो।" इस प्रकार वे उनको स्वयं त्याग करके दूसरों का उपकार करने की शिक्षा देती थीं।
एनी जब पंद्रह वर्ष की हुई तो कुमारी मेरियट इनको अन्य परिवार वालों के साथ विदेश यात्रा के लिए ले गई। इससे इनका व्यावहारिक ज्ञान बहुत बढ़ गया और जर्मन तथा फ्रांसीसी भाषा का अभ्यास भी हो गया। पर अब कुमारी मेरियट ने धीरे- धीरे इनको पढा़ना बंद कर दिया। जब इन्होंने कहा कि- "मैं सदैव तुम्हारे साथ नहीं रहूँगी, इसलिए अब तुमको स्वयं अपने पैरों पर खडे़ होने का अभ्यास भी करना चाहिए। जो लोग अंत तक शिक्षकों और अभिभावकों के सहारे ही रहते हैं, उनको शिक्षा समाप्त करने पर एकाएक मालूम पड़ता है कि अब क्या करें? इसलिए तुमको अभी से स्वावलंबन का अभ्यास करना चाहिए। तुमको आरंभिक शिक्षा अच्छी तरह मिल चुकी है। अब उद्योग करोगी तो स्वयं इसको बढा़कर जो कार्य करना चाहो उसके योग्य बन सकती हो।" इस प्रकार कुमारी मेरियट ने इनके जीवन की सफलता का मार्ग खोल दिया, जिससे आगे चलकर वे हर तरह के संघर्ष में साहस रखकर आगे बढ़ सकीं और अपने लिए ही नहीं, समाज के लिए भी बहुत कुछ करने में समर्थ हो सकीं।
समाज- सेवा का श्रीगणेश-
इंग्लैंड वापस आकर एनी और उसकी माता मैंचेस्टर में रहने लगीं। उद्योग धंधों का नगर था और यहाँ मजदूरों की बहुत बडी़ बस्ती थी। इन लोगों की इस समय बहुत खराब हालत थी और उनको उद्योगपतियों के बडे़- बडे़ अन्याय सहने पड़ते थे। एनी को यह सब बहुत बुरा लगता था और वह इनकी सहायता, सेवा करने का मार्ग ढूँढने लगी। उस समय वहाँ 'राबर्ट' नाम का वकील इन अन्याय पीडि़तों की सेवा में संलग्न था। उन दिनों कोयले की खानों में काम करने वाली स्त्रियों की बडी़ बुरी हालत थी। दिन भर कठोर परिश्रम करने पर भी उन बेचारियों को न पूरा खाना मिलता था, न तन ढकने को साबुत कपडा़। वे ठंड सहती हुईं, अपने दूध- पीते बच्चों को गोद में संभाले, किसी प्रकार काम करतीं रहतीं। पाँच- सात वर्ष के बच्चों को दरवाजे पर रखवाली के लिए बैठा दिया जाता और जब वे सो जाते, तो ठोकर मारकर उनको उठाया जाता।
'दरिद्रों के वकील राबर्ट' और उसके कुछ अन्य सहकारियों ने इन अन्यायों के विरुद्ध आंदोलन उठाया। एनी भी उसमें शामिल हो गईं। राबर्ट कहा करता था- "मजदूर- गरीब ही काम करने वाली शहद मक्खियाँ हैं, वे ही समस्त धन को पैदा करने वाले हैं। इनके साथ न्यायोचित व्यवहार होना चाहिए, स्वतंत्र जीवन व्यतीत करने का अवसर दिया जाना चाहिए।" एनी पर ऐसे उपदेशों का बडा़ प्रभाव पड़ता था और वह बडे़ उत्साह से मजदूर- आंदोलन का कार्य करती थी। यहीं से उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों में भाग लेने की प्रेरणा प्राप्त की।
एनी को राजनीति की तरफ आकर्षित करने वाला एक और कारण उसी समय पैदा हो गया। उस समय आयरलैंड में जोरों से स्वतंत्रता- आंदोलन चल रहा था और अंग्रेज सरकार बडी़ क्रूरता के साथ उसका दमन कर रही थी। एनी का माता आयरिश ही थी और इसलिये इनकी सहानुभूति आयरलैंड के साथ थी।
आयरलैंड के दो नेता कर्नल केली और कप्तान डीजे मैंचेस्टर में गिरफ्तार कर लिये गये और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। इससे इंग्लैंड में रहने वाले आयरिश लोगों में बडा़ जोश फैल गया और एक दिन उन्होंने इकट्ठे होकर जेलखाने की गाडी़ पर, जिसमें दोनों नेताओं को अदालत से लाया जा रहा था, हमला कर दिया, यद्यपि उस समय एक कांस्टेबिल को मारकर दोनों कैदी छुडा़ लिये गये, पर बाद में पुलिस ने आकर भीड़ पर हमला किया और चार व्यक्तियों को हत्या के अपराध में गिरफ्तार कर लिया। एनी भी इनका मुकदमा देखने जाती थी और जब उनको प्राण दंड दिया गया, तब वह बडी़ दुःखी हुईं। उसने बाद में इस संबंध में लिखा कि "यदि इन वीरों ने किसी अन्य देश की स्वाधीनता के लिए इसी प्रकार युद्ध किया होता, तो इंग्लैंड वाले उनका स्वागत और सम्मान करते। परंतु इन आयरलैंड की स्वाधीनता के लिये प्राण देने वालों को मामूली अपराधियों की तरह उनको कब्रिस्तान में गाड़ दिया गया। यह मनोवृत्ति स्वार्थपरता और संकीर्णता की ही परिचायक है।"
विवाह और तलाक-
सन् १८६६ में इनकी माता ने इनके जीवन का मार्ग बदलने के उद्देश्य से इनका विवाह रेवरेंड फ्रेंक बेसेंट नामक पादरी से कर दिया। ये उस समय यद्यपि धार्मिक स्वतंत्रता की अनुयायी बनती जा रही थी और 'ईसाई धर्म ही सच्चा है' इस विचार से हटती जा रही थीं, पर एक पादरी के साहचर्य में रहने से गरीबों की सेवा करने का अधिक अवसर मिलेगा, यह सोचकर इन्होंने इस संबंध को स्वीकार कर लिया। पर यहाँ तो मामला उलटा निकला। पादरी बेसेंट परंपरावादी पंडित- पुजारियों की तरह केवल अपने धार्मिक- कृत्यों से संबंध रखने वाला व्यक्ति था, जबकि ये सत्य की दृढ़ जिज्ञासु थीं।
इनका पति एकमात्र बाइबिल पर विश्वास रखने वाला था, पर ये संसार के सभी तरह के दार्शनिक और धार्मिक मतों के समीक्षा करके सत्य का निर्णय करना चाहती थीं। इनका कायक्षेत्र भी समाज सुधार तथा राजनीतिक आंदोलन में भाग लेने के कारण दूर- दूर तक फैला हुआ था। इससे विवाह के कुछ महीने बाद ही दोनों में मतभेद प्रकट होने लागा। पर धीरे- धीरे ये इस गाडी़ को खींचती रहीं और इस बीच में इनके दो संतान- एक लड़का और एक लड़की भी गईं। इनको लेखों और व्याख्यानों आदि से जो आय होती थीं, उसको भी ये पति को ही देती थी, इससे भी कुछ शांति बनी रहती थी।
पर इनके धार्मिक- स्वतंत्रता के विचार दिन पर दिन बढ़ते जाते थे और सभाओं में प्रायः बाइबिल और ईसाई धर्म के विरुद्ध बातें कह देती थीं। इस पर अन्य पादरी इनके पति पर आक्षेप करते थे और बदले में वह इनको जली- कटी सुनाता था। इसी बीच में इनके दोनों बच्चे बीमार हो गये और उनके बचने की आशा न रही। इससे इनके मन को बडा़ धक्का लगा। वह कहने लगीं कि भगवान् को इतना दयालु कहा जाता है तो कहाँ गई उसकी दया कि वह इन अबोध बच्चों को इतना कष्ट पाते देख रहा है और कोई ध्यान नहीं देता। फिर उनको ध्यान आया कि "स्वयं वे और उनकी माता आरंभ से पूर्ण धार्मिक जीवन बिताती रहीं, ईसा मसीह में दृढ़ श्रद्धा रखती रहीं, पर उनके ऊपर एक के बाद एक विपत्ति आती रही। असमय में पिता का देहांत हो जाने से दरिद्रता की चक्की में पिसना पडा़। दरिद्र माता को अकारण ही वकील ने ठग लिया, जिससे उनकी इज्जत मुश्किल से बच सकी। अब इनके प्राण प्यारे बच्चे भी मृत्यु के मुख में पडे़ हैं।"
इस प्रकार के विचारों से इनके धार्मिक विश्वासों को और भी धक्का लगा और ये नास्तिकता की ओर झुकने लगीं। इन्होंने मजदूर आंदोलन में भी परिश्रम की कमाई खाने वाले ईमानदार मजदूरों को भूखों मरते और हर तरह के अत्याचार सहते देखा था। एक बार अपने पति के साथ देहात में रहने गईं। वहाँ देखा कि खेतों में काम करने वाले मजदूरों की और भी बुरी दशा है। एक छोटी कोठरी में परदादा से लेकर नाती, पंती तक आठ मनुष्य रहते थे। जगह इतनी कम थी कि एक पुरुष, उसकी स्त्री और दो बच्चे एक ही चारपाई पर सोते थे। एक दिन जब एक बच्चा रात के समय मर गया, तो इतना भी स्थान न था कि उस मृतक को कहीं रख भी दिया जाय। उसकी माँ को रात भर मरे बच्चे के पास ही सोना पडा़।
एक तरफ तो गरीब लोगों की यह बुरी दशा थी और दूसरी ओर धनी लोग सब तरह की बेईमानी से रुपया कमाते हुए भोग- विलास और दुराचारों में खर्च कर रहे थे। श्रीमती बेसेंट के चित्त में बार- बार यही प्रश्न उठता कि अगर ईश्वर होता तो संसार में इस प्रकार का अंधेरखाता कैसे चल पाता? और भाई ईश्वर है भी तो ऐसे अन्यायी ईश्वर को मानने से क्या फायदा जो ईमानदारों को ऐसे कष्ट देता है और जिसके राज्य में बेईमान और शोषण करने वाले मौज करते हैं। ऐसे विचारों के बढ़ने से ये दिन पर दिन धर्म से विमुख होती जाती थीं और इस कारण पति से सदा खट- पट होती रहती थी। जब इनकी मानसिक पीडा़ बहुत बढ़ गई तो एक दिन बहुत दुःखी होकर इन्होंने आत्महत्या का निश्चय कर लिया। पर जैसे ही जहर को मुँह से लगाया कि अंतरात्मा ने कहा-
"ऐ कायर, अभी कल तक तो तू गरीबों के हितार्थ, अन्याय के प्रतिकारार्थ शहीद बनने का सपना देख रही थी और आज थोडे़ से मानसिक कष्ट से व्याकुल होकर व्यर्थ में प्राण देने को प्रस्तुत हो गई। जब तू घरेलू झगडे़ को बरदाश्त नहीं कर सकती, तब अन्यायियों का विरोध करते हुए जिस अपमान, यातना, अमानुषी यंत्रणा का सामना करना पडे़गा, उसे तू कैसे सहन करेगी? इसलिये हिम्मत रख और अपने कर्तव्य- मार्ग पर अग्रसर होती जा। इसका जो परिणाम सहन करना पडे़, उसे अनासक्त भाव से सहन कर। ऐसा करने पर ही तू संसार की सेवा का कुछ श्रेय प्राप्त कर सकेगी।
अब श्रीमती बेसेंट ने निश्चय कर लिया कि वे अपने विश्वास, सिद्धांतों के अनुसार ही कार्य करेंगी, फिर इसका परिणाम कैसा भी क्यों न निकले? उन्होंने विचार किया कि जब एकाएक पिता की मृत्यु हो जाने और माता की संपत्ति के डूब जान पर भी निर्वाह होने पर और आगे बढ़ने का मार्ग निकल आया, तो गृहस्थी अथवा जीवन- निर्वाह के कारण अंतरात्मा के विरुद्ध अंध विश्वास के सामने सर झुका देना कदापि उचित नहीं। जिस तरह अन्य दुनियादार मनुष्य सांसारिक- वैभव, संपत्ति के लिए सब प्रकार भय और आशंकाओं को त्यागकर परिस्थितियों से संघर्ष करने, लड़ने- मरने को तैयार हो जाते हैं, उसी प्रकार सत्य के खोजी को भी उसके लिए हर अवस्था संघर्ष करने और सब प्रकार के कष्टों, विघ्न- बाधाओं को सहन करने को तैयार रहना चाहिये। संसार के अधिकांश व्यक्ति तो रुपया- पैसा, आराम, शान- शौकत आदि को महत्त्व देते हैं, पर सत्य के अन्वेषक को इन बातों की चिंता छोड़कर उसी मार्ग को अपनाना चाहिए जिसका आदेश अंतरात्मा दे।
अब श्रीमति बेसेंट ने अपने विचारों को खुले तौर पर प्रचार करना आरंभ कर दिया। वे ईसामसीह को एक महापुरुष मानती थी, वह 'ईश्वर का पुत्र था' अथवा 'मानवों का मुक्तिदाता' था, इस पर इनका विश्वास न था। इसके बजाय ये गरीबों, कष्ट- पीडि़तों की सेवा को, उन पर होने वाले अन्यायों का विरोध करने को ही सच्चा धर्म बतलाती थीं और जहाँ तक बन पड़ता था दीन- हीन मजदूरों तथा अन्य गरीब मनुष्यों की सहायता के लिए प्रचार करती थीं।
सन् १८७३ में इन विचारों के कारण अपने पति से मतभेद चरम सीमा पर पहुँच गया। उसको संगी साथियों ने समझाया कि ऐसी स्त्री को रखने से क्या फायदा, जो गिर्जाघर नहीं जाती और ईसा को 'पवित्र ईश्वरीय पुत्र' अस्वीकार करती है। इस प्रकार के विचारों के प्रकट होने से अपने साथियों में पादरी बेसेंट की बदनामी होती थी। अंत में उसने श्रीमती एनी बेसेंट से कह दिया कि "या तो तुम अपने विचारों को बदलकर गिर्जाघर जाना और ईसाई धर्म के विश्वासों को स्वीकार करना आरंभ करो, अन्यथा इस घर को छोड़ दो।"
उस समय इनकी आयु २६ वर्ष की थी और मन में अपने सिद्धांतों के लिये कोई विशेष कार्य कर दिखाने का उत्साह भरा हुआ था। इसलिये इन्होंने पति को छोड़ने का ही निश्चय किया। इस समाचार से इनकी माता को बडा़ दुःख हुआ और उसने समझा- बुझाकर पति के रहने का आग्रह किया। पर इन्होंने सिद्धांतों के विरुद्ध आचरण करना स्वीकार न किया।
जीवन- निर्वाह की समस्या-
मानसिक आवेश और युवावस्था के उत्साह के फलस्वरूप इन्होंने पति से तलाक तो मंजूर कर ली, पर जब जीवन- निर्वाह की समस्या सामने आई तो दिमाग चक्कर खाने लगा। अदालत ने छोटी लड़की को इनके साथ रहने का आदेश दे दिया था। अब अपनी बुड्ढी माता का और छोटी बच्ची का खर्च किस प्रकार चलायें? यह एक बडी़ कठिन समस्या थी।
अब ये कोई नौकरी तलाश करने लगीं। इसमें इनको कितनी दौड़- धूप करनी पडी़? तकलीफ उठानी पडी़ और मान- अपमान सहने पडे़, उन सबका वर्णन यहाँ कर सकना संभव नहीं। कई महीने तो सप्ताह में केवल तीन- चार रुपया का काम करके ही गुजारा करना पडा़। फिर एक बडे़ पादरी के घर में भोजन बनाने का काम मिल गया, पर वेतन में दोनों ही समय का भोजन और रहने का स्थान दिया गया। कुछ समय बाद पादरी का लड़का बीमार हो गया तो इनको खान बनाने से हटाकर उसकी देखभाल करने को नियुक्त कर दिया गया। एक बच्चा ठीक हुआ तो दूसरे को ज्वर आ गया। उसकी देखभाल भी ये करने लगी। इन्होंने परिश्रम करके दोनों की प्राण रक्षा की।
एक साल बाद इनकी माता बीमार पडी़, पर गरीबी के कारण इलाज की ठीक व्यवस्था नहीं हो सकी। मई १८७४ में उसका देहांत हो गया और श्रीमती बेसेंट का एकमात्र सहारा जाता रहा। अब इनका आधार छोटी बच्ची मैबेल ही थी। इस समय दरिद्रता का संकट भी बहुत बढ़ गया था। मकान का किराया काफी चढ़ गया था, इसलिये ये केवल एक बार भोजन करके उसे चुकाने का प्रयत्न करती थीं।
सामयिक पत्रों में लेखन- कार्य-
श्रीमति बेसेंट सामयिक पत्रों में अपने वैवाहिक- जीवन से ही लिखने लग गई थीं। सबसे पहले इनकी एक छोटी- सी कहानी "फैमिली- हेराल्ड" नामक पत्र में छपी, कुछ समय बाद उसका पत्र आया, जिसमें से लेख के पारिश्रमिक का ३० शिलिंग (२१ रु॰) का चैक निकला। एक लेखक की हैसियत से यह इनकी पहली कमाई थी। इसके बाद इन्होंने और भी कई छोटी- छोटी सुंदर कहानियाँ लिखकर उस अखबार में भेजीं और वे सब छप गईं। एक उपन्यास भी लिखकर भेजा, पर वह यह कहकर लौटा दिया गया कि इसमें राजनीति की चर्चा बहुत अधिक है।
अब जीविका की समस्या उपस्थित होने पर उन्होंने फिर लिखने की तरफ ध्यान दिया और मि॰ स्काट नामक सज्जन के आश्रय से कई लेख लिखे, जिनमें से प्रत्येक के लिये २१ रु॰ के हिसाब से पारिश्रमिक मिल गया। श्रमती स्काट भी इनका बहुत ख्याल रखती थीं और जब बहुत कठिन अवस्था आती थी, तब वे उनको भोजन भी करा देतीं थी। कई साधारण अवस्थाओं की पूर्ति के लिए इन्होंने अपने आभूषण और बढि़या कपडे़ पहले ही बेच दिये थे। अब पेट भरने का एकमात्र साधन लेखन- कार्य ही था। पर इस क्षेत्र में नवीन होने के कारण सदैव उसमें सफलता नहीं मिलती थी। तब भी यह साहस करके अपने मार्ग पर दृढ़ रही और इस स्थिति को अपनी एक परीक्षा समझकर परिश्रम करके और कठिनाइयाँ सहन करके अपने सिद्धांतो के अनुसार अग्रसर होती रहीं। श्रीमती बेसेंट की जीवन घटनायें इस दृष्टि से बडी़ शिक्षाप्रद और रोचक हैं कि स्वावलंबी व्यक्ति किस प्रकर आपत्तियों का मुकाबला करके बडी़ से बडी़ सफलता प्राप्त कर सकता है? क्या यह बात कम प्रेरणाप्रद है कि जिन श्रीमति बेसेंट को लेखन- कार्य से सूखी रोटी खाने लायक भी आमदनी नहीं होती थी, फिर भी उन्होंने इसी के द्वारा लाखों रुपये कमाये और सैकडों़ अन्य व्यक्तियों की रचनाओं को भी प्रकाशित करके उनको साहित्य- क्षेत्र में ठहर सकने में हर तरह से सहायता दी।
श्री ब्रैडला से भेंट और मजदूर आंदोलन-
सन् १८७४ में इनकी इंग्लैंड के प्रसिद्ध अनीश्वरवादी प्रचारक चार्ल्स ब्रैडला से हो गई। ब्रैडला अपने स्वतंत्र विचारों और ईसाई धर्म का जोरों से खंडन करते रहने के कारण बहुत बदनाम हो चुके थे। वे किसी प्राचीन रूढि़ और परंपरा को नहीं मानते थे और प्रत्येक सिद्धांत को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर कसकर स्वीकार करते थे। इसलिये कट्टर ईसाई उनका बहुत अधिक विरोध करते थे और उन पर तरह- तरह के झूठे- सच्चे आरोप लगाकर हमेशा उन्हें जनता की निगाह में गिराने की चेष्टा करते थे। जब श्रीमति बेसेंट ने इनको अपने घर पर बुलाया, तो उन्होंने साफ कह दिया कि खूब सोच- समझकर ऐसा काम करना। मैं तो काँटों पर चलने वाला आदमी हूँ। स्वयं मेरे भाई- बंधु मुझसे घृणा करते हैं और जनता में भी मैं तरह- तरह से बदनाम किया जाता हूँ। मेरे साथ रहने से तुम्हारे विषय में भी लोग हर तरह की अफवाहें उडा़ने लगेंगे और उपेक्षा करेंगे।
मानव- समाज का निर्माण नर- नारी के संयोग से हुआ है। समाज के स्थायित्व और संचालन के लिए जितनी आवश्यकता नर की है उससे किसी प्रकार कम नारी की नहीं है। केवल संतानोत्पत्ति और उसका पालन करने की दृष्टि से ही स्त्री का दर्जा महत्त्वपूर्ण नहीं है, पर वास्तव में प्राचीन समय से उसने समाज के विकास और उसके संरक्षण में बहुत अधिक सहयोग दिया है। मानव- जाति के आदिकालीन इतिहास में एक समय तो ऐसा था, जब पुरुष केवल शिकार ही करता रहता था और घर की समस्त देखभाल, व्यवस्था, रक्षा, पालन- पोषण एकमात्र स्त्री के ऊपर ही निर्भर था।
पर इसके बाद जब निजी संपत्ति और जायदाद की प्रणाली बढ़ने लगी और उसके संरक्षण के लिए शक्ति के प्रयोग और संघर्ष की आवश्यकता बढ़ गई, तो घर और समाज की बागडोर विशेष रूप से पुरुषों के हाथ में आने लग गई। स्त्री स्वभाव से निर्माणकर्त्री थी, लड़ने- भिड़ने का संहारक कृत्य उसकी प्रकृति के अनुकूल न था। इससे पुरुष के अधिकार और उसका नियंत्रण दिन पर दिन बढ़ने लगा और कुछ काल पश्चात् ऐसी परिस्थिति आ गई जब स्त्री को एक प्रकार से पुरुष की संपत्ति बना लिया गया। हमारे देश के बडे़ पुरुष, खासकर राजा- महाराजा अनेकों रानियाँ, दासियाँ रखने लगे। इसका परिणाम समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ। स्त्री बौद्धिक और व्यवहारिक दृष्टि से हीन मानी जाने लगी और घर की चहारदीवारी में आबद्ध हो जाने से उसका सांसारिक ज्ञान घटने लगा। इस प्रकार पुरुषों ने आधी मानव जाति की शक्ति और उपयोगिता को बहुत कुछ नष्ट कर डाला। उच्च श्रेणी के समाज में तो स्त्री की स्थिति उपयोगिता के बजाय केवल शोभा की रह गई और वे एक भारस्वरूप बन गई, जिसकी हमेशा रक्षा करते रहना
आवश्यक हो गया।
यह स्थिति मानव- जाति की प्रगति की दृष्टि से अंत में हानिकारक ही सिद्ध हुई। इससे करोड़ों स्त्रियों की उपार्जन- क्षमता नष्ट हो जाने के साथ ही संतान के लालन- पालन में भी दुष्परिणाम दिखलाई पड़ने लगा। घर में आबद्ध हो जाने के कारण स्त्री में जो संकीर्णता की भावना उत्पन्न हो गई थी, वही उसकी संतान को भी प्रभावित करने लगी और मनुष्यों में सामूहिक हित और सामाजिक एकता के बजाय व्यक्तिगत लाभ और पार्थक्य की वृत्तियाँ पनपने लगीं। इससे समाज, देश, राष्ट्र, संसार अनगिनत टुकड़ों में बँट गया और उनमें सहयोग के बजाय संघर्ष की प्रवृत्ति ने उचित से अधिक स्थान पा लिया।
अब पिछले सौ- डेढ़ सौ वर्षों से जब विचारकों और समाज- हितैषियों ने इस अवस्था की हानियों को अनुभव किया, तो उन्होंने नारी- स्वाधीनता की आवाज उठाई, जिससे स्त्रियों में कुछ जागृति के लक्षण प्रकट होने लगे और अनेक महिलाएँ आगे बढ़कर समाज, देश, राष्ट्र संबंधी मामलों में भाग लेने लगीं। उनमें से अनेक विद्या, बुद्धि, कर्तृव्य शक्ति की दृष्टि से उच्च स्थान पर पहुँच गई और उन्होंने मानव- समाज को मार्गदर्शन कराने में प्रशंसनीय कार्य कर दिखाया। श्रीमती एनीबेसेंट की गणना ऐसी ही महिमामयी नारियों में की जाती है।
श्रीमती एनीबेसेंट की सबसे बडी़ विशेषता यह थी कि संकीर्णता की जो भावना बहुत काल से नारी- जाति की प्रधान त्रुटि हो गई थी, वे उससे सर्वथा पृथक् थीं और इस दृष्टि से उनका उदाहरण नारी- समाज के लिए बहुत बडा़ प्रेरक है। वे इंग्लैंड में पैदा हुईं, पर उन्होंने भारतवर्ष को अपना घर बना लिया और उनका उनका कार्य- क्षेत्र संसार के दूर- दूर के देशों तक फैला हुआ था। इसी प्रकार जन्म से वे ईसाई थीं, आरंभ में उनको उस धर्म की शिक्षा भी दी गई, पर आगे चलकर वे हिंदू- धर्म के नियमों का पालन करने लग गईं। अपने उद्योग से ही वे संसार के सब धर्मों की ज्ञाता बन गईं और उन्होंने एक ऐसे सार्वभौम धार्मिक- समाज का संचलान किया जिसने सभी मजहबों और देशों के व्यक्तियों में एकता और प्रेम की भावना उत्पन्न करने में बडा़ काम किया।
श्रीमती बेसेंट का जन्म १८४७ में इंग्लैंड के एक मध्य श्रेणी के गृहस्थ के घर में हुआ था, उनके पिता गणितशास्त्र के विद्वान् थे और डॉक्टरी में भी उनको बडी़ रुचि थी। उनकी माता भी एक प्रसिद्ध वंश में से थी, जिससे उनको अपने परिवार के सम्मान का सदा ध्यान रहता था। वे आगे चलकर अनेक प्रकार की विपत्तियों में भी इसीलिये यथासंभव स्वावलंबिनी बनीं रहीं और श्रीमती बेसेंट ने भी उनसे स्वावलंबन का जो पाठ सीखा- उसके सहारे बिना किसी बडे़ साधन के वे अपने ही उद्योग से इतना आगे बढ़ सकीं कि संसार भर में एक सम्माननीय धार्मिक और राजनीतिक नेता के रूप में उन्होंने ख्याति प्राप्त कर ली।
जब श्रीमती बेसेंट पाँच वर्ष की हुईं तो इनके पिता का देहांत हो गया। इससे उनकी माता के ऊपर बडा़ भार आ पडा़। घर में कोई बडी़ संपत्ति अथवा जायदाद न थी और ये अपने बच्चों को ऊँची शिक्षा दिलाकर सभ्य समाज के योग्य बनाना चाहती थीं। इसलिए वे 'हैरो' नामक स्थान में जाकर रहने लगीं, जो छोटा होने से कम खर्च का था, पर जहाँ एक ऐसा स्कूल था, जिसका नाम शिक्षा- जगत् में दूर- दूर तक प्रसिद्ध था। यहाँ उनकों एक ऐसा व्यक्ति मिल गया, जिसने इन्हें अपने लड़के की देखभाल और शिक्षा की व्यवस्था करने को नियुक्त कर दिया। इस प्रकार उसके लड़के के साथ इनके बच्चों की शिक्षा होने लगी। इसके पश्चात् हैरो स्कूल के हैडमास्टर डॉ॰ बोथम और उनकी पत्नी से इनका परिचय हो गया और उनकी सहायता से उनको एक ऐसे मकान में रहने को स्थान मिल गया, जिसमें कुछ लड़के रहते थे। बेसेंट की माता उस 'होस्टल' की व्यवस्थापिका बन दी गई। उसी मकान में एक अध्यापक भी रहने लगे। इस तरह उनको जीवन निर्वाह का एक कार्य मिल गया और बच्चों की शिक्षा भी अधिक नियमित रूप से होने लगी।
माता- पिता का संतान के प्रति सबसे बडा़ कर्तव्य यही है कि वह उसको शिक्षित और कर्मठ बना दें। यदि बच्चों में ये दो गुण आ गये तो आगे चलकर वे अपना रास्ता आप बना लेगें। पर अभी तक हमारे देश की मातायें इस तरफ बहुत कम ध्यान देती हैं। वे स्वयं अशिक्षित होती हैं और इसलिए अपनी संतान की शिक्षा को भी बहुत कम महत्त्व देती हैं। वे बचपन में संतान का लाड़- दुलार करना और जहाँ तक बन पडे़ उनके खाने- पहनने की अच्छी व्यवस्था करना ही अपना कर्तव्य समझती हैं। पर इस प्रकार के व्यवहार से बच्चों का अहित ही होता है। उनको आराम से, फैशन से रहने की आदत पड़ जाती है और परिश्रम तथा काम से वे जी चुराने लगते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनको आगामी जीवन में तरह- तरह की कठिनाइयाँ सहन करनी पड़ती हैं और वे समाज का हित करने के बजाय उसमें प्रायः विकृतियाँ उत्पन्न करने के ही निमित्त बन जाते हैं।
शिक्षा और देश भ्रमण-
इस समय संयोग से कुमारी मेरियट नाम की एक धनी वृद्ध महिला हैरो में आई और एनीबेसेंट की माता का उनसे परिचय हो गया। कुमारी मेरियट ने आजन्म विवाह नहीं किया था और अपना समस्त जीवन अपने परिचितों, कुटुंबियों, दीन- दुःखियों की सहायता में ही लगाया था। उन्होंने जब ऐनीबेसेंट को देखा तो वे उनकी तरफ आकर्षित हो गई और उनकी माता से कहा कि- "इस लड़की को मेरे साथ रख दो, जिससे इसकी शिक्षा- दीक्षा की उचित व्यवस्था हो सके।" पहले तो माता को अपनी पुत्री का वियोग कठिन जान पडा़, पर जब उन्होंने उसके भविष्य पर विचार किया तो वे राजी हो गईं।
आरंभिक जीवन में एनी को धार्मिक शिक्षा दी गई और 'पिलीग्रिम्ज प्रोग्रेस' और 'पैरेडाइज लास्ट' जैसी पुस्तकें पढ़ने से उनमें धर्म- कार्यों के लिए बडा़ उत्साह उत्पन्न हो गया। परिवार की धार्मिक सभा में सबको अलग- अलग खडे़ होकर प्रभु ईसा की प्रार्थना करनी पड़ती थी। पाँच वर्ष की एनी को जब कहा जाता, तो पहले तो उनको भय लगता, पर जब मुँह खुल जाता तो ऐसे मधुर ढंग से बोलतीं कि सभी सराहना करने लग जाते। इस प्रकार उसी समय से उनमें भाषण कला का गुण विकसित होने लगा, जिसके बल से आगे चलकर उन्होंने जीवन में बहुत बडी़ सफलता पाई और संसार भर में लाखों अनुयायी बना लिये।
कुमारी मेरियट स्वयं बडी़ समझदार और परोपकारी महिला थीं, अगर कोई भूखा गरीब मनुष्य उनके पास आता तो वे उसे पैसा न देकर स्वयं भोजन करातीं। यदि वह स्वस्थ और कार्य करने लायक होता तो उसके लिये स्वयं दौड़- धूप करके कोई रोजगार तलाश कर देती थी। उनके इन गुणों का प्रभाव एनी तथा अन्य लड़कियों पर भी पडा़। जब वे लोग किसी दीन- दुःखी को देखकर उसकी सहायता की प्रार्थन करतीं, तो कुमारी मेरियट उनको समझाती कि "तुम लोग एक सप्ताह तक चीनी न खाकर या कोई दूसरी आराम की चीज छोड़कर पैसा बचाओ और उससे इसकी सहायता करो।" इस प्रकार वे उनको स्वयं त्याग करके दूसरों का उपकार करने की शिक्षा देती थीं।
एनी जब पंद्रह वर्ष की हुई तो कुमारी मेरियट इनको अन्य परिवार वालों के साथ विदेश यात्रा के लिए ले गई। इससे इनका व्यावहारिक ज्ञान बहुत बढ़ गया और जर्मन तथा फ्रांसीसी भाषा का अभ्यास भी हो गया। पर अब कुमारी मेरियट ने धीरे- धीरे इनको पढा़ना बंद कर दिया। जब इन्होंने कहा कि- "मैं सदैव तुम्हारे साथ नहीं रहूँगी, इसलिए अब तुमको स्वयं अपने पैरों पर खडे़ होने का अभ्यास भी करना चाहिए। जो लोग अंत तक शिक्षकों और अभिभावकों के सहारे ही रहते हैं, उनको शिक्षा समाप्त करने पर एकाएक मालूम पड़ता है कि अब क्या करें? इसलिए तुमको अभी से स्वावलंबन का अभ्यास करना चाहिए। तुमको आरंभिक शिक्षा अच्छी तरह मिल चुकी है। अब उद्योग करोगी तो स्वयं इसको बढा़कर जो कार्य करना चाहो उसके योग्य बन सकती हो।" इस प्रकार कुमारी मेरियट ने इनके जीवन की सफलता का मार्ग खोल दिया, जिससे आगे चलकर वे हर तरह के संघर्ष में साहस रखकर आगे बढ़ सकीं और अपने लिए ही नहीं, समाज के लिए भी बहुत कुछ करने में समर्थ हो सकीं।
समाज- सेवा का श्रीगणेश-
इंग्लैंड वापस आकर एनी और उसकी माता मैंचेस्टर में रहने लगीं। उद्योग धंधों का नगर था और यहाँ मजदूरों की बहुत बडी़ बस्ती थी। इन लोगों की इस समय बहुत खराब हालत थी और उनको उद्योगपतियों के बडे़- बडे़ अन्याय सहने पड़ते थे। एनी को यह सब बहुत बुरा लगता था और वह इनकी सहायता, सेवा करने का मार्ग ढूँढने लगी। उस समय वहाँ 'राबर्ट' नाम का वकील इन अन्याय पीडि़तों की सेवा में संलग्न था। उन दिनों कोयले की खानों में काम करने वाली स्त्रियों की बडी़ बुरी हालत थी। दिन भर कठोर परिश्रम करने पर भी उन बेचारियों को न पूरा खाना मिलता था, न तन ढकने को साबुत कपडा़। वे ठंड सहती हुईं, अपने दूध- पीते बच्चों को गोद में संभाले, किसी प्रकार काम करतीं रहतीं। पाँच- सात वर्ष के बच्चों को दरवाजे पर रखवाली के लिए बैठा दिया जाता और जब वे सो जाते, तो ठोकर मारकर उनको उठाया जाता।
'दरिद्रों के वकील राबर्ट' और उसके कुछ अन्य सहकारियों ने इन अन्यायों के विरुद्ध आंदोलन उठाया। एनी भी उसमें शामिल हो गईं। राबर्ट कहा करता था- "मजदूर- गरीब ही काम करने वाली शहद मक्खियाँ हैं, वे ही समस्त धन को पैदा करने वाले हैं। इनके साथ न्यायोचित व्यवहार होना चाहिए, स्वतंत्र जीवन व्यतीत करने का अवसर दिया जाना चाहिए।" एनी पर ऐसे उपदेशों का बडा़ प्रभाव पड़ता था और वह बडे़ उत्साह से मजदूर- आंदोलन का कार्य करती थी। यहीं से उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों में भाग लेने की प्रेरणा प्राप्त की।
एनी को राजनीति की तरफ आकर्षित करने वाला एक और कारण उसी समय पैदा हो गया। उस समय आयरलैंड में जोरों से स्वतंत्रता- आंदोलन चल रहा था और अंग्रेज सरकार बडी़ क्रूरता के साथ उसका दमन कर रही थी। एनी का माता आयरिश ही थी और इसलिये इनकी सहानुभूति आयरलैंड के साथ थी।
आयरलैंड के दो नेता कर्नल केली और कप्तान डीजे मैंचेस्टर में गिरफ्तार कर लिये गये और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। इससे इंग्लैंड में रहने वाले आयरिश लोगों में बडा़ जोश फैल गया और एक दिन उन्होंने इकट्ठे होकर जेलखाने की गाडी़ पर, जिसमें दोनों नेताओं को अदालत से लाया जा रहा था, हमला कर दिया, यद्यपि उस समय एक कांस्टेबिल को मारकर दोनों कैदी छुडा़ लिये गये, पर बाद में पुलिस ने आकर भीड़ पर हमला किया और चार व्यक्तियों को हत्या के अपराध में गिरफ्तार कर लिया। एनी भी इनका मुकदमा देखने जाती थी और जब उनको प्राण दंड दिया गया, तब वह बडी़ दुःखी हुईं। उसने बाद में इस संबंध में लिखा कि "यदि इन वीरों ने किसी अन्य देश की स्वाधीनता के लिए इसी प्रकार युद्ध किया होता, तो इंग्लैंड वाले उनका स्वागत और सम्मान करते। परंतु इन आयरलैंड की स्वाधीनता के लिये प्राण देने वालों को मामूली अपराधियों की तरह उनको कब्रिस्तान में गाड़ दिया गया। यह मनोवृत्ति स्वार्थपरता और संकीर्णता की ही परिचायक है।"
विवाह और तलाक-
सन् १८६६ में इनकी माता ने इनके जीवन का मार्ग बदलने के उद्देश्य से इनका विवाह रेवरेंड फ्रेंक बेसेंट नामक पादरी से कर दिया। ये उस समय यद्यपि धार्मिक स्वतंत्रता की अनुयायी बनती जा रही थी और 'ईसाई धर्म ही सच्चा है' इस विचार से हटती जा रही थीं, पर एक पादरी के साहचर्य में रहने से गरीबों की सेवा करने का अधिक अवसर मिलेगा, यह सोचकर इन्होंने इस संबंध को स्वीकार कर लिया। पर यहाँ तो मामला उलटा निकला। पादरी बेसेंट परंपरावादी पंडित- पुजारियों की तरह केवल अपने धार्मिक- कृत्यों से संबंध रखने वाला व्यक्ति था, जबकि ये सत्य की दृढ़ जिज्ञासु थीं।
इनका पति एकमात्र बाइबिल पर विश्वास रखने वाला था, पर ये संसार के सभी तरह के दार्शनिक और धार्मिक मतों के समीक्षा करके सत्य का निर्णय करना चाहती थीं। इनका कायक्षेत्र भी समाज सुधार तथा राजनीतिक आंदोलन में भाग लेने के कारण दूर- दूर तक फैला हुआ था। इससे विवाह के कुछ महीने बाद ही दोनों में मतभेद प्रकट होने लागा। पर धीरे- धीरे ये इस गाडी़ को खींचती रहीं और इस बीच में इनके दो संतान- एक लड़का और एक लड़की भी गईं। इनको लेखों और व्याख्यानों आदि से जो आय होती थीं, उसको भी ये पति को ही देती थी, इससे भी कुछ शांति बनी रहती थी।
पर इनके धार्मिक- स्वतंत्रता के विचार दिन पर दिन बढ़ते जाते थे और सभाओं में प्रायः बाइबिल और ईसाई धर्म के विरुद्ध बातें कह देती थीं। इस पर अन्य पादरी इनके पति पर आक्षेप करते थे और बदले में वह इनको जली- कटी सुनाता था। इसी बीच में इनके दोनों बच्चे बीमार हो गये और उनके बचने की आशा न रही। इससे इनके मन को बडा़ धक्का लगा। वह कहने लगीं कि भगवान् को इतना दयालु कहा जाता है तो कहाँ गई उसकी दया कि वह इन अबोध बच्चों को इतना कष्ट पाते देख रहा है और कोई ध्यान नहीं देता। फिर उनको ध्यान आया कि "स्वयं वे और उनकी माता आरंभ से पूर्ण धार्मिक जीवन बिताती रहीं, ईसा मसीह में दृढ़ श्रद्धा रखती रहीं, पर उनके ऊपर एक के बाद एक विपत्ति आती रही। असमय में पिता का देहांत हो जाने से दरिद्रता की चक्की में पिसना पडा़। दरिद्र माता को अकारण ही वकील ने ठग लिया, जिससे उनकी इज्जत मुश्किल से बच सकी। अब इनके प्राण प्यारे बच्चे भी मृत्यु के मुख में पडे़ हैं।"
इस प्रकार के विचारों से इनके धार्मिक विश्वासों को और भी धक्का लगा और ये नास्तिकता की ओर झुकने लगीं। इन्होंने मजदूर आंदोलन में भी परिश्रम की कमाई खाने वाले ईमानदार मजदूरों को भूखों मरते और हर तरह के अत्याचार सहते देखा था। एक बार अपने पति के साथ देहात में रहने गईं। वहाँ देखा कि खेतों में काम करने वाले मजदूरों की और भी बुरी दशा है। एक छोटी कोठरी में परदादा से लेकर नाती, पंती तक आठ मनुष्य रहते थे। जगह इतनी कम थी कि एक पुरुष, उसकी स्त्री और दो बच्चे एक ही चारपाई पर सोते थे। एक दिन जब एक बच्चा रात के समय मर गया, तो इतना भी स्थान न था कि उस मृतक को कहीं रख भी दिया जाय। उसकी माँ को रात भर मरे बच्चे के पास ही सोना पडा़।
एक तरफ तो गरीब लोगों की यह बुरी दशा थी और दूसरी ओर धनी लोग सब तरह की बेईमानी से रुपया कमाते हुए भोग- विलास और दुराचारों में खर्च कर रहे थे। श्रीमती बेसेंट के चित्त में बार- बार यही प्रश्न उठता कि अगर ईश्वर होता तो संसार में इस प्रकार का अंधेरखाता कैसे चल पाता? और भाई ईश्वर है भी तो ऐसे अन्यायी ईश्वर को मानने से क्या फायदा जो ईमानदारों को ऐसे कष्ट देता है और जिसके राज्य में बेईमान और शोषण करने वाले मौज करते हैं। ऐसे विचारों के बढ़ने से ये दिन पर दिन धर्म से विमुख होती जाती थीं और इस कारण पति से सदा खट- पट होती रहती थी। जब इनकी मानसिक पीडा़ बहुत बढ़ गई तो एक दिन बहुत दुःखी होकर इन्होंने आत्महत्या का निश्चय कर लिया। पर जैसे ही जहर को मुँह से लगाया कि अंतरात्मा ने कहा-
"ऐ कायर, अभी कल तक तो तू गरीबों के हितार्थ, अन्याय के प्रतिकारार्थ शहीद बनने का सपना देख रही थी और आज थोडे़ से मानसिक कष्ट से व्याकुल होकर व्यर्थ में प्राण देने को प्रस्तुत हो गई। जब तू घरेलू झगडे़ को बरदाश्त नहीं कर सकती, तब अन्यायियों का विरोध करते हुए जिस अपमान, यातना, अमानुषी यंत्रणा का सामना करना पडे़गा, उसे तू कैसे सहन करेगी? इसलिये हिम्मत रख और अपने कर्तव्य- मार्ग पर अग्रसर होती जा। इसका जो परिणाम सहन करना पडे़, उसे अनासक्त भाव से सहन कर। ऐसा करने पर ही तू संसार की सेवा का कुछ श्रेय प्राप्त कर सकेगी।
अब श्रीमती बेसेंट ने निश्चय कर लिया कि वे अपने विश्वास, सिद्धांतों के अनुसार ही कार्य करेंगी, फिर इसका परिणाम कैसा भी क्यों न निकले? उन्होंने विचार किया कि जब एकाएक पिता की मृत्यु हो जाने और माता की संपत्ति के डूब जान पर भी निर्वाह होने पर और आगे बढ़ने का मार्ग निकल आया, तो गृहस्थी अथवा जीवन- निर्वाह के कारण अंतरात्मा के विरुद्ध अंध विश्वास के सामने सर झुका देना कदापि उचित नहीं। जिस तरह अन्य दुनियादार मनुष्य सांसारिक- वैभव, संपत्ति के लिए सब प्रकार भय और आशंकाओं को त्यागकर परिस्थितियों से संघर्ष करने, लड़ने- मरने को तैयार हो जाते हैं, उसी प्रकार सत्य के खोजी को भी उसके लिए हर अवस्था संघर्ष करने और सब प्रकार के कष्टों, विघ्न- बाधाओं को सहन करने को तैयार रहना चाहिये। संसार के अधिकांश व्यक्ति तो रुपया- पैसा, आराम, शान- शौकत आदि को महत्त्व देते हैं, पर सत्य के अन्वेषक को इन बातों की चिंता छोड़कर उसी मार्ग को अपनाना चाहिए जिसका आदेश अंतरात्मा दे।
अब श्रीमति बेसेंट ने अपने विचारों को खुले तौर पर प्रचार करना आरंभ कर दिया। वे ईसामसीह को एक महापुरुष मानती थी, वह 'ईश्वर का पुत्र था' अथवा 'मानवों का मुक्तिदाता' था, इस पर इनका विश्वास न था। इसके बजाय ये गरीबों, कष्ट- पीडि़तों की सेवा को, उन पर होने वाले अन्यायों का विरोध करने को ही सच्चा धर्म बतलाती थीं और जहाँ तक बन पड़ता था दीन- हीन मजदूरों तथा अन्य गरीब मनुष्यों की सहायता के लिए प्रचार करती थीं।
सन् १८७३ में इन विचारों के कारण अपने पति से मतभेद चरम सीमा पर पहुँच गया। उसको संगी साथियों ने समझाया कि ऐसी स्त्री को रखने से क्या फायदा, जो गिर्जाघर नहीं जाती और ईसा को 'पवित्र ईश्वरीय पुत्र' अस्वीकार करती है। इस प्रकार के विचारों के प्रकट होने से अपने साथियों में पादरी बेसेंट की बदनामी होती थी। अंत में उसने श्रीमती एनी बेसेंट से कह दिया कि "या तो तुम अपने विचारों को बदलकर गिर्जाघर जाना और ईसाई धर्म के विश्वासों को स्वीकार करना आरंभ करो, अन्यथा इस घर को छोड़ दो।"
उस समय इनकी आयु २६ वर्ष की थी और मन में अपने सिद्धांतों के लिये कोई विशेष कार्य कर दिखाने का उत्साह भरा हुआ था। इसलिये इन्होंने पति को छोड़ने का ही निश्चय किया। इस समाचार से इनकी माता को बडा़ दुःख हुआ और उसने समझा- बुझाकर पति के रहने का आग्रह किया। पर इन्होंने सिद्धांतों के विरुद्ध आचरण करना स्वीकार न किया।
जीवन- निर्वाह की समस्या-
मानसिक आवेश और युवावस्था के उत्साह के फलस्वरूप इन्होंने पति से तलाक तो मंजूर कर ली, पर जब जीवन- निर्वाह की समस्या सामने आई तो दिमाग चक्कर खाने लगा। अदालत ने छोटी लड़की को इनके साथ रहने का आदेश दे दिया था। अब अपनी बुड्ढी माता का और छोटी बच्ची का खर्च किस प्रकार चलायें? यह एक बडी़ कठिन समस्या थी।
अब ये कोई नौकरी तलाश करने लगीं। इसमें इनको कितनी दौड़- धूप करनी पडी़? तकलीफ उठानी पडी़ और मान- अपमान सहने पडे़, उन सबका वर्णन यहाँ कर सकना संभव नहीं। कई महीने तो सप्ताह में केवल तीन- चार रुपया का काम करके ही गुजारा करना पडा़। फिर एक बडे़ पादरी के घर में भोजन बनाने का काम मिल गया, पर वेतन में दोनों ही समय का भोजन और रहने का स्थान दिया गया। कुछ समय बाद पादरी का लड़का बीमार हो गया तो इनको खान बनाने से हटाकर उसकी देखभाल करने को नियुक्त कर दिया गया। एक बच्चा ठीक हुआ तो दूसरे को ज्वर आ गया। उसकी देखभाल भी ये करने लगी। इन्होंने परिश्रम करके दोनों की प्राण रक्षा की।
एक साल बाद इनकी माता बीमार पडी़, पर गरीबी के कारण इलाज की ठीक व्यवस्था नहीं हो सकी। मई १८७४ में उसका देहांत हो गया और श्रीमती बेसेंट का एकमात्र सहारा जाता रहा। अब इनका आधार छोटी बच्ची मैबेल ही थी। इस समय दरिद्रता का संकट भी बहुत बढ़ गया था। मकान का किराया काफी चढ़ गया था, इसलिये ये केवल एक बार भोजन करके उसे चुकाने का प्रयत्न करती थीं।
सामयिक पत्रों में लेखन- कार्य-
श्रीमति बेसेंट सामयिक पत्रों में अपने वैवाहिक- जीवन से ही लिखने लग गई थीं। सबसे पहले इनकी एक छोटी- सी कहानी "फैमिली- हेराल्ड" नामक पत्र में छपी, कुछ समय बाद उसका पत्र आया, जिसमें से लेख के पारिश्रमिक का ३० शिलिंग (२१ रु॰) का चैक निकला। एक लेखक की हैसियत से यह इनकी पहली कमाई थी। इसके बाद इन्होंने और भी कई छोटी- छोटी सुंदर कहानियाँ लिखकर उस अखबार में भेजीं और वे सब छप गईं। एक उपन्यास भी लिखकर भेजा, पर वह यह कहकर लौटा दिया गया कि इसमें राजनीति की चर्चा बहुत अधिक है।
अब जीविका की समस्या उपस्थित होने पर उन्होंने फिर लिखने की तरफ ध्यान दिया और मि॰ स्काट नामक सज्जन के आश्रय से कई लेख लिखे, जिनमें से प्रत्येक के लिये २१ रु॰ के हिसाब से पारिश्रमिक मिल गया। श्रमती स्काट भी इनका बहुत ख्याल रखती थीं और जब बहुत कठिन अवस्था आती थी, तब वे उनको भोजन भी करा देतीं थी। कई साधारण अवस्थाओं की पूर्ति के लिए इन्होंने अपने आभूषण और बढि़या कपडे़ पहले ही बेच दिये थे। अब पेट भरने का एकमात्र साधन लेखन- कार्य ही था। पर इस क्षेत्र में नवीन होने के कारण सदैव उसमें सफलता नहीं मिलती थी। तब भी यह साहस करके अपने मार्ग पर दृढ़ रही और इस स्थिति को अपनी एक परीक्षा समझकर परिश्रम करके और कठिनाइयाँ सहन करके अपने सिद्धांतो के अनुसार अग्रसर होती रहीं। श्रीमती बेसेंट की जीवन घटनायें इस दृष्टि से बडी़ शिक्षाप्रद और रोचक हैं कि स्वावलंबी व्यक्ति किस प्रकर आपत्तियों का मुकाबला करके बडी़ से बडी़ सफलता प्राप्त कर सकता है? क्या यह बात कम प्रेरणाप्रद है कि जिन श्रीमति बेसेंट को लेखन- कार्य से सूखी रोटी खाने लायक भी आमदनी नहीं होती थी, फिर भी उन्होंने इसी के द्वारा लाखों रुपये कमाये और सैकडों़ अन्य व्यक्तियों की रचनाओं को भी प्रकाशित करके उनको साहित्य- क्षेत्र में ठहर सकने में हर तरह से सहायता दी।
श्री ब्रैडला से भेंट और मजदूर आंदोलन-
सन् १८७४ में इनकी इंग्लैंड के प्रसिद्ध अनीश्वरवादी प्रचारक चार्ल्स ब्रैडला से हो गई। ब्रैडला अपने स्वतंत्र विचारों और ईसाई धर्म का जोरों से खंडन करते रहने के कारण बहुत बदनाम हो चुके थे। वे किसी प्राचीन रूढि़ और परंपरा को नहीं मानते थे और प्रत्येक सिद्धांत को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर कसकर स्वीकार करते थे। इसलिये कट्टर ईसाई उनका बहुत अधिक विरोध करते थे और उन पर तरह- तरह के झूठे- सच्चे आरोप लगाकर हमेशा उन्हें जनता की निगाह में गिराने की चेष्टा करते थे। जब श्रीमति बेसेंट ने इनको अपने घर पर बुलाया, तो उन्होंने साफ कह दिया कि खूब सोच- समझकर ऐसा काम करना। मैं तो काँटों पर चलने वाला आदमी हूँ। स्वयं मेरे भाई- बंधु मुझसे घृणा करते हैं और जनता में भी मैं तरह- तरह से बदनाम किया जाता हूँ। मेरे साथ रहने से तुम्हारे विषय में भी लोग हर तरह की अफवाहें उडा़ने लगेंगे और उपेक्षा करेंगे।