Books - मन के हारे हार है मन के जीते जीत
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
तनाव के कारण और उसके उपचार
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
जीवन-यापन की विकृत शैली अपनाकर ही लोग हर दिन नए-नए किस्म की ऐसी व्यथाओं से घिरते जा रहे हैं, जो न अभावजन्य हैं, और न विषाणुओं का आक्रमण। पिछले दिनों वैज्ञानिक, बौद्धिक और आर्थिक प्रगति उतनी नहीं थी, जितनी इन दिनों है। इतने पर भी पूर्वज हलकी-फुलकी जिंदगी जीने के अभ्यस्त थे और चिंताओं, भ्रांतियों से कुत्साओं-कुंठाओं से उतने नहीं घिरे रहते थे, जितने कि आज के तथाकथित ‘सभ्य’ मनुष्य। विकास की एक सीढ़ी यह भी मानी जा सकती है कि मनुष्य अनुदारता और उच्छृंखलता की दिशा में तेजी से बढ़ता, भागता चला जा रहा है। नई परिस्थितियों में नए किस्म के ऐसे रोग उत्पन्न हो रहे हैं, जिनका प्रस्तुत चिकित्सा ग्रंथों में उल्लेख नहीं मिलता और चिकित्सकों को अनुमान के आधार पर इलाज का तीर-तुक्का बैठाना पड़ता है।
इन परिस्थितियों में तनावजन्य रोगों से निपटने के लिए योगाभ्यास की प्रक्रिया अधिक कारगर सिद्ध हो रही है। जो कार्य औषधि उपचार से नहीं बन पड़ रहा था, वह इन प्रयासों से सरलतापूर्वक होते देखा गया है। मानसोपचार की दृष्टि से ध्यान, धारणा और प्रत्याहार की त्रिविध प्रक्रिया बहुत ही कारगर सिद्ध हो रही है। यदि उस ओर अधिक ध्यान दिया जा सके और इस क्षेत्र में शोध-प्रयासों को बढ़ाया जा सके, तो ऐसे सूत्र हाथ लगने की पूरी संभावना है, जो मानसिक तनाव का सामयिक उपचार ही न करें, वरन् उत्पन्न होने से पहले ही रोकथाम करने में कारगर सिद्ध हो सकें। मानसिक तनाव को ध्यान द्वारा और शारीरिक तनाव को शवासन, प्राणाकर्षण जैसे कृत्य अभ्यासों से नियंत्रित किया जा सकता है।
वर्तमान समय में 50 प्रतिशत से अधिक रोगी तनाव की प्रतिक्रियास्वरूप रोगग्रस्त पाए गए हैं। चिकित्सकों एवं मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि लगातार सिरदर्द, चक्कर आना, आंखों में सुर्खी आना, काम में मन न लगना और लकवा आदि जैसे रोगों का आक्रमण हो जाना, ये सभी अत्यधिक तनाव के ही परिणाम हैं। ऐसे लोग प्रायः रोगों की उत्पत्ति के लिए कभी मौसम को, कभी आहार को, कभी दूसरों को, कभी परिस्थितियों आदि को दोष देते हैं। अधिक तनाव शरीर व तन दोनों के लिए हानिकारक है।
स्नायविक तनाव-विशेष डॉ. एडमंड जैकबसन का कहना है कि हृदय रोग, रक्तचाप की अधिकता, अल्सर कोलाइटिस आदि सामान्यतः दिखाई देने वाले रोग प्रकारांतर से तनाव के ही कारण उत्पन्न होते हैं। स्नायु दौर्बल्य, अनिद्रा, चिंता, खिन्नता आदि अनेक रोग तनाव के फलस्वरूप ही पैदा होते हैं। न्यूयार्क के एक हृदय रोग विशेषज्ञ ने बताया है कि दूसरों पर दोषारोपण करने वाले, अत्यधिक भावुक एवं जल्दबाजी करने वाले लोग तनाव के अधिक शिकार होते हैं। मनोवैज्ञानिकों एवं अध्यात्मवेत्ताओं का कहना है कि तनाव की अधिकता मनुष्य की विचारधारा के कारण होती है। निषेधात्मक, निराशावादी, संचयात्मक चिंतन दृष्टिकोण आदमी में तनाव की सृष्टि करते हैं और तनाव से मुक्ति, व्यक्ति स्वयं ही पा सकता है।
‘लाइफ एक्सटेंशन फाउंडेशन’ नामक संस्था के संचालकों ने पता लगाया है कि व्यक्तियों में निराशा, असफलता, हार की भावना, निर्णय करने में दुविधा की स्थिति एवं चिंता आदि तनाव को जन्म देती है, एक कंपनी के मेडीकल डाइरेक्टर ने एक बार देखा कि उच्च पदासीन लोग उत्तेजना की स्थिति में हैं। एक दिन कंपनी के प्रेसीडेंट ने आकर उनको थका-थका-सा तनावग्रस्त देखा, तो मेडीकल डायरेक्टर के सुझावानुसार उन्हें तनाव कम करने के लिए छुट्टियां लेकर विश्राम करने हेतु कहा गया। कुछ दिनों बाद जब वे विश्राम करके आए, तो परीक्षण करने पर पहले से अधिक शांत प्रसन्न पाए गए। खूब मन लगाकर काम करने लगे। कम समय में अधिक काम किया जाने लगा। अधिक जिम्मेदारीपूर्ण कार्य सरलतापूर्वक करने में सक्षम हो गए। सामान्यतः घरों में तनाव का कारण पति-पत्नी का आपसी मेल न बैठ पाना होता है। पत्नियों को रसोई आदि के कार्यों के लिए तंग करते हैं। परस्पर संतुलन न हो पाने से दोनों तनाव से ग्रसित हो जाते हैं। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि माता-पिता के बीच अनबन, कलह देखकर बच्चे भी तनाव से आक्रांत हो जाते हैं, फलतः पूरा घर ही नरक बन जाता है। इस नरक से त्राण पाने का रास्ता एक ही है कि परस्पर में सामंजस्य बैठाया जाए। प्रेम, आत्मीयता, सद्भावना, सहयोग आदि से वही परिवार स्वर्गीय आनंद का उपवन बन सकता है, जो जरा-से मतभेद एवं नासमझी के कारण नरक बन गया था। रहन-सहन में नियमितता लाने से, परस्पर स्नेह-सद्भाव से तनाव की बीमारी से मुक्ति मिल सकती है।
तनाव से मुक्त रहने के लिए सूक्ष्मदर्शियों ने यही कहा है कि अपनी क्षमता भर अच्छे-से-अच्छा काम करें। इससे बाहरी सहायता या मार्गदर्शन कुछ विशेष कारगर सिद्ध नहीं होता। अपने द्वारा उत्पन्न किए तनाव को कोई दूसरा दूर कैसे कर सकता है? तनाव को व्यक्ति स्वयं ही नियंत्रित एवं दूर कर सकता है। दूसरों का मार्गदर्शन थोड़ा-बहुत उपयोगी हो सकता है। स्वाध्याय के द्वारा यह सहज ही पता चला जाता है कि निरर्थक एवं महत्त्वहीन बातों को अधिक तूल दे दिया गया और अकारण ही तनाव को आमंत्रित कर लिया गया। वस्तुतः वह झाड़ी के भूल की कल्पना मात्र थी। अपने को तनावग्रस्त न होने देने के लिए दृढ़ निश्चय, लगन एवं सतत निष्ठापूर्वक सद्कार्यों में नियोजित किए रहना ही सर्वोत्तम उपाय है। सदा सहनशीलता से काम लिया जाए। भविष्य के भय से भयभीत न हुआ जाए, वास्तविकता को दृष्टिगत रखा जाए, काल्पनिक बाधा या आशंका को स्थान न दिया जाए। वर्तमान में सामने आए काम को पूरी तत्परता से संपन्न किया जाए। उसी के संबंध में सोचा जाए, आशावान रहा जाए। ऐसा करने से स्वयं ही अपने भीतर इस प्रकार की शक्ति का अनुभव होगा, जो समस्याओं को सुलझाने में सहायक होगी।
ब्लड प्रेशर (हृदय रोग), दिल का दौरा अब मध्यम वर्ग के लोगों में भी पनप रहा है। इसका मूल कारण है कि लोग अधिक आराम का जीवन जीना चाहते हैं। परिश्रम से बचना चाहते हैं। आमदनी से अधिक खरच बढ़ाकर अधिक-से-अधिक चिंताओं का घेरा मकड़ी के जाल की तरह बुन लेते हैं।
मनोवैज्ञानिक भी यही कहते हैं कि हृदय रोग का कारण अज्ञात, भय, चिंता है, जो अंतर्मन में व्याप्त हो जाती है। नतीजा यह होता है कि मनुष्य की स्वाभाविक खुशी-प्रफुल्लता छिन जाती है।
इसमें रक्तवाहिनी नसें थक जाती हैं। कभी-कभी फट भी जाती हैं, फलतः मस्तिष्क में लकवा भी हो जाता है। अधिक दुःख में रक्त का दौरा बढ़ भी जाता है और शक्कर देने वाली क्लोम ग्रंथियां भी खाली हो जाती हैं तथा क्लोम रस मिलना बंद हो जाता है। यह ग्रंथि प्रसन्नता के अभाव में कार्य करना बंद कर देती है और क्लोम-रस देना भी बंद कर देती हैं। क्लोम-रस न मिलने से शर्करा स्वतंत्र हो जाती है और मूत्र के साथ बहने लगती है। इसी को मधुमेह कहते हैं। मधुमेह रोने, पछताने, शोक करने से भी हो जाता है।
कैंसर रोग पर हुए अनुसंधानों से यह प्रकाश में आया है कि जब व्यक्ति का आहार, आचरण एवं व्यवहार दूषित तत्त्वों से भर जाता है, उसका जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है, वह तंबाकू, शराब आदि विषैली चीजों के चंगुल में अपने को फंसा लेता है, तो इस रोग का आरंभ हो जाता है।
अमेरिका के ‘नार्थ वेस्ट रिसर्च फाउंडेशन’ के प्रमुख अनुसंधानकर्त्ता वेर्नानिरिले ने अपने प्रयोगों से पता लगाया है कि मनुष्य के जीवन में भय, तनाव अत्यधिक चिंता इस रोग के प्रमुख कारण हैं।
अमेरिका के ही एक अन्य रिसर्च केंद्र ‘हीलिंग आर्टस् सेंटर’ ने कैंसर रोग का प्रमुख कारण ‘मन’ माना है। असफलता, पराजय, निराशा, भय, परेशानी, चिंता, असंतोष, वासना आदि से ग्रसित व्यक्ति बहुत जल्दी ही इस रोग से आक्रांत हो जाता है।
सन् 1950 में प्रसिद्ध मनोचिकित्सक श्री लारेंस ली शान ने कैंसर से पीड़ित व्यक्तियों के सामान्य लक्षणों को बताया है। उन्होंने इसके कारण भावनात्मक असंतोष निराशा, असफलता, हार, अशांति आदि बताए हैं।
कैरोलीन बीड थॉम्स ने 1946 से 1964 तक 18 वर्षों में इस संदर्भ में किए गए प्रयोगों से निष्कर्ष निकाला है कि जो लोग चिंता, क्रोध, भय और तनाव से त्रस्त रहते हैं एवं जीवन में भावनाओं तथा वासनाओं की संतुष्टि नहीं कर पाते, अधिकांशतः वे ही लोग इस रोग से ग्रस्त होते देखे गए हैं।
‘टेक्साज हेल्थ साइंस सेंटर’ की यूनिवर्सिटी के डॉ. जैनी एक्टर वर्ग ने भी कैंसर का मुख्य कारण मानसिक तनावों को ही बताया है। उन्होंने इस रोग से त्राण पाने के लिए सर्वोत्तम उपाय रोगी की आत्मशक्ति का संवर्द्धन बताया है।
मेक्सिको के डॉक्टर अरनेस्टो कंट्रेराख ने बताया है कि इस रोग की प्रारंभिक अवस्था में आहार-विहार संबंधी सुधार किया जाए, बुरी आदतों को ठीक किया जाए प्रेम, सुख व शांति की वृद्धि की जाए तो कैंसर से मुक्ति पाई जा सकती है। उन्होंने इस चिकित्सा पद्धति को ‘लैट्राइल चिकित्सा प्रणाली’ का नाम दिया।
सभ्य कहलाने वाले पश्चिमी राष्ट्रों में हाइपरटेंशन, कैंसर करोनरी, अथेरोस्कलेरौसिस आदि ऐसे रोगों की संख्या में दिन दूनी व रात चौगुनी दर से हो रही वृद्धि चिंता का मुख विषय है। मोटापा, मधुमेह, पेप्टिक अल्सर, कोलाइटिस, आर्थराइटिस, दमा आदि ऐसे रोग हैं, जिनका मूल कारण विकृत मानसिक स्थिति और उसका स्वरूप ही है। विश्व के सभी बड़े-बड़े चिकित्साशास्त्री व मनोरोग विशेषज्ञ इस बात को मानने लगे हैं कि 75 प्रतिशत रोगों का मूल कारण उद्वेगजन्य मनःस्थिति ही है।
‘इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस’ वाराणसी हिंदू विश्वविद्यालय के डॉ. एन. उडुपा ने उद्वेगजन्य रोगों के कारणों व उनके निदान पर गहरे अध्ययन के पश्चात इस प्रकार के रोगों को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया है—
(1) शारीरिक अवस्था — जब किसी व्यक्ति को मनोरोग होता है तो उस दशा में उसके किसी अंग में विशेष प्रकार की क्रियाशीलता देखी जा सकती है। इस दशा के लिए उसके वातावरण एवं उसकी पैतृक रूप से विरासत में प्राप्त गुण जिम्मेदार होते हैं। किसी में अक्ल की वृद्धि तो किसी के हृदय की धड़कन में वृद्धि के रूप में देखा जा सकता है। इस दशा का निर्धारण रक्त में कासकालाइंस एड्रेनलिन और नार एड्रेनलिन की वृद्धि की जांच कर किया जा सकता है।
(2) मनोदशा — इस स्थिति में व्यक्ति के मन में एक तीव्र आघात होता है। जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति के स्वभाव में उद्विग्नता व चिड़चिड़ापन आ जाता है। किसी भी प्रकार की बात उसके लिए उद्विग्नता का कारण बन जाती है। बार-बार नींद का टूटना व सिहरन तथा कंपकंपी आदि प्रकार के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। इस स्थिति की जानकारी रक्त में नयूरोट्रांसमीटर ऐसेटिलक्लोरिन के स्तर को नापकर लगाई जा सकती है।
(3) शारीरिक अंगों की दशा — इस स्थिति में आते-जाते रोगी के शारीरिक व मानसिक लक्षणों की सक्रियता तो कम होती है, किंतु धीरे-धीरे संबंधित अंगों में स्थायी रूप से उसका प्रभाव पड़ने लगता है, जैसे—दाह, कमजोरी आदि के साथ पौष्टिक अल्सर, कारोनरी इंसफिसिशेनर्स, ब्रांकियल आदि रोगों के लक्षण स्पष्ट रूप से प्रकट होने लगते हैं।
डॉ. उडुपा ने इस संबंध में गहन अध्ययन के बाद निष्कर्ष निकाला है कि आसन-प्राणायाम के साथ-साथ ध्यान-धारणा व शिथिलीकरण के अभ्यास विशेष लाभकारी हुए हैं। जप और ध्यान का मनोरोगों को दूर करने में विशेष महत्त्व सिद्ध करते हुए पाश्चात्य वैज्ञानिका बुजती और राइडर ने अपने संयुक्त शोध-प्रयासों से स्नायु प्रणाली के स्राव व न्यूरोट्रांसमीटर की जांच के बाद यह सिद्ध कर दिया कि दो वर्ष से जप कर रहे 11 व्यक्तियों में मानसिक तनाव व तनावजनित रोग लगभग न्यून हो गए।
तनाव निवारण औषधियों तथा कृत्रिम उपकरणों से संभव नहीं। इसके लिए मानव जाति को अध्यात्म की शरण लेनी ही होगी।