Books - मन के हारे हार है मन के जीते जीत
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Language: HINDI
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असंतुलन के दुष्परिणाम एवं निराकरण के उपाय
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जीवन में प्रायः रोज ही एक तरह की घटनाएं घटित होती हैं, जिनमें से कुछ के कारण प्रफुल्लता और आह्लाद फूट पड़ने लगता है तथा कुछ को देखकर क्षोभ होने लगता है। जो घटनाएं स्वयं से संबंध रखती हैं, उनमें से कई घटनाओं के कारण खेद, क्षोभ, क्रोध, उत्तेजना, दुःख, विषाद और रोष जैसे भाव उत्पन्न होने लगते हैं। इन भावनाओं को जिनके कारण शरीर तंत्र उत्तेजित हो उठता है—संवेग कहते हैं और इनकी प्रतिक्रिया का केंद्र मस्तिष्क होता है।
मस्तिष्क चूंकि सारे शरीर का नियंत्रणकर्त्ता और संचालक है। अतः वहां होने वाले परिवर्तनों का प्रभाव भी निश्चित रूप से शरीर पर पड़ता है। इन मानसिक संवेगों का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है? मनोवैज्ञानिकों के लिए यह सदा से ही अनुसंधान का विषय रहा है और इस दिशा में जो खोजें की गईं, उनमें विभिन्न शारीरिक समस्याओं को सुलझाने में भी सहायता मिली।
संवेदना और भावनाओं में आने वाली उत्तेजना के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले तनाव में पिट्यूटरी तथा एड्रेनल ग्रंथियों द्वारा सोमोटोट्राफिक हार्मोन तथा डेसोक्साइकोर्टि कोस्टेरौन नामक हार्मोन उत्सर्जित होते हैं। फलतः तनाव के कारण सिरदर्द, उच्च रक्तचाप, रुमेटिक अर्थराइटिस, गेस्ट्रिक अल्सर, हृदयरोग तथा अन्य कितने ही विकार रोग उत्पन्न होते हैं।
क्रोध, घृणा, कुंठा अथवा निराशा के रूप में मानसिक तनाव या दबाव के कारण न केवल भोजन देर में पचता है, वरन् उससे पेट की अन्य गड़बड़ियां भी उत्पन्न होती हैं, यहां तक कि अल्सर भी और आदमी में वृद्धावस्था के लक्षण प्रकट होने लगते हैं।
शरीर-संस्थान पर मनोविकारों के ऐसे कितने ही दुष्प्रभाव पड़ते हैं और उन सभी मनोविकारों में क्रोध सर्वाधिक विषैला तथा तुरंत प्रभाव डालने वाला मनोविकार है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डॉ. कैनन ने संवेगों के मनुष्य शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करने के लिए अनेकों प्रयोग किए और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पाचन रस और अंतःस्राव पर संवेगों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। जब संवेग तीव्र होता है, तो अंतःस्राव कम होने लगता है और पाचन क्रिया में गड़बड़ी होने लगती है। जब संवेग ठीक रहते हैं, तो पाचन क्रिया भी ठीक-ठाक चलने लगती है। अंतःस्राव किस परिमाण में होता है—यह संवेगों का स्वभाव पर ही निर्भर करता है। भय का संवेग तीव्र होने पर इसका प्रभाव कम परिमाण में होता है और क्रोध का संवेग तीव्र होने पर अधिक।
क्रोध चूंकि एक उत्तेजनात्मक आवेग है, अतः इसका कुछ प्रभाव तो तुरंत ही देखा जा सकता है, जैसे आंखों में लाल डोरे तन जाते हैं, शरीर कांपने लगता है, हृदय की धड़कनें बढ़ जाती हैं आदि। क्रोध के कारण होने वाली शारीरिक शक्ति ह्रास को जानने के लिए डॉ. अरोल और डॉ. केनन ने अनेक परीक्षण किए और इस परिणाम पर पहुंचे कि क्रोध के कारण उत्पन्न होने वाली विषाक्त शर्करा पाचन शक्ति के लिए सबसे खतरनाक है। यह रक्त को विकृत कर शरीर में पीलापन, नसों में तनाव, कटिशूल आदि पैदा कर देती है। क्रोधाभिभूत मां का दूध पिलाने पर बच्चे के पेट में मरोड़ होने लगती है और हमेशा चिड़चिड़ी रहने वाली मां का दूध कभी-कभी तो इतना विषाक्त हो जाता है कि बच्चे को जीर्णरोग तक हो जाते हैं।
क्रोध से शारीरिक शक्ति का ह्रास होता है, तो मानसिक शक्ति भी क्षरित होती है। अमेरिका के प्रसिद्ध मनोचिकित्सक डॉ. जे. एस्टर ने क्रोध के कारण होने वाली मानसिक शक्ति के ह्रास के संबंध में कहा है—‘पंद्रह मिनट क्रोध के रहने से मनुष्य की जितनी शक्ति नष्ट होती है, उससे यह साधारण अवस्था में नौ घंटे कड़ी मेहनत कर सकता है। शक्ति का नाश करने के साथ क्रोध शरीर और चेहरे पर अपना प्रभाव छोड़कर उसके स्वास्थ्य व सौंदर्य को भी नष्ट कर देता है। ऐसे व्यक्ति में जवानी में ही बुढ़ापे के चिह्न प्रकट हो जाते हैं।’
क्रोध का कारण बताते हुए गीता में कहा गया है—‘कामात् क्रोधाभिऽजायते।’ कामनाओं में विक्षेप होने पर उस विक्षेप के कारण क्रोध उत्पन्न होता है। तीन-चार महीने के बच्चे को यदि कोई थप्पड़ मार दे, तो उस थप्पड़ की पीड़ा से वह रो उठेगा, किंतु उठे हुए हाथ और स्वयं की पीड़ा का अंतर्संबंध उसे ज्ञात नहीं रहता, इस हाथ से थप्पड़ मारे जाने के कारण मुझे पीड़ा हो रही है, यह जानकारी उसे नहीं रहती, इसलिए उसके रुदन में क्रोध का आवेग नहीं रहता। इस प्रकार क्रोध दुःख, कष्ट के कारण का बोध होता है। अपनी हानि या दुःख का कोई कारण उपस्थित होने पर क्रोध का आवेग पैदा हो जाता है। अपने मनोरथों को विफल कर सकने वाले अभीष्ट-प्राप्ति के मार्ग में बाधक का स्पष्ट परिचय पाकर क्रोध उदित होता है। यह क्रोध का सामान्य स्वरूप हुआ। किंतु मनुष्य की भी प्रतिक्रिया सरल यंत्रवत नहीं होती। इसलिए क्रोध के स्वरूप और उसकी अभिव्यक्ति के ढंग, दोनों में बहुतेरी भिन्नताएं होती हैं।
क्रोध मस्तिष्क में उभर पड़ने वाला एक आवेग विशेष है। मस्तिष्कीय संरचना कुछ ऐसी है कि जिस भी आवेग का उसमें बार-बार उदय हो, उसके संस्कार गहरे होते जाते हैं और फिर वह आवेग स्वभाव का अंग बन जाता है। एक ही बाधक विषय-वस्तु के प्रति दो लोगों की प्रतिक्रिया भिन्न-भिन्न ही हैं—एक क्रोध से लाल-पीला होकर मरने-मारने पर उतारू हो जाएगा, दूसरा उस बाधा के निवारण का गंभीर प्रयास प्रारंभ कर देगा। यह भिन्नता मस्तिष्क में पड़ गए संस्कारों की ही है। असफलता प्राप्त होने पर जब क्रुद्ध होने की ही प्रवृत्ति दृढ़ हो जाती है, तो फिर यह क्रोध उस बाधक तत्त्व के प्रति ही सीमाबद्ध नहीं रहता, अपितु संपर्क में आने वाले लोगों से अकारण क्रुद्ध व्यवहार का प्रेरक बन बैठता है।
मन की जटिलताएं भी मनुष्य के क्रोधी स्वभाव का कारण होती हैं। मनुष्य अपनी मानसिक जटिलताओं में उलझा उद्विग्न रहा करता है और यह उद्वेग जिस-तिस पर क्रोध बनकर बरस पड़ता है।
इस प्रकार मोटेतौर पर क्रोध के तीन वर्ग गिनाए जा सकते हैं—
(1) कामना-पूर्ति में अवरोधक-बाधक विषय के प्रति क्रोध, जो बाधक को हानि पहुंचाने की भावना से जुटा रहता है।
(2) असफलता से क्रुद्ध मनःस्थिति में संपर्क में आए अन्य व्यक्तियों पर कारणवश या अकारण ही व्यक्त होने वाला क्रोध।
(3) लंबे अभ्यास से व्यसन-सा बन चुका क्रोध, जो स्वभाव का स्थायी अंग बन जाता है।
पहले प्रकार का क्रोध लोक-व्यवहार में सर्वाधिक स्वाभाविक माना जाता है। सामाजिक जीवन में उसे एक तरह की स्वीकृति प्राप्त है, किंतु क्रोध एक विचार मात्र नहीं है, वह एक भावावेग है। उसका संपूर्ण शरीर-संस्थान और मनःसंस्थान पर प्रभाव पड़ता है। प्रथम तो बाधक को हानि पहुंचाने की जो भावना है, वह भी परिणाम में अपने पक्ष में कभी-कभार ही जा पाती है। संभव है जिसे हानि पहुंचाने का प्रयास किया जा रहा है, वही कल भिन्न अवसर पर अपने लिए उपयोगी सिद्ध हो। हमारी कामना-पूर्ति में वह बाधक बनता दीख रहा है, किंतु कल को वही कामना हमें महत्त्वहीन लग सकती है और किसी अधिक महत्त्वपूर्ण कामना में आज का बाधक सहायक के रूप में सामने आ सकता है।
इससे भी बड़ी बात यह है कि क्रोध में दुःख या हानि के कारण को नष्ट कर देने की या क्षतिग्रस्त कर देने की भावना इतनी तेजी से उमड़ती है कि अपनी भूल या दोष की ओर तो ध्यान ही नहीं जाता, जो करने जा रहे हैं, उसके परिणाम का भी विचार नहीं आ पाता। ऐसी स्थिति में कई बार पूर्व में हो गई हानि के साथ ही क्रोध में किए कामों से बड़ी हानि हो जाती है। जैसे कोई सुने कि उसका शत्रु 10-12 लठैतों के साथ उसे मारने आ रहा है और वह चट क्रुद्ध होकर उस शत्रु को मारने अकेला दौड़ पड़े, बिना शत्रु की शक्ति का विचार एवं अपनी सुरक्षा की व्यवस्था किए, तो परिणाम में उसे ही प्राण गंवाने पड़ सकते हैं। बाधक को हानि पहुंचाने की इस भावना में जब अपनी मर्यादाओं को भुलाकर व्यक्ति कुछ कर गुजरने को तैयार हो जाता है, तो प्रायः अपनी हानि ही उसे सहनी-उठानी पड़ती है।
क्रोध मन को उत्तेजित और खिंची हुई अवस्था में रख देता है। इससे शरीर में भी तनाव आ जाता है, रक्त-संचालन तीव्र हो उठता है और अनावश्यक गरमी शरीर में आ जाती है, विचार-शक्ति शिथिल हो जाती है। तीव्र रक्त-संचालन से चेहरा तमतमा उठता है, होठ फड़कने लगते हैं, आंखें लाल हो उठती हैं। भीतरी अवयवों पर भी ऐसा ही अनिष्ट और दूषित प्रभाव पड़ता है। हृदय-स्पंदन तेज हो जाता है, आंतों का पानी गरमी में सूखने लगता है। पाचन-क्रिया शिथिल पड़ जाती है, रक्त में एक प्रकार का विष उत्पन्न होता है, जो जीवनी शक्ति को क्षीण कर देता है। एड्रीनल ग्रंथियों से क्रोध की स्थिति में जो हारमोन्स स्रवित होते हैं, वे रक्त के साथ मिलकर जिगर में पहुंचते हैं और वहां जगे ग्लाइकोजन को शर्करा में बदल देते हैं। यह अतिरिक्त शक्कर शरीर पर विद्यातक प्रभाव डालती है। इस प्रकार क्रोध से बाधक-तत्त्व की हानि हो या नहीं अपनी हानि अवश्य होती है। क्रोध के कारण की तो कोई क्षति कभी-कभी ही होती है, क्रोधी व्यक्ति की स्वयं की क्षति हर बार होती है।
फिर कामनाएं भी बहुरंगी होती हैं। किसी की प्रत्येक कामना की पूर्ति असंभव तो है ही अनुचित भी है, क्योंकि उनमें से कई दूसरी कामनाओं के विरुद्ध होती हैं। किसी एक की सब कामनाएं पूरी हो जाने का वरदान यदि मिल जाए, तो उसमें अनेकों की अनेक कामनाएं विफल होने का शाप भी सम्मिलित होना चाहिए। इसलिए अपने प्रत्येक कामना-पूर्ति को आवश्यक मानने और उसमें बाधा होते ही क्रोध से भड़क उठने की मनःस्थिति को अपरिपक्व और क्षुद्र ही कहा जाएगा। फिर उस क्रोध की प्रतिक्रिया में औरों का भी क्रोध भड़क उठने की संभावना और उस संभावना के परिणामों का सामना करने को भी तैयार रहना चाहिए।
क्रोध के अधिकांश कारण तो अत्यंत सामान्य व छोटे होते हैं। कई बार तो वे सर्वथा आधारहीन ही दिखाई पड़ते हैं। ऐसे भी समाचार सुनने में आते रहते हैं कि किसी छोटे फल वाले से उधार फल मांगे या रिक्शे वाले से मुफ्त में बैठाकर घुमाने को कहा और पहले के पैसे बाकी होने से फल वाले ने अथवा आजीविका में व्यस्त रिक्शे वाले ने नाही कर दी तो क्रोध में उनकी ऐसी पिटाई की गई कि वे मर ही गए। यह अविवेकी क्रोध और उन्मत्त अहंकार के स्वाभाविक किंतु भयंकर परिणाम हैं। अपने इस क्षुद्र अहं और क्षणिक क्रोधोन्माद पर फांसी या आजीवन कारावास की सजा भुगतते हुए पछताने-रोने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं रहता। ऐसे घातक परिणामों को लक्ष्य कर ही यह कहा गया है कि क्रोधी ‘अंधा’ होता है। वह केवल उस ओर देखता है, जिसे वह दुःख का कारण या अपनी कामनाओं का बाधक समझता है। उसका नाश हो, उसे हानि, दुःख, कष्ट पहुंचे, यही क्रोधी का लक्ष्य होता है। वह लक्ष्य भी पूरा नहीं हो पाता, क्योंकि क्रोध एक अति वेगवान मनोविकार है। सोचने-विचारने का समय वह मस्तिष्क को देता ही कब है? वह तो आंधी-तूफान की तरह पूरे मनोजगत पर सहसा छा जाता है और अनर्थकारी कार्य संपन्न कराने के बाद ही हटता है। इसलिए तो ऋषि ने कहा है—
संचितस्यापि महती सा क्लेशेन मानवैः ।
यशसस्तपसश्चैव क्रोधो नाशकरः परः ।।
मनुष्य द्वारा बहुत प्रयत्नों से अर्जित यश और तप को भी क्रोध नष्ट कर डालता है। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में कहा है—
क्रोधः प्राणहरः शत्रुः क्रोधोऽमित्रमुखो रिपुः ।
क्रोधोऽस्ति महातीक्ष्णः सर्वं क्रोधोऽपकर्षति ।।
तपते यतते चैव यच्च दानं प्रयच्छति ।
क्रोधेन सर्वं हरिति तस्मात् क्रोधं विवर्जयत् ।।
‘‘क्रोध प्राणहारी शत्रु है, अमित्र-मुखधर बैरी है, एक तीक्ष्ण तलवार है, यह क्रोध सब प्रकार से गिराता ही है। मनुष्य जो तप, संयम, दान आदि करता है, उस सबका क्रोध हरण कर लेता है, इसलिए क्रोध का परित्याग कर देना चाहिए।’’
यह तो बाधक-तत्त्व को हानि पहुंचाने की उत्तेजना उत्पन्न करने वाले क्रोध के दुष्परिणाम हैं। जब क्रुद्ध मनःस्थिति के संपर्क में आए अन्य व्यक्तियों के प्रति रोषपूर्ण व्यवहार किया जाता है, तब वह तो सर्वथा अनुचित एवं अन्यायपूर्ण होता है। उसका परिणाम भी अधिक हानिकारक होता है। जिसे यों अकारण अपमानित किया गया है, उसके मन में अपमान का यह शूल निरंतर चुभता रहता है और उसका परिणाम हर प्रकार से अशुभ ही होता है। दफ्तर से बिगड़कर आया बाबू पत्नी को पीटकर दांपत्य-सुख में आग लगाता है, बाहर का क्रोध घर के नौकर पर उतारने वाले क्षुब्ध नौकर द्वारा छिपकर की जाने वाली चोरी, लापरवाही व क्षति को भोगते हैं। क्रुद्ध मनःस्थिति में मित्रों-परिचितों से दुर्व्यवहार करने वालों को मैत्री सुख और परिचितों की सहानुभूति से वंचित रहना पड़ता है। साथ ही निंदा व तिरस्कार भी सहना पड़ता है।
क्रोधी मनुष्य दूसरे के समर्थ—शक्तिशाली होने पर जब अपने मंतव्य में सफल नहीं हो पाता, तो वह स्वयं अपने ऊपर वैसी ही क्रिया करने लगता है, जो वह दूसरों को हानि पहुंचाने के लिए करने की सोच रहा था। अपना सिर फोड़ने लगना, बाल नोंचने लगना, अंग-भंग और आत्महत्या तक कर बैठना ऐसी ही मनःस्थिति के परिणाम होते हैं।
इस प्रकार क्रोध सदैव हानिकारक ही सिद्ध होता है। यदि क्रोध आवेग के रूप में न हो, तब तो उससे कुछ प्रयोजन भी सिद्ध हो सकता है, किंतु प्रचंड भावावेग के रूप में वह सर्वनाशी ही सिद्ध होता है।
अनौचित्य को देखकर उत्पन्न होने वाले विवेक नियंत्रित क्रोध की बात भिन्न है। भारतीय मनीषियों ने उसे ‘मन्यु’ की संज्ञा दी है तथा दिव्यता का अंश बताया है। सामाजिक जीवन में वैसे क्रोध की जरूरत बराबर पड़ती है। दुष्टता जिनमें गहराई तक बैठ गई है, उनमें दया, विवेक आदि उत्पन्न करने में बहुत समय लगता है और तब तक वे अत्यधिक अनर्थ कर चुकते हैं। एक व्यक्ति के इस हृदय-परिवर्तन की चिर प्रतीक्षा में अनेकों के हृदय को पीड़ा पहुंचाने का क्रम सहा नहीं जा सकता। अतः उस पर क्रोध आवश्यक हो जाता है। वैसे लोक-कल्याणकारी क्रोध की—मन्यु की बात भिन्न है। उस क्रोध का जन्म उद्वेग उत्तेजना से नहीं, विवेक विचार से होता है। जन सामान्य के क्रोध में अपकार और उत्पीड़न की ही उग्रता होती है। यह क्रोध उत्तेजना और आवेश के रूप में ही उत्पन्न होता है। इससे सत्य-असत्य की विवेक-शक्ति दब जाती है और लड़ाई-झगड़ा, कटुता, मार-पीट के रूप में ही उनकी अभिव्यक्ति होती है। क्रोध का मन के दूसरे विकारों से घनिष्ठ संबंध है। अस्थिरता क्षणिता, कुंठा, उद्वेग, अहंकार, असहिष्णुता आदि उसके सहचर हैं। चिड़चिड़ापन कमजोर व्यक्तियों में उत्पन्न होने वाला क्रोध-आवेश ही है।
क्रोध के कारणों पर विचार किया जाए तो गलत जीवन-दृष्टि मन का विकृत अभ्यास तथा असात्त्विक आहार मुख्य कारण सिद्ध होते हैं। अतः क्रोधी प्रवृत्ति से मुक्ति के इच्छुक व्यक्तियों को आहार की सात्त्विकता पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए। साथ ही मन को यदि ऐसा अभ्यास पड़ गया है, तो उसके दुष्परिणामों पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए और सही जीवन दृष्टि अपनाने का यत्न एवं उद्योग करना चाहिए। क्रोध की बाह्य अभिव्यक्ति दबाकर मन-ही-मन लंबे समय तक सुलगते रहना ही ‘बैर’ है। यह बैर क्रोध से भी भयंकर हानियां उत्पन्न करता है।
क्रोध सदैव जल्दबाजी का परिणाम होता है। जब कोई गलत कार्य होता दीखे या कोई हानि हो जाए, तो उसके कारण का निश्चय करने में जल्दबाजी न करें। स्मरण करें कि पहले विचार-क्रम में बहुधा कारण खोजने में चूक हो जाती है। अतः अनुचित या हानिप्रद कार्य के घटना-स्थल के इधर-उधर हट जाएं, किसी सुरम्य उद्यान में टहलें या किसी प्रियजन के पास पहुंच जाएं। उससे स्नेहपूर्ण बार करें कुछ न हो सके, तो एक गिलास ठंडा पानी पीएं और क्रोध को शांत करें। इस आवेश को भड़कने देने में घाटा-ही-घाटा है। शमित करने में लाभ-ही-लाभ है। इसीलिए विश्व के समस्त धर्मशास्त्रों और नीतिग्रंथों में क्रोध को विनाशकारी और त्याज्य ही ठहराया गया है।
कई बार लगता है कि क्रोध उत्पन्न होने के लिए हम उतने जिम्मेदार नहीं हैं, जितनी कि परिस्थितियां। वैसी स्थिति में क्रोध पर नियंत्रण करने और उसके कारण उत्पन्न होने वाले तनाव से अपने आपको बचाए रखने के लिए क्या करना चाहिए? इस तरह की समस्याओं के मनोवैज्ञानिक समाधान सुझाते हुए अमेरिका के प्रसिद्ध मनोरोग चिकित्सक डॉ. जार्ज स्टीवन्स और डॉ. विन्सेड पील ने स्नायविक तनाव दूर करने के उपायों पर एक पुस्तक लिखी है—‘लाइफ, टेंशन एंड रिलेक्स।’ इस पुस्तक के प्रथम पृष्ठ पर सिद्धांत रूप में तीन वाक्य लिखे हैं—‘क्रोध आए तो किसी भी प्रकार के शारीरिक श्रम में लग जाओ। किसी काम का विपरीत परिणाम निकले तो स्वाध्याय या मनोरंजन में लग जाओ तथा शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए व्यायाम को अनिवार्य समझो।’
क्रोध के समान ही चिंता, दुःख, व्यथा और अन्यान्य संवेगों को नियंत्रित करना भी सीखना चाहिए। जीवन के प्रति संतुलित दृष्टिकोण अपनाने वाले व्यक्ति ही मानसिक संवेगों को तटस्थ या संतुलित भाव से ग्रहण कर सकते हैं। फिर भी किन्हीं अवसरों पर जब अनियंत्रित संवेग उत्पन्न होने लगे तो वैसी स्थिति में शरीर पर होने वाली प्रतिक्रियाओं को जबरदस्ती दबाना नहीं चाहिए। इन प्रभावों को भी संवेगों के भार से मुक्त करने का एक अचूक उपाय बताया गया है। न्यूयार्क के एक विश्वविख्यात मनोरोग, चिकित्सक डॉ. विलियम ब्रियान ने यह मत व्यक्त किया है कि—‘‘आंसू दुःख, चिंता, क्लेश व मानसिक आघातों से मुक्ति दिलाने तथा मन को हलका-फुलका बनाकर आकस्मिक हुई मनःव्यथाओं को सहने में सहायता पहुंचाते हैं।’’ अमेरिकी औरतों का उदाहरण देते हुए डॉ. ब्रियान ने कहा है कि मर्दो की अपेक्षा औरतों की लंबी आयु का रहस्य यह है कि वे खूब रोती हैं। वे ऐसी फिल्में देखने की शौकीन हैं, जिनमें बार-बार रोना आता है। इस तरह आंसू लाने से जीवन लंबा हो जाता है, क्योंकि रोने के कारण व्यक्ति की दबी हुई भावनाओं को बड़ी राहत मिलती है। रोने के कारण दमित भावनाओं के निष्कासन से हृदय के रोगों में भी लाभ पहुंचता है।
उत्तेजना निवारण का सर्वश्रेष्ठ उपाय यह है कि किसी भी माध्यम से उसे मनःसंस्थान से निष्कासित कर दिया जाए। इसका माध्यम अशालीन व्यवहार आक्रोश के रूप में तो न हो, परंतु संवेगात्मक दबाव अपने तक सीमित न रखे, उसे किसी मित्र हितैषी के साथ अथवा आत्मप्रतिवेदन के रूप में लिखकर मिटाया जा सकता है। समाज में सम्मान दिलाता है। स्वास्थ्य रूपी वरदान तो साथ मिलता ही है।