Books - मन के हारे हार है मन के जीते जीत
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
न खीजें—न उद्विग्न हों
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
सामान्यतः मनोयोग दिखाई नहीं पड़ते। उनकी हानि प्रत्यक्ष नहीं होती। ध्यान देने पर समझ आती है। साधारणतः तो ऐसा लगता है कि मानसिक रोगी ढीठता दिखाता है और उच्छृंखलता भर बरतता है। यह प्रतीत ही नहीं होता कि यह किसी विकृति से ग्रसित होने के कारण अपनी भौतिक क्षमता गंवाता और विकृतियों के दलदल में फंसता चला जा रहा है। जब रोग का आभास नहीं, तो उसका इलाज कौन करे? कई बार महिलाओं की बीमारियों को बहानेबाजी कहकर टाल दिया जाता है। मानसिक रोगों की बात तो इसीलिए भी उपेक्षा में पड़ी रहती है कि उनकी उपस्थिति की कोई जानकारी तक सर्वसाधारण को नहीं है। फिर भी यह एक तथ्य है कि मानसिक रोगों से मनुष्य समाज का अहित होता है व शारीरिक बीमारियों से होने वाली हानि की तुलना में किसी भी प्रकार कम भयंकर नहीं हैं। शरीर के पीड़ित या अपंग रहते संसार के असंख्य व्यक्तियों ने अति महत्त्वपूर्ण काम करने में सफलताएं पाई हैं, पर ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं हुआ, जो मानसिक दृष्टि से अपंग होने पर कुछ कहने लायक सफलता प्राप्त कर सका हो। सच तो यह है कि ऐसे लोग अपनी-अपनी जीवनयात्रा तक शांति और सम्मानपूर्वक पूरी नहीं कर पाते।
महर्षि अष्टावक्र आठ जगह से कुबड़े थे, चाणक्य को अति कुरूप कहा जाता है। सुकरात की कुरूपता भी प्रख्यात है। आद्य शंकराचार्य भगंदर के फोड़े से ग्रसित थे। सूरदास अंधे थे। कुमारी केलर गूंगी, बहरी और अंधी होते हुए भी अनेक भाषाओं और विषयों की स्नातक थी। ऐसे असंख्य प्रसंग हैं, जिनमें अस्पतालों के बिस्तरों पर पड़े-पड़े लोगों ने महान कृतियां तैयार की हैं। शरीर एक उपकरण है, पर मस्तिष्क की स्थिति सूत्र संचालक की है। मस्तिष्क लड़खड़ा जाने पर तो मनुष्य अपने और साथियों के लिए भार बन जाता है, जबकि अंधे और अपंग भी अपनी उपस्थिति से परिवार को कई तरह लाभान्वित करते रहते हैं।
पूर्ण पागलों की संख्या तो संसार में इस अनुपात में बढ़ रही है, जिसे देखते हुए संसार को सभी बीमारियों की दौड़ उससे पीछे रह गई है। फिरने वाले पागलों की संख्या और उनके द्वारा जनसाधारण की होने वाली असुविधा ऐसी है, जिसे दूर करने के लिए पागलखानों की बड़ी संख्या में आवश्यकता अनुभव की जा रही है। जेलखानों से भी अधिक पागलखानों के लिए स्थान बनें, तब उपद्रवी पागलों द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले संकटों से बचा जा सकता है। अधपगले, सनकी, असंतुलित, अस्त-व्यस्त, अव्यवस्थित, अदूरदर्शी लोगों की संख्या तो इतनी बढ़ी-चढ़ी है कि मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से सही मनुष्यों की संख्या सामान्य आबादी का एक छोटा अंश ही मिल सकेगा। शारीरिक दृष्टि से जितने लोग रुग्ण हैं, मानसिक विकृतियों से ग्रसितों की संख्या उससे कम नहीं, अधिक ही मिलेगी। यह अधूरे और अस्त-व्यस्त मनुष्य मानव समाज की प्रगति एवं सुव्यवस्था में अवरोध ही कहे जा सकते हैं। खेद इस बात का है कि गरीबी, बीमारी, अशिक्षा, अपराधी, उद्दंडता से भी अधिक कष्टदायक और भयानक बढ़ती हुई विक्षिप्तता की हानि को समझने और उसकी रोकथाम करने के लिए प्रयत्न नहीं किया जा रहा है।
अपराध भी वस्तुतः इस प्रकार का आवेश है, जिन्हें मनुष्य एक प्रकार से उन्माद ग्रसित स्थिति में करता है। चोर, उचक्के अपने कुकृत्यों की कहानियां समझते हैं, उन पर पछताते भी हैं, भलमनसाहत के रास्ते पर चलने पर लोग कितनी उन्नति कर गए और कितने सम्मानित हुए यह तथ्य वे आंखों से देखते और कानों से सुनते हैं। दूसरे उन्हें समझाते और वे बात को समझते भी हैं कुछ समय उनका विवेक जाग्रत भी रहता है और भले आदमियों की तरह रहते भी हैं, फिर कभी ऐसी उमंग उठती है कि रोके नहीं रुकती, यहां तक कि व्यक्ति उस छोड़े हुए कार्य को करने के लिए एक प्रकार से विवश ही हो जाता है और फिर उसे कर ही गुजरता है। नशेबाजी की हालत भी प्रायः ऐसी ही होती है। बीड़ी-सिगरेट तो शौक-मौज के लिए भी चलती है, पर शराब, गांजा, भांग, चरस, अफीम की लत पड़ जाने से पैसे की, शरीर की, सम्मान की कितनी क्षति होती है, उसे वे प्रत्यक्ष देखते हैं, भली प्रकार से समझते हैं। छोड़ने के संकल्प-विकल्प रोज ही मन में उठते रहते हैं। समझाने पर लज्जित भी होते हैं और दुखी भी, पर अपने आपको विवश पाते हैं, कोई अंधड़ भीतर से ऐसा उठता है कि ज्ञान-विवेक को एक ओर पटककर वह करा लेता है, जिसे करने की कुछ भी आवश्यकता न थी। समाजशास्त्री इसे धृष्टता, दुष्टता आदि का नाम दे सकते हैं, पर मनःरोग शास्त्र की दृष्टि से यह उस व्यक्ति की असहाय स्थिति है। ठीक वैसी ही जैसी ज्वर या सिर दर्द से आक्रांत मनुष्य की होती है। अपराध करने की दिशा में जिनके मन मचलते रहते हैं, उन्हें मनःशास्त्र की भाषा में ‘सादू को पैथ’ कहा जाता है। विश्लेषण करने पर उनकी मनःस्थिति सामान्य लोगों जैसी नहीं होती, वरन् असामान्य और असंतुलित पाई जाती है।
मानसिक दृष्टि से संतुलन और सामंजस्य ही स्वस्थता का चिह्न है। मस्तिष्क के भीतर अगणित घटक हैं और वे एक-दूसरे के साथ सुसंबद्ध रहकर ही संयुक्त सहयोग से उत्पन्न क्षमता द्वारा अपने हिस्से से कार्य ठीक तरह पूरे कर पाते हैं। यदि उनकी सुसंबद्धता कहीं लड़खड़ाती है और तालमेल बिगड़ता है तो फिर चित्र-विचित्र प्रकार के छोटे-बड़े मानसिक रोग आरंभ हो जाते हैं। संतुलन के चार पक्ष हैं—(1) एफैक्ट—सतर्कता, सजगता, (2) थाट—विचार-प्रवाह, कल्पना, (3) बिहेवियर—व्यवहार, अभ्यास, (4) मूड—रुझान, उत्साह। इनमें से किसका संतुलन, किसके सम्मिश्रण क्षेत्र में कितनी मात्रा में गड़बड़ाया इसी आधार पर मनःरोगी के अनेक स्वरूप बनते और लक्षण प्रतीत होते हैं। इसके लक्षण इस प्रकार देखे जाते हैं—
(1) सतर्कता के अभाव में मनुष्य यह निर्णय नहीं कर पाता कि लोग उसकी क्रिया के बारे में क्या कहेंगे, क्या सोचेंगे? किस कार्य का परिणाम उसके लिए क्या होगा? अपनी मरजी ही उसे सब कुछ लगती है। लोगों की प्रतिक्रिया एवं क्रिया के परिणाम उसे सूझते ही नहीं। कल्पना की दौड़ दूर तक नहीं जाती। वर्तमान समय और अपना मन इन दो में ही वह उलझकर रह जाता है। फलतः ऐसे कृत्य करता है, जो उपहासास्पद भी होते हैं, बेतुके और हानिकारक भी, इनके करने से आर्थिक हानि भले ही उतनी न होती हो, पर दूसरे उसके अटपटेपन को देखकर उसे मंदगति या बालबुद्धि मान लेते हैं और उसके द्वारा किसी उत्तरदायित्व के निभाए जाने की आशा छोड़ देते हैं। शिष्टाचार का निर्वाह वह नहीं कर पाते। अटपटेपन से लोगों के लिए व्यंग्य-विनोद के माध्यम मात्र बने रहते हैं। लोग उन्हें कुछ उल्लू बनाने में, चिढ़ाने में रस लेकर अपना और दूसरों का मनोरंजन करते रहते हैं। सतर्कता-विहीन व्यक्ति इस बात से भी अपरिचित ही बने रहते हैं कि उनके बारे में क्या सोचा और क्या माना जाता है?
(2) विचार प्रवाह में गड़बड़ी पड़ जाने से कल्पनाएं अनियंत्रित हो जाती हैं। क्या सोचना उपयुक्त है क्या नहीं? क्या संभव है या असंभव? साधनों और परिस्थितियों का ज्ञान न रहने से वे अपनी हर कल्पना को सरलतापूर्वक संभव हो सकने योग्य मान बैठे रहते हैं। यह भी अनुमान नहीं लगा पाते कि इन कल्पनाओं को पूरा करने के लिए कितना समय लगेगा और क्या साधन जुटाने होंगे। कल्पना और असफलता के बीच वे किसी अंतर-अवरोध का अनुमान नहीं लगा पाते, फलतः पूरे लोक में विचरण करने वाले बालकों जैसी उनकी मनःस्थिति रहती है। बहुचर्चित शेखचिल्ली संभवतः इसी प्रकार के मनोरोगों से ग्रसित रहे होंगे। ऐसे लोग उलटा सोचने लगें, तो सामान्य दैनिक कृत्यों तक के लिए अपने को असमर्थ पाते हैं और दूसरों की सहायता बिना कुछ भी करने की हिम्मत गंवा देते हैं। नैतिक और अनैतिक, सामाजिक और असामाजिक चिंतन का अंतर झीना पड़ जाने से वे ऐसा सोचते और कहते पाए जाते हैं, जिससे सुनने वालों को भी लज्जा आती है।
(3) व्यवहार अनुमान तंत्र में गड़बड़ी होने से मनुष्य के लिए यह अनुमान लगाना कठिन पड़ता है कि दूसरे लोगों का व्यवहार उनके साथ कैसा और किस उद्देश्य से प्रेरित है। शत्रुओं को मित्रवत मानने का पागलपन भी कई बार पाया जाता है। विशेषतः उठती हुई आयु की लड़कियां प्रेम-प्रसंग में इस प्रकार की मान्यताएं गढ़ लेती हैं, जिनमें कि हर दृष्टि से उनका अहित करने पर उतारू तथाकथित प्रेमी उन्हें अपना सर्वस्व दीखता है और उससे विरत होने की सीख किसी परम हितैषी की भी नहीं मानती, पर यह भूल प्रायः निषेधात्मक ही होती है। अमुक व्यक्ति अपने शत्रु बने हुए हैं, जादू-टोना कर रहे हैं। मारने, जहर देने, मिटा देने जैसे षड्यंत्र रचे हुए हैं, जैसी मान्यता बना लेते हैं और निरंतर भयभीत रहते हैं, कितनों को ही दुर्घटना, मृत्यु आक्रमण, हानि, विद्रोह, जेल आदि का भय सताता रहता है, ऐसे लोग यह भी निर्णय नहीं कर पाते कि किस कठिनाई का निराकरण किस प्रकार करना चाहिए; किन समस्याओं का समाधान किससे पूछना चाहिए, वे प्रधानमंत्री से छोटे अधिकारी तक अपनी फरियाद नहीं पहुंचाना चाहते हैं और उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना आए दिन उन्हें पत्र लिखते रहते हैं। दूसरे की स्थिति और क्षमता का भी उन्हें ठीक अंदाजा नहीं रहता और उनके संबंध में कुछ-न-कुछ मान्यता बना लेते हैं। इसी प्रकार अपने को भी कई बार कोई सिद्धपुरुष, नेता, विद्वान, राजा आदि मान बैठते हैं। इस वस्तुस्थिति का सही अनुमान न लगा पाने की मनःस्थिति वाले रोगियों को पैरेनोइया या मेंग्लोमोनिया से ग्रसित कहा जाता है। ऐसे लोग अपने संबंध में तथा समाज-संसार के संबंध में तरह-तरह के गलत अनुमान लगाते रहते हैं।
(4) मूड गड़बड़ाने से व्यक्ति नशेबाजी की स्थिति में चला जाता है, कभी तो पूरे उत्साह में प्रसन्नता में उन्हें पाया जाता है और अनावश्यक रूप से हंसते, जोश दिखाते, बड़ी-बड़ी आशाएं प्रकट करते और कभी चिंताओं और निराशाओं से इस कदर जा डूबते हैं, मानो आसमान इन्हीं के ऊपर टूट पड़ा या टूटने वाला है। कइयों को कोई भयंकर रोग शरीर में प्रवेश कर सकने की या निकट भविष्य में होने की आशंका बन जाती है। मनःचिकित्सक इस स्थिति को मेनियक डिप्रेसिव कहते हैं, इस स्तर के लोग कई बार चुनाव जीतने, लाटरी पाने, गढ़ा खजाना खोदने, सोना बनाने की ऐसी मान्यताएं अपने हाथ लिए फिरते हैं, मानो यह सफलताएं उन्हें जल्दी ही मिलने वाली हैं, देवी-देवताओं को वश में कर लेने की बात भी उनके मन पर ऐसी छाई रहती है, मानो अब उस बात में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं रही।
मस्तिष्क यंत्र को प्रकृति ने जितना उपयोगी बनाया है, उतना ही उत्तम सुरक्षा का प्रबंध भी किया है, खोपड़ी की हड्डी को मजबूत डिब्बी में संभालकर रखा गया है, उसके भीतर ही ऐसी व्यवस्था है, जहां छोटी-मोटी गड़बड़ी की पहुंच न हो सके, आमतौर से मस्तिष्क को सही सोचने का सही तरीका न मालूम होने से गड़बड़ी उत्पन्न होती है। अनाड़ी ड्राइवर के हाथ में सौंपी हुई मोटर की तथा अनभिज्ञ प्रयोक्ता के कारण कीमती कंप्यूटर की बरबादी ही होती है। वे उनसे सही काम तो ले नहीं पाते, यही बात मस्तिष्क के यंत्र के संबंध में भी है, वह जितना बहुमूल्य है, उतना ही प्रयोक्ता की कुशलता भी चाहता है। जीवन में भली-बुरी घटनाओं का प्रिय-अप्रिय प्रसंगों का ताना-बाना चलता ही रहता है। बात का बतंगड़ बनाकर यदि संतुलन गंवा दिया जाए, तो उससे आवेशपूर्ण स्थिति का दुष्परिणाम ही होगा। आवेशों और उत्तेजनाओं का मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव पड़ता है। कई बार न करने लायक कल्पनाएं करने और साधनों के अभाव में उनकी पूर्ति न हो सकने के कारण असफल रहने पर कई लोग बौखला जाते हैं और उस उत्तेजना की गरमी से मस्तिष्क की कोमलता को जला देते हैं, अनैतिक विचार अपनी प्रकृति के अनुसार स्वतः ही घातक होते हैं। ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, भय आदि का प्रभाव भी मनःसंस्थान पर बुरा पड़ता है। ये विकृतियां इसलिए उत्पन्न होती हैं कि मनुष्य को सही दृष्टिकोण अपनाकर समस्याओं परिस्थितियों के साथ तालमेल बैठाने का अनुभव अध्यात्म के तत्त्वज्ञान से जुड़ा हुआ है। यदि उसे अपनाया जा सके, तो संसार में फैले हुए पागलपन और असंतुलन से छुटकारा मिल सकता है।