Books - मन के हारे हार है मन के जीते जीत
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
विवेक से जुड़ी भावुकता ही श्रेयस्कर
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
मस्तिष्क यों हर प्राणी के शरीर में होता है, परंतु सभी प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य का मस्तिष्क ही सर्वथा विकसित है। उसके बल पर ही वह संसार के सभी प्राणियों से श्रेष्ठ सिद्ध हो सका है और उन पर अपना आधिपत्य जमा सका है। मोटेतौर पर मस्तिष्क के क्रिया-कलापों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है—स्मृति, चिंतन और भावनाएं। ये तीनों क्रियाएं क्रमशः प्रभावशाली, महत्त्वपूर्ण और जटिल होती हैं। आलोच्य विषय का संबंध भावनाओं से है, जो सभी मनुष्यों के मस्तिष्क में जन्मती हैं। स्मृति और विचार शक्ति की दृष्टि से कोई व्यक्ति कमजोर और बलवान होते हुए भी भावना क्षेत्र में कम-ज्यादा नहीं होता। वे सभी व्यक्तियों के मस्तिष्क में जन्म लेती और बढ़ती, प्रभाव उत्पन्न करती हैं।
वस्तुतः मनुष्य का सारा जीवन भावनाओं से ही संचालित होता है। दुःख और आनंद, घृणा और प्रेम, क्रोध और सहिष्णुता, कृपणता और उदारता संदेह और विश्वास आदि भावनाएं मस्तिष्क से ही उपजती हैं तथा मनुष्य की विभिन्न गतिविधियों को संचालित, प्रेरित करती हैं। भावनाओं के क्रीड़ा-केंद्र वाला मस्तिष्क का रूप अंतःकरण भी कहा जाता है। इन भावनाओं का मनुष्य जीवन पर, उसके शरीर स्वास्थ्य और मानसिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता है, यही मनोविज्ञान का विषय है।
शरीर और मनःस्थिति पर भावनाओं के प्रभाव को मुख्यतः दो भागों में समझा जा सकता है। पहले प्रकार की भावनाएं वे हैं, जिनके कारण शरीर के विभिन्न भाग अतिरिक्त रूप से उत्तेजित हो उठते हैं तथा दुःख क्षोभ से लेकर रोग बीमारियों जैसे विकार उत्पन्न होने लगते हैं। दूसरी श्रेणी में उन भावनाओं को रखा जा सकता है, जिनका प्रभाव मनःसंस्थान और शरीर पर अच्छा पड़ता है। पहली श्रेणी की भावनाओं में क्रोध, चिंता, भय, शोक, ईर्ष्या, द्वेष को रखा जा सकता है तथा दूसरी श्रेणी में आशा, उत्साह, विश्वास, प्रेम, साहस, प्रफुल्लता आदि भावनाओं को रखा जा सकता है।
पहले प्रकार की भावनाएं शरीर में रोग और मन में बुझाहट, के लक्षण पैदा कर देती हैं, जबकि वास्तव में शरीर में रोग का कोई कारण नहीं होता, लंबे समय तक अध्ययन, परीक्षण करने के बाद मनःशास्त्री और जीवशास्त्री इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वे स्नायुओं तथा नलिका-विहीन ग्रंथियों द्वारा शरीर को प्रभावित करती हैं। हमारे शरीर में दो प्रकार के स्नायु (नर्व्स) होते हैं, जिन्हें ऐच्छिक और अनैच्छिक स्नायु कहा जाता है, शरीर में भीतरी और बाहरी सभी क्रियाओं का संचालन स्नायुओं द्वारा ही होता है। ऐच्छिक स्नायु से हम अपनी इच्छानुसार काम लेते हैं—उठना, बैठना, चलना, किसी चीज को पकड़ना।
अनैच्छिक स्नायुओं द्वारा होने वाले कार्यों पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता। हृदय की धड़कन, फेफड़ों द्वारा श्वसन, पाचन, संवेदन, गुरदों की क्रिया आदि अनैच्छिक स्नायुओं द्वारा ही संपादित होते हैं। भावनाओं का प्रभाव इन्हीं स्नायुओं पर होता है। इन स्नायुओं का नियंत्रण निर्देशन, मस्तिष्क में स्थिति हाइपोथैल्मष केंद्र होता है।
प्रसिद्ध शरीरशास्त्री डॉ. बर्नहोर्ट का कहना है कि हाइपोथैल्मष केंद्र भावनाओं के प्रति बहुत संवेदनशील है। फलतः भावनाओं का प्राथमिक प्रभाव शरीर के किसी भाग में होने वाली पीड़ा के रूप में होता है। उदाहरण के लिए अत्यधिक चिंता के समय सिरदर्द होने लगता है। दुःखद घटना देखकर या समाचार सुनने पर चक्कर से आने लगते हैं। कोई भयावह दृश्य देखकर या अप्रत्याशित समाचार सुनकर हृदय की धड़कनें बढ़ जाती हैं। डॉ. बर्नहोर्ट का कहना है कि सिरदर्द के साथ-साथ गरदन का दर्द, छाती का दर्द, पेट, बाहों, छातियों, पिंडलियों आदि शरीर के किसी भी स्थान में होने वाले दर्द का अस्सी प्रतिशत कारण भावनाओं द्वारा ‘हाइपोथैल्मस’ नामक केंद्र का प्रभावित होना है।
पेशियों में उत्पन्न होने वाली पीड़ा के अतिरिक्त भावनाएं कई बार रक्तवाहिनी नलिकाओं को भी प्रभावित करती हैं। फलस्वरूप कई तरह के रक्त विकार उत्पन्न हो जाते हैं। पित्ती उछलना, खुजली लगना और यहां तक कि चिंता और परेशानी के कारण एग्जिमा जैसा चर्म रोग होने के तथ्य भी प्रकाश में आए हैं।
यह आवश्यक नहीं है कि भावनाओं के प्रभाव से कोई एक प्रकार का लक्षण ही उत्पन्न हो। कई बार भिन्न-भिन्न प्रकार के लक्षण भी देखे जाते हैं। डॉ. जे. रेमंड ने अपनी पुस्तक ‘डिसीज एंड रीजन’ में लिखा है—‘‘मेरे पास कई बार ऐसे रोगी आते हैं, जो तरह-तरह की शिकायतें करते हैं। कोई कहता है कि मुझे भूख नहीं लगती, किसी की तबीयत गिरी पड़ी रहती है, कोई लगातार थकावट महसूस करता है, किसी का काम में मन नहीं लगता। मैं सभी लोगों की जांच करता हूं। अधिकांशों के शरीर में रोग का कोई कारण नहीं होता। फिर मैं उनके रोजमर्रा के जीवन, पारिवारिक स्थिति आदि के बारे में पूछने लगता हूं। इससे वे कुछ आत्मीयता अनुभव करते हैं और अपनी समस्याएं तथा कठिनाइयां मुझे बताने लगते हैं, वहीं मैं उनके रोग का कारण पकड़ लेता हूं। प्रायः ऐसे व्यक्ति चिंताओं, परेशानियों, समस्याओं, शंकाओं, संदेहों और कितने ही भयों से लदे रहते हैं। उनका यह भावना-क्षोभ ही उनके रोग का वास्तविक कारण होता है।
भावनाएं स्नायुओं के अलावा शरीर को एक-दूसरे ढंग से भी प्रभावित करती हैं। शरीर के रक्त में कई तत्व विभिन्न नलिका-विहिन ग्रंथियों द्वारा मिलते रहते हैं। इन ग्रंथियों का पता डॉ. स्टीनाक ने सर्वप्रथम 1920 में लगाया और अपने शोध परिणाम प्रकाशित किए। इन नलिका-विहीन ग्रंथियों जिन्हें ‘एंडोक्राइमग्लैंडस्’ भी कहा जाता है—की खोज से मानव शरीर के अध्ययन में एक नया अध्याय खुला। पूरे शरीर में ये ग्रंथियां सात प्रकार की हैं, जिन्हें पिट्यूटरी, थायरायड, पेराथायरायड, पैंक्रियाज, गोनड्स थायमस और एड्रेनल्स ग्लैंड्स कहा जाता है।
ये ग्रंथियां शरीर के विकास, यौवन और शक्ति को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भाग लेती हैं। इनके द्वारा शरीर के साथ महत्त्वपूर्ण केंद्रों पर एक विशेष स्राव (हारमोन्स) रक्त में मिलाया जाता है, जो शरीर के अंग-प्रत्यंग में पहुंचकर उन्हें प्रभावित करता है। इन ग्रंथियों द्वारा स्रवित होने वाले (हारमोन्स) बारह प्रकार के होते हैं। इस विश्लेषण में अधिक जानने की आवश्यकता नहीं है। इतना ही जानना पर्याप्त होगा कि मनुष्य का पूरा शरीर और व्यक्तित्व हारमोन्स द्वारा प्रभावित होता है। शरीर जब किसी रोग के या कीटाणु के संक्रमण का शिकार होता है, तो उन ग्रंथियों से कुछ ऐसे हारमोन्स निकलते हैं, जो रक्त कणों में उनसे लड़ने की शक्ति पैदा करते हैं और स्वयं भी कीटाणुओं से संघर्ष करते हैं, फलतः रोग की अवस्था में शरीर एक युद्धभूमि बन जाता है। इसी कारण बेचैनी, क्षोभ और अशांति का अनुभव होने लगता है। चिंता, भय और परेशानियों के समय ‘एंडोक्राइम ग्लैंड्स’ उन्हीं हारमोन्स को स्रवित करने लगता है। संघर्ष उनका स्वभाव है, इसलिए कोई कीटाणु न मिलने पर वे रक्त में विद्यमान रक्षक तत्त्वों को ही चट करने लगते हैं। फलतः इन भावनाओं के कारण बेचैनी, परेशानी और कष्ट तो होता ही है, शरीर में रोगों को आमंत्रण भी मिलता है, क्योंकि शरीर की रक्षा-पंक्ति दुर्बल पड़ जाती है। परिणामस्वरूप शरीर कभी भी रोग का शिकार हो जाता है।
इस प्रकार की भावनाओं से कुसंस्कारी मन और विकृत धारणाओं की उपज होती है। किसी भी वस्तु या घटना को उसके सही परिप्रेक्ष्य में न दीखने, जरा-सी अप्रिय घटना को भी अपने लिए बहुत बड़ा संकट मान लेने, अत्यधिक आत्मकेंद्रित और स्वार्थपरायण जीवन व्यतीत करने के कारण इस प्रकार की दुःखद भावनाएं व्यक्ति के मस्तिष्क में घर कर जाती हैं और वहां अपना अड्डा बना लेती हैं।
इसके विपरीत वस्तुओं तथा घटनाओं को उनके यथार्थ संदर्भ में देखने और सही ढंग से सोचने-समझने की आदत व्यक्ति में मंगलमय और सुखद भावनाओं को जन्म देती हैं। इसी रीति-नीति को अपनाने, चिंतन पद्धति का अभ्यास होने के बाद स्वभाव में सम्मिलित सुखद भावनाएं सब ओर से सुख-शांति की वर्षा करती हैं। आशा, उत्साह, प्रफुल्लता और प्रेम के समय ये अंतःस्रावी ग्रंथियां कुछ दूसरे ही प्रकार के हारमोन्स निकालती हैं, परिणामस्वरूप उन क्षणों में शरीर को एक विशेष सुखद आभास की अनुभूति होती है। दुःखद भावनाओं के प्रभाव को प्रत्यक्ष देखना हो तो एक क्रोधित मनुष्य के चेहरे और हाव-भाव से देखा जा सकता है। मनुष्य जब क्रुद्ध होता है, तो उसका चेहरा लाल हो जाता है, आंखों के पलक चौड़े पड़ जाते हैं, नेत्रों की सफेद पुतलियां सुर्ख हो उठती हैं, होठ भिंच जाते हैं, जबड़ा जकड़ जाता है, हाथों की मुट्ठियां भिंच जाती हैं और शरीर कांपने लगता है। किसी हद तक उसकी आवाज भी अस्वाभाविक होने और लड़खड़ाने लगती है।
शरीर की स्वाभाविक स्थिति में होने वाले ये परिवर्तन तो बाहरी हैं। इनके कारण तो भीतर होने वाले परिवर्तनों में विद्यमान रहते हैं, जो इनसे अधिक और घातक होते हैं। आवेश के समय शरीर के भीतरी अंगों में कई परिवर्तन होने लगते हैं, जैसे सारे शरीर के खून में जमने की शक्ति बढ़ जाती है। प्रकृति इस प्रकार जीवन-रक्षा की पूर्व व्यवस्था करने लगती है। प्रकृति किन उपायों द्वारा जीवन की रक्षा के प्रयत्न करती है, यह जानकर विस्मय-विमुग्ध हो जाना पड़ता है। खून जमने की क्रिया प्रकृति का एक रक्षात्मक उपाय है। क्रोध के समय लड़ाई होने और चोट लगने की बहुत संभावना रहती है। स्वाभाविक है कि चोट में खून भी बहेगा ही। प्रकृति खून में पहले से ही जमाव लाने लगती है, ताकि चोट लगने पर कम-से-कम खून बहे।
इसी प्रकार रक्त परिभ्रमण क्रिया में एक परिवर्तन यह भी आता है कि उस समय ‘श्वेत रक्त कण’ करोड़ों की संख्या में बह जाते हैं, जो घाव को भरने और विजातीय तत्त्वों को शरीर में प्रवेश न होने देने का काम करते हैं। क्रोध के समय पेट की पेशियां इतनी सख्ती से ऐंठन लगती हैं कि उसमें कोई चीज आगे न बढ़ने पाए। कुछ परिवर्तन इनसे भी गंभीर होते हैं, जैसे हृदय की गति तेज हो जाना और रक्त का दबाव बढ़ जाना। प्रकृति के ये सारे उपाय क्रोध के समय बाहरी अथवा भीतरी कारणों से होने वाली क्षति को रोकने के लिए रक्षात्मक उपाय ही हैं, परंतु यही उपाय कई बार घातक सिद्ध हो जाते हैं। रक्तचाप व हृदय की गति बढ़ जाने के कारण कई बार क्रोधित व्यक्ति तुरंत काल के ग्रास बन जाते हैं। रक्त में होने वाले परिवर्तन के कारण मस्तिष्क की रक्तवाहिनी नस फट सकती है।
भावनाएं हर दृष्टि से जरूरी हैं। बिना सरस भाव-संवेदनाओं के मानव जीवन कैसा? परंतु अतिभावुक व्यक्ति तो एक प्रकार का मनःरोगी ही होता है। मनुष्य का सारा जीवन भावनाओं का ही खेल है। इस तंत्र का सदैव विवेक युक्त सुनियोजन हो—विकृति न आने पाए, यह ध्यान रखा जाना अत्यंत अनिवार्य है।