Books - नारी अभ्युदय का नवयुग
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Language: HINDI
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नारी की शाश्वत गरिमा—नये संदर्भ में
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पतझड़ के बाद फल-फूलों से लदा वसन्त भी आकर रहता है। तवे सी जलती ग्रीष्म ज्यादा दिन नहीं ठहरती। उसके बाद ही घटाटोप बरसने वाली वर्षा आ धमकती और जल-जंगल एक कर देती है। धूल भरे अन्धड़ चलने बन्द हो जाते हैं और उनके स्थान पर हरीतिमा की सुविस्तृत मखमली चादर बिछ जाती है। इतने बड़े परिवर्तन, मानवीय परिवर्तन की दृष्टि से भले ही कठिन लगते हों, पर उन नियन्ता के लिए तो सब कुछ सम्भव है, जिसने इतनी विचित्रताओं से भरा-पूरा ब्रह्माण्ड रचकर रख दिया है। भगवान मनुष्य नहीं है, जिसकी इच्छाएं-आकांक्षाएं अधूरी बनी रहें। भगवान की सत्ता रात को दिन में बदल देने जैसे, बुद्धि द्वारा न सोचे जा सकने वाले चमत्कार पल-पल में प्रस्तुत कर सकती है। उसकी इच्छा और योजना जो भी कर के रख दे, वही कम है।
लम्बे समय से आधी जनसंख्या नारी के रूप में दुर्गतिग्रस्त स्थिति में पड़ी चली आ रही है। उसे क्रीतदासी की स्थिति में रहना पड़ रहा है। अधिकारों की दृष्टि से उसे मनुष्य और पशु का मध्यवर्त्ती प्राणी समझा जाता रहा है। जिसके लिए गुलामी कर्त्तव्य और घर जेलखाना बनकर रह गया। जीवन की सामान्य जरूरतों के लिए भी वह पुरुषों-अपने मालिकों पर आश्रित है।
अपना समय महान परिवर्तनों का पर्व है। पिछले ही दिनों देखते-देखते मुकुट धराशायी हो गए। सामन्तों का दब-दबा उठ गया। दास-दासियों का क्रय-विक्रय अब कहीं नहीं दिखाई पड़ता। शासन-सत्ता अब आश्चर्यजनक रूप से प्रज्ञा जनों के हाथ में पहुंचती जा रही है। अध्यात्म की ओर बढ़ते विज्ञान के चरण मनुष्य को नए सिरे से सोचने और नए क्रिया-कलापों के लिए बाधित कर रहे हैं। इन दोनों के सामंजस्यवादी स्वरों ने मानवता की नयी व्याख्या करनी शुरू कर दी है। इक्कीसवीं सदी में विनाश, विकास के रूप में पलटने जा रही है। समूची धारा उलटने जा रही है। इस अंधकार का समापन और अरुणोदय का स्वर्णिम अभ्युदय करने के लिए हर किसी को बाधित होना पड़े, तो इसे आश्चर्य नहीं मानना चाहिए। परिवर्तन की परम्परा को सृजन, विराम देने वाला नहीं है।
यहां चर्चा आधी जनसंख्या अर्थात् नारी की स्थिति बदलने के संदर्भ में चल रही है। इस सम्बन्ध में इतनी संभावना सुनिश्चित है कि इन्हीं दिनों एकता और समता का वातावरण बनने की उत्साहपूर्ण तैयारियां हो रही हैं। जाति और लिंग के नाम पर बरती जाने वाली असभ्यता को भी अब अवांछनीय और अनैतिक ठहराए जाने का समय आ गया है। ‘‘मुक्ति’’ का लक्ष्य अब धरती से पलायन कर किसी सुदूर लोक में वास करना नहीं है, वरन् जन-चेतना को रूढ़ियों, कुरीतियों और अज्ञान की कारा से छुड़ाकर, इसी धरती को स्वर्गादपि गरीयसी बनाना है। इस महान कार्य का सूत्र संचालन तो पर्दे के पीछे बैठा बाजीगर ही करेगा, पर हिलना-डुलना तो कठपुतलियों को ही पड़ेगा। श्रेय, जो अन्ततः उन्हीं को मिलना है।
अब न सिर्फ नारी के भाग्य में स्वतः की बेड़ियों से मुक्ति लिख दी गई है, वरन् विधाता ने उसे मुक्ति दूत बनने का गरिमा पूर्ण दायित्व भी सौंपा है। यह अपने युग का सुनिश्चित निर्धारण है। जो इन्हीं दिनों पूरा होने ही वाला है। इसका प्रसन्नतापूर्वक स्वागत करने में ही भलाई है। प्रवाह के प्रतिकूल चलने में झंझट मोल लेने के अलावा और कुछ हाथ आने वाला नहीं है।
नारी को उसकी गरिमा का भान कराने के लिए-साक्षियों, जीते-जागते उदाहरणों; जीवन-प्रसंगों की जानकारी कराना अनिवार्य है। आत्म-बोध दर्पण में अपना सही स्वरूप देखने पर ही हो पाता है। इतिहास बताता है कि प्राचीन काल से लेकर अब तक संसार के हर क्षेत्र में महिलाओं को जब भी अवसर मिला है, तभी उनने अपनी प्रभु प्रदत्त प्रतिभा का समुचित परिचय दिया है। इससे सिद्ध है कि उनकी मौलिक विशेषताओं में कभी कोई, अन्तर नहीं रहा। वे विवाहित हों अथवा अविवाहित, विधवा हों या परित्यक्ता, संतानों का बोझ ढोने की जगह समय की मांग को श्रेष्ठ समझा और पूरा किया है। अपनी पुरुषार्थ परायणता के बल पर वे पुरुषों का भी सम्बल बनीं, यहां तक कि उनसे बढ़-चढ़ कर अपने कर्म-कौशल का परिचय देती आयी हैं। प्रजनन की बेड़ी में खुद को न कस कर, कंधे से कंधा मिलाकर युगान्तरकारी कार्य किया है। चाहे वह समाज निर्माण हो, या राष्ट्र स्वाधीनता का क्रान्तिक्षेत्र, पिछड़ों को आगे बढ़ाने अथवा पुण्य-परमार्थ-लोकमंगल का क्षेत्र रहा हो, उनने अपनी भूमिका बखूबी निभाई है। ये वे जीती-जागती मिसालें हैं, जिनसे प्रेरणा लेकर आज की नारी स्वयं को बन्धन मुक्त कर अभ्युदय का पथ-प्रशस्त कर सकती है। यही भगवान की इच्छा भी है। इसे पूरा करने हेतु निजी उलझनों को एक कोने में रखकर प्रधानता इस बात को दें कि अपनी भूमिका असाधारण और सबसे अधिक बढ़-चढ़ कर हो। इसे कैसे किया जायेगा, इसी का जीवन्त मार्गदर्शन अगले पृष्ठों पर प्रस्तुत है।
श्रद्धा-सुमन भामती को समर्पित
मार्ग दिखाने वाले दीप का प्राण है—तेज। दूसरे के बिन पहला निर्जीव है। यों सभी प्रशंसा दीप की करते हैं, पर विवेकी जानते हैं कि बिखरता उजाला और कुछ नहीं, तेल के तिल-तिल जलने का परिणाम है; निज के अस्तित्व को खपाते जाने वाली तपश्चर्या है। तप का ऐसा ही मूर्तिमान स्वरूप थी ‘‘भामती’’। एक दिन जब वह पिता के साथ जा रही थी, देखा-कि बस्ती से थोड़ा हटकर बने कुटीर में एक कृशकाय सांवला युवक, लेखन में निरत है। वैभव के नाम पर जिसके पास कुछ फटे-पुराने वस्त्र, पुस्तकें, लेखनी, कागज, चटाई से अधिक कुछ नहीं।
जिज्ञासा बढ़ी, कौन है, क्यों जुटा रहता है? पिता से पूछने का आग्रह किया। पूछने पर पता चला—पंचानन वाचस्पति चिश्र नाम का यह युवक, अपने सम-सामयिक चिन्तन को दिशा सुझाने के लिए आकुल है। अनुभव, तर्क, तथ्य, प्रमाणों को संजोकर यह स्पष्ट करना चाहता है—कि सभी समान हैं—फिर विषमता की विडम्बना क्यों? आदि गुरु शंकर के एकता-समतावादी स्वरों में समय के अनुरूप नये प्राण फूंकना चाहता है। कार्य की महानता पर उसका हृदय भर आया। पर यह जीर्ण-काया, शीर्ण होते प्राण, हो सकेगा यह कार्य पूरा? मन में सन्देह उभरा। कैसे निर्वाह करता है? पूछने पर पता चला—दो-एक दिन में एक आध बार अंकुरित अनाज, भुने कंद खाकर ज्यों-त्यों पेट भर लेता है।
स्थिति साफ हो चुकी थी। भामती के संवेदनशील मन ने समाधान सोच लिया- चुक रहे प्राणों में अपने प्राणों का अर्पण। चाहे जो कष्ट सहना पड़े, पर विचारों को नव जीवन देने वाला यह अधूरा न रहेगा। इसकी सामाजिक स्वीकृति थी- विवाह। वर तलाश रहे पिता को अपने निश्चय की सूचना दी। सुनते ही वह अवाक् रह गए। ‘‘अरे यह क्या!’’ उस सनकी से विवाह! जिसे स्वयं अपना ध्यान नहीं, तुम्हारा क्या ध्यान रखेगा? स्वयं भूखा रहने वाला- तुम्हें क्या खिलाएगा? ऐसे रूप-रंग-विहीन, दुर्बल-काय व्यक्ति से सम्बन्ध? नहीं-नहीं यह न हो सकेगा।’’
‘‘पर यही होगा- पिताजी! विवाह भोगों के लिए नहीं, आदर्शों के लिए है। ब्राह्मण परम्परा जिन्दा रहे, समाज को राह सुझाने वाला मनीषी समाप्त न हो- इस हेतु यही निर्णय ठीक है। मेरा कार्य प्रतीक रूप में संसार के सामने उभरेगा- दूसरों को प्रेरणा मिलेगी।’’ बेटी के साहस, मनीषा की रक्षा के लिए उठती उमंग के सामने निरुत्तर हो कर पिता को आज्ञा देनी पड़ी।
विवाह होते ही- निर्वाह जुटाने, आवश्यक साधन एकत्रित करने की जिम्मेदारी उसने उठा ली। सारे सुयोग जुटने से ज्ञान-साधना में निरत वाचस्पति के प्राणों का नवीनीकरण होने लगा। आखिर प्रखर प्राण जो मिले थे। रस्सी बंटते, यज्ञोपवीत बनाते, चक्की पीसते वर्षों बीत गए। बचे हुए समय में ग्रामीण बालकों में शिक्षा और सुसंस्कारिता की पौध लगाती। आदर्शों की प्रखर लौ में मांगों और चाहत के पतंगे—जल-भुन चुके थे।
कभी की तरुणी अब वृद्धा थी- एक दिन बुझे दीपक को जलाते हुए देख- पंचानन ने पूछा- ‘आप?’
उत्तर मिला—आदर्शों के प्रतिपादन में निरत मनीषी की सहायिका। विवरण प्रकट हुआ, अतीत की घटनाएं सामने आ गयीं। पंचानन मिश्र का सिर-श्रद्धासिक्त हो नत था। उन्हें स्वीकारने पर विवश होना पड़ा। देवी! तुम्हारा कृतित्व मेरी अपेक्षा लाखों गुना श्रेष्ठ है। तुम्हारे प्राण संचार के अभाव में पंचानन न जाने कब का समाप्त हो गया होता। आदर्शों के लिए ऐसा मूक समर्पण? बाल संस्कारशाला और निर्वाह-व्यवस्था के दोहरे कार्य। भावों से अभिभूत हुए वाचस्पति ने कहा—‘‘देवी! अपने जीवन के इस सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का नाम—तुम्हारे ही नाम पर ‘भामती’ रखता हूं।’’
आदर्शों के प्रति समर्पित होने वाले नाम की चाहत नहीं रखते। कार्य पूरा हुआ- यही सब कुछ है। श्रद्धासिक्त स्वर में पंचानन ने कहा—‘‘तुम तो नाम से बहुत ऊपर हो, पर तुम्हारे नाम से प्रेरणा लेकर अनेकों नारियां अपने सृजन कौशल को उभार कर भामती बन सकेंगी।’’ अपनी सृजन शक्ति के बल पर एक भामती हजारों पंचानन वाचस्पति गढ़ सकती है। यदि ध्यान दिया जा सके, तो शरीर से न रहने पर भी भामती अभी भी प्रखर-प्रेरणा के रूप में अन्तराल में वैसा ही कुछ करने के लिए बेचैनी पैदा करती हुई दिखाई पड़ सकती है।
लम्बे समय से आधी जनसंख्या नारी के रूप में दुर्गतिग्रस्त स्थिति में पड़ी चली आ रही है। उसे क्रीतदासी की स्थिति में रहना पड़ रहा है। अधिकारों की दृष्टि से उसे मनुष्य और पशु का मध्यवर्त्ती प्राणी समझा जाता रहा है। जिसके लिए गुलामी कर्त्तव्य और घर जेलखाना बनकर रह गया। जीवन की सामान्य जरूरतों के लिए भी वह पुरुषों-अपने मालिकों पर आश्रित है।
अपना समय महान परिवर्तनों का पर्व है। पिछले ही दिनों देखते-देखते मुकुट धराशायी हो गए। सामन्तों का दब-दबा उठ गया। दास-दासियों का क्रय-विक्रय अब कहीं नहीं दिखाई पड़ता। शासन-सत्ता अब आश्चर्यजनक रूप से प्रज्ञा जनों के हाथ में पहुंचती जा रही है। अध्यात्म की ओर बढ़ते विज्ञान के चरण मनुष्य को नए सिरे से सोचने और नए क्रिया-कलापों के लिए बाधित कर रहे हैं। इन दोनों के सामंजस्यवादी स्वरों ने मानवता की नयी व्याख्या करनी शुरू कर दी है। इक्कीसवीं सदी में विनाश, विकास के रूप में पलटने जा रही है। समूची धारा उलटने जा रही है। इस अंधकार का समापन और अरुणोदय का स्वर्णिम अभ्युदय करने के लिए हर किसी को बाधित होना पड़े, तो इसे आश्चर्य नहीं मानना चाहिए। परिवर्तन की परम्परा को सृजन, विराम देने वाला नहीं है।
यहां चर्चा आधी जनसंख्या अर्थात् नारी की स्थिति बदलने के संदर्भ में चल रही है। इस सम्बन्ध में इतनी संभावना सुनिश्चित है कि इन्हीं दिनों एकता और समता का वातावरण बनने की उत्साहपूर्ण तैयारियां हो रही हैं। जाति और लिंग के नाम पर बरती जाने वाली असभ्यता को भी अब अवांछनीय और अनैतिक ठहराए जाने का समय आ गया है। ‘‘मुक्ति’’ का लक्ष्य अब धरती से पलायन कर किसी सुदूर लोक में वास करना नहीं है, वरन् जन-चेतना को रूढ़ियों, कुरीतियों और अज्ञान की कारा से छुड़ाकर, इसी धरती को स्वर्गादपि गरीयसी बनाना है। इस महान कार्य का सूत्र संचालन तो पर्दे के पीछे बैठा बाजीगर ही करेगा, पर हिलना-डुलना तो कठपुतलियों को ही पड़ेगा। श्रेय, जो अन्ततः उन्हीं को मिलना है।
अब न सिर्फ नारी के भाग्य में स्वतः की बेड़ियों से मुक्ति लिख दी गई है, वरन् विधाता ने उसे मुक्ति दूत बनने का गरिमा पूर्ण दायित्व भी सौंपा है। यह अपने युग का सुनिश्चित निर्धारण है। जो इन्हीं दिनों पूरा होने ही वाला है। इसका प्रसन्नतापूर्वक स्वागत करने में ही भलाई है। प्रवाह के प्रतिकूल चलने में झंझट मोल लेने के अलावा और कुछ हाथ आने वाला नहीं है।
नारी को उसकी गरिमा का भान कराने के लिए-साक्षियों, जीते-जागते उदाहरणों; जीवन-प्रसंगों की जानकारी कराना अनिवार्य है। आत्म-बोध दर्पण में अपना सही स्वरूप देखने पर ही हो पाता है। इतिहास बताता है कि प्राचीन काल से लेकर अब तक संसार के हर क्षेत्र में महिलाओं को जब भी अवसर मिला है, तभी उनने अपनी प्रभु प्रदत्त प्रतिभा का समुचित परिचय दिया है। इससे सिद्ध है कि उनकी मौलिक विशेषताओं में कभी कोई, अन्तर नहीं रहा। वे विवाहित हों अथवा अविवाहित, विधवा हों या परित्यक्ता, संतानों का बोझ ढोने की जगह समय की मांग को श्रेष्ठ समझा और पूरा किया है। अपनी पुरुषार्थ परायणता के बल पर वे पुरुषों का भी सम्बल बनीं, यहां तक कि उनसे बढ़-चढ़ कर अपने कर्म-कौशल का परिचय देती आयी हैं। प्रजनन की बेड़ी में खुद को न कस कर, कंधे से कंधा मिलाकर युगान्तरकारी कार्य किया है। चाहे वह समाज निर्माण हो, या राष्ट्र स्वाधीनता का क्रान्तिक्षेत्र, पिछड़ों को आगे बढ़ाने अथवा पुण्य-परमार्थ-लोकमंगल का क्षेत्र रहा हो, उनने अपनी भूमिका बखूबी निभाई है। ये वे जीती-जागती मिसालें हैं, जिनसे प्रेरणा लेकर आज की नारी स्वयं को बन्धन मुक्त कर अभ्युदय का पथ-प्रशस्त कर सकती है। यही भगवान की इच्छा भी है। इसे पूरा करने हेतु निजी उलझनों को एक कोने में रखकर प्रधानता इस बात को दें कि अपनी भूमिका असाधारण और सबसे अधिक बढ़-चढ़ कर हो। इसे कैसे किया जायेगा, इसी का जीवन्त मार्गदर्शन अगले पृष्ठों पर प्रस्तुत है।
श्रद्धा-सुमन भामती को समर्पित
मार्ग दिखाने वाले दीप का प्राण है—तेज। दूसरे के बिन पहला निर्जीव है। यों सभी प्रशंसा दीप की करते हैं, पर विवेकी जानते हैं कि बिखरता उजाला और कुछ नहीं, तेल के तिल-तिल जलने का परिणाम है; निज के अस्तित्व को खपाते जाने वाली तपश्चर्या है। तप का ऐसा ही मूर्तिमान स्वरूप थी ‘‘भामती’’। एक दिन जब वह पिता के साथ जा रही थी, देखा-कि बस्ती से थोड़ा हटकर बने कुटीर में एक कृशकाय सांवला युवक, लेखन में निरत है। वैभव के नाम पर जिसके पास कुछ फटे-पुराने वस्त्र, पुस्तकें, लेखनी, कागज, चटाई से अधिक कुछ नहीं।
जिज्ञासा बढ़ी, कौन है, क्यों जुटा रहता है? पिता से पूछने का आग्रह किया। पूछने पर पता चला—पंचानन वाचस्पति चिश्र नाम का यह युवक, अपने सम-सामयिक चिन्तन को दिशा सुझाने के लिए आकुल है। अनुभव, तर्क, तथ्य, प्रमाणों को संजोकर यह स्पष्ट करना चाहता है—कि सभी समान हैं—फिर विषमता की विडम्बना क्यों? आदि गुरु शंकर के एकता-समतावादी स्वरों में समय के अनुरूप नये प्राण फूंकना चाहता है। कार्य की महानता पर उसका हृदय भर आया। पर यह जीर्ण-काया, शीर्ण होते प्राण, हो सकेगा यह कार्य पूरा? मन में सन्देह उभरा। कैसे निर्वाह करता है? पूछने पर पता चला—दो-एक दिन में एक आध बार अंकुरित अनाज, भुने कंद खाकर ज्यों-त्यों पेट भर लेता है।
स्थिति साफ हो चुकी थी। भामती के संवेदनशील मन ने समाधान सोच लिया- चुक रहे प्राणों में अपने प्राणों का अर्पण। चाहे जो कष्ट सहना पड़े, पर विचारों को नव जीवन देने वाला यह अधूरा न रहेगा। इसकी सामाजिक स्वीकृति थी- विवाह। वर तलाश रहे पिता को अपने निश्चय की सूचना दी। सुनते ही वह अवाक् रह गए। ‘‘अरे यह क्या!’’ उस सनकी से विवाह! जिसे स्वयं अपना ध्यान नहीं, तुम्हारा क्या ध्यान रखेगा? स्वयं भूखा रहने वाला- तुम्हें क्या खिलाएगा? ऐसे रूप-रंग-विहीन, दुर्बल-काय व्यक्ति से सम्बन्ध? नहीं-नहीं यह न हो सकेगा।’’
‘‘पर यही होगा- पिताजी! विवाह भोगों के लिए नहीं, आदर्शों के लिए है। ब्राह्मण परम्परा जिन्दा रहे, समाज को राह सुझाने वाला मनीषी समाप्त न हो- इस हेतु यही निर्णय ठीक है। मेरा कार्य प्रतीक रूप में संसार के सामने उभरेगा- दूसरों को प्रेरणा मिलेगी।’’ बेटी के साहस, मनीषा की रक्षा के लिए उठती उमंग के सामने निरुत्तर हो कर पिता को आज्ञा देनी पड़ी।
विवाह होते ही- निर्वाह जुटाने, आवश्यक साधन एकत्रित करने की जिम्मेदारी उसने उठा ली। सारे सुयोग जुटने से ज्ञान-साधना में निरत वाचस्पति के प्राणों का नवीनीकरण होने लगा। आखिर प्रखर प्राण जो मिले थे। रस्सी बंटते, यज्ञोपवीत बनाते, चक्की पीसते वर्षों बीत गए। बचे हुए समय में ग्रामीण बालकों में शिक्षा और सुसंस्कारिता की पौध लगाती। आदर्शों की प्रखर लौ में मांगों और चाहत के पतंगे—जल-भुन चुके थे।
कभी की तरुणी अब वृद्धा थी- एक दिन बुझे दीपक को जलाते हुए देख- पंचानन ने पूछा- ‘आप?’
उत्तर मिला—आदर्शों के प्रतिपादन में निरत मनीषी की सहायिका। विवरण प्रकट हुआ, अतीत की घटनाएं सामने आ गयीं। पंचानन मिश्र का सिर-श्रद्धासिक्त हो नत था। उन्हें स्वीकारने पर विवश होना पड़ा। देवी! तुम्हारा कृतित्व मेरी अपेक्षा लाखों गुना श्रेष्ठ है। तुम्हारे प्राण संचार के अभाव में पंचानन न जाने कब का समाप्त हो गया होता। आदर्शों के लिए ऐसा मूक समर्पण? बाल संस्कारशाला और निर्वाह-व्यवस्था के दोहरे कार्य। भावों से अभिभूत हुए वाचस्पति ने कहा—‘‘देवी! अपने जीवन के इस सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का नाम—तुम्हारे ही नाम पर ‘भामती’ रखता हूं।’’
आदर्शों के प्रति समर्पित होने वाले नाम की चाहत नहीं रखते। कार्य पूरा हुआ- यही सब कुछ है। श्रद्धासिक्त स्वर में पंचानन ने कहा—‘‘तुम तो नाम से बहुत ऊपर हो, पर तुम्हारे नाम से प्रेरणा लेकर अनेकों नारियां अपने सृजन कौशल को उभार कर भामती बन सकेंगी।’’ अपनी सृजन शक्ति के बल पर एक भामती हजारों पंचानन वाचस्पति गढ़ सकती है। यदि ध्यान दिया जा सके, तो शरीर से न रहने पर भी भामती अभी भी प्रखर-प्रेरणा के रूप में अन्तराल में वैसा ही कुछ करने के लिए बेचैनी पैदा करती हुई दिखाई पड़ सकती है।