Books - नारी अभ्युदय का नवयुग
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Language: HINDI
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राजकुमारी की पर दुःखकातरता
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इसी कार्य में स्वयं को अर्पित किया राजकुमारी अमृतकौर ने। उन दिनों आसाम में बाढ़ का प्रकोप था। अपने ही देश के एक हिस्से में जन समूह भूखा-प्यासा तड़प रहा था, घर बह गये थे, दुर्दशा अपना वेग पूर्ण ताण्डव किए जा रही थी। दूसरी ओर रईस धनी-मानी समझा जाने वाला वर्ग राग-रंग, मौज-मस्ती में डूबा था। स्थिति की यह वीभत्सता देखकर कपूरथला राजघराने की नवयुवती का हृदय कांप उठा। उन्होंने जन भावनाएं जागृत करने के लिए आमरण अनशन शुरू करते हुए कहा—‘‘यदि मैं इस भूख-हड़ताल के कारण मर जाऊं, तो मेरे शव को किसी गड्ढे में फेंक दिया जाय; ताकि कुत्ते और गीध उसे खाकर अपनी भूख मिटा सकें। मेरी लाश पर कफ़न डालकर मेरी आत्मा पर बोझ न लादा जाय, क्योंकि बाढ़ से पीड़ित वे जीवित शरीर-धारी आत्माएं जब तक नंगी हैं, मृतदेह को मूल्यवान वस्त्रों से ढंकने पर क्या फायदा?’’
सोता हुआ जनमानस उनकी इस तपश्चर्या से जगा और आसाम की विपत्ति दूर हो सकी। पर 2 फरवरी 1889 को जन्मी कपूरथला महाराज की इस अकेली संतान ने अपने कार्य को विराम नहीं दिया। गांधीजी से मिलीं। सोलह वर्ष उनके साथ रहकर ग्रामीण महिलाओं की शिक्षा से लेकर बाल-विवाह आदि के विरोध में काम करती रहीं।
स्वयं के सुखों, यहां तक कि विवाह को भी ठुकरा दिया। सम्बन्धियों द्वारा विवाह के लिए दबाव देने पर उन्होंने कहा—विवाह और इस स्थिति में? क्या उस स्थिति में विवाह की कल्पना की जानी सम्भव है, जबकि अपने ही घर के स्वजन मृत्युशैया पर पीड़ा से व्याकुल हो? समूचा देश हमारा घर है और सारा समाज अपना स्वजन। जबतक ये कष्टों से घिरे हैं, पीड़ा और पतन के अन्धकार में भटक रहे हैं, तब तक विवाह की कल्पना ही त्याज्य है। वह आजीवन अविवाहित रहीं। गांधी जी द्वारा सौंपे गए नारी शिक्षा के कार्य को करते हुए 6 फरवरी 1967 ई. को सर्वत्र व्याप्त विराट् से एकात्म हो गयीं।
अपना सुख नहीं, सबका हित देखा
सबके हित में अपना हित त्यागने वाली ऐसी ही नवयुवती थी इवजलीन बूव। उसने जनहित में काम करने का पहला पाठ अपने पिता खरेण्ड विलियम से पढ़ा। उन्होंने समाज के भूखे, नंगे, उत्पीड़ित दलित व्यक्तियों को एकत्रित कर ‘मुक्ति सेना’ का गठन किया था। इस मुक्ति सेना का उद्देश्य अपने नाम के ही अनुरूप दुखित मानवों को कष्टों तथा कठिनाइयों से मुक्ति दिलाना था।
नन्हीं ‘इवा’ बचपन से देखती थी कि किस प्रकार उसके पिता के पास दुःखों के भार से कराहते हुए मानव आते तथा सन्तोष और सुख की सांस लेकर लौटते थे। एक दिन उसने पिता से पूछा—‘‘पिता जी आपके पास ऐसा क्या है? जिसके द्वारा आप दूसरों के दुःखों को दूर करते हैं’’।
‘‘मैं उन्हें अधिक कुछ नहीं सिर्फ विचार देता हूं। मानव; जीवन से निराश होता जा रहा है। कुण्ठा, अवसाद उसके मित्र बन गये हैं। ऐसा सिर्फ इसलिए, क्योंकि उसके पास चिन्तन नहीं है। उसे नहीं मालूम कि जिन्दगी को किस प्रकार जिया जाए। यदि यह मालूम हो सके, तो कम साधनों में भी प्रसन्नतापूर्वक जीवन व्यतीत किया जा सकता है। साथ ही ऐसा कुछ करना सम्भव हो सकेगा, जो स्तुत्य ठहराया जा सके।’’
बात समीचीन थी। बड़ी होते ही वह मुक्ति सेना की कप्तान बनी। अपना सम्पूर्ण श्रम, प्रतिभा, योग्यता, समस्त धन, अज्ञान में भटक रही मानव जाति को ज्ञान का प्रकाश दिखलाने के लिए अर्पित हो सके, इस कारण उसने पहला निश्चय किया कि मैं आजीवन अविवाहित रहूंगी।
सेवा योग के साधक के लिए विवाह शायद ही कभी सहायक रहा हो? क्योंकि इससे किसी न किसी अंश में क्षमताएं बिखरती, नष्ट होती हैं। उनका समूचा नियोजन सम्भव नहीं बन पड़ता। इवा को किसी प्रकार मानव हित में सारी शक्तियों का अर्पण करना ही था। त्याग और निष्ठा के बल पर मुक्ति सेना सर्वांगीण विकास की राह पर बढ़ने लगी। एक-एक करके तीस लाख व्यक्ति इस संगठन में मिले। निर्धन, भूखे आते तो थे भोजन आदि प्राप्त करने के लिए, परन्तु इस दल की सेवा, सहायता और परोपकारिता के प्रति इतने कृतज्ञ होते, कि अपना सम्पूर्ण जीवन दुःखी मानवों की सेवा में लगाने का संकल्प ले लेते।
उसके मार्ग में अनगिनत कठिनाइयां आयीं; अनेकों प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। धन कुबेरों से जब गरीबों के विकास के लिए रुपया मांगा जाता, तो वे अपमान करते। दुराचारी लोगों को जब उचित मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी जाती, तो वे उपदेशकर्त्ता पर ईंट-पत्थरों की वर्षा करने को तैयार हो जाते। नशाबन्दी के लिए जब कार्यकर्ता घूम-घूम कर प्रचार करते, तो होटलों के मालिक अपने वैयक्तिक स्वार्थों के वशीभूत होकर उन्हें मरवा डालने को भी तत्पर हो जाते।
परन्तु उसने अपनी मानवी सत्ता में निहित समूचे साहस के खजाने को एक साथ काम में लाना शुरू किया। बिना रुके, बिना थके, बिना मुड़े निरन्तर आगे बढ़ती ही गयीं। वस्तुतः मनुष्य कठिनाइयों में तप कर ही उत्कृष्ट, सौन्दर्ययुक्त और प्रभावशाली बनता है। जन-जन द्वारा पूजी जाने वाली मूर्ति पर पैनी छेनी की असंख्य चोटें पड़ती ही हैं।
बढ़ती प्रामाणिकता के अनुरूप उसने कार्यक्रम भी बढ़ाए। ‘‘ब्राइटर डे लीग; ‘‘आउट आफ लव लीग’’; सुसाइड ब्यूरो’’ आदि के माध्यम से मानवता के घावों पर मरहम लगाने लगीं। कार्य के स्वरूप भिन्न होते हुए भी उद्देश्य एक ही था; सोई हुई सृजन शक्ति को जागृत करना। इंग्लैण्ड, नार्वे-स्वीडन, डेनमार्क, फ्रांस आदि अनेकों जगहों पर इस दल की सक्रियता बढ़ी। इस सब का शक्ति-स्रोत था, इवजलीन का जागृत-संवेदनशील त्याग।
सोता हुआ जनमानस उनकी इस तपश्चर्या से जगा और आसाम की विपत्ति दूर हो सकी। पर 2 फरवरी 1889 को जन्मी कपूरथला महाराज की इस अकेली संतान ने अपने कार्य को विराम नहीं दिया। गांधीजी से मिलीं। सोलह वर्ष उनके साथ रहकर ग्रामीण महिलाओं की शिक्षा से लेकर बाल-विवाह आदि के विरोध में काम करती रहीं।
स्वयं के सुखों, यहां तक कि विवाह को भी ठुकरा दिया। सम्बन्धियों द्वारा विवाह के लिए दबाव देने पर उन्होंने कहा—विवाह और इस स्थिति में? क्या उस स्थिति में विवाह की कल्पना की जानी सम्भव है, जबकि अपने ही घर के स्वजन मृत्युशैया पर पीड़ा से व्याकुल हो? समूचा देश हमारा घर है और सारा समाज अपना स्वजन। जबतक ये कष्टों से घिरे हैं, पीड़ा और पतन के अन्धकार में भटक रहे हैं, तब तक विवाह की कल्पना ही त्याज्य है। वह आजीवन अविवाहित रहीं। गांधी जी द्वारा सौंपे गए नारी शिक्षा के कार्य को करते हुए 6 फरवरी 1967 ई. को सर्वत्र व्याप्त विराट् से एकात्म हो गयीं।
अपना सुख नहीं, सबका हित देखा
सबके हित में अपना हित त्यागने वाली ऐसी ही नवयुवती थी इवजलीन बूव। उसने जनहित में काम करने का पहला पाठ अपने पिता खरेण्ड विलियम से पढ़ा। उन्होंने समाज के भूखे, नंगे, उत्पीड़ित दलित व्यक्तियों को एकत्रित कर ‘मुक्ति सेना’ का गठन किया था। इस मुक्ति सेना का उद्देश्य अपने नाम के ही अनुरूप दुखित मानवों को कष्टों तथा कठिनाइयों से मुक्ति दिलाना था।
नन्हीं ‘इवा’ बचपन से देखती थी कि किस प्रकार उसके पिता के पास दुःखों के भार से कराहते हुए मानव आते तथा सन्तोष और सुख की सांस लेकर लौटते थे। एक दिन उसने पिता से पूछा—‘‘पिता जी आपके पास ऐसा क्या है? जिसके द्वारा आप दूसरों के दुःखों को दूर करते हैं’’।
‘‘मैं उन्हें अधिक कुछ नहीं सिर्फ विचार देता हूं। मानव; जीवन से निराश होता जा रहा है। कुण्ठा, अवसाद उसके मित्र बन गये हैं। ऐसा सिर्फ इसलिए, क्योंकि उसके पास चिन्तन नहीं है। उसे नहीं मालूम कि जिन्दगी को किस प्रकार जिया जाए। यदि यह मालूम हो सके, तो कम साधनों में भी प्रसन्नतापूर्वक जीवन व्यतीत किया जा सकता है। साथ ही ऐसा कुछ करना सम्भव हो सकेगा, जो स्तुत्य ठहराया जा सके।’’
बात समीचीन थी। बड़ी होते ही वह मुक्ति सेना की कप्तान बनी। अपना सम्पूर्ण श्रम, प्रतिभा, योग्यता, समस्त धन, अज्ञान में भटक रही मानव जाति को ज्ञान का प्रकाश दिखलाने के लिए अर्पित हो सके, इस कारण उसने पहला निश्चय किया कि मैं आजीवन अविवाहित रहूंगी।
सेवा योग के साधक के लिए विवाह शायद ही कभी सहायक रहा हो? क्योंकि इससे किसी न किसी अंश में क्षमताएं बिखरती, नष्ट होती हैं। उनका समूचा नियोजन सम्भव नहीं बन पड़ता। इवा को किसी प्रकार मानव हित में सारी शक्तियों का अर्पण करना ही था। त्याग और निष्ठा के बल पर मुक्ति सेना सर्वांगीण विकास की राह पर बढ़ने लगी। एक-एक करके तीस लाख व्यक्ति इस संगठन में मिले। निर्धन, भूखे आते तो थे भोजन आदि प्राप्त करने के लिए, परन्तु इस दल की सेवा, सहायता और परोपकारिता के प्रति इतने कृतज्ञ होते, कि अपना सम्पूर्ण जीवन दुःखी मानवों की सेवा में लगाने का संकल्प ले लेते।
उसके मार्ग में अनगिनत कठिनाइयां आयीं; अनेकों प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। धन कुबेरों से जब गरीबों के विकास के लिए रुपया मांगा जाता, तो वे अपमान करते। दुराचारी लोगों को जब उचित मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी जाती, तो वे उपदेशकर्त्ता पर ईंट-पत्थरों की वर्षा करने को तैयार हो जाते। नशाबन्दी के लिए जब कार्यकर्ता घूम-घूम कर प्रचार करते, तो होटलों के मालिक अपने वैयक्तिक स्वार्थों के वशीभूत होकर उन्हें मरवा डालने को भी तत्पर हो जाते।
परन्तु उसने अपनी मानवी सत्ता में निहित समूचे साहस के खजाने को एक साथ काम में लाना शुरू किया। बिना रुके, बिना थके, बिना मुड़े निरन्तर आगे बढ़ती ही गयीं। वस्तुतः मनुष्य कठिनाइयों में तप कर ही उत्कृष्ट, सौन्दर्ययुक्त और प्रभावशाली बनता है। जन-जन द्वारा पूजी जाने वाली मूर्ति पर पैनी छेनी की असंख्य चोटें पड़ती ही हैं।
बढ़ती प्रामाणिकता के अनुरूप उसने कार्यक्रम भी बढ़ाए। ‘‘ब्राइटर डे लीग; ‘‘आउट आफ लव लीग’’; सुसाइड ब्यूरो’’ आदि के माध्यम से मानवता के घावों पर मरहम लगाने लगीं। कार्य के स्वरूप भिन्न होते हुए भी उद्देश्य एक ही था; सोई हुई सृजन शक्ति को जागृत करना। इंग्लैण्ड, नार्वे-स्वीडन, डेनमार्क, फ्रांस आदि अनेकों जगहों पर इस दल की सक्रियता बढ़ी। इस सब का शक्ति-स्रोत था, इवजलीन का जागृत-संवेदनशील त्याग।