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Books - नारी अभ्युदय का नवयुग

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


पति को नहीं, समाज-देवता को वरीयता दी

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ओजस्विता जगे तो तब, जब बन्धन टूटें। ये यों ही नहीं टूट जाते—उन्हें बलपूर्वक तोड़ना पड़ता है। रूस के शर्नीगौव नामक स्थान में सन् 1844 ई. में जन्मी केथरीन ने इस कार्य को अपूर्व साहस के साथ पूरा किया। शुरू से वह शोषित वर्ग को उन्नत बनाने के स्वप्न देखतीं। हर समय यही चिन्तन करतीं कि दलित वर्ग ऊंचा उठाया जाय। पर इसी बीच पिता ने अपनी लाडली बिटिया की शादी एक सम्पन्न युवक से कर दी।
विवाह के कुछ ही दिनों बाद पति उसकी लोक सेवा में बाधक बनने लगा। वह नहीं चाहता था कि उसकी पत्नी सारे दिन घर से बाहर रहकर काम करती रहे। उसका मत था, पत्नी का मुख्य कार्य घर-गृहस्थी को संभालना और पति की सुख-सुविधा का ख्याल रखना है। सामाजिक क्रान्ति की झंझट में पड़ना नारी को उचित नहीं। वह केथरीन भी पति को समझाने का बहुत प्रयास करती, पर वह अपनी जिद पर अड़ा रहा।
इन्हीं दिनों उसे प्रिंस क्रोपार्टकिन से मिलने का सुयोग प्राप्त हुआ। उन्होंने दलित वर्ग की सेवा के लिए राज्य वैभव को लात मार दी थी। उन्होंने समझाया ‘‘कर्त्तव्य को समझो—तुम्हें दिखाई नहीं देता कि एक ओर वैभव का विलास है—कुत्तों को भी दूध से नहलाया जाता है—दूसरी ओर वह वर्ग है, जो सदियों से शोषण व पीड़ा का शिकार है। जिसे दोनों समय की रोटी और तन ढंकने के वस्त्र नसीब नहीं। इसे देख कर गरीबी के उत्पीड़न, भूख से सिसकते बालकों के करुण-क्रन्दन को सुनकर तुम्हारे अन्तस् में बेचैनी नहीं पैदा होती है?’’
‘‘होती है, पर करें क्या?’’
‘‘इस सबका कारण अज्ञान और विचारहीनता है कैथरीन। अपनी वैयक्तिक महत्वाकांक्षाओं में न उलझ कर इन दलित मानवों में सद्विचारों का आलोक फैलाओ। उनकी मार्गदर्शक बन, उन्हें उन्नति के शिखर तक पहुंचाओ। आवश्यकता चिन्तन में परिवर्तन की है, बाकी सब अपने आप सुधर जाएगा।’’
क्रोपार्टकिन की वाणी ने उसके मन में द्वन्द्व मचा दिया। एक ओर तो उन्हें पीड़ित मानवता के करुण स्वर पुकार रहे थे, दूसरी ओर पारिवारिक समस्याएं राक्षस की तरह मुंह-फाड़े उनके सामने खड़ी थीं। पति महोदय बार-बार धमकियां दे रहे थे कि यदि उन्होंने सामाजिक क्षेत्र में कार्य किया, तो उन्हें घर त्यागना होगा। इस स्थिति में वह किंकर्त्तव्य-विमूढ़ हो रही थीं। आश्रयहीन स्थिति, पति का क्रोध, पीड़ित मानवता की पुकार—भारी दबाव था। अन्ततः उन्होंने निर्णय ले ही लिया। ‘‘इस ‘कंटीली’ भयावह, दुष्कर समझी जाने वाली राह का अनुकरण करने वाली मैं सिर्फ अकेली तो नहीं हूं? मेरी जैसी अनेकों स्त्रियां हैं, जिन्होंने मानव हित के लिए पति के प्रेम और गार्हस्थिक सुखों को लात मार कर ठुकरा दिया है।’’ निर्णय के अनुरूप पति का परित्याग कर दिया।
विचारों के प्रसार के लिए वह अपने दो साथियों—कालेकिना और स्नेपनोविच के साथ एक गांव से दूसरे गांव—एक शहर से दूसरे शहर घूमती रहतीं। इससे पहले कठिन पैदल यात्रा का शरीर को अभ्यास था नहीं। चलते-चलते पैरों से खून बहने लगता। पीठ पर निरन्तर सामान बांधकर चलने से कमर में घाव हो गया। गांव में जब वे मैले-कुचैले बदबूदार कपड़ों वाले ग्रामवासियों के साथ भोजन करतीं, तो उन्हें मिचली आने लगती। पर प्रव्रज्या के इन कष्टों को सहना ही था। इसके बिना विचार कैसे फैलते?
अपनी इस प्रव्रज्या के दौरान उन्होंने बच्चों और बूढ़ों को शिक्षित बनाने के लिए गांवों में प्रशिक्षण केन्द्र खोले। पर सदियों से अज्ञानान्धकार में डूबी जन चेतना को प्रकाशित करना आसान न था। वह स्वयं एक स्थान पर लिखती हैं, मैंने उन कृषकों और बच्चों को बेवकूफ, बुद्धिहीन और अज्ञान के गर्त में पड़ा पाया। वे केवल अपनी मिट्टी की झोपड़ियां और जोतने वाली जमीन की ही बात सोचते हैं। सरकार के बारे में उन्हें सिर्फ इतना मालूम है कि शान्ति के दिनों में उन्हें टैक्स देना है और लड़ाई के दिनों में जिन्दगियां। इस स्थिति का मूल कारण असन्तुलित व्यक्तिवाद और सहानुभूति से वंचित बुद्धिवाद है। स्थिति तभी सुधरेगी जब इनमें विचारशीलता और संवेदनशीलता एक साथ जागृत हो।
उनके प्रयत्न इसी दिशा में थे। विरोधियों ने बदनाम करने के प्रयास किए, जेल भिजवा दिया। कुछ ही दिनों बाद वह छूटी और पुनः लोकमानस में नूतन चेतना भरने में जुट गयीं। अपने इस काम में जुटी वृद्धा कैथरीन से उसके सहयोगियों ने पूछा—‘‘क्या आपको अपने कार्य की सफलता पर विश्वास है।’’ उत्तर था—‘‘मेरे जीवन में तो शायद व्यापक सुधार न हो सके; पर एक महान युग दृष्टि-पथ में है। मैं अपने अन्तश्चक्षुओं से देख रही हूं—एक ऐसा, जिसमें सभी देश, राष्ट्र, जातियां भेद-भाव मिटाकर एक हो जाएंगे। इस कथन के थोड़े ही समय बाद उन्होंने भौतिक शरीर से विदा ली’’।
अबला नहीं, सर्वशक्तिमान कहिए
महान युग के निमार्ण के लिए स्वयं को महान बनाना पड़ता है। स्वार्थ को त्यागने वाले ही अग्रणी और लोक वरेण्य बनते आये हैं। ऐसे कामों के लिए साधनों की भरमार नहीं, अन्तस् की छटपटाहट चाहिए। पूना जिले के गांव ढमढेरे में 1889 में जन्मी माई हर्षे के अन्तर में यही उभरी। उन दिनों अल्प-आयु-विवाह हो जाता था। हर्षे भी इसी लोक प्रचलन में बंधी। कुछ ही दिनों बाद उनके पति का देहावसान हो गया। क्या करे? कैसे करे? बाल विधवाओं की दशा तो और शोचनीय थी। हर ओर से अपमान और तिरष्कार। उन्होंने भाई से कह कर अपनी शिक्षा का क्रम आगे बढ़ाया। विधवा पढ़ाई करे, भला यह किसे सहन होता? कई लोगों ने उनके भाई डॉ. बक्ले जी के पास पढ़ाई बन्द कराने को कहा। किसी ने घर पर रहकर पूजा-पाठ करने की सलाह दी।
इन सलाहों से दूर रह कर भाई के सहयोग से वह पढ़ती रहीं। सेवा सदन में रमाबाई रानाडे, काशीताई आदि से मिल कर समाज हित में अपने समर्पण का भाव जगा। शिक्षा समाप्ति के साथ कुछ दिनों विद्यालय का संचालन और अन्यान्य कार्य साथ-साथ निभाये। बाद में सर्वतोभावेन उसी में लग गईं। अपने घर पर ‘एक बालक मंदिर’ की स्थापना की। दूसरों द्वारा आलोचना और हतोत्साहित करने का क्रम भी चलता रहा। वह घर-घर पहुंच कर अपने उद्देश्य को समझातीं और अनुनय-विनय कर राजी करतीं। धीरे-धीरे कार्य का विस्तार होने लगा; फिर तो 5 मंदिर, 2 वाचनालय, सिलाई शिल्प कला केन्द्र सक्रिय हो उठे।
उन्होंने इन माध्यमों से नारी के सर्वांगीण विकास हेतु विचार देना शुरू किया। वह कहतीं ‘‘रोजगार तो कहीं मिल सकता है, हमारा उद्देश्य सिलाई और विद्यालय चलाना नहीं है, वरन् नारियों को आत्म-बोध कराना है।’’ वही महिला, जो विधवा कह कर अपमानित की जाती, असहाय समझी जाती, सेवा-भाव का विकास होते ही वट-वृक्ष जैसी विशाल हो गयी। उनके आश्रय में कितने ही अपंग, असहाय, अनाथ स्त्रियों, बालक-बालिकाओं ने नवजीवन पाया, जीवन का मर्म समझा। जनहित में कुछ कर गुजरने का भाव है ही विचित्र सम्पत्ति, जिसके जागते ही निराश्रय भी आश्रयदाता बन जाता है।
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