Books - पाँच प्राण-पाँच देव
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Language: HINDI
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बायोलाजिकल प्लाज्मा बाडी
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अंग्रेजी के प्रसिद्ध उपन्यासकार जार्ज एलन नॉट ने एक वैज्ञानिक उपन्यास लिखा है—‘जर्नीबाय’ अनवेज। उपन्यास में एलन नॉट ने एक ऐसे यान की कल्पना की है जिसमें नायक कुछ ही मिनटों में हजारों मील की यात्रा कर लेता है। यान प्रकाश की गति से चलता है और नायक यात्रियों को इच्छित स्थान पर उतार देता है। यह यान न किसी धातु का बना होता है और न ही इसमें कोई यन्त्र लगा होता है। बल्कि कुछ वैज्ञानिक अपनी संकल्प शक्ति से सूक्ष्म अणुओं को इस प्रकार जोड़ते हैं कि उसमें बैठकर यात्री भारहीन हो जाता है। यान चालक संकल्प करता है, अमुक जगह पहुंचना है और यान के सूक्ष्म यन्त्र चलने लगते हैं। चलने लगता है यह कहना भी गलत होगा क्योंकि कुछ ही पल में, इतनी शीघ्र कि लगता है तत्काल गन्तव्य स्थान पर खड़ा दिखाई देता है।
उपन्यास का कथानक कल्पना के ताने-बाने से बुना गया है और लगता है कि कल्पना असम्भव कल्पना है। परन्तु वुडलैण्ड (अमेरिका) के डॉक्टर जियो वर्नहाट ने एक ऐसा ही अनुभव किया जिसमें वे इच्छा मात्र से तुरन्त अपने गन्तव्य स्थान पर पहुंच गये। अपना अनुभव बताते हुए उन्होंने अमेरिका से प्रकाशित होने वाली परामनोविज्ञान की एक प्रसिद्ध पत्रिका में लिखा—‘‘उस समय मेरा पुत्र वियतनाम के मोर्चे पर गया था। सन् 1971 की घटना है। एक दिन मुझे बैठे-बैठे लगा कि मेरा पुत्र किसी खतरे में है और मुझे पुकार रहा है। इस आभास के साथ ही मुझे यह अनुभव भी हुआ कि मेरा शरीर हवा से भी हल्का हो गया है और मैं तुरन्त वुडलैण्ड से हजारों मील दूर उस अनजान स्थान पर पहुंच गया हूं जहां मेरा लड़का तैनात है।’’
वहां जाकर मैंने देखा चारों ओर आग लगी हुई है। जॉन एक तम्बू में फंसा हुआ है और उसके ऊपर लोहे का वजनी ट्रंक गिर पड़ा है जिसके नीचे वह दबा हुआ है। मैंने तुरन्त उस ट्रंक को जान के ऊपर से हटाया और तम्बू के बाहर ले जाकर उसे खड़ा कर दिया।
इसके बाद मुझे अपना शरीर पूर्ववत् हो गया लगा। आंखें खोलीं तो प्रतीत हुआ कि जैसे तन्द्रा टूट गयी हो। पास ही मेरी पत्नी बैठी मेरी नब्ज़ टटोल रही थी। मैंने पूछा—क्या हुआ? तो वह बोली मुझे ऐसा लगा जैसे आप एबनॉर्मल हैं। मैंने उसे अपना अनुभव सुनाया तो वह बोली आपने कोई दुःस्वप्न देखा होगा। परन्तु मुझे न जाने क्यों अपनी पत्नी की बात पर विश्वास नहीं हो रहा था। छह महीने बाद जब जॉन छुट्टी पर लौटा तो उसने युद्ध के अनुभव सुनाते समय एक अग्निकाण्ड में फंस जाने और वहां से चमत्कारी ढंग से निकल जाने की घटना सुनायी।
इस घटना के सम्बन्ध में वर्नहाट का विश्वास है कि दूरबोध द्वारा उक्त दुर्घटना की सूचना पाकर उनका सूक्ष्म शरीर ही जॉन को बचाने के लिए गया था। तो क्या सूक्ष्म शरीर से हर कहीं तत्क्षण पहुंचा जा सकता है। अध्यात्म विज्ञान इसका उत्तर ‘हां’ में देता है और विज्ञान का ध्यान भी इस तथ्य की ओर आकर्षित होने लगा है? ऐसी कई घटनाओं के विवरण संकलित किये जा चुके हैं जिनने में सूक्ष्म की शक्ति ही क्रियाशील दिखाई दी है।
सूक्ष्म देह स्थूल देह से अलग हो सकती है यह तो कई व्यक्तियों के अनुभव में आ चुका है। पिछले दिनों अमेरिका की विश्वविख्यात अभिनेत्री एलिजाबेथ टेलर का अनुभव प्रकाशित हुआ था। उसमें बताया गया था कि टेलर का कोई गम्भीर आपरेशन किया जाना था, टेलर को आपरेशन टेबल पर लिटाया गया और बेहोश किया गया। आपरेशन काफी समय तक चला और जब पूरा हो गया तो डाक्टरों का अकस्मात् ध्यान गया कि टेलर की काया निष्प्राण हो चुकी है। उसकी सांस भी बन्द हो गयी थी नाड़ी डूबती जा रही थी, हृदय भी बहुत धीरे-धीरे धड़क रहा था। काफी प्रयत्नों के बाद वह स्वस्थ हो सकी और जब वह स्वस्थ हुई तो उसने कहा—‘मैंने अपना आपरेशन अपनी आंखों से देखा है।’
टेलर तो बेहोश थी। भला अपना आपरेशन आप कैसे देख सकती थीं? डाक्टरों ने पूछा तो उसने बताया कि—‘तब मैं अपने शरीर को भी उसी प्रकार देख सकती थी जैसे कि किसी दूसरे का देख सकती हूं। सिर, चेहरा, मुंह नाक आदि सब कुछ। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मैं अपने शरीर के बाहर निकल आयी हूं और अपने शरीर को उस प्रकार देख रही हूं जैसे वह किसी दूसरे का शरीर हो, उस समय मैं अपने आपको बहुत हल्का-फुल्का अनुभव कर रही थी।
एलिजाबेथ टेलर कहीं उस समय स्वप्नों के सागर में तो नहीं खो गयी थी यह जांचने के लिए डाक्टरों ने कहा अच्छा आपरेशन के दौरान क्या-क्या हुआ यह बताइये। टेलर ने आपरेशन की प्रत्येक प्रक्रिया बता दी, यही नहीं डाक्टरों ने कौन-सी वस्तुएं आपरेशन के कौन से उपकरण किस क्रम से इस्तेमाल किये यह भी बता दिया। एलिजाबेथ ने यह भी बताया कि अमुक उपकरण यथास्थान उपलब्ध न होने के कारण प्रमुख सर्जन किस प्रकार झल्ला उठे थे और उन्होंने कौन-कौन से शब्द कहे थे।
इन अनुभूतियों को सुनकर एलिजाबेथ की बातों पर किसी को सन्देह न रहा। भारतीय अध्यात्म-दर्शन से परिचित व्यक्तियों के लिए यह घटना नितान्त सहज ही सकती है क्योंकि यहां स्थूल के अतिरिक्त सूक्ष्म और कारण शरीर का अस्तित्व भी सदा से स्वीकारा जाता रहा है परन्तु पश्चिम के लिए यह घटना चौंका देने वाली हो सकती है। ऐसी बात नहीं है कि पश्चिम में शरीर से परे आत्मा के अस्तित्व को कभी स्वीकारा ही नहीं गया हो। वहां भी जिन सन्त महात्माओं ने अध्यात्म विज्ञान की खोज की उन्होंने सूक्ष्म के अस्तित्व को स्वीकारा परन्तु आधुनिक पदार्थ विज्ञान ने उन बातों को अन्धविश्वास का फतवा देकर बुद्धिजीवियों के दिमाग से उन आस्थाओं को पोंछ-सा ही दिया। इसके बावजूद भी इस तरह की घटनायें घटती रही हैं। जिनके कारण पदार्थ विज्ञानियों को यह सोचने के लिए विवश होना पड़ा कि मनुष्य की चेतना स्थूल शरीर से बंधी हुई नहीं है। वह इच्छानुसार कहीं भी आ जा सकती है। प्रसिद्ध मनश्चिकित्सा विज्ञानी डा. थैमला मोस ने सिद्ध कर दिखाया है कि—‘कोई भी व्यक्ति अपनी चेतना को अपने शरीर से बाहर निकाल सकता है और पल भर में हजारों मील दूर जा सकता है।
शरीर के नियम बंधनों से मुक्त मानवी चेतना को प्रमाणित करने के लिए डा. मोस ने कई घटनाओं का उल्लेख किया है। उनमें से एक घटना सन् 1908 की है। ब्रिटेन के ‘हाउस आफ लार्डस’ का अधिवेशन चल रहा था। इस अधिवेशन में विरोधी दल ने सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव रखा था और उस दिन प्रस्ताव पर मत संग्रह किया जाना था। विरोधी पक्ष तगड़ा था अतः सरकार को बचाने के लिए सत्तारूढ़ दल के सभी सदस्यों का सदन में उपस्थित होना आवश्यक था। इधर सत्तारूढ़ दल के एक प्रतिष्ठित सदस्य सर कॉर्नराश गम्भीर रूप से बीमार पड़े हुए थे। उनकी स्थिति इस लायक भी नहीं थी कि वे शैया से उठकर चल फिर भी सकें। जबकि उनकी हार्विक आकांक्षा यह थी कि वे भी मतदान में भाग लें। उन्होंने डाक्टरों से बहुत कहा कि उन्हें किसी प्रकार मतदान के लिए सदन में ले जाया जाय परन्तु डॉक्टर अपने कर्त्तव्य से विवश थे। आखिर उनका जाना सम्भव न हो सका। परन्तु सदन में कई सदस्यों ने देखा कि सर कॉर्नराश अपने स्थान पर बैठे मतदान में भाग ले रहे हैं जबकि डाक्टरों का कहना था कि वे अपने बिस्तर से हिले तक नहीं।
एक दूसरी घटना का उल्लेख करते हुए डा. मोस ने लिखा है—‘‘ब्रिटिश कोलम्बिया विधान सभा का अधिवेशन विक्टोरियासिए में चल रहा था। उस समय एक विधायक चार्ल्सबुड बहुत बीमार थे, डाक्टरों को उनके बचने की उम्मीद नहीं थी, परन्तु उनकी उत्कट इच्छा थी कि वे अधिवेशन में भाग लें। डाक्टरों ने उन्हें बिस्तर से उठने के लिए भी मना कर दिया था और वे अपनी स्थिति से विवश बिस्तर पर लेटे थे। परन्तु सदन में सदस्यों ने देखा कि चार्ल्स विधान सभा में उपस्थित हैं। अधिवेशन की समाप्ति पर सदस्यों का जो चुपचाप फोटो लिया गया, उसमें चार्ल्सबुड भी विधान सभा की कार्यवाही में भाग लेने वाले सदस्यों के साथ उपस्थित थे।
विश्वविख्यात दार्शनिक, चिन्तक और मनोवैज्ञानिक डा. कार्लजुंग ने तो स्वयं एक बार सूक्ष्म शरीर के शरीर से बाहर आने का अनुभव किया था। उन्होंने ‘मेमोरीज ड्रीम्स एण्ड रिफ्लेक्शंस’ नामक पुस्तक में इस घटना का सविस्तार वर्णन किया है। घटना सन् 1944 की है। उस वर्ष जुंग को दिल का दौरा पड़ा। दौरा बहुत खतरनाक था और डॉक्टरों के अनुसार जुंग का मौत से आमना सामना हो रहा था। जुंग ने उस समय के अनुभव को इन शब्दों में लिखा है—‘जब मुझे दवा दी जा रही थी और प्राण रक्षा के लिए इन्जेक्शन लगाये जा रहे थे तब मुझे कई विचित्र अनुभव हुए। कहना मुश्किल है मैं उस समय अचेत था अथवा स्वप्न देख रहा था। पर मुझे यह स्पष्ट अनुभव हो रहा था कि मैं अन्तरिक्ष में लटका हुआ हूं और धुनी हुई रुई के गोलों की तरह हल्का-फुल्का हूं। मैं उस समय जहां था वहां से हजार मील दूर पर स्थित जेरूसलम शहर को इस प्रकार देख रहा था कि जैसे मैं विमान में बैठकर आकाश से नीचे झांक रहा हूं। इसके बाद मैं एक पूजागृह में प्रविष्ट हुआ। वहां मैंने अनुभव किया कि मैं इतिहास का कोई खण्ड हूं और कहीं भी आने जाने के लिए स्वतन्त्र हूं। तभी मेरे ऊपर कोई छाया सी मण्डराती दिखाई दी, उस छाया ने मुझसे कहा कि तुम्हें अपने भौतिक शरीर में प्रवेश कर जाना चाहिए। जैसे ही मैंने उस छाया के आदेश का पालन किया मैंने अनुभव किया कि मैं अब स्वतन्त्र नहीं हूं। परन्तु इस अनुभूति ने मुझे जो अन्तर्दृष्टि प्रदान की उसने मेरे सभी सन्देह समाप्त कर दिये तथा मैंने जान लिया कि जीवन की समाप्ति पर क्या होता है।’’
भौतिक विज्ञान पदार्थ का विश्लेषण करते-करते इस बिन्दु तक तो पहुंच ही गया है कि जिन्हें हम पदार्थ कहते हैं वह वस्तुतः कोई स्वतन्त्र इकाई नहीं है बल्कि किसी भी पदार्थ का छोटे से छोटा कण भी असंख्य सूक्ष्माति सूक्ष्म कणों का संघटक है। इन घटकों को अणु कहा जाता है। इससे आगे शोध करने पर वैज्ञानिकों ने चेतना के दर्शन आरम्भ किये हैं।
सन् 1968 में डा. वी. इन्यूशिन, बी. ग्रिस, चेको, एन. नोरोवोव एन. केरारोवा तथा गुवादुलिन आदि रूसी वैज्ञानिकों ने लम्बे समय तक अनुसंधान और प्रयोग करने के बाद घोषित किया कि जीव-जन्तुओं का शरीर मात्र भौतिक अणु-परमाणुओं से ही नहीं बना है बल्कि इसके अतिरिक्त एक ऊर्जा शरीर भी है।
वैज्ञानिकों ने इस शरीर को ‘द बायोलॉजिकल प्लाज्मा बॉडी’ नाम दिया है। इस शरीर के सम्बन्ध में यह बताया गया है कि यह केवल उत्तेजित विद्युत अणुओं से बने प्रारम्भिक जीवाणुओं के समूह का योग भर नहीं है वरन् एक व्यवस्थित तथा स्वचालित घटक हैं जो अपना स्वयं का चुम्बकीय क्षेत्र निःसृत करता है। अध्यात्म विज्ञान ने चेतना को स्थूल की पकड़ से सर्वथा परे बताया है उसे केवल अनुभव ही किया जा सकता है। फिर भी प्राणियों का शरीर निर्मित करने वाले घटकों का जितना विवेचन, विश्लेषण अभी तक हुआ है, उससे प्रतीत होता है कि आज नहीं तो कल विज्ञान भी इस तथ्य को अनुभव कर सकेगा कि चेतना को स्थूल यन्त्रों से नहीं, विकसित चेतना के माध्यम से ही अनुभव किया जा सकेगा।
‘द बायोलॉजिकल प्लाज्मा बॉडी’ का अध्ययन करते हुए वैज्ञानिकों ने उसके तत्वों का भी विश्लेषण किया। बायोप्लाज्मा की संरचना और कार्यविधि का अध्ययन करने के लिए सोवियत वैज्ञानिकों ने कई प्रयोग किये और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि बायोप्लाज्मा का मूल स्थान मस्तिष्क है और यह तत्व मस्तिष्क में ही सर्वाधिक सघन अवस्था में पाया जाता है तथा सुषुम्ना नाड़ी और स्नायविक कोशाओं में सर्वाधिक सक्रिय रहता है।
शास्त्रकार ने इस शरीर की तुलना एक ऐसे वृक्ष से की है जिसकी जड़ें ऊपर और शाखायें नीचे की ओर हैं। जिस प्राण ऊर्जा के अस्तित्व को वैज्ञानिकों ने अनुभव किया वह आत्मचेतना नहीं है बल्कि सूक्ष्म शरीर के स्तर की ही शक्ति है जिसे मनुष्य शरीर की विद्युतीय ऊर्जा भी कहा जाता है यह ऊर्जा प्रत्येक जीवधारी के शरीर में विद्यमान रहती है।
थेल विश्वविद्यालय में न्यूरो अकादमी के प्रोफेसर डा. हेराल्डवर ने सिद्ध किया है कि प्रत्येक जीवित प्राणी चाहे वह क्रीड़ा ही क्यों न हो ‘इलेक्ट्रोडायन मिक’ क्षेत्र से आवृत्त रहता है।
बाद में इसी विश्वविद्यालय के एक अन्य वैज्ञानिक डा. लियोनार्ड राबित्ज ने इस खोज को आगे बढ़ाया और कहा इस क्षेत्र को मस्तिष्क के द्वारा प्रभावित किया जा सकता है। भारतीय अध्यात्म ने इन शक्तियों के विकास हेतु ध्यान धारणा का मार्ग बताया है।
अब यह लगभग निश्चित हो चला है कि विज्ञान भी उसी दिशा में आगे बढ़ रहा और सफल हो रहा है जिस सफलता को योग और दर्शन बहुत पहले प्राप्त कर चुका है। पुराणों और धर्मग्रन्थों में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिन्हें चमत्कारी घटनायें कहा जाता है।
सूक्ष्म की सत्ता और सामर्थ्य को देखते हुए यह भी असम्भव नहीं लगता कि प्राचीनकाल में ऋषि, महर्षि, देवता, असुर आदि संकल्प बल से या सूक्ष्म के माध्यम से सुदूर ग्रह-नक्षत्रों की यात्रा पलक झपकते ही सम्पन्न कर लेते हों। कौन जाने अगले कुछ ही वर्षों में विज्ञान ही ग्रह-नक्षत्रों पर खर्चीले तथा भारी यन्त्रों से लदे यान की अपेक्षा सूक्ष्म के माध्यम से वहां पहुंचने की विधि खोज निकाल ले। प्रसिद्ध इलेक्ट्रानिक विशेष डा. निकोलसन ने तो यहां तक कहा है कि अगले सौ पचास वर्षों में इलेक्ट्रानिकी इतनी विकसित हो जायगी कि किसी भी वैज्ञानिक को किसी भी ग्रह पर भेजा जा सकेगा। करोड़ों मील दूर स्थित ग्रह पर बैठा कोई वैज्ञानिक किसी गुत्थी के बारे में पूछेगा तो उसे कहा जा सकेगा कि एक मिनट रुकिये अभी पहुंच रहा हूं। और यह सब सूक्ष्म शरीर के द्वारा ही सम्भव हो सकेगा।
शरीर केवल वह एक ही नहीं है जिसे हम धारण किए हुए हैं और जो दीखता अनुभव होता है, उसके भीतर दो और शरीर हैं जिन्हें सूक्ष्म और कारण शरीर कहते हैं। इनमें सूक्ष्म शरीर अधिक सक्रिय और प्रभावशाली है। मरण के उपरान्त उसी का अस्तित्व रह जाता है और उसी के सहारे नया जन्म होने तक की समस्त गतिविधियां चलती रहती हैं। मरने के उपरान्त इन्द्रियां, मन, संस्कार तथा पाप पुण्य साथ जाते हैं। मरण से पूर्व वाले जन्म का स्मरण भी इसी शरीर में बना रहता है इसलिए अपने परिवार वालों को पहचानता और याद भी करता है। अगले जन्म में इस पिछले जन्म के संस्कारों को ढोकर ले जाने में भी यह सूक्ष्म शरीर ही काम करता है। वस्तुतः मरण के पश्चात् एक विश्राम जैसी स्थिति आती है उसमें लम्बे जीवन में जो दिन रात काम करना पड़ता है उसकी थकान दूर होती है। जैसे रात को सो लेने के पश्चात् सवेरे ताजगी आती है उसी तरह नये जन्म के लिए इस मध्य काल के विश्राम से फिर कार्य क्षमता प्राप्त हो जाती है। जिनका मृत्यु के उपरान्त तुरन्त पुनर्जन्म हो जाता है विश्राम न मिल पाने से थकान बनी रहती है और शरीर तथा मन में अस्वस्थता देखी जाती है।
सूक्ष्म शरीर इस जन्म में भी स्थूल शरीर के साथ ही सक्रिय रहता है। रात्रि को सो जाने के उपरान्त जो स्वप्न दीखते हैं वह अनुभूतियां सूक्ष्म शरीर की ही हैं। दिव्य दृष्टि, दूरश्रवण, दूरदर्शन, विचार संचालन, भविष्य ज्ञान, देव दर्शन आदि उपलब्धियां भी सूक्ष्म शरीर के माध्यम से ही होती हैं। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की उच्च स्तरीय योग साधना द्वारा इसी शरीर को समर्थ बनाया जाता है। ऋद्धियों और सिद्धियों का स्रोत इस सूक्ष्म शरीर को माना जाता है।
स्थूल शरीर तो मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है। नया शरीर तुरन्त ही नहीं मिलता, उसमें देर लग जाती है। इस मरण और जनम के बीच की अवधि में प्राणी को सूक्ष्म शरीर का सहारा लेकर ही रहना पड़ता है। शरीर धारण कर लेने के बाद भी उसके अन्तर्गत सूक्ष्म शरीर और कारण शरीरों का अस्तित्व बना रहता है। अतीन्द्रिय ज्ञान उन्हीं के द्वारा होता है और उपासना-साधना द्वारा इन्हीं दो अप्रत्यक्ष शरीरों को परिपुष्ट बनाया जाता है। यह अन्तर शरीर यदि बलवान हो तो बाह्य शरीर में तेज, शौर्य, प्रकाश, बल और ज्ञान की आभा सहज ही प्रस्फुटित दीखती है। उत्साह और उल्लास भी सूक्ष्म शरीर की निरोगता का ही परिणाम हैं।
स्वर्ग और नरक का जैसा कि वर्णन है उसका उपयोग सूक्ष्म शरीर द्वारा ही सम्भव है। पिछले जन्म के ज्ञान, संस्कार, गुण, रुचि आदि का अगले जन्म में उपलब्ध होने का आधार भी यह सूक्ष्म शरीर है। भूत प्रेतों को अस्तित्व इसी परोक्ष शरीर पर निर्भर है और दिव्य अनुभूतियां योग की सिद्धियां, स्वप्नों पर परिलक्षित सच्चाइयां आदि प्रक्रियाएं सूक्ष्म शरीर से ही सम्भव हो सकती है।
इतिहास, पुराणों में सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व सिद्ध करने वाली अनेक घटनाओं का वर्णन मिलता है। भगवान शंकराचार्य ने राजा अमरूक के मृत शरीर में अपना सूक्ष्म शरीर प्रबुद्ध करके गृहस्थ जीवन सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त किया था। रामकृष्ण परमहंस ने महाप्रयाण के उपरान्त भी विवेकानन्द को कई बाद दर्शन तथा परामर्श दिये थे। पुराणों में तो पग-पग पर ऐसे कथानकों का उल्लेख है।
थियोसोफिकल सोसाइटी की जन्मदात्री मैडम ब्लावटस्की के बारे में कहा जाता है कि वे अपने को कमरे में बन्द करने के उपरान्त भी जनता को सूक्ष्म शरीर से दर्शन और उपदेश देती थीं। कर्नल टाउन शेंड के बारे में भी ऐसे ही प्रसंग कहे जाते हैं। पाश्चात्य योग साधकों में से हैर्वटलमान, लिण्डार्स, एन्ड्र जैक्शन, डा. माल्थ, जेल्ट, कारिंगटन, डुरावेल मुलडोन, आलिवर लाज, पावर्स डा. मेस्मर, ऐलेक्जेन्ड्रा, डेविडनीत, ब्रण्टन आदि के अनुभवों और प्रयोगों में सूक्ष्म शरीर की प्रामाणिकता सिद्ध करने वाले अनेक प्रमाण उपस्थित किये गये हैं। जे. मुलडोन अपने स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर को पृथक करने के कितनेक प्रदर्शन भी कर चुके थे। इनने इस सबकी चर्चा अपनी पुस्तक दी प्रोजेक्शन आफ आस्टल बॉडी में विस्तारपूर्वक की है।
भारतवर्ष में स्वामी विशुद्धानन्द तथा स्वामी निगमानन्द जी भी अपनी ऐसी अनुभूतियों को प्रमाणित कर चुके हैं कहा जाता है कि तैलंग स्वामी को नंगे फिरने के अपराध में काशी के एक अंग्रेज अधिकारी ने जेल में बन्द करा दिया। दूसरे दिन वे जेल से बाहर टहलते हुए पाये गये। नाथ संप्रदाय के महीन्द्रनाथ गोरखनाथ, जालन्धरनाथ, कणप्पा आदि के बारे में भी ऐसे ही वर्णनों का उल्लेख है।
आत्मा के अस्तित्व और शरीर न रहने पर भी उसका अस्तित्व बने रहने के बारे में पाश्चात्य दार्शनिकों और तत्व वेत्ताओं में से जिनने इस सम्बन्ध में अधिक स्पष्ट समर्थन किया है उनमें राल्फ वाल्डो ट्राइन, मिडनी, फ्लोवर, एलाह्वीलर, बिलकाक्स, विलयमवाकर, एटकिंसन, जेम्स, केनी आदि का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। पुराने दार्शनिकों में से कार्लाइल इमर्सन, काण्ट, हेगल, धामस, हिलमीन डायसन आदि का मत भी इसी प्रकार का था।
जो कार्य हम स्थूल जीवन में करते हैं या मस्तिष्क में जैसे विचार भरे रहते हैं उनकी छाप सूक्ष्म शरीर पर पड़ती रहती है और वह छाप ही संस्कार बन जाती है। मनुष्य का चिंतन और कर्म जिस दिशा में चलता रहता है कालान्तर में वही स्वभाव बन जाता है और बहुत समय तक जिस स्वभाव को अभ्यास में लाया जाता रहता है उसी तरह के संस्कार बन जाते हैं। यह संस्कार ही परिपक्व होकर शुभ अशुभ प्रारब्ध एवं कर्मफल का रूप धारण करते रहते हैं। इस प्रकार कर्मफल प्रदान करने की स्वसंचालित प्रक्रिया भी इसी सूक्ष्म शरीर से सम्पन्न होती रहती है।
जिस प्रकार अखाद्य खाने दूषित जलवायु में रहने और असंयम बरतने से बाह्य शरीर दुर्बल एवं रुग्ण हो जाता है उसी प्रकार बुरे कर्म और बुरे चिन्तन से सूक्ष्म शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है और वह अपनी समर्थता खो बैठता है। कुमार्गगामी का अन्तःकरण सदा दुर्बल और कायर बना रहता है, फलस्वरूप अनेक मानसिक रोग उठ खड़े होते हैं। यों तो सूक्ष्म शरीर दूध में मक्खन की तरह समस्त शरीर में व्याप्त है। पर उसका मुख्य स्थान मस्तिष्क माना गया है। बुरे विचारों से मन मस्तिष्क और सूक्ष्म शरीर का सामान्य स्वास्थ्य सन्तुलन नष्ट हो जाता है फलस्वरूप मनुष्य का व्यक्तित्व ही लड़खड़ाने लगता है और प्रगति के सारे मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं।
उपन्यास का कथानक कल्पना के ताने-बाने से बुना गया है और लगता है कि कल्पना असम्भव कल्पना है। परन्तु वुडलैण्ड (अमेरिका) के डॉक्टर जियो वर्नहाट ने एक ऐसा ही अनुभव किया जिसमें वे इच्छा मात्र से तुरन्त अपने गन्तव्य स्थान पर पहुंच गये। अपना अनुभव बताते हुए उन्होंने अमेरिका से प्रकाशित होने वाली परामनोविज्ञान की एक प्रसिद्ध पत्रिका में लिखा—‘‘उस समय मेरा पुत्र वियतनाम के मोर्चे पर गया था। सन् 1971 की घटना है। एक दिन मुझे बैठे-बैठे लगा कि मेरा पुत्र किसी खतरे में है और मुझे पुकार रहा है। इस आभास के साथ ही मुझे यह अनुभव भी हुआ कि मेरा शरीर हवा से भी हल्का हो गया है और मैं तुरन्त वुडलैण्ड से हजारों मील दूर उस अनजान स्थान पर पहुंच गया हूं जहां मेरा लड़का तैनात है।’’
वहां जाकर मैंने देखा चारों ओर आग लगी हुई है। जॉन एक तम्बू में फंसा हुआ है और उसके ऊपर लोहे का वजनी ट्रंक गिर पड़ा है जिसके नीचे वह दबा हुआ है। मैंने तुरन्त उस ट्रंक को जान के ऊपर से हटाया और तम्बू के बाहर ले जाकर उसे खड़ा कर दिया।
इसके बाद मुझे अपना शरीर पूर्ववत् हो गया लगा। आंखें खोलीं तो प्रतीत हुआ कि जैसे तन्द्रा टूट गयी हो। पास ही मेरी पत्नी बैठी मेरी नब्ज़ टटोल रही थी। मैंने पूछा—क्या हुआ? तो वह बोली मुझे ऐसा लगा जैसे आप एबनॉर्मल हैं। मैंने उसे अपना अनुभव सुनाया तो वह बोली आपने कोई दुःस्वप्न देखा होगा। परन्तु मुझे न जाने क्यों अपनी पत्नी की बात पर विश्वास नहीं हो रहा था। छह महीने बाद जब जॉन छुट्टी पर लौटा तो उसने युद्ध के अनुभव सुनाते समय एक अग्निकाण्ड में फंस जाने और वहां से चमत्कारी ढंग से निकल जाने की घटना सुनायी।
इस घटना के सम्बन्ध में वर्नहाट का विश्वास है कि दूरबोध द्वारा उक्त दुर्घटना की सूचना पाकर उनका सूक्ष्म शरीर ही जॉन को बचाने के लिए गया था। तो क्या सूक्ष्म शरीर से हर कहीं तत्क्षण पहुंचा जा सकता है। अध्यात्म विज्ञान इसका उत्तर ‘हां’ में देता है और विज्ञान का ध्यान भी इस तथ्य की ओर आकर्षित होने लगा है? ऐसी कई घटनाओं के विवरण संकलित किये जा चुके हैं जिनने में सूक्ष्म की शक्ति ही क्रियाशील दिखाई दी है।
सूक्ष्म देह स्थूल देह से अलग हो सकती है यह तो कई व्यक्तियों के अनुभव में आ चुका है। पिछले दिनों अमेरिका की विश्वविख्यात अभिनेत्री एलिजाबेथ टेलर का अनुभव प्रकाशित हुआ था। उसमें बताया गया था कि टेलर का कोई गम्भीर आपरेशन किया जाना था, टेलर को आपरेशन टेबल पर लिटाया गया और बेहोश किया गया। आपरेशन काफी समय तक चला और जब पूरा हो गया तो डाक्टरों का अकस्मात् ध्यान गया कि टेलर की काया निष्प्राण हो चुकी है। उसकी सांस भी बन्द हो गयी थी नाड़ी डूबती जा रही थी, हृदय भी बहुत धीरे-धीरे धड़क रहा था। काफी प्रयत्नों के बाद वह स्वस्थ हो सकी और जब वह स्वस्थ हुई तो उसने कहा—‘मैंने अपना आपरेशन अपनी आंखों से देखा है।’
टेलर तो बेहोश थी। भला अपना आपरेशन आप कैसे देख सकती थीं? डाक्टरों ने पूछा तो उसने बताया कि—‘तब मैं अपने शरीर को भी उसी प्रकार देख सकती थी जैसे कि किसी दूसरे का देख सकती हूं। सिर, चेहरा, मुंह नाक आदि सब कुछ। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मैं अपने शरीर के बाहर निकल आयी हूं और अपने शरीर को उस प्रकार देख रही हूं जैसे वह किसी दूसरे का शरीर हो, उस समय मैं अपने आपको बहुत हल्का-फुल्का अनुभव कर रही थी।
एलिजाबेथ टेलर कहीं उस समय स्वप्नों के सागर में तो नहीं खो गयी थी यह जांचने के लिए डाक्टरों ने कहा अच्छा आपरेशन के दौरान क्या-क्या हुआ यह बताइये। टेलर ने आपरेशन की प्रत्येक प्रक्रिया बता दी, यही नहीं डाक्टरों ने कौन-सी वस्तुएं आपरेशन के कौन से उपकरण किस क्रम से इस्तेमाल किये यह भी बता दिया। एलिजाबेथ ने यह भी बताया कि अमुक उपकरण यथास्थान उपलब्ध न होने के कारण प्रमुख सर्जन किस प्रकार झल्ला उठे थे और उन्होंने कौन-कौन से शब्द कहे थे।
इन अनुभूतियों को सुनकर एलिजाबेथ की बातों पर किसी को सन्देह न रहा। भारतीय अध्यात्म-दर्शन से परिचित व्यक्तियों के लिए यह घटना नितान्त सहज ही सकती है क्योंकि यहां स्थूल के अतिरिक्त सूक्ष्म और कारण शरीर का अस्तित्व भी सदा से स्वीकारा जाता रहा है परन्तु पश्चिम के लिए यह घटना चौंका देने वाली हो सकती है। ऐसी बात नहीं है कि पश्चिम में शरीर से परे आत्मा के अस्तित्व को कभी स्वीकारा ही नहीं गया हो। वहां भी जिन सन्त महात्माओं ने अध्यात्म विज्ञान की खोज की उन्होंने सूक्ष्म के अस्तित्व को स्वीकारा परन्तु आधुनिक पदार्थ विज्ञान ने उन बातों को अन्धविश्वास का फतवा देकर बुद्धिजीवियों के दिमाग से उन आस्थाओं को पोंछ-सा ही दिया। इसके बावजूद भी इस तरह की घटनायें घटती रही हैं। जिनके कारण पदार्थ विज्ञानियों को यह सोचने के लिए विवश होना पड़ा कि मनुष्य की चेतना स्थूल शरीर से बंधी हुई नहीं है। वह इच्छानुसार कहीं भी आ जा सकती है। प्रसिद्ध मनश्चिकित्सा विज्ञानी डा. थैमला मोस ने सिद्ध कर दिखाया है कि—‘कोई भी व्यक्ति अपनी चेतना को अपने शरीर से बाहर निकाल सकता है और पल भर में हजारों मील दूर जा सकता है।
शरीर के नियम बंधनों से मुक्त मानवी चेतना को प्रमाणित करने के लिए डा. मोस ने कई घटनाओं का उल्लेख किया है। उनमें से एक घटना सन् 1908 की है। ब्रिटेन के ‘हाउस आफ लार्डस’ का अधिवेशन चल रहा था। इस अधिवेशन में विरोधी दल ने सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव रखा था और उस दिन प्रस्ताव पर मत संग्रह किया जाना था। विरोधी पक्ष तगड़ा था अतः सरकार को बचाने के लिए सत्तारूढ़ दल के सभी सदस्यों का सदन में उपस्थित होना आवश्यक था। इधर सत्तारूढ़ दल के एक प्रतिष्ठित सदस्य सर कॉर्नराश गम्भीर रूप से बीमार पड़े हुए थे। उनकी स्थिति इस लायक भी नहीं थी कि वे शैया से उठकर चल फिर भी सकें। जबकि उनकी हार्विक आकांक्षा यह थी कि वे भी मतदान में भाग लें। उन्होंने डाक्टरों से बहुत कहा कि उन्हें किसी प्रकार मतदान के लिए सदन में ले जाया जाय परन्तु डॉक्टर अपने कर्त्तव्य से विवश थे। आखिर उनका जाना सम्भव न हो सका। परन्तु सदन में कई सदस्यों ने देखा कि सर कॉर्नराश अपने स्थान पर बैठे मतदान में भाग ले रहे हैं जबकि डाक्टरों का कहना था कि वे अपने बिस्तर से हिले तक नहीं।
एक दूसरी घटना का उल्लेख करते हुए डा. मोस ने लिखा है—‘‘ब्रिटिश कोलम्बिया विधान सभा का अधिवेशन विक्टोरियासिए में चल रहा था। उस समय एक विधायक चार्ल्सबुड बहुत बीमार थे, डाक्टरों को उनके बचने की उम्मीद नहीं थी, परन्तु उनकी उत्कट इच्छा थी कि वे अधिवेशन में भाग लें। डाक्टरों ने उन्हें बिस्तर से उठने के लिए भी मना कर दिया था और वे अपनी स्थिति से विवश बिस्तर पर लेटे थे। परन्तु सदन में सदस्यों ने देखा कि चार्ल्स विधान सभा में उपस्थित हैं। अधिवेशन की समाप्ति पर सदस्यों का जो चुपचाप फोटो लिया गया, उसमें चार्ल्सबुड भी विधान सभा की कार्यवाही में भाग लेने वाले सदस्यों के साथ उपस्थित थे।
विश्वविख्यात दार्शनिक, चिन्तक और मनोवैज्ञानिक डा. कार्लजुंग ने तो स्वयं एक बार सूक्ष्म शरीर के शरीर से बाहर आने का अनुभव किया था। उन्होंने ‘मेमोरीज ड्रीम्स एण्ड रिफ्लेक्शंस’ नामक पुस्तक में इस घटना का सविस्तार वर्णन किया है। घटना सन् 1944 की है। उस वर्ष जुंग को दिल का दौरा पड़ा। दौरा बहुत खतरनाक था और डॉक्टरों के अनुसार जुंग का मौत से आमना सामना हो रहा था। जुंग ने उस समय के अनुभव को इन शब्दों में लिखा है—‘जब मुझे दवा दी जा रही थी और प्राण रक्षा के लिए इन्जेक्शन लगाये जा रहे थे तब मुझे कई विचित्र अनुभव हुए। कहना मुश्किल है मैं उस समय अचेत था अथवा स्वप्न देख रहा था। पर मुझे यह स्पष्ट अनुभव हो रहा था कि मैं अन्तरिक्ष में लटका हुआ हूं और धुनी हुई रुई के गोलों की तरह हल्का-फुल्का हूं। मैं उस समय जहां था वहां से हजार मील दूर पर स्थित जेरूसलम शहर को इस प्रकार देख रहा था कि जैसे मैं विमान में बैठकर आकाश से नीचे झांक रहा हूं। इसके बाद मैं एक पूजागृह में प्रविष्ट हुआ। वहां मैंने अनुभव किया कि मैं इतिहास का कोई खण्ड हूं और कहीं भी आने जाने के लिए स्वतन्त्र हूं। तभी मेरे ऊपर कोई छाया सी मण्डराती दिखाई दी, उस छाया ने मुझसे कहा कि तुम्हें अपने भौतिक शरीर में प्रवेश कर जाना चाहिए। जैसे ही मैंने उस छाया के आदेश का पालन किया मैंने अनुभव किया कि मैं अब स्वतन्त्र नहीं हूं। परन्तु इस अनुभूति ने मुझे जो अन्तर्दृष्टि प्रदान की उसने मेरे सभी सन्देह समाप्त कर दिये तथा मैंने जान लिया कि जीवन की समाप्ति पर क्या होता है।’’
भौतिक विज्ञान पदार्थ का विश्लेषण करते-करते इस बिन्दु तक तो पहुंच ही गया है कि जिन्हें हम पदार्थ कहते हैं वह वस्तुतः कोई स्वतन्त्र इकाई नहीं है बल्कि किसी भी पदार्थ का छोटे से छोटा कण भी असंख्य सूक्ष्माति सूक्ष्म कणों का संघटक है। इन घटकों को अणु कहा जाता है। इससे आगे शोध करने पर वैज्ञानिकों ने चेतना के दर्शन आरम्भ किये हैं।
सन् 1968 में डा. वी. इन्यूशिन, बी. ग्रिस, चेको, एन. नोरोवोव एन. केरारोवा तथा गुवादुलिन आदि रूसी वैज्ञानिकों ने लम्बे समय तक अनुसंधान और प्रयोग करने के बाद घोषित किया कि जीव-जन्तुओं का शरीर मात्र भौतिक अणु-परमाणुओं से ही नहीं बना है बल्कि इसके अतिरिक्त एक ऊर्जा शरीर भी है।
वैज्ञानिकों ने इस शरीर को ‘द बायोलॉजिकल प्लाज्मा बॉडी’ नाम दिया है। इस शरीर के सम्बन्ध में यह बताया गया है कि यह केवल उत्तेजित विद्युत अणुओं से बने प्रारम्भिक जीवाणुओं के समूह का योग भर नहीं है वरन् एक व्यवस्थित तथा स्वचालित घटक हैं जो अपना स्वयं का चुम्बकीय क्षेत्र निःसृत करता है। अध्यात्म विज्ञान ने चेतना को स्थूल की पकड़ से सर्वथा परे बताया है उसे केवल अनुभव ही किया जा सकता है। फिर भी प्राणियों का शरीर निर्मित करने वाले घटकों का जितना विवेचन, विश्लेषण अभी तक हुआ है, उससे प्रतीत होता है कि आज नहीं तो कल विज्ञान भी इस तथ्य को अनुभव कर सकेगा कि चेतना को स्थूल यन्त्रों से नहीं, विकसित चेतना के माध्यम से ही अनुभव किया जा सकेगा।
‘द बायोलॉजिकल प्लाज्मा बॉडी’ का अध्ययन करते हुए वैज्ञानिकों ने उसके तत्वों का भी विश्लेषण किया। बायोप्लाज्मा की संरचना और कार्यविधि का अध्ययन करने के लिए सोवियत वैज्ञानिकों ने कई प्रयोग किये और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि बायोप्लाज्मा का मूल स्थान मस्तिष्क है और यह तत्व मस्तिष्क में ही सर्वाधिक सघन अवस्था में पाया जाता है तथा सुषुम्ना नाड़ी और स्नायविक कोशाओं में सर्वाधिक सक्रिय रहता है।
शास्त्रकार ने इस शरीर की तुलना एक ऐसे वृक्ष से की है जिसकी जड़ें ऊपर और शाखायें नीचे की ओर हैं। जिस प्राण ऊर्जा के अस्तित्व को वैज्ञानिकों ने अनुभव किया वह आत्मचेतना नहीं है बल्कि सूक्ष्म शरीर के स्तर की ही शक्ति है जिसे मनुष्य शरीर की विद्युतीय ऊर्जा भी कहा जाता है यह ऊर्जा प्रत्येक जीवधारी के शरीर में विद्यमान रहती है।
थेल विश्वविद्यालय में न्यूरो अकादमी के प्रोफेसर डा. हेराल्डवर ने सिद्ध किया है कि प्रत्येक जीवित प्राणी चाहे वह क्रीड़ा ही क्यों न हो ‘इलेक्ट्रोडायन मिक’ क्षेत्र से आवृत्त रहता है।
बाद में इसी विश्वविद्यालय के एक अन्य वैज्ञानिक डा. लियोनार्ड राबित्ज ने इस खोज को आगे बढ़ाया और कहा इस क्षेत्र को मस्तिष्क के द्वारा प्रभावित किया जा सकता है। भारतीय अध्यात्म ने इन शक्तियों के विकास हेतु ध्यान धारणा का मार्ग बताया है।
अब यह लगभग निश्चित हो चला है कि विज्ञान भी उसी दिशा में आगे बढ़ रहा और सफल हो रहा है जिस सफलता को योग और दर्शन बहुत पहले प्राप्त कर चुका है। पुराणों और धर्मग्रन्थों में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिन्हें चमत्कारी घटनायें कहा जाता है।
सूक्ष्म की सत्ता और सामर्थ्य को देखते हुए यह भी असम्भव नहीं लगता कि प्राचीनकाल में ऋषि, महर्षि, देवता, असुर आदि संकल्प बल से या सूक्ष्म के माध्यम से सुदूर ग्रह-नक्षत्रों की यात्रा पलक झपकते ही सम्पन्न कर लेते हों। कौन जाने अगले कुछ ही वर्षों में विज्ञान ही ग्रह-नक्षत्रों पर खर्चीले तथा भारी यन्त्रों से लदे यान की अपेक्षा सूक्ष्म के माध्यम से वहां पहुंचने की विधि खोज निकाल ले। प्रसिद्ध इलेक्ट्रानिक विशेष डा. निकोलसन ने तो यहां तक कहा है कि अगले सौ पचास वर्षों में इलेक्ट्रानिकी इतनी विकसित हो जायगी कि किसी भी वैज्ञानिक को किसी भी ग्रह पर भेजा जा सकेगा। करोड़ों मील दूर स्थित ग्रह पर बैठा कोई वैज्ञानिक किसी गुत्थी के बारे में पूछेगा तो उसे कहा जा सकेगा कि एक मिनट रुकिये अभी पहुंच रहा हूं। और यह सब सूक्ष्म शरीर के द्वारा ही सम्भव हो सकेगा।
शरीर केवल वह एक ही नहीं है जिसे हम धारण किए हुए हैं और जो दीखता अनुभव होता है, उसके भीतर दो और शरीर हैं जिन्हें सूक्ष्म और कारण शरीर कहते हैं। इनमें सूक्ष्म शरीर अधिक सक्रिय और प्रभावशाली है। मरण के उपरान्त उसी का अस्तित्व रह जाता है और उसी के सहारे नया जन्म होने तक की समस्त गतिविधियां चलती रहती हैं। मरने के उपरान्त इन्द्रियां, मन, संस्कार तथा पाप पुण्य साथ जाते हैं। मरण से पूर्व वाले जन्म का स्मरण भी इसी शरीर में बना रहता है इसलिए अपने परिवार वालों को पहचानता और याद भी करता है। अगले जन्म में इस पिछले जन्म के संस्कारों को ढोकर ले जाने में भी यह सूक्ष्म शरीर ही काम करता है। वस्तुतः मरण के पश्चात् एक विश्राम जैसी स्थिति आती है उसमें लम्बे जीवन में जो दिन रात काम करना पड़ता है उसकी थकान दूर होती है। जैसे रात को सो लेने के पश्चात् सवेरे ताजगी आती है उसी तरह नये जन्म के लिए इस मध्य काल के विश्राम से फिर कार्य क्षमता प्राप्त हो जाती है। जिनका मृत्यु के उपरान्त तुरन्त पुनर्जन्म हो जाता है विश्राम न मिल पाने से थकान बनी रहती है और शरीर तथा मन में अस्वस्थता देखी जाती है।
सूक्ष्म शरीर इस जन्म में भी स्थूल शरीर के साथ ही सक्रिय रहता है। रात्रि को सो जाने के उपरान्त जो स्वप्न दीखते हैं वह अनुभूतियां सूक्ष्म शरीर की ही हैं। दिव्य दृष्टि, दूरश्रवण, दूरदर्शन, विचार संचालन, भविष्य ज्ञान, देव दर्शन आदि उपलब्धियां भी सूक्ष्म शरीर के माध्यम से ही होती हैं। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की उच्च स्तरीय योग साधना द्वारा इसी शरीर को समर्थ बनाया जाता है। ऋद्धियों और सिद्धियों का स्रोत इस सूक्ष्म शरीर को माना जाता है।
स्थूल शरीर तो मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है। नया शरीर तुरन्त ही नहीं मिलता, उसमें देर लग जाती है। इस मरण और जनम के बीच की अवधि में प्राणी को सूक्ष्म शरीर का सहारा लेकर ही रहना पड़ता है। शरीर धारण कर लेने के बाद भी उसके अन्तर्गत सूक्ष्म शरीर और कारण शरीरों का अस्तित्व बना रहता है। अतीन्द्रिय ज्ञान उन्हीं के द्वारा होता है और उपासना-साधना द्वारा इन्हीं दो अप्रत्यक्ष शरीरों को परिपुष्ट बनाया जाता है। यह अन्तर शरीर यदि बलवान हो तो बाह्य शरीर में तेज, शौर्य, प्रकाश, बल और ज्ञान की आभा सहज ही प्रस्फुटित दीखती है। उत्साह और उल्लास भी सूक्ष्म शरीर की निरोगता का ही परिणाम हैं।
स्वर्ग और नरक का जैसा कि वर्णन है उसका उपयोग सूक्ष्म शरीर द्वारा ही सम्भव है। पिछले जन्म के ज्ञान, संस्कार, गुण, रुचि आदि का अगले जन्म में उपलब्ध होने का आधार भी यह सूक्ष्म शरीर है। भूत प्रेतों को अस्तित्व इसी परोक्ष शरीर पर निर्भर है और दिव्य अनुभूतियां योग की सिद्धियां, स्वप्नों पर परिलक्षित सच्चाइयां आदि प्रक्रियाएं सूक्ष्म शरीर से ही सम्भव हो सकती है।
इतिहास, पुराणों में सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व सिद्ध करने वाली अनेक घटनाओं का वर्णन मिलता है। भगवान शंकराचार्य ने राजा अमरूक के मृत शरीर में अपना सूक्ष्म शरीर प्रबुद्ध करके गृहस्थ जीवन सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त किया था। रामकृष्ण परमहंस ने महाप्रयाण के उपरान्त भी विवेकानन्द को कई बाद दर्शन तथा परामर्श दिये थे। पुराणों में तो पग-पग पर ऐसे कथानकों का उल्लेख है।
थियोसोफिकल सोसाइटी की जन्मदात्री मैडम ब्लावटस्की के बारे में कहा जाता है कि वे अपने को कमरे में बन्द करने के उपरान्त भी जनता को सूक्ष्म शरीर से दर्शन और उपदेश देती थीं। कर्नल टाउन शेंड के बारे में भी ऐसे ही प्रसंग कहे जाते हैं। पाश्चात्य योग साधकों में से हैर्वटलमान, लिण्डार्स, एन्ड्र जैक्शन, डा. माल्थ, जेल्ट, कारिंगटन, डुरावेल मुलडोन, आलिवर लाज, पावर्स डा. मेस्मर, ऐलेक्जेन्ड्रा, डेविडनीत, ब्रण्टन आदि के अनुभवों और प्रयोगों में सूक्ष्म शरीर की प्रामाणिकता सिद्ध करने वाले अनेक प्रमाण उपस्थित किये गये हैं। जे. मुलडोन अपने स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर को पृथक करने के कितनेक प्रदर्शन भी कर चुके थे। इनने इस सबकी चर्चा अपनी पुस्तक दी प्रोजेक्शन आफ आस्टल बॉडी में विस्तारपूर्वक की है।
भारतवर्ष में स्वामी विशुद्धानन्द तथा स्वामी निगमानन्द जी भी अपनी ऐसी अनुभूतियों को प्रमाणित कर चुके हैं कहा जाता है कि तैलंग स्वामी को नंगे फिरने के अपराध में काशी के एक अंग्रेज अधिकारी ने जेल में बन्द करा दिया। दूसरे दिन वे जेल से बाहर टहलते हुए पाये गये। नाथ संप्रदाय के महीन्द्रनाथ गोरखनाथ, जालन्धरनाथ, कणप्पा आदि के बारे में भी ऐसे ही वर्णनों का उल्लेख है।
आत्मा के अस्तित्व और शरीर न रहने पर भी उसका अस्तित्व बने रहने के बारे में पाश्चात्य दार्शनिकों और तत्व वेत्ताओं में से जिनने इस सम्बन्ध में अधिक स्पष्ट समर्थन किया है उनमें राल्फ वाल्डो ट्राइन, मिडनी, फ्लोवर, एलाह्वीलर, बिलकाक्स, विलयमवाकर, एटकिंसन, जेम्स, केनी आदि का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। पुराने दार्शनिकों में से कार्लाइल इमर्सन, काण्ट, हेगल, धामस, हिलमीन डायसन आदि का मत भी इसी प्रकार का था।
जो कार्य हम स्थूल जीवन में करते हैं या मस्तिष्क में जैसे विचार भरे रहते हैं उनकी छाप सूक्ष्म शरीर पर पड़ती रहती है और वह छाप ही संस्कार बन जाती है। मनुष्य का चिंतन और कर्म जिस दिशा में चलता रहता है कालान्तर में वही स्वभाव बन जाता है और बहुत समय तक जिस स्वभाव को अभ्यास में लाया जाता रहता है उसी तरह के संस्कार बन जाते हैं। यह संस्कार ही परिपक्व होकर शुभ अशुभ प्रारब्ध एवं कर्मफल का रूप धारण करते रहते हैं। इस प्रकार कर्मफल प्रदान करने की स्वसंचालित प्रक्रिया भी इसी सूक्ष्म शरीर से सम्पन्न होती रहती है।
जिस प्रकार अखाद्य खाने दूषित जलवायु में रहने और असंयम बरतने से बाह्य शरीर दुर्बल एवं रुग्ण हो जाता है उसी प्रकार बुरे कर्म और बुरे चिन्तन से सूक्ष्म शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है और वह अपनी समर्थता खो बैठता है। कुमार्गगामी का अन्तःकरण सदा दुर्बल और कायर बना रहता है, फलस्वरूप अनेक मानसिक रोग उठ खड़े होते हैं। यों तो सूक्ष्म शरीर दूध में मक्खन की तरह समस्त शरीर में व्याप्त है। पर उसका मुख्य स्थान मस्तिष्क माना गया है। बुरे विचारों से मन मस्तिष्क और सूक्ष्म शरीर का सामान्य स्वास्थ्य सन्तुलन नष्ट हो जाता है फलस्वरूप मनुष्य का व्यक्तित्व ही लड़खड़ाने लगता है और प्रगति के सारे मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं।