Books - पाँच प्राण-पाँच देव
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Language: HINDI
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प्राण शक्ति के प्रत्यक्ष प्रमाण
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मनुष्य शरीर एक प्रकार का चलता फिरता बिजली घर है। उसी के आधार पर शरीर के कारखाने में लगे हुए अगणित कल पुर्जे काम करते हैं और मस्तिष्क में जुड़े हुए एक से एक बढ़कर विलक्षण कम्प्यूटरों का सूत्र संचालन होता है। विशालकाय यन्त्रों का क्रिया कलाप शक्तिशाली इंजनों या मोटरों पर निर्भर रहता है। मानवी काया का विस्तार भले ही न हो पर उसकी संरचना एवं क्रिया पद्धति असाधारण रूप से जटिल तथा संवेदनशील है। इसे निरन्तर संचालित रखने के लिए स्वभावतः उच्चकोटि की शक्ति का प्रयोग होता है इसकी पर्याप्त मात्रा जन्मजात रूप से हमें उपलब्ध है और उस के उपयोग से जीवन की आवश्यक गति-विधियों का स्वसंचालित पद्धति से गतिशील रहना सम्भव होता है।
प्राणिज विद्युत शक्ति के उत्पादन के लिए मानवी शरीर में समुचित साधन और आधार विद्यमान हैं। डायनमो आरमेचर मेगनेट, क्वायल जैसे सभी उपकरण उसमें अपने ढंग से विद्यमान हैं। अंग-प्रत्यंगों में वे रासायनिक पदार्थ भरे पड़े हैं जिनसे बिजली उत्पन्न होती है। रक्तभिषरण की प्रक्रिया इस मोटर को घुमाती है और उस आधार पर यह विद्युत उत्पादन अनवरत रूप से जारी रहता है।
कोशिकाओं की आन्तरिक संरचना में एक महत्वपूर्ण आधार है—माइटो कोन्ड्रिया। इसे दूसरे शब्दों में कोशिका का पावर हाउस-विद्युत भण्डार कह सकते हैं। भोजन, रक्त, मांस अस्थि आदि से आगे बढ़ते-बढ़ते अन्ततः इसी संस्थान में जाकर ऊर्जा का रूप लेता है। यह ऊर्जा ही कोशिका को सक्रिय रखती है और उनकी सामूहिक सक्रिया जीव-संचालक के रूप में दृष्टिगोचर होती है। इस ऊर्जा को लघुत्तम प्राणांश कह सकते हैं। काय कलेवर में इसका एकत्रीकरण महाप्राण कहलाता है और उसी की ब्रह्माण्ड व्यापी चेतना विश्वप्राण या विराट प्राण के नाम से जानी जाती है। प्राणांश की लघुत्तम ऊर्जा इकाई कोशिका के अन्तर्गत ठीक उसी रूप में विद्यमान है जिसमें कि विराट् प्राण गतिशील है। बिन्दु सिन्धु जैसा अन्तर इन दोनों के बीच रहते हुए भी वस्तुतः वे दोनों अन्योन्याश्रित हैं। कोशिका के अन्तर्गत प्राणांश के घटक परस्पर संयुक्त न हो तो महाप्राण का अस्तित्व न बने। इसी प्रकार यदि विराट् प्राण की सत्ता न हो तो भोजन पाचन आदि का आधार न बने और वह लघु प्राण जैसी विद्युत धारा का संचार भी संभव न हो।
बिजली से हीटर, कूलर, पंखे आदि चलते हैं इससे उसकी उपयोगिता समझ में आती है किंतु कभी-कभी इस प्रक्रिया में व्यतिरेक भी होते देखा जा सकता है। भौतिक बिजली जीव विद्युत तो नहीं बन सकती पर जीव विद्युत के साथ भौतिक बिजली का सम्मिश्रण बन सकता है। ऐसी विचित्र घटनाएं कई बार देखने में आई हैं जिनसे मानवी शरीरों को एक छोटे जनरेटर या डायनेमो की तरह काम करते देखा गया है।
कई उदाहरण ऐसे देखे गये हैं जो यह बताते हैं कि इस शरीर में असाधारण विद्युत प्रवाह का संचार हो रहा है। यों यह विद्युत शक्ति हर किसी में होती है पर वह अपनी मर्यादा में रहती है और अभीष्ट प्रयोजन में इस प्रकार निरत रहती है कि अनावश्यक स्तर पर उभर पड़ने के कारण उसका अपव्यय न होने लगे। छूने से किसी शरीर में बिजली जैसे झटके प्रतीत न होते हों तो भी यह नहीं समझना चाहिए कि उस शक्ति का किसी प्रकार अभाव है। हर किसी में पाई जाने वाली मानवी विद्युत जिसे अध्यात्म की भाषा में प्राण कहते हैं कभी कभी किसी के प्रतिबन्ध कलेवर भेद कर बाहर निकल आती है तब उसका स्पर्श भी भौतिक बिजली जैसा ही बन जाता है।
आयरलैण्ड की एक युवती जे. स्मिथ के शरीर में इतनी बिजली थी कि उसे छूते ही झटका लगता था। डा. एस. क्रापट के तत्वावधान में इस पर काफी खोज की गई, उसमें कोई छल नहीं था। हर दृष्टि से यह परख लिखा गया कि वह शरीरगत बिजली ही है, पर इस अतिरिक्त उपलब्धि का आधार क्या है इसका कारण नहीं समझा जा सका। बर्लिन (जर्मनी) के निकट एक छोटे से गांव मिसौरी सिडैलिया में एक लड़की जब 24 वर्ष की हुई तो उसके शरीर में अचानक विद्युत प्रवाह का संचार आरम्भ हो गया। इस लड़की का नाम था—जेनी मार्गन। उसके शरीर की स्थिति एक शक्तिशाली बैटरी जैसी हो गई।
एक दिन वह हैण्डपम्प चला कर पानी निकालने लगी तो उसके स्पर्श के स्थान पर आग की चिनगारियां छूटने लगीं। लड़की डर गई और घर वालों को सारा विवरण सुनाया। पहले तो समझा गया कि पम्प में कहीं से करेन्ट आ गया होगा पर जब जांच की गई तो पता चला कि लड़की का शरीर ही बिजली से भरा हुआ है, वह जिसे छूती उसी को झटका लगता। वह एक प्रकार से अस्पर्श्य बन गई। चिकित्सकों और वैज्ञानिकों ने इस जंजाल से उसे छुड़ाने के लिये अपने-अपने ढंग से कारण तलाश करने और उपचार ढूंढ़ने में शक्ति भर प्रयत्न किया पर कुछ सफलता न मिली। कई वर्ष यह स्थिति रहने के बाद वह प्रवाह स्वयं ही घटना शुरू हुआ और तरुणी होने तक वह व्यथा अपने आप टल गई। तब कहीं उसकी जान में जान आई और सामान्य जीवन बिता सकने योग्य बनी।
सुप्रसिद्ध ‘टाइम्स’ पत्रिका में कुछ समय पूर्व ओन्टारियो (कनाडा) की एक कैरोलिन क्लेयर नामक महिला का विस्तृत वृत्तान्त छपा था। जिसमें बताया गया था कि उपरोक्त महिला डेढ़ वर्ष तक बीमार पड़ी रही, पर जब स्थिति कुछ सुधरी तो उसमें एक नया परिवर्तन यह हुआ कि उसके शरीर में बिजली की धारा बहने लगी यदि वह किसी धातु की बनी वस्तु को छूती तो उसी से चिपक जाती। घर वाले उसे बड़ी कठिनाई से छुड़ाते। चुम्बक जैसा यह प्रवाह कैसे उत्पन्न हुआ उसका न तो कुछ कारण जाना जा सका और न उपाय उपचार किया जा सका।
मेरीलैण्ड (अमेरिका) के कालेज आफ फार्मेसी की सोलह वर्षीय छात्रा लुई हैवर्गर, वैज्ञानिकों के लिये अनबूझ पहेली बनी रही। उस लड़की की उंगलियों के अग्रभाग में चुम्बकीय गुण था। आधी इंच मोटी और एक फुट लम्बी लोहे की छड़ वह उंगलियों के पोरवों से छूकर अधर उठा लेती थी। और वह छड़ हवा में बिना किसी सहारे के लटकती रहती थी। धातुओं की वस्तुएं उसके हाथ से चिपक कर रह जाती थीं पर किसी मनुष्य को जब वह छूती तो कोई झटका प्रतीत नहीं होता था।
सोसाइटी आफ फिजीकल रिसर्च की रिपोर्ट के अनुसार केवल अमेरिका में ही 20 से अधिक बिजली के आदमी पाये गये हैं तलाश करने पर वे संसार के अन्य देशों में भी मिल सकते हैं कोलराड़ो निवासी डबल्यू.पी. जोन्स और उनके सहयोगी नार्मन लोग ने इस संदर्भ में लम्बी शोधें की हैं और इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि इसमें कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है। सामान्य सा शारीरिक व्यतिक्रम है। शरीर की कोशाओं के नाभिकों की बिजली-आवरण ढीले पड़ने पर ‘लीक’ करने लगती है। तब शरीर की बाहरी परतों पर उसका प्रवाह दौड़ने लगता है। वस्तुतः नाभिकों में अनन्त विद्युत शक्ति का भण्डार तो पहले से ही विद्यमान है। इन शोधकर्ताओं का कथन है कि स्थान और उपयोग की भिन्नता से प्राणि विद्युत और पदार्थ विद्युत के दो भेद हो जरूर गये हैं, पर तात्विक दृष्टि से उनमें मूलभूत एकता ही पाई जाती है।
शोधकर्ता जोन्स स्वयं भी एक विद्युत मानव थे। उन्होंने नंगे पैरों धरती पर चलकर भू-गर्भ की अनेकों धातु खदानों का पता लगाने में भारी ख्याति प्राप्त की थी। उनके स्पर्श से धातुओं से बनी वस्तुएं जादूगरों के खिलौनों की तरह उछलने खिसकने की विचित्र हलचलें करने लगती थीं। छूते ही बच्चे झटका खाकर चिल्लाने लगते थे। अमेरिका के मोन्टाना राज्य के मेडालिया कस्बे की जेनी मोरन नामक लड़की एक चलती फिरती बैटरी थी। जो उसे छूता वही झटका खाता। अंधेरे में उसका शरीर चमकता था। अपने प्रकाश से वह घोर अंधेरे में भी मजे के साथ यात्रा कर लेती थी। उसके साथ चलने वाले किसी जीवित लालटेन के साथ चलने का अनुभव करते थे। उसके शरीर के स्पर्श से 100 वाट तक का बल्ब जल उठता था। यह लड़की 30 वर्ष की आयु तक जीवित रही और अस्पर्श्य बनी एकान्त कोठरी में दिन गुजारती रही।
कनाडा के ओन्टोरियो क्षेत्र वोण्डन गांव में जन्मी एक लड़की 17 वर्ष तक जीवित रही। धातु का सामान उसके शरीर से चिपक जाता था। इसलिए उसके भोजन पात्र तक लकड़ी या कांच के रखे जाते थे।
टोकियो (जापान) की नेशनल मेडिकल रिसर्च इन्स्टीट्यूट ने इस तरह की घटनाओं पर व्यापक अनुसंधान किया और कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं इस संस्था के वैज्ञानिकों का कथन है कि आमतौर पर एक बल्ब 25 वोल्ट से 60 वोल्ट का विद्युत बल्ब जलाने जितनी विद्युत की न्यूनाधिक मात्रा प्रत्येक शरीर में पाई जाती है। ट्रांजिस्टर के ‘‘नौब’’ को हाथ की उंगलियां हटाने पर आवाज कुछ क्षीण हो जाती है, यह इसी तथ्य का प्रमाण है। विद्युत चिनगारियों के मामले आये हैं उनमें भी विद्युत आवेश अधिकांश उंगलियों में तीव्र पाया गया है, पर असीमित-शक्ति का कोई कारण खोजा नहीं जा सका।
भारतवर्ष की तरह जापान भी धार्मिक आस्थाओं, योग साधनाओं का केन्द्र है। सामान्य भारतीय की तरह उनमें भी आध्यात्मिक अभिरुचि स्वाभाविक है। एक घटना के माध्यम से जापानी वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकालने का भी प्रयास किया है कि शरीर में विद्युत की उपस्थिति का कारण तो ज्ञात नहीं किन्तु जिनमें भी यह असामान्य स्थिति पाई गई उनके मनोविश्लेषण से पता चलता है कि ऐसे व्यक्ति या तो जन्म-जात आध्यात्मिक प्रकृति के थे या कालान्तर में उनमें विलक्षण अतीन्द्रिय क्षमताओं का भी विकास हो जाता है। इस सन्दर्भ में जेनेबा की एक युवती जेनेट डरनी का उदाहरण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। जेनेट 1948 में जब वह 16-17 वर्षीय युवती थी किसी रोग से पीड़ित हुई। उनका वजन बहुत अधिक गिर गया। अब तक उनके शरीर में असाधारण विद्युत भार था वह काफी मन्द पड़ गया था किसी धातु की वस्तु का स्पर्श करने पर अब भी उनकी उंगलियों से चिनगारियां फूट पड़ती थीं। अब वह अनायास ही ध्यानस्थ हो जाने लगीं। ध्यान की इस अवस्था में उन्हें विलक्षण अनुभूतियां होतीं वह ऐसी घटनाओं का पूर्व उल्लेख कर देतीं तो कालान्तर में सचमुच घटित होतीं। व्यक्तियों के बारे में वह जो कुछ बता देतीं वह लगभग वैसा ही सत्य हो जाता। वे सैकड़ों मील दूर की वस्तुओं का विवरण नितान्त सत्य रूप में इस तरह वर्णन कर सकती थीं मानो वह वस्तु प्रत्यक्ष ही उनके सामने है। पता लगाने पर उस स्थान या वस्तु की बताई हुई सारी बातें सत्य सिद्ध होतीं। काफी समय तक वैज्ञानिकों ने जेनेट की इन क्षमताओं पर अनुसन्धान किये और उन्हें सत्य पाया किन्तु वे कोई वैज्ञानिक निरूपण नहीं कर सके—आया इस अचानक प्रस्फुटित हो उठने वाली आग या विद्युत का कारण क्या है?
रासायनिक विश्लेषण से भले ही यह बात सिद्ध न हो पर जो वस्तु अस्तित्व में है वह किसी न किसी रूप में कभी न कभी व्यक्ति होती ही रहती है। लन्दन के सुप्रसिद्ध स्नायु रोग विशेषज्ञ डा. जान ऐश क्राफ्ट को जब यह बताया गया कि उनके नगर में ही एक 11 वर्षीय किशोरी कन्या जेनी मार्गन के शरीर में असाधारण विद्युत शक्ति है और कोई व्यक्ति उसका स्पर्श नहीं कर सकता। तो उनको एकाएक विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि हाड़-मांस के शरीर में अग्नि जैसा कोई तेजस् तत्व और विद्युत जैसी क्षमतावान शक्ति भी उपलब्ध हो सकती है उसके परीक्षण का निश्चय कर वे जेनी मार्गन को देखने उसके घर पर जा पहुंचे। बड़े आत्मविश्वास के साथ जेनी से हाथ मिलाने के लिए उन्होंने अपना हाथ आगे बढ़ाया। जेनी बचना चाहती थी किन्तु डॉक्टर ने स्वयं आगे बढ़ कर उसके हाथ का स्पर्श किया उसके बाद जो घटना घटी वह डा. ऐश के लिए बिलकुल अनहोनी और विलक्षण घटना थी। एक झटके के साथ वे दूर फर्श पर जा गिरे, काफी देर बाद जब होश आया तो उन्होंने अपने आपको एक अन्य डॉक्टर द्वारा उपचार करते हुए पाया। उन्होंने स्वीकार किया कि इस लड़की के शरीर में हजारों वोल्ट विद्युत प्रभार से कम शक्ति नहीं है। सामान्य विद्युत धारा से साधारण झटका लग सकता है किन्तु 150 पौण्ड के आदमी को दूर पटक दे इतनी असामान्य शक्ति इतने से कम विद्युत भार में नहीं हो सकती।
वास्तव में बात थी भी ऐसी ही। जेनी मार्गन जिस किसी व्यक्ति के सम्पर्क में आई, उन सबने यही अनुभव दोहराया। एक दिन जेनी अपने दरवाजे पर खड़ी थी। उधर से एक ताले बेचने वाला निकला। वह जेनी से ताला खरीदने का आग्रह करने लगा। जेनी के मना करते करते उसने सस्ते ताले का प्रलोभन देकर ताला उसके हाथ में रख दिया। उसी के साथ उसके हाथ का जेनी के हाथ से स्पर्श हो गया, फिर तो जो हालत बनी उसे देखने के लिए भीड़ इकट्ठी हों गई। झटका खाकर ताले वाला पीछे जा गिरा। बड़ी देर में उसे होश आया तो वह अपना सामान समेट कर भागते ही बना। इस तरह की ढेरों घटनाएं घट चुकने के बाद ही डा. ऐश ने जेनी के अध्ययन का निश्चय किया था किन्तु शरीर में उच्च विद्युत वोल्टेज होने के कारण का वे भी कोई निष्कर्ष नहीं निकाल सके।
बुरी हालत तो बीती एक युवक पर जो जेनी की प्यार की दृष्टि से देखता था। जेनी जो अब तक अपने इस असामान्य व्यक्तित्व से ऊब चुकी थी। किसी भावनात्मक संरक्षण की तलाश में थी इस युवक को पाकर गदगद हो उठी, किन्तु भयवश स्नेह सूत्र भावनाओं तक ही जुड़े थे। शरीर स्पर्श से दोनों ही कतराते आ रहे थे। एक दिन युवक ने जेनी को एक ओपेरा में कॉफी की दावत दी। कॉफी पीकर जेनी जैसे ही उठी फर्श पर पैर फिसल जाने से वह गिर पड़ी। युवक उसे बचाने दौड़ा किन्तु अभी वह जेनी को समेट भी नहीं पाया था कि स्वयं भी पछाड़ खा कर एक मेज पर जा गिरा इससे वहां न केवल हड़कम्प मच गई अपितु उस पर एक साथ कई गर्म प्याले लुढ़क गये जिससे वह जल भी गया। काफी उपचार के बाद बेचारा घर तक जाने योग्य हो पाया। ओपेरा में उपस्थित सैकड़ों लोगों के लिए यह विलक्षण दृश्य था जिससे जेनी की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई, पर युवक ने फिर कभी मुड़कर भी उसे नहीं देखा। देखा वैज्ञानिकों ने, पर हुई उनकी भी दुर्गति। इस विद्युत भार का कोई कारण किसी की समझ में नहीं आया। सन् 1950 तक जेनी जीवित बिजली घर रही उसके बाद अपने आप हो उसकी यह क्षमता विलुप्त हो गई।
चिकित्सा इतिहास में ऐसी ही एक और घटना अन्तरियो क्षेत्र के बोंडन की है। वहां एक 17 वर्षीय लड़की कैरोलिन क्लेअर अचानक बीमार पड़ी। डेढ़ वर्ष तक चारपाई पकड़े रहने के कारण उसका 130 पौंड वजन घटकर 90 पौंड रह गया। जब उस बीमारी से पीछा छूटा तो एक नई बीमारी और लग गई। उसके शरीर में चुम्बकत्व काफी ऊंचे वोल्टेज की बिजली पैदा हो गई जो छूता वही विद्युत आघात का अनुभव करता। धातु की बनी कोई वस्तु वह छूती तो वह हाथ से चिपक जाती। अन्तरियो मेडीकल ऐसोसियेशन ने इसकी विधिवत् जांच की पर रिपोर्ट में किसी कारण का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया जा सका—केवल अनुमान और सम्भावनाओं के आधार पर ही कुछ चर्चा की गई। कुछ वर्ष बाद उसकी भी यह विलक्षणता घटने लगी और धीरे-धीरे समाप्त हो गई।
एक तीसरी घटना सोलह वर्षीय लुई हेवर्गर की है। इस लड़के में शक्तिशाली चुम्बक पाया गया। वह जिन धातु पदार्थों को छूता वे उससे चिपक जाते और किसी दूसरे द्वारा बलपूर्वक छुड़ाये जाने पर ही छूटते। मेरीलेण्ड कालेज आफ फार्मेसी के तत्वावधान में इस लड़के के सम्बन्ध में भी बहुत दिन तक खोज-बीन की गई। पर निश्चित निष्कर्ष उसके सम्बन्ध में भी व्यक्त न किया जा सका।
एक और घटना मिसौरी के निकट जापलिन नगर की है। यहां एक व्यक्ति था—फ्रैक मैक किस्टी। उसके शरीर में प्रातः काल तेज बिजली रहती थी पर जैसे-जैसे दिन चढ़ता, वह शक्ति घटती चली जाती। जाड़े के दिनों में तो वह इतनी बढ़ जाती थी कि बेचारे को चलने-फिरने में भी कठिनाई अनुभव होती थी।
फ्रांस के मेडीकल टाइम्स एण्ड गजट में एक ऐसे बच्चे की डाक्टरी रिपोर्ट छपी थी, जिसके शरीर से झटका देने जितनी बिजली प्रवाहित होती थी। लियोन्स नगर में उत्पन्न हुआ यह बच्चा 10 महीने जिया, उसे इतने दिनों बहुत सावधानी से ही जिन्दा रखा जा सका। क्योंकि उसे छूते ही जमीन पर पटक देने वाला झटका लगता था। लकड़ी के तख्ते पर खड़े होकर तथा बिजली से प्रभावित न होने वाली वस्तुओं के सहारे ही उसके नित्यकर्म कराये जाते थे। उसके स्पर्श में आने वाले सभी उपकरण लकड़ी, कांच आदि के थे और कपड़े रबड़ के पहनाये गये थे। जब वह मरा तो 10 सेकिण्ड तक उसके शरीर से हल्की नीली प्रकाश किरणें निकलती देखी गईं।
फ्रांस के जोलिया क्षेत्र में सोंदरवा कस्बे में जन्मे एक ऐसे बालक की रिपोर्ट स्वास्थ्य विभाग ने नोट की है जिसके शरीर से बिजली की तरंगें उठती थीं। जब वह मरने लगा तो डाक्टरों ने प्रकाश की तीव्र किरणें निकलती और अन्ततः मन्द होकर समाप्त होते देखी थीं।
आस्ट्रेलिया से एक बाईस वर्षीय युवक न्यूयार्क में इलाज कराने के लिए लाया गया था। उसके शरीर की स्थिति बिजली की बैटरी जैसी थी। छूते ही उसका चुम्बकीय प्रभाव स्पष्ट अनुभव होता था। जब यह बिजली मन्दी पड़ जाती तो वह बेचैनी अनुभव करता। जिन चीजों में फास्फोरस अधिक होता उन मछली सोव आदि पदार्थों को ही वह रुचि पूर्वक खाता था, सान्माय लोगों का आहार तो वह मजबूरी में ही करता था।
मास्को निवासी कुमारी माइखेलोवा रूसी वैज्ञानिकों के लिए एक दिलचस्प शोध का विषय रही है। वह अपने दृष्टिपात से चलती घड़ियां बन्द कर देती थी अथवा सुइयां आगे पीछे घुमा देती थी। इसके करतबों की फिल्म बना कर कितनी ही प्रयोगशालाओं में भेजी गई ताकि अन्यत्र भी उस विशेषता के संबन्ध में अन्वेषण कार्य चलता रह सके। वैज्ञानिकों ने इसे मस्तिष्कीय विद्युत की चुम्बकीय शक्ति-इलेक्ट्रो मैगनेटिक-फोर्स की विद्यमानता निरूपित की है। वे कहते हैं यह शक्ति हर मनुष्य में मौजूद है। परिस्थिति वश वह किसी में भी अनायास ही प्रकट हो सकती है और प्रयत्न पूर्वक उसे बढ़ाया भी जा सकता है। रूसी वैज्ञानिक लाखसोव ने हर मनुष्य के शरीर से निकलने वाले विद्युत विकिरणों को अंकित कर सकने वाला एक यंत्र ही बना डाला है।
यह उदाहरण इस बात के प्रतीक हैं कि मनुष्य शरीर प्राण-विद्युत का खजाना है। हम सामान्य आहार-विहार साधारण श्वास और निर्बल इच्छा शक्ति के कारण न तो उस शक्ति को जगा पाते हैं न कोई विशिष्ट उपयोग ही कर पाते हैं, पर यह विद्युत ही है जिसे विभिन्न योग साधनाओं द्वारा जागृत और नियन्त्रित करके योगीजन अपने लोग और परलोक दोनों को समर्थ बनाते थे। वह कार्य करने में सफल होते थे जो साधारण व्यक्तियों को कोई प्रताप और चमत्कार जैसा लगता है।
इस तरह अनायास ही जाग पड़ने वाली शरीर विद्युत की तरह कई शरीरों में प्राण शक्ति अग्नि के रूप में प्रकट होने की भी घटनाएं घटती हैं। वास्तव में सभी भौतिक शक्तियां परस्पर परिवर्तनीय हैं अतएव दोनों तरह की घटनाएं एक ही परिप्रेक्ष्य में आती हैं।
प्राणाग्नय एवास्मिन् ब्रह्मपुरे जागृति । प्रश्नोपनिषद्
इस ब्रह्मपुरी अर्थात् शरीर में प्राण ही कई तरह की अग्निायों के रूप में जलता है।
कई बार यह विद्युताग्नि इतनी प्रचण्ड रूप में जागृतिक हुई है कि वह स्वयं धारक को ही निगल बैठी। चेम्सफोर्ड इंग्लैण्ड में 20 सितम्बर 1938 को एक ऐसी ही घटना घटी। एक आलीशान होटल में आर्केस्ट्रा की मधुर ध्वनि गूंज रही थी। नृत्य चल रहा था तभी एक महिला के शरीर से तेज नीली लौ फूटी। लोग भयवश एक ओर खड़े हो गये। लपटें देखते-देखते लाल ज्वाला हो गईं और कुछ ही क्षणों में युवती का सुन्दर शरीर राख की ढेरी बन गया। 31 मार्च 1908 को ह्विटले (इंग्लैंड) में ही ऐसी एक और घटना घटी थी। जोनहार्ट नामक एक व्यक्ति बैठा कोई पुस्तक पढ़ रहा था, सामने कुर्सी पर उसकी बहन बैठी थी, एकाएक उसके शरीर से आग की लपटें निकलने लगीं। जोन ने बहन को तुरन्त एक कम्बल से ढका और दौड़ा डॉक्टर को बुलाने। 10 मिनट में ही नील स्ट्रीट से डॉक्टर वहां पहुंचे किन्तु उनके पहुंचने से पूर्व ही बहन कुर्सी और कम्बल सब एक राख की ढेरी में परिणत हो चुके थे।
अमेरिका में अब तक ऐसी 200 मौतें हो चुकी हैं। फ्लोरिडा का एक व्यक्ति सड़क पर जा रहा था कि एकाएक उसके शरीर से आग की नीली लपटें फूट पड़ीं। सहयात्रियों में से एक ने उसके शरीर पर पानी की बाल्टी उड़ेल दी। आग थोड़ी देर के लिए शान्त हो गई। जब तक डॉक्टर और गुप्तचर विभाग वहां पहुंचे तब तक पानी सूख चुका था और सैकड़ों दर्शकों की उपस्थिति में ही आग का भवका फिर उठा और वह व्यक्ति वहीं जल कर ढेर हो गया, फ्लोरिडा के मेडिकल जनरल में छपे एक लेख में वैज्ञानिकों ने हैरानी प्रकट की कि मनुष्य शरीर में 90 प्रतिशत भाग जल होता है, उसे जलाने के लिए 5000 डिग्री फारेन हाइट की अग्नि चाहिए वह एकाएक कैसे पैदा हो जाती है। शरीर के ‘‘कोषों’’ (सेल्स) में अग्नि स्फुल्लिंग ‘‘प्रोटोप्लाज्मा’’ में सन्निहित रहते हैं, पर वह इतने व्यवस्थित रहते हैं कि शरीर के जल जाने की आशंका नहीं रहती। प्रोटोप्लाज्मा उच्च प्लाज्मा में बदलने पर ही अग्नि बन सकती है यह सब एकाएक कैसे हो जाता है यह वैज्ञानिकों की समझ में अब तक भी नहीं आया।
इस तरह झटका मारने जैसे स्तर की बिजली तो कभी-कभी किसी-किसी के शरीर में ही देखने को मिलती है, पर सामान्यतया वह हर मनुष्य में पाई जाती है और जीवन की विविध गतिविधियों के संचालन में सहायता करती है। इसके सदुपयोग एवं अभिवर्धन का विज्ञान यदि ठीक तरह समझा जा सके तो मनुष्य परम तेजस्वी, मनस्वी एवं आत्मबल सम्पन्न बनकर सुविकसित जीवन जी सकता है।
सिर और नेत्रों में मानवी विद्युत का सबसे अधिक अनुभव होता है। वाणी की मिठास, कड़क अथवा प्रभावी प्रामाणिकता में भी उसका अनुभव किया जा सकता है। तेजस्वी मनुष्य के विचार ही प्रखर नहीं होते उसकी आंखें भी चमकती हैं और उनकी जीभ के अन्तर में गहराई तक घुस जाने वाला विद्युत प्रवाह उत्पन्न करती है। आत्मबल की साधना को प्रकारान्तर से तेजस्विता की साधना ही कह सकते हैं।
मानवी विद्युत के दो प्रवाह हैं एक ऊर्ध्वगामी दूसरा अधोगामी। ऊर्ध्वगामी मस्तिष्क में केन्द्रित है। उस मर्मस्थल के प्रभाव से व्यक्तित्व निखरता और प्रतिभाशाली बनता है। बुद्धि कौशल, मनोबल के रूप में शौर्य, साहस और आदर्शवादी उत्कृष्टता के रूप में यही विद्युत काम करती है। योगाभ्यास के—ज्ञान साधना के समस्त प्रयोजन इस ऊर्ध्वगामी केन्द्र द्वारा ही सम्पन्न होते हैं। स्वर्ग और मुक्ति का—ऋद्धियों और सिद्धियों का आधार इसी क्षेत्र की विद्युत के साथ जुड़ा हुआ है। मनुष्य के चेहरे के इर्द-गिर्द छाये हुए तेजोबल को—ओजस् को इस ऊर्ध्वगामी विद्युत का ही प्रतीक समझना चाहिए।
अधोगामी विद्युत जननेन्द्रिय में केन्द्रित रहती है। रति सुख का आनन्द देती है और सन्तानोत्पादन की उपलब्धि प्रस्तुत करती है। विविध कला विनोदों का—हर्षोल्लासों का उद्भव यहीं होता है। ब्रह्मचर्य पालन करने के जो लाभ गिनाये जाते हैं वे सब जननेन्द्रिय में सन्निहित विद्युत के ही चमत्कार हैं। आगे चलकर मूलाधार चक्र में अवस्थित कुण्डलिनी शक्ति का जागरण करने साधनारत मनुष्य अपने को ज्योतिर्मय तेज पुंज के रूप में परिणत कर सकते हैं।
ऊर्ध्वगामी और अधोगामी विद्युत प्रवाह यों उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव की तरह भिन्न प्रकृति के हैं और एक दूसरे से दूर हैं फिर भी वे सघनता पूर्वक मेरुदण्ड के माध्यम से परस्पर जुड़े हुए हैं। जननेन्द्रिय उत्तेजना से मस्तिष्क में संक्षोभ उत्पन्न होता है और उत्कृष्ट चिन्तन से कामविकारों का सहज शयन सम्भव हो जाता है। यदि यह उभय-पक्षीय शक्ति प्रवाह ठीक तरह संजोया, संभाला जा सके तो उसका प्रभाव व्यक्तित्व के समान विकास में चमत्कारी स्तर का देखा जा सकता है।
मानवी तत्व की व्याख्या, विवेचना अनेक आधारों पर की जाती है अध्यात्म एवं तत्व दर्शन के आधार पर मनुष्य को ईश्वरीय सत्ता का प्रतिनिधि और अगणित दिव्य संभावनाओं का भाण्डागार माना गया है, भौतिक विश्लेषण के अनुसार वह रासायनिक पदार्थ और पंचतत्व समन्वय का एक हंसता, बोलता पादप है। विद्युत विज्ञान के अनुसार उसे एक जीवित जागृत बिजली घर भी कहा जा सकता है। रक्त संचार, श्वास-प्रश्वास, आकुंचन-प्रकुंचन जैसे क्रिया-कलाप पेंडुलम गति से स्वसंचालित रहते हैं और जीवनी शक्ति के नाम से पुकारी जाने वाली विद्युत शक्ति की क्षति पूर्ति करते हैं। मस्तिष्क अपने आप में एक रहस्य पूर्ण बिजली घर है। जिसमें जुड़े हुए तार समस्त काया को कठपुतली की तरह नचाते हैं।
मनुष्य शरीर की बिजली एक प्रत्यक्ष सचाई है। उसे यन्त्रों से भी देखा जाना जा सकता है। वह अपने ढंग की अनोखी है। भौतिक विद्युत से उसका स्तर बहुत ऊंचा है। बल्ब में जलने और चमकने वाली बिजली की तुलना में नेत्रों में चमकने वाली बिजली की गरिमा और जटिलता अत्यन्त ऊंचे स्तर की समझी जानी चाहिए। तारों को छूने पर जैसा झटका लगता है वैसा आमतौर से शरीरों के छूने से नहीं लगता है तो भी काया संस्पर्श के दूरगामी कायिक और मानसिक प्रभाव उत्पन्न होते हैं। महामानवों के चरण-स्पर्श जैसे धर्मोपचार इसी दृष्टि से प्रचलित हैं। यह कायिक बिजली कभी-कभी भौतिक बिजली के रूप में देखने में आती है उससे उस रहस्य पर पड़ा हुआ पर्दा और भी स्पष्ट रूप से उतर जाता है जिसके अनुसार मनुष्य को चलता-फिरता बिजली घर ही माना जाना चाहिए।
यह शक्ति इतनी प्रचण्ड होती है कि उससे संसार की आश्चर्यजनक मशीनरी का काम मनुष्य केवल अपनी इच्छा शक्ति से कर सकता है अर्थात् प्राण विद्युत पर नियन्त्रण इच्छा शक्ति का ही होता है। सामान्य स्थिति में तो अन्न और श्वासों से प्राप्त विद्युत ही काम करती रहती है पर जैसे-जैसे योगाभ्यासी उस सत्ता का आन्तरिक परिचय पाता चला जाता है। वह इस शक्ति का विकास भी इच्छा-शक्ति से ही करके कोई भी मनोरथ सफल करने और इच्छित आयु जीने में समर्थ होता है।
मनुष्य शरीर में बिजली की उपस्थिति न तो स्वल्प है और न महत्व हीन। बालों में कंघी करके उतनी भर रगड़ से उत्पन्न चुम्बक को देखा जा सकता है बालों से घिसने के बाद कंघी को लोहे की पिन से स्पर्श करें तो उसमें चुम्बक के गुण विद्यमान मिलेंगे। निर्जीव बालों में ही नहीं सजीव मस्तिष्क में भी बिजली की महत्वपूर्ण मात्रा विद्यमान है। अन्य बिजलीघरों की तरह वहां भी बनाव बिगाड़ का क्रम चलता रहता है। इस मरम्मत में चुम्बकीय चिकित्सा का आशाजनक उपयोग किया जा सकता है।
हमें शरीर एवं मन को सजीव स्फूर्तिवान एवं तेजस्वी बनाने के लिये अपनी विद्युत शक्ति को सुरक्षित रखने का ही नहीं इस बात का भी प्रयत्न करना चाहिये कि उसमें निरन्तर वृद्धि भी होती चले। क्षति पूर्ति की व्यवस्था बनी रहे। यह प्रयोजन, प्राणायाम षटचक्र वेधन, कुण्डलिनी योग एवं शक्तिपात जैसी साधनाओं से संभव हो सकता है। इस मानवी विद्युत का ही यह प्रभाव है जो एक दूसरे को आकर्षित या प्रभावित करता है। उभरती आयु में यह बिजली काय-आकर्षण की भूमिका बनती है पर यदि उसका सदुपयोग किया जाय तो बहुमुखी प्रतिभा, ओजस्विता, प्रभावशीलता के रूप में विकसित होकर, कितने ही महत्वपूर्ण कार्य कर सकती है। ऊर्ध्व रेता, संयमी ब्रह्मचारी लोग अपने ओजस् को मस्तिष्क में केन्द्रित करके उसे ब्रह्मवर्चस के रूप में परिणत करते हैं। विद्वान दार्शनिक, वैज्ञानिक, नेता, वक्ता, योद्धा, योगी, तपस्वी जैसी विशेषताओं से सम्पन्न व्यक्तियों के सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने ओजस का—प्राणतत्व का अभिवर्धन, नियन्त्रण एवं सदुपयोग किया है। यों यह शक्ति किन्हीं-किन्हीं में अनायास भी उभर पड़ती देखी गई है और उसके द्वारा उन्हें कुछ अद्भुत काम करते भी पाया गया है।
जर्मनी का अधिनायक हिटलर जब रुग्ण होता तो उसे सुयोग्य डाक्टरों की अपेक्षा एक ‘नीम हकीम’ क्रिस्टन का सहारा लेना पड़ता। उसकी उंगलियों में जादू था। दवा दारु वह कम करता था, हाथ का स्पर्श करके दर्द को भगाने की उसको जादुई क्षमता प्राप्त थी। सन् 1898 में वह इस्टोनिया में जन्मा प्रथम विश्वयुद्ध के बाद वह फिनलैंड नागरिक माना पीछे उसने मालिस करके रोगोपचार करने की कला सीखी। अपने कार्य में उसका कौशल इतना बढ़ा कि उसे जादुई चिकित्सक कहा जाने लगा। हिटलर ही नहीं, उसके जिगरी दोस्त हिमलर तक को उसने समय-समय पर अपनी चिकित्सा से चमत्कृत किया और भयंकर रुग्णता के पंजे से छुड़ाया। क्रिस्टन ने अपने परिचय और प्रभाव का उपभोग करके हिटलर के मृत्युपाश में जकड़े हुए लगभग एक लाख यहूदियों का छुटकारा कराया।
मनुष्य ही अपवाद नहीं
प्राण विद्युत मनुष्य की उपलब्धि नहीं सृष्टि के छोटे-छोटे जीवों में भी उसी का संचार हो रहा है। सितम्बर 1966 के नवनीत ‘‘अंक’’ में प्रसिद्ध जीव शास्त्री जेराल्ड ड्यूरल ने ‘‘इन्सान’’ से भी पुराने वैज्ञानिक लेख के अन्तर्गत एक घटना दी है और बताया है कि ब्रिटिश गायना के चिड़िया घर में एक ईल मछली, जो अपने शरीर से तीव्र विद्युत करेन्ट निकालती है, एक हौज में थी जब उसे खाना खिलाया तो ईल ने अपने शरीर को इस प्रकार कंपाया मानो कोई डायनमो चलाया जा रहा हो। उससे इतनी तेज विद्युत निकली कि खाने के लिये जो मछलियां डाली जा रही थीं वह मर गई। ‘‘टारपीडो फिश’’ की एक घटना भी उन्होंने दी है इसमें एक लड़के ने इस मछली का शिकार करते हुए उसके शरीर की बिजली के झटके के कारण अपने प्राण गंवा दिये थे।
कुछ जाति की मछलियां चलते फिरते पावर हाउस कही जाती हैं। इनके शरीर में इतनी बिजली होती है कि सम्पर्क में आने वाले दूसरे जीवों को झटका देकर पछाड़ती है। जिस रास्ते वे गुजरती हैं वहां का पानी भी चुम्बकीय बन जाता है और उस क्षेत्र के जल जन्तु उसका प्रभाव अनुभव करते हैं। हिन्पास, जिन्मोटिस, इलेक्ट्रोफोरस, मेलाप्टोसूरस, मारमाइरस, स्टार गेजर, जाति की मछलियां इस किस्म की हैं। दक्षिणी अमेरिका के जलाशयों में पाई जाने वाली इलेक्ट्रोफोरस मछली में तो इतनी बिजली होती है कि पास में पानी पीने के लिए जल में प्रवेश करने वाला मजबूत घोड़ा भी धराशायी हो जाय। अरब क्षेत्र में मेलाप्टोसूरस में भी ऐसी ही विद्युत कड़क होती है इसलिए इसे वहां के लोग ‘राड’ कहते हैं। राड अर्थात् आसमानी बिजली।
मत्स्य अनुसन्धान में कम वोल्ट बिजली वाली तो कई हैं पर अधिक वोल्ट शक्ति वाली मछलियों में चार जातियां प्रमुख हैं। इनमें से रेजे में 4 वोल्ट, टारयडो में 40 वोल्ट, इलैक्ट्रिक ईल में 350 से 550 वोल्ट तक और कैट जाति की मछलियों में 350 से 450 वोल्ट तक बिजली होती है। इनमें एक विशेष प्रकार की पेशियां तथा तन्तु पट्टियां होती हैं, जिनके घर्षण से डायनमों की तरह बिजली बनती है। जब वे चाहती हैं तब इन अंगों को इस तरह चलाती हैं कि अभीष्ट मात्रा में बिजली उत्पन्न हो सके और वे मन चाहे प्रयोजन के लिए उसका प्रयोग कर सकें। साधारणतया यह विशेषता सुप्त ही पड़ी रहती है।
सर्प के नेत्रों की विद्युत प्रख्यात है। सिंह, व्याघ्र आदि हिंस्र जन्तुओं की आंखें भी ऐसी ही बिजली उगलती हैं कि उसके प्रभाव के सामने आने वाले छोटे जीव अपनी सामान्य चेतना खो बैठते हैं। किंकर्तव्य विमूढ़ होकर खड़े रहते हैं अथवा मौत के मुंह में दौड़ते हुए स्वयं ही घुस जाते हैं।
अफ्रीका के जंगलों में पाये जाने वाले बड़ी जाति के अजगर जलपान के लिए छोटे-छोटे मेंढक, चूहे, गिलहरी, छिपकली जैसे जीव घर बैठे ही प्राप्त कर लेते हैं। बड़े शिकार पकड़ने के लिए तो वे क्षुधातुर होने पर ही निकलते हैं। इन अजगरों की आंखों में विचित्र प्रकार का चुम्बकत्व होता है। जिस पर उनकी नजर पड़ती है वह उसी जगह ठिठक कर रह जाता है। उड़ने और दौड़ने की शक्ति खो बैठता है। इतना ही नहीं वह स्वयं खिसकता हुआ अजगर के फटे मुंह की तरफ बढ़ता आता है और स्वयमेव उसमें प्रवेश कर जाता है। प्रो. एफ. स्नाइडर ने एक बार पाले हुए अजगर के पिंजड़े में कुछ चूहे छोड़े। चूहे पहले तो डर कर भागे और पिंजड़े के एक कोने में जा छिपे। किन्तु जब अजगर ने उन्हें घूर कर देखा तो वे धीरे-धीरे अपने आप बढ़ते चले आये और सर्प के मुंह में घुस गये।
वेस्टइंडीज में ‘ट्रेन इंसेक्ट’ या ‘रेलगाड़ी-कीड़ा’ पाया जाता है उसके मुंह पर एक लाल रंग का और दोनों बाजुओं में दीपकों की 11-11 की पंक्तियां पाई जाती हैं यह हरा प्रकाश उत्पन्न करती हैं चलते समय यह कीड़ा रात में चलती रेलगाड़ी की तरह लगता है इसी कारण इसको यह नाम दिया गया है। दक्षिणी अमेरिका में भी यह बहुतायत से पाया जाता है। वेस्टइंडीज में ही ‘कूकूजी’ नामक एक कीड़ा पाया जाता है इसे ‘मोटर-कीड़ा’ कहते हैं। यह जुगनू की ही एक जाति है किन्तु उसके मुंह पर दो-दीपक होते हैं और वह दोनों पीले रंग का प्रकाश निकालते हैं। स्पेन अमेरिका के गृह-युद्ध के समय विलियम गोरगास नामक डॉक्टर ने इन कीड़ों को एक सफेद शीशी में भर कर उनके प्रकाश में सफल आपरेशन किये थे।
वनस्पति जगत की एक काई भी स्व-प्रकाशित होती है। कटल फिश, दुश्मनों के आक्रमण के समय काले रंग का प्रकाश-बादल फैला देते हैं। झींगे मछलियां और अन्य कई जल के जीव अपने शरीरों से प्रकाश, उत्सर्जित करते हैं। जुगनू इस प्रकाश का उपयोग-प्रजनन क्रिया में संकेत के रूप में करते हैं। मादा जुगनू एक बार संकेत करके शान्त हो जाती है तब नर उसे ढूंढ़ता हुआ उस तक आप पहुंच जाता है इस तरह यह जीव किसी न किसी रूप में इस प्रकाश का उपयोग प्रकृति प्रदत्त विभूति के रूप में करते हैं जब कि मनुष्य को उसके लिए बाह्य साधनों का आश्रय लेना पड़ता है।
निर्जीव वस्तु से आग की लपटों का या विद्युत का निकाल लेना इस वैज्ञानिक युग में कोई चमत्कार नहीं रह गया, किन्तु जीवन्त चेतना के यह दृश्य निःसन्देह अचम्भे में डालने वाले हैं। जुगनू इस मामले में एक बहुत साधारण जीव है जिसकी चमक से किसी को आश्चर्य नहीं होता। समुद्र में बहुत सारे एक कोशीय जीव पाये जाते हैं, जो जुगनू की तरह स्व-प्रकाशित होते हैं। दिन में तो उनकी चमक दृष्टिगोचर नहीं होती किन्तु रात में यह जीव रेत-कणों की तरह ऐसे चमकते हैं जैसे अंधेरे आसमान में तारे चमकते हों। बैंजामिन फ्रैंकलिन जो एक प्रसिद्ध विद्युत-वैज्ञानिक थे, अपने यह समझते थे कि समुद्र की यह चमक समुद्र के पानी और नमक के कणों से उत्पन्न विद्युत कण हैं किन्तु पीछे उन्होंने भी अपनी भूल सुधारी और बताया कि समुद्र ही नहीं धरती पर भी सड़ी-गड़ी वस्तुएं खाने वाले अनेक जीव हैं जो अपने भीतर से विद्युत पैदा करते हैं। कृत्रिम रूप से विनिर्मित विद्युत की मात्रा में ताप की मात्रा उससे कई गुनी अधिक होती है, किन्तु मनुष्य का मनुष्येत्तर जीवों में ऐसा क्यों नहीं होता? इस प्रकाश को बैंजामिन ने ‘ठण्डे-प्रकाश’ (कोल्ड लाइट) की संज्ञा दी है। दो हजार जुगनू एक साथ चमकें तो उससे एक मोमबत्ती का प्रकाश उत्पन्न हो सकता है, पर उस प्रकाश को यदि एकत्र किया जाये तो रुई भी जल सकती, जब कि मोमबत्ती ईंधन को भी जला देगी।
1886 में प्राणिशास्त्रियों ने एक प्रकाश देने वाली सीप के शरीर से ‘लुसिफेरिन’ नामक एक रसायन निकाल कर यह सिद्ध किया कि ऐसे जीवों में यही तत्व प्रकाश उत्पन्न करता है। यह तत्व शरीर की विशिष्ट ग्रन्थियों से निकलता है और ऑक्सीजन के सम्पर्क में आकर प्रकाश के रूप में परिणत हो जाता है। जुगनू में मैगनेटिक बेल की तरह यह तत्व रुक-रुक कर निकलता है इसी से वह जलता-बुझता रहता है किन्तु यह तत्व किस तरह बनता है इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक अब तक कोई जानकारी प्राप्त नहीं कर सके। सम्भव है जीवन की खोज करते-करते वह रहस्य करतलगत हों जो इन तथ्यों का भी पता लगा सकें और प्राण चेतना की गुत्थियां भी सुलझा सकें।
विश्वव्यापी विद्युत चुम्बक से कौन कितना लाभ उठाले यह उस प्राणी की शरीर रचना एवं चुम्बकीय क्षमता पर निर्भर है। कितने ही पक्षी ऋतु परिवर्तन के लिए झुण्ड बनाकर सहस्रों मील की लम्बी उड़ाने भरते हैं वे धरती के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जा पहुंचते हैं। इनकी उड़ाने प्रायः रात को होती हैं। उस समय प्रकाश जैसी कोई सुविधा भी उन्हें नहीं मिलती, यह कार्य उनकी अन्तः चेतना पृथ्वी के इर्द गिर्द फैले हुए चुम्बकीय घेरे में चल रही हलचलों के आधार पर ही पूरा करती है। इस धारा के सहारे वे इस तरह उड़ते हैं मानो किसी सुनिश्चित सड़क पर चल रहे हों।
टरमाइन कीड़े अपने घरों का प्रवेश द्वार सदा निर्धारित दिशा में ही बनाते हैं। समुद्री तूफान आने से बहुत पहले ही समुद्र बतख आकाश में उड़कर तूफानी क्षेत्र से पहले ही बहुत दूर निकल जाती हैं। चमगादड़ अंधेरी रात में आंख के सहारे नहीं अपनी शरीर विद्युत के सहारे ही वस्तुओं की जानकारी प्राप्त करते हैं और पतले धागों से बचकर उपयोगी रास्ते पर उड़ते हैं। मेढ़क मरे और जिन्दे शिकार का भेद अपनी शारीरिक विद्युत के सहारे ही जान पाता है। मरी और जीवित मक्खियों का ढेर सामने लगा देने पर वह मरी छोड़ता और जीवित खाता चला जायगा। उल्लू की शिकार दबोचने की क्षमता उसकी आंखों पर नहीं विद्युत संस्थान पर निर्भर रहती है। सांप समीपवर्ती प्राणियों के शरीरों के तापमान का अन्तर समझता है और अपने रुचिकर प्राणी को ही पकड़ता है। भुनगों की आंखें नहीं होती वह अपना काम विशेष फोलो सेलों से बनाते हैं। अपने युग में अनेकों वैज्ञानिक यंत्र प्राणियों की अद्भुत विशेषताओं की छान-बीन करने के उपरान्त उन्हीं सिद्धान्तों के सहारे बनाये गये हैं। प्राणियों में पाए जाने वाली विद्युत शक्ति ही उनके जीवन निर्वाह के आधार बनाती है। इन्द्रिय शक्ति कम होने पर भी वे उसी के सहारे सुविधापूर्वक समय गुजारते हैं।
योग साधनाओं का एक उद्देश्य इस चेतना विद्युत शक्ति का अभिवर्धन करना भी है। इसे मनोबल, प्राणबल और आत्मबल भी कहते हैं। संकल्प शक्ति और इच्छा शक्ति के रूप में इसी के चमत्कार देखे जाते हैं।
आत्म शक्ति सम्पन्न व्यक्ति अपनी जन सम्पर्क गतिविधियों को निर्धारित एवं नियन्त्रित करते हैं। विशेषतया काम सेवन सम्बन्धी सम्पर्क से बचाव इसी आधार पर किया जाता है अत्यंत महत्वपूर्ण शक्ति को उपयोगी दिशा में ही नियोजित करने के लिए सुरक्षित रखा जा सके और उसका क्षुद्र मनोरंजन के लिये अपव्यय न होने पाये। अध्यात्म शास्त्र में प्राण विद्या का एक स्वतन्त्र प्रकरण एवं विधान है। इसके आधार पर साधनारत होकर मनुष्य इस प्राप्त विद्युत की इतनी अधिक मात्रा अपने में संग्रह कर सकता है कि उस आधार पर अपना ही नहीं अन्य अनेकों का भी उपकार उद्धार कर सके।
प्राणिज विद्युत शक्ति के उत्पादन के लिए मानवी शरीर में समुचित साधन और आधार विद्यमान हैं। डायनमो आरमेचर मेगनेट, क्वायल जैसे सभी उपकरण उसमें अपने ढंग से विद्यमान हैं। अंग-प्रत्यंगों में वे रासायनिक पदार्थ भरे पड़े हैं जिनसे बिजली उत्पन्न होती है। रक्तभिषरण की प्रक्रिया इस मोटर को घुमाती है और उस आधार पर यह विद्युत उत्पादन अनवरत रूप से जारी रहता है।
कोशिकाओं की आन्तरिक संरचना में एक महत्वपूर्ण आधार है—माइटो कोन्ड्रिया। इसे दूसरे शब्दों में कोशिका का पावर हाउस-विद्युत भण्डार कह सकते हैं। भोजन, रक्त, मांस अस्थि आदि से आगे बढ़ते-बढ़ते अन्ततः इसी संस्थान में जाकर ऊर्जा का रूप लेता है। यह ऊर्जा ही कोशिका को सक्रिय रखती है और उनकी सामूहिक सक्रिया जीव-संचालक के रूप में दृष्टिगोचर होती है। इस ऊर्जा को लघुत्तम प्राणांश कह सकते हैं। काय कलेवर में इसका एकत्रीकरण महाप्राण कहलाता है और उसी की ब्रह्माण्ड व्यापी चेतना विश्वप्राण या विराट प्राण के नाम से जानी जाती है। प्राणांश की लघुत्तम ऊर्जा इकाई कोशिका के अन्तर्गत ठीक उसी रूप में विद्यमान है जिसमें कि विराट् प्राण गतिशील है। बिन्दु सिन्धु जैसा अन्तर इन दोनों के बीच रहते हुए भी वस्तुतः वे दोनों अन्योन्याश्रित हैं। कोशिका के अन्तर्गत प्राणांश के घटक परस्पर संयुक्त न हो तो महाप्राण का अस्तित्व न बने। इसी प्रकार यदि विराट् प्राण की सत्ता न हो तो भोजन पाचन आदि का आधार न बने और वह लघु प्राण जैसी विद्युत धारा का संचार भी संभव न हो।
बिजली से हीटर, कूलर, पंखे आदि चलते हैं इससे उसकी उपयोगिता समझ में आती है किंतु कभी-कभी इस प्रक्रिया में व्यतिरेक भी होते देखा जा सकता है। भौतिक बिजली जीव विद्युत तो नहीं बन सकती पर जीव विद्युत के साथ भौतिक बिजली का सम्मिश्रण बन सकता है। ऐसी विचित्र घटनाएं कई बार देखने में आई हैं जिनसे मानवी शरीरों को एक छोटे जनरेटर या डायनेमो की तरह काम करते देखा गया है।
कई उदाहरण ऐसे देखे गये हैं जो यह बताते हैं कि इस शरीर में असाधारण विद्युत प्रवाह का संचार हो रहा है। यों यह विद्युत शक्ति हर किसी में होती है पर वह अपनी मर्यादा में रहती है और अभीष्ट प्रयोजन में इस प्रकार निरत रहती है कि अनावश्यक स्तर पर उभर पड़ने के कारण उसका अपव्यय न होने लगे। छूने से किसी शरीर में बिजली जैसे झटके प्रतीत न होते हों तो भी यह नहीं समझना चाहिए कि उस शक्ति का किसी प्रकार अभाव है। हर किसी में पाई जाने वाली मानवी विद्युत जिसे अध्यात्म की भाषा में प्राण कहते हैं कभी कभी किसी के प्रतिबन्ध कलेवर भेद कर बाहर निकल आती है तब उसका स्पर्श भी भौतिक बिजली जैसा ही बन जाता है।
आयरलैण्ड की एक युवती जे. स्मिथ के शरीर में इतनी बिजली थी कि उसे छूते ही झटका लगता था। डा. एस. क्रापट के तत्वावधान में इस पर काफी खोज की गई, उसमें कोई छल नहीं था। हर दृष्टि से यह परख लिखा गया कि वह शरीरगत बिजली ही है, पर इस अतिरिक्त उपलब्धि का आधार क्या है इसका कारण नहीं समझा जा सका। बर्लिन (जर्मनी) के निकट एक छोटे से गांव मिसौरी सिडैलिया में एक लड़की जब 24 वर्ष की हुई तो उसके शरीर में अचानक विद्युत प्रवाह का संचार आरम्भ हो गया। इस लड़की का नाम था—जेनी मार्गन। उसके शरीर की स्थिति एक शक्तिशाली बैटरी जैसी हो गई।
एक दिन वह हैण्डपम्प चला कर पानी निकालने लगी तो उसके स्पर्श के स्थान पर आग की चिनगारियां छूटने लगीं। लड़की डर गई और घर वालों को सारा विवरण सुनाया। पहले तो समझा गया कि पम्प में कहीं से करेन्ट आ गया होगा पर जब जांच की गई तो पता चला कि लड़की का शरीर ही बिजली से भरा हुआ है, वह जिसे छूती उसी को झटका लगता। वह एक प्रकार से अस्पर्श्य बन गई। चिकित्सकों और वैज्ञानिकों ने इस जंजाल से उसे छुड़ाने के लिये अपने-अपने ढंग से कारण तलाश करने और उपचार ढूंढ़ने में शक्ति भर प्रयत्न किया पर कुछ सफलता न मिली। कई वर्ष यह स्थिति रहने के बाद वह प्रवाह स्वयं ही घटना शुरू हुआ और तरुणी होने तक वह व्यथा अपने आप टल गई। तब कहीं उसकी जान में जान आई और सामान्य जीवन बिता सकने योग्य बनी।
सुप्रसिद्ध ‘टाइम्स’ पत्रिका में कुछ समय पूर्व ओन्टारियो (कनाडा) की एक कैरोलिन क्लेयर नामक महिला का विस्तृत वृत्तान्त छपा था। जिसमें बताया गया था कि उपरोक्त महिला डेढ़ वर्ष तक बीमार पड़ी रही, पर जब स्थिति कुछ सुधरी तो उसमें एक नया परिवर्तन यह हुआ कि उसके शरीर में बिजली की धारा बहने लगी यदि वह किसी धातु की बनी वस्तु को छूती तो उसी से चिपक जाती। घर वाले उसे बड़ी कठिनाई से छुड़ाते। चुम्बक जैसा यह प्रवाह कैसे उत्पन्न हुआ उसका न तो कुछ कारण जाना जा सका और न उपाय उपचार किया जा सका।
मेरीलैण्ड (अमेरिका) के कालेज आफ फार्मेसी की सोलह वर्षीय छात्रा लुई हैवर्गर, वैज्ञानिकों के लिये अनबूझ पहेली बनी रही। उस लड़की की उंगलियों के अग्रभाग में चुम्बकीय गुण था। आधी इंच मोटी और एक फुट लम्बी लोहे की छड़ वह उंगलियों के पोरवों से छूकर अधर उठा लेती थी। और वह छड़ हवा में बिना किसी सहारे के लटकती रहती थी। धातुओं की वस्तुएं उसके हाथ से चिपक कर रह जाती थीं पर किसी मनुष्य को जब वह छूती तो कोई झटका प्रतीत नहीं होता था।
सोसाइटी आफ फिजीकल रिसर्च की रिपोर्ट के अनुसार केवल अमेरिका में ही 20 से अधिक बिजली के आदमी पाये गये हैं तलाश करने पर वे संसार के अन्य देशों में भी मिल सकते हैं कोलराड़ो निवासी डबल्यू.पी. जोन्स और उनके सहयोगी नार्मन लोग ने इस संदर्भ में लम्बी शोधें की हैं और इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि इसमें कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है। सामान्य सा शारीरिक व्यतिक्रम है। शरीर की कोशाओं के नाभिकों की बिजली-आवरण ढीले पड़ने पर ‘लीक’ करने लगती है। तब शरीर की बाहरी परतों पर उसका प्रवाह दौड़ने लगता है। वस्तुतः नाभिकों में अनन्त विद्युत शक्ति का भण्डार तो पहले से ही विद्यमान है। इन शोधकर्ताओं का कथन है कि स्थान और उपयोग की भिन्नता से प्राणि विद्युत और पदार्थ विद्युत के दो भेद हो जरूर गये हैं, पर तात्विक दृष्टि से उनमें मूलभूत एकता ही पाई जाती है।
शोधकर्ता जोन्स स्वयं भी एक विद्युत मानव थे। उन्होंने नंगे पैरों धरती पर चलकर भू-गर्भ की अनेकों धातु खदानों का पता लगाने में भारी ख्याति प्राप्त की थी। उनके स्पर्श से धातुओं से बनी वस्तुएं जादूगरों के खिलौनों की तरह उछलने खिसकने की विचित्र हलचलें करने लगती थीं। छूते ही बच्चे झटका खाकर चिल्लाने लगते थे। अमेरिका के मोन्टाना राज्य के मेडालिया कस्बे की जेनी मोरन नामक लड़की एक चलती फिरती बैटरी थी। जो उसे छूता वही झटका खाता। अंधेरे में उसका शरीर चमकता था। अपने प्रकाश से वह घोर अंधेरे में भी मजे के साथ यात्रा कर लेती थी। उसके साथ चलने वाले किसी जीवित लालटेन के साथ चलने का अनुभव करते थे। उसके शरीर के स्पर्श से 100 वाट तक का बल्ब जल उठता था। यह लड़की 30 वर्ष की आयु तक जीवित रही और अस्पर्श्य बनी एकान्त कोठरी में दिन गुजारती रही।
कनाडा के ओन्टोरियो क्षेत्र वोण्डन गांव में जन्मी एक लड़की 17 वर्ष तक जीवित रही। धातु का सामान उसके शरीर से चिपक जाता था। इसलिए उसके भोजन पात्र तक लकड़ी या कांच के रखे जाते थे।
टोकियो (जापान) की नेशनल मेडिकल रिसर्च इन्स्टीट्यूट ने इस तरह की घटनाओं पर व्यापक अनुसंधान किया और कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं इस संस्था के वैज्ञानिकों का कथन है कि आमतौर पर एक बल्ब 25 वोल्ट से 60 वोल्ट का विद्युत बल्ब जलाने जितनी विद्युत की न्यूनाधिक मात्रा प्रत्येक शरीर में पाई जाती है। ट्रांजिस्टर के ‘‘नौब’’ को हाथ की उंगलियां हटाने पर आवाज कुछ क्षीण हो जाती है, यह इसी तथ्य का प्रमाण है। विद्युत चिनगारियों के मामले आये हैं उनमें भी विद्युत आवेश अधिकांश उंगलियों में तीव्र पाया गया है, पर असीमित-शक्ति का कोई कारण खोजा नहीं जा सका।
भारतवर्ष की तरह जापान भी धार्मिक आस्थाओं, योग साधनाओं का केन्द्र है। सामान्य भारतीय की तरह उनमें भी आध्यात्मिक अभिरुचि स्वाभाविक है। एक घटना के माध्यम से जापानी वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकालने का भी प्रयास किया है कि शरीर में विद्युत की उपस्थिति का कारण तो ज्ञात नहीं किन्तु जिनमें भी यह असामान्य स्थिति पाई गई उनके मनोविश्लेषण से पता चलता है कि ऐसे व्यक्ति या तो जन्म-जात आध्यात्मिक प्रकृति के थे या कालान्तर में उनमें विलक्षण अतीन्द्रिय क्षमताओं का भी विकास हो जाता है। इस सन्दर्भ में जेनेबा की एक युवती जेनेट डरनी का उदाहरण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। जेनेट 1948 में जब वह 16-17 वर्षीय युवती थी किसी रोग से पीड़ित हुई। उनका वजन बहुत अधिक गिर गया। अब तक उनके शरीर में असाधारण विद्युत भार था वह काफी मन्द पड़ गया था किसी धातु की वस्तु का स्पर्श करने पर अब भी उनकी उंगलियों से चिनगारियां फूट पड़ती थीं। अब वह अनायास ही ध्यानस्थ हो जाने लगीं। ध्यान की इस अवस्था में उन्हें विलक्षण अनुभूतियां होतीं वह ऐसी घटनाओं का पूर्व उल्लेख कर देतीं तो कालान्तर में सचमुच घटित होतीं। व्यक्तियों के बारे में वह जो कुछ बता देतीं वह लगभग वैसा ही सत्य हो जाता। वे सैकड़ों मील दूर की वस्तुओं का विवरण नितान्त सत्य रूप में इस तरह वर्णन कर सकती थीं मानो वह वस्तु प्रत्यक्ष ही उनके सामने है। पता लगाने पर उस स्थान या वस्तु की बताई हुई सारी बातें सत्य सिद्ध होतीं। काफी समय तक वैज्ञानिकों ने जेनेट की इन क्षमताओं पर अनुसन्धान किये और उन्हें सत्य पाया किन्तु वे कोई वैज्ञानिक निरूपण नहीं कर सके—आया इस अचानक प्रस्फुटित हो उठने वाली आग या विद्युत का कारण क्या है?
रासायनिक विश्लेषण से भले ही यह बात सिद्ध न हो पर जो वस्तु अस्तित्व में है वह किसी न किसी रूप में कभी न कभी व्यक्ति होती ही रहती है। लन्दन के सुप्रसिद्ध स्नायु रोग विशेषज्ञ डा. जान ऐश क्राफ्ट को जब यह बताया गया कि उनके नगर में ही एक 11 वर्षीय किशोरी कन्या जेनी मार्गन के शरीर में असाधारण विद्युत शक्ति है और कोई व्यक्ति उसका स्पर्श नहीं कर सकता। तो उनको एकाएक विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि हाड़-मांस के शरीर में अग्नि जैसा कोई तेजस् तत्व और विद्युत जैसी क्षमतावान शक्ति भी उपलब्ध हो सकती है उसके परीक्षण का निश्चय कर वे जेनी मार्गन को देखने उसके घर पर जा पहुंचे। बड़े आत्मविश्वास के साथ जेनी से हाथ मिलाने के लिए उन्होंने अपना हाथ आगे बढ़ाया। जेनी बचना चाहती थी किन्तु डॉक्टर ने स्वयं आगे बढ़ कर उसके हाथ का स्पर्श किया उसके बाद जो घटना घटी वह डा. ऐश के लिए बिलकुल अनहोनी और विलक्षण घटना थी। एक झटके के साथ वे दूर फर्श पर जा गिरे, काफी देर बाद जब होश आया तो उन्होंने अपने आपको एक अन्य डॉक्टर द्वारा उपचार करते हुए पाया। उन्होंने स्वीकार किया कि इस लड़की के शरीर में हजारों वोल्ट विद्युत प्रभार से कम शक्ति नहीं है। सामान्य विद्युत धारा से साधारण झटका लग सकता है किन्तु 150 पौण्ड के आदमी को दूर पटक दे इतनी असामान्य शक्ति इतने से कम विद्युत भार में नहीं हो सकती।
वास्तव में बात थी भी ऐसी ही। जेनी मार्गन जिस किसी व्यक्ति के सम्पर्क में आई, उन सबने यही अनुभव दोहराया। एक दिन जेनी अपने दरवाजे पर खड़ी थी। उधर से एक ताले बेचने वाला निकला। वह जेनी से ताला खरीदने का आग्रह करने लगा। जेनी के मना करते करते उसने सस्ते ताले का प्रलोभन देकर ताला उसके हाथ में रख दिया। उसी के साथ उसके हाथ का जेनी के हाथ से स्पर्श हो गया, फिर तो जो हालत बनी उसे देखने के लिए भीड़ इकट्ठी हों गई। झटका खाकर ताले वाला पीछे जा गिरा। बड़ी देर में उसे होश आया तो वह अपना सामान समेट कर भागते ही बना। इस तरह की ढेरों घटनाएं घट चुकने के बाद ही डा. ऐश ने जेनी के अध्ययन का निश्चय किया था किन्तु शरीर में उच्च विद्युत वोल्टेज होने के कारण का वे भी कोई निष्कर्ष नहीं निकाल सके।
बुरी हालत तो बीती एक युवक पर जो जेनी की प्यार की दृष्टि से देखता था। जेनी जो अब तक अपने इस असामान्य व्यक्तित्व से ऊब चुकी थी। किसी भावनात्मक संरक्षण की तलाश में थी इस युवक को पाकर गदगद हो उठी, किन्तु भयवश स्नेह सूत्र भावनाओं तक ही जुड़े थे। शरीर स्पर्श से दोनों ही कतराते आ रहे थे। एक दिन युवक ने जेनी को एक ओपेरा में कॉफी की दावत दी। कॉफी पीकर जेनी जैसे ही उठी फर्श पर पैर फिसल जाने से वह गिर पड़ी। युवक उसे बचाने दौड़ा किन्तु अभी वह जेनी को समेट भी नहीं पाया था कि स्वयं भी पछाड़ खा कर एक मेज पर जा गिरा इससे वहां न केवल हड़कम्प मच गई अपितु उस पर एक साथ कई गर्म प्याले लुढ़क गये जिससे वह जल भी गया। काफी उपचार के बाद बेचारा घर तक जाने योग्य हो पाया। ओपेरा में उपस्थित सैकड़ों लोगों के लिए यह विलक्षण दृश्य था जिससे जेनी की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई, पर युवक ने फिर कभी मुड़कर भी उसे नहीं देखा। देखा वैज्ञानिकों ने, पर हुई उनकी भी दुर्गति। इस विद्युत भार का कोई कारण किसी की समझ में नहीं आया। सन् 1950 तक जेनी जीवित बिजली घर रही उसके बाद अपने आप हो उसकी यह क्षमता विलुप्त हो गई।
चिकित्सा इतिहास में ऐसी ही एक और घटना अन्तरियो क्षेत्र के बोंडन की है। वहां एक 17 वर्षीय लड़की कैरोलिन क्लेअर अचानक बीमार पड़ी। डेढ़ वर्ष तक चारपाई पकड़े रहने के कारण उसका 130 पौंड वजन घटकर 90 पौंड रह गया। जब उस बीमारी से पीछा छूटा तो एक नई बीमारी और लग गई। उसके शरीर में चुम्बकत्व काफी ऊंचे वोल्टेज की बिजली पैदा हो गई जो छूता वही विद्युत आघात का अनुभव करता। धातु की बनी कोई वस्तु वह छूती तो वह हाथ से चिपक जाती। अन्तरियो मेडीकल ऐसोसियेशन ने इसकी विधिवत् जांच की पर रिपोर्ट में किसी कारण का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया जा सका—केवल अनुमान और सम्भावनाओं के आधार पर ही कुछ चर्चा की गई। कुछ वर्ष बाद उसकी भी यह विलक्षणता घटने लगी और धीरे-धीरे समाप्त हो गई।
एक तीसरी घटना सोलह वर्षीय लुई हेवर्गर की है। इस लड़के में शक्तिशाली चुम्बक पाया गया। वह जिन धातु पदार्थों को छूता वे उससे चिपक जाते और किसी दूसरे द्वारा बलपूर्वक छुड़ाये जाने पर ही छूटते। मेरीलेण्ड कालेज आफ फार्मेसी के तत्वावधान में इस लड़के के सम्बन्ध में भी बहुत दिन तक खोज-बीन की गई। पर निश्चित निष्कर्ष उसके सम्बन्ध में भी व्यक्त न किया जा सका।
एक और घटना मिसौरी के निकट जापलिन नगर की है। यहां एक व्यक्ति था—फ्रैक मैक किस्टी। उसके शरीर में प्रातः काल तेज बिजली रहती थी पर जैसे-जैसे दिन चढ़ता, वह शक्ति घटती चली जाती। जाड़े के दिनों में तो वह इतनी बढ़ जाती थी कि बेचारे को चलने-फिरने में भी कठिनाई अनुभव होती थी।
फ्रांस के मेडीकल टाइम्स एण्ड गजट में एक ऐसे बच्चे की डाक्टरी रिपोर्ट छपी थी, जिसके शरीर से झटका देने जितनी बिजली प्रवाहित होती थी। लियोन्स नगर में उत्पन्न हुआ यह बच्चा 10 महीने जिया, उसे इतने दिनों बहुत सावधानी से ही जिन्दा रखा जा सका। क्योंकि उसे छूते ही जमीन पर पटक देने वाला झटका लगता था। लकड़ी के तख्ते पर खड़े होकर तथा बिजली से प्रभावित न होने वाली वस्तुओं के सहारे ही उसके नित्यकर्म कराये जाते थे। उसके स्पर्श में आने वाले सभी उपकरण लकड़ी, कांच आदि के थे और कपड़े रबड़ के पहनाये गये थे। जब वह मरा तो 10 सेकिण्ड तक उसके शरीर से हल्की नीली प्रकाश किरणें निकलती देखी गईं।
फ्रांस के जोलिया क्षेत्र में सोंदरवा कस्बे में जन्मे एक ऐसे बालक की रिपोर्ट स्वास्थ्य विभाग ने नोट की है जिसके शरीर से बिजली की तरंगें उठती थीं। जब वह मरने लगा तो डाक्टरों ने प्रकाश की तीव्र किरणें निकलती और अन्ततः मन्द होकर समाप्त होते देखी थीं।
आस्ट्रेलिया से एक बाईस वर्षीय युवक न्यूयार्क में इलाज कराने के लिए लाया गया था। उसके शरीर की स्थिति बिजली की बैटरी जैसी थी। छूते ही उसका चुम्बकीय प्रभाव स्पष्ट अनुभव होता था। जब यह बिजली मन्दी पड़ जाती तो वह बेचैनी अनुभव करता। जिन चीजों में फास्फोरस अधिक होता उन मछली सोव आदि पदार्थों को ही वह रुचि पूर्वक खाता था, सान्माय लोगों का आहार तो वह मजबूरी में ही करता था।
मास्को निवासी कुमारी माइखेलोवा रूसी वैज्ञानिकों के लिए एक दिलचस्प शोध का विषय रही है। वह अपने दृष्टिपात से चलती घड़ियां बन्द कर देती थी अथवा सुइयां आगे पीछे घुमा देती थी। इसके करतबों की फिल्म बना कर कितनी ही प्रयोगशालाओं में भेजी गई ताकि अन्यत्र भी उस विशेषता के संबन्ध में अन्वेषण कार्य चलता रह सके। वैज्ञानिकों ने इसे मस्तिष्कीय विद्युत की चुम्बकीय शक्ति-इलेक्ट्रो मैगनेटिक-फोर्स की विद्यमानता निरूपित की है। वे कहते हैं यह शक्ति हर मनुष्य में मौजूद है। परिस्थिति वश वह किसी में भी अनायास ही प्रकट हो सकती है और प्रयत्न पूर्वक उसे बढ़ाया भी जा सकता है। रूसी वैज्ञानिक लाखसोव ने हर मनुष्य के शरीर से निकलने वाले विद्युत विकिरणों को अंकित कर सकने वाला एक यंत्र ही बना डाला है।
यह उदाहरण इस बात के प्रतीक हैं कि मनुष्य शरीर प्राण-विद्युत का खजाना है। हम सामान्य आहार-विहार साधारण श्वास और निर्बल इच्छा शक्ति के कारण न तो उस शक्ति को जगा पाते हैं न कोई विशिष्ट उपयोग ही कर पाते हैं, पर यह विद्युत ही है जिसे विभिन्न योग साधनाओं द्वारा जागृत और नियन्त्रित करके योगीजन अपने लोग और परलोक दोनों को समर्थ बनाते थे। वह कार्य करने में सफल होते थे जो साधारण व्यक्तियों को कोई प्रताप और चमत्कार जैसा लगता है।
इस तरह अनायास ही जाग पड़ने वाली शरीर विद्युत की तरह कई शरीरों में प्राण शक्ति अग्नि के रूप में प्रकट होने की भी घटनाएं घटती हैं। वास्तव में सभी भौतिक शक्तियां परस्पर परिवर्तनीय हैं अतएव दोनों तरह की घटनाएं एक ही परिप्रेक्ष्य में आती हैं।
प्राणाग्नय एवास्मिन् ब्रह्मपुरे जागृति । प्रश्नोपनिषद्
इस ब्रह्मपुरी अर्थात् शरीर में प्राण ही कई तरह की अग्निायों के रूप में जलता है।
कई बार यह विद्युताग्नि इतनी प्रचण्ड रूप में जागृतिक हुई है कि वह स्वयं धारक को ही निगल बैठी। चेम्सफोर्ड इंग्लैण्ड में 20 सितम्बर 1938 को एक ऐसी ही घटना घटी। एक आलीशान होटल में आर्केस्ट्रा की मधुर ध्वनि गूंज रही थी। नृत्य चल रहा था तभी एक महिला के शरीर से तेज नीली लौ फूटी। लोग भयवश एक ओर खड़े हो गये। लपटें देखते-देखते लाल ज्वाला हो गईं और कुछ ही क्षणों में युवती का सुन्दर शरीर राख की ढेरी बन गया। 31 मार्च 1908 को ह्विटले (इंग्लैंड) में ही ऐसी एक और घटना घटी थी। जोनहार्ट नामक एक व्यक्ति बैठा कोई पुस्तक पढ़ रहा था, सामने कुर्सी पर उसकी बहन बैठी थी, एकाएक उसके शरीर से आग की लपटें निकलने लगीं। जोन ने बहन को तुरन्त एक कम्बल से ढका और दौड़ा डॉक्टर को बुलाने। 10 मिनट में ही नील स्ट्रीट से डॉक्टर वहां पहुंचे किन्तु उनके पहुंचने से पूर्व ही बहन कुर्सी और कम्बल सब एक राख की ढेरी में परिणत हो चुके थे।
अमेरिका में अब तक ऐसी 200 मौतें हो चुकी हैं। फ्लोरिडा का एक व्यक्ति सड़क पर जा रहा था कि एकाएक उसके शरीर से आग की नीली लपटें फूट पड़ीं। सहयात्रियों में से एक ने उसके शरीर पर पानी की बाल्टी उड़ेल दी। आग थोड़ी देर के लिए शान्त हो गई। जब तक डॉक्टर और गुप्तचर विभाग वहां पहुंचे तब तक पानी सूख चुका था और सैकड़ों दर्शकों की उपस्थिति में ही आग का भवका फिर उठा और वह व्यक्ति वहीं जल कर ढेर हो गया, फ्लोरिडा के मेडिकल जनरल में छपे एक लेख में वैज्ञानिकों ने हैरानी प्रकट की कि मनुष्य शरीर में 90 प्रतिशत भाग जल होता है, उसे जलाने के लिए 5000 डिग्री फारेन हाइट की अग्नि चाहिए वह एकाएक कैसे पैदा हो जाती है। शरीर के ‘‘कोषों’’ (सेल्स) में अग्नि स्फुल्लिंग ‘‘प्रोटोप्लाज्मा’’ में सन्निहित रहते हैं, पर वह इतने व्यवस्थित रहते हैं कि शरीर के जल जाने की आशंका नहीं रहती। प्रोटोप्लाज्मा उच्च प्लाज्मा में बदलने पर ही अग्नि बन सकती है यह सब एकाएक कैसे हो जाता है यह वैज्ञानिकों की समझ में अब तक भी नहीं आया।
इस तरह झटका मारने जैसे स्तर की बिजली तो कभी-कभी किसी-किसी के शरीर में ही देखने को मिलती है, पर सामान्यतया वह हर मनुष्य में पाई जाती है और जीवन की विविध गतिविधियों के संचालन में सहायता करती है। इसके सदुपयोग एवं अभिवर्धन का विज्ञान यदि ठीक तरह समझा जा सके तो मनुष्य परम तेजस्वी, मनस्वी एवं आत्मबल सम्पन्न बनकर सुविकसित जीवन जी सकता है।
सिर और नेत्रों में मानवी विद्युत का सबसे अधिक अनुभव होता है। वाणी की मिठास, कड़क अथवा प्रभावी प्रामाणिकता में भी उसका अनुभव किया जा सकता है। तेजस्वी मनुष्य के विचार ही प्रखर नहीं होते उसकी आंखें भी चमकती हैं और उनकी जीभ के अन्तर में गहराई तक घुस जाने वाला विद्युत प्रवाह उत्पन्न करती है। आत्मबल की साधना को प्रकारान्तर से तेजस्विता की साधना ही कह सकते हैं।
मानवी विद्युत के दो प्रवाह हैं एक ऊर्ध्वगामी दूसरा अधोगामी। ऊर्ध्वगामी मस्तिष्क में केन्द्रित है। उस मर्मस्थल के प्रभाव से व्यक्तित्व निखरता और प्रतिभाशाली बनता है। बुद्धि कौशल, मनोबल के रूप में शौर्य, साहस और आदर्शवादी उत्कृष्टता के रूप में यही विद्युत काम करती है। योगाभ्यास के—ज्ञान साधना के समस्त प्रयोजन इस ऊर्ध्वगामी केन्द्र द्वारा ही सम्पन्न होते हैं। स्वर्ग और मुक्ति का—ऋद्धियों और सिद्धियों का आधार इसी क्षेत्र की विद्युत के साथ जुड़ा हुआ है। मनुष्य के चेहरे के इर्द-गिर्द छाये हुए तेजोबल को—ओजस् को इस ऊर्ध्वगामी विद्युत का ही प्रतीक समझना चाहिए।
अधोगामी विद्युत जननेन्द्रिय में केन्द्रित रहती है। रति सुख का आनन्द देती है और सन्तानोत्पादन की उपलब्धि प्रस्तुत करती है। विविध कला विनोदों का—हर्षोल्लासों का उद्भव यहीं होता है। ब्रह्मचर्य पालन करने के जो लाभ गिनाये जाते हैं वे सब जननेन्द्रिय में सन्निहित विद्युत के ही चमत्कार हैं। आगे चलकर मूलाधार चक्र में अवस्थित कुण्डलिनी शक्ति का जागरण करने साधनारत मनुष्य अपने को ज्योतिर्मय तेज पुंज के रूप में परिणत कर सकते हैं।
ऊर्ध्वगामी और अधोगामी विद्युत प्रवाह यों उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव की तरह भिन्न प्रकृति के हैं और एक दूसरे से दूर हैं फिर भी वे सघनता पूर्वक मेरुदण्ड के माध्यम से परस्पर जुड़े हुए हैं। जननेन्द्रिय उत्तेजना से मस्तिष्क में संक्षोभ उत्पन्न होता है और उत्कृष्ट चिन्तन से कामविकारों का सहज शयन सम्भव हो जाता है। यदि यह उभय-पक्षीय शक्ति प्रवाह ठीक तरह संजोया, संभाला जा सके तो उसका प्रभाव व्यक्तित्व के समान विकास में चमत्कारी स्तर का देखा जा सकता है।
मानवी तत्व की व्याख्या, विवेचना अनेक आधारों पर की जाती है अध्यात्म एवं तत्व दर्शन के आधार पर मनुष्य को ईश्वरीय सत्ता का प्रतिनिधि और अगणित दिव्य संभावनाओं का भाण्डागार माना गया है, भौतिक विश्लेषण के अनुसार वह रासायनिक पदार्थ और पंचतत्व समन्वय का एक हंसता, बोलता पादप है। विद्युत विज्ञान के अनुसार उसे एक जीवित जागृत बिजली घर भी कहा जा सकता है। रक्त संचार, श्वास-प्रश्वास, आकुंचन-प्रकुंचन जैसे क्रिया-कलाप पेंडुलम गति से स्वसंचालित रहते हैं और जीवनी शक्ति के नाम से पुकारी जाने वाली विद्युत शक्ति की क्षति पूर्ति करते हैं। मस्तिष्क अपने आप में एक रहस्य पूर्ण बिजली घर है। जिसमें जुड़े हुए तार समस्त काया को कठपुतली की तरह नचाते हैं।
मनुष्य शरीर की बिजली एक प्रत्यक्ष सचाई है। उसे यन्त्रों से भी देखा जाना जा सकता है। वह अपने ढंग की अनोखी है। भौतिक विद्युत से उसका स्तर बहुत ऊंचा है। बल्ब में जलने और चमकने वाली बिजली की तुलना में नेत्रों में चमकने वाली बिजली की गरिमा और जटिलता अत्यन्त ऊंचे स्तर की समझी जानी चाहिए। तारों को छूने पर जैसा झटका लगता है वैसा आमतौर से शरीरों के छूने से नहीं लगता है तो भी काया संस्पर्श के दूरगामी कायिक और मानसिक प्रभाव उत्पन्न होते हैं। महामानवों के चरण-स्पर्श जैसे धर्मोपचार इसी दृष्टि से प्रचलित हैं। यह कायिक बिजली कभी-कभी भौतिक बिजली के रूप में देखने में आती है उससे उस रहस्य पर पड़ा हुआ पर्दा और भी स्पष्ट रूप से उतर जाता है जिसके अनुसार मनुष्य को चलता-फिरता बिजली घर ही माना जाना चाहिए।
यह शक्ति इतनी प्रचण्ड होती है कि उससे संसार की आश्चर्यजनक मशीनरी का काम मनुष्य केवल अपनी इच्छा शक्ति से कर सकता है अर्थात् प्राण विद्युत पर नियन्त्रण इच्छा शक्ति का ही होता है। सामान्य स्थिति में तो अन्न और श्वासों से प्राप्त विद्युत ही काम करती रहती है पर जैसे-जैसे योगाभ्यासी उस सत्ता का आन्तरिक परिचय पाता चला जाता है। वह इस शक्ति का विकास भी इच्छा-शक्ति से ही करके कोई भी मनोरथ सफल करने और इच्छित आयु जीने में समर्थ होता है।
मनुष्य शरीर में बिजली की उपस्थिति न तो स्वल्प है और न महत्व हीन। बालों में कंघी करके उतनी भर रगड़ से उत्पन्न चुम्बक को देखा जा सकता है बालों से घिसने के बाद कंघी को लोहे की पिन से स्पर्श करें तो उसमें चुम्बक के गुण विद्यमान मिलेंगे। निर्जीव बालों में ही नहीं सजीव मस्तिष्क में भी बिजली की महत्वपूर्ण मात्रा विद्यमान है। अन्य बिजलीघरों की तरह वहां भी बनाव बिगाड़ का क्रम चलता रहता है। इस मरम्मत में चुम्बकीय चिकित्सा का आशाजनक उपयोग किया जा सकता है।
हमें शरीर एवं मन को सजीव स्फूर्तिवान एवं तेजस्वी बनाने के लिये अपनी विद्युत शक्ति को सुरक्षित रखने का ही नहीं इस बात का भी प्रयत्न करना चाहिये कि उसमें निरन्तर वृद्धि भी होती चले। क्षति पूर्ति की व्यवस्था बनी रहे। यह प्रयोजन, प्राणायाम षटचक्र वेधन, कुण्डलिनी योग एवं शक्तिपात जैसी साधनाओं से संभव हो सकता है। इस मानवी विद्युत का ही यह प्रभाव है जो एक दूसरे को आकर्षित या प्रभावित करता है। उभरती आयु में यह बिजली काय-आकर्षण की भूमिका बनती है पर यदि उसका सदुपयोग किया जाय तो बहुमुखी प्रतिभा, ओजस्विता, प्रभावशीलता के रूप में विकसित होकर, कितने ही महत्वपूर्ण कार्य कर सकती है। ऊर्ध्व रेता, संयमी ब्रह्मचारी लोग अपने ओजस् को मस्तिष्क में केन्द्रित करके उसे ब्रह्मवर्चस के रूप में परिणत करते हैं। विद्वान दार्शनिक, वैज्ञानिक, नेता, वक्ता, योद्धा, योगी, तपस्वी जैसी विशेषताओं से सम्पन्न व्यक्तियों के सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने ओजस का—प्राणतत्व का अभिवर्धन, नियन्त्रण एवं सदुपयोग किया है। यों यह शक्ति किन्हीं-किन्हीं में अनायास भी उभर पड़ती देखी गई है और उसके द्वारा उन्हें कुछ अद्भुत काम करते भी पाया गया है।
जर्मनी का अधिनायक हिटलर जब रुग्ण होता तो उसे सुयोग्य डाक्टरों की अपेक्षा एक ‘नीम हकीम’ क्रिस्टन का सहारा लेना पड़ता। उसकी उंगलियों में जादू था। दवा दारु वह कम करता था, हाथ का स्पर्श करके दर्द को भगाने की उसको जादुई क्षमता प्राप्त थी। सन् 1898 में वह इस्टोनिया में जन्मा प्रथम विश्वयुद्ध के बाद वह फिनलैंड नागरिक माना पीछे उसने मालिस करके रोगोपचार करने की कला सीखी। अपने कार्य में उसका कौशल इतना बढ़ा कि उसे जादुई चिकित्सक कहा जाने लगा। हिटलर ही नहीं, उसके जिगरी दोस्त हिमलर तक को उसने समय-समय पर अपनी चिकित्सा से चमत्कृत किया और भयंकर रुग्णता के पंजे से छुड़ाया। क्रिस्टन ने अपने परिचय और प्रभाव का उपभोग करके हिटलर के मृत्युपाश में जकड़े हुए लगभग एक लाख यहूदियों का छुटकारा कराया।
मनुष्य ही अपवाद नहीं
प्राण विद्युत मनुष्य की उपलब्धि नहीं सृष्टि के छोटे-छोटे जीवों में भी उसी का संचार हो रहा है। सितम्बर 1966 के नवनीत ‘‘अंक’’ में प्रसिद्ध जीव शास्त्री जेराल्ड ड्यूरल ने ‘‘इन्सान’’ से भी पुराने वैज्ञानिक लेख के अन्तर्गत एक घटना दी है और बताया है कि ब्रिटिश गायना के चिड़िया घर में एक ईल मछली, जो अपने शरीर से तीव्र विद्युत करेन्ट निकालती है, एक हौज में थी जब उसे खाना खिलाया तो ईल ने अपने शरीर को इस प्रकार कंपाया मानो कोई डायनमो चलाया जा रहा हो। उससे इतनी तेज विद्युत निकली कि खाने के लिये जो मछलियां डाली जा रही थीं वह मर गई। ‘‘टारपीडो फिश’’ की एक घटना भी उन्होंने दी है इसमें एक लड़के ने इस मछली का शिकार करते हुए उसके शरीर की बिजली के झटके के कारण अपने प्राण गंवा दिये थे।
कुछ जाति की मछलियां चलते फिरते पावर हाउस कही जाती हैं। इनके शरीर में इतनी बिजली होती है कि सम्पर्क में आने वाले दूसरे जीवों को झटका देकर पछाड़ती है। जिस रास्ते वे गुजरती हैं वहां का पानी भी चुम्बकीय बन जाता है और उस क्षेत्र के जल जन्तु उसका प्रभाव अनुभव करते हैं। हिन्पास, जिन्मोटिस, इलेक्ट्रोफोरस, मेलाप्टोसूरस, मारमाइरस, स्टार गेजर, जाति की मछलियां इस किस्म की हैं। दक्षिणी अमेरिका के जलाशयों में पाई जाने वाली इलेक्ट्रोफोरस मछली में तो इतनी बिजली होती है कि पास में पानी पीने के लिए जल में प्रवेश करने वाला मजबूत घोड़ा भी धराशायी हो जाय। अरब क्षेत्र में मेलाप्टोसूरस में भी ऐसी ही विद्युत कड़क होती है इसलिए इसे वहां के लोग ‘राड’ कहते हैं। राड अर्थात् आसमानी बिजली।
मत्स्य अनुसन्धान में कम वोल्ट बिजली वाली तो कई हैं पर अधिक वोल्ट शक्ति वाली मछलियों में चार जातियां प्रमुख हैं। इनमें से रेजे में 4 वोल्ट, टारयडो में 40 वोल्ट, इलैक्ट्रिक ईल में 350 से 550 वोल्ट तक और कैट जाति की मछलियों में 350 से 450 वोल्ट तक बिजली होती है। इनमें एक विशेष प्रकार की पेशियां तथा तन्तु पट्टियां होती हैं, जिनके घर्षण से डायनमों की तरह बिजली बनती है। जब वे चाहती हैं तब इन अंगों को इस तरह चलाती हैं कि अभीष्ट मात्रा में बिजली उत्पन्न हो सके और वे मन चाहे प्रयोजन के लिए उसका प्रयोग कर सकें। साधारणतया यह विशेषता सुप्त ही पड़ी रहती है।
सर्प के नेत्रों की विद्युत प्रख्यात है। सिंह, व्याघ्र आदि हिंस्र जन्तुओं की आंखें भी ऐसी ही बिजली उगलती हैं कि उसके प्रभाव के सामने आने वाले छोटे जीव अपनी सामान्य चेतना खो बैठते हैं। किंकर्तव्य विमूढ़ होकर खड़े रहते हैं अथवा मौत के मुंह में दौड़ते हुए स्वयं ही घुस जाते हैं।
अफ्रीका के जंगलों में पाये जाने वाले बड़ी जाति के अजगर जलपान के लिए छोटे-छोटे मेंढक, चूहे, गिलहरी, छिपकली जैसे जीव घर बैठे ही प्राप्त कर लेते हैं। बड़े शिकार पकड़ने के लिए तो वे क्षुधातुर होने पर ही निकलते हैं। इन अजगरों की आंखों में विचित्र प्रकार का चुम्बकत्व होता है। जिस पर उनकी नजर पड़ती है वह उसी जगह ठिठक कर रह जाता है। उड़ने और दौड़ने की शक्ति खो बैठता है। इतना ही नहीं वह स्वयं खिसकता हुआ अजगर के फटे मुंह की तरफ बढ़ता आता है और स्वयमेव उसमें प्रवेश कर जाता है। प्रो. एफ. स्नाइडर ने एक बार पाले हुए अजगर के पिंजड़े में कुछ चूहे छोड़े। चूहे पहले तो डर कर भागे और पिंजड़े के एक कोने में जा छिपे। किन्तु जब अजगर ने उन्हें घूर कर देखा तो वे धीरे-धीरे अपने आप बढ़ते चले आये और सर्प के मुंह में घुस गये।
वेस्टइंडीज में ‘ट्रेन इंसेक्ट’ या ‘रेलगाड़ी-कीड़ा’ पाया जाता है उसके मुंह पर एक लाल रंग का और दोनों बाजुओं में दीपकों की 11-11 की पंक्तियां पाई जाती हैं यह हरा प्रकाश उत्पन्न करती हैं चलते समय यह कीड़ा रात में चलती रेलगाड़ी की तरह लगता है इसी कारण इसको यह नाम दिया गया है। दक्षिणी अमेरिका में भी यह बहुतायत से पाया जाता है। वेस्टइंडीज में ही ‘कूकूजी’ नामक एक कीड़ा पाया जाता है इसे ‘मोटर-कीड़ा’ कहते हैं। यह जुगनू की ही एक जाति है किन्तु उसके मुंह पर दो-दीपक होते हैं और वह दोनों पीले रंग का प्रकाश निकालते हैं। स्पेन अमेरिका के गृह-युद्ध के समय विलियम गोरगास नामक डॉक्टर ने इन कीड़ों को एक सफेद शीशी में भर कर उनके प्रकाश में सफल आपरेशन किये थे।
वनस्पति जगत की एक काई भी स्व-प्रकाशित होती है। कटल फिश, दुश्मनों के आक्रमण के समय काले रंग का प्रकाश-बादल फैला देते हैं। झींगे मछलियां और अन्य कई जल के जीव अपने शरीरों से प्रकाश, उत्सर्जित करते हैं। जुगनू इस प्रकाश का उपयोग-प्रजनन क्रिया में संकेत के रूप में करते हैं। मादा जुगनू एक बार संकेत करके शान्त हो जाती है तब नर उसे ढूंढ़ता हुआ उस तक आप पहुंच जाता है इस तरह यह जीव किसी न किसी रूप में इस प्रकाश का उपयोग प्रकृति प्रदत्त विभूति के रूप में करते हैं जब कि मनुष्य को उसके लिए बाह्य साधनों का आश्रय लेना पड़ता है।
निर्जीव वस्तु से आग की लपटों का या विद्युत का निकाल लेना इस वैज्ञानिक युग में कोई चमत्कार नहीं रह गया, किन्तु जीवन्त चेतना के यह दृश्य निःसन्देह अचम्भे में डालने वाले हैं। जुगनू इस मामले में एक बहुत साधारण जीव है जिसकी चमक से किसी को आश्चर्य नहीं होता। समुद्र में बहुत सारे एक कोशीय जीव पाये जाते हैं, जो जुगनू की तरह स्व-प्रकाशित होते हैं। दिन में तो उनकी चमक दृष्टिगोचर नहीं होती किन्तु रात में यह जीव रेत-कणों की तरह ऐसे चमकते हैं जैसे अंधेरे आसमान में तारे चमकते हों। बैंजामिन फ्रैंकलिन जो एक प्रसिद्ध विद्युत-वैज्ञानिक थे, अपने यह समझते थे कि समुद्र की यह चमक समुद्र के पानी और नमक के कणों से उत्पन्न विद्युत कण हैं किन्तु पीछे उन्होंने भी अपनी भूल सुधारी और बताया कि समुद्र ही नहीं धरती पर भी सड़ी-गड़ी वस्तुएं खाने वाले अनेक जीव हैं जो अपने भीतर से विद्युत पैदा करते हैं। कृत्रिम रूप से विनिर्मित विद्युत की मात्रा में ताप की मात्रा उससे कई गुनी अधिक होती है, किन्तु मनुष्य का मनुष्येत्तर जीवों में ऐसा क्यों नहीं होता? इस प्रकाश को बैंजामिन ने ‘ठण्डे-प्रकाश’ (कोल्ड लाइट) की संज्ञा दी है। दो हजार जुगनू एक साथ चमकें तो उससे एक मोमबत्ती का प्रकाश उत्पन्न हो सकता है, पर उस प्रकाश को यदि एकत्र किया जाये तो रुई भी जल सकती, जब कि मोमबत्ती ईंधन को भी जला देगी।
1886 में प्राणिशास्त्रियों ने एक प्रकाश देने वाली सीप के शरीर से ‘लुसिफेरिन’ नामक एक रसायन निकाल कर यह सिद्ध किया कि ऐसे जीवों में यही तत्व प्रकाश उत्पन्न करता है। यह तत्व शरीर की विशिष्ट ग्रन्थियों से निकलता है और ऑक्सीजन के सम्पर्क में आकर प्रकाश के रूप में परिणत हो जाता है। जुगनू में मैगनेटिक बेल की तरह यह तत्व रुक-रुक कर निकलता है इसी से वह जलता-बुझता रहता है किन्तु यह तत्व किस तरह बनता है इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक अब तक कोई जानकारी प्राप्त नहीं कर सके। सम्भव है जीवन की खोज करते-करते वह रहस्य करतलगत हों जो इन तथ्यों का भी पता लगा सकें और प्राण चेतना की गुत्थियां भी सुलझा सकें।
विश्वव्यापी विद्युत चुम्बक से कौन कितना लाभ उठाले यह उस प्राणी की शरीर रचना एवं चुम्बकीय क्षमता पर निर्भर है। कितने ही पक्षी ऋतु परिवर्तन के लिए झुण्ड बनाकर सहस्रों मील की लम्बी उड़ाने भरते हैं वे धरती के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जा पहुंचते हैं। इनकी उड़ाने प्रायः रात को होती हैं। उस समय प्रकाश जैसी कोई सुविधा भी उन्हें नहीं मिलती, यह कार्य उनकी अन्तः चेतना पृथ्वी के इर्द गिर्द फैले हुए चुम्बकीय घेरे में चल रही हलचलों के आधार पर ही पूरा करती है। इस धारा के सहारे वे इस तरह उड़ते हैं मानो किसी सुनिश्चित सड़क पर चल रहे हों।
टरमाइन कीड़े अपने घरों का प्रवेश द्वार सदा निर्धारित दिशा में ही बनाते हैं। समुद्री तूफान आने से बहुत पहले ही समुद्र बतख आकाश में उड़कर तूफानी क्षेत्र से पहले ही बहुत दूर निकल जाती हैं। चमगादड़ अंधेरी रात में आंख के सहारे नहीं अपनी शरीर विद्युत के सहारे ही वस्तुओं की जानकारी प्राप्त करते हैं और पतले धागों से बचकर उपयोगी रास्ते पर उड़ते हैं। मेढ़क मरे और जिन्दे शिकार का भेद अपनी शारीरिक विद्युत के सहारे ही जान पाता है। मरी और जीवित मक्खियों का ढेर सामने लगा देने पर वह मरी छोड़ता और जीवित खाता चला जायगा। उल्लू की शिकार दबोचने की क्षमता उसकी आंखों पर नहीं विद्युत संस्थान पर निर्भर रहती है। सांप समीपवर्ती प्राणियों के शरीरों के तापमान का अन्तर समझता है और अपने रुचिकर प्राणी को ही पकड़ता है। भुनगों की आंखें नहीं होती वह अपना काम विशेष फोलो सेलों से बनाते हैं। अपने युग में अनेकों वैज्ञानिक यंत्र प्राणियों की अद्भुत विशेषताओं की छान-बीन करने के उपरान्त उन्हीं सिद्धान्तों के सहारे बनाये गये हैं। प्राणियों में पाए जाने वाली विद्युत शक्ति ही उनके जीवन निर्वाह के आधार बनाती है। इन्द्रिय शक्ति कम होने पर भी वे उसी के सहारे सुविधापूर्वक समय गुजारते हैं।
योग साधनाओं का एक उद्देश्य इस चेतना विद्युत शक्ति का अभिवर्धन करना भी है। इसे मनोबल, प्राणबल और आत्मबल भी कहते हैं। संकल्प शक्ति और इच्छा शक्ति के रूप में इसी के चमत्कार देखे जाते हैं।
आत्म शक्ति सम्पन्न व्यक्ति अपनी जन सम्पर्क गतिविधियों को निर्धारित एवं नियन्त्रित करते हैं। विशेषतया काम सेवन सम्बन्धी सम्पर्क से बचाव इसी आधार पर किया जाता है अत्यंत महत्वपूर्ण शक्ति को उपयोगी दिशा में ही नियोजित करने के लिए सुरक्षित रखा जा सके और उसका क्षुद्र मनोरंजन के लिये अपव्यय न होने पाये। अध्यात्म शास्त्र में प्राण विद्या का एक स्वतन्त्र प्रकरण एवं विधान है। इसके आधार पर साधनारत होकर मनुष्य इस प्राप्त विद्युत की इतनी अधिक मात्रा अपने में संग्रह कर सकता है कि उस आधार पर अपना ही नहीं अन्य अनेकों का भी उपकार उद्धार कर सके।