Books - पाँच प्राण-पाँच देव
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Language: HINDI
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स्थूल ही नहीं सूक्ष्म का भी ध्यान रखें
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इस विश्व में जो कुछ दृश्यमान होता है वह अदृश्य की परिणिति है। इस विश्व ब्रह्माण्ड में जो कुछ अदृश्य में जो कुछ अदृश्य सूक्ष्म बिखरा पड़ा है उसका लाख करोड़ वां हिस्सा भी दृश्यमान नहीं होता है। पर जो कुछ अनुभव में आता है वह अनुभव से अगम्य-इन्द्रियातीत विराट् का एक नगण्य सा अंश मात्र ही होता है। विराट् ब्रह्माण्ड में जितना प्रचुर अग्नि तत्व भरा पड़ा है हमारा सूर्य उसका राई रत्ती जितना अंश ही है। उस सूर्य की भी दसों दिशाओं में जितनी ऊष्मा फैलती है उसका हम लोग पृथ्वी की ओर विकीर्ण होने वाली गर्मी में से भी एक तुच्छ अंश ही अनुभव कर पाते हैं।
शरीर में प्रत्यक्ष उष्णता के रूप में दीखने वाला बुखार वस्तुतः इन कोटि-कोटि अदृश्य रोग कीटाणुओं के उपद्रव की एक नन्हीं सी झलक ही है। वे रोग कीट हजारों तरह के उपद्रवों की पृष्ठ भूमि देह के भीतर रच रहे होते हैं पर हमें उनमें से मात्र चमड़ी पर उभरने वाली गर्मी मात्र का ही अनुभव होता है। भीतर के अंगों में जो ताप या विग्रह उन रोग कीटों ने उत्पन्न किया होता है वह तो विदित ही नहीं होता। मनुष्य की काया को ही लीजिये इतना लम्बा चौड़ा शरीर वस्तुतः एक सूक्ष्म वीर्यकण और उसके भीतर रहने वाले ‘जीन्स’ न्यूक्लियस आदि अति सूक्ष्म तत्वों की परिणिति मात्र होता है। वह अदृश्य सूक्ष्मता की काया के रूप में जितनी प्रकट होती है, उससे भी अधिक गुनी अधिक विशेषताएं फिर भी अनुभव में न आने पर भी विद्यमान रहती हैं।
विराट् ब्रह्माण्ड का वास्तविक स्वरूप उसका सूक्ष्म ‘शक्ति अंश’ ही है। जिसे परा और अपरा प्रकृति के नाम से जाना जाता है। उसके कर्तृत्व का नन्हा सा अंश ही स्वतः हमारी मनःचेतना की पकड़ में आता है। जो दृश्य है उसके इर्द-गिर्द अदृश्य शक्ति स्रोत की असीम प्रवाह धारा बहती रहती है। ग्रह नक्षत्रों से लेकर वन, पर्वत, सागर, सरिता तक सब पर यही बात लागू होती है। मानव शरीर और भी अधिक विचित्र है। उसकी संवेदनशीलता—चुम्बक क्षमता इतनी अधिक है कि वह अपनी कोमल ग्रहण शक्ति के कारण इस अदृश्य जगत की किन्हीं भी अद्भुत शक्तियों को अभीष्ट परिमाण में अपने अन्दर खींच सकता है—ग्रहण और धारण कर सकता है।
शरीर शास्त्री जितना ज्ञान अब तक देह के भीतरी और बाहरी अंगों के सम्बन्ध में प्राप्त कर चुके हैं, उससे कहीं अधिक गंभीर ज्ञान हमें अपने ‘सूक्ष्म’ और ‘कारण’ शरीर के सम्बन्ध में प्राप्त करना चाहिए। जो शोधें प्राचीन काल में हो चुकी हैं उससे आगे का सारा क्रम ही अवरुद्ध हो गया जब कि आवश्यकता उसे निरन्तर जारी रखे जाने की थी। ज्ञान का अन्त नहीं जो प्राचीन काल में जाना जा चुका वह समग्र नहीं। मानवीय सामर्थ्य और विराट् की अनन्तता की तुलना करते हुए यही उचित है कि उपलब्ध ज्ञान को पूर्ण न माना जाय और अन्वेषण कार्य जारी रखा जाय।
सूक्ष्म और कारण शरीरों की स्थिति, शक्ति, संभावना और उपयोग की प्रक्रिया समझने में भूत काल के साधन विज्ञानियों की जानकारियों से लाभ उठाया जाना चाहिए और अन्तरिक्ष के सूक्ष्म प्रवाह संचार में पिछले दिनों जो परिवर्तन हुए हैं। मनुष्य कलेवर के स्तर में जो भिन्नता आई है उसे ध्यान में रखते हुए हमें शोध कार्य को आगे बढ़ाना चाहिए।
स्थूल दृश्य शरीर की गति विधियां इस भूलोक तक सीमित हैं। सूक्ष्म शरीर-भुवः लोक तक। और कारण शरीर स्वः लोक तक अपनी सक्रियता फैलाये हुए हैं। इन भूः भुवः स्वः लोकों को ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र, आदि समझने की आम तौर से भूल की जाती है। लोक और ग्रह सर्वथा भिन्न हैं। ग्रह स्थूल हैं लोक सूक्ष्म। इस दृश्यमान अनुभव गम्य भूलोक के भीतर अदृश्य स्थिति में दो अन्य लोक समाये हुए हैं। भुवः लोक और स्व लोक। वहां की स्थिति भू लोक से भिन्न है। यहां पदार्थ का प्राधान्य है। जो कुछ भी सुख दुख हमें मिलते हैं वे सब अणु पदार्थों के माध्यम से मिलते हैं। यहां हम जो कुछ चाहते या उपलब्ध करते हैं वह पदार्थ ही होता है। स्थूल शरीर चूंकि स्वयं पदार्थों का बना है इसलिए उसकी दौड़ या पहुंच पदार्थ तक ही सीमित हो सकती है। भुवः लोक विचार प्रधान होने से उसकी अनुभूतियां, शक्तियां, क्षमतायें, संभावनायें सब कुछ इस बात पर निर्भर करती हैं कि व्यक्ति का बुद्धि संस्थान विचार स्तर क्या था।
स्व लोक भावना लोक है। यह भावना प्रधान है। भावनाओं में रस है। प्रेम का रस प्रख्यात है। माता और बच्चे के बीच, पति और पत्नी के बीच, मित्र और मित्र के बीच कितनी प्रगाढ़ता, घनिष्ठता, आत्मीयता होती है यह हम प्रत्यक्ष देखते हैं। वे संयोग में कितना सुख और वियोग में कितना दुख अनुभव करते हैं इसे कोई सहृदय व्यक्ति अपनी अनुभूतियों की तथा उन स्थितियों के ज्वार भाटे से प्रभावित लोगों की अन्तःस्थिति का अनुमान लगाकर वस्तुस्थिति की गहराई जान सकते हैं। यह भाव-संवेदना इतनी सघन होती है कि शरीर और मन को किसी विशिष्ट दिशा में घसीटती हुई कहीं से कहीं ले पहुंचती है। श्रद्धा और विश्वास के उपकरणों से देवताओं को विनिर्मित करना और उन पर अपना भावारोपण करके अभीष्ट वरदान प्राप्त कर लेना यह सब भाव संस्थान का चमत्कार है। देवता होते हैं या नहीं। उनमें वरदान देने की सामर्थ्य है या नहीं। इस तथ्य को समझने के लिये हमें मनुष्य की भाव सामर्थ्य की प्रचंडता को समझना पड़ेगा। उसकी श्रद्धा का बल असीम है। जिसकी जितनी श्रद्धा होगी जिसका जितना गहरा विश्वास होगा, जिसने जितना प्रगाढ़ संकल्प कर रक्खा होगा, और जिसने जितनी गहरी भक्ति भावना को संवेदनात्मक बना रक्खा होगा देवता उसकी मान्यता के अनुरूप बन कर खड़ा हो जायगा। वह उतना ही शक्ति सम्पन्न होगा और उतने ही सच्चे वरदान देगा।
कहना न होगा कि हर चीज सूक्ष्म होने पर अधिक शक्तिशाली बनती चली जाती है। मिट्टी में वह बल नहीं जो उसके अति सूक्ष्म अंश अणु में है। हवा में वह सामर्थ्य नहीं जो ईथर में है। पानी में वह क्षमता नहीं जो भाप में है। स्थूल शरीर के गुण धर्म से हम परिचित हैं। वह सीमित कार्य ही अन्य जीव जन्तुओं की तरह पूरे कर सकता है। जो अतिरिक्त सामर्थ्य अतिरिक्त प्रतिभा, अतिरिक्त प्रखरता मनुष्य के अन्दर देखी जाती है वह उसके सूक्ष्म और कारण शरीरों की ही है। बाहर से सब लोग लगभग एक से दीखने पर भी भीतरी स्थिति के कारण उनमें जमीन आसमान जितना अन्तर पाया जाता है यह रक्त मांस का फर्क नहीं वरन् सूक्ष्म शरीर की अन्तःचेतना में सन्निहित समर्थता और असमर्थता के कारण ही होता है। पंच भौतिक स्थूल काया को जिस प्रकार आहार, व्यायाम, चिकित्सा आदि उपायों से सामर्थ्यवान बनाया जाता है उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर तथा कारण शरीर को भी योग साधना द्वारा परिपुष्ट बनाया जाता है। मनोबल और आत्मबल के कारण जो अद्भुत विशेषताएं लोगों में देखी जाती हैं उन्हें इन सूक्ष्म शरीरों की बलिष्ठता ही समझना चाहिए। साधना का उद्देश्य उसी बलिष्ठता को सम्पन्न करना है।
स्थूल शरीर की शोभा, तृप्ति और उन्नति के लिये हमारे प्रयत्न निरन्तर चलते रहते हैं। यदि सूक्ष्म शरीर और कारण शरीरों को अपेक्षित और वुभुक्षित पड़े रहने देने की हानि को हम समझें और उन्हें भी स्थूल शरीर की ही तरह समुन्नत करने का प्रयत्न करें तो ऐसे असाधारण लाभ प्राप्त कर सकते हैं, जिनके द्वारा जीवन कृतकृत्य हो सके। भूलोक में प्राप्त पदार्थ ‘सम्पदाओं से प्राप्त थोड़े से सुख का हमें ज्ञान है अस्तु उसी को उधेड़ बुन में लगे रहते हैं। भुवः और स्वः लोकों की विभूतियों को भी जान सकें तो सच्चे अर्थों में सम्पन्न बन सकते हैं। योग साधना का प्रयोजन मनुष्य को ऐसी ही समग्र सम्पन्नता से लाभांवित करता है।’
सूक्ष्म शरीर की प्राथमिक ईंटें प्राण-स्फुल्लिंग
मनुष्य शरीर जिन सूक्ष्म कणों से बना है उन्हें कोशिका (सेल) कहते हैं सारे शरीर को एक कोशिका जाल या भवन कह सकते हैं। इस कोशिका (सेल) को दो भागों में विभाजित किया जाता है। (1) साइटो प्लाज्मा (2) नाभिक (न्युक्लियस) साइटोप्लाज्मा उस कोशिका का रसायन भाग और नाभिक संस्कार भाग कह सकते हैं जीवन की प्रमुख चेतना इसी नाभिक में प्रकाश, ताप चुम्बकत्त्व, विद्युत, ध्वनि और गति के रूप में विद्यमान रहता है इस तरह शरीर के स्थूल अणुओं में व्याप्त इस दूसरे जाल की सम्मिलित इकाई का नाम ही सूक्ष्म शरीर है। भारतीय योग विज्ञान में इस तत्व का नाम प्राण और उससे बने सूक्ष्म शरीर को प्राणमय कोश कहा गया है। पूर्व अध्याय में जिस बायोलॉजिकल प्लाज्मा बाडी का वर्णन किया गया है वह यह प्राणमय कोश ही है।
परा प्रकृति की चेतना शक्ति
शरीर में मन की चेतना पंचतत्वों के सम्मिलन की चेतना मानी जाती है। आत्मा में प्रकाश प्राप्त करते हुए भी वह आत्मा का नहीं, शरीर का ही अंश माना जाता है। इसी प्रकार विश्वव्यापी पंच-तत्वों की, महाभूतों की सम्मिलित चेतना का नाम प्राण है। प्राण को ही जीवनी शक्ति कहते हैं। वह वायु में, आकाश में घुला तो रहता है पर इनसे भिन्न है। जिसे जड़ प्रकृति कहते हैं, वस्तुतः वह भी जड़ नहीं है। उसमें प्राण की एक स्वल्प मात्रा भरी रहती है। पूर्ण निष्प्राण वस्तुः पूर्णतः निरुपयोगी ही नहीं होती, वरन् नष्ट भी हो जाती है। प्राण के अभाव में कोई वस्तु अपना स्वरूप धारण किये नहीं रह सकती, उसके जो स्वाभाविक गुण हैं वे भी स्थिर नहीं रहते।
प्राण को एक प्रकार की सजीव विद्युत-शक्ति कह सकते हैं जो समस्त संसार में वायु, आकाश, गर्मी एवं ईथर की तरह समाई हुई है। यह तत्व जिस प्राणी में जितना अधिक होता है वह उतना ही स्फूर्तिवान्, तेजस्वी, साहसी एवं सुदृढ़ दिखाई देता है। शरीर में व्याप्त इसी तत्व को जीवनीशक्ति एवं ‘ओज’ कहते हैं और मन में व्यक्त होने पर यही तत्व प्रतिभा एवं तेज कहलाता है। वीर्य में यही विद्युत शक्ति अधिक मात्रा में भरी रहने से ब्रह्मचारी लोग मनस्वी एवं तेजस्वी बनते हैं। इसी के अभाव से चमड़ी गोरी पीली होने पर भी, नख-शिख का ढांचा सुन्दर दीखने पर भी मनुष्य निस्तेज, उदास, मुरझाया हुआ और लुंज-पुंज सरीखा लगता है। भीतरी तेजस्विता के अभाव से चमड़ी की सुन्दरता निर्जीव जैसी लगती है। मन को लुभाने वाले सौंदर्य में जो तेजस्विता एवं मृदुलता बिखरी होती है वह और कुछ नहीं प्राण का ही उभार है। वृक्ष, वनस्पतियों, पुष्पों से लेकर शिशु और शावकों, किशोरों-किशोरियों में जो कुछ आह्लाद दीख पड़ता है वह सब प्राण का ही प्रताप है। यह शक्ति कहीं चेहरे के सौन्दर्य में, कहीं वाणी की मृदुलता में, कहीं प्रतिभा में कहीं बुद्धिमता में, कहीं कला-कौशलता में, कहीं भक्ति में, कहीं अन्य किसी रूप में देखी जाती है।
दुर्गा के रूप में अध्यात्म जगत् में इसी तत्व को पूजा जाता है। शक्ति यही है। दुर्गा शप्तशती में ‘‘या देवी सर्व भूतेषु शक्ति रूपेण तिष्ठति’’ आदि श्लोकों में अनेक रूप से, उसी तत्व के लिए ‘‘नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमोनमः’’ कह कर अभिवन्दन किया गया है। विजय दशमी की शक्ति पूजा के रूप में हम इस प्राणतत्व का ही आह्वान और अभिनन्दन करते हैं। विश्व सृष्टि में समाया हुआ यह प्राण जब दुर्बल पड़ जाता है तो हीनता का युग आ जाता है, सब जीव जन्तु दुर्बल काय, अल्पजीवी, मन्दबुद्धि और हीन भावनाओं वाले हो जाते हैं। किन्तु जब इसकी प्रौढ़ता रहती है तो इस सृष्टि में सब कुछ उत्कृष्ट रहता है। सतयुग और कलियुग का भेद इस विश्व-प्राण की प्रौढ़ता और वृद्धता पर निर्भर है। जब सृष्टि में से यह प्राण होते-होते मरण की, परिसमाप्ति की स्थिति में पहुंचता है तो प्रलय की घड़ी प्रस्तुत हो जाती है। परमाणुओं के एक दूसरे के साथ सम्बद्ध रखने वाला चुम्बकत्व-प्राण ही नहीं रहा तो वे सब बिखर कर धूलि की तरह छितरा जाते हैं। जितने स्वरूप बने हुए थे वे सब नष्ट हो जाते हैं इसी का नाम प्रलय है। जब दीर्घकाल के पश्चात यह प्राण चिर निद्रा में से जागकर नवजीवन ग्रहण करता है तो सृष्टि उत्पादन की प्रक्रिया पुनः आरंभ हो जाती है। जीवात्माओं को इस परा और अपरा प्रकृति का आवरण धारण करके कोई स्वरूप ग्रहण करने का अवसर मिलता है और वे पुनः जीव जन्तुओं के रूप में चलते फिरते दृष्टिगोचर होने लगते हैं।
यह प्राणतत्व किन्हीं प्राणियों को पूर्व संग्रहीत संस्कार एवं पुण्यों के कारण जन्म जात रूप से अधिक मात्रा में उपलब्ध होता है। इसे उनका सौभाग्य ही कहना चाहिए। पर जिन्हें वह न्यून मात्रा में प्राप्त है उन्हें निराश होने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। प्रयत्नों के द्वारा इस तत्व को कोई भी—अभीष्ट आकांक्षा के अनुरूप अपने अन्दर धारण कर सकता है। जिसमें कम है वह उसकी पूर्ति, इस विश्वव्यापी प्राणतत्व में से बिना किसी रोक-टोक के चाहे जितनी मात्रा में लेकर कर सकता है। जिनमें पर्याप्त मात्रा है वह और भी अधिक मात्रा में उस ग्रहण करके अपनी तेजस्विता और प्रतिभा में अभीष्ट अभिवृद्धि कर सकते हैं।
भारतीय योगियों ने इस सम्बन्ध में अद्भुत प्रयोग किये हैं। योग विज्ञान के सारे चमत्कार इसी इस प्राणतत्व के ही क्रिया कलाप हैं। यह सृष्टि परा और अपरा प्रकृति के दो भागों में विभक्त है। एक को जड़ दूसरे को चेतन कहते हैं। जड़ के सूक्ष्म अंश को परमाणु जिसके संयोग से स्थूल अवयवों का निर्माण होता है चेतन को प्राण कहते हैं जिससे सूक्ष्म शरीर बनता है शरीर में यह प्राण ही सूक्ष्म शरीर के रूप में विद्यमान रहता है इसी से उसमें गति और सक्रियता उत्पन्न होती है जिससे प्राणि जगत हलचल करता हुआ दिखाई देता है उसके अभाव में इस बौद्धिक चेतना के दर्शन संभव नहीं हो सकते हैं प्राण की प्रशस्ति में शास्त्रकारों ने तरह तरह की व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं। शांखायन का मत है—
प्राणोऽस्मि प्रज्ञात्या । तं मामायुरमृत भित्युपमृत भित्युपास्स्वाऽऽयुः प्राणः प्राणोवा आयुः । यावदस्मिञ्छरी रे प्राणोतसति तावदायुः । प्राणेन हि एवगस्मिन लोकेऽमृतत्व माप्नोति ।
मैं ही प्राण रूप प्रज्ञा हूं। मुझे ही आयु अमृत जान कर उपासना करो, जब तक प्राण है तभी तक जीवन है। इस लोक में अमृतत्व प्राप्ति का आधार प्राण ही है। प्राण के आग्नेय स्वरूप को इस तरह निरूपित किया है—
एषोऽग्निस्तपत्येष सूर्य एष-पर्जन्यो मद्यवानष् । एष पृथिवी रयिर्देवः सदसच्चामृतं चयत् ।। प्रश्नोपनिषद् 2।5
यह प्राण ही शरीर में अग्नि रूप धारण करके तपता है यही सूर्य, मेघ, इन्द्र, वायु, पृथ्वी तथा भूत समुदाय है सत असत तथा अमृत स्वरूप ब्रह्म भी यही हैं। असद्वा इदमग्न आसात् तदाहुः किं तदसदासीदित्यृषयो वा व । तेऽग्नेऽसदासीत् । दताहुः के तो ऋषभ इति प्राणा वा ऋषय ।
—शतपथ
सृष्टि से पहले ‘असत्’ था। यह असत् क्या? उत्तर में कहा गया वे ऋषि क्या थे?—तब उत्तर में कहा गया—वे प्राण थे। प्राण ही ऋषि हैं। यहां असत् शब्द अभाव के अर्थ में नहीं—अव्यक्त के रूप में प्रयुक्त हुआ है। प्राण सृष्टि से पूर्व भी विद्यमान था। जब दृश्य पदार्थ विनिर्मित हुए तो उनमें प्राण को हलचल करता हुआ देखा गया। यह देखना ही ‘व्यक्त’ है।
प्राण को जेष्ठ और श्रेष्ठ कहा गया है— प्राणो वा व ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च । —छांदोग्य 5,2,2
सृष्टि से पूर्व उसकी सत्ता विद्यमान होने से वह ज्येष्ठ है। श्रेष्ठ इसलिये कि समस्त पदार्थों और शरीरों में, उसी की विभिन्न हलचलें दृष्टिगोचर हो रही हैं। वस्तुतः जीवन के अर्थ में ही प्राण का प्रयोग होता रहा है।
यस्मात्कस्माच्चाङ्गात्प्राण उत्क्रामति तदेव तच्छ्रुष्ति । —वृहदारण्य
जिस किसी अंग से प्राण निकल जाता है, वह सूख जाता है। दशये पुरुषे प्राणा आत्मैकादश । —वृहदारण्य
मनुष्य में रहने वाली दस इन्द्रियां और ग्यारहवां मन यह सब प्राण हैं। इतने पर भी उसने वायुः इन्द्रियां या मन नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः वह इस सबके भीतर काम करने वाली जीवनी शक्ति है।
न वायु क्रिये पृथगुपदेशात् । —ब्रह्मसूत्र 2-4
यह प्राण वायु या इन्द्रियां नहीं है। शास्त्रों में उसका उपदेश भिन्न रूप से किया गया है। प्रश्नोपनिषद् में यह तथ्य और भी अधिक स्पष्ट कर दिया है— तान्वरिष्ठः प्राण उवाच मा मोहमा पद्य था अहमेवैतत्पंचधात्मान प्रविभ्ज्यैत द्वाणमवष्टभ्य विधारयामि । —प्रश्न. 2-3
उस वरिष्ठ प्राण ने मन और इन्द्रियों से कहा—तुम मोह में मत पड़ो। मैं ही पांच रूप बनाकर इस शरीर को धारण किये हुए हूं। न वायु प्राणो नापि करण व्यापरः । —ब्रह्म सूत्र 2-4-9
यह प्राण, वायु नहीं है और न वह इन्द्रियों का व्यापार ही है। एत स्माञ्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च । —मुण्डक 2,1,3
यह प्राण मन और इन्द्रियों से भिन्न है।
प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे, यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन्त्सर्वं प्रतिष्ठितम् ।
अर्थात्—उस प्राण को नमस्कार जिसके वश में यह सब कुछ है। जो सब प्राणियों का अधिष्ठाता है। जो सब में समाया है जिसमें सब समाये हैं। संस्कृत में प्राण शब्द की व्युत्पत्ति ‘प्र’ उपसर्ग पूर्वक ‘अन्’ धातु से होती है। ‘अन्’ धातु (प्राण ने) जीवनी शक्ति-चेतना बोधक है। इस प्रकार प्राण शब्द का अर्थ चेतना शक्ति होता है। जीवधारियों को प्राणी इसीलिए कहते हैं। प्राण और जीवन दोनों एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। प्राण आत्मा का गुण है। यह परम आत्मा से-पर ब्रह्म से-निसृत होता है। आत्मा, परमात्मा का ही एक अविच्छिन्न घटक है। वह अंश रूप है तो भी उसमें मूल सत्ताधीश के सारे गुण विद्यमान हैं। व्यक्तिगत प्राण धारण करने वाला प्राणी जब सुविकसित होता है तो वह भू बूंद के समुद्र में पड़ने पर सुविस्तृत होने की तरह ही व्यापक बन जाता है।
जड़ जगत में शक्ति तरंगों के रूप में संव्याप्त सक्रियता के रूप में प्राण शक्ति का परिचय दिया जा सकता है और चेतन जगत में उसे विचारणा एवं संवेदना कहा जा सकता है। इच्छा, ज्ञान और क्रिया के रूप में यह जीवधारियों में काम करती है। जीवन्त प्राणी इसी के सहारे जीवित रहते हैं। इस जीवनी शक्ति की जितनी मात्रा जिसे मिल जाती है वह उतना ही अधिक प्राणवान कहा जाता है। चेतना की विभु सत्ता समस्त विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त है। चेतना प्राण कहलाती है। उसी का अमुक अंश प्रयत्नपूर्वक अपने में धारण करने वाला प्राणी—प्राणवान एवं महाप्राण बनता है। यह प्राण जड़ पदार्थों में सक्रियता के और चेतन प्राणियों में सजगता के रूप में दृष्टिगोचर होता है। जड़ चेतन जगत की सर्वोपरि शक्ति होने के कारण उसे जेष्ठ एवं श्रेष्ठ कहा गया है।
प्राणो व च ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च । —छांदोग्य 5।1।1
यह तत्व अनादि और अनन्त है। इसी में सृष्टि बार बार विलीन और उत्पन्न होती रहती है। सृष्टि से पूर्व यहां क्या था। इसका उत्तर देते हुए शास्त्र कहता है— असद् वा इन मग्न आसात् तदाहुः किं तवसद सी दित्यृषयोवा व । तेऽग्नेऽसदा सीत्, तदाहूः के ते ऋषय इति प्राणा वा ऋषय ।
—शतपथ
पूछा गया—ऋषि से पहले क्या था? उत्तर दिया—ऋषि थे। पूछा—यह ऋषि का थे। उत्तर दिया वे प्राण थे। यह प्राण ही ऋषि है। सृष्टि के आरंभ में सर्व प्रथम प्राण तत्व के उत्पन्न होने का वर्णन है। जड़ जगत में पंच तत्वों का और चेतन प्राणियों में विचार शक्ति का आविर्भाव उसी से हुआ है। स प्राणमसृजत, प्राणच्छ्द्धा, रवं वायुर्जेति रुपः पृथिविन्द्रिय मनोन्नम् ।
अर्थात् उस ब्रह्म से प्राण उत्पन्न किया। प्राण से श्रद्धा, बुद्धि, मन एवं आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी पंच तत्वों की उत्पत्ति हुई। तब अन्न उत्पन्न हुआ। अथर्व वेद के प्राण सूक्त में आता है—
प्राणाय नमो यस्य सर्व मिदं वशे, यो भूतः सर्वस्येश्वरी यस्मिन् सर्व प्रतिष्ठितम् । अर्थात् उस प्राण को नमस्कार, जिसके वश् में सब कुछ है। जो सब प्राणियों का अधिष्ठाता है जो सच में समाया है, जिसमें सब समाये हैं।
वैदिक विवेचना में प्राण के साथ ‘वायु’ का विशेषण भी लगा है। उसे कितने ही स्थानों पर प्राण वायु कहा गया है। इसका तात्पर्य ऑक्सीजन, नाइट्रोजन आदि वायु विकारों से नहीं वरन् उस प्रवाह से है जिसकी ‘गतिशील विद्युत तरंगों’ के रूप में भौतिक विज्ञानी चर्चा करते रहते हैं। अणु विकरण-ताप-ध्वनि आदि की शक्ति धाराओं के मूल में संव्याप्त सत्ता भी उसे कहां जा सकता है। यदि उसके अध्यात्म स्वरूप का विवेचन किया जाय तो अंग्रेजी के लेटेन्ट लाइट-डिवायन लाडन्ट आदि शब्दों से संगति बैठती है जिसमें उसके दिव्य प्रकाश के समतुल्य होने का संकेत मिलता है।
स्वामी विवेकानन्द ने प्राण की विवेचना साइकिक फोर्स के रूप में की है। इसका मोटा अर्थ ‘मानसिक शक्ति’ हुआ। मोटे रूप से तो यह कोई मस्तिष्कीय हलचल हुई। पर प्राण तो विश्व-व्यापी है। यदि समष्टि को मन की शक्ति कहें या सर्वव्यापी चेतना शक्ति का नाम दें तो ही यह अर्थ ठीक बैठ सकता है। व्यक्तिगत मस्तिष्क की प्रथम मानसिक शक्ति की क्षमता प्राण के रूप में नहीं हो सकती। सम्भवतः स्वामी जी का संकेत समष्टि मन की सर्वव्यापी क्षमता की ओर ही रहा होगा।
मानसिक एवं शारीरिक क्षमताओं के रूप में प्राण शक्ति के प्रकट होने का प्रखर होने का परिचय प्राप्त किया जा सकता है, पर वह मूलतः इन सब जाने हुए विवरणों से कहीं अधिक सूक्ष्म है।
वैदिक साहित्य में प्राण के साथ वायु विशेषण भी लगा है और उसे ‘प्राण वायु’ कहा गया है। उनका तात्पर्य ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, आदि वायु विकारों से नहीं वरन् उस प्रवाह से है जिसकी गतिशील विद्युत तरंगों के रूप में भौतिक विज्ञानी चर्चा करते हैं। अणु विकरण, ताप, प्रकाश आदि की शक्ति धाराओं के मूल में संव्याप्त सत्ता से कहा जा सकता है।
शरीर में प्रत्यक्ष उष्णता के रूप में दीखने वाला बुखार वस्तुतः इन कोटि-कोटि अदृश्य रोग कीटाणुओं के उपद्रव की एक नन्हीं सी झलक ही है। वे रोग कीट हजारों तरह के उपद्रवों की पृष्ठ भूमि देह के भीतर रच रहे होते हैं पर हमें उनमें से मात्र चमड़ी पर उभरने वाली गर्मी मात्र का ही अनुभव होता है। भीतर के अंगों में जो ताप या विग्रह उन रोग कीटों ने उत्पन्न किया होता है वह तो विदित ही नहीं होता। मनुष्य की काया को ही लीजिये इतना लम्बा चौड़ा शरीर वस्तुतः एक सूक्ष्म वीर्यकण और उसके भीतर रहने वाले ‘जीन्स’ न्यूक्लियस आदि अति सूक्ष्म तत्वों की परिणिति मात्र होता है। वह अदृश्य सूक्ष्मता की काया के रूप में जितनी प्रकट होती है, उससे भी अधिक गुनी अधिक विशेषताएं फिर भी अनुभव में न आने पर भी विद्यमान रहती हैं।
विराट् ब्रह्माण्ड का वास्तविक स्वरूप उसका सूक्ष्म ‘शक्ति अंश’ ही है। जिसे परा और अपरा प्रकृति के नाम से जाना जाता है। उसके कर्तृत्व का नन्हा सा अंश ही स्वतः हमारी मनःचेतना की पकड़ में आता है। जो दृश्य है उसके इर्द-गिर्द अदृश्य शक्ति स्रोत की असीम प्रवाह धारा बहती रहती है। ग्रह नक्षत्रों से लेकर वन, पर्वत, सागर, सरिता तक सब पर यही बात लागू होती है। मानव शरीर और भी अधिक विचित्र है। उसकी संवेदनशीलता—चुम्बक क्षमता इतनी अधिक है कि वह अपनी कोमल ग्रहण शक्ति के कारण इस अदृश्य जगत की किन्हीं भी अद्भुत शक्तियों को अभीष्ट परिमाण में अपने अन्दर खींच सकता है—ग्रहण और धारण कर सकता है।
शरीर शास्त्री जितना ज्ञान अब तक देह के भीतरी और बाहरी अंगों के सम्बन्ध में प्राप्त कर चुके हैं, उससे कहीं अधिक गंभीर ज्ञान हमें अपने ‘सूक्ष्म’ और ‘कारण’ शरीर के सम्बन्ध में प्राप्त करना चाहिए। जो शोधें प्राचीन काल में हो चुकी हैं उससे आगे का सारा क्रम ही अवरुद्ध हो गया जब कि आवश्यकता उसे निरन्तर जारी रखे जाने की थी। ज्ञान का अन्त नहीं जो प्राचीन काल में जाना जा चुका वह समग्र नहीं। मानवीय सामर्थ्य और विराट् की अनन्तता की तुलना करते हुए यही उचित है कि उपलब्ध ज्ञान को पूर्ण न माना जाय और अन्वेषण कार्य जारी रखा जाय।
सूक्ष्म और कारण शरीरों की स्थिति, शक्ति, संभावना और उपयोग की प्रक्रिया समझने में भूत काल के साधन विज्ञानियों की जानकारियों से लाभ उठाया जाना चाहिए और अन्तरिक्ष के सूक्ष्म प्रवाह संचार में पिछले दिनों जो परिवर्तन हुए हैं। मनुष्य कलेवर के स्तर में जो भिन्नता आई है उसे ध्यान में रखते हुए हमें शोध कार्य को आगे बढ़ाना चाहिए।
स्थूल दृश्य शरीर की गति विधियां इस भूलोक तक सीमित हैं। सूक्ष्म शरीर-भुवः लोक तक। और कारण शरीर स्वः लोक तक अपनी सक्रियता फैलाये हुए हैं। इन भूः भुवः स्वः लोकों को ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र, आदि समझने की आम तौर से भूल की जाती है। लोक और ग्रह सर्वथा भिन्न हैं। ग्रह स्थूल हैं लोक सूक्ष्म। इस दृश्यमान अनुभव गम्य भूलोक के भीतर अदृश्य स्थिति में दो अन्य लोक समाये हुए हैं। भुवः लोक और स्व लोक। वहां की स्थिति भू लोक से भिन्न है। यहां पदार्थ का प्राधान्य है। जो कुछ भी सुख दुख हमें मिलते हैं वे सब अणु पदार्थों के माध्यम से मिलते हैं। यहां हम जो कुछ चाहते या उपलब्ध करते हैं वह पदार्थ ही होता है। स्थूल शरीर चूंकि स्वयं पदार्थों का बना है इसलिए उसकी दौड़ या पहुंच पदार्थ तक ही सीमित हो सकती है। भुवः लोक विचार प्रधान होने से उसकी अनुभूतियां, शक्तियां, क्षमतायें, संभावनायें सब कुछ इस बात पर निर्भर करती हैं कि व्यक्ति का बुद्धि संस्थान विचार स्तर क्या था।
स्व लोक भावना लोक है। यह भावना प्रधान है। भावनाओं में रस है। प्रेम का रस प्रख्यात है। माता और बच्चे के बीच, पति और पत्नी के बीच, मित्र और मित्र के बीच कितनी प्रगाढ़ता, घनिष्ठता, आत्मीयता होती है यह हम प्रत्यक्ष देखते हैं। वे संयोग में कितना सुख और वियोग में कितना दुख अनुभव करते हैं इसे कोई सहृदय व्यक्ति अपनी अनुभूतियों की तथा उन स्थितियों के ज्वार भाटे से प्रभावित लोगों की अन्तःस्थिति का अनुमान लगाकर वस्तुस्थिति की गहराई जान सकते हैं। यह भाव-संवेदना इतनी सघन होती है कि शरीर और मन को किसी विशिष्ट दिशा में घसीटती हुई कहीं से कहीं ले पहुंचती है। श्रद्धा और विश्वास के उपकरणों से देवताओं को विनिर्मित करना और उन पर अपना भावारोपण करके अभीष्ट वरदान प्राप्त कर लेना यह सब भाव संस्थान का चमत्कार है। देवता होते हैं या नहीं। उनमें वरदान देने की सामर्थ्य है या नहीं। इस तथ्य को समझने के लिये हमें मनुष्य की भाव सामर्थ्य की प्रचंडता को समझना पड़ेगा। उसकी श्रद्धा का बल असीम है। जिसकी जितनी श्रद्धा होगी जिसका जितना गहरा विश्वास होगा, जिसने जितना प्रगाढ़ संकल्प कर रक्खा होगा, और जिसने जितनी गहरी भक्ति भावना को संवेदनात्मक बना रक्खा होगा देवता उसकी मान्यता के अनुरूप बन कर खड़ा हो जायगा। वह उतना ही शक्ति सम्पन्न होगा और उतने ही सच्चे वरदान देगा।
कहना न होगा कि हर चीज सूक्ष्म होने पर अधिक शक्तिशाली बनती चली जाती है। मिट्टी में वह बल नहीं जो उसके अति सूक्ष्म अंश अणु में है। हवा में वह सामर्थ्य नहीं जो ईथर में है। पानी में वह क्षमता नहीं जो भाप में है। स्थूल शरीर के गुण धर्म से हम परिचित हैं। वह सीमित कार्य ही अन्य जीव जन्तुओं की तरह पूरे कर सकता है। जो अतिरिक्त सामर्थ्य अतिरिक्त प्रतिभा, अतिरिक्त प्रखरता मनुष्य के अन्दर देखी जाती है वह उसके सूक्ष्म और कारण शरीरों की ही है। बाहर से सब लोग लगभग एक से दीखने पर भी भीतरी स्थिति के कारण उनमें जमीन आसमान जितना अन्तर पाया जाता है यह रक्त मांस का फर्क नहीं वरन् सूक्ष्म शरीर की अन्तःचेतना में सन्निहित समर्थता और असमर्थता के कारण ही होता है। पंच भौतिक स्थूल काया को जिस प्रकार आहार, व्यायाम, चिकित्सा आदि उपायों से सामर्थ्यवान बनाया जाता है उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर तथा कारण शरीर को भी योग साधना द्वारा परिपुष्ट बनाया जाता है। मनोबल और आत्मबल के कारण जो अद्भुत विशेषताएं लोगों में देखी जाती हैं उन्हें इन सूक्ष्म शरीरों की बलिष्ठता ही समझना चाहिए। साधना का उद्देश्य उसी बलिष्ठता को सम्पन्न करना है।
स्थूल शरीर की शोभा, तृप्ति और उन्नति के लिये हमारे प्रयत्न निरन्तर चलते रहते हैं। यदि सूक्ष्म शरीर और कारण शरीरों को अपेक्षित और वुभुक्षित पड़े रहने देने की हानि को हम समझें और उन्हें भी स्थूल शरीर की ही तरह समुन्नत करने का प्रयत्न करें तो ऐसे असाधारण लाभ प्राप्त कर सकते हैं, जिनके द्वारा जीवन कृतकृत्य हो सके। भूलोक में प्राप्त पदार्थ ‘सम्पदाओं से प्राप्त थोड़े से सुख का हमें ज्ञान है अस्तु उसी को उधेड़ बुन में लगे रहते हैं। भुवः और स्वः लोकों की विभूतियों को भी जान सकें तो सच्चे अर्थों में सम्पन्न बन सकते हैं। योग साधना का प्रयोजन मनुष्य को ऐसी ही समग्र सम्पन्नता से लाभांवित करता है।’
सूक्ष्म शरीर की प्राथमिक ईंटें प्राण-स्फुल्लिंग
मनुष्य शरीर जिन सूक्ष्म कणों से बना है उन्हें कोशिका (सेल) कहते हैं सारे शरीर को एक कोशिका जाल या भवन कह सकते हैं। इस कोशिका (सेल) को दो भागों में विभाजित किया जाता है। (1) साइटो प्लाज्मा (2) नाभिक (न्युक्लियस) साइटोप्लाज्मा उस कोशिका का रसायन भाग और नाभिक संस्कार भाग कह सकते हैं जीवन की प्रमुख चेतना इसी नाभिक में प्रकाश, ताप चुम्बकत्त्व, विद्युत, ध्वनि और गति के रूप में विद्यमान रहता है इस तरह शरीर के स्थूल अणुओं में व्याप्त इस दूसरे जाल की सम्मिलित इकाई का नाम ही सूक्ष्म शरीर है। भारतीय योग विज्ञान में इस तत्व का नाम प्राण और उससे बने सूक्ष्म शरीर को प्राणमय कोश कहा गया है। पूर्व अध्याय में जिस बायोलॉजिकल प्लाज्मा बाडी का वर्णन किया गया है वह यह प्राणमय कोश ही है।
परा प्रकृति की चेतना शक्ति
शरीर में मन की चेतना पंचतत्वों के सम्मिलन की चेतना मानी जाती है। आत्मा में प्रकाश प्राप्त करते हुए भी वह आत्मा का नहीं, शरीर का ही अंश माना जाता है। इसी प्रकार विश्वव्यापी पंच-तत्वों की, महाभूतों की सम्मिलित चेतना का नाम प्राण है। प्राण को ही जीवनी शक्ति कहते हैं। वह वायु में, आकाश में घुला तो रहता है पर इनसे भिन्न है। जिसे जड़ प्रकृति कहते हैं, वस्तुतः वह भी जड़ नहीं है। उसमें प्राण की एक स्वल्प मात्रा भरी रहती है। पूर्ण निष्प्राण वस्तुः पूर्णतः निरुपयोगी ही नहीं होती, वरन् नष्ट भी हो जाती है। प्राण के अभाव में कोई वस्तु अपना स्वरूप धारण किये नहीं रह सकती, उसके जो स्वाभाविक गुण हैं वे भी स्थिर नहीं रहते।
प्राण को एक प्रकार की सजीव विद्युत-शक्ति कह सकते हैं जो समस्त संसार में वायु, आकाश, गर्मी एवं ईथर की तरह समाई हुई है। यह तत्व जिस प्राणी में जितना अधिक होता है वह उतना ही स्फूर्तिवान्, तेजस्वी, साहसी एवं सुदृढ़ दिखाई देता है। शरीर में व्याप्त इसी तत्व को जीवनीशक्ति एवं ‘ओज’ कहते हैं और मन में व्यक्त होने पर यही तत्व प्रतिभा एवं तेज कहलाता है। वीर्य में यही विद्युत शक्ति अधिक मात्रा में भरी रहने से ब्रह्मचारी लोग मनस्वी एवं तेजस्वी बनते हैं। इसी के अभाव से चमड़ी गोरी पीली होने पर भी, नख-शिख का ढांचा सुन्दर दीखने पर भी मनुष्य निस्तेज, उदास, मुरझाया हुआ और लुंज-पुंज सरीखा लगता है। भीतरी तेजस्विता के अभाव से चमड़ी की सुन्दरता निर्जीव जैसी लगती है। मन को लुभाने वाले सौंदर्य में जो तेजस्विता एवं मृदुलता बिखरी होती है वह और कुछ नहीं प्राण का ही उभार है। वृक्ष, वनस्पतियों, पुष्पों से लेकर शिशु और शावकों, किशोरों-किशोरियों में जो कुछ आह्लाद दीख पड़ता है वह सब प्राण का ही प्रताप है। यह शक्ति कहीं चेहरे के सौन्दर्य में, कहीं वाणी की मृदुलता में, कहीं प्रतिभा में कहीं बुद्धिमता में, कहीं कला-कौशलता में, कहीं भक्ति में, कहीं अन्य किसी रूप में देखी जाती है।
दुर्गा के रूप में अध्यात्म जगत् में इसी तत्व को पूजा जाता है। शक्ति यही है। दुर्गा शप्तशती में ‘‘या देवी सर्व भूतेषु शक्ति रूपेण तिष्ठति’’ आदि श्लोकों में अनेक रूप से, उसी तत्व के लिए ‘‘नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमोनमः’’ कह कर अभिवन्दन किया गया है। विजय दशमी की शक्ति पूजा के रूप में हम इस प्राणतत्व का ही आह्वान और अभिनन्दन करते हैं। विश्व सृष्टि में समाया हुआ यह प्राण जब दुर्बल पड़ जाता है तो हीनता का युग आ जाता है, सब जीव जन्तु दुर्बल काय, अल्पजीवी, मन्दबुद्धि और हीन भावनाओं वाले हो जाते हैं। किन्तु जब इसकी प्रौढ़ता रहती है तो इस सृष्टि में सब कुछ उत्कृष्ट रहता है। सतयुग और कलियुग का भेद इस विश्व-प्राण की प्रौढ़ता और वृद्धता पर निर्भर है। जब सृष्टि में से यह प्राण होते-होते मरण की, परिसमाप्ति की स्थिति में पहुंचता है तो प्रलय की घड़ी प्रस्तुत हो जाती है। परमाणुओं के एक दूसरे के साथ सम्बद्ध रखने वाला चुम्बकत्व-प्राण ही नहीं रहा तो वे सब बिखर कर धूलि की तरह छितरा जाते हैं। जितने स्वरूप बने हुए थे वे सब नष्ट हो जाते हैं इसी का नाम प्रलय है। जब दीर्घकाल के पश्चात यह प्राण चिर निद्रा में से जागकर नवजीवन ग्रहण करता है तो सृष्टि उत्पादन की प्रक्रिया पुनः आरंभ हो जाती है। जीवात्माओं को इस परा और अपरा प्रकृति का आवरण धारण करके कोई स्वरूप ग्रहण करने का अवसर मिलता है और वे पुनः जीव जन्तुओं के रूप में चलते फिरते दृष्टिगोचर होने लगते हैं।
यह प्राणतत्व किन्हीं प्राणियों को पूर्व संग्रहीत संस्कार एवं पुण्यों के कारण जन्म जात रूप से अधिक मात्रा में उपलब्ध होता है। इसे उनका सौभाग्य ही कहना चाहिए। पर जिन्हें वह न्यून मात्रा में प्राप्त है उन्हें निराश होने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। प्रयत्नों के द्वारा इस तत्व को कोई भी—अभीष्ट आकांक्षा के अनुरूप अपने अन्दर धारण कर सकता है। जिसमें कम है वह उसकी पूर्ति, इस विश्वव्यापी प्राणतत्व में से बिना किसी रोक-टोक के चाहे जितनी मात्रा में लेकर कर सकता है। जिनमें पर्याप्त मात्रा है वह और भी अधिक मात्रा में उस ग्रहण करके अपनी तेजस्विता और प्रतिभा में अभीष्ट अभिवृद्धि कर सकते हैं।
भारतीय योगियों ने इस सम्बन्ध में अद्भुत प्रयोग किये हैं। योग विज्ञान के सारे चमत्कार इसी इस प्राणतत्व के ही क्रिया कलाप हैं। यह सृष्टि परा और अपरा प्रकृति के दो भागों में विभक्त है। एक को जड़ दूसरे को चेतन कहते हैं। जड़ के सूक्ष्म अंश को परमाणु जिसके संयोग से स्थूल अवयवों का निर्माण होता है चेतन को प्राण कहते हैं जिससे सूक्ष्म शरीर बनता है शरीर में यह प्राण ही सूक्ष्म शरीर के रूप में विद्यमान रहता है इसी से उसमें गति और सक्रियता उत्पन्न होती है जिससे प्राणि जगत हलचल करता हुआ दिखाई देता है उसके अभाव में इस बौद्धिक चेतना के दर्शन संभव नहीं हो सकते हैं प्राण की प्रशस्ति में शास्त्रकारों ने तरह तरह की व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं। शांखायन का मत है—
प्राणोऽस्मि प्रज्ञात्या । तं मामायुरमृत भित्युपमृत भित्युपास्स्वाऽऽयुः प्राणः प्राणोवा आयुः । यावदस्मिञ्छरी रे प्राणोतसति तावदायुः । प्राणेन हि एवगस्मिन लोकेऽमृतत्व माप्नोति ।
मैं ही प्राण रूप प्रज्ञा हूं। मुझे ही आयु अमृत जान कर उपासना करो, जब तक प्राण है तभी तक जीवन है। इस लोक में अमृतत्व प्राप्ति का आधार प्राण ही है। प्राण के आग्नेय स्वरूप को इस तरह निरूपित किया है—
एषोऽग्निस्तपत्येष सूर्य एष-पर्जन्यो मद्यवानष् । एष पृथिवी रयिर्देवः सदसच्चामृतं चयत् ।। प्रश्नोपनिषद् 2।5
यह प्राण ही शरीर में अग्नि रूप धारण करके तपता है यही सूर्य, मेघ, इन्द्र, वायु, पृथ्वी तथा भूत समुदाय है सत असत तथा अमृत स्वरूप ब्रह्म भी यही हैं। असद्वा इदमग्न आसात् तदाहुः किं तदसदासीदित्यृषयो वा व । तेऽग्नेऽसदासीत् । दताहुः के तो ऋषभ इति प्राणा वा ऋषय ।
—शतपथ
सृष्टि से पहले ‘असत्’ था। यह असत् क्या? उत्तर में कहा गया वे ऋषि क्या थे?—तब उत्तर में कहा गया—वे प्राण थे। प्राण ही ऋषि हैं। यहां असत् शब्द अभाव के अर्थ में नहीं—अव्यक्त के रूप में प्रयुक्त हुआ है। प्राण सृष्टि से पूर्व भी विद्यमान था। जब दृश्य पदार्थ विनिर्मित हुए तो उनमें प्राण को हलचल करता हुआ देखा गया। यह देखना ही ‘व्यक्त’ है।
प्राण को जेष्ठ और श्रेष्ठ कहा गया है— प्राणो वा व ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च । —छांदोग्य 5,2,2
सृष्टि से पूर्व उसकी सत्ता विद्यमान होने से वह ज्येष्ठ है। श्रेष्ठ इसलिये कि समस्त पदार्थों और शरीरों में, उसी की विभिन्न हलचलें दृष्टिगोचर हो रही हैं। वस्तुतः जीवन के अर्थ में ही प्राण का प्रयोग होता रहा है।
यस्मात्कस्माच्चाङ्गात्प्राण उत्क्रामति तदेव तच्छ्रुष्ति । —वृहदारण्य
जिस किसी अंग से प्राण निकल जाता है, वह सूख जाता है। दशये पुरुषे प्राणा आत्मैकादश । —वृहदारण्य
मनुष्य में रहने वाली दस इन्द्रियां और ग्यारहवां मन यह सब प्राण हैं। इतने पर भी उसने वायुः इन्द्रियां या मन नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः वह इस सबके भीतर काम करने वाली जीवनी शक्ति है।
न वायु क्रिये पृथगुपदेशात् । —ब्रह्मसूत्र 2-4
यह प्राण वायु या इन्द्रियां नहीं है। शास्त्रों में उसका उपदेश भिन्न रूप से किया गया है। प्रश्नोपनिषद् में यह तथ्य और भी अधिक स्पष्ट कर दिया है— तान्वरिष्ठः प्राण उवाच मा मोहमा पद्य था अहमेवैतत्पंचधात्मान प्रविभ्ज्यैत द्वाणमवष्टभ्य विधारयामि । —प्रश्न. 2-3
उस वरिष्ठ प्राण ने मन और इन्द्रियों से कहा—तुम मोह में मत पड़ो। मैं ही पांच रूप बनाकर इस शरीर को धारण किये हुए हूं। न वायु प्राणो नापि करण व्यापरः । —ब्रह्म सूत्र 2-4-9
यह प्राण, वायु नहीं है और न वह इन्द्रियों का व्यापार ही है। एत स्माञ्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च । —मुण्डक 2,1,3
यह प्राण मन और इन्द्रियों से भिन्न है।
प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे, यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन्त्सर्वं प्रतिष्ठितम् ।
अर्थात्—उस प्राण को नमस्कार जिसके वश में यह सब कुछ है। जो सब प्राणियों का अधिष्ठाता है। जो सब में समाया है जिसमें सब समाये हैं। संस्कृत में प्राण शब्द की व्युत्पत्ति ‘प्र’ उपसर्ग पूर्वक ‘अन्’ धातु से होती है। ‘अन्’ धातु (प्राण ने) जीवनी शक्ति-चेतना बोधक है। इस प्रकार प्राण शब्द का अर्थ चेतना शक्ति होता है। जीवधारियों को प्राणी इसीलिए कहते हैं। प्राण और जीवन दोनों एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। प्राण आत्मा का गुण है। यह परम आत्मा से-पर ब्रह्म से-निसृत होता है। आत्मा, परमात्मा का ही एक अविच्छिन्न घटक है। वह अंश रूप है तो भी उसमें मूल सत्ताधीश के सारे गुण विद्यमान हैं। व्यक्तिगत प्राण धारण करने वाला प्राणी जब सुविकसित होता है तो वह भू बूंद के समुद्र में पड़ने पर सुविस्तृत होने की तरह ही व्यापक बन जाता है।
जड़ जगत में शक्ति तरंगों के रूप में संव्याप्त सक्रियता के रूप में प्राण शक्ति का परिचय दिया जा सकता है और चेतन जगत में उसे विचारणा एवं संवेदना कहा जा सकता है। इच्छा, ज्ञान और क्रिया के रूप में यह जीवधारियों में काम करती है। जीवन्त प्राणी इसी के सहारे जीवित रहते हैं। इस जीवनी शक्ति की जितनी मात्रा जिसे मिल जाती है वह उतना ही अधिक प्राणवान कहा जाता है। चेतना की विभु सत्ता समस्त विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त है। चेतना प्राण कहलाती है। उसी का अमुक अंश प्रयत्नपूर्वक अपने में धारण करने वाला प्राणी—प्राणवान एवं महाप्राण बनता है। यह प्राण जड़ पदार्थों में सक्रियता के और चेतन प्राणियों में सजगता के रूप में दृष्टिगोचर होता है। जड़ चेतन जगत की सर्वोपरि शक्ति होने के कारण उसे जेष्ठ एवं श्रेष्ठ कहा गया है।
प्राणो व च ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च । —छांदोग्य 5।1।1
यह तत्व अनादि और अनन्त है। इसी में सृष्टि बार बार विलीन और उत्पन्न होती रहती है। सृष्टि से पूर्व यहां क्या था। इसका उत्तर देते हुए शास्त्र कहता है— असद् वा इन मग्न आसात् तदाहुः किं तवसद सी दित्यृषयोवा व । तेऽग्नेऽसदा सीत्, तदाहूः के ते ऋषय इति प्राणा वा ऋषय ।
—शतपथ
पूछा गया—ऋषि से पहले क्या था? उत्तर दिया—ऋषि थे। पूछा—यह ऋषि का थे। उत्तर दिया वे प्राण थे। यह प्राण ही ऋषि है। सृष्टि के आरंभ में सर्व प्रथम प्राण तत्व के उत्पन्न होने का वर्णन है। जड़ जगत में पंच तत्वों का और चेतन प्राणियों में विचार शक्ति का आविर्भाव उसी से हुआ है। स प्राणमसृजत, प्राणच्छ्द्धा, रवं वायुर्जेति रुपः पृथिविन्द्रिय मनोन्नम् ।
अर्थात् उस ब्रह्म से प्राण उत्पन्न किया। प्राण से श्रद्धा, बुद्धि, मन एवं आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी पंच तत्वों की उत्पत्ति हुई। तब अन्न उत्पन्न हुआ। अथर्व वेद के प्राण सूक्त में आता है—
प्राणाय नमो यस्य सर्व मिदं वशे, यो भूतः सर्वस्येश्वरी यस्मिन् सर्व प्रतिष्ठितम् । अर्थात् उस प्राण को नमस्कार, जिसके वश् में सब कुछ है। जो सब प्राणियों का अधिष्ठाता है जो सच में समाया है, जिसमें सब समाये हैं।
वैदिक विवेचना में प्राण के साथ ‘वायु’ का विशेषण भी लगा है। उसे कितने ही स्थानों पर प्राण वायु कहा गया है। इसका तात्पर्य ऑक्सीजन, नाइट्रोजन आदि वायु विकारों से नहीं वरन् उस प्रवाह से है जिसकी ‘गतिशील विद्युत तरंगों’ के रूप में भौतिक विज्ञानी चर्चा करते रहते हैं। अणु विकरण-ताप-ध्वनि आदि की शक्ति धाराओं के मूल में संव्याप्त सत्ता भी उसे कहां जा सकता है। यदि उसके अध्यात्म स्वरूप का विवेचन किया जाय तो अंग्रेजी के लेटेन्ट लाइट-डिवायन लाडन्ट आदि शब्दों से संगति बैठती है जिसमें उसके दिव्य प्रकाश के समतुल्य होने का संकेत मिलता है।
स्वामी विवेकानन्द ने प्राण की विवेचना साइकिक फोर्स के रूप में की है। इसका मोटा अर्थ ‘मानसिक शक्ति’ हुआ। मोटे रूप से तो यह कोई मस्तिष्कीय हलचल हुई। पर प्राण तो विश्व-व्यापी है। यदि समष्टि को मन की शक्ति कहें या सर्वव्यापी चेतना शक्ति का नाम दें तो ही यह अर्थ ठीक बैठ सकता है। व्यक्तिगत मस्तिष्क की प्रथम मानसिक शक्ति की क्षमता प्राण के रूप में नहीं हो सकती। सम्भवतः स्वामी जी का संकेत समष्टि मन की सर्वव्यापी क्षमता की ओर ही रहा होगा।
मानसिक एवं शारीरिक क्षमताओं के रूप में प्राण शक्ति के प्रकट होने का प्रखर होने का परिचय प्राप्त किया जा सकता है, पर वह मूलतः इन सब जाने हुए विवरणों से कहीं अधिक सूक्ष्म है।
वैदिक साहित्य में प्राण के साथ वायु विशेषण भी लगा है और उसे ‘प्राण वायु’ कहा गया है। उनका तात्पर्य ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, आदि वायु विकारों से नहीं वरन् उस प्रवाह से है जिसकी गतिशील विद्युत तरंगों के रूप में भौतिक विज्ञानी चर्चा करते हैं। अणु विकरण, ताप, प्रकाश आदि की शक्ति धाराओं के मूल में संव्याप्त सत्ता से कहा जा सकता है।