Books - प्रज्ञा पुराण भाग-3
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अथ चतुर्थोऽध्याय: शिशु-निर्माण प्रकरणम्-4
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प्रवेशिकास्तरायाश्च शिक्षाया: पूर्वमेव तु । निश्चेयं बालकायैष भविता केन वै पथा॥५२॥ जीविकोपार्जनं केन माध्यमेन करिष्यति । आनुरूप्येण चास्यैव निर्णयस्याग्रिमा तत:॥५३॥ निर्धार्या तस्य कक्षा च शिक्षा नैवेदृशी शिशो:। कर्तव्या जीवने तस्य व्यवहार न याऽऽव्रजेत्॥५४॥ बुद्धौ भार इवाऽऽयाति व्यर्थ चाऽनेन कर्मणा। शिक्षणेनाऽनिवार्येण वञ्चितो जायते शिश:॥५५॥ व्यर्थतामेति सर्वं च श्रम: कालो धनं तथा । अनिश्चयेन चाऽनेन पश्चात्तापस्ततो भवेत् ॥५६॥ शिक्षोद्देश्यगतिश्चिन्त्या भोजनस्येव निश्चितम्। क्रीडार्थं समयो देय: कलाकौशलवेदिता॥५७॥ लोकाचारसदाचाराभिज्ञता तस्य संभवेत् । नीत्यभ्यस्तो भवेद् बाल: प्रबंधश्चेदृशो भवेत्॥४८॥ अस्मै प्रयोजनायैतद् भ्रमणं युज्यते ध्रुवम् । लाभदं ज्ञानवृद्धया चेद् भ्रमणं तद्व्यवस्थितम्॥५९॥ नोचेत्कौतुकमात्राय भ्रमणेन भवन्त्यपि। हानयो वैपरीत्येन भ्रमणं हि हितैर्हितम्॥६०॥
भावार्थ-प्रवेशिका स्तर की सामान्य शिक्षा पूरी करने से पूर्व ही यह निश्चय कर लेना चाहिए कि बडो को क्या बनाना है। उसे उपार्जन का क्या माध्यम अपनाना है। इस निर्णय के अनुरूप ही उसकी अगली शिक्षा का निर्धारण कर लिया जाय । ऐसी अनावश्यक शिक्षा न दी जाय जो उसके व्यावहारिक जीवन में काम नआए इससे मस्तिष्क पर अनावश्यक दबाव पड़ता है और जो सीखना आवश्यक था, उससे वंचित रहना होता है। किया गया श्रम और समय खर्चा गया धन इस अनिश्चिय के कारण व्यर्थ ही चला जाता है । इसके लिए पीछे सदा पछात्ताप रहता है। भोजन की तरह शिक्षा के उद्देश्य का ध्यान रखना भी आवश्यक है । खेलने-कूदने का अवसर दिया जाय । कला-कौशल से भी उन्हें अभ्यस्त होने दिया जाय । लोक-व्यवहार और नीति-सदाचार का उपपुक्त ज्ञान लाभ होता रहे । ऐसा प्रबंध किया जाय । परिभ्रमण इस प्रयोजन के लिए आवश्यक है। परिभ्रमण के साथ ज्ञान-संवर्द्धन की व्यवस्था पूरी तरह जुड़ी रहे तभी इसका लाभ है। अन्यथा कौतूहल भर के लिए इधर-उधर घूमने में कई बार तो उलटी हानि भी होती है । उपयुक्त समाधान करते रहने वालों के साथ घूमना ही हितकर है॥५२-६०॥
व्याख्या-शिक्षा बच्चो को क्या दी जानी है। इसका निर्धारण अभिभावकों को उनकी मनःस्थिति एवं देश-काल की परिस्थितियों को देखकर ही करना चाहिए । जो विषय अप्रासंगिक है, जिनका जीवन से दूर-दूर तक तालुक नहीं, शिशुओं के कंधे पर लाद देना, वस्तुत: उनके विकास को रोकने के समान है । सामान्य ज्ञान, आहार-विहार, खेल-कूद, सामान्य शिष्टाचार, नैतिक गुणों के व्यावहारिक क्रियान्वयन का शिक्षण पाठ्यक्रम में जुड़ा रहे, तो ही शिक्षा फलदायी होती है। ऐसी अनौपचारिक शिक्षण प्रक्रिया पाठ्य पुस्तकों की डिग्री दिलाने वाली शिक्षा से लाख गुना उत्तम है एवं अपनाई ही जानी चाहिए । पर्यटन-परिभ्रमण भी आसपास की परिस्थितियों, प्राकृतिक जीवन के विभिन्न पहलुओं के संबंध में दृष्टिकोण को निखारता एवं व्यक्तित्व को सर्वांगपूर्ण बनाता है । आत्मरक्षा का अभ्यास सभी शिशुओं को साथ में कराया जाना चाहिए, ताकि वे साहसी स्वावलंबी बन सके ।
विकसित राष्ट्रों के उदाहरण
क्यूबा, इजराइल एवं यूगोस्लाविया ने अपने यहाँ स्वावलंबन प्रधान शिक्षा को ही महत्व दिया है । विश्वयुद्ध के बाद उन्हें सुयोग्य नागरिकों की आवश्यकता थी। अत: डिग्री प्रधान शिक्षण से परे रहकर उन्होंने राष्ट्र के निव निर्माण के लिए अपेक्षित प्रगतिशील शिक्षा की व्यवस्था की । हर युवा व प्रौढ़ के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया कि वह अपनी शिक्षा की समाप्ति के बाद रोजगार में लगने के पूर्व न्यूनतम एक वर्ष सौ व्यक्तियों को साक्षर बनाने एवं नागरिकता का शिक्षण देने में लगाएगा । इसके फलदायी परिणाम तुरंत सामने आए । न केवल साक्षरता बड़ी, अपितु अनौपचारिक शिक्षा से प्रभावित बहुसंख्य जनता प्रगतिशील राष्ट्र की आवश्यकताओं को पूरा करने में जुट गई ।
चीन और जापान ने भी ऐसे छोटे-छोटे प्रयोग किशोरों-युवकों पर किए, ताकि स्वावलंबन प्रधान नागरिक ढल सकें। दोनों ही राष्ट्रों का प्रगति के शिखर पर पहुँचने का मूल कारण यही अनौपचारिक शिक्षा ही है।
फिशर की लगन
फ्रांसीसी पादरी महिला फिशर भारत आईं तो यहाँ की निरक्षरता को देखकर उन्हें बड़ा दुख हुआ । बच्चों को पढ़ाने के लिए कहने जातीं, तो लोग मुँह फेर लेते और उनकी बात तक न सुनते । फिर भी उनने निश्चय किया कि लगे रहना चाहिए । कुछ ही वर्षों में चमत्कारी परिणाम आ । लड़के और लड़कियों की शिक्षा ४० प्रतिशत तक पहुँच गई। उस इलाके में १५० प्राइमरी स्कूल खुल गए डेढ़ हजार बच्चे पढ़ने लगे । उन्होंने स्कूली शिक्षा तक ही स्वयं को सीमित न रख बच्चों को शिष्टाचार, लोक व्यवहार की शिक्षा भी दी । उनके पढ़ाए अनेक बच्चों ने आगे चलकर समाज निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
स्वामी रामतीर्थ ने प्रोफेसर पद छोडा
बी०ए० की परीक्षा में युवक को असफलता मिली, तो वह निराश नहीं हुआ। निराश होना तो उसने सीखा ही न था । दुगुने परिश्रम से जुट गया, अपने अध्ययन में । इस बार की परीक्षा में उस युवक ने परीक्षक को चकित कर दिया । प्रश्न-पत्र में परीक्षार्थियों के लिए नोट लगा था-'तेरह में से कोई नौ प्रश्न हल कीजिए।" उस युवक विधार्थी ने उत्तर पुस्तिका के मुख पृष्ठ पर सूचना लिख दी-'तेरह में से कोई नौ उत्तर देख लीजिए' और अगले पृष्ठों पर तेरह सवाल किए हुए थे, जिनमें से न तो एक भी गलत था और न इतनी गुंजायश थी कि आधा नंबर भी कहीं से काटा जाए। जून माह में परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ। वह युवक अपने प्रांत में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ था । यह परीक्षार्थी युवक था तीर्थराम। जिसे देश- विदेश के लोग स्वामी रामतीर्थ के नाम से जानते हैं। इन्होंने कॉलेज की प्रोफेसरी छोड़कर संसार में वेदांत की शिक्षाओं का प्रचार किया था । उनका कहना था कि स्कूल की पढ़ाई छोड़कर लोगों को व्यावहारिक अध्यात्म की शिक्षा दी जानी चाहिए। अल्पायु का अपना जीवन उन्होंने इसी में नियोजित कर दिया ।
बाल शिक्षा में संलग्न महात्मा
महात्मा भगवान दीन अपने आरंभिक जीवन के २८ वर्ष की आयु तक रेलवे में उच्च कर्मचारी रहे। साथ ही व्यक्तिगत साधना, योगाभ्यास भी करते रहे। पीछे उन्हें आंतरिक प्रेरणा हुई कि मात्र अपने कल्याण की साधना भी एक प्रकार की स्वार्थपरता है। अध्यात्म का तात्पर्य लोकसेवा भी है। उनने नौकरी छोड़ दी। विवाह नहीं किया और सार्वजनिक सेवा में लग गए । उनने हस्तिनापुर में ब्रह्मचर्याश्रम नामक बालक विद्यालय की स्थापना की और नागपुर में तरुणों के लिए सेवाश्रम खोला । दोनों ही विद्यालयों के छात्रों में चरित्र निष्ठा और लोक सेवा की भावना कूट-कूट कर भरी जाती थी । अधिकांश छात्र बडे़ कर्मठ बनकर निकले। स्वामी जी ने लेखनी उठाई और विशेषतया बालकों और युवकों की समस्याओं पर लिखा, यों उनसे समाज सुधार से लेकर राजनीति तक का कोई विषय न बचा, जिस पर उच्चकोटि का साहित्य न लिखा हो । स्वतंत्रता संग्राम आरंभ होने पर वे सत्याग्रह में सम्मिलित हो गए और कई बार जेल गए । स्वामी जी की सादगी और सेवा-भावना असाधारण थी । वे अपने संकल्पों की पूर्ति में इतने तन्मय हो जाते थे कि जो काम हाथ में लिया उसे सफलता के स्तर तक पहुँचा कर रहते थे ।
कवीन्द्र-रवीन्द्र की शिक्षा
रविन्द्रनाथ टैगोर जिस स्कूल में पढ़ते थे, वह शिक्षा मात्र नौकरी के काम की देखकर उनके पिता ने बच्चों को स्कूल से उठा लिया, जो बनाना चाहते थे सो पढ़ाया, फलस्वरूप उतने ही समय और श्रम से रवीन्द्र बाबू विश्व कवि हो गए तथा नोबुल पुरस्कार के अधिकारी बने। उन्होंने प्रकृति से ही अपना सारा शिक्षण पाया था । पिता के बाद वे अपनी उपलब्धियों का श्रेय पद्या नदी (बंगलादेश) के किनारे बिताए अपने कैशोर्यकाल को देते थे, जहाँ उन्होंने नैसर्गिक साहचर्य से बहुमूल्य शिक्षण पाया ।
आविष्कारक एडिसन
आध्यापकों ने एडिसन की माँ को सलाह दी-यह मूढ़मति वर्णमाला तक पढ़ नहीं पाया, यह पढ़ नहीं पाएगा । माता ने उसे स्कूल से उठा लिया और एक अखबार बेचने की दुकान पर लगा दिया । एडिसन का दिमाग आविष्कारों में बहुत लगता था । उसने जोड़-गाँठ कर एक प्रेस बनाया, जिस पर अपना अखबार भी लिखने-छापने लगा । एक दिन तार बाबू का लड़का रेल की पटरी पर कटने से उसने बचा लिया । बाबू ने उसे तार का काम सिखा दिया। वह अपने आविष्कारों में इतना निमग्र रहता कि ग्रामोफोन ही बना डाला । लगन इतनी जोरदार थी कि एक दिन पत्नी से ही परिचय पूछ बैठा । एडिसन ने कितने ही आविष्कार किए हैं । पढ़ तो वह थोड़ा ही सका, पर विज्ञान के क्षेत्र में उसके दिमाग ने आश्चर्यजनक सफलताएँ प्राप्त कीं ।
श्रम आजीविका का शिक्षण संपादन
मनुष्य को कुछ ऐसी कलाएँ भी जाननी चाहिए, जिससे उच्च पद छिन जाने पर भी सामान्य स्थिति में अपना गुजारा कर सके । माता कुंती ने पांडवों के लालन-पालन में इस दिशा में आरंभ से ही ध्यान रखा था, जो अनुभव उनके वनवास काल में काम आया । भीम ने रसोइए का, अर्जुन ने नतर्क का, द्रौपदी ने दासी का, इसी प्रकार अपने-अपने कौशल के अनुरूप विराट नगर में काम प्राप्त कर लिए थे ।
नास्तिक को शिक्षा
दो मित्र थे, उनमें से एक आस्तिक था व दूसरा नास्तिक । आस्तिक के रहन-सहन का स्तर बड़ा सरल व कार्य-व्यवहार बड़ा शिष्ट था । वह था भी आत्म-संतोषी, जितना मिल जाता, उसी में संतुष्ट रहता । इसके विपरीत नास्तिक दिन भर इसी उधेड़-बुन में लगा रहता कि अधिकाधिक आर्थिक अर्जन कर किस तरह भौतिक सुख-साधन एकत्रित करे। नास्तिक मित्र ने अपने आस्तिक मित्र से एक दिन पूछा-"तुम्हारा त्याग वास्तव में बहुत बडा है, तुमने भगवान की भक्ति में सारी दुनियादारी ही छोड़ दी ।" आस्तिक ने उत्तर दिया-"भाई, तुम्हारा त्याग तो और भी बड़ा है, तुमने तो दुनिया के लिए ईश्वर को ही छोड़ रखा है।" नास्तिक को उस दिन सीख मिली और उसने अपना जीवन क्रम पूरी तरह बदल दिया। अब वह अपने ज्ञान का लाभ दूसरो को देकर उन्हें स्वावलंबी बनाने का शिक्षण देने लगा । साथ ही उसने अपना व्यवहार भी बदला व आचरण भी ।
आध्यवसाय के बल पर करोड़पति
पिता का स्वर्गवास हुआ, अनाथ बच्चे आजीविका की तलाश में अपने गाँव से मात्र लोटा-डोरी लेकर चल पड़े। जहाँ रुकते, वहाँ कुछ मजदूरी करके निर्वाह योग्य कमा लेते, फिर आगे बढ़ते। बंबई पहुँच कर रोजगार तलाशा । इतने बड़े शहर में उन निरक्षरों को कौन नौकरी देता । पर उनने हिम्मत न हारी । सस्ती धार्मिक किताबें उधार में खरीदीं व फेरी लगाकर बेचने लगे । साथ ही रात्रि को स्कूल भी जाना चालू कर दिया । किताबें बेचते-बेचते पूँजी बढ़ी एवं काम इतना बढ़ा कि धार्मिक पुस्तकें प्रकाशित करने के लिए उन्हें प्रेस लगाना पड़ा । जैसा साहित्य प्रकाशित करते थे, वैसा ही उनका आचरण था । क्रमश: नई मशीनें आती गईं व अध्यवसाय के बलबूते वे प्रेस-प्रकाशन के शिखर पर पहुँच गए । 'निर्णय सागर प्रेस' इन्हीं का स्थापित किया हुआ है, जहाँ से कई महत्वपूर्ण प्रकाशन निकले हैं ।
इतरा के पुत्र ऐतरेय
इतरा यों तो शूद्र कुल में उत्पन्न हुई थी, पर उसे महर्षि शाल्विन की धर्मपत्नी बनने का सौभाग्य मिल गया। उसके एक पुत्र भी था । एक बार राजा ने बड़ा यज्ञ आयोजन किया। उसमें सभी ब्राह्मणों और ब्रह्मकुमारों का सत्कार हुआ । सभी को दक्षिणा मिलीं, किन्तु इतरा के पुत्र को शूद्र कहकर उस सम्मान से वंचित कर दिया गया । शाल्विन बहुत दुखी हुए । इतरा को भी चोट लगी, बच्चा भी उदास था । इस असमंजस ने एक नया प्रकाश दिया। तीनों ने मिलकर निश्चय किया कि वे जन्म से बढ़कर कर्म की महत्ता सिद्ध करेंगे । शिक्षण का नया दौर आरंभ हुआ । इतरा पुत्र ऐतरेय को धर्मशास्त्रों की शिक्षा में प्रवीण-पारंगत कराया गया । देखते-देखते वह अपनी प्रतिभा का अद्भुत परिचय देने लगा ।
एक बार वेद ऋचाओं के अर्थ की प्रतिस्पर्द्धा हुई । दूर देश के विद्वान और राजा एकत्रित हुए । प्रतियोगिता में सभी पांडुलिपियों जाँची गईं । सर्वश्रेष्ठ ऐतरेय घोषित किए गए। इतरा शूद्र थी । उनके पुत्र ने, पिता के नाम पर नहीं, माता की कुल-परंपरा प्रकट करने के लिए, अपना नाम ऐतरेय घोषित किया । 'ऐतरेय ब्राह्मण' वेद ऋचाओं को प्रकट करने वाला अद्भुत ग्रंथ हैं । उसका सृजेता जन्म से शूद्र होते हुए भी कर्म से ब्राह्मण बना ।
साहस ही नहीं, शील भी
महर्षि बोधायन अपनी शिष्य मंडली को लेकर तीर्थाटन के रूप में धर्म-प्रचार के लिए निकले। रास्ते में एक सरोवर के तट पर वट वृक्ष के नीचे विश्राम किया । प्रात: अन्य शिष्य उठ बैठे, कि गार्ग्य ज्यों के त्यों पड़े रहे। ऋषि ने जगाया, तो शिष्य ने धीमे स्वर से कहा- "मेरे पैरों में एक भयंकर सर्प लिपटा पड़ा है, सो गया है, थोड़ी देर में वह जागेगा और चला जाएगा, इसलिए अभी मुझे यथावत् ही पड़े रहना चाहिए ।" थोड़ी देर में सर्प जगा और झाड़ी में खिसक गया । गार्ग्य उठे और गुरु-वंदन करने गए । अन्य शिष्यों ने इसे साहस कहा और प्रशंसा की । बोधायन ने कहा-"गार्ग्य का निर्णय धैर्य और विवेकयुक्त था । इसलिए उसे साहस की अपेक्षा शील कहना उत्तम है ।" इस शील का अभ्यास ही जीवन को सही रूप में, आदर्शयुक्त ढंग से जीने के लिए जरूरी है । शिक्षा इसके बिना अपूर्ण है ।
बुद्धिमान कौन है?
एक सेठ ने अपने बेटों से कहा-"व्यवसाय बढ़ाओ और दूर-दूर तक कोठी-केन्द्र बनाओ।" सब बेटे इस प्रयत्न में लग गए । धन बहुत था, तो भी सीमित साधनों में ही कोठियाँ खड़ी की जा सकीं। आदमनी बढी, तो स्थानीय असहयोग के कारण उतना लाभ नहीं मिला, जितना कि सोचा गया था । छोटे बेटे ने अधिक समझदारी से काम लिया । वह दौरे पर निकला । कोठी तो एक भी नहीं बनाई, पर गहरी मित्रता अनेक सुयोग्यों के साथ सँजो ली। मित्र उसके व्यवसाय में सहायक हुए और अन्य भाइयों की तुलना में कहीं अधिक लाभ मिलने लगा । समय बीतने पर सेठ ने सभी लड़कों को बुलाया और काम का लेखा-जोखा लिया । बुद्धिमानी उसकी सराही गई, जिसने अधिक मित्र बनाने का व्यवसाय किया और बिना पूँजी बढ़ाए अधिक लाभ कमाने में सफल हुआ ।
महापंडितों की मूर्खता
छात्रों ने काशी में संस्कृत विद्या पढी, उनमें से चार पारंगत हो गए, तो घर वापस लौटे। मार्ग लंबा था, कुछ महत्वपूर्ण नीति-वाक्य उनने याद कर लिए, ताकि उलझनें सुलझाने में काम आए। वे वाक्य थे-
(१) महाजनों येन गत: स पन्धा:(२) राजद्धारे श्मशाने च यीस्तष्ठति स बान्धब:।(३) धर्मस्य त्वरिता गति: ।(४) आगमिष्यति यत्पत्रं तदस्मांस्तारयिष्यति।(५) सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्ध त्यजति पण्डित:।(६) अतिविस्तारविस्तीर्णं तद् भवेन्न चिरायुषम्।(७) छिद्रेष्वनर्था बहुली भवन्ति ।
इन वाक्यों का यथा समय प्रयोग करते हुए मार्ग पूरा करने का निश्चय उन लोगों ने किया। आगे जाते हुए एक चौराहा पड़ा । सही रास्ता कौन सा है, यह जानना था । श्लोक याद आया-"महाजनी येन गत: स पन्था:।" महाजन जिस पर चलें, वही मार्ग । एक मार्ग पर मुर्दे के साथ भीड़ जा रही थी । चारों उनके पीछे चल पडे और श्मशान पहुँच गए । यहाँ अपना, कौन पराया कौन? स्मरण आया । यहाँ कोई अपना सगा है क्या? नजर दौड़ाई । श्मशान में गधा चर रहा था, याद आया-"राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धव:", राजद्वार और श्मशान में जो खड़ा हो, वही अपना है । इस कसौटी पर गधा ही खरा उतर रहा था, सो वे उसके गले मिले और रास्ता पूछा । गधे ने दुलत्तियाँ जमा दीं । भटकते- भटकते नदी तट पर पहुँचे । पार कैसे हों? कौन पार करे? नाव दीखी नहीं । केले का बड़ा पत्ता बहता आया । नीति वाक्य याद आया-"आगमिष्यति यत्पत्रं तदस्मांस्तारयिष्यति", जो पत्ता बहता आएगा वही उद्धार भी करेगा सो पत्ते पर चढ़कर पार होने की बात सोचने लगे। डूबते-डूबते बचे । एक अधिक गहरे में उतरा दीखा, तो उसका सिर काट लिया । श्लोक में यही तो कहा गया था कि "सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्ध त्यजति पण्डित:", सर्वनाश उत्पन्न होने पर पंडित लोग आधा छोड़ देते हैं । जैसे-तैसे रास्ता पार करते, जो शेष थे, वे एक गाँव में ठहरे। ग्रामीण उन्हें अपने-अपने घर ले गए और अलग-अलग प्रकार के भोजनों से सत्कार किया । एक के घर आटे के लंबे तंतु जैसी 'सेवई', दूसरे के घर 'बड़ी पूड़ी', तीसरे के घर छेद वाले 'मालपुआ' परोसे गए । तीनों ने खाने से पूर्व यह सोचा, इनमें कोई खोट तो नहीं है । सेवई वाले को स्मरण आया-"दीर्घसूत्री विनश्यति", दीर्घसूत्री का नाश होता है । उसने खाने से इन्कार कर दिया। दूसरे ने बड़ी पूड़ी खाते समय सोचा-"अतिविस्तारविस्तीर्ण तद् भवेत्र चिरायुषम्", बहुत फैली हुई वस्तु का सेवन करने वाला जल्दी मरता है । तीसरे ने भी छेद वाले मालपुए खाने से इन्कार कर दिया, उसे वाक्य स्मरण था-"छिद्रेष्यनर्था बहुली भवन्ति", छिद्र से बहुत अनर्थ होते हैं, सो खाया उसने भी नहीं । तीनों परोसी थालियाँ छोड़कर भूखे चल दिए । दुखी होकर घर पहुँचे । लोग इन अर्थ-अनर्थ करने वाले पंडितों की मूर्खता सुनकर लोट-पोट हो गए । उनने समझाया-"शब्दार्थ समझना ही पर्याप्त नहीं, आप्त वचनों का भावार्थ भी समझना चाहिए।" शिक्षण ऐसा होना चाहिए, जो व्यवहार बुद्धि का विकास कर सके ।
कुसंगाद् बालका रक्ष्या: सेवकेषु सखिष्वपि। अध्यापकेषु चान्येषु परिचितेषु जनेष्वपि॥६१॥ योग्या: के सन्त्ययोग्या: के ध्येयमात्राभिभावकै:। सतर्कत्वप्रसंगेऽस्मिन्ननिवार्य हि मन्यताम्॥६२॥ दुष्प्रभावात् कुसंगस्य बालानां प्रकृतिस्तथा। भविष्यच्चाऽपि संयातो विकृतिं दु:खदायिनीम्॥६३॥ गृहकार्येषु बालानां रुचिं सम्पादयेन्नर:। सहयोगस्य भावं च तेषां संवर्द्धयेदपि॥६४॥ स्नेहात्किमपि कर्तुं च स्वातन्त्र्यं नैव दीयताम्। मृदुताकारणात्तेषु केवलं जायते नहि॥६५॥ शीतोष्णयो: प्रभाव: स परं सदसतोरपि। प्रभावस्तेषु क्षिप्नं स प्रभवत्यञ्जसैव तु॥६६॥
भावार्थ-कुसंग से बच्चों को बचाया जाय । सेवक, साथी, अध्यापक, परिचितों में कौन उपयुक्त कौन अनुपयुक्त है? इसका ध्यान रखना अभिभावकों का काम है । इस संदर्भ में छत सतर्कता की आवश्यकता है। कुसंग के दुष्प्रभाव से कई बार बालकों का स्वभाव एवं भविष्य ही बिगड़ जाता है जो पीछे बड़ा दुखदायी होता है। बच्चों को घर-परिवार के कामों में रस लेने ध्यान देने और हाथ बँटाने की आदत आरंभ से ही डालनी चाहिए। दुलार में कुछ भी करते रहने की छूट नहीं देना चाहिए । कोमलता के कारण बालकों पर सर्दी-गर्मी का ही अधिक असर नहीं होता, वरन् भले-बुरे प्रभाव से भी वे जल्दी प्रभावित होते हैं॥६१-६६॥
व्याख्या-बालकों, किशोरों के कोमल मन पर सभी समीपवर्ती व्यक्तियों की मनःस्थिति का प्रभाव पड़ता है । चाहे वे घर में कार्यरत सेवक हों, उनके साथी-सहचर हों, आने वाले परिचित अतिथिगण हों अथवा शिक्षण देने वाले गुरुजन । इनमें से कौन का साथ हितकर है, यह चुनाव है तो कठिन, पर अभिभावकों को यह भी करना ही चाहिए। मौसम के थोड़े से अनुकूल-प्रतिकूल परिवर्तन स्वास्थ्य पर प्रभाव डालते हैं, उसी प्रकार संपर्क संबंधी थोड़े से भी प्रभाव का उन पर दूरगामी असर पड़ता है। अच्छा-बुरा बनने की बुद्धि किशोरावस्था तक विकसित नहीं हो पाती, किन्तु उनका प्रभाव ढलाई की प्रक्रिया से गुजर रहे मस्तिष्क पर तुरंत पड़ता है । अच्छा हो, वातावरण ऐसा बने कि हर श्रेष्ठ कार्य में बच्चों की रुचि जागे एवं दैनंदिन घर गृहस्थी के कार्यो में भी रस लेकर स्वावलंबी बनाए, इस प्रयोगशाला में कुछ सीखें ।
बाह्य व आंतरिक सौंदर्य
व्यावहारिक शिक्षण द्वारा बच्चों को समझाया जाना चाहिए कि अच्छे-बुरे व्यवहार की प्रतिक्रिया क्या होती है? एक राजा की तीन बेटियाँ थीं । दो सुंदर, एक कुरूप । कुरूप को सभी प्यार करते और सुंदर होते हुए भी दो के साथ घर के लोग उपेक्षा बरतते । पिता के पास दोनों पक्षपात की शिकायत करने और कारण जानने पहुँचीं । राजा ने एक सप्ताह में उत्तर देने को कहा । तीनों लड़कियों को दूसरे दिन राजा ने बगीचे में भेजा । द्वार से प्रवेश करते ही एक भूखी बुढ़िया बैठी मिली । बड़ी राजकुमारियाँ उसे गलत जगह बैठने के लिए खरी-खोटी सुनाती हुई आगे बढ़ गई । छोटी कुरूप ने अपना भोजन उसे दे दिया, सहानुभूति प्रकट की और भारी गठरी को सिर पर उठाकर उसे उपयुक्त स्थान पर बिठा दिया । बुढ़िया पीछे क्या कहती रही, यह राजा ने लड़कियों को सुनाया और कहा-" चेहरे की सुंदरता से बढ़कर हाथों और वाणी का सौंदर्य हैं और वही सब जगह सराहा जाता और प्यार पाता है ।" दोनों लडकियों ने तन की तरह अपने मन को भी सुंदर बनाने की साधना आरंभ कर दी ।
धूर्त से सावधान
एक चालाक लोमड़ी पेड़ पर बैठे मुर्गे को पट्टी पढ़ा रही थी कि तुमने सुना नहीं पशु-पक्षियों की पंचायत हो चुकी है । कोई किसी को सताएगा नहीं । तुम निर्भयपूर्वक नीचे उतर आओ और मेरे साथ खेलो । मुर्गे उसकी धूर्तता समझ रहे थे और हाँ में हाँ मिला रहे थे। इतने में दो शिकारी कुत्ते कहीं से दौड़ते हुए आए और देखते ही लोमड़ी भागी । मुर्गे ने कहा-" भागती क्यों हो?" अब कुत्तों से डरने की क्या जरूरत हैं ?" लोमड़ी ने उत्तर दिया-"हो सकता है, तुम्हारी तरह इन कुत्तों ने भी पंचायत का समाचार न सुना हो ।" धूर्तोंकी चाल से बचना व अन्यों को बचाना चाहिए। मीठी-मीठी बातों के प्रलोभन से बचकर जहाँ तक संभव हो, अपनी विवेक बुद्धि को जगाना चाहिए ।
स्वाभिमानी तिलक
लोकमान्य तिलक जिस कॉलेज में पढ़ते थे, उसके कितने ही छात्र फैशनपरस्त थे। तिलक अकेले ही कुर्ता-पगड़ी पहनते थे । उन फैशन वाले लड़की का उनने मजाक बना बनाकर देशी पोशाक पहनने के लिए सहमत कर लिया।
कुछ लड़के आए दिन बीमार रहते थे और उनकी अलमारियों में दवाएँ भरी रहती थीं । तिलक ने वे दवाएँ उठाकर नाली में फेंक दीं और कहा-"तुम मेरे साथ अखाड़े में चला करो, फिर कोई बीमारी रह जाय, तो मेरा जिम्मा ।
जड़ बुद्धि से मेधावी
जर्मनी के जोसफ बर्नार्ड की किशोर वय इस प्रकार बीत गई, मानों वह पूरी तरह खर दिगाग हो । स्कूल में न पढ़ सका, तो अभिभावकों ने टयूशन की व्यवस्था की । उसका भी कोई प्रतिफल न निकला, तो बाप ने एक दिन खीजते हुए कहा-"तेरे जैसी बुद्धू औलाद से तो एक पिल्ला पालना अच्छा था ।" बात चुभ गई । बर्नार्ड ने उसी दिन से पूरी दिलचस्पी और मेहनत के साथ नए सिरे से पढ़ाई आरंभ कर दी । मूढ़ मगज ने धीरे-धीरे सुधरना और बदलना आरंभ कर दिया। उसने दर्जा पर दर्जा पास करना आरंभ कर दिया, सो भी अच्छे डिवीजनों में । परिवर्तन ऐसा हुआ जिसे चमत्कार की उपमा दी जाने लगी। उसने बाइबिल कंठाग्र याद कर ली । इतना ही नहीं कुछ ही वर्षों में नौ भाषाओं का मूर्धन्य विद्वान बन गया। प्रतिभा विकसित हुई। अपने सेवा कार्यों से जनता का मन जीत लिया । पार्लियामेंट का सदस्य बना। अपने विभाग के नौ-नौ अफसरों को एक साथ बिठा लेता और सभी को ही एक समय में कितने ही नोट लिखा देता । उसे जर्मनी के इतिहास में मेधा का धनी कहा जाता है, जबकि किशोरावस्था पूरी हो चुकने तक वह पूरा गधा था।
बुद्ध की अनुपम बुद्धिमत्ता
संसार के माने हुए वैज्ञानिक आइंस्टीन, बचपन में बड़े फिसड्डी थे । साथी लड़के उनका हमेशा मजाक उड़ाते थे । एक दिन अत्यंत गंभीरतापूर्वक उनने अध्यापक से पूछा-"क्या मैं किसी प्रकार सुयोग्य बन सकता हूँ?" अध्यापक ने उन्हें संक्षेप में एक ही उत्तर दिया-"दिलचस्पी और एकाग्रतापूर्वक अभ्यास यही एक गुरुमंत्र है विद्वान बनने का । "आइंस्टीन ने वह बात गिरह बाँध ली और अध्ययन के विषयों में तन्मय हो गए । परिणाम स्पष्ट है, वे संसार में अणु विज्ञान के पारंगत और सापेक्षवाद के जनक माने गए। उनकी वह पुरानी बुद्ध कहलाने वाले बुद्धि हजार गुनी होकर विकसित हुई ।
मैक्सिम गोर्की
मैक्सिम गोर्की को बचपन से ही निराश्रित रहना पड़ा । उन्हें चौकीदारी, खाना पकाना, झाड़ लगाना जैसे काम करते हुए दिन बिताने पड़े । कई बार तो वह कूड़े के ढेर में से काम की चीजे ढूँढ़कर उन्हें बेचता और अपनी बूढ़ी नानी का पेट भरता । इन परिस्थितियों में उसके लिए उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकना तो संभव न हुआ पर रही पत्रिकाएँ, पुराने अखबार, वाचनालयों के सहारे अपनी ज्ञान वृद्धि करता रहा, धीरे-धीरे लिखने का अभ्यास भी। किसी बहाने साहित्यकारों से संपर्क भी साधा और अपनी गलतियों ठीक कराता रहा। मैक्सिम कला रूस का महान साहित्यकार हुआ है। उसने अन्यायी शासन के विरुद्ध और प्रजा को अधिकारों के लिए संघर्ष करने को बहुत कुछ लिखा है । जब उसकी पुस्तकें अच्छी चलने लगीं, तो वह न्यूनतम में अपना खर्च चलाकर शेष बचत रूस की कम्मुनिष्ट पार्टी को देता रहा । उसकी कृतियाँ अभी भी बड़ी प्रेरणाप्रद हैं और बड़े चाव से पढ़ी जाती हैं ।
आत्मा की कचोट
कलकत्ता के अश्विनीकुमार दत्त बचपन से ही प्रतिभावान थे। १६ वर्ष की उम्र में मैट्रिक में बैठने का नियम था। वे १४ वर्ष के होते हुए भी दो वर्ष बड़ी उम्र लिखवाकर बैठ गए और अच्छे डिवीजन से पास हो गए । पीछे उनकी आत्मा इस झूठ के लिए बहुत कोसती रही और उपाय न देखकर वे दो वर्ष स्कूल छोड़ बैठे रहे और १६ वर्ष के होने पर इंटर में बैठे । बाल्यकाल के अपने ऐसे ही सद्गुणों के कारण वे आगे चलकर देश रत्न बने।
कनिंघम ने हिम्मत नहीं हारी
सर्दी के दिनों अँगीठी सुलगाने के प्रयास में दो छोटे बच्चों ने मिट्टी के तेल के स्थान पर पैट्रोल डाल दिया, आग भड़की। एक तो तत्काल मर गया । दूसरा महीनों अस्पताल में रहने के बाद कुरूप और अपंग हो गया । दोनों पैर लकड़ी की तरह सूख गए । पहिएदार कुर्सी के सहारे घर लौटा तो किसी को आशा न थी कि वह कभी चल-फिर भी सकेगा । पर लड़के ने हिम्मत न छोड़ी । आज की तुलना में अधिक अच्छी स्थिति प्राप्त करने के लिए वह प्रयत्न करता रहा । निराश या खिन्न होने के स्थान पर उसने प्रतिकूलता को चुनौती के रूप में लिया और उसे अनुकूलता में बदलने के लिए अपने कौशल और पौरुष को दांव पर लगाता रहा। उसने बैसाखी के सहारे न केवल चलने में, वरन् दौड़ने में सफलता पाई और पुरस्कार जीते। इस विपन्नता के बीच भी उसने पढ़ाई जारी रखी, एम०ए०, पी०एच०डी० उत्तीर्ण की और विश्वविद्यालय में निर्देशक के पद पर आसीन हुआ । द्वितीय विश्वयुद्ध में वह मोर्चे पर भी गया। जहाँ अड़ा वहीं सफल रहा । रिटायर होने पर उसने अपनी जमा पूँजी से अपंगों को स्वावलंबन देने वाला एक आश्रम खोला, जिसमें इन दिनों आठ हजार अपंगों को पढ़ने, रहने और कमाने का प्रबंध है । अमेरिका का संकल्पवान साहसी ग्रेट कनिंघम का नाम बड़ी श्रद्धापूर्वक लिया जाता है । कठिनाइयों से जूझने के लिए उसका जीवन वृत्तांत पढ़ने-सुनने का परामर्श दिया जाता है ।
खोटी कहने का साहस
अमीचंद नामक एक प्रसिद्ध व्यक्ति महर्षि दयानंद के पास गाना गाने जाया करता था । दयानंद को उस व्यक्ति से अत्यंत आत्मीयता हो चुकी थी। एक दिन समाज के सभ्य लोगों ने उसके आचरण के विषय में महर्षि से शिकायत की । महर्षि ने विस्तार से पता लगाया, सच पाया । दूसरे दिन जब अमीचंदगाना गाकर उठने ही वाला था कि महर्षि ने कहा-"प्यारे दोस्त! तुम्हारा गला तो कोयल का है, परंतु आचरण कौवे के समान है। अमीचंद को इतनी सी बात हृदय को चुभने के समान लगी । उसने संकल्प लिया कि महर्षि देव अब से मिलूँगा, तो अच्छा बनकर । दूसरे दिन से ही उसने कार्यालय में रिश्वत लेना बंद कर दिया । बहुत समय से त्यागी हुई पत्नी को पुन: बुला लिया । नशा आदि का भी सेवन करना बंद कर दिया । तब ऋषि चरणों में जाकर मस्तक झुकाया । अमीचंद की पत्नी तो ऋषि के अद्भुत कर्तृत्व पर मुग्ध थी तथा अपना नया जन्म अनुभव कर रही थी ।
सिकंदर से ज्यादा अरस्तू का महत्व
सिकंदर और अरस्तु साथ-साथ जा रहे थे। रास्ते में एक नदी मिली। अरस्तु पहले पार जाना चाहते थे, पर सिकंदर ने कहना न माना और वही पहले उतरा, बाद में अरस्तू गए । पार जाने पर अरस्तु ने कहना न मानने का कारण पूछा तो कहा-"यदि सिकंदर डूब जाता, तो अरस्तू ऐसे दस शिष्य बना सकते थे, पर अरस्तु डूब जाते तो दस सिकंदर मिल कर भी एक अरस्तु नहीं बना सकते थे ।"
बालकों के सबसे निकटवर्ती साथी उनके अध्यापक होते हैं । उनके स्तर स्वभाव पर ही बच्चों का विकास निर्भर करता है ।
स्थितप्रज्ञ गंगाघर शास्त्री
मिथिला के पंडित गंगाधर शास्त्री एक विद्यालय में पढ़ाते थे । उनका लड़का गोविंद भी उसी मेंपढ़ता था । गोविंद भी पिता की तरह बड़ा शिष्ट और अनुशासनप्रिय था । सहपाठी उसे बहुत स्नेह और सम्मान देते थे । एक दिन शास्त्री जी के साथ गोविंद विद्यालय नहीं पहुँचा । स्कूल बंद करके जब वे चलने लगे, तो विद्यार्थियों ने पूछा-"गोविंद आज क्यों नहीं आया?" शास्त्री जी ने भारी मन से कहा-"गोविंद को अचानक दौरा पड़ा और वह वहाँ चला गया, जहाँ से फिर कोई नहीं लौटता ।" विद्यार्थी स्तब्धरह गए । साथी के निधन का भारी दुख हुआ। साथ ही इस बात का आश्चार्य भी कि ऐसी दुर्घटना होने पर भी शास्त्री जी पढ़ाने कैसे आ सके और बिना माथे पर शिकन लाए किस प्रकार रोज जैसी कक्षा चलाते रहे । अपना असमंजस लड़कों ने शास्त्री जी के सामने व्यक्त भी किया। पंडित जी ने उत्तर दिया-" बच्चो! पिता के हृदय से गुरु का कर्तव्यबड़ा होता है ।"
ऐसे आदर्श संवेदनशील हृदय वाले गुरुजन ही श्रेष्ठ नागरिका समाज को दे सकते हैं।