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Books - प्रज्ञा पुराण भाग-3

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अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-1

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धर्मकृत्येषु वृद्धानां रुचि: स्वाभाविकी मता । कुम्भपर्वसमेष्वेते समायान्त्यधिका अपि॥१॥ प्रयान्त्यपि च सत्रेषु ते विचार्यातिखिन्नताम्। अधिगच्छन्ति किं कार्यमस्माभिरिहि संगतै:॥२॥ जराजीर्णतया नैव केचनाऽपि तु हस्तगा: । अधिकारा: कुटुम्बस्य वयस्काधिगतास्तु ते॥३॥ उपेक्षितातिथेस्तत्र स्थितिं प्राप्ता इवाद्य तु । निर्वाहसुविधामात्रं कथञ्चित्प्राप्नुवन्त्विह॥४॥ यापयन्ति च शून्यास्ते स्थिता: कालं निरन्तरम् । इति स्थितौ गृहस्थस्य भूमिकां कां वहन्तु ते॥५॥  नेदं तेषां मतौ सम्यक् स्थिरतां श्रयति स्म तु । अनुभवन्ति समे यत्र निराशां ते निरन्तरम्॥६॥

भावार्थ-धर्मकृत्यों में वृद्धजनों की स्वाभाविक अभिरुदि रहती है ।वे कुंभ पर्व जैसे आयोजन में परलोक साधना की दृष्टि से पहुँचते भी अधिक संख्या में हैं। वे इन सत्रों में पहुँचते तो थे, पर यह सोचकर खिन्न होते थे कि वे करें क्या? जराजीर्ण होने के कारण उनके हाथ में घर-परिवार के कुछ अधिकार भी नहीं रहे, उसे वयस्कों ने सँभाल लिए । वे तो एक उपेक्षित अतिथि के रूप में उस परिकर में रहकर किसी प्रकार निर्वाह की सुविधा भर प्राप्त करते हैं । बैठे-ठाले समय गुजारते हैं । ऐसी दशा में वे गृहस्थ धर्म पालन करने की दृष्टि से क्या भूमिका संपन्न कर सकते है, यह उनकी में समझ नहीं आ रहा था और निराशा जैसी अनुभव कर रहे थे ॥१-६॥
व्याख्या-वार्धक्ये, जीवन की एक ऐसी स्थिति है, जब व्यक्ति सारा जीवन परिश्रम करने के बाद, सहसा अपने आप को एकाकी, दूसरों पर अवलंबित एवं शरीर बल से क्षीण होने के कारण असमर्थ पाने लगता है । वस्तुस्थिति ऐसी है नहीं । यह तो जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव है । इस आयु में धार्मिक अभिरुचि होना स्वाभाविक है । व्यक्ति अपना परलोक सुधारने की बात सोचता है । विभिन्न प्रकार के धार्मिक कर्मकांडों में स्वयं को व्यस्त रखने का प्रयास करता है । किन्तु प्रगतिशील दिशा न मिलने के कारण ऐसे प्रयास बाह्योपचार तक सीमित रह जाते हैं । एक सही मार्ग मिलने की आशा उनमें नए प्राण फूँक देती है । गृहरथ जीवन संबंधी प्रस्तुत प्रकरण में इन वृद्धजनों का अपनी भूमिका तलाशना एवं उपेक्षा की स्थिति से निकल कर सम्मानास्पद कार्य कर सकने की संभावनाओं के प्रति जिज्ञासा का होना स्वाभाविक ही है।
हृदग्तज्ञ: समेषां स महर्षिधौंम्य उद्गतान् । वर्गस्यास्य जनानां तु मनोभावान् समध्यगात्॥७॥  निश्चिचाय ततस्तेषां कर्तुं स मार्गदर्शनम् । धौम्य उवाच- गृहस्थे वृद्धव्यक्तीनामपि स्थानं महत्वगम्॥८॥ वर्तते सञ्चितैस्तेऽपि स्वीयैरनुभवैरलम् । लाभं बहुभ्यो दातुं तु शक्ता अल्पबला अपि॥९॥  परिष्कृताऽथ पक्वा च स्थितिस्तेषां तु मानसी। अपेक्षया परेषां हि गृहस्थानां नृणामिह॥१०॥ लाभमस्य कुटुम्बं तत्प्राप्नुयान्नेव केवलम् । क्षेत्रं सम्पूर्णमेवाऽपि संसारश्चाप्नुयात्सम:॥११॥ वाञ्छेयुर्यदि ते तर्हि नवेन विधिना नवम्। जीवनं प्राप्तुमर्हन्ति तथा कार्यक्रमं नवम्॥१२॥ स्वीकृत्यान्य नवे क्षेत्रे प्रवेष्टुं शक्नुवन्त्यपि । इत्थं च समयस्तेषां सञ्चितोऽनुभवस्तथा॥१३॥ यूनामपेक्षया नूनमधिकं सेत्स्यतो ध्रुवम् । लोकोपयोगिनौ भद्रा अत्र नास्त्येव संशय:॥१४॥ आत्मलाभदृष्ट्या च समयोष्यं तु विद्यते । भाग्योदयस्य कर्तेव सुयोग्यो योग उच्चताम्॥१५॥
भावार्थ- सबके मन की बात जानने वाले महर्षि धौम्य ने इस वर्ग के लोगों के मनोभाव को जाना और उनका मार्गदर्शन करने का निश्चय किया।
महर्षि धौम्य बोले-गृहस्थ में वयोवृद्धों का भी महत्वपूर्ण स्थान है। वे अपने संचित अनुभवों से बहुतों को लाभ दे सकते है। शारीरिक क्षमता घट जाने पर भी, उनकी मानसिक स्थिति अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत-परिकक्व होती है। इसका लाभ उस परिवार को ही नहीं, समस्त क्षेत्र एवं संसार को मिलना चाहिए। वे चाहें, तो नए सिरे से नया जीवन जी सकते हैं, नया कार्यक्रम अपना सकते है, नए क्षेत्र में प्रवेश कर सकते है। हे भद्रजनों! इस प्रकार उनका बचने वाला समय और संचित अनुभव तरुणों की अपेक्षा और भी अधिक लोकोपयोगी सिद्ध हो सकता है। आत्मालाभ की दृष्टि से वह समय उनके लिए भग्योदय जैसा सुयोग है-ऐसा कहा जा सकता है॥७-१५॥
व्याख्या-कक्षा प्रसंग में उपस्थित् वृद्धवर्ग की मनःस्थिति के अनुरूप ही प्रतिपादन आरंभ करते हुए, महर्षि धौम्य गृहस्थ जीवन में उनकी गरिमा एवं महत्ता को जन सामान्य को समझाने हेतु आतुर प्रतीत होते हैं। वृद्धावस्था में कृशकाय-असमर्थ होने के कारण परावलंबी एवं निरुपयोगी होने की हीन भावना को मन से निकाल बाहर फेंकने एवं क्रियाशील बने रहने, चलते रहने और आत्म कल्याण की विकास-यात्रा में आगे बढ़ते रहने के लिए ऋषिवर उन्हें प्रोत्साहित करते तथा उनकी प्रसुप्त क्षमताओं का उन्हें बोध कराते हैं। वृद्धावस्था उन घेरने का अर्थ यह नहीं होता कि मनुष्य निरुत्साहित होकर हाथ पर हाथ रखे मृत्यु का इंतजार करे। जीवन एक महान यात्रा है, जिसकी सुघड़ता सदैव चलते रहने में है । जब तक हम चलते रहते हैं, तब तक हमारी शक्तियों का उपयोग होता रहता है । जहाँ रुके, वहीं मौत है, वहीं जड़ता है । चलना, उन्नत होना और आगे बढ़ना जीवंत होने का प्रतीक है । वेद भगवान कहते हैं-"आरोहणमाक्रमणं जीवतो जीवतौऽनम् ।"
अर्थात, जीवन के लिए सबसे आवश्यक बात यह है कि उसे रुकना नहीं चाहिए। उन्नत होना और आगे बढ़ना जीवन का स्वाभाविक धर्म है।
चलते रहना, क्रियाशील बने रहना, सृष्टि का सनातन नियम है । समस्त प्राणिवर्ग एवं प्रकृति के घटक में यह स्पंदन मुखरित हो रहा है। नदियाँ अपने अल्प और सीमित स्वरूप से उस अनंत विराट् सागर की और दौडी जा रही हैं। ऊँचे-ऊँचे पहाड़ अपनी उतुंग चोटियों को फैलाए उस सर्वव्यापी सत्ता की ओर देख रहे हैं, मानो उन्हें अपना स्वरूप अल्प-सीमित जान पड़ रहा है। जान पड़ता है वे भी उतने ही विराट्, अनंत, महान बजने की चिर प्रतीशा में खड़े हैं । बीज अपने क्षुद्र और साधारण स्वरूप से संतुष्ट नहीं होता औरर वह अपने आवरण को तोड़, फूट निकलता है, महत् की ओर उसकी यात्रा जारी रहती है और वह विशाल वृक्ष बन जाता है । फिर भी उसकी विपुल, महत् बनने की साध सकती नहीं और वह सुंदर फूलों से खिल उठता है, मधुर फलों में परिणत होता हुआ, अपनी सत्ता को असंख्यों बीजों में परिणत कर देता है । उधर देखिए, उस पक्षी शावक को, उसे नीड़ या संकीर्ण आवरण तुच्छ जान पड़ता है। वह अपने पंखों से फुरफुरी भर रहा है । नीड़ के दरवाजे से अखिल विश्व भवन की ओर देख रहा है, जिसकी अनंत गोद में वह किलोल करना चाहता है और देखो, निकल पड़ा, वह सीमित अल्प आवरण को त्यागकर अनंत महत की ओर ।
अल्प से महत् की ओर अग्रसर होने की यह क्रिया सर्वत्र हों रही है। फिर चेतन और ईश्वर का वरिष्ठ राजकुमार कहलाने वाला मनुष्य ही बार्धक्यता को जीवन यात्रा में बाधक मानकर अपनी प्रगति यात्रा क्यों बंद कर दे? नहीं, उसे जीवन को एक संग्राम मानकर मोर्चे पर खड़े एक कर्तव्यनिष्ठ और कर्मठ सिपाही की भाँति संघर्ष करना और बढ़ते ही जाना है। इसीलिए, ऐतरेय ब्राह्यण में कहा गया है-"नाऽनाश्रान्ताय श्रीरस्ति.... पापो नृषद्वरो जन इन्द्र इच्चरत: सखा। चरैवेति चरैवेति।"
अर्थात, जो चलता है उसकी जंघाएँ पुष्ट बनी रहती हैं। फल प्राप्ति तक उद्योग करने वाला व्यक्ति पुरुषार्थी होता है। प्रयत्नशील पुरुष के पाप-ताप, भव-बंधन मार्ग में ही नष्ट हो जाते हैं। इसलिए चलते रहो, चलते रहो ।
वृद्धावस्था में व्यक्ति के पास जीवन भर के अनुभवों की थाती जो अपने पास होती है। अनेक प्रसंगों के माध्यम से उन्होंने जीवन रूपी प्रयोगशाला में इतना कुछ सीखा-समझा होता है, कि उस मार्गदर्शन से वे सारे समुदाय को लाभ दे सकते हैं। एक बार सक्रिय उपार्जन प्रधान जीवन समाप्त होने पर आयुष्य के इस मोड़ पर वे अपने जीवन को एक नई दिशा देकर, लोक सेवी का व्रत अपनाकर सारे परिकर को, समाज को, प्रभावित कर सकने की दासता रखते हैं ।
वयोवृद्ध महापुरुष, जो सतत क्रिया-शील रहे
इस संदर्भ में पश्चिम एवं भारत के कुछ महापुरुष उल्लेखनीय हैं, जिनकी रचनात्मक शक्ति का ह्रास उनकी ढलती उम्र के कारण कतई नहीं हुआ था। जिन्होंने अपने बुढ़ापे में बडे महत्वपूर्ण एवं उपयोगी काम करके मानवता की अभूतपूर्व सेवा की। इनमें कुछ के नाम हैं-महान दार्शनिक संत सुकरात, प्लेटो, पाइथागोरस, होमर, आगस्टस, खगोल शास्त्री गेलीलियो, प्रसिद्ध कवि हेनरी वर्ड्सवर्थ, वैज्ञानिक थामस अल्या एडीसन, लेखक निकोलस, कोपरनिकस, विख्यात वैज्ञानिक न्यूटन, सिसरो, अलबर्ट आइन्सीन, टेनीसन, बेंजामिन ग्रंकलिन, महात्मा टाँलस्टाय, महात्मा गांधी तथा जवाहर लाल नेहरू । महात्मा सुकरात सत्तर वर्ष की उम्र में अपनें अत्यंत महत्वपूर्ण तत्वदर्शन की विशद व्याख्या करने में जुटे हुए थे। वे अपनी अस्सी वर्ष की आयु तक बराबर कठोर परिश्रम करते रहे। इक्यासी वर्ष की अवस्था में हाथ में कलम पकड़े हुए उन्होंने मृत्यु का आलिंगन किया।
सिसरो ने अपनी मृत्यु के एक वर्ष पूर्व तिरेसठ वर्ष की आयु में अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक 'ट्रीटीज ऑन ओल्ड एज' की रचना की। कीरो ने अस्सी साल की उम्र में ग्रीक भाषा सीखी । कवि गोथे ने अपने जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि के रूप में अपनी महान रचना फास्ट के लिखने का कार्य तिरासी वर्ष की उम्र में मृत्यु के कुछ समय पहले ही पूरा किया था । अलबर्ट आइंस्टीन की तरह ही जो कि अंतिम दिन तक बराबर काम करते रहे, सेमुअल मोर्स ने टेलीग्राफ आविष्कार की अपनी प्रसिद्धि के बाद भी अपने को व्यस्त रखने के लिए अनेक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक अनुसंधान कार्यों में लगाए रखा । बर्नार्ड शा अपनी अंतिम बीमारी तक लेखक के रूप में बहुत सक्रिय बने रहे । महात्मा टाँलस्टाय अस्सी वर्ष की अवस्था के बाद भी इतनी चुस्ती, गहराई और प्रभावशील ढंग से लिखते रहे कि उसकी बराबरी आधुनिक यूरोप के किसी लेखक द्वारा नहीं हो सकती। ह्विटर ह्यगो तिरासी वर्ष की अवस्था में अपनी मृत्यु तक बराबर लिखते रहे। वृद्धावस्था उनकी अद्भुत शक्ति तथा ताजगी में काँई फर्क नहीं कर सकी ।
टेनीसन ने अस्सी वर्ष की परिपक्व अवस्था में अपनी सुंदर रचना 'क्रासिंग दी वार' दुनिया को प्रदान की । राबर्ट ब्राउनिंग अपने जीवन के संध्याकाल में बहुत सक्रयि बने रहे। उन्होंने सत्तर साल की उम्र में मृत्यु के कुछ पहले ही दो सर्व सुंदर कविताएँ 'रेवेरी' और 'एपीलाग टु आसलेंडो' लिखीं । एच० जी० वेल्स ने सत्तर वर्ष की अपनी वर्षगांठ के उपरांत भी पूरे चुस्त और कर्मठ रहते हुए एक दर्जन से ऊपर पुस्तकों की रचना की ।
राजनीति के क्षेत्र में विन्सटन चर्चिल, बेंजामिन फ्रेंकलिन, डिजराइली, ग्लेडस्टोन आदि ऐतिहासिक पुरुष अपनी वृद्धावस्था की चुनौतियों के बावजूद बहुत सक्रिय बने हुए अपने देश की अमूल्य सेवा में अनवरत रूप से लगे रहे । अभी हाल के इतिहास में महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू ऐसे महान पुरुष भारतवर्ष में हो गए हैं, जो अपनी वृद्धावस्था में, अंतिम समय तक देश और पीड़ित मानवता की अटूट सेवा पूरी चुस्ती एवं शक्ति के साथ बराबर करते रहे। ढलती उम्र की विशिष्ट उपलब्धियों एवं रचनात्मक कार्यों का श्रेय केवल पुरुषों तक ही सीमित नहीं है । महिलाओं का भी इसमें अपना पूरा हक है। महारानी विक्टोरिया ने अपनी बहुत बड़ी जिम्मेदारियों को बयासी वर्ष की अवस्था तक कुशलता के साथ निभाया। मेरी समरन्हिले ने बयासी साल की आयु में परमाणु विज्ञान तथा अणुवीक्षण यंत्र संबंधी अपनी उपयोगी एवं बहुमूल्य रचनाएँ प्रकाशित कीं। मिसेज लूक्रोरिया मार सत्तासी वर्ष की उम्र तक महिलाओं को ऊपर उठाने तथा विश्व शांति के लिए अथक रूप से निस्वार्थ सेवा कार्यों में जुटी रहीं ।
भारतवर्ष में श्रीमती सरोजिनी नायडू एवं मिसेज एनी बेसेंट ने अपनी वृद्धावस्था तक देश तथा मानवता की अमूल्य सेवाएँ कीं, जो कि चिरस्मरणीय रहेंगी ।
इस तरह के सैकड़ों अन्य उदाहरण दुनिया के इतिहास से दिए जा सकते हैं, जिनसे यह विचार बिल्कुल ही खोखला एवं तथ्यहीन साबित होता है कि उनसठ-साठ वर्ष की आयु तक में जीवन के काम समाप्त हो जाते हैं और उसके बाद के समय में व्यक्ति अपने तथा समाज के हित में कोई उपयोगी एवं महत्वपूर्ण काम करने के लिए सक्षम नहीं होता । पेरिस की ८० वर्षीय महिला सान्द्रेवच्की सारवोन विश्वविद्यालय की विशिष्ट छात्रा थीं। उन्होंने ६० वर्ष पूर्व छोड़ी हुई अपनी कक्षा की पढाई फिर आरंभ की। इस महिला के तीन पुत्र और सात नाती, नातिनी और एक परनाती था । इस प्रकार वह परदादी बन गई थीं, तो भी उसने जर्मन और अंग्रेजी भाषा पढ़ने के लिए उत्साह प्रदर्शित किया और विश्वविद्यालय में भरती हो गईं। प्राचार्य को उसने भरती का कारण बताते हुए कहा-"लंबे जीवन के अनुभवों के आधार पर मैं इस नतीजे पर पहुँची हूँ किं आदमी की मशीन लगातार चलते रहने पर ही काम करने लायक रह सकती है । उपयोगी काम में लगे रहने पर ही सामान्य स्वास्थ्य को स्थिर रखा जा सकता है । अध्ययन से मेरा मस्तिष्क और शरीर दोनों ही निरोग एवं उत्साह की स्थिति में रह सकेंगे । बडी उम्र हो जाने पर भी मनुष्य के अरमान यदि मरे न हों, तो वह बहुत कुछ कर गुजर सकता है।" डारलिंगटन आइजक ब्रुक ७४ साल की उम्र में फौज में भरती हुआ और कई लड़ाइयाँ लड़ने पर भी सकुशल बचा रहा । अंतत: वह ११२ वर्ष की उम्र में मरा।
हर पर सीखने को उद्यत
कलकत्ता से पूना जाते हुए रेल में महादेव गोविंद रानाडे ने बँगला अखबार खरीदा। इस पर उनकी पत्नी ने आश्चर्य प्रकट करते हुए-"आप तो बँगला जानते ही नहीं, फिर यह अखबार क्यों खरीदा?" रानाडे ने कहा-"दो दिन के सफर में उसे असानी से सीख लिया जाएगा।" पूरे मनोयोगपूर्वक उन्होंने बँगला लिपि और उसके शब्द गठन पर ध्यान दिया और पूना पहुँच कर उनने अपनी परीक्षा देते हुए पत्नी को पूरा अखबार पढ़कर सुना दिया। ऐसी थी इस ६० वर्षीय युवा की मनोयोग साधना। आयु से क्या होता है, मुख्य तो है सीखने-नया जानने की जिज्ञासा आयु के अंतिम क्षण तक ।
गरजने से नहीं, तड़कने से
व्यक्ति अपने अनुभवों से सीखता है व दूसरों के लिए दिशा छोड़ जाता है। वर्षा में भागते हुए एक आदमी की मृत्यु हो गई, गाँव के लोगों ने अनुमान लगाया कि वह बादल के गरजने की आवाज सुनकर मरा है। विद्वान कार्लाइल को बचपन की यह घटना बड़े होने पर भी याद रही। तब उनने जाना कि लोग गरजने की आवाज सुनकर नहीं, वरन् बिजली गिरने से मरते हैं। इस दर्शनिक ने लिखा है कि समझदारी आते ही मैंने गरजना बंद कर दिया और चमकने का रास्ता खोजने लगा, क्योंकि कारगर गरजना नहीं, तड़कना होता है।
वृद्धों में प्रसन्नता भरने वाले-लिटिल ब्रदर्स
यूरोप के वृद्धों का जीवन भारत से भी अधिक कष्टप्रद और नीरस बीतता है। अकेले फ्रांस में इन दिनों एक लाख से अधिक लोग थे, जिनके लिए मृत्यु ही श्रेयस्कर समझी जाती थी। इस उपेक्षित समुदाय में उत्साह भरने के लिए पेरिस में एक संस्था का गठन किया गया, नाम था 'लिटिल ब्रदर्स'। एक संपन्न भूमिपति ने इसके लिए अपनी विशाल भूमि भी दे दी । 'लिटिल ब्रदर्स' में दस से अधिक आयु के बच्चे भरती किए जाते थे-जो सप्ताह में एक दिन इन बुड़्ढो के साथ रहते, खेलते, उनके अनुभव सुनते, उनके नीरस जीवन में सरसता भरते, उनके काम-काज में हाथ बँटाते और उनके अनुभवों से लाभ उठाते ।
वृद्धों की निरर्थकता को सार्थकता में, नीरसता को प्रसन्नता में बदलने के लिए लिटिल ब्रदर्स ने अपने सदस्यों को भी सेवा का लाभ दिया और वृद्धों की खीज को प्रसन्नता में बदला।
परिस्थितियों से लड़ने वाले वयोवृद्ध-सात वलेकर
दक्षिण (हैदराबाद) में जन्मे पंडित सातवलेकर ड़ाइंग मास्टर से रिटायर हुए। यहाँ से नया जीवन आरंभ किया। वे संस्कृत पढ़ने और वेदभाष्य करने में जुट गए। प्रांतीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहकर स्वतंत्रता आंदोलन भी चलाते रहे। निजाम ने जब उन्हें अपने यहाँ से वेदों का भाष्य प्रकाशित न करने दिया, तो उनने सूरत जिले के किला पारडी नामक स्थान में रहकर वह कार्य आरंभ किया । हिंदी, मराठी और गुजराती में वैदिक धर्म पत्रिकाएं चलाईं। संस्कृत का सुबोध पाठ्यक्रम तैयार किया। भारत सरकार ने उन्हें पद्यभूषण उपाधि से विभूषित किया । वे १०२ वर्षो तक जिए । यह उनके संयमी और नियमित जीवन का प्रतिफल था । मरणोपरांत उनकी स्मृति में डाक टिकट भी चले ।
जटायु का साहस
रावण द्वारा सीताहरण किए जाने की घटना देखकर वयोवृद्ध जटायु से न रहा गया। उसने रावण को रोका और युद्ध किया । यद्यपि इस संघर्ष में वह मारा गया, पर उसका यह बलिदान असंख्यों के लिए अनुकरणीय उदाहरण बना, जो विजय की तुलना में कम महत्वपूर्ण नहीं था ।
वृद्ध का परामर्श काम आया
मात्र सामर्थ्य ही सब कुछ नहीं, अनुभव सबसे महत्वपूर्ण विभूति है। व्यावहारिक जीवन में, दैनंदिन प्रसंगों में तो अनुभव ही काम आते हैं। घटा जोरों से घिर रही थी । बादल गरजते और बिजली बेतरह कड़कती । जंगल के चरवाहे अपने जानवरों को एक घने पेड़ के नीचे इकट्ठे करके खड़े थे। उनमें से एक डरपोक लड़के ने कहा-"बादलों से भरा हुआ इतना पानी यहीं बरसा, तो हम सबको डुबो देगा। बिजली कड़क के अपने क्षेत्र में गिरी, तो हममें से बचने वाला कोई नहीं है ।" वह डर से काँपने लगा और बचाव का कोई साधन न देखकर रुँआसा हो आया । बड़ा चरवाहा समझदार था। उसने कहा-"जो गरजते हैं, वे बरसते नहीं। बादल की सघनता को ही मत देखो। पछोंहा हवा चल रही है, इन्हें उड़ाकर कहीं से कहीं पहुँचा देगी । हम सब पहले की तरह अपने जानवर चराएंगे और कुशलपूर्वक घर पहुँचेंगे ।"
ताकत नहीं, सूझबूझ बडी है
एक घना जंगल था । उसमें कई शूकर परिवार थे । आक्रमणकारी सिंह एक ही था । वह जब चाहता, हमला करता और किसी भी मोटे या दुर्बल शूकर को चट कर जाता । झुंड के अन्य सदस्य घबडाकर, सिर पर पैर रख कर इधर-उधर भागते । एक दिन बूढ़े शूकर ने स्वजाति के सभी परिवारों को एकत्रित किया और कहा-"मरना है, तो बहादुरी से क्यों न मरें? रहना है, तो मिल-जुल कर क्यों न रहें?" बात सभी को अच्छी लगी और वे उसके कहने पर चलने को तैयार हो गए । दूसरे दिन तगड़े शूकरों का एक दल गठित किया गया और योजना बनी कि आक्रमण की प्रतीक्षा न करके शेर की माँद पर चलें और वहाँ उस पर हल्ला बोल दिया जाय । नई योजना, नई हिम्मत और नई आशा से तगड़े शूकरों के हौसले बढ़ गए । सो वे बहादुरी के साथ चले और माँद में सोए शेर पर बिजली की तरह टूट पड़े।
शेर को ऐसी मुसीबत का सामना इससे पहले कभी भी नहीं करना पड़ा था। वह घबड़ा गया और जान बचाकर इतनी तेजी से भागा कि यह देख तक न सका कि हमला करने वाले कौन और कितने हैं? भयाक्रांत शेर ने उस जंगल में भूतों का निवास सोचा और फिर कभी उधर न लौटने का निश्चय करते हुए दूरस्थ वन में अपना डेरा डाल दिया । शूकरों के परिवार निश्चितंतापूर्वक रहने और वन विहार का आनंद लेने लगे । उस क्षेत्र में रहने वाले शृगाल ने रात को अपने बच्चों को मनोरंजन करते हुए, शूकरों द्वारा सिंह पर किए गए आक्रमण की कथा सुनाई और कहा-"बड़ी ताकत नहीं, सूझबूझ है, जिसे अपनाकर शूकरों को श्रेय मिला । जिसके अभाव में सिंह को अपना राज्य अकारण ही छोडना पड़ा ।"
डगमगाने से खडा होना अच्छा
एकाएक सक्रियता से निवृत्ति मिलने पर हड़बड़ाने की आवश्यकता नहीं। आगे का मार्ग धैर्यपूर्वक निकाला जा सकता है। एक थका व्यक्ति पहाड़ी के नीचे चुपचाप खड़ा था। भेड़ चराने वाले लड़के अनुमान लगाने लगे कि वह किसी मसहलत से खड़ा होगा। एक बोला- "उसका पालतू जानवर खो गया है, सो खोजने की नजर दौड़ा रहा है ।" दूसरा बोला-"साथी पीछे छूट गया है, सो इंतजार में है।" तीसरे ने कहा-"इधर से ले चलने योग्य कोई सौगात ले जाने के फेर में है ।" असली वजह जानने के लिए तीनों उस खड़े व्यक्ति के पास पहुँचे। उसने दार्शनिकों जैसी मुद्रा में कहा-"जब चलने की शक्ति न रहे और बैठने योग्य स्थान न दीखे, तो डगमगाने-गड़बड़ाने की अपेक्षा यही अच्छा है कि किसी जगह शांत चित्त से उपाय सूझने तक चुपचाप खड़ा रहे ।"
सतत स्वाध्यायशील राल्ड शुज
फ्रांस के एक विद्या व्यसनी हैं-राल्ड शुज । उन्होंने नौकरी करते और गृहस्थ का पालन करते हुए भी २०० भाषाओं का अच्छा अभ्यास कर लिया । विभिन्न भाषाओं में उनने कितनी ही पुस्तकों का अनुवाद किया है । उन्हें हर समय अध्ययन में ही लगा देखा जाता है। नौकरी से रिटायर होने पर उनने कहा-"अब मुझे पूरा समय पढ़ने को मिलेगा। जीवन की अंतिम घड़ी तक उनने अधिक से अधिक भाषाएं पढ़ने का अपना विद्या-व्यसन जारी रखने का संकल्प लिया लगन और सफलता के वे सारे संसार में अकेले ही व्यक्ति हैं।
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