Books - प्रज्ञा पुराण भाग-3
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Language: HINDI
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अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-6
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परिवर्तनशीलास्तु रीतय: सर्वदैव ता: । नवे युगे नवेनैव विधिना निर्वहेज्जन:॥७७॥ जीवनम् स्वं समैरत्र देया स्वीकृतिरञ्जसा । अनीतिगानां कार्याणां विरोध: कार्य एव च॥७८॥ बाह्यानि तानि कार्याणि गृहस्थान्यपि वा पुन:। प्रेम्णैव व्यवहर्तव्यं सेव्या: सर्वे यथोचितम्॥७९॥ मोहोऽनाश्वयक: कार्य: परेषु वाऽपि न । आहारस्य च मात्रां तां वार्द्धक्येऽल्पां समाश्रयेत्॥८०॥ सुपाच्यानि च वस्तूनि सात्विकानि सदैव हि। ग्राह्याणि हृदयं नित्यं प्रसन्नं तुलितं भवेत्॥८१॥ क्षोभं नैव व्रजेत्तत्र येषु केषु विशिष्वपि न्यूनत्वमधिकारे तु कर्तव्ये विस्तरो भवेत्॥८२॥ सन्मार्गे गन्तुमेवात्र प्रेरणां सन्ततं शुभाम्। सर्वेभ्यस्तु जनेभ्योऽत्र निर्विशेषं प्रदीयताम्॥८३॥ भेंद सवस्य परस्यात्र न कुर्यु: स्युश्च साधना। स्वाध्याय: संयम: सेवा वानप्रस्थेऽच्छमद्भुतम्॥८४॥
भावार्थ-प्रथाएँ परिवर्तनशील हैं । नई पीढ़ी को अपने ढंग से गुजर करने की छूट देनी चाहिए । असहयोग और विरोध, अनैतिक कार्यों का करना ही चाहिए । भले ही कोई बाहर का हो या घर का । प्रेम सबसे करें । सेवा यथोचित रीति से सभी की करें पर अनावश्यक मोह अपने-पराए किसी के प्रति भी नहीं होना चाहिए । वृद्धावस्था में आहार की मात्रा घटा दें। सुपाव्य सात्विक वस्तुएँ ही ग्रहण करें । मन को प्रसन्न एवं संतुलित रखें । जिस-तिस बात पर खीजें नहीं कर्तव्य क्षेत्र का विस्तार करें और अधिकार को समेटे। सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा सभी को समान रूप से देते रहें। इसमें अपने-पराए का अंतर न करें। साधना स्वाध्याय संयम और सेवा का कार्य वानप्रस्थ मनःस्थिति में ही भली प्रकार बन पड़ते हैं ॥७७-८४॥
व्याख्या-वृद्धों की पुरानी लीक से नहीं बंधे रहना चाहिए। समय के साथ चलना सीखना चाहिए । दो पीढ़ियों में जो आयु का अंतर है, वह विचारों-मान्यतायों का अंतर न बन जाए, इसका सदा ध्यान रहे । यदि युवक अपनी राह चलना चाहते हैं, तो उन्हें सही दिशा तो देनी चाहिए, किन्तु उनके मार्ग में अपनी दुराग्रही मान्यतायों के रोड़े नहीं अटकाने चाहिए । उनकी भावनाओं का सम्मान हो । घर वालों के प्रति स्नेह स्वाभाविक है, पर यह एक सीमा तक ही उचित है । अतिशय मोह तो पुत्रेषणा-वित्तेषणा का रूप लेकर नारकीय गर्त में ले जाता है । सभी अपने हैं यह मानकर सबको सत्परामर्श दें । मन सदैव शांत हो । किसी के कहे पर अनावश्यक मन मुटाव बढ़ाना ठीक नहीं। गरिमा इसी में है कि अपना बड़प्पन बनाए रखा जाय । श्रेष्ठ कार्य करने को तो सारा जीवन ह्रै किन्तु वानप्रस्थाश्रम हर दृष्टि रो साधना के लिए उचित समय है ।
सबसे स्नेह करो
बालकों से स्नेह तो किया जाय, पर वह मोह की पराकाष्ठा पर न पहुँचे। वह तो फिर अहितकर बन जाता है। अनिंद्य सुंदरी उब्बरी राजमहिषी बनी । उनके रूप-सौंदर्य और गुण-स्वभाव की भी ख्याति थी । कुछ समय उपरांत उब्बरी ने एक कन्या को जन्म दिया, अपनी ही जैसी चंद्रमुखी उसकी कन्या की किलकारियों ने राजमहल की शोभा-सुषमा में चार चाँद लगा दिए । भाग्य विधान पलटा । कन्या का देहावसान हो गया। माता पर वशुपात हुआ । वह विक्षिप्त जैसी हो गई । जिस श्मशान में बालिका की अंत्येष्टि हुई थी, वह उसी में जा पहुँची और विलाप से आकाश हिला देती। दर्शकों की आँखों से आँसू ढुलकने लगते। उब्बरी इस शोक-संताप में सूख-सूख कर काँटा हो गई । किसी के प्रबोधन का उस पर प्रभाव हो नहीं रहा था ।
एक दिन तथागत उस राह गुजरे । रुदन सुनकर ठिठक गए । विवरण जाना तो, क्रंदन करती युवती के पास जा पहुंचे । उब्बरी ने सिर उठाकर देखा और अनुग्रह की याचना करने लगी । बुद्ध ने कहा-"देवि । इसी श्मशान में सहस्त्रों के मृत शरीर भस्मीभूत हुए है। उनके परिजन यदि ऐसा ही क्रंदन करते, तो इस संसार में शोक के अतिरिक्त और कुछ बचा रहता क्या? विवेक की आँखें खोलो और इस मरणधर्मा शरीर की अंतिम गति पर विचार करो। जो चले गए, उन्हें जाने दो । अपनी आत्मा का विचार करो, जो पुत्री से भी अधिक प्रिय होनी चाहिए । ऐसा न हो कि तुम पुत्री की तरह आत्मा को भी गवाँ बैठो ।" उब्बरी तथागत का एक-एक शब्द हृदयंगम करती गई। उसने अंतरात्मा को पहचाना और मृत का दामन छोड़कर उस जीवंत का परिपालन आरंभ कर दिया । कुछ दिन उपरांत उब्बरी महिला बौद्ध विहार की अधिष्ठात्री बनीं, सीमित मोह का व्यापक प्रेम के रूप में परिवर्तन जो हुआ था।
पुत्र को ज्ञान के लिए दान
वाजिश्रवा ने अपने पुत्र नचिकेता को उसकी इच्छानुसार यमाचार्य के लिए दान कर पुत्र को ज्ञान दिया । वह ब्रह्मविद्या प्राप्त करना चाहता था । अत: वे उसके मार्ग में बाधक नहीं बने । मोह ने उन्हें विचलित नहीं किया। यम ने बार बार समझाया पराक्रम से वैभव पाया जा सकता है । तुम साधना करो और सिद्धियाँ लेकर प्रसन्नता भरे दिन बिताओ । ब्रह्मविद्या तो छुरे की धार है, उसे पाने के लिए अपने मनोरथों से लड़ना पड़ता है और सोने की तरह अपने को तपाना पड़ता है, वह तुम कैसे कर सकोगे? नचिकेता का आग्रह नहीं, संकल्प था । उसे हर कीमत पर उपलब्ध करने का प्रण दुहराया । यमाचार्य उसे पाँच अग्नियों में तपाते गए और एक-एक करके ब्रह्मविद्या का एक एक सोपान पार कराते गए। इन तपस्याओं में उसे इंद्रियजयी, मनोजयी, कालजयी बनना पड़ा। उसने पाँच इंद्रियों और पाँचों मनोरथों को निरस्त कर लिया था, अस्तु वह सच्चे अर्थों में ब्रह्मवेत्ता बना । कठोपनिषद् में इस पंचाग्नि विद्या का ही विवरण विस्तार से दिया गया है ।
मोह की परिणति-दुर्गति
बकरा दौड़ता हुआ आया और आढ़त की दुकान में घुसकर भीतर लगी अन्न की ढेरी चबाने लगा । आढ़त का मालिक एक स्वस्थ नवयुवक, जो अभी पानी पीने कुयें पर चला गया था, दौड़ा-दौड़ा आया और बकरे की पीठ पर डंडे का ऐसा भयंकर प्रहार किया कि बकरा औंधे मुँह जमीन पर गिर पडा । दम निकलते-निकलते बची । मिमियाता हुआ वहाँ से भाग गया । एक संत कुछ दूर पर बैठे यह दृश्य देख रहे थे । उन्हें ऐसा देखकर हँसी आ गई, फिर वे एकाएक गंभीर हो गए । शिष्य श्रेष्ठि पुत्र ने प्रश्न किया-"भगवन्! बकरे पर प्रहार होते देखकर आपको एकाएक हँसी कैसे आ गई और अब आप इतने गंभीर क्यों हो गए?" दिव्य द्रष्टा संत ने बतलाया-"वत्स । यह बकरा जो आज डंडे की चोट खा रहा है, कभी उस आढ़त का स्वामी था । यह नवयुवक कभी इसका पुत्र था, इस बेचारे ने अपने पुत्र की सुख-सुविधाओं के लिए झूठ बोला, मिलावट की, शोषण किया, वही पुत्र आज उसे मार रहा है । जीव की इस अज्ञानता पर हँसी आ गई; पर सोचता हूँ कि मनुष्य मोह-माया के बंधनों में किस प्रकार जकड़ गया है कि कर्मफल भोगते हुए भी कुछ समझ नहीं पाता। दुकान में बार बार घुसता और बार बार दुर्गति का कष्ट सहता है ।"
धरती पर भगवान् रम गए
स्वर्गलोक में हलचल मच गई । स्वर्ग की शासन-व्यवस्था लड़खडा रही थी । विष्णु भगवान हिरण्याक्ष वध के लिए वाराह रूप बनाकर धरती पर आए । प्रयोजन भी पूरा किया, किन्तु यहीं रम गए, वापस लौटे नहीं । एक एक करके देवता आए और वापस चलने का अनुरोध करने लगे, किन्तु वाराह को कीचड़ में लोटना और परिवार के साथ रहना इतना सुहाया कि वे स्वर्ग लौटने को सहमत न हुए । बारी-बारी आए देवताओं को निराश होकर लौटना पड़ा । व्यवस्था बिगड़ते देखकर क्रुद्ध शिवजी ने वापस लाने का जिम्मा उठाया । वे आए और वाराह से लौटने और निर्धारित उत्तरदायित्व को निभाने की बात कहने लगे । इसका भी उन पर कोई प्रभाव न पड़ा । क्रुद्ध रुद्र ने त्रिशूल से वाराह का पेट फाड़ डाला और लाश को कंधे पर लाद कर स्वर्ग सिंहासन पर पटक दिया । विष्णु असली रूप में लौटे और देवताओं के सम्मुख अपनी झेंप मिटाते हुए बोले-"मोह बड़ा प्रबल है। वह भगवान की भी दुर्गति करा सकता है। आप लोग उसके कुचक्र में न फँसना और अन्यान्यों को कडुए-मीठे उपायों से इसी प्रकार उबारना जैसे कि शिव ने मुझे छुडाया ।"
दुर्बल को क्षमा
बोधिसत्व ने पिछले किसी जन्म में हाथी की योनि में जन्म लिया । एक बंदर उसकी पीठ पर बैठ जाता और नोच-खसोट कर हैरान करता रहता । जंगल में साथ चरने वाले घोड़े ने कहा-"इस बंदर को मजा क्यों नहीं चखा देते।" हाथी ने कहा कि "इतना तो मैं आसानी से कर सकता हूँ । सूँड से पकड़ कर इसका कचूमर निकाल सकता हूँ, पर यह दुर्बल है, इसलिए इसका नटखटपन भी क्षमा करता रहता हूँ । बराबर का हाथी छेड़ता, तो उससे टक्कर लेता।"
कभी जीतने की इच्छा ही नहीं की
चीनी दार्शनिक लाओत्से यह दावा करते थे कि संसार का कोई व्यक्ति आज तक उन्हें हरा नहीं सका और भविष्य में हरा भी न सकेगा । कारण पूछने पर वे कहते थे कि मैंने कभी जीतने की इच्छा ही नहीं की, तो हारता क्यों? वे जापान में बहुप्रचलित कुश्ती, को का उदाहरण दिया करते थे और कहते थे कि आक्रमणकारी अपने हर प्रयास में थकता जाता है और अंत में पराजित होकर हटना पड़ता है, जबकि बचाव करने वाले की क्षमता कम खर्च होती है और अंत में वही जीतता है। हर व्यक्ति को अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में अपनाना चाहिए ।
आत्मानं चाऽधिकं सेवाभाविनं संयमान्वितम्। उपकाररतं चैवमुदारं कुर्वतो भवेत्॥८५॥ परलोकोऽपि शान्त: स स्वानामपि भवेध्द्रुवम्॥८६॥ व्यतीतर्धवयोभिस्तु वृद्धैरपि जनैरिह। अनुभूतमिवाद्याशु प्रकाशो नव्य उत्तम:॥८७॥ यौवनं नवमेवैतद् भविष्यन्नवमेव च। नव: कार्यक्रमश्चैव यथा तैराप्यतेऽद्य तु॥८८॥ वार्ता प्रचलनाऽभावे नैवाप्ता या स्वयं तु तै:। हितैरपि न कैश्चितु बोधिताऽधिगता तु सा॥८९॥ अन्वभूवन समे पर्वस्नानस्यात्र तथैव च। फलं तीर्थस्य यात्रायाश्चाऽपि प्रत्यक्षमुत्तमम्॥९०॥ परामर्शमिमं सर्वे कर्तुं कार्यान्वितं च ते। निश्चयं सक्रुरत्रैके बहवो गन्तुमुत्सुका:॥९१॥ वानप्रस्थे व्रतं दिव्यं कर्तुं संस्कारकालजम्। पुण्यस्थाने मुहूर्ते च चेच्छां व्यक्तां व्यधुर्नरा:॥९२॥ तेषां कृते द्वितीयेऽह्नि प्रात: संस्कारकं विधिम्। वानप्रस्थस्य कर्तुं सा व्यवस्था सूचिताऽपि च॥९३॥
भावार्थ-अपने को अधिकाधिक संयमी, सेवाभावी और उदार परोपकारी बनाते चलने से परलोक सुख-शांतिमय बनता है। अपना तथा संबंधियों का भी हित होता है। अधेड़ों और वयोवृद्धों ने आज के प्रवचन में ऐसा अनुभव किया मानों उन्हें नया प्रकाश नया यौवन नया भविष्य और नया कार्यक्रम मिला हो । प्रचलन के अभाव में जो बात उन्हें अपने आप नहीं सूझी किसी हितैषी ने भी नहीं सुझाई, वह इन्हें आज के प्रवचन द्वारा उपलब्ध हुई। उनने अनुभव किया कि पर्व स्नान का तीर्थयात्रा का पुण्यफल उन्हें प्रत्यक्ष मिल गया । उनने इस परामर्श को तत्काल कार्यान्दित करने का निश्चय किया। कितने ही वानप्रस्थ में प्रवेश करने का व्रत संस्कार करने के लिए इस पुण्यस्थान में इसी मुहूर्त में करने की इच्छा प्रकट करने लगे। उनके लिए दूसरे दिन प्रातःकाल वानप्रस्थ संस्कार विधिवत् कराने की व्यवस्था सुना दी गई॥८४-९३॥
व्याख्या-आत्म संयम की साधना जब लोक सेवा के साथ साथ चलती है, तो अपना हित साधन तो होता ही है, यह जीवन भी श्लाध्य बन जाता है, आगे वाले जन्मों के लिए संस्कारों की निधि एकत्र कर ली जाती है । यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है । जो लोग यह सोचते हैं कि परमार्थ से मात्र दूसरों का ही कल्याण होता है, स्वयं को मरना-खपना अलग पड़ता है, उनके लिए यहाँ एक क्रांतिकारी विचार देते हुए ऋषि कहते हैं कि परमार्थ में ही स्वार्थ निहित है । निश्चित ही सुग्राह्य प्रतिपादनों के साथ प्रस्तुत इस मान्यता ने वृद्धों के चिंतन को गहराई से प्रभावित किया।
ईश्वर सान्निध्य की परिणति
गुरुकुल सघन वृक्षों की छाया में चलता था। ऋतु की विषमता से बचने के लिए कुछ पर्ण-कुटीर भी बने थे। प्राचार्य पिप्पलाद छात्रों को जहाँ ज्ञान-विज्ञान के अनेक विषय पढ़ाते, वहाँ साथ-साथ यह भी कहते रहते कि "ईश्वर के सान्निध्य से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है ।" छात्रों में परिणति अधिक तार्किक थे आश्वलायन। उनने अवसर पाकर जिज्ञासा प्रस्तुत की-देव, ईश्वर की निकटता से शांति मिले, इतना तो समझ में आता है, पर ऐश्वर्य मिले, इसका क्या तुक? आचार्य ने समयानुसार उत्तर देने की बात कहकर प्रसंग टाल दिया। शिक्षण सत्र समाप्त हुआ । पुराने छात्रों की विदाई और नयों की भरती का क्रम चल रहा था । पुराने छात्रों में राजकुमार सुतीक्ष्ण भी थे । छात्रों के मध्य कौटुम्बिकता और समता का व्यवहार चलता था। विदाई के समय आचार्य ने आश्वलायन के कान में कहा-"कभी अपने घर राजकुमार को आमंत्रित करना । वे कुछ ही दिन में राजा बनने वाले है, फिर भी मना न करेंगे ।"
बहुत दिन बीत गए । गुरुदेव का परामर्श याद आया । आश्वलायन ने सुतीक्ष्ण को अपने घर पधारने के लिए निमंत्रण दिया। बात तो असमंजस की थी, पर राजा ने पुराने संबंधों को ध्यान में रखते हुए निमंत्रण स्वीकार कर लिया। यथा समय साज-सज्जा के साथ पधारे । घर छोटा था । साधनों के अभाव से राज्याधिकारियों ने प्रबंध स्वयं कर लिया । आवभगत और वार्तालाप के उपरांत राजा विदा हुए, तो उन्होंने निर्धन मित्र के लिए बहुत से सुविधा-साधना जुटा दिए । देखते-देखते वे निर्धन से सुसंपन्न हो गए। समय बीता । आश्वलायन की फिर एक बार पिप्पलाद से भेंट हुई । आचार्य ने पुराना प्रसंग याद दिलाया और पूछा-"राजा का संपर्क यदि दरिद्रता दूर कर सकता है, तो ईश्वर का सान्निध्य ऐश्वर्य प्रदान क्यों नहीं कर सकता? देर तो लगी, पर आश्वलायन का संदेह पूरी तरह दूर हो गया।"
ब्रह्म की उपासना
कन्पयूशियस के शिष्य रोज रोज यह आग्रह किया करते थे कि किसी ब्रह्मज्ञानी के दर्शन कराके लाइए । रोज तो वे टाल देते, पर एक दिन तैयार हो गए। शिष्यों को लेकर वे एक गुफा में पहुँचे जहाँ एक साधु भजन कर रहे थे। उन लोगों ने ब्रह्मज्ञान की कुछ बातें बताने का आग्रह किया । साधु बहुत नाराज हुआ, क्रोध में बोला-"भाग जाओ धुर्तों! व्यर्थ हैरान मत करो । मुझे अपना भजन करने दो ।" वे उलटे पैरों लौटे । अब मंडली एक तेली के घर पहुँची । पूछा-"आपको लोग ब्रह्मज्ञानी बताते हैं, कुछ बतलाइए ।" तेली ने कहा-"यह बैल ही मेरा ब्रह्म है । मैं इसे पूरा चारा-दाना देता हूँ और यह मेरे कुटुंब का पूरा पेट भरता है । हम दोनों ही एक दूसरे से खुश है ।"
उससे आगे कन्फ्यूशियस अपनी शिष्य मंडली को एक बुढ़िया के यहाँ ले गए, जो चरखा कात रही थी । साथ ही पास में खेल रहे बाल-बच्चों में से किसी को समझाती, किसी को हँसाती, किसी को धमकाती हुई मगन थी। बुढ़िया से वही प्रश्न किया, तो उसने कहा-"देखते नहीं, मेरे चारों ओर ब्रह्म ही ब्रह्म खेल रहा है। वह मुझ से लिपटा है और मैं उससे ।" इतनी यात्रा के बाद शिष्य मंडली समेत कन्फ्यूशियस वापस लौट आए और उन्होंने समझाया-"स्वयं प्रसन्न रहना, दूसरों को प्रसन्न करना और ताल-मेल बिठाकर रहना-यही है ब्रह्म और यही है उसकी उपासना ।"
जीवन का समापन
जीवन ऐसा जीना चाहिए जैसे नाटक का कलाकार जीता है अथवा संतों की भांति अंतिम समय तक भगवान की कठपुतली की तरह। गेटे जर्मनी का एक बहुत बड़ा नाटककार हुआ है। वह अपने कार्य में इतना रम गया कि अपने आप को इस विश्व का एक पात्र ही अनुभव करने लगा था । मरते समय उसके चेहरे पर बच्चों जैसी मुस्कराहट थी । अंतिम साँस छोड़ते हुए उसने जोर से ताली बजाई और उपस्थित लोगों को उँगली के इशारे से बताया, "लो अब परदा गिरता है और एक बढ़िया नाटक का अंत होता है ।"
परलोक हेतु परामार्थ
यदि लोक में रहते हुए परलोक की चिंता होती रहे, तो परमार्थ स्वत: संपादित होने लगेगा। एक देश का रिवाज था कि जो राजा चुन जाता, उसे दस वर्ष राज्य करने दिया जाता। इसके बाद ऐसे निर्जन द्वीप में उतार दिया जाता, जिसमें निर्वाह के कोई साधन न थे। बेचारा भूखा-प्यासा दम तोड़ता । अनेक राजा इसी प्रकार दुर्गतिग्रस्त होते रहे । एक बुद्धिमान राजा उस गद्दी पर बैठा । पता लगाया दस वर्ष बाद किस द्वीप में जाना है। अगले ही दिन उसने उसमें सुविधाएँ उत्पन्न करने की आज्ञा दे दी। इस अवधि में वह द्वीप सुविधा-संपन्न देश हो गया । नियत समय पर राजा को वहाँ जाने में और बसने में कोई कठिनाई नहीं पड़ी।
इस कहानी का आशय समझाते हुए ऋषि ने कहा-"परलोक ही वह द्वीप है, जहाँ हर किसी को जाना पड़ता है। वहाँ सुविधा उत्पन्न करने वाला परमार्थ कमाया जाता रहे, तो जीवन के उपरांत भी सुख-शांति की कोई कमी न रहे।
उपदेशेन चाऽनेन जनैर्जीवनसाधने । नव: प्रकाश आप्तोऽतो जीवनं तरुणायितम्॥९४॥ युवानश्चाऽपि तत्रत्या उत्तरार्धस्य शोचितुम्। विषये सज्जिता जाता वर्तमानविनिर्मिते:॥९५॥ शभमुत्तरमायाति तेषां बुद्धिरभूत्तदा । आनन्दस्यातिरेकेण ह्योता प्रोता इवात्र ते॥९६॥ श्रोतार: सर्व एवैते सत्रे यातेऽवसानताम्। विसर्जिता ययुर्वासान् गताः संयमिनामिव। ऋषीणां तुल्यतां सर्व ऋषिरक्तधरा यत:॥९७॥
भावार्थ-प्रवचन से सभी ने जीवन साधना के संदर्भ में नया प्रकाश प्राप्त किया, जिससे उन्हें जीवन में तारुण्य का सा अनुभव हुआ। तरुण भी उत्तरार्द्ध की तैयारी की बात सोचने लगे। वर्तमान के निर्माण में, संयम में सुखद उत्तरार्द्ध उभरेगा, यह उन्होने भली-भांति विचार लिया। आनंद से ओत-प्रोत मनःस्थिति में सभी श्रोतागण सत्र समाप्त होने पर विसर्जित हो गए आज वह संयमी ऋषियों के तुल्य प्रतीत हो रहे थे, ऐसा क्यों न होता जब उनकी धमनियों में ऋषियों का ही रक्त प्रवाहमान था॥९४-९७॥
इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे ब्रह्मविद्याऽऽत्मविद्ययो:, युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणयो:,श्री धौम्य ऋषि प्रतिपादिते "वृद्धजन माहात्म्यमि," ति प्रकरणो नाम पञ्चमोऽध्याय:॥५॥