Books - प्राणवान प्रतिभाओं एवं जागृत आत्माओं को महाकाल का आह्वान
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अश्वमेध महायज्ञ एवं अनुयाज प्रक्रिया
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
अश्वमेध महायज्ञों की श्रृंखला का एक पक्ष व्यक्तित्व परिष्कार और समाज निष्ठा के प्रशिक्षण का है। चरित्र निष्ठा एवं समाज निष्ठा की गरिमा और उपयोगिता को इन उपयोगिता को इस महायज्ञों के साथ जुड़े हुए विशिष्ट कर्मकांडों की व्याख्या और विवेचन में ढूंढ़ा-खोजा, सीखा-समझा जा सकता है।
इन यज्ञों की श्रृंखला में युग क्रांति के स्थूल और सूक्ष्म स्तर के उन सभी तत्वों का समावेश है जो जनमानस को, व्यापक वातावरण को परिष्कृत करके इक्कीसवीं सदी को उज्ज्वल भविष्य के रूप में बदल सकते हैं। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए व्यक्ति, समाज, प्रकृति और विश्व को बदलने वाली सूक्ष्म धाराओं का अवतरण करा सकने में समर्थ अश्वमेध यज्ञों की विशिष्ट योजना को क्रियान्वित किया जा रहा है।
अश्वमेध यज्ञों का सबसे बड़ा फलितार्थ है-प्रसुप्त पड़ी प्रतिभा का जागरण। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि प्रतिभाएं ही युगों को बदलती व जनमानस का काया कल्प करती हैं। जब प्रतिभाएं सो जाती हैं तो देश, समाज, संस्कृति का पतन-पराभव आरंभ हो जाता है। जब वे जाग उठती हैं, तो प्रवाह को उलट-पलट कर घनघोर तमिस्रा में से भी अरुणोदय का प्रकाश उदित कर दिखाती हैं। अश्वमेध यज्ञों, जो गायत्री परिवार, प्रज्ञा अभियान और युग निर्माण योजना के सम्मिलित प्रयास से विश्व भर में संपन्न किए जा रहे हैं, के मूल में एक ही तथ्य है- देव संस्कृति को विश्व संस्कृति बनाना, विश्व राष्ट्र की कल्पना को मूर्त रूप देना। प्रस्तुत धर्मानुष्ठान व उसके मूल में छिपे तत्वज्ञान से इस प्रक्रिया की मात्र विज्ञान सम्मत विवेचना ही नहीं होगी अपितु उसके प्रस्तुतीकरण से निश्चित ही वह आधारभूमि तैयार होगी जिस पर इक्कीसवीं सदी रूपी विशाल प्रासाद की स्थापना संभव हो सकेगी।
अश्वमेध रूपी इस महा विराट अनुष्ठान को शास्त्रों ने तीन चरणों में विभक्त किया है-(1) प्रयाज (2) यजन (3) अनुयाज। वंदनीया माताजी के निर्देशानुसार जहां जहां प्रथम और द्वितीय चरण पूर्ण हो चुके हैं वहां तृतीय चरण अर्थात् अनुयाज को तत्काल आरंभ कर देना चाहिए। अनुयाज से तात्पर्य है- यज्ञ से उत्पन्न आध्यात्मिक ऊर्जा का सुनियोजन अर्थात् देव शक्तियों के अनुग्रह को देव प्रयोजनों, जन आस्था के विकास और पोषण में लगा देने की प्रक्रिया।
अनुयाज व्यवस्था के लिए पूज्य गुरुदेव एवं उनके संकल्प से जुड़े प्रत्येक साधक को अपना पुरुषार्थ होमना पड़ेगा। प्रत्यक्ष दृष्टि से यज्ञायोजन समाप्त होने पर ऋत्विजों-याजकों की श्रद्धा (भावनाशीलता), प्रज्ञा (समझदारी) एवं निष्ठा (कर्मठता) की परीक्षा पुनः सामने है। उसके लिए वैसी ही मानसिकता एवं योजना की आवश्यकता है। अपना पुरुषार्थ उस ओर उन्मुख होगा तो दिव्य शक्ति प्रवाहों का अनुदान उस निमित्त मिलना भी सुनिश्चित है।
अनुयाज प्रक्रिया को प्राणवान बनाने के लिए, सुनिश्चित सूत्र लेकर कार्य में तत्पर हो जाने के लिए वंदनीया माता जी समस्त परिजनों और प्रतिभाओं का आह्वान करती हुई कहती हैं-
‘‘जीवन कोई छोटी वस्तु नहीं है। उसका विस्तार बहुत बड़ा है। जीवनचर्या के साथ संस्कृति के सूत्रों को जोड़ने के लिए कार्यक्रमों की लंबी सूची बनाई जा सकती है। क्षेत्रीय परिजन अपने अपने ढंग से अनुयाज प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का प्रयास करने भी लगे हैं। किंतु उसे एक सुनिश्चित एवं प्रामाणिक स्वरूप देना आवश्यक है। उसके लिए गायत्री मंत्र के चार चरणों की तरह चार मौलिक वर्ग बनाए गए हैं। परिजन उन्हें समझकर अपने अपने क्षेत्रों में लागू करते रहें। इन्हें अभियान के रूप में चलाया जाना चाहिए। ये चार वर्ग हैं- (1) घर मंदिर (2) परिवार संस्कार मंदिर (3) घर-घर विद्या मंदिर और (4) राष्ट्र सेवा मंदिर’’।
आइये! हम सभी प्रत्येक सूत्र पर गंभीरता से चिंतन करके, विचार गोष्ठी करके, संकल्प बद्ध होकर व्यापक आंदोलन का शुभारंभ करने में तन-मन-धन से, पूर्ण मनोयोग से अपने अपने क्षेत्र में जुट जावें।
1. घर मंदिर
सामाजिक जीवन में आध्यात्मिकता एवं धर्म को प्रविष्ठ करने के लिए जिस प्रकार सार्वजनिक गायत्री मंदिरों की आवश्यकता है उसी प्रकार पारिवारिक जीवन में सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों को सुरक्षित रखने एवं बढ़ाने के लिए पारिवारिक घर मंदिरों की भी आवश्यकता है। हमारे परिवार ही व्यक्ति निर्माण के प्राथमिक केंद्र हैं। क्लेश-कलह से युक्त परिवार में व्यक्ति का निर्माण सही दिशा में नहीं हो सकता। व्यक्ति से ही समाज और राष्ट्र का निर्माण होता है। यदि व्यक्ति कुसंस्कारी हैं तो संपूर्ण समाज भ्रष्ट हो जायेगा और राष्ट्र पतन के गर्त में गिरता चला जायेगा। अतः यह परम आवश्यक है कि व्यक्ति को परिवार में सुसंस्कार मिलें।
सुसंस्कारों की नियमित परंपरा डालने, पारिवारिक जीवन में सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों को जाग्रत कर उनका संवर्द्धन एवं पोषण करने का सरलतम उपाय यह है कि प्रत्येक घर में गायत्री मंदिरों की स्थापना हो। परिजनों को चाहिए कि अश्वमेधीय महायज्ञ प्रक्रिया से जो जन प्रभावित हुए हैं, उन्हें खोज-खोज कर उनके घरों में उपासना स्थान निर्धारित करने का प्रयास करें।
प्रत्येक परिवार अपने घर में एक पवित्र स्थल नियत कर वहां पंच देव गायत्री अथवा अकेला गायत्री का चित्र स्थापित करे। चित्र के सामने बैठकर सामूहिक रूप से अथवा बारी-बारी से घर के सभी सदस्य कम से कम एक माला गायत्री मंत्र का जप अवश्य करें। जो जप न कर सकें वे गायत्री चालीसा पाठ अथवा गायत्री मंत्र लेखन करें। जो कुछ भी न कर सकें वे न्यूनतम चित्र के सन्मुख अगरबत्ती जलाकर प्रणाम की परंपरा डालें। स्नान के पश्चात सभी सूर्य भगवान को एक लोटा जल अर्घ्य समर्पित किया करें। विधिवत उपासना करने वाले, यदि उनके लिए संभव हो, पंचोपचार की क्रिया संपन्न कर लिया करें। इस समग्र प्रशिक्षण-प्रतिष्ठापन का नाम घर मंदिर है। अर्थात् हमारे हर घर देवालय बनें। श्रद्धा के इस बीजारोपण से महानता का उपार्जन सुनिश्चित है। इस स्थापना में जाति-पांति का भेदभाव न किया जाये। अन्य धर्मों के लोग अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुरूप यह कार्य कर सकते हैं। उपासना संबंधी विशेष जानकारी प्राप्त करने के लिए ‘गायत्री प्रार्थना’ पुस्तक अत्यंत उपयोगी होगी। जिन परिवारों में घर मंदिर की स्थापना हो जाय वहां यह पुस्तक अवश्य पहुंचाने का प्रयास होना चाहिए।
प्रत्येक गायत्री उपासक से हमारा अनुरोध है कि वह अपने आस-पास के मित्रों, परिचितों एवं अश्वमेध यज्ञ में भाग लेने वाले सभी भाई-बहनों को गायत्री उपासना का महत्व समझा कर घर-घर में गायत्री मंदिर की स्थापना का प्रयास करें। यह कार्य व्यापक अभियान के रूप में करना चाहिए। जो परिजन अधिक समय नहीं दे सकते उन्हें कम से कम 24 घरों में गायत्री मंदिर की स्थापना कर और इसकी सूचना मथुरा कार्यालय में भेजकर गायत्री प्रचारकों की श्रेणी में अपना नाम पंजीकृत करा लेना चाहिए। अधिक घरों में करना-कराना अपनी कर्मठता, लगन और निष्ठा पर निर्भर है। शाखाओं और शक्तिपीठों के कर्मठ कार्यकर्ताओं एवं परिव्राजकों को अपने क्षेत्र में 108 गायत्री प्रचारक बनाने का प्रयास करना चाहिए। यह कार्य संकल्प पूर्वक करना है। किसी भी जिज्ञासा को शांत करने अथवा कठिनाई निवारण के लिए मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु मथुरा कार्यालय से पत्राचार कर सकते हैं। इसमें न तो संकोच की आवश्यकता है और न ही ढील की।
2. परिवार संस्कार मंदिर
यदि सही अर्थों में भारतीय संस्कृति की परिभाषा पूछी जाय तो यह इस प्रकार होगी-‘‘यह देव मानव गढ़ने की व्यवस्था का नाम है।’’ देव मानव गढ़ने की व्यवस्था के अन्तर्गत ही षोडश संस्कारों का विधान है। भारतीय संस्कृति का यही वैशिष्ठ्य पूर्ण पाठ्यक्रम उस अन्यान्य सभ्यताओं और संस्कृतियों के नाम चल रही नाना प्रकार की विधि-व्यवस्थाओं से ऊपर और श्रेष्ठ ठहराता है। जन्म से सभी को शूद्र किंतु अनंत संभावनाओं से भरी प्रचंड पुरुषार्थ संपन्न आत्मसत्ता मानते हुए उसके चेतना के स्तर पर प्रयास कर उसे देव मानव बना देना ही देव संस्कृति की विशेषता है।
परम पूज्य गुरुदेव ने अपनी दृष्टि युगानुकूल बनाते हुए षोडश संस्कारों की संख्या घटाकर दस कर दी है जो वर्तमान में अत्यंत अनिवार्य व व्यावहारिक हैं। दो संस्कार नए जोड़े हैं जो आज की आवश्यकता और प्रचलन के अनुरूप हैं। वे हैं- जन्म दिवसोत्सव संस्कार और विवाह दिवसोत्सव संस्कार। शेष दस संस्कार निम्नवत हैं :-
1. पुंसवन संस्कार, 2. नामकरण संस्कार, 3. अन्न प्राशन संस्कार, 4. चूड़ाकर्म (मुंडन) संस्कार, 5. विद्यारंभ संस्कार, 6. यज्ञोपवीत संस्कार, 7. विवाह संस्कार, 8. वानप्रस्थ संस्कार, 9. अन्त्येष्टि संस्कार और 10. मरणोत्तर श्राद्ध संस्कार।
गायत्री यज्ञ-षोडश संस्कार (दो भागों में प्रकाशित) में उपर्युक्त संस्कारों के महत्व एवं विधि-विधान का सांगोपांग वर्णन है। प्रत्येक संस्कार के लिए अलग-अलग भी पुस्तकें प्रकाशित की गई हैं। इनका उपयोग जन जागरण एवं ज्ञानवर्द्धन के लिए किया जाना चाहिए। सभी कर्मकांड प्रवीण, नव ब्राह्मण, परिव्राजक, वानप्रस्थी एवं शाखा संचालक इन्हें मंगाकर अध्ययन करें और घर-घर जाकर संस्कार संपन्न करावें और इस प्रकार समूह स्तर पर प्रतिभा जागरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ावें।
संस्कारों के प्रति अभिरुचि जागृत करने के लिए भी प्रयास करना आवश्यक है। अभिरुचि के अभाव में हमें अधिक सफलता की आशा नहीं करना चाहिए। इसके लिए सरल उपाय यही हो सकता है कि ज्ञान मंदिरों में संस्कार-कर्मकांड सेट मंगाकर रखे जांय और अपने क्षेत्र के परिजनों को उन्हें पढ़ने-पढ़ाने के लिए प्रेरित किया जाय। दूसरा उपाय यह है कि जहां भी संस्कार संपन्न कराये जांय वहां इष्ट-मित्रों, पास पड़ोस के लोगों और संबंधियों को आमंत्रित किया जाय। इन दोनों उपायों से संस्कारों के प्रति उनके मन में अभिरुचि जाग्रत होगी, जो अभी तक इनके प्रति उदासीन हैं। गायत्री मिशन की कर्मकांड पद्धति इतनी सरल, वैज्ञानिक एवं विधि सम्मत है कि उसके द्वारा जन मानस में फैली भ्रांतियां दूर होती हैं, उदासीनता मिटती है और अभिरुचि का जागरण होता है। अतः संस्कार प्रक्रिया को आंदोलन स्तर पर बढ़ाने की आवश्यकता है।
पूज्य गुरुदेव ने ऋषियों की प्रणाली को युगानुकूल बनाकर मनुष्य मात्र पर एक असाधारण उपकार कर दिया है। दिव्य प्रवाह के कारण इस देव परिवार के संपर्क में आए हर परिवार में संस्कारों का क्रम चल पड़े यह प्रयास किए ही जाने चाहिए। उपासना के माध्यम से श्रद्धा का विकास तथा स्वाध्याय श्रम से प्रज्ञा के जागरण का क्रम चलता रहता है। परिष्कृत भावना एवं विचारणा को व्यक्तित्व का अंग बनाने के लिए ऋषियों ने संस्कार प्रक्रिया विकसित की थी। अनुयाज के दूसरे सूत्र के रूप में इसीलिए परिवार संस्कार मंदिर बनाने की बात कहीं गई है ताकि उच्च आदर्शों से प्रेरित भावनाशील एवं विचारणा युक्त व्यक्ति नवयुग की बागडोर संभालने के लिए तैयार हो सकें।
अतः समस्त समर्थ परिजन, प्रज्ञामंडल-प्रज्ञापीठ-शक्तिपीठ के संचालक, परिव्राजक एवं वानप्रस्थी अपनी अपनी क्षमता के अनुरूप क्षेत्र-मोहल्ले का दायित्व संभाल लें। वहां किस घर में कब-किस संस्कार का अवसर आने वाला है- यह जानकारी अपने पास रखनी चाहिए। समय आने पर सभी संबंधियों एवं पड़ोसियों को एकत्र करके सामूहिक संस्कार प्रक्रिया के अंतर्गत भावनाओं एवं विचारों के संयोग से उपयुक्त संस्कारों के बीज बोए जा सकते हैं।
इस योजना को सफल बनाने के लिए पौरोहित्य में निपुण तथा व्यवस्था में कुशल परिव्राजकों की आवश्यकता पर्याप्त संख्या में होगी। काम बढ़ेगा तो उसे संभालने वाले भाई-बहिनों, उत्साही नवयुवकों एवं अवकाश प्राप्त पुरुष-महिलाओं को प्रशिक्षण देने की व्यवस्था भी बनानी पड़ेगी। इसलिए क्षेत्रीय प्रशिक्षण की व्यवस्था बनाकर तथा शांतिकुंज प्रशिक्षण शिविरों में भेजकर क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को विकसित किया जाना आवश्यक है।
अन्य प्रचलित संस्कार तो एक व्यक्ति के जीवन में एक बार ही आते हैं किंतु जन्म दिवसोत्सव एवं विवाह दिवसोत्सव प्रतिवर्ष आने वाले संस्कार हैं। इन्हें लेकर एक व्यापक अभियान सभी जगह छेड़ा जा सकता है। प्रभाव की दृष्टि से ये संस्कार किसी भी अन्य संस्कार से कम सिद्ध नहीं होते अपितु नए होने के कारण इन्हें अन्य आगतों में अपनाने की अभिरुचि जगती है। विशेष प्रसंगों पर पारिवारिक स्तर पर दीप यज्ञों और सत्यनारायण कथा आयोजनों को भी संस्कार प्रक्रिया का अंग बनाया जा सकता है। ‘विवाह दिवसोत्सव इस तरह मनावें’ तथा ‘जन्मदिवसोत्सव इस तरह मनावें’- ये दोनों पुस्तकें जिनका मूल्य 1.50 रु. प्रति पुस्तक है, प्रत्येक शाखा को कम से कम एक-एक हजार मंगाकर प्रत्येक घर में निःशुल्क वितरण करना चाहिए। इस हेतु उदार दानदाताओं को प्रेरित किया जा सकता है। जहां ऐसी व्यवस्था न हो सके वहां मूल्य लेकर भी यह प्रयास चलाना चाहिए। इससे इस नए संस्कार को कराने की भावना विशेष रूप से जागृत हो सकेगी।
सभी को संस्कार परंपरा पुनः जागृत करने के लिए हर संभव उपाय करने का व्रतधारण कर अपने द्वारा किए गए प्रयासों से हमें (युग निर्माण योजना, मथुरा) भी अवगत कराते रहना चाहिए।
3. घर-घर विद्या मंदिर (गायत्री ज्ञान मंदिर)
नवयुग यदि आयेगा तो विचार शोधन द्वारा ही। क्रांति होगी तो वह लहू और लोहे से नहीं, विचारों की विचारों से काट द्वारा होगी। समाज का निर्माण होगा तो वह सद्विचारों की प्रतिष्ठापना द्वारा ही संभव होगा। अपना यह जो विशाल विश्व व्यापी कार्य खड़ा हो सका है वह विचार क्रांति का ही परिणाम है। अपनी ‘वसीयत एवं विरासत’ नामक पुस्तक में पूज्य गुरुदेव लिखते हैं- ‘‘मथुरा से ही उस विचार क्रांति अभियान ने जन्म लिया जिसके माध्यम से करोड़ों व्यक्तियों के मन-मस्तिष्कों को पलटने का संकल्प पूरा कर दिखाने का हमारा दावा आज सत्य होता दिखाई देता है।’’
यदि हम विचार करके देखें तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि अभी तक जितनी मलिनता अपना समाज में प्रविष्ट हुई है, वह बुद्धिमानों के माध्यम से ही हुई है। द्वेष, कलह, नस्लवाद, व्यापक नर-संहार जैसे कार्यों में बुद्धिमानों ने ही अग्रणी भूमिका निभाई है। यदि ये सन्मार्गी होते, उनके अंतःकरण पवित्र होते, तप-ऊर्जा का समन्वय उन्हें मिला होता तो उन्होंने विधेयात्मक विज्ञान प्रवाह को जन्म दिया होता, सत्साहित्य रचा होता, ऐसे आंदोलन चलाए होते जो मनुष्य को सद्विचार धारण कर सन्मार्ग पर चलने को प्रेरित करते। यह भी मनीषा के एक मोड़ की परिणति है- ऐसे मोड़ की जो यदि सही दिशा में होता तो ऐसे समर्थ-संपन्न राष्ट्र को कहां से कहां ले जाता।
पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि मनुष्य की मूल शक्ति विचारणा है। उसी के आधार पर इतनी प्रगति कर सकना उसके लिए संभव हुआ है। विचारों की उत्कृष्टता और निकृष्टता ही उसे ऊंचा उठाती है एवं नीचे गिराती है। समस्याएं विचारों की विकृति से उत्पन्न होती हैं और उनका समाधान दृष्टिकोण बदलने से निकलता है। हम जो कुछ भले-बुरे काम होते देखते हैं उन्हें विचार पद्धति की प्रतिक्रिया मात्र कहा जा सकता है। परिस्थितियों का अपने आप में कोई स्वतंत्र आधार नहीं है। वे हमारे कर्तृत्व का परिणाम मात्र है और कर्तृत्व का निर्धारण हमारे विचार करते हैं। विचारों की प्रेरणा ही हमारी कार्य पद्धति के लिए पूरी तरह उत्तरदायी होती है। इस तथ्य को समझ लेने पर ही आज की मानवीय समस्याओं का कारण और निवारण ठीक तरह समझा जा सकता है।
आज हम व्यक्ति को अनेक व्यथा-वेदनाओं में डूबा हुआ और समाज को अनेक समस्याओं में उलझा हुआ पाते हैं। सर्वत्र अशांति, आशंका और असंतोष का जो वातावरण दिखलाई पड़ रहा है उसके पीछे एक ही कारण है- मानवीय दुर्बुद्धि का बढ़ जाना और उसका दुष्प्रवृत्तियों की ओर मुड़ जाना। यदि यह प्रवाह रोका जा सके, लोगों को उच्च आदर्शवादिता की रीति-नीति समझने के लिए तैयार किया जा सके, तो परिस्थितियां बिल्कुल उलट सकती हैं। जो क्षमताएं आज विघटनात्मक, अनीतिमूलक क्रियाकलापों में लगी हैं वे यदि उलटकर सृजनात्मक कार्यों एवं सद्भाव संवर्धन में लग जायें तो देखते देखते जादू की तरह हमारी परिस्थितियों का कायाकल्प हो सकता है, वर्तमान नारकीय वातावरण देखते-देखते स्वर्गीय सुषमा में बदल सकता है।
काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर, अहंकार आदि दुर्बुद्धियों से ग्रसित मनुष्य किस प्रकार अकारण अपने ऊपर बरसने के लिए विपत्तियों की घटाएं आमंत्रित कर लेता है- इसे कोई विचारशील ही समझ सकता है। यदि मनुष्य अपनी विचार पद्धति पर नियंत्रण कर ले तो उसकी शक्ति-प्रगति-समृद्धि हर प्रकार उसकी मुट्ठी में रहेगी और सुरक्षित भी रहेगी। युग निर्माण योजना के अंतर्गत चल रहे विचार क्रांति आंदोलन ज्ञान-यज्ञ का यही प्रयोजन है।
व्यक्ति और समाज की सर्वांगीण सुख-शांति अपने इसी अभियान की सफलता पर निर्भर है। यदि इस तथ्य को ठीक तरह समझ लिया जाय तो हर कोई यही अनुभव करेगा कि मूल को सींचने की तरह विश्व शांति का एक यही मार्ग और एक यही उपाय है और इस को कार्यान्वित करने में अपना यह दूरदर्शी संगठन ही लगा हुआ है। भले ही आज लोग उसकी उपयोगिता और महत्ता न समझें पर अगले दिनों जब मानव जाति के उत्थान-पतन का सूक्ष्म विवेचन किया जायेगा तब समीक्षकों और अन्वेषकों को एक स्वर से यही स्वीकार करना पड़ेगा कि विकृतियों और उलझनों के इस युग में समस्त विपत्तियों की जननी विकृत विचारधारा की अभिवृद्धि ही थी। उसे पलटने के लिए केवल मात्र एक ही प्रयोग का नाम युग निर्माण योजना द्वारा संचालित ‘ज्ञान यज्ञ’ है। जिस घर में गायत्री माता की सच्चे मन से स्थापना हो, उपासना हो, वहां सुख-शांति की, श्री-समृद्धि की वर्षा होना अवश्यंभावी है। सद्बुद्धि की देवी गायत्री के प्रत्येक उपासक के लिए स्वाध्याय भी उतना ही आवश्यक धर्म कृत्य है जितना जप, ध्यान, पाठ, स्नान। बिना स्वाध्याय के, बिना ज्ञान की उपासना के बुद्धि पवित्र नहीं हो सकती। ज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं है। इसलिए गायत्री उपासना के साथ ज्ञान की उपासना भी वांछनीय रूप से जुड़ी है।
अतः ‘ज्ञान की उपासना’ के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए एक महत्वाकांक्षी योजना तैयार की गई है जिसका प्रारूप निम्नवत है-
परम पूज्य गुरुदेव की पावन विचारधारा की ज्ञान गंगा को जन-जन के लिए सुलभ कर मनुष्य में देवत्व का उदय तथा धरती पर स्वर्ग के अवतरण के उद्देश्य की पूर्ति में सवा लाख विद्या प्रचारकों की सृजन सेना संगठित करने का एक अभिनव अभियान युग निर्माण योजना, मथुरा द्वारा शुभारंभ करने का संकल्प लिया गया है। इस अभियान के अंतर्गत सभी प्राणवान जाग्रत परिजनों, भाई-बहिनों, नवयुवकों से भाव भरा अनुरोध है कि न्यूनतम चौबीस घरों में ‘गायत्री ज्ञान मंदिर’ की स्थापना का संकल्प लेकर ‘विद्या विस्तार प्रचारक श्रेणी’ में अपना पंजीयन कराने में पीछे न रहें। अधिक घरों में स्थापना करना उनकी वरीयता, श्रद्धा एवं निष्ठा का परिचायक होगा। इस संकल्प की पूर्ति आप निम्न प्रकार से कर सकते हैं-
(1) मंदिरों, स्कूलों, वाचनालयों, मोहल्ले या वार्डों में तथा शाखा, प्रज्ञापीठों, शक्तिपीठों एवं सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में ‘वृहद गायत्री ज्ञान मंदिर’ की
स्थापना सामूहिक दान एकत्रित कर कराई जा सकती है।
(2) प्रत्येक विचारवान परिवार से व्यक्तिगत संपर्क साधकर उन्हें विचार शक्ति तथा स्वाध्याय के महत्व व ज्ञान का बोध कराकर उनसे न्यूनतम पचास
रुपये का अनुदान प्राप्त कर उनके घरों पर गायत्री ज्ञान मंदिर का युग साहित्य सेट गायत्री मंत्र के सस्वर सामूहिक उच्चारण के साथ स्थापित करा
दें। उनका पूरा नाम व पता नोट करते जायें व उसकी सूची बनाकर मथुरा भेजते रहें। जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति अनुदान देने की न हो उनके
यहां पड़ोसी परिवारों से आपस में धन एकत्रित कर ‘गायत्री ज्ञान मंदिर’ स्थापना का शुभारंभ किया जा सकता है।
(3) उदारमना दानवीर संपन्न परिवारों को अपनी स्वेच्छा से मंदिरों, स्कूलों, अपने स्वजनों, मित्रों के नाम से ‘गायत्री ज्ञान मंदिर’ स्थापना का पुण्य
अर्जित करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।
(4) प्रत्येक मोहल्ले में चौबीस-चौबीस दीपों का दीपयज्ञ अथवा एक कुंडीय यज्ञ का आयोजन कर यज्ञ की बचत से सामूहिक ‘गायत्री ज्ञान मंदिर’ की
स्थापना की जा सकती है। यज्ञ में भाग लेने वाले भागीदारों के यहां भी ‘गायत्री ज्ञान मंदिर’ स्थापित कराये जा सकते हैं।
(5) ब्रह्मभोज (ज्ञान-यज्ञ) योजना के अंतर्गत पच्चीस प्रतिशत धनराशि दानदाताओं-व्यापारियों से, अन्य उदारमना परिजनों से दान लेकर अथवा
स्मृति अनुदान प्राप्त कर अथवा मांगलिक अवसर पर दान के रूप में धनराशि एकत्रित कर आधे मूल्य के साहित्य सैटों से ‘गायत्री ज्ञान मंदिर’
की स्थापना घर-घर में की जा सकती है।
(6) जिन परिजनों के यहां युग साहित्य पहिले से ही प्रचुर मात्रा में मौजूद है, उनके यहां ‘गायत्री ज्ञान मंदिर’ स्थापना की आवश्यकता नहीं है वरन्
ऐसे विचारशील, धार्मिक, गायत्री उपासकों तथा अश्वमेध यज्ञों के भागीदारों, दर्शकों की खोज की जानी चाहिए जो अभी तक पूज्यवर की
विचारधारा के संपर्क में नहीं आये, उनके यहां अनिवार्य रूप से ‘गायत्री ज्ञान मंदिर’ की स्थापना कर सद्विचारों को घर-घर में जन-जन तक
पहुंचा कर स्वाध्याय परंपरा का शुभारंभ करना चाहिए।
(7) समर्थ परिजन परस्पर धन एकत्रित कर मथुरा से ‘गायत्री ज्ञान मंदिर’ साहित्य के सेट इकट्ठा मंगा लें और अपने-अपने यहां विद्या विस्तार
प्रचारकों के माध्यम से ‘गायत्री ज्ञान मंदिर’ की स्थापना एक आंदोलन के रूप में चालू रखें।
(8) ‘गायत्री ज्ञान मंदिर’ स्थापना के पश्चात विद्या विस्तार शाखाओं के परिजन प्रतिमास ‘गायत्री ज्ञान मंदिर’ संचालकों से संपर्क कर नवीनतम
युग साहित्य समय-समय पर पहुंचाते रहें ताकि सद्ज्ञान के स्वाध्याय का क्रम निरंतर चलता रहे।
अंत में सभी से यह भी अनुरोध है कि हम मात्र पुस्तक विक्रेता बन कर न रह जांय। पुस्तक विक्रय न तो हमारा व्यवसाय है और न ही उद्देश्य है। उद्देश्य युग निर्माण है। ‘इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य’ को कल्पना एवं विचारणा के समुद्र से निकाल कर यथार्थ की ठोस धरती पर प्रतिष्ठित करना है। अतः साहित्य घरों तक पहुंचा कर ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री नहीं मान लेना चाहिए। उन पुस्तकों के पठन-पाठन का क्रम चल पड़े-यह भी देखते रहना आवश्यक है। इस निमित्त व्यक्तियों अथवा परिवारों से कुछ दिनों के अंतर से मिलते रहने, महत्वपूर्ण प्रसंगों पर चर्चा करते रहने से विचारों को जीवन में धारण करने का चक्र चालू किया जा सकता है।
पूज्य गुरुदेव ने हीरक जयंती के अवसर पर दस हजार हीरों के मणियों का हार पहनने की इच्छा प्रकट की थी। उनका इशारा उन प्राणवान सृजन सैनिकों की ओर था जो मनुष्य में देवत्व एवं धरती पर स्वर्ग अवतरण हेतु समर्पित भाव से सेवा करने के लिए अग्रसर हो सकें। इस गुरु पर्व पर हमने संकल्प लिया है कि हम पूज्य गुरुदेव की इस अभिलाषा को पूर्ण करेंगे। इस निमित्त समस्त भावनाशील परिजनों को आगे आकर पूज्य गुरुदेव के प्रति अपनी निष्ठा एवं समर्पण प्रमाणित करने के इस स्वर्णिम अवसर का लाभ उठाना चाहिए और ‘हीर मणि’ बनने का सौभाग्य प्राप्त करना चाहिए। ‘हीर मणि’ से तात्पर्य ऐसे ऊर्जा संपन्न परिजनों से है जो प्रतिदिन कम से कम दो घंटे का समय देने का संकल्प लेकर अपने अपने क्षेत्र में न्यूनतम एक सौ विद्या विस्तार प्रचारक तैयार करेंगे। ये विद्या विस्तार प्रचारक कम से कम चौबीस घरों में ‘गायत्री ज्ञान मंदिरों’ की स्थापना करेंगे। आगामी गुरु पूर्णिमा तक दस हजार ‘हीर मणियों’ की माला बनकर तैयार हो जाय-ऐसा प्रयास प्रत्येक शाखा संचालक को करना ही चाहिए। इस संबंध में अधिक जानकारी प्राप्त करने अथवा ‘हीर मणि’ बनने के लिए मथुरा कार्यालय से पत्राचार किया जा सकता है। अधिक उचित यही होगा कि स्वयं आकर व्यक्तिगत संपर्क करें।
4. राष्ट्र सेवा मंदिर
अश्वमेध महायज्ञ जैसे विशाल आयोजनों का एक अति विशिष्ट उद्देश्य राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को पूर्ण करने के लिए धर्म प्रेमी, जागृत एवं तपोनिष्ठ आत्माओं का आह्वान एवं संगठन करना भी होता है। यह सत्य है कि प्रकाशोन्मुख होकर लड़खड़ाते कदमों से विकास पथ पर निरंतर अग्रसर अपने इस राष्ट्र में अनेक सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाएं विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत एवं प्रयत्नशील हैं फिर भी भावना क्षेत्र को विकसित करने का महत्वपूर्ण कार्य सर्वथा उपेक्षित पड़ा है।
भावना क्षेत्र का विकास किए बिना, जनता के मन में सेवा, उदारता, लोकहित, असांप्रदायिकता, सहिष्णुता, नैतिकता प्रभृति सद्मानवीय प्रवृत्तियों को सुविकसित किए बिना उन्नति के सारे प्रयत्न दिखावा मात्र रह जावेंगे। उस अवस्था में आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्रों के विकास परिणामों का उल्टी दिशा में प्रयोग होता रहेगा जो सब प्रकार से हानिकारक ही सिद्ध होगा। इसलिए यह नितान्त आवश्यक है कि जनता में शुभ संकल्प और सद्भाव उत्पन्न करने के लिए भी वैसे ही प्रयत्न किए जांय जैसे अन्य क्षेत्रों में विकास कार्य के लिए किए जा रहे हैं।
यह परम पुनीत कार्य सरकारों का नहीं, धर्म संस्थाओं का है। दुर्भाग्य से भारत की धर्म संस्थाएं अपनी सांप्रदायिक मान्यताओं के प्रदर्शन और परिपोषण के लिए तो बहुत अधिक शक्ति व्यय करती हैं पर धर्म के मूल तत्वों की ओर कुछ भी ध्यान नहीं देतीं। ऐसी धर्म संस्थाओं की भारी कमी है जो विभिन्न संप्रदायों के बीच सहिष्णुता, समन्वय और एकता स्थापित करने के साथ साथ जन साधारण में मानवीय सद्गुणों एवं शुभ संकल्पों का विकास करें। इस कमी को पूरा करने के लिए कुछ विशेष प्रयत्न किए जाने आवश्यक हैं। अश्वमेध यज्ञों की श्रृंखला इस अभाव की पूर्ति के लिए शक्ति भर प्रयत्न करेगी पर इससे स्थायी लाभ नहीं होना है। स्थायी लाभ तभी संभव है जब राष्ट्रीय स्तर पर अपना संगठन अनुयाज प्रक्रिया को अपनाते हुए निम्नलिखित सुझावों और कार्यक्रमों को क्रियान्वित करने का भरसक और निरंतर प्रयास करता रहे—
1. प्राणवान प्रतिभाओं और जाग्रत आत्माओं को संगठन से जोड़ना।
अश्वमेध महायज्ञों से ऊर्जा प्राप्त कर जाग्रत हुई आत्माएं पुनः सो जांय इससे पूर्व ही उन्हें अपने संगठन का अभिन्न अंग बना लेना है। इससे दो लाभ होंगे। प्रथम तो यह कि उनकी प्रतिभा का राष्ट्रोत्थान के कार्य में संगठित रूप से उपयोग होगा और दूसरा यह कि उनकी आत्मा पुनः सुप्तावस्था में जाने से बच जायेगी। यदि संगठन से जुड़े कार्यकर्ता सही समय पर यह कार्य न कर सके तो इसका सारा दोष अपना ही माना जायेगा और हमारी ही आत्माएं हमें कोसेंगी। इसके साथ ही प्राणवान प्रतिभाएं एवं जाग्रत आत्माएं ऐसी भी हैं जो या तो अकेले दम पर कुछ कार्य कर रही हैं या भटक रही हैं। अश्वमेध महायज्ञों से ये हमारे संगठन की ओर उन्मुख हो रही हैं। इन्हें भी प्रयासपूर्वक अपने संगठन से जोड़ना है। इससे अपना संगठन विराटतम बनता जायेगा और हम बहुआयामी बनकर विभिन्न क्षेत्रों में राष्ट्रोत्थान का पुनीत कार्य सफलतापूर्वक निष्पादित कर सकेंगे।
2. राष्ट्र की मानसिकता आदर्शोन्मुख बनाना
किसी राष्ट्र में उसके जन समाज का, नागरिकों का मानसिक स्तर उच्च आदर्शों से प्रेरित हो-यही उसके महान होने का एक मात्र चिह्न है। भारतवर्ष सदा से विश्व का मुकुटमणि एवं जगद्गुरु-विश्व नेता रहा है। इसका कारण यहां की आर्थिक समृद्धि, शारीरिक शक्ति, सशस्त्र सेना, विद्या, बुद्धि एवं वैज्ञानिक उन्नति नहीं वरन् आदर्शवादिता रही है। उच्च आदर्शों से रहित समाज चाहे वह भौतिक उन्नति के चरम शिखर पर ही क्यों न पहुंच जाय, कितनी भी सुविधा सामग्री जुटा ले फिर भी न तो वह सच्ची प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता है, न किसी को प्रकाश दे सकता है और न ही आंतरिक सुख-शांति कायम रख सकता है। महानता और आदर्शवादिता एक ही तथ्य के दो पहलू हैं। जहां की जनता का मानसिक स्तर उच्च आदर्शों से अनुप्रेरित रहेगा वहां ही महानता के उदाहरण उपस्थित करने वाली घटनाएं एवं परिस्थितियां निरंतर दृष्टिगोचर होती रहेंगी।
राष्ट्र के नैतिक स्तर को ऊंचा उठाने के लिए, नागरिकों को आदर्शोन्मुख बनाने के लिए सबसे पहले जो कार्य करना है, वह लोगों की भावनाओं, मान्यताओं, विश्वासों, आकांक्षाओं को बदलना है। जब तक मनुष्य का अंतस्थल घटिया किस्म के हीन विचारों से भरा रहेगा, जब तक उन लोगों की इच्छाएं ऐश करने की या धनी बनने तक सीमित रहेंगी तब तक उनके मस्तिष्क तथा शरीर के कल पुर्जे उन कार्यों को करने में सर्वथा असमर्थ रहेंगे जिन्हें किए बिना महापुरुष बनना संभव नहीं हो सकता। अतः हमें मनुष्य के अंतस्थल में जमीं हुई मान्यताओं और आकांक्षाओं में हेर-फेर करना होगा। इसके अतिरिक्त युग निर्माण का अन्य कोई मार्ग नहीं है।
3. मनुष्य की सामर्थ्य को जागृत कर उसे उचित कार्य में लगाना
मनुष्य की सामर्थ्य अपने निर्वाह की अपेक्षा बहुत अधिक है। सामर्थ्य जागती नहीं है तो मनुष्य दीन-हीन बना रहता है। सामर्थ्य जाग जाये तो उसे कार्य चाहिए। मन परिष्कृत न हो तो जागृत सामर्थ्य का उपयोग स्वार्थ, शोषण एवं व्यसन में ही होने लगता है। इसी से मानवी गरिमा का ह्रास होता है तथा समाज विडंबनाओं से घिर जाता है।
मनुष्य को इन भ्रमपूर्ण विडंबनाओं से उबारकर उसे उज्ज्वल भविष्य के मार्ग पर आगे बढ़ाने के लिए ही अश्वमेधों का संकल्प उभरा है। इनके द्वारा जागृत सामर्थ्य को तत्काल नियोजित करना परम आवश्यक है।
4. सेवा साधना के लिए व्यक्तित्व का परिष्कार
समाज के अनुदानों से ही मनुष्य आगे बढ़ पाता है, सुख-सुविधाएं पाता है। यदि लोग समाज के कोष से लेते ही रहें, कुछ दें नहीं, ऋण चुकायें नहीं तो भंडार खाली हो जायेगा। अस्तु आत्म कल्याण एवं लोक कल्याण के लिए सेवा साधना का क्रम नितांत आवश्यक है। लोक सेवी सेवा-पथ पर बढ़ चलें यह अनायास संभव नहीं। उसके लिए उसके अनुरूप दृष्टि, व्यक्तित्व एवं आचरण विकसित करना होगा। तभी भटकाव से बचकर शक्ति एवं समृद्धि के लक्ष्य तक पहुंचा जा सकेगा।
जनमानस के परिष्कार की इस सेवा साधना में हर किसी को नहीं लगाया जा सकता। उसके लिए अधिक साधनात्मक शक्ति की आवश्यकता पड़ती है। अश्वमेध अभियान से तो बड़ी संख्या में लोग प्रभावित हो रहे हैं। उनके उत्साह एवं रुचि के अनुरूप किसी सृजनात्मक कार्य में उन्हें लगाया जाना आवश्यक है। इससे उनकी प्रगति का क्रम चल पड़ेगा तथा वे नव सृजन के तेजस्वी सैनिक के रूप में उभर कर ऊपर आयेंगे। इसी उद्देश्य से हर क्षेत्र में अनुयाज का चौथा चरण ‘राष्ट्र सेवा मंदिर’ के रूप में बढ़ाया जाना चाहिए। इसकी संक्षिप्त रूप रेखा निम्नवत है :—
पहले चरण में सृजनात्मक मानस के कुछ समय दानियों का संगठन बनाना आवश्यक है। उनकी संख्या, उपलब्ध समय तथा अभिरुचि के आधार पर कुछ सेवा कार्यों को हाथ में लिया जा सकता है। जब उत्साही लोग किसी सेवा कार्य में लग जाते हैं तो बड़ी संख्या में जन शक्ति उनके सहयोग के लिए आ खड़ी होती है।
सही निर्धारण, क्षेत्र की आवश्यकता एवं नवागत प्रतिभाओं की अभिरुचि को देखते हुए प्रारंभ में एक-दो कार्य ही हाथ में लेने चाहिए। क्रमशः एक एक करके कार्य को हाथ में लेने से शक्ति बिखरती नहीं है। सफलता मिलने से उत्साह बढ़ता है। इसलिए सही कार्य का चुनाव करना तथा उसे सही रूप देना आवश्यक है।
नीचे कुछ सेवा कार्यों के प्रारूप दिए जा रहे हैं। अनेक शाखाओं एवं मंडलों द्वारा उनका कुशल संचालन किया जा रहा है। जिन भाई, बहिनों, नवयुवकों को जिस कार्य में अभिरुचि हो, अपनी अपनी टोलियां बनाकर उन उन कार्यों में जुट जायें—
समयदान — समयदान की श्रद्धांजलि किस देवता के चरणों में अर्पित करें। प्राणवान परिजनों के सामने प्रस्तुत इन समस्त प्रश्नों का उत्तर एक ही है कि जन जीवन में गहराई तक घुसी हुई विकृतियों का उन्मूलन, क्योंकि व्यक्ति और समाज की स्थानीय एवं संसार में संव्याप्त अगणित विपन्नताएं आस्था संकट के कारण ही उत्पन्न हुई हैं। भ्रष्ट चिंतन ही दुष्ट आचरणों की जन्मदात्री है और उसी के कारण समूचा वातावरण अवांछनीय विपन्नता से भर गया है। यदि प्रचलित मानसिकता को बदला जा सके तो उन अगणित समस्याओं का सहज समाधान निकल सकता है जो सर्वत्र हाहाकार मचाए हुए हैं और सर्वनाश को चुनौती दे रही हैं।
आज देवत्व हारता और असुरत्व जीतता दीखता है। इसका एकमात्र कारण यह है कि सात्विकता और सज्जनता को पर्याप्त मान लिया गया और बढ़ते हुए असुरत्व से आरंभ में ही जूझने के लिए आवश्यक सतर्कता और संगठन की उपेक्षा की जाती रही है। यह भूल जब तक सुधारी न जायगी देवत्व को पग-पग पर अपमानित होना पड़ेगा और पराजय का आये दिन मुंह देखना पड़ेगा। इस अवांछनीय स्थिति से उबरने का एक ही उपाय है कि सज्जनता अकेली न रहे वरन् उसके साथ संगठन, सतर्कता और समर्थता को भी जोड़ कर रखा जाय।
स्वच्छता विस्तार — अनुयाज के क्रम में जहां भी कोई आयोजन हो, उस गांव या मुहल्ले में किसी पर्व पर या उससे एक दिन पहले सफाई अभियान चलाना बड़ा उपयोगी रहता है। देव शक्तियां स्वच्छ, पवित्र स्थान पर ही आना एवं टिकना पसंद करती हैं, उनके अनुदान पाने के लिए स्वच्छता जरूरी है- यह बात जनसाधारण के मन में सहज ही घर कर जाती है इसी क्रम को अपनाकर बड़ी संख्या में गांवों को गंदगी मुक्त बनाना संभव हुआ है।
पहले सामान्य सफाई की जाती है। क्रमशः नालियों, सोख्ता गड्ढे, कूड़ेदान आदि की व्यवस्था भी बनने लगती है। इस प्रक्रिया से संबंधित सरकारी व गैर सरकारी संगठनों, विभागों का भी योगदान मिलने लगता है। युवक एवं छात्र इस कार्य में बड़े उत्साह से लग पड़ते हैं।
स्मृति वृक्ष, स्मृति उपवन — अश्वमेध की स्मृति में अथवा जन्म, श्राद्ध, विवाह आदि की स्मृति में वृक्ष लगवाने का क्रम अनुयाज के रूप में बहुत सफल होता है। इसके लिए उपयुक्त वृक्षों की पौधशालाओं की व्यवस्था भी बनाना पड़ती है। आजकल बढ़ते प्रदूषण के कारण लोगों में पर्यावरण के प्रति काफी जागरूकता आई है। इसलिए थोड़े प्रयास से सार्थक पहल करते ही बड़ी संख्या में व्यक्तियों एवं संगठनों का योगदान सहज ही प्राप्त होने लगता है।
इसी का एक रूप है घर-घर तुलसी स्थापना। इससे प्रकारांतर से देव स्थापना का उद्देश्य पूरा हो जाता है। स्वस्तिवाचन सहित तुलसी की प्राण प्रतिष्ठा करने से परिवारों का वातावरण मंदिरों जैसा बनाया जाना संभव होता है। ‘तुलसी के चमत्कारी गुण’ पुस्तक अपनी अपनी सामर्थ्य अनुसार मंगाकर घर-घर में पहुंचाने का आंदोलन चलाकर प्रत्येक घर में तुलसी की स्थापना की जा सकती है।
ग्रामीण क्षेत्रों में तो इस कार्य द्वारा स्वार्थ एवं परमार्थ का समन्वय किया जा सकता है। पौधशालाओं, जड़ी-बूटी उद्यानों द्वारा श्रमशीलों के लिए अर्थ साधन भी जुटाये जा सकते हैं।
व्यसन मुक्ति — अनुयाज के क्रम में प्राणवान कार्यकर्ताओं ने अनेक गांवों को व्यसन मुक्त बनाने में भी सफलता पायी है। घर-घर में देव स्थापना, चित्र स्थापना करवाते हुए दीपयज्ञों एवं जन्मदिवसोत्सव के द्वारा व्यसन मुक्ति का प्रखर वातावरण बनते देखा गया है।
कुरीति उन्मूलन — व्यसन मुक्ति की तरह ही गांवों तथा क्षेत्रों को घातक कुरीतियों से एक एक करके मुक्त कराने का अभियान चलाया जा सकता है। जैसे- नेग दहेज, झाड़ फूंक, अंधविश्वास, मृतक भोज, छुआछूत, पुत्र-पुत्री भेद जैसी कुरीतियों के प्रति जनमत जागृत करके उन्हें गांव या मोहल्ले में न रहने देने के अभियान को भी सफल होते देखा गया है।
स्वावलंबन — महिलाओं, बच्चों एवं गरीबों को कुटीर उद्योग के माध्यम से स्वावलंबी बनाना भी राष्ट्र सेवा का, यज्ञीय प्रक्रिया का अंग है। श्रमनिष्ठ प्रामाणिकता एवं सहकारिता के आधार पर किसी क्षेत्र को आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बनाया जा सकता है। इसके लिए आर्थिक सहयोग देने वाले तथा कौशल सिखाने वाले भले लोगों की समाज में आज कमी नहीं है। जरूरत है कमजोर वर्ग के प्रति हमदर्दी रखने वाले प्रामाणिक व्यक्तित्वों की। जहां ऐसे व्यक्ति खड़े हो जायें वहां स्वावलंबी इकाइयां खड़ी होते देरी नहीं लगती।
नारी जागरण — यह आधी जनता को अवगति के गर्त से निकाल कर समर्थता के सिंहासन पर बिठाने जैसा क्रांतिकारी कदम है। इक्कीसवीं सदी नारी प्रधान होगी। अतएव प्रयत्न यह होना चाहिए कि उसे शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन और तेजस्विता की दृष्टि से उपयुक्त स्तर तक पहुंचाया जाय। इसके लिए उस दो सुविधाएं देनी होंगी। एक गृह कार्यों में 24 घंटे व्यस्त रहने के बंधनों से थोड़ा अवकाश देना जिससे वह प्रगति कर सके। दूसरा यह कि उस पर प्रजनन का भार जितना कम डाला जा सके उतना ही अच्छा। उदारता और विवेकशीलता को ध्यान में रखते हुए यह त्रास कम से कम दिया जाय। इससे जहां जनसंख्या वृद्धि पर अंकुश लगेगा वहां महिलाएं अधिक योग्यता संपादन का अवसर भी प्राप्त कर सकेंगी। अपने अपने घरों से एक प्रतिभाशाली महिला को नारी जागरण अभियान में काम करने के लिए थोड़ा अवकाश और प्रोत्साहन दिया जा सके तो उसका परिणाम उत्साहवर्धक हो सकता है। इन दिनों सभी भाषाओं में 10 लाख परिवार मिशन की पत्रिकाओं से प्रभावित हैं। इनमें से एक लाख परिवार ऐसे हो सकते हैं जिनकी महिलाएं इस पुण्य प्रयोजन का थोड़ा उत्तरदायित्व अपने कंधों पर उठायें और अपने संपर्क क्षेत्र में से 5 नई समझदार महिलाएं चुनकर उन्हें अपनी सहयोगी बनाएं। इतने भर से एक नारी जागरण आंदोलन खड़ा हो सकता है और पांच का महिला मंडल बन सकता है जो अपना संपर्क एवं कार्यक्षेत्र बढ़ायेंगी और न्यूनतम 25 को अपने प्रभाव में ले लेंगी। इस प्रकार उनका एक विशाल संगठन भी बन सकेगा। महिला जागरण सेट तैयार किया गया है। वह परिवार में पहुंचाकर भावना, संगठन एवं जन जागरण का आंदोलन चलाने का जन प्रयास किया जाना ही चाहिए।
धूमधाम एवं दहेज युक्त विवाहों का विरोध — उक्त संदर्भ में सरकार यथासंभव अपना काम कर रही है। दहेज विरोधी कानून भी उसने बना दिया है। दहेज से सभी दुखी हैं। इस दिशा में लेखनी और वाणी से बहुत कुछ लिखा कहा जाता रहा है। अब समय आ गया है कि इस दिशा में कोई ठोस कार्यक्रम योजनाबद्ध रूप से अपनाया जाय। यह कुरीति मिटेगी तो दूसरी अनेक मूढ़ मान्यताओं की जड़ें अपने आप हिलने लगेंगी।
यह कार्य प्रज्ञा परिजनों को अपने घरों से आरंभ कर देना चाहिए। सभी भाषाओं की पत्रिका के कुल मिलाकर 10 लाख ग्राहक हैं। प्रत्येक पत्रिका औसतन पांच परिवार पढ़ते हैं। इस प्रकार 50 लाख हुए। प्रत्येक परिवार के चार सदस्य भी हों तो 2 करोड़ संख्या पहुंचती है। इस प्रकार अपना परिवार 2 करोड़ आदमियों का है। आदर्श शादियों का प्रचलन हमें अपने इसी समुदाय से आरंभ करना चाहिए। इसके बाद तो यह उपयोगी परंपरा असंख्यों द्वारा अपनाई जायेगी क्योंकि इसमें सभी का हित है।
प्रज्ञा परिवार का हर परिजन यह संकल्प ले कि वह अपने लड़के-लड़कियों के विवाह आदर्श विधि से ही करेंगे। हर विवाह योग्य लड़का-लड़की यह प्रतिज्ञा करे कि वह खर्चीली शादियों का निमित्त बनने की अपेक्षा आजीवन अविवाहित रहना पसंद करेगा। हम सभी को अपने प्रभाव क्षेत्र में, पड़ोसी, मित्र, संबंधियों में विवाह आंदोलन सेट मंगाकर घर घर में पहुंचाकर जन जन को पढ़ाने का आंदोलन चालू करके जनमत तैयार करना है। साथ ही जहां धूमधाम की शादियां हों उनमें सम्मिलित नहीं होने का संकल्प लेना चाहिए। सामूहिक विवाहों का प्रचलन शुरू करना चाहिए।
अशिक्षा हटाओ अभियान — गरीबी और अशिक्षा एक दूसरे के साथ जुड़ी हुई हैं। अब समय की मांग यह है कि मनुष्य को बहुज्ञ होना चाहिए। उसके पास जानकारियों का भंडार रहना चाहिए अन्यथा उसे पग पग पर पिछड़ना पड़ेगा और गई-गुजरी स्थिति में जीवन गुजारना पड़ेगा।
जिनमें संपर्क क्षेत्र बढ़ाने और संगठन करने की क्षमता है, मिलनसारिता का स्वभाव है वे घर घर संपर्क करें। अशिक्षितों को शिक्षा का महत्व समझावें। उनमें पढ़ने का उत्साह पैदा करें। जो निरुत्साहित करते, अड़ंगा लगाते हैं उन्हें तर्कों, प्रभावों के आधार पर सहमत करने का प्रयत्न करें और मुहल्ले की एक प्रौढ़शाला चलाने की योजना को क्रियान्वित करें। पुरुषों के लिए रात्रि और महिलाओं के लिए तीसरे प्रहर का समय प्रायः सुविधाजनक होता है। स्थान की व्यवस्था किसी की जगह मांग कर की जा सकती है।
पढ़ने वाले के अतिरिक्त दूसरी आवश्यकता पढ़ाने वालों को खोजने की है। इसके लिए शिक्षित समुदाय के भावनाशील ऐसे लोगों से संपर्क साधना चाहिए जो अत्यधिक व्यस्त, स्वार्थी या निष्ठुर नहीं हैं, जिनमें साधना के बीजांकुर हैं, जो विद्या ऋण चुकाने के लिए, नित्य थोड़ा समय पढ़ाने के लिए देते रह सकते हैं। तलाश करने पर अपने ही क्षेत्र में ऐसे उदार नर-नारी अवश्य मिल जावेंगे जो निःशुल्क एवं विशुद्ध सेवा भावना से उस उच्चकोटि के पुण्य परमार्थ को करते रहने के लिए सहमत हो सकें।
छात्रों से फीस लेकर अध्यापकों को थोड़े समय का भी वेतन देकर यह योजना नहीं चल सकती। उसे व्यापक आंदोलन का रूप नहीं दिया जा सकता। 5 करोड़ अशिक्षितों को शिक्षित नहीं बनाया जा सकता। यह कार्य तो उसी परमार्थ भावना से पूरा हो सकता है जिस प्रकार देश के असंख्य धर्म कार्य चलते रहते हैं। जीवट वाले व्यक्ति इस आंदोलन को चलाएं तो इसका शानदार ढांचा खड़ा हो सकता है।
राष्ट्र के पिछड़ेपन के दो ही प्रधान कारण हैं—गरीबी और अशिक्षा। इन दोनों को हटाने के लिए बिना खर्च के विवाहों का प्रचलन और प्रौढ़ शिक्षा का अभिवर्धन यही दो प्रमुख उपाय हैं। इन्हें पूरा करने के लिए परिजनों में से प्रत्येक को किसी न किसी रूप में अपनी भूमिका निभानी ही चाहिए।