Books - सभ्यता, सज्जनता और सुसंस्कारिता का अभिवर्धन
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Language: HINDI
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नीति-निष्ठा की स्थापना अवांछनीयता उन्मूलन से ही सम्भव
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अन्य देशों की भांति पिछले दिन तीन दशकों में अपने देश ने भी भौतिक क्षेत्र में प्रगति की है। ज्ञान-विज्ञान एवं तकनीकी दृष्टि से स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व जो स्थिति थी उसकी तुलना में हम कहीं बहुत आगे हैं। जिन वस्तुओं के लिये हमें कभी दूसरे देशों पर निर्भर रहना पड़ता था, वे आज अपने यहां ही बनने लगी हैं, यह प्रसन्नता की बात है।किन्तु दूसरे देशों की भांति एक भूल अपने यहां भी हुई है। भौतिक प्रगति की अंधी दौड़ में जिस प्रकार पाश्चात्य देश उच्चस्तरीय मानवी आदर्शों एवं सिद्धान्तों की उपेक्षा करके अनेकानेक समस्याओं का सामना कर रहे हैं, वही भूल अपने यहां भी हो रही है। फलस्वरूप अवांछनीयताएं बढ़ती जा रही हैं।
इन दिनों नीति निष्ठा सामाजिक उत्तरदायित्वों एवं मानवी आदर्शों एवं सिद्धान्तों के प्रति उच्चस्तरीय आस्थाएं दिनों-दिन गिरती जा रही हैं। आस्थाओं के विकृति होने से चिन्तन- निकृष्ट बनता और अवांछनीयता, अनैतिकता को बढ़ावा मिलता है। अवांछनीय, अनैतिक गतिविधियों में प्रकारान्तर से नीति एवं आदर्शों के प्रति विकृत आस्थाएं ही काम करती दृष्टिगोचर होती हैं। जिसकी फल श्रुति बेईमानी, निष्ठुरता, उच्छृंखलता, अनुशासन हीनता के रूप में प्रकट होती है।
अनैतिकताओं का आरम्भ आलस्य, अपव्यय, असंयम दुर्व्यसन, अशिष्टता, अनुशासन हीनता, नागरिक कर्तव्यों की अवहेलना जैसे छोटे समझे जाने वाले अवगुणों से होता है और इस उपक्रम में उद्धत होकर वह आक्रामकता का दुष्टता एवं निष्ठुरता का स्वरूप ग्रहण कर लेता है। चोरी, ठगी, रिश्वत मिलावट, अपहरण, चोरबाजारी, बलात्कार, अपहरण, लूट-डकैती, हत्या जैसे अपराध उद्धत अनैतिकता के अन्तर्गत ही आते हैं। जिस तेजी से इनमें अभिवृद्धि हो रही है। उसे देखते हुए लगता है, प्रगति के नाम पर हम अवगति की ओर अग्रसर हो रहे हैं।
अनैतिकता स्वार्थपरायणता एवं कृतघ्नता की उस संकीर्ण मनोवृत्ति से पनपती है जिसके कारण मनुष्य अपने सामाजिक दायित्वों की उपेक्षा करने लगता है। परिवार एवं समाज से अनेकों प्रकार की सुविधाएं एवं सहयोग हर मनुष्य को प्राप्त हैं। जो अनुदान उसे प्राप्त हुए हैं प्रतिदान स्वरूप अपनी योग्यता प्रतिभा एवं क्षमता का एक भाग समाज के लिये अर्पित करना नैतिक कर्तव्य है जिसके निर्वाह करते हरने से ही समाज की सुव्यवस्था बनी रहती और सहयोग और सहकार के कारण प्रगति का क्रम अवरुद्ध नहीं होने पाता। संकीर्ण स्वार्थों के वशीभूत होकर अधिकांश व्यक्ति अपने इन नैतिक दायित्वों का निर्वाह नहीं करते। ये ऐसे अपराध हैं जो कानून की पकड़ में नहीं आते, किन्तु इनके कारण समाज को भारी क्षति उठानी पड़ती है। असमर्थ, असहाय बूढ़े माता-पिता की सेवा न करना अपने आश्रितों के निर्वाह की व्यवस्था न जुटाना प्रकारान्तर से अपराध की ही श्रेणी में आता है। समाज से अनेकों प्रकार के सहयोग मिलते रहते हैं। समर्थ और सक्षम होते हुए भी असमर्थों जरूरतमन्दों को सहयोग न देना नैतिक अपराध है जिसकी रोकथाम के लिये कोई कानूनी व्यवस्था नहीं है किन्तु इनसे होने वाली हानियां अन्य अपराधों की तुलना में कम नहीं है।
दूसरी श्रेणी के अन्तर्गत वे अपराध आते हैं, जिसमें सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन किया जाता है। अनुशासन हीनता, उच्छृंखलता अशिष्टता जैसी असामाजिक प्रवृत्तियों से समाज की सुव्यवस्था नष्ट होती तथा अराजकता फैलती है। नागरिक कर्तव्यों का पालन न करने से दूसरों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, इसे सर्वत्र देखा जा सकता है। लाइन में लगकर टिकट न लेना, रेलगाड़ी में बैठने वाली सीट पर सो जाने जैसी बातें छोटी लगती हैं किन्तु इनसे दूसरों को भारी असुविधा होती है। कितनी बार तो टकराव एवं संघर्ष की झगड़े फसाद की परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं। यातायात में ऐसी घटनाएं अक्सर घटती रहती हैं। कटु-भाषिता, आवेश ग्रस्तता, अशिष्टता से अपनी क्षति तो होती ही है, दूसरे के ऊपर कुप्रभाव पड़ता तथा सन्तुलन बिगड़ता है। अपनी बातों अथवा व्यवहार द्वारा इसको उत्तेजित अथवा असन्तुलित कर देना भी छोटे अपराधों की श्रेणी में आता है। अपनी सुविधा के लिए अन्य व्यक्तियों के अधिकारों का हनन आन्तरिक निष्ठुरता का परिचायक है, जो बढ़ते-बढ़ते अन्य व्यक्तियों के अधिकारों का हनन आन्तरिक निष्ठुरता का परिचायक है, जो बढ़ते-बढ़ते बड़े अपराधों का रूप ले लेता है।
तीसरे प्रकार में ऐसे अपराध होते हैं, जिन्हें कानून द्वारा जघन्य घोषित किया गया है। जुआ, लाटरी, ठगी, धोखाधड़ी, चोरी, अपहरण, आक्रमण, मिलावट रिश्वत लूट, डकैती, बलात्कार, हत्या जैसे अपराध उद्धत अनैतिकता के नाम से सम्बोधित किये जाते हैं। आरम्भिक संकीर्ण स्वार्थ परता असामाजिकता और कालान्तर में आक्रामकता का रूप लेकर उपरोक्त अनेकों प्रकार के अपराधों को जन्म देती है। प्रकारान्तर से नीति निष्ठा एवं उच्च स्तरीय मानवी आदर्शों के प्रति आस्था की गिरावट से ही सभी प्रकार की अनैतिकताओं का जन्म होता है।
अपने देश में सर्वाधिक अपराध मिलावट के होते हैं। चावल, दाल, आटा, तेल, घी, मिर्च, मसाले, दूध जैसे खाद्यान्नों में तो मिलावट एक सामान्य सी बात हो गई है। आये दिन समाचार पत्रों में ऐसी खबरें छपती रहती हैं कि अमुक वस्तु में विषाक्त वस्तु की मिलावट होने से उपयोग करने वाले कितने ही व्यक्ति मारे गये—कितने ही अपंग हो गये। जितनी घटनाएं प्रकाशन में आती हैं, उनसे बड़ी संख्या अप्रकाशित ही पकड़ में न आने वाली घटनाओं की होती है। देश में प्रतिवर्ष अन्धे अपंगों की संख्या से तीव्रता से वृद्धि हो रही है। इस बढ़ोत्तरी में एक बड़ा योगदान खाद्यान्नों में मिलावट का है। दूध और देशी घी जैसी स्वास्थ्य वस्तुएं शुद्ध शायद ही कहीं मिल पाती हों। इनका सेवन करना लोगों ने कम कर दिया है। विश्वास उठ जाने तथा इनका प्रचलन कम हो जाने के कारण गौ पालन, पशु पालन जैसे उपयोगी व्यवसाय भी बन्द होते जा रहे हैं। देश का दुग्ध उत्पादन प्रतिवर्ष घटता जा रहा है। पशु पालन के प्रति घटता हुआ उत्साह प्रकारान्तर से दूध, घी में होने वाले मिलावट से उत्पन्न अविश्वास की फलश्रुति मात्र है। इस मिलावट को कड़ाई से नहीं रोका गया तो पशु पालन उद्योग की सरकारी योजना भी सफल न हो सकेगी। और दूध उत्पादन के घटने से देश की जनता के स्वास्थ्य पर भारी कुप्रभाव पड़ेगा।
मिलावट खाद्यान्नों तक ही सीमित नहीं हैं। मशीनरी सामानों रेडियो, ट्रांजिस्टर, घड़ी आदि के कल पुर्जों की प्रामाणिकता सदा संदिग्ध ही बनी रहती है। दूसरे प्रगतिशील देशों में वस्तुओं का निर्माण प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर किया जाता है। जापान जर्मनी की बनी वस्तुएं संसार भर में लोक प्रिय और सबसे प्रामाणिक मानी जाती हैं। अपने यहां का दुर्भाग्य है कि निर्माणकर्ता अपने तत्कालिक स्वार्थ साधनों एवं अधिकाधिक लाभ अर्जित करने के फेर में वस्तुओं के स्तर की ओर ध्यान नहीं देते। फलस्वरूप वे टिकाऊ नहीं हो पाती और कुछ ही दिनों बाद बेकार हो जाती है। दूसरे प्रगतिशील देशों में हत्या, आत्म हत्या, चोरी, डकैती बलात्कार के अपराध तो अधिक होते हैं किन्तु वस्तुओं में मिलावट के अपराध भारत की तुलना में कम होते हैं। इस क्षेत्र में अपना देश सबसे आगे है।
अन्य प्रकार के अपराधों की संख्या में भी तीव्रता से वृद्धि हो रही है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रति मिनट होने वाले विभिन्न प्रकार के गम्भीर अपराधों की संख्या वर्ष 1977 में दो थी जिसमें चोरी, डकैती, उठाईगीरी, धोखाधड़ी, तस्करी, हत्या, अपहरण, बलात्कार जैसे सभी प्रकार के अपराध सम्मिलित थे। तीन वर्षों बाद सन् 1980 में इनकी संख्या बढ़कर चार गुनी हो गई। सन् 1980 में प्रति मिनट किये जाने वाले अपराधों की संख्या आठ हो गई। सन् 1977 में प्रति दो घण्टे में एक हत्या होती थी, यह संख्या सन् 1980 में चार तक जा पहुंची अर्थात् हर आधे घण्टे में एक हत्या। इस औसत से वर्ष भर का हिसाब जोड़ने पर कुल हत्याओं की संख्या सत्तरह हजार पांच सौ बीस तथा विभिन्न अपराधों की इकतालीस लाख चार हजार आठ सौ होती है। ये आंकड़े प्रकाशन में आई घटनाओं के हैं। समाचार पत्रों में अप्रकाशित घटनाओं की संख्या इससे भी अधिक होगी।
अपराध महानगरों में सर्वाधिक होते हैं। कलकत्ता, मद्रास, बेंगलोर, कानपुर, अहमदाबाद हैदराबाद बम्बई जैसे नगरों में सन् 80 के प्रथम पांच हजार से लेकर आठ हजार की संख्या में चोरी उठाई गिरी डकैती अपहरण बलात्कार की घटनाएं प्रकाशन में आयीं।
पिछले एक दशक में बाल अपराधों की संख्या में भी द्रुत गति से वृद्धि हुई है। वर्ष 1967 में भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत दर्ज किये जाने वाले कुल अपराधों में किशोर अपराधियों की भागीदारी 2.6 प्रतिशत थीं, जो कि सन् 80 में बढ़कर लगभग दुगुनी-पांच प्रतिशत तक जा पहुंची। इनमें से अधिकांशतः सोलह और इक्कीस वर्ष के मध्य आयु वाले थे। वर्ष 1976 में किशोरों द्वारा किए विभिन्न प्रकार के अपराधों की संख्या इस प्रकार थी। कुल लगभग 45 हजार मामले पुलिस रिकार्ड में अंकित हुए जिसमें चोरी के 16 हजार, सेंधमारी के छह हजार छह सौ, दंगे फसाद के पांच हजार, हत्या के आठ सौ पचास, डकैती के सात सा और शेष जुआ, तस्करी राहजनी की घटनाएं थीं। बाल अपराध की दृष्टि से विभिन्न प्रमुख प्रान्तों का क्रम इस प्रकार था, महाराष्ट्र मध्य प्रदेश; तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, गुजरात, पंजाब और राजस्थान। सब से कम बाल अपराध केरल में होते हैं।
इन अपराधों के अतिरिक्त रिश्वत, तस्करी, घरों में चोरी जैसे अपराध ऐसे हैं जो कम ही प्रकाश में आते हैं। सरकारी दफ्तरों की स्थिति ऐसी बन गई है कि बिना रिश्वत के शीघ्रता से काम नहीं हो पाता। विभिन्न कार्यों का कराने के लिए रिश्वत की रकम बंधी बंधायी होती है। जो देने से आना कानी करता है उसका काम लम्बे समय तक पेन्डिंग लिस्ट में पड़ा रहता है। सामूहिक प्रतिरोध के अभाव में यह अनैतिक व्यापार इन दिनों सर्वत्र चलते देखा जा सकता है। और दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है।
अपराध शास्त्री, मनोवैज्ञानिक, विचारक बढ़ती हुई अवांछनीयता, अनैतिकता के विभिन्न कारण बताते हैं। अमेरिका के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डॉ. जान कैलिहन भारत में बढ़ते हुए अपराधों का सम्बन्ध जन संख्या की बढ़ोत्तरी और घनी आबादी से जोड़ते हैं। उनका कहना है कि घनी आबादी एवं भीड़ वाले बड़े-बड़े नगरों में मानसिक, भावनात्मक एवं आर्थिक दबावों के कारण अपराधों में निरन्तर वृद्धि हो रही है।
पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय के प्रो. लैटीग्रास सिनेमा एवं टेलीविजन को अपराधों का एक बड़ा कारण मानते हैं। उनका विचार है कि सिनेमा के घटनाक्रमों में जीवन की समस्याओं का वास्तविक समाधान करने वाली बातों का मात्र एक प्रतिशत समावेश होता है। 99 प्रतिशत दृश्य कोरी कल्पना पर आधारित तथा अव्यावहारिक होते हैं। अपराध, हिंसा आदि को बढ़ावा देने वाली फिल्में 99 प्रतिशत होती है। इलिनाय विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान के प्रो. लियोनाडिसरन बच्चों एवं किशोरों में बढ़ती हुई अपराध वृत्ति में फिल्मों का बहुत बड़ा योगदान मानते हैं। उनके अनुसार अपरिपक्व मस्तिष्कों को सिनेमा एवं घटिया साहित्य सबसे अधिक प्रभावित करते हैं।
जनसंख्या वृद्धि, बेरोजगारी, सिनेमा, घटिया साहित्य, गरीबी आदि का अवांछनीयता को बढ़ावा देने में एक सीमा तक सहयोग हो सकता है किन्तु ये मूल कारण नहीं है। सबसे अधिक बड़ा कारण है नीति आदर्शों एवं उच्चस्तरीय सिद्धान्तों के प्रति आस्थाओं का विकृत हो जाना। अनेकों प्रकार की विकृतियां इसी से उत्पन्न होती है। परिवारों में बढ़ती हुई संकीर्ण स्वार्थपरता, कृतघ्नता और समाज में फैलती हुई अनुदारता उच्छृंखलता, अनुशासन हीनता, आस्थाओं की विकृति को ही फलश्रुति हैं जो उद्धत बनकर गम्भीर अपराधों को जन्म देती हैं।
इस दिशा में अभीष्ट सुधार एवं रोकथाम करने के लिये शासकीय एवं सामाजिक स्तर पर अनेकों प्रकार के प्रयास चलते रहते हैं। शासन कानून बनाता है और दण्ड की व्यवस्था न्यायालयों के माध्यम से करता है। सामाजिक संस्थायें अपने स्तर पर प्रयत्नरत रहती हैं। किन्तु इसके बावजूद भी विशेष सुधार होता दिखाई नहीं पड़ता। समाज में अवांछनीयता घटने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही है। कानून की पकड़ में न आने वाले कितने ही ऐसे अपराध होते हैं,जिनकी जानकारी नहीं मिल पाती किन्तु उनसे भारी क्षति उठानी पड़ती है। परिवार में वृद्ध माता-पिता की देख-रेख सेवा, पत्नी के प्रति स्नेह-सहयोग के अभाव में उन्हें कितना कष्ट सहना पड़ता है, इसका अनुमान तो भुक्तभोगी ही लगा सकते हैं। उपेक्षा, तिरष्कार एवं समुचित देख-रेख न होने से उनमें कितनों को घुटन से भरे जीवन के दिन पूरे करने पड़ते हैं। पति की प्रताड़ना एवं उपेक्षा से आये दिन कितनी ही नारियां आत्महत्या तक करती देखी गई हैं, जिनकी रोक-थाम करने के लिए कानून के पास प्रत्यक्ष कोई व्यवस्था नहीं है। समर्थ और सम्पन्नों की अनुदारता से पिछड़े एवं गरीबों को सहयोग नहीं मिल पाता। फलतः वे अविकसित एवं विपन्नता की स्थिति में पड़े रहते हैं। शासन और कानून इस अनुदारता की मनोवृत्ति को रोक पाने में अक्षम है। जिसके कारण पिछड़े गरीबों की स्थिति और भी अधिक बदतर होती जा रही है और शोषण एवं संचय के कारण सम्पन्न और भी अधिक अपनी झोली भरते जा रहे हैं। ये ऐसे परोक्ष रूप से किये जाने वाले अपराध हैं जो कानून की पकड़ में नहीं आते किन्तु उतनी ही हानि पहुंचाते हैं जो जितनी कि चोरी, ठगी और डकैती जैसे गम्भीर अपराध।
इस स्थिति को बदलने के लिए बहुस्तरीय प्रयास करने होंगे। मात्र शासन पर निर्भर रहने से काम नहीं चलेगा, उसका सहयोग इस प्रयास में मिल सकता है—नीति-निष्ठा और चरित्र निष्ठा को, उच्चस्तरीय आदर्शों एवं सिद्धान्तों को सर्वोपरि महत्व देना होगा। इन दिनों बुद्धि और धन को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। उसके स्थान पर नीति, सदाचार, मानवी आदर्शों एवं सिद्धान्तों को प्रमुखता देनी होगी। सम्पन्नता और विद्वता को तभी सम्मानित किया जाना चाहिए, जब वह उदारता एवं उदात्तता को अपनाये हुए हो। अनुदार सम्पन्न और चरित्र से रहित विद्वान को प्रतिष्ठा नहीं मिलनी चाहिए। पिछले दिनों यही भूल हुई है। अपनी संस्कृति ने चरित्र निष्ठा को जितना महत्व दिया उतना अन्य किसी विशेषता को नहीं। इस तथ्य की उपेक्षा हुई, चरित्र निष्ठा गौड़ होती गई और बुद्धि बल धन बल को मिला—सम्मानित हुआ। फलस्वरूप मानवी विशेषताओं की अवमानना हुई और चरित्र निष्ठा के अभाव में आस्थायें विकृत होती चली गई। अपनी चारित्रिक विशेषताओं के लिये यह देश भी विश्वविख्यात था।इतिहास में एक से बढ़कर एक अनुकरणीय उदाहरण मिलते हैं। उसी देश के निवासी सदाचार की दृष्टि से दिन-प्रतिदिन कमजोर होते जा रहे हैं। अपनी चारित्रिक गरिमा खोकर हमने गंवाया ही अधिक है। सर्वविदित है किसी भी समाज अथवा देश की वास्तविक सम्पत्ति भौतिक वस्तुयें नहीं, उसमें रहने वाले श्रेष्ठ व्यक्तित्व हैं, जिनके सहारे राष्ट्र ऊंचा उठता है। साधनों की सुसम्पन्नता घटिया व्यक्तित्व होने पर प्रगति का नहीं, अवगति का मार्ग प्रशस्त करती है। इसके विपरीत साधनों की दृष्टि से पिछड़े किन्तु व्यक्तित्वों की दृष्टि से भरे-पूरे देश को प्रगति करते देरी नहीं लगती।
इस तथ्य की जितनी उपेक्षा होगी देश की प्रगति का मार्ग उतना ही अवरुद्ध होता जायेगा। विकास के लिये बनने वाली अनैतिकता की बाढ़ कहीं उच्चस्तरीय आदर्शों को नैतिक विशेषताओं को बहा न ले जाय—इसके लिये अविलम्ब कदम उठाने होंगे। देशवासियों में नीति एवं आदर्शों के प्रति आस्था उत्पन्न करने के लिये हर सम्भव प्रयास करने होंगे। सरकारी एवं गैर सरकारी दोनों ही स्तरों पर प्रचार तन्त्रों, रचनात्मक कार्यक्रमों के माध्यम से चरित्रनिष्ठा को उभारा एवं प्रोत्साहित किया जाय। अनीति के मार्ग पर चलने वाले, पारिवारिक, सामाजिक उत्तरदायित्वों के निर्वाह के प्रति कन्नी काटने वालों की भर्त्सना एवं सामाजिक बहिष्कार किया जाय। कानून ऐसे अनुदारों को प्रताड़ित करने के लिये दण्ड की व्यवस्था अपने स्तर पर करे और समाज ऐसे व्यक्तियों के प्रति उपेक्षा, तिरष्कार द्वारा विरोध प्रकट करे। सर्वत्र नीतिवानों, चरित्रवानों को प्रोत्साहित किया एवं सम्मान दिया जाय। सम्पत्ति एवं योग्यता से भी अधिक चरित्र बल को महत्व दिया जाय। इस दिशा में सर्वत्र प्रयास चल पड़े तो कोई कारण नहीं है कि वर्तमान अवांछनीय प्रवाह को उलटा न जा सके। अपनी गौरव गरिमा को प्राप्त करने के लिये हमें उच्चस्तरीय आदर्शों की पुनर्प्रतिष्ठा जन-जन के भीतर करनी होगी। अवांछनीयता की रोकथाम और समाज की सर्वांगीण प्रगति का मार्ग इसी प्रकार प्रशस्त होगा।
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इन दिनों नीति निष्ठा सामाजिक उत्तरदायित्वों एवं मानवी आदर्शों एवं सिद्धान्तों के प्रति उच्चस्तरीय आस्थाएं दिनों-दिन गिरती जा रही हैं। आस्थाओं के विकृति होने से चिन्तन- निकृष्ट बनता और अवांछनीयता, अनैतिकता को बढ़ावा मिलता है। अवांछनीय, अनैतिक गतिविधियों में प्रकारान्तर से नीति एवं आदर्शों के प्रति विकृत आस्थाएं ही काम करती दृष्टिगोचर होती हैं। जिसकी फल श्रुति बेईमानी, निष्ठुरता, उच्छृंखलता, अनुशासन हीनता के रूप में प्रकट होती है।
अनैतिकताओं का आरम्भ आलस्य, अपव्यय, असंयम दुर्व्यसन, अशिष्टता, अनुशासन हीनता, नागरिक कर्तव्यों की अवहेलना जैसे छोटे समझे जाने वाले अवगुणों से होता है और इस उपक्रम में उद्धत होकर वह आक्रामकता का दुष्टता एवं निष्ठुरता का स्वरूप ग्रहण कर लेता है। चोरी, ठगी, रिश्वत मिलावट, अपहरण, चोरबाजारी, बलात्कार, अपहरण, लूट-डकैती, हत्या जैसे अपराध उद्धत अनैतिकता के अन्तर्गत ही आते हैं। जिस तेजी से इनमें अभिवृद्धि हो रही है। उसे देखते हुए लगता है, प्रगति के नाम पर हम अवगति की ओर अग्रसर हो रहे हैं।
अनैतिकता स्वार्थपरायणता एवं कृतघ्नता की उस संकीर्ण मनोवृत्ति से पनपती है जिसके कारण मनुष्य अपने सामाजिक दायित्वों की उपेक्षा करने लगता है। परिवार एवं समाज से अनेकों प्रकार की सुविधाएं एवं सहयोग हर मनुष्य को प्राप्त हैं। जो अनुदान उसे प्राप्त हुए हैं प्रतिदान स्वरूप अपनी योग्यता प्रतिभा एवं क्षमता का एक भाग समाज के लिये अर्पित करना नैतिक कर्तव्य है जिसके निर्वाह करते हरने से ही समाज की सुव्यवस्था बनी रहती और सहयोग और सहकार के कारण प्रगति का क्रम अवरुद्ध नहीं होने पाता। संकीर्ण स्वार्थों के वशीभूत होकर अधिकांश व्यक्ति अपने इन नैतिक दायित्वों का निर्वाह नहीं करते। ये ऐसे अपराध हैं जो कानून की पकड़ में नहीं आते, किन्तु इनके कारण समाज को भारी क्षति उठानी पड़ती है। असमर्थ, असहाय बूढ़े माता-पिता की सेवा न करना अपने आश्रितों के निर्वाह की व्यवस्था न जुटाना प्रकारान्तर से अपराध की ही श्रेणी में आता है। समाज से अनेकों प्रकार के सहयोग मिलते रहते हैं। समर्थ और सक्षम होते हुए भी असमर्थों जरूरतमन्दों को सहयोग न देना नैतिक अपराध है जिसकी रोकथाम के लिये कोई कानूनी व्यवस्था नहीं है किन्तु इनसे होने वाली हानियां अन्य अपराधों की तुलना में कम नहीं है।
दूसरी श्रेणी के अन्तर्गत वे अपराध आते हैं, जिसमें सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन किया जाता है। अनुशासन हीनता, उच्छृंखलता अशिष्टता जैसी असामाजिक प्रवृत्तियों से समाज की सुव्यवस्था नष्ट होती तथा अराजकता फैलती है। नागरिक कर्तव्यों का पालन न करने से दूसरों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, इसे सर्वत्र देखा जा सकता है। लाइन में लगकर टिकट न लेना, रेलगाड़ी में बैठने वाली सीट पर सो जाने जैसी बातें छोटी लगती हैं किन्तु इनसे दूसरों को भारी असुविधा होती है। कितनी बार तो टकराव एवं संघर्ष की झगड़े फसाद की परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं। यातायात में ऐसी घटनाएं अक्सर घटती रहती हैं। कटु-भाषिता, आवेश ग्रस्तता, अशिष्टता से अपनी क्षति तो होती ही है, दूसरे के ऊपर कुप्रभाव पड़ता तथा सन्तुलन बिगड़ता है। अपनी बातों अथवा व्यवहार द्वारा इसको उत्तेजित अथवा असन्तुलित कर देना भी छोटे अपराधों की श्रेणी में आता है। अपनी सुविधा के लिए अन्य व्यक्तियों के अधिकारों का हनन आन्तरिक निष्ठुरता का परिचायक है, जो बढ़ते-बढ़ते अन्य व्यक्तियों के अधिकारों का हनन आन्तरिक निष्ठुरता का परिचायक है, जो बढ़ते-बढ़ते बड़े अपराधों का रूप ले लेता है।
तीसरे प्रकार में ऐसे अपराध होते हैं, जिन्हें कानून द्वारा जघन्य घोषित किया गया है। जुआ, लाटरी, ठगी, धोखाधड़ी, चोरी, अपहरण, आक्रमण, मिलावट रिश्वत लूट, डकैती, बलात्कार, हत्या जैसे अपराध उद्धत अनैतिकता के नाम से सम्बोधित किये जाते हैं। आरम्भिक संकीर्ण स्वार्थ परता असामाजिकता और कालान्तर में आक्रामकता का रूप लेकर उपरोक्त अनेकों प्रकार के अपराधों को जन्म देती है। प्रकारान्तर से नीति निष्ठा एवं उच्च स्तरीय मानवी आदर्शों के प्रति आस्था की गिरावट से ही सभी प्रकार की अनैतिकताओं का जन्म होता है।
अपने देश में सर्वाधिक अपराध मिलावट के होते हैं। चावल, दाल, आटा, तेल, घी, मिर्च, मसाले, दूध जैसे खाद्यान्नों में तो मिलावट एक सामान्य सी बात हो गई है। आये दिन समाचार पत्रों में ऐसी खबरें छपती रहती हैं कि अमुक वस्तु में विषाक्त वस्तु की मिलावट होने से उपयोग करने वाले कितने ही व्यक्ति मारे गये—कितने ही अपंग हो गये। जितनी घटनाएं प्रकाशन में आती हैं, उनसे बड़ी संख्या अप्रकाशित ही पकड़ में न आने वाली घटनाओं की होती है। देश में प्रतिवर्ष अन्धे अपंगों की संख्या से तीव्रता से वृद्धि हो रही है। इस बढ़ोत्तरी में एक बड़ा योगदान खाद्यान्नों में मिलावट का है। दूध और देशी घी जैसी स्वास्थ्य वस्तुएं शुद्ध शायद ही कहीं मिल पाती हों। इनका सेवन करना लोगों ने कम कर दिया है। विश्वास उठ जाने तथा इनका प्रचलन कम हो जाने के कारण गौ पालन, पशु पालन जैसे उपयोगी व्यवसाय भी बन्द होते जा रहे हैं। देश का दुग्ध उत्पादन प्रतिवर्ष घटता जा रहा है। पशु पालन के प्रति घटता हुआ उत्साह प्रकारान्तर से दूध, घी में होने वाले मिलावट से उत्पन्न अविश्वास की फलश्रुति मात्र है। इस मिलावट को कड़ाई से नहीं रोका गया तो पशु पालन उद्योग की सरकारी योजना भी सफल न हो सकेगी। और दूध उत्पादन के घटने से देश की जनता के स्वास्थ्य पर भारी कुप्रभाव पड़ेगा।
मिलावट खाद्यान्नों तक ही सीमित नहीं हैं। मशीनरी सामानों रेडियो, ट्रांजिस्टर, घड़ी आदि के कल पुर्जों की प्रामाणिकता सदा संदिग्ध ही बनी रहती है। दूसरे प्रगतिशील देशों में वस्तुओं का निर्माण प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर किया जाता है। जापान जर्मनी की बनी वस्तुएं संसार भर में लोक प्रिय और सबसे प्रामाणिक मानी जाती हैं। अपने यहां का दुर्भाग्य है कि निर्माणकर्ता अपने तत्कालिक स्वार्थ साधनों एवं अधिकाधिक लाभ अर्जित करने के फेर में वस्तुओं के स्तर की ओर ध्यान नहीं देते। फलस्वरूप वे टिकाऊ नहीं हो पाती और कुछ ही दिनों बाद बेकार हो जाती है। दूसरे प्रगतिशील देशों में हत्या, आत्म हत्या, चोरी, डकैती बलात्कार के अपराध तो अधिक होते हैं किन्तु वस्तुओं में मिलावट के अपराध भारत की तुलना में कम होते हैं। इस क्षेत्र में अपना देश सबसे आगे है।
अन्य प्रकार के अपराधों की संख्या में भी तीव्रता से वृद्धि हो रही है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रति मिनट होने वाले विभिन्न प्रकार के गम्भीर अपराधों की संख्या वर्ष 1977 में दो थी जिसमें चोरी, डकैती, उठाईगीरी, धोखाधड़ी, तस्करी, हत्या, अपहरण, बलात्कार जैसे सभी प्रकार के अपराध सम्मिलित थे। तीन वर्षों बाद सन् 1980 में इनकी संख्या बढ़कर चार गुनी हो गई। सन् 1980 में प्रति मिनट किये जाने वाले अपराधों की संख्या आठ हो गई। सन् 1977 में प्रति दो घण्टे में एक हत्या होती थी, यह संख्या सन् 1980 में चार तक जा पहुंची अर्थात् हर आधे घण्टे में एक हत्या। इस औसत से वर्ष भर का हिसाब जोड़ने पर कुल हत्याओं की संख्या सत्तरह हजार पांच सौ बीस तथा विभिन्न अपराधों की इकतालीस लाख चार हजार आठ सौ होती है। ये आंकड़े प्रकाशन में आई घटनाओं के हैं। समाचार पत्रों में अप्रकाशित घटनाओं की संख्या इससे भी अधिक होगी।
अपराध महानगरों में सर्वाधिक होते हैं। कलकत्ता, मद्रास, बेंगलोर, कानपुर, अहमदाबाद हैदराबाद बम्बई जैसे नगरों में सन् 80 के प्रथम पांच हजार से लेकर आठ हजार की संख्या में चोरी उठाई गिरी डकैती अपहरण बलात्कार की घटनाएं प्रकाशन में आयीं।
पिछले एक दशक में बाल अपराधों की संख्या में भी द्रुत गति से वृद्धि हुई है। वर्ष 1967 में भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत दर्ज किये जाने वाले कुल अपराधों में किशोर अपराधियों की भागीदारी 2.6 प्रतिशत थीं, जो कि सन् 80 में बढ़कर लगभग दुगुनी-पांच प्रतिशत तक जा पहुंची। इनमें से अधिकांशतः सोलह और इक्कीस वर्ष के मध्य आयु वाले थे। वर्ष 1976 में किशोरों द्वारा किए विभिन्न प्रकार के अपराधों की संख्या इस प्रकार थी। कुल लगभग 45 हजार मामले पुलिस रिकार्ड में अंकित हुए जिसमें चोरी के 16 हजार, सेंधमारी के छह हजार छह सौ, दंगे फसाद के पांच हजार, हत्या के आठ सौ पचास, डकैती के सात सा और शेष जुआ, तस्करी राहजनी की घटनाएं थीं। बाल अपराध की दृष्टि से विभिन्न प्रमुख प्रान्तों का क्रम इस प्रकार था, महाराष्ट्र मध्य प्रदेश; तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, गुजरात, पंजाब और राजस्थान। सब से कम बाल अपराध केरल में होते हैं।
इन अपराधों के अतिरिक्त रिश्वत, तस्करी, घरों में चोरी जैसे अपराध ऐसे हैं जो कम ही प्रकाश में आते हैं। सरकारी दफ्तरों की स्थिति ऐसी बन गई है कि बिना रिश्वत के शीघ्रता से काम नहीं हो पाता। विभिन्न कार्यों का कराने के लिए रिश्वत की रकम बंधी बंधायी होती है। जो देने से आना कानी करता है उसका काम लम्बे समय तक पेन्डिंग लिस्ट में पड़ा रहता है। सामूहिक प्रतिरोध के अभाव में यह अनैतिक व्यापार इन दिनों सर्वत्र चलते देखा जा सकता है। और दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है।
अपराध शास्त्री, मनोवैज्ञानिक, विचारक बढ़ती हुई अवांछनीयता, अनैतिकता के विभिन्न कारण बताते हैं। अमेरिका के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डॉ. जान कैलिहन भारत में बढ़ते हुए अपराधों का सम्बन्ध जन संख्या की बढ़ोत्तरी और घनी आबादी से जोड़ते हैं। उनका कहना है कि घनी आबादी एवं भीड़ वाले बड़े-बड़े नगरों में मानसिक, भावनात्मक एवं आर्थिक दबावों के कारण अपराधों में निरन्तर वृद्धि हो रही है।
पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय के प्रो. लैटीग्रास सिनेमा एवं टेलीविजन को अपराधों का एक बड़ा कारण मानते हैं। उनका विचार है कि सिनेमा के घटनाक्रमों में जीवन की समस्याओं का वास्तविक समाधान करने वाली बातों का मात्र एक प्रतिशत समावेश होता है। 99 प्रतिशत दृश्य कोरी कल्पना पर आधारित तथा अव्यावहारिक होते हैं। अपराध, हिंसा आदि को बढ़ावा देने वाली फिल्में 99 प्रतिशत होती है। इलिनाय विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान के प्रो. लियोनाडिसरन बच्चों एवं किशोरों में बढ़ती हुई अपराध वृत्ति में फिल्मों का बहुत बड़ा योगदान मानते हैं। उनके अनुसार अपरिपक्व मस्तिष्कों को सिनेमा एवं घटिया साहित्य सबसे अधिक प्रभावित करते हैं।
जनसंख्या वृद्धि, बेरोजगारी, सिनेमा, घटिया साहित्य, गरीबी आदि का अवांछनीयता को बढ़ावा देने में एक सीमा तक सहयोग हो सकता है किन्तु ये मूल कारण नहीं है। सबसे अधिक बड़ा कारण है नीति आदर्शों एवं उच्चस्तरीय सिद्धान्तों के प्रति आस्थाओं का विकृत हो जाना। अनेकों प्रकार की विकृतियां इसी से उत्पन्न होती है। परिवारों में बढ़ती हुई संकीर्ण स्वार्थपरता, कृतघ्नता और समाज में फैलती हुई अनुदारता उच्छृंखलता, अनुशासन हीनता, आस्थाओं की विकृति को ही फलश्रुति हैं जो उद्धत बनकर गम्भीर अपराधों को जन्म देती हैं।
इस दिशा में अभीष्ट सुधार एवं रोकथाम करने के लिये शासकीय एवं सामाजिक स्तर पर अनेकों प्रकार के प्रयास चलते रहते हैं। शासन कानून बनाता है और दण्ड की व्यवस्था न्यायालयों के माध्यम से करता है। सामाजिक संस्थायें अपने स्तर पर प्रयत्नरत रहती हैं। किन्तु इसके बावजूद भी विशेष सुधार होता दिखाई नहीं पड़ता। समाज में अवांछनीयता घटने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही है। कानून की पकड़ में न आने वाले कितने ही ऐसे अपराध होते हैं,जिनकी जानकारी नहीं मिल पाती किन्तु उनसे भारी क्षति उठानी पड़ती है। परिवार में वृद्ध माता-पिता की देख-रेख सेवा, पत्नी के प्रति स्नेह-सहयोग के अभाव में उन्हें कितना कष्ट सहना पड़ता है, इसका अनुमान तो भुक्तभोगी ही लगा सकते हैं। उपेक्षा, तिरष्कार एवं समुचित देख-रेख न होने से उनमें कितनों को घुटन से भरे जीवन के दिन पूरे करने पड़ते हैं। पति की प्रताड़ना एवं उपेक्षा से आये दिन कितनी ही नारियां आत्महत्या तक करती देखी गई हैं, जिनकी रोक-थाम करने के लिए कानून के पास प्रत्यक्ष कोई व्यवस्था नहीं है। समर्थ और सम्पन्नों की अनुदारता से पिछड़े एवं गरीबों को सहयोग नहीं मिल पाता। फलतः वे अविकसित एवं विपन्नता की स्थिति में पड़े रहते हैं। शासन और कानून इस अनुदारता की मनोवृत्ति को रोक पाने में अक्षम है। जिसके कारण पिछड़े गरीबों की स्थिति और भी अधिक बदतर होती जा रही है और शोषण एवं संचय के कारण सम्पन्न और भी अधिक अपनी झोली भरते जा रहे हैं। ये ऐसे परोक्ष रूप से किये जाने वाले अपराध हैं जो कानून की पकड़ में नहीं आते किन्तु उतनी ही हानि पहुंचाते हैं जो जितनी कि चोरी, ठगी और डकैती जैसे गम्भीर अपराध।
इस स्थिति को बदलने के लिए बहुस्तरीय प्रयास करने होंगे। मात्र शासन पर निर्भर रहने से काम नहीं चलेगा, उसका सहयोग इस प्रयास में मिल सकता है—नीति-निष्ठा और चरित्र निष्ठा को, उच्चस्तरीय आदर्शों एवं सिद्धान्तों को सर्वोपरि महत्व देना होगा। इन दिनों बुद्धि और धन को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। उसके स्थान पर नीति, सदाचार, मानवी आदर्शों एवं सिद्धान्तों को प्रमुखता देनी होगी। सम्पन्नता और विद्वता को तभी सम्मानित किया जाना चाहिए, जब वह उदारता एवं उदात्तता को अपनाये हुए हो। अनुदार सम्पन्न और चरित्र से रहित विद्वान को प्रतिष्ठा नहीं मिलनी चाहिए। पिछले दिनों यही भूल हुई है। अपनी संस्कृति ने चरित्र निष्ठा को जितना महत्व दिया उतना अन्य किसी विशेषता को नहीं। इस तथ्य की उपेक्षा हुई, चरित्र निष्ठा गौड़ होती गई और बुद्धि बल धन बल को मिला—सम्मानित हुआ। फलस्वरूप मानवी विशेषताओं की अवमानना हुई और चरित्र निष्ठा के अभाव में आस्थायें विकृत होती चली गई। अपनी चारित्रिक विशेषताओं के लिये यह देश भी विश्वविख्यात था।इतिहास में एक से बढ़कर एक अनुकरणीय उदाहरण मिलते हैं। उसी देश के निवासी सदाचार की दृष्टि से दिन-प्रतिदिन कमजोर होते जा रहे हैं। अपनी चारित्रिक गरिमा खोकर हमने गंवाया ही अधिक है। सर्वविदित है किसी भी समाज अथवा देश की वास्तविक सम्पत्ति भौतिक वस्तुयें नहीं, उसमें रहने वाले श्रेष्ठ व्यक्तित्व हैं, जिनके सहारे राष्ट्र ऊंचा उठता है। साधनों की सुसम्पन्नता घटिया व्यक्तित्व होने पर प्रगति का नहीं, अवगति का मार्ग प्रशस्त करती है। इसके विपरीत साधनों की दृष्टि से पिछड़े किन्तु व्यक्तित्वों की दृष्टि से भरे-पूरे देश को प्रगति करते देरी नहीं लगती।
इस तथ्य की जितनी उपेक्षा होगी देश की प्रगति का मार्ग उतना ही अवरुद्ध होता जायेगा। विकास के लिये बनने वाली अनैतिकता की बाढ़ कहीं उच्चस्तरीय आदर्शों को नैतिक विशेषताओं को बहा न ले जाय—इसके लिये अविलम्ब कदम उठाने होंगे। देशवासियों में नीति एवं आदर्शों के प्रति आस्था उत्पन्न करने के लिये हर सम्भव प्रयास करने होंगे। सरकारी एवं गैर सरकारी दोनों ही स्तरों पर प्रचार तन्त्रों, रचनात्मक कार्यक्रमों के माध्यम से चरित्रनिष्ठा को उभारा एवं प्रोत्साहित किया जाय। अनीति के मार्ग पर चलने वाले, पारिवारिक, सामाजिक उत्तरदायित्वों के निर्वाह के प्रति कन्नी काटने वालों की भर्त्सना एवं सामाजिक बहिष्कार किया जाय। कानून ऐसे अनुदारों को प्रताड़ित करने के लिये दण्ड की व्यवस्था अपने स्तर पर करे और समाज ऐसे व्यक्तियों के प्रति उपेक्षा, तिरष्कार द्वारा विरोध प्रकट करे। सर्वत्र नीतिवानों, चरित्रवानों को प्रोत्साहित किया एवं सम्मान दिया जाय। सम्पत्ति एवं योग्यता से भी अधिक चरित्र बल को महत्व दिया जाय। इस दिशा में सर्वत्र प्रयास चल पड़े तो कोई कारण नहीं है कि वर्तमान अवांछनीय प्रवाह को उलटा न जा सके। अपनी गौरव गरिमा को प्राप्त करने के लिये हमें उच्चस्तरीय आदर्शों की पुनर्प्रतिष्ठा जन-जन के भीतर करनी होगी। अवांछनीयता की रोकथाम और समाज की सर्वांगीण प्रगति का मार्ग इसी प्रकार प्रशस्त होगा।
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