Books - सभ्यता, सज्जनता और सुसंस्कारिता का अभिवर्धन
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Language: HINDI
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सम्पन्नता नहीं, आदर्शवादिता को सम्मान मिले
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किसी भी मनुष्य अथवा समाज की उन्नति का लक्षण है सुख शान्ति और सम्पन्नता। यह तीनों बातें एक दूसरे पर उसी प्रकार निर्भर हैं जिस प्रकार किरणें सूर्य पर और सूर्य किरणों पर निर्भर है। जिस प्रकार किरणों के अभाव में सूर्य का अस्तित्व नहीं और सूर्य के अभाव में किरणों का अस्तित्व नहीं उसी प्रकार बिना सुख-शाँति के सम्पन्नता की सम्भावना नहीं और बिना सम्पन्नता के सुख-शान्ति का अभाव रहता है।
यदि गम्भीर दृष्टि से देखा जाय तो पता चलेगा कि आराम देह जीवन की सुविधायें सुख-शान्ति का कारण नहीं है बल्कि निर्विघ्न तथा निर्द्वन्द्व जीवन प्रवाह की स्निग्ध गति ही सुख-शान्ति का हेतु है। जिसका जीवन एक स्निग्ध तथा स्वाभाविक गति से बहता जा रहा है, सुख-शान्ति उसी को प्राप्त होती है। इसके विपरीत जो अस्वाभाविक एवं उद्वेगपूर्ण जीवन यापन करता है व दुखी और अशान्त रहता है। विविध प्रकार के कष्ट और क्लेश उसे घेरे रहते हैं। ऐसा व्यक्ति एक क्षण को भी सुख चैन के लिए कलपता रहता है। कभी उसे शारीरिक व्याधियाँ व्यस्त करती हैं तो कभी मानसिक यातनाओं से पीड़ित होता है।
जो बेचैन है, अशान्त है, पीड़ित है, वह सम्पन्नता उपार्जित करने के साधन जुटा ही नहीं सकता। उसे यातनाओं से संघर्ष करने से अवकाश ही नहीं मिलेगा। फिर भला वह सम्पन्नता का स्वप्न किस प्रकार पूर्ण कर सकता है। जो शान्त है, स्थिर है निर्द्वन्द्व है, वही कुछ कर सकने में समर्थ हो सकता है। यदि परिस्थितियों वश अथवा संयोगवश किसी को सम्पन्नता प्राप्त हो जाये तो अशान्त एवं व्यग्र व्यक्ति के लिये उसका कोई उपयोग नहीं जो वस्तु किसी के काम नहीं आती उसका होना भी उसके लिये न होने के समान ही है। अस्तु सम्पन्नता प्राप्त करने के लिये शान्तिपूर्ण परिस्थितियों की आवश्यकता है। और सुख-शान्ति के लिये सम्पन्नता की अपेक्षा है।
इस सम्पन्नता का अर्थ बहुत अधिक धन दौलत से न होने पर भी आवश्यकताओं की सहज पूर्ति से तो है ही। जो नितान्त निर्धन है, दरिद्री है वह सुख शान्ति के लिये कितना ही मानसिक उद्योग क्यों न करे? उसे प्राप्त नहीं कर सकता। जब भूख लगेगी तब वह किसी साधन, समाधि अथवा भजन-पूजन से दूर न होगी। उसके लिये तो भोजन की आवश्यकता होगी। क्षुधित मनुष्य कब तक अपना मानसिक संतुलन बनाये रखेगा, कब तक उसका विवेक उसे विकल होने से बचा सकेगा एक सीमा के बाद प्रज्ञावान से प्रज्ञावान व्यक्ति भी विचलित हो उठेगा। उपयुक्त आवश्यकताओं की समुचित पूर्ति और मनुष्य का अपना सन्तोष दोनों मिलकर किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति के लिये सम्पन्नता ही है। जो निःस्वार्थ, निर्लोभ और अलोलुप है वही वास्तव में सम्पन्न है, इसके विपरीत जो लालची है, अतिकाम है, लिप्सालु है, वह धनवान होने पर भी दरिद्री है, असम्पन्न है।
अच्छे-बुरे उपायों से, जिस प्रकार भी सम्भव हो, उसी प्रकार लोग धन अर्जित करने के लिये क्यों लालायित रहते हैं? इसलिए कि इन दिनों धनवान होना और सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त करने का माध्यम बन गया है। किसने कैसे कमाया? इसका कहीं विश्लेषण नहीं किया जाता। देखा यह जाता है कि कौन कितना सम्पन्न है? किसके पास विलासिता और ऐश्वर्य के कितने साधन उपलब्ध हैं? कसौटी पर जो धन सम्पन्न दिखाई देता है, लोग उसी का आदर करने लगते हैं तथा उसी का दबदबा मानने लगते हैं। धन और सम्पन्नता को मिलने वाली प्रतिष्ठा देखकर वे लोग भी भले-बुरे उपायों से अर्थोपार्जन करने लगते हैं जो कम सम्पन्न हैं या जिनकी आर्थिक स्थिति दुर्बल है।
सम्पन्नता को सम्मान मिलना बुरी बात नहीं है। इसका होना इस बात का द्योतक है कि व्यक्ति परिश्रमी, उद्यमी, पुरुषार्थी और साहसी है। लोग उसके इन गुणों का आदर करें, यह उचित है परन्तु जब केवल सम्पन्नता को ही सम्मान का एकमात्र आधार मान लिया जाता है तो अनर्थ वहीं से होने लगता है। वैसे सम्पन्न व्यक्ति को प्रतिष्ठा अर्जित करने, सम्मान और यश प्राप्त करने का कोई विशेष अधिकार नहीं है। सम्पन्न व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से धन कमायें और उससे मौज उड़ायें, इसी से उनके पुरुषार्थ का पुरस्कार मिल जाता है, जो पर्याप्त है। उन्हें थोड़ा-बहुत आदर दिया जा सकता है किन्तु सम्पन्नता की चकाचौंध से चकित होकर जो व्यक्ति ऐसे लोगों को किसी बहाने विशेष सम्मान या यश देने का प्रयत्न करते हैं वे देवग्रास को देवताओं से छीनकर कौरवों को देने जैसी विडम्बना रचता है। इसी प्रकार सम्पन्न व्यक्ति केवल अपने वैभव के आधार पर ही प्रतिष्ठा प्राप्त करने का प्रयत्न करता है तो वह भी अनुचित है।
स्मरण रखा जाना चाहिए कि सम्मान एक प्रकार का प्रोत्साहन है और यश लोगों को उस दिशा में प्रयत्नशील होने के लिये उत्तेजित करता है जिसमें कि यश मिलता है। प्रत्येक व्यक्ति के मन में यह ललक छिपी रहती है कि उसे सम्मान मिले, यश प्राप्त हो, लोग उसे सराहें तथा आदर की दृष्टि से देखें। जब किसी को सम्मान मिलता है तो लोग देखते हैं कि यह आदर किस लिये दिया जा रहा है। उनमें भी वही कुछ करते और वैसा बनने की उमंग उठती है, जिससे कि सम्मान प्राप्त हुआ। दुर्भाग्य से इन दिनों धन, सम्मान और प्रतिष्ठा का मापदण्ड बना हुआ है इसलिये हर किसी में धनवान बनने की होड़ मची हुई है। सम्पन्नता के लिए प्रयत्न करना अनुचित नहीं है, अनुचित है इसके लिये भले-बुरे सभी तरह के उचित-अनुचित उपायों का अपनाया जाना और जब धन को प्रतिष्ठा मिलने लगी तो नैतिक मूल्यों को भी ताक पर रखा जाने लगा है।
मध्यकाल में विजेता, सामन्त, जागीरदार यश और सम्मान के पात्र समझे जाते थे। उन्होंने अपनी यशगाथायें लिखाई और इसके लिए भाटों, चारणों को आजीविका दी। प्रशंसकों को पैसे के बल पर खरीदा। आदर्श के लिये युद्ध करना और उसमें विजय प्राप्त करना अथवा खेत रहना तो अभिनन्दनीय हो सकता है पर दूसरे पड़ौसी को निर्बल पाकर उसकी सम्पदा लूटने तथा युवा लड़कियों को, कुल-वधुओं को अपहृत कर ले जाने, प्रजा को रौंद डालने, स्वस्थ नर-नारियों को पकड़ कर ले जाने तथा उन्हें गुलाम बनाकर रखने की प्रवृत्ति हर दृष्टि से गर्हित ही है किन्तु उनकी प्रशंसा में जब काव्य लिखे जाने लगे, यशोगान गाये जाने लगे तो सामान्य जनों में भी वैसी ही दुष्प्रवृत्तियाँ पनपीं। परिणामस्वरूप मध्यकाल का अन्धकार युग आया जिसमें भारतीय समाज हर दृष्टि से दीन-दुर्बल बना। कई कुरीतियाँ पैदा हुई और लोगों के नैतिक एवं चारित्रिक स्तर में गिरावट आई।
सम्मान एक प्रकार का मूल्याँकन है और उपहार भी। मूल्याँकन इस बात का कि उस सम्मान का आदर्श क्या है और उपहार उसके लिये जिसने बिना कोई प्रत्यक्ष लाभ उठाये यह काम किया जिसके लिये वह सम्मानित हुआ। प्राचीन काल के स्वर्ण युग में सम्मान न तो विजेता सामन्तों या सम्राटों को दिया जाता था और न ही धनिकों को। मनीषियों ने उन दिनों यह परम्परा निर्धारित की थी कि अभिनन्दन केवल साधु-ब्राह्मणों का ही किया जाये। साधु अर्थात् पारमार्थिक प्रयोजनों के लिए पूर्णतया समर्पित लोक सेवी और ब्राह्मण अर्थात् चरित्रवान मानवी आदर्श का प्रतिनिधि। इन दो के अतिरिक्त क्षत्रिय और वैश्य लोक सम्मान या अभिनन्दन की दृष्टि से निषिद्ध ही रहे हैं।
शासक के पास सत्ता है, पद है, भय और लोभ से दूसरों को प्रभावित करने की सामर्थ्य है। उसके लिये बस इतना ही पर्याप्त है। लोक अभिनन्दन प्राप्त करने के लिए उसे लालायित नहीं होना चाहिए और न ही विचारशील व्यक्तियों को उसे अभिनन्दित करने की चेष्टा करनी चाहिए। धनिकों के लिए भी यही बात लागू होती है। कोई व्यक्ति अमीर बना, सम्पत्ति कमाई, धनवान और भाग्यवान कहलाया, उस अर्जित सम्पदा से उसके अहंकार की पूर्ति हुई, विलास-वैभव के साधन मिले। इसमें यश की बात? कोई उसकी प्रशंसा क्यों करे? उनसे कोई क्यों प्रभावित हो? उन्होंने जो कुछ प्रयत्न पुरुषार्थ किया, उसका लाभ उन्हें मिल गया।
सम्मान उन्हें दिया जाना चाहिए जिन्होंने अपनी भौतिक महत्वाकांक्षाओं से मुँह मोड़कर परमार्थ प्रयोजनों के लिए अपनी सामर्थ्य जुटा दी। जिन्होंने अपनी सारी सामर्थ्य, महत्वाकाँक्षा तथा सम्भावनाओं को परमार्थ के लिये लुटा दिया अभिनन्दन उनका किया जाना चाहिए। जिनका पुरुषार्थ अपने निज के लिये नहीं दूसरों के लिये काम आया और उच्च आदर्शों के लिए जिन्होंने स्वयं को खाली हाथ रखने के लिये तैयार रखा उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर कम से कम कुछ तो यह भार हलका किया जाना चाहिए। यह इस बात का भी द्योतक होगा कि जनमानस में उत्कृष्टता के लिये कम से कम श्रद्धा दे सकने की वृत्ति तो जीवित है। इससे उन त्यागी, परमार्थ-परायण नर शार्दूलों को भी सन्तोष होगा कि उनकी सेवा-साधना और निष्ठा समर्पण को स्वीकारा तथा महत्व दिया गया है।
इस तथ्य को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि आदर्शवादिता को जीवित रखने के लिये उसका उपहार लोकश्रद्धा के रूप में पूर्णतया सुरक्षित रहना चाहिये। सम्मान और प्रतिष्ठा केवल उन्हें ही मिले जिन्होंने मानवीय आदर्शों को जीवित रखने के लिये अपनी महत्वाकाँक्षाओं का गला घोटा। कहा जा चुका है कि सम्मान एक प्रोत्साहन है जो प्रस्तुत दिशा में अग्रसर होने की प्रेरणा देता है। इसके लिये आदर्शवादिता को अभिनन्दित करने की परिपाटी चलानी चाहिए तथा ऐसे आयोजनों का व्यापक प्रचलन करना चाहिए जिनमें आदर्शों को अपनाने वाले व्यक्तियों को सम्मान किया जाए ताकि अन्य लोगों को भी इस दिशा में बढ़ चलने की प्रेरणा मिल सके।
यदि गम्भीर दृष्टि से देखा जाय तो पता चलेगा कि आराम देह जीवन की सुविधायें सुख-शान्ति का कारण नहीं है बल्कि निर्विघ्न तथा निर्द्वन्द्व जीवन प्रवाह की स्निग्ध गति ही सुख-शान्ति का हेतु है। जिसका जीवन एक स्निग्ध तथा स्वाभाविक गति से बहता जा रहा है, सुख-शान्ति उसी को प्राप्त होती है। इसके विपरीत जो अस्वाभाविक एवं उद्वेगपूर्ण जीवन यापन करता है व दुखी और अशान्त रहता है। विविध प्रकार के कष्ट और क्लेश उसे घेरे रहते हैं। ऐसा व्यक्ति एक क्षण को भी सुख चैन के लिए कलपता रहता है। कभी उसे शारीरिक व्याधियाँ व्यस्त करती हैं तो कभी मानसिक यातनाओं से पीड़ित होता है।
जो बेचैन है, अशान्त है, पीड़ित है, वह सम्पन्नता उपार्जित करने के साधन जुटा ही नहीं सकता। उसे यातनाओं से संघर्ष करने से अवकाश ही नहीं मिलेगा। फिर भला वह सम्पन्नता का स्वप्न किस प्रकार पूर्ण कर सकता है। जो शान्त है, स्थिर है निर्द्वन्द्व है, वही कुछ कर सकने में समर्थ हो सकता है। यदि परिस्थितियों वश अथवा संयोगवश किसी को सम्पन्नता प्राप्त हो जाये तो अशान्त एवं व्यग्र व्यक्ति के लिये उसका कोई उपयोग नहीं जो वस्तु किसी के काम नहीं आती उसका होना भी उसके लिये न होने के समान ही है। अस्तु सम्पन्नता प्राप्त करने के लिये शान्तिपूर्ण परिस्थितियों की आवश्यकता है। और सुख-शान्ति के लिये सम्पन्नता की अपेक्षा है।
इस सम्पन्नता का अर्थ बहुत अधिक धन दौलत से न होने पर भी आवश्यकताओं की सहज पूर्ति से तो है ही। जो नितान्त निर्धन है, दरिद्री है वह सुख शान्ति के लिये कितना ही मानसिक उद्योग क्यों न करे? उसे प्राप्त नहीं कर सकता। जब भूख लगेगी तब वह किसी साधन, समाधि अथवा भजन-पूजन से दूर न होगी। उसके लिये तो भोजन की आवश्यकता होगी। क्षुधित मनुष्य कब तक अपना मानसिक संतुलन बनाये रखेगा, कब तक उसका विवेक उसे विकल होने से बचा सकेगा एक सीमा के बाद प्रज्ञावान से प्रज्ञावान व्यक्ति भी विचलित हो उठेगा। उपयुक्त आवश्यकताओं की समुचित पूर्ति और मनुष्य का अपना सन्तोष दोनों मिलकर किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति के लिये सम्पन्नता ही है। जो निःस्वार्थ, निर्लोभ और अलोलुप है वही वास्तव में सम्पन्न है, इसके विपरीत जो लालची है, अतिकाम है, लिप्सालु है, वह धनवान होने पर भी दरिद्री है, असम्पन्न है।
अच्छे-बुरे उपायों से, जिस प्रकार भी सम्भव हो, उसी प्रकार लोग धन अर्जित करने के लिये क्यों लालायित रहते हैं? इसलिए कि इन दिनों धनवान होना और सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त करने का माध्यम बन गया है। किसने कैसे कमाया? इसका कहीं विश्लेषण नहीं किया जाता। देखा यह जाता है कि कौन कितना सम्पन्न है? किसके पास विलासिता और ऐश्वर्य के कितने साधन उपलब्ध हैं? कसौटी पर जो धन सम्पन्न दिखाई देता है, लोग उसी का आदर करने लगते हैं तथा उसी का दबदबा मानने लगते हैं। धन और सम्पन्नता को मिलने वाली प्रतिष्ठा देखकर वे लोग भी भले-बुरे उपायों से अर्थोपार्जन करने लगते हैं जो कम सम्पन्न हैं या जिनकी आर्थिक स्थिति दुर्बल है।
सम्पन्नता को सम्मान मिलना बुरी बात नहीं है। इसका होना इस बात का द्योतक है कि व्यक्ति परिश्रमी, उद्यमी, पुरुषार्थी और साहसी है। लोग उसके इन गुणों का आदर करें, यह उचित है परन्तु जब केवल सम्पन्नता को ही सम्मान का एकमात्र आधार मान लिया जाता है तो अनर्थ वहीं से होने लगता है। वैसे सम्पन्न व्यक्ति को प्रतिष्ठा अर्जित करने, सम्मान और यश प्राप्त करने का कोई विशेष अधिकार नहीं है। सम्पन्न व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से धन कमायें और उससे मौज उड़ायें, इसी से उनके पुरुषार्थ का पुरस्कार मिल जाता है, जो पर्याप्त है। उन्हें थोड़ा-बहुत आदर दिया जा सकता है किन्तु सम्पन्नता की चकाचौंध से चकित होकर जो व्यक्ति ऐसे लोगों को किसी बहाने विशेष सम्मान या यश देने का प्रयत्न करते हैं वे देवग्रास को देवताओं से छीनकर कौरवों को देने जैसी विडम्बना रचता है। इसी प्रकार सम्पन्न व्यक्ति केवल अपने वैभव के आधार पर ही प्रतिष्ठा प्राप्त करने का प्रयत्न करता है तो वह भी अनुचित है।
स्मरण रखा जाना चाहिए कि सम्मान एक प्रकार का प्रोत्साहन है और यश लोगों को उस दिशा में प्रयत्नशील होने के लिये उत्तेजित करता है जिसमें कि यश मिलता है। प्रत्येक व्यक्ति के मन में यह ललक छिपी रहती है कि उसे सम्मान मिले, यश प्राप्त हो, लोग उसे सराहें तथा आदर की दृष्टि से देखें। जब किसी को सम्मान मिलता है तो लोग देखते हैं कि यह आदर किस लिये दिया जा रहा है। उनमें भी वही कुछ करते और वैसा बनने की उमंग उठती है, जिससे कि सम्मान प्राप्त हुआ। दुर्भाग्य से इन दिनों धन, सम्मान और प्रतिष्ठा का मापदण्ड बना हुआ है इसलिये हर किसी में धनवान बनने की होड़ मची हुई है। सम्पन्नता के लिए प्रयत्न करना अनुचित नहीं है, अनुचित है इसके लिये भले-बुरे सभी तरह के उचित-अनुचित उपायों का अपनाया जाना और जब धन को प्रतिष्ठा मिलने लगी तो नैतिक मूल्यों को भी ताक पर रखा जाने लगा है।
मध्यकाल में विजेता, सामन्त, जागीरदार यश और सम्मान के पात्र समझे जाते थे। उन्होंने अपनी यशगाथायें लिखाई और इसके लिए भाटों, चारणों को आजीविका दी। प्रशंसकों को पैसे के बल पर खरीदा। आदर्श के लिये युद्ध करना और उसमें विजय प्राप्त करना अथवा खेत रहना तो अभिनन्दनीय हो सकता है पर दूसरे पड़ौसी को निर्बल पाकर उसकी सम्पदा लूटने तथा युवा लड़कियों को, कुल-वधुओं को अपहृत कर ले जाने, प्रजा को रौंद डालने, स्वस्थ नर-नारियों को पकड़ कर ले जाने तथा उन्हें गुलाम बनाकर रखने की प्रवृत्ति हर दृष्टि से गर्हित ही है किन्तु उनकी प्रशंसा में जब काव्य लिखे जाने लगे, यशोगान गाये जाने लगे तो सामान्य जनों में भी वैसी ही दुष्प्रवृत्तियाँ पनपीं। परिणामस्वरूप मध्यकाल का अन्धकार युग आया जिसमें भारतीय समाज हर दृष्टि से दीन-दुर्बल बना। कई कुरीतियाँ पैदा हुई और लोगों के नैतिक एवं चारित्रिक स्तर में गिरावट आई।
सम्मान एक प्रकार का मूल्याँकन है और उपहार भी। मूल्याँकन इस बात का कि उस सम्मान का आदर्श क्या है और उपहार उसके लिये जिसने बिना कोई प्रत्यक्ष लाभ उठाये यह काम किया जिसके लिये वह सम्मानित हुआ। प्राचीन काल के स्वर्ण युग में सम्मान न तो विजेता सामन्तों या सम्राटों को दिया जाता था और न ही धनिकों को। मनीषियों ने उन दिनों यह परम्परा निर्धारित की थी कि अभिनन्दन केवल साधु-ब्राह्मणों का ही किया जाये। साधु अर्थात् पारमार्थिक प्रयोजनों के लिए पूर्णतया समर्पित लोक सेवी और ब्राह्मण अर्थात् चरित्रवान मानवी आदर्श का प्रतिनिधि। इन दो के अतिरिक्त क्षत्रिय और वैश्य लोक सम्मान या अभिनन्दन की दृष्टि से निषिद्ध ही रहे हैं।
शासक के पास सत्ता है, पद है, भय और लोभ से दूसरों को प्रभावित करने की सामर्थ्य है। उसके लिये बस इतना ही पर्याप्त है। लोक अभिनन्दन प्राप्त करने के लिए उसे लालायित नहीं होना चाहिए और न ही विचारशील व्यक्तियों को उसे अभिनन्दित करने की चेष्टा करनी चाहिए। धनिकों के लिए भी यही बात लागू होती है। कोई व्यक्ति अमीर बना, सम्पत्ति कमाई, धनवान और भाग्यवान कहलाया, उस अर्जित सम्पदा से उसके अहंकार की पूर्ति हुई, विलास-वैभव के साधन मिले। इसमें यश की बात? कोई उसकी प्रशंसा क्यों करे? उनसे कोई क्यों प्रभावित हो? उन्होंने जो कुछ प्रयत्न पुरुषार्थ किया, उसका लाभ उन्हें मिल गया।
सम्मान उन्हें दिया जाना चाहिए जिन्होंने अपनी भौतिक महत्वाकांक्षाओं से मुँह मोड़कर परमार्थ प्रयोजनों के लिए अपनी सामर्थ्य जुटा दी। जिन्होंने अपनी सारी सामर्थ्य, महत्वाकाँक्षा तथा सम्भावनाओं को परमार्थ के लिये लुटा दिया अभिनन्दन उनका किया जाना चाहिए। जिनका पुरुषार्थ अपने निज के लिये नहीं दूसरों के लिये काम आया और उच्च आदर्शों के लिए जिन्होंने स्वयं को खाली हाथ रखने के लिये तैयार रखा उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर कम से कम कुछ तो यह भार हलका किया जाना चाहिए। यह इस बात का भी द्योतक होगा कि जनमानस में उत्कृष्टता के लिये कम से कम श्रद्धा दे सकने की वृत्ति तो जीवित है। इससे उन त्यागी, परमार्थ-परायण नर शार्दूलों को भी सन्तोष होगा कि उनकी सेवा-साधना और निष्ठा समर्पण को स्वीकारा तथा महत्व दिया गया है।
इस तथ्य को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि आदर्शवादिता को जीवित रखने के लिये उसका उपहार लोकश्रद्धा के रूप में पूर्णतया सुरक्षित रहना चाहिये। सम्मान और प्रतिष्ठा केवल उन्हें ही मिले जिन्होंने मानवीय आदर्शों को जीवित रखने के लिये अपनी महत्वाकाँक्षाओं का गला घोटा। कहा जा चुका है कि सम्मान एक प्रोत्साहन है जो प्रस्तुत दिशा में अग्रसर होने की प्रेरणा देता है। इसके लिये आदर्शवादिता को अभिनन्दित करने की परिपाटी चलानी चाहिए तथा ऐसे आयोजनों का व्यापक प्रचलन करना चाहिए जिनमें आदर्शों को अपनाने वाले व्यक्तियों को सम्मान किया जाए ताकि अन्य लोगों को भी इस दिशा में बढ़ चलने की प्रेरणा मिल सके।