Books - सभ्यता, सज्जनता और सुसंस्कारिता का अभिवर्धन
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Language: HINDI
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प्रामाणिकता की जीवन के हर क्षेत्र में अनिवार्यता
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धन की महत्ता सार्थकता तब है जबकि उसे नीतियुक्त मार्ग से कमाया गया हो। अनीति पूर्वक उपार्जित धन भर्त्सना का पात्र है। चोरी, उठाईगीरी, डकैती, झूठ-फरेब आदि अनैतिक माध्यमों से भी उपार्जन करना सम्भव है। पर सिद्धान्ततः कोई भी विचारशील ऐसे उपार्जन माध्यमों का समर्थन नहीं करेगा। यहां तक कि चोर और डकैत भी नहीं चाहते कि उनके बच्चे बड़े होकर उनका धन्धा करें। आशय यह है ईमानदारी का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से समर्थन हर कोई करता, सैद्धांतिक तौर पर दिखाई पड़ता है। फिर बेईमानी क्यों बढ़ती है? मिलावट का बाजार क्यों अधिक गरम होता जा रहा है? आर्थिक अपराध क्यों बढ़ते जा रहे हैं? भ्रष्टाचार को आश्रय कहां से मिलता है? इन प्रश्नों पर गम्भीरता से विचार करने तथा कारणों के मूल में जाने पर महत्वपूर्ण सूत्र हाथ लगते हैं।
अन्यों की तुलना में कम समय में अधिक उपार्जन कर लेने की आतुरता ही आर्थिक अपराधों के पीछे प्रधान कारण होती है। दुर्भाग्य वश अन्य चारित्रिक विशेषताओं की अपेक्षा धन को अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। जन-सामान्य की मनोभूमि सम्पन्नता को अतिशय महत्व देती है। श्रमशीलता एवं प्रामाणिकता की कीमत पर अर्जित की गयी समृद्धि की परम्परा को प्रोत्साहित एवं अभिनन्दित किया जाना चाहिए, यह तो उचित है तथा समाज एवं देश के विकास के लिए आवश्यक भी। पर अनीति के मार्ग से बढ़ायी गयी समृद्धि की अभ्यर्थना की जाय, यह बात विवेक के गले नहीं उतरती। सम्पन्नता किस तरह हासिल की गयी तथा किस काम आयी इन दो कसौटियों पर सकने के उपरान्त किसी व्यक्ति विशेष को महत्व दिये जाने अथवा उपेक्षित किये जाने की परम्परा चल पड़े तो बढ़ते हुए आर्थिक अपराधों की रोकथाम में सहयोग मिल सकता है और नीतियुक्त उपार्जन की स्वस्थ परम्परा को प्रश्रय मिल सकता है।
समाज में प्रामाणिकता की तुलना में सम्पन्नता को अधिक महत्व मिलते देखकर अधिकांश व्यक्ति तो यह सोचते हैं कि जैसे भी हो सम्पन्न बनना चाहिए। ऐसी विचारधारा बचपन से ही पारिवारिक वातावरण से लेकर समाज में सर्वत्र उसे मिलती है। वह परिपक्व होती रहती तथा आगे चलकर सम्पन्न बनने के शॉर्टकट मार्ग—बेईमानी पर उतारू होने के लिए प्रेरित करती है। आर्थिक अपराध शास्त्र का यही मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त है, जो छोटे-बड़े विविध प्रकार के अर्थ अपराधों की ओर मनुष्य को और मनुष्य को उन्मुख करता है। एक जमाना था जब बुद्धि का इतना अधिक विकास नहीं हुआ था। सीमित प्रकार के आर्थिक अपराध होते थे। चोरी, डकैती, उठाईगीरी, आदि द्वारा दूसरों का धन हड़पने का प्रयास अपराधी करते थे पर बुद्धि के साथ-साथ ऐसे ही अपराधों में वृद्धि हुई जो कानून की पकड़ में तो शीघ्रता से नहीं आते पर समाज को भारी क्षति पहुंचाते हैं। परोक्षतः ये अपराध चोरी, डकैती आदि से कहीं अधिक खतरनाक हैं।
मिलावट एक ऐसा ही आपराधिक कृत्य है, जिसमें चोरी और डकैती की भांति प्रत्यक्ष धन शोषण की हानि तो नहीं दिखायी पड़ती पर कितने ही भयंकर दुष्परिणाम छोड़ती है। लाखों व्यक्ति इस कुटिल व्यापार के कारण प्रतिवर्ष अकाल मृत्यु के ग्रास बनते हैं। मिलावट युक्त वस्तुओं के उपभोक्ताओं में से करोड़ों को कितने ही गम्भीर रोगों का शिकार बनना पड़ता है। जन-जीवन को इतनी अधिक क्षति अन्य किसी से नहीं पहुंचती जितनी कि मिलावट के कुकृत्य से।
पैसे के लोभ में कितना घिनौना कृत्य मनुष्य कर सकता है, यह मिलावट के विभिन्न तरीकों को देखकर पता चलता है। खाद्यान्नों में यह व्यापार धड़ल्ले से चल रहा है। चावलों में सफेद कंकड़ आसानी से नहीं दिखायी देता। कुछ दिनों पूर्व पश्चिम बंगाल की एक चावल फैक्टरी में छापा मारकर हजारों बोरियां कंकड़ की पकड़ी गयीं जो चावलों के साथ मिलाकर बोरियों में भरी जा रही थीं। कुछ वर्षों पूर्व आटे में साफ्ट स्टोन पीसकर मिलाने का कुकृत्य मिलावट के व्यापारी करते थे पर कंकड़ों के मंगाने एवं पीसने का खर्च बाद में बढ़ गया। इसलिए वे अधिक सस्ती वस्तुओं की खोज में लग गए। उल्लेखनीय है कि साफ्ट स्टोन के सम्पर्क से दांत शीघ्र गिरते हैं। इस विजातीय द्रव्य के कारण पेचिश तथा अतिसार रोगों का जन्म होता है। अब आटे में कितने ही व्यवसायी भूसी व बारीक चूर्ण मिलाते पकड़े गये हैं। वेजिटेबल घी में तेल, चर्बी की मिलावट तो एक सामान्य बात हो गयी है। शुद्ध देशी घी की तो मात्र अब कल्पना की जा सकती है अन्यथा बाजारों में दुकानों पर लगे लम्बे चौड़े बोर्ड को मात्र देखकर सन्तोष किया जा सकता है। उपलब्ध घृत भण्डार की शुद्धता संदिग्ध है। सरसों के तेल में एक विशेष प्रकार का जंगली बीज का रस आसानी से घुल मिल जाता और सुगमता से पकड़ में नहीं आता। इन दिनों सरसों के तेल में व्यापक स्तर पर इस तरह की मिलावट हो रही है। जंगली बीज का मिला हुआ बह रस बेरी-बेरी जैसे भयानक रोगों को जन्म देता है।
मसालों के क्षेत्र में तो मिलावट के विशेषज्ञों ने अति कर दी है। स्वेच्छाचारिता सबसे अधिक मसालों की मिलावट में है। सड़ी-गली व्यर्थ हो गयी हल्दी को रंगने के लिये उसे तरोताजा और चमकीली बनाने के लिए क्रोमोट का घोल चढ़ाया जाता है। पिसी हुई हल्दी में भी उस घातक रसायन के अतिरिक्त घोड़े की लीद जैसी वस्तुएं मिलायीं हुई कितने ही स्थानों पर पकड़ी गयी हैं। लेड क्रोमेट यकृत तथा आंतों के लिए अत्यन्त हानिकारक है। जीरा में आजकल बड़े पैमाने पर लकड़ी का बुरादा मिलाया जाता है। पपीते के बीज को बिना चखे काली मिर्च में पहचानना आसान नहीं है। साबूदाना, पान में प्रयोग होने वाला कत्था भी शुद्धता की दृष्टि से निरापद नहीं रहा।
खाद्यान्नों का रंगों से सीधा सम्बन्ध है। रंग-बिरंगे विविध प्रकार के व्यंजनों में रंगों का प्रयोग किए जाने की परम्परा है। पर खाने वाले रंग तथा वस्तुओं को रंगने के लिये प्रयुक्त होने वाले रंगों में भारी अन्तर होता है। दोनों के निर्माण की प्रक्रियाएं अलग-अलग है। मीठा खाने का रंग वस्तुओं की रंगाई के काम में आने वाले रंगों की अपेक्षा कहीं अधिक महंगा पड़ता है। किन्तु बाजार में बिकने वाली मिठाइयों में दुकानदार सस्ते रंगों का प्रयोग करने लगे हैं। कुछ समय पूर्व कानपुर नगर पालिका के स्वास्थ्य विभाग ने खोमचों एवं दुकानों पर बिकने वाली मिठाइयों के नमूने की जांच की तो मालूम हुआ कि अधिकांश में कपड़ा रंगने वाले विविधरंगों का व्यापक पैमाने पर प्रयोग हुआ है। सर्वाधिक मिलावट आइसक्रीम तथा ठण्डे पेयों के रंगों की पायी गयी। भारत सरकार ने कुछ विशेष सिंथोटिक रंगों को ही खाद्य पदार्थों की अनुमति दी है। शीतल पेयों, मिठाइयां, आइसक्रीम, औषधियों तथा सौन्दर्य प्रसाधनों आदि में मुख्यतः जिन रंगों को मिलाने की छूट दी गयी है वे हैं फास्टरेइड, पौंस्यू 4 आर, एरीथ्रोसीन-एमरेंसनसेटयेलो (एफ.सी.एफ.) टारट्रेजीन, कारमोइसीन, इंडिगोकारमीन।
ये रंग अत्यन्त महंगे हैं। अतः इनके स्थान पर औरामीन, सूडान, लेडक्रोमे, मैलेकाइट ग्रीन, मेटेनिलयेलो अखाद्य रंगों का व्यापक स्तर पर प्रयोग किया जाने लगा है। अमेरिका के स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग से प्रकाशित एक रिपोर्ट में यह कहा गया कि एमरेंथ के प्रयोग से केंसर होने की सम्भावना अधिक रहती है। गर्भवती महिलाओं के भ्रूण को उसके प्रयोग से क्षति पहुंच सकती है। रिपोर्ट से सजग होकर अमेरिकी सरकार ने एमरेंथ पर पाबन्दी लगा दी। अन्यान्य विषैले रंग कितने ही प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक रोगों को जन्म देते हैं। लेड क्रोमेट अकार्बनिक रसायन से एनीमिया, होने का डर रहता है। बढ़ती हुई विकलांगता, कैंसर, तिल्ली एवं जिगर के रोगों को जन्म देने में इन अखाद्य रंगों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
गन्ना उत्पादन में विश्व की मूर्धन्य राष्ट्र होने हुए भी देश में चीनी की कमी बराबर बनी रहती है। खुले बाजार में उपलब्ध चीनी का भाव अत्यन्त ऊंचा है। ऐसी स्थिति में कितने ही दुकानदार लुक-छिपकर मिठाइयों तथा अन्य मीठे खाद्यान्नों में सैकरीन का प्रयोग करने लगे हैं। सैकरीन एक ऐसा कृत्रिम रसायन है जिसमें चीनी की अपेक्षा 550 गुनी अधिक मिठास होती है। गत दशक में विभिन्न देशों में हुए शोधों का निष्कर्ष है कि यह स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हानिकारक है। सन् 1973 में अमरीकी ‘फैडरलड्रग’ एजेन्सी ने सैकरीन के प्रभाव को जानने के लिए एक प्रयोग किया। कुछ चूहों को उनके आहार में सैकरीन की निश्चित मात्रा नियमित रूप से दी गई। अध्ययन में पाया गये कि उनमें से पचास प्रतिशत कैन्सर से तथा पच्चीस प्रतिशत ‘ब्लैडरट्यूमर’ से ग्रस्त हो गये। सैकरीन के हानिकारक प्रभावों को देखते हुए जापान, अमेरिका, कनाडा आदि देशों में उसके प्रयोग पर सख्ती से रोक लगा दी है। किन्तु अपने देश में ऐसी पाबन्दी अभी तक न लगने के कारण व्यवसायी वर्ग अधिक लाभ के लिए उसका उपयोग विपुल परिमाण में करते हैं।
यों तो मिलावट का जन्म तभी से हुआ माना जा सकता है जब से मनुष्य ने कच्चा आहार लेना बन्द कर उसे पकाने का तरीका अपनाना आरम्भ किया। जब कभी अपक्व भोजन किया जाता होगा, आहार में केवल फल शाक और अनाजों का ही प्रयोग किया जाता होगा तब तो किसी प्रकार मिलावट का प्रश्न ही नहीं रहता। पर जब से भोजन को पकाना आरम्भ किया गया और उसे पकाने योग्य बना कर बेचने का क्रम चला तब से उसमें मिलावट की सम्भावना उत्पन्न हुई। अब तक तो केवल अनाज, दालों और बने बनाये खाद्य पदार्थों में ही मिलावट की गुंजाइश रहती थी। पर जब से श्रम की बचत और समय की मितव्ययिता के ख्याल से रेडीमेड मसाले, बेसन आटा, तेल, घी और बनी बनायी खाद्य वस्तुओं का प्रयोग होने लगा तब से मिलावट की गुंजाइश और बढ़ गयी। गृहणियां आलस्यवश ही सही बाजार से पिसे-पिसाये मसाले और बनी बनायी दालें खरीदने लगीं और इस क्षेत्र में धन लोलुप सफेदपोश अपराधियों ने घुसपैठ की तभी से मिलावट अधिक बढ़ने लगी।
मिलावट अपराध है यह सभी कोई जानते हैं। दण्ड और कानून के उल्लंघन की सजा की तलवार तो मिलावट करने वालों पर हमेशा लटकती रहती हैं, पर वे जैसी कि आशा करते हैं, अधिक पैसा और मुनाफा मिलेगा ही पूरी नहीं होती। अर्थशास्त्र का सामान्य सिद्धान्त है कि कम मुनाफा लिया जाय और अधिक खपत की जाय तो ज्यादा लाभ होता है, अपेक्षाकृत अधिक मुनाफा कमाने के चक्कर में की खपत करने से ग्राहकों को प्रामाणिक वस्तु न मिलने के कारण उनका विश्वास उठ जाने से बिक्री घटेगी यह तो साधारण सी बात है। जिसे हर कोई समझता है। मिलावट करने वाला व्यापारी या दुकानदार अनैतिक व्यक्ति और अपराधी ही नहीं होता व्यापारिक दूर दर्शिता की दृष्टि से भी अन्धा ही सिद्ध होता है।
किसी भी वस्तु में कोई घटिया चीज मिलाते समय इस बात का ध्यान नहीं रखा जाता कि उसे खाने वाले के स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है। दुकानदार को तो अपने मुनाफे से ही मतलब रहता है। उन्हीं चीजों को घर के लोग भी प्रयोग में लाते हैं। जिससे मिलावट कर कमाया गया मुनाफा दवाओं और रोग के उपचारों में बराबर होता रहता है। कदाचित बेचने की अलग और घर पर प्रयोग करने की चीजें अलग-अलग रखी जाती हों तो भी यह नैतिक, व्यापारिक और कानूनी दृष्टि से अवांछनीय अदूरदर्शी और अपराधपूर्ण होता ही है।
विरोध सहयोग आर बहिष्कार के साथ-साथ हमें रचनात्मक दृष्टिकोण से भी सोचना चाहिए। वस्तुयें शुद्ध और मिलावट रहित मिलें इसके लिए उपभोक्ता अपने सहकारी भण्डार और दुकानें चालू कर सकते हैं। सरकार से भी इस दिशा में सहयोग मिल सकता है। स्वास्थ्य प्रद ताजी और शुद्ध वस्तुयें जनता को उपलब्ध कराने की व्यवस्था बनाना भी एक उत्कृष्ट समाज सेवा है मिलावट करने वाले व्यापारियों और उद्योगपतियों को सहयोग तथा प्रोत्साहन हमीं से मिलता है। मजदूर और नौकर के साथ उपभोक्ता भी तो हम ही हैं। यदि हम ही सहयोग न करें और न ऐसी वस्तुयें खरीदें तो दुकानदारों और व्यापारियों की क्या मजाल कि वे जबरन अपनी चीजें हमारे गले मढ़ दें। यदि हम उन्हें सहयोग न दें और उनका विरोध करें, सहयोग बन्द कर दें तो अकेला विक्रेता क्या कर सकता है।
मिलावट की समस्या का एक व्यवहारी समाधान यह भी हो सकता है कि उत्पादन का क्षेत्र व्यक्तिगत न रहकर सामाजिक बना दिया जाय। क्योंकि व्यक्तिगत क्षेत्र में इसका मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक मुनाफा रहता ऐसी स्थिति में कई बार आवश्यकता से अधिक वस्तुयें तैयार कर इकट्ठी कर ली जाती है। जो समय पर बिक नहीं पाती और काफी देर पड़े रहने से सड़ती-गलती जाती है। सड़ने-गलने से बचाने के लिए कई रासायनिक तरीके अपनाये जाते है। उन्हें सड़ने से भले ही बचा लें—पर उनमें बासीपन और विषाक्तता तो आ ही जाती है। व्यक्तिगत उत्पादन केन्द्रों में मिलावट करने की सुविधा भी काफी रहती है। क्योंकि यह सब परोक्ष में ही चलता है।
इसके विपरीत उत्पादन को सामूहिक क्षेत्र में ले जाने में सब सम्भावनायें निर्मूल हो जाती हैं। क्योंकि सामूहिक क्षेत्रों में उत्पादन लाभ के लिए किया जाता है। जहां लाभ नहीं उपादेयता ही दृष्टिकोण हो वहां सड़ने-गलने योग्य वस्तुयें बनायी ही नहीं जातीं। उपभोक्ताओं की मांग के अनुसार ही उत्पादन होता है और इतना तो होना ही चाहिए कि उत्पादन में लगी लागत किसी पर व्यक्तिगत रूप से न आये। सभी उपभोक्ता उसका व्यय भार उठायें। वही लाभ कमाने का दृष्टिकोण कहा जा सकता है, लागत खर्च निकालने का।
कुछ विचारशील और पढ़े लिखे उपभोक्ता मिल कर इस प्रकार की व्यवस्था आसानी से बना सकते हैं। सामान्य जनता को भी ऐसे संस्थानों से प्रामाणिक शुद्ध और ताजी वस्तुयें उचित दर पर मिलने का विश्वास हो जायगा तो कालान्तर में घाटे या आमदनी से अधिक खर्च का प्रश्न ही नहीं उठ सकता। इस प्रकार की व्यवस्था के लिए थोड़े बहुत विचारशील व्यक्तियों को जनहित की भावना से प्रेरित होकर आगे भर आने की आवश्यकता है।
प्रयोजनीय और खाद्य वस्तुओं से मिलावट रोकने के लिए लोकमत जागृत करने मिलावट करने वालों का विरोध, असहयोग बहिष्कार करने, तथा सहकारी उपभोक्ता स्टोर खोजने की आवश्यकता है और इससे भी आवश्यक है दृढ़ विश्वास, लगन, उत्साह और नुकसान उठाने का साहस करने की। तभी जन जीवन को रुग्ण बनाने वाले इस शोषण से बचाया जा सकेगा।
विश्व के अन्य देशों की तुलना में औसत आयु दर अपने देश की निम्नतम है। प्राप्त सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार देश के नागरिक की औसत आयु पचास वर्ष है। अमेरिका में यह औसत 60, रूस में 70 है। कुछ स्वास्थ्य विशारदों का मत है कि खाद्यान्नों में मिलावट से उत्पन्न होने वाली विषाक्तता धीरे-धीरे स्वास्थ्य की जड़े खोखली बनती है और निरन्तर मिलावटी खाद्यान्नों के खाते रहने से शरीर की जीवनी शक्ति कमजोर पड़ती आती है। शुद्ध आहार न मिल पाने के कारण कितने ही रोगों का प्रादुर्भाव होता है। आयु दर निम्नतम होने के कारण मिलावट को भी माना जाता है।
मिलावट के सन्दर्भ में ‘वीकलन्यूज’ नामक एक अमेरिकी पत्र लिखता है कि यह धन्धा भारत में अधिक प्रश्रय पा रहा है। कारण पत्र के सम्पादक ने यह बताया है कि शासकीय एवं गैर शासकीय सामूहिक स्तर पर मिलावट के विरुद्ध जिस सख्ती से कदम उठाया जाना चाहिए वह नहीं है। सामान्यतः इसे इतना बड़ा अपराध नहीं माना जाता जितना कि चोरी और डकैती को। जब मिलावट के कारण हजारों और लाखों व्यक्ति प्रति वर्ष अकाल मृत्यु मरते हैं। करोड़ों को शारीरिक तथा मानसिक व्याधियों से ग्रसित होना पड़ता है। हत्या आदि की घटनाओं में कुछ व्यक्तियों की मृत्यु होती है पर खाद्य पदार्थों में विजातीय द्रव्यों के सम्मिश्रण से लाखों को तिल-तिल तड़प कर मरना पड़ता है। उस अपराध को जघन्य अपराधों की श्रेणी में रखकर वैसी ही दण्ड की व्यवस्था बनायी जानी चाहिए। जैसा कि डकैती एवं हत्या के अपराधों के लिए है। मिलावट के धन्धे पर रोकथाम कर सकना भारत में तभी सम्भव है।’
कानूनी एवं प्रशासकीय स्तर पर तो ऐसी कठोर व्यवस्था बननी ही चाहिए। जनस्तर पर भी मिलावट के धन्धे में लगे व्यवसाइयों की भर्त्सना की जानी चाहिए। साथ ही ऐसी वैचारिक क्रान्ति की आवश्यकता है कि जन मानस अनीति से कमायी गयी सम्पन्नता की अपेक्षा ईमानदारी को अधिक प्रतिष्ठा दे। सम्मान यदि दिया ही जाय तो उन सम्पन्नों को जिन्होंने श्रमशीलता के आधार पर उपार्जन किया है तथा उसका सदुपयोग सदुद्देश्यों में कर रहे हैं। मिलावट ही नहीं उपार्जन के उन सभी अनैतिक स्रोतों को तिरस्कृत और हतोत्साहित किया जाना चाहिए जो समाज और देश के लिए हानिकारक हैं। श्रम और ईमानदारी से उपार्जित प्रामाणिक सम्पदा जो लोकहित में काम आये उसको ही सम्मानित किया जाना चाहिए।
अन्यों की तुलना में कम समय में अधिक उपार्जन कर लेने की आतुरता ही आर्थिक अपराधों के पीछे प्रधान कारण होती है। दुर्भाग्य वश अन्य चारित्रिक विशेषताओं की अपेक्षा धन को अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। जन-सामान्य की मनोभूमि सम्पन्नता को अतिशय महत्व देती है। श्रमशीलता एवं प्रामाणिकता की कीमत पर अर्जित की गयी समृद्धि की परम्परा को प्रोत्साहित एवं अभिनन्दित किया जाना चाहिए, यह तो उचित है तथा समाज एवं देश के विकास के लिए आवश्यक भी। पर अनीति के मार्ग से बढ़ायी गयी समृद्धि की अभ्यर्थना की जाय, यह बात विवेक के गले नहीं उतरती। सम्पन्नता किस तरह हासिल की गयी तथा किस काम आयी इन दो कसौटियों पर सकने के उपरान्त किसी व्यक्ति विशेष को महत्व दिये जाने अथवा उपेक्षित किये जाने की परम्परा चल पड़े तो बढ़ते हुए आर्थिक अपराधों की रोकथाम में सहयोग मिल सकता है और नीतियुक्त उपार्जन की स्वस्थ परम्परा को प्रश्रय मिल सकता है।
समाज में प्रामाणिकता की तुलना में सम्पन्नता को अधिक महत्व मिलते देखकर अधिकांश व्यक्ति तो यह सोचते हैं कि जैसे भी हो सम्पन्न बनना चाहिए। ऐसी विचारधारा बचपन से ही पारिवारिक वातावरण से लेकर समाज में सर्वत्र उसे मिलती है। वह परिपक्व होती रहती तथा आगे चलकर सम्पन्न बनने के शॉर्टकट मार्ग—बेईमानी पर उतारू होने के लिए प्रेरित करती है। आर्थिक अपराध शास्त्र का यही मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त है, जो छोटे-बड़े विविध प्रकार के अर्थ अपराधों की ओर मनुष्य को और मनुष्य को उन्मुख करता है। एक जमाना था जब बुद्धि का इतना अधिक विकास नहीं हुआ था। सीमित प्रकार के आर्थिक अपराध होते थे। चोरी, डकैती, उठाईगीरी, आदि द्वारा दूसरों का धन हड़पने का प्रयास अपराधी करते थे पर बुद्धि के साथ-साथ ऐसे ही अपराधों में वृद्धि हुई जो कानून की पकड़ में तो शीघ्रता से नहीं आते पर समाज को भारी क्षति पहुंचाते हैं। परोक्षतः ये अपराध चोरी, डकैती आदि से कहीं अधिक खतरनाक हैं।
मिलावट एक ऐसा ही आपराधिक कृत्य है, जिसमें चोरी और डकैती की भांति प्रत्यक्ष धन शोषण की हानि तो नहीं दिखायी पड़ती पर कितने ही भयंकर दुष्परिणाम छोड़ती है। लाखों व्यक्ति इस कुटिल व्यापार के कारण प्रतिवर्ष अकाल मृत्यु के ग्रास बनते हैं। मिलावट युक्त वस्तुओं के उपभोक्ताओं में से करोड़ों को कितने ही गम्भीर रोगों का शिकार बनना पड़ता है। जन-जीवन को इतनी अधिक क्षति अन्य किसी से नहीं पहुंचती जितनी कि मिलावट के कुकृत्य से।
पैसे के लोभ में कितना घिनौना कृत्य मनुष्य कर सकता है, यह मिलावट के विभिन्न तरीकों को देखकर पता चलता है। खाद्यान्नों में यह व्यापार धड़ल्ले से चल रहा है। चावलों में सफेद कंकड़ आसानी से नहीं दिखायी देता। कुछ दिनों पूर्व पश्चिम बंगाल की एक चावल फैक्टरी में छापा मारकर हजारों बोरियां कंकड़ की पकड़ी गयीं जो चावलों के साथ मिलाकर बोरियों में भरी जा रही थीं। कुछ वर्षों पूर्व आटे में साफ्ट स्टोन पीसकर मिलाने का कुकृत्य मिलावट के व्यापारी करते थे पर कंकड़ों के मंगाने एवं पीसने का खर्च बाद में बढ़ गया। इसलिए वे अधिक सस्ती वस्तुओं की खोज में लग गए। उल्लेखनीय है कि साफ्ट स्टोन के सम्पर्क से दांत शीघ्र गिरते हैं। इस विजातीय द्रव्य के कारण पेचिश तथा अतिसार रोगों का जन्म होता है। अब आटे में कितने ही व्यवसायी भूसी व बारीक चूर्ण मिलाते पकड़े गये हैं। वेजिटेबल घी में तेल, चर्बी की मिलावट तो एक सामान्य बात हो गयी है। शुद्ध देशी घी की तो मात्र अब कल्पना की जा सकती है अन्यथा बाजारों में दुकानों पर लगे लम्बे चौड़े बोर्ड को मात्र देखकर सन्तोष किया जा सकता है। उपलब्ध घृत भण्डार की शुद्धता संदिग्ध है। सरसों के तेल में एक विशेष प्रकार का जंगली बीज का रस आसानी से घुल मिल जाता और सुगमता से पकड़ में नहीं आता। इन दिनों सरसों के तेल में व्यापक स्तर पर इस तरह की मिलावट हो रही है। जंगली बीज का मिला हुआ बह रस बेरी-बेरी जैसे भयानक रोगों को जन्म देता है।
मसालों के क्षेत्र में तो मिलावट के विशेषज्ञों ने अति कर दी है। स्वेच्छाचारिता सबसे अधिक मसालों की मिलावट में है। सड़ी-गली व्यर्थ हो गयी हल्दी को रंगने के लिये उसे तरोताजा और चमकीली बनाने के लिए क्रोमोट का घोल चढ़ाया जाता है। पिसी हुई हल्दी में भी उस घातक रसायन के अतिरिक्त घोड़े की लीद जैसी वस्तुएं मिलायीं हुई कितने ही स्थानों पर पकड़ी गयी हैं। लेड क्रोमेट यकृत तथा आंतों के लिए अत्यन्त हानिकारक है। जीरा में आजकल बड़े पैमाने पर लकड़ी का बुरादा मिलाया जाता है। पपीते के बीज को बिना चखे काली मिर्च में पहचानना आसान नहीं है। साबूदाना, पान में प्रयोग होने वाला कत्था भी शुद्धता की दृष्टि से निरापद नहीं रहा।
खाद्यान्नों का रंगों से सीधा सम्बन्ध है। रंग-बिरंगे विविध प्रकार के व्यंजनों में रंगों का प्रयोग किए जाने की परम्परा है। पर खाने वाले रंग तथा वस्तुओं को रंगने के लिये प्रयुक्त होने वाले रंगों में भारी अन्तर होता है। दोनों के निर्माण की प्रक्रियाएं अलग-अलग है। मीठा खाने का रंग वस्तुओं की रंगाई के काम में आने वाले रंगों की अपेक्षा कहीं अधिक महंगा पड़ता है। किन्तु बाजार में बिकने वाली मिठाइयों में दुकानदार सस्ते रंगों का प्रयोग करने लगे हैं। कुछ समय पूर्व कानपुर नगर पालिका के स्वास्थ्य विभाग ने खोमचों एवं दुकानों पर बिकने वाली मिठाइयों के नमूने की जांच की तो मालूम हुआ कि अधिकांश में कपड़ा रंगने वाले विविधरंगों का व्यापक पैमाने पर प्रयोग हुआ है। सर्वाधिक मिलावट आइसक्रीम तथा ठण्डे पेयों के रंगों की पायी गयी। भारत सरकार ने कुछ विशेष सिंथोटिक रंगों को ही खाद्य पदार्थों की अनुमति दी है। शीतल पेयों, मिठाइयां, आइसक्रीम, औषधियों तथा सौन्दर्य प्रसाधनों आदि में मुख्यतः जिन रंगों को मिलाने की छूट दी गयी है वे हैं फास्टरेइड, पौंस्यू 4 आर, एरीथ्रोसीन-एमरेंसनसेटयेलो (एफ.सी.एफ.) टारट्रेजीन, कारमोइसीन, इंडिगोकारमीन।
ये रंग अत्यन्त महंगे हैं। अतः इनके स्थान पर औरामीन, सूडान, लेडक्रोमे, मैलेकाइट ग्रीन, मेटेनिलयेलो अखाद्य रंगों का व्यापक स्तर पर प्रयोग किया जाने लगा है। अमेरिका के स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग से प्रकाशित एक रिपोर्ट में यह कहा गया कि एमरेंथ के प्रयोग से केंसर होने की सम्भावना अधिक रहती है। गर्भवती महिलाओं के भ्रूण को उसके प्रयोग से क्षति पहुंच सकती है। रिपोर्ट से सजग होकर अमेरिकी सरकार ने एमरेंथ पर पाबन्दी लगा दी। अन्यान्य विषैले रंग कितने ही प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक रोगों को जन्म देते हैं। लेड क्रोमेट अकार्बनिक रसायन से एनीमिया, होने का डर रहता है। बढ़ती हुई विकलांगता, कैंसर, तिल्ली एवं जिगर के रोगों को जन्म देने में इन अखाद्य रंगों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
गन्ना उत्पादन में विश्व की मूर्धन्य राष्ट्र होने हुए भी देश में चीनी की कमी बराबर बनी रहती है। खुले बाजार में उपलब्ध चीनी का भाव अत्यन्त ऊंचा है। ऐसी स्थिति में कितने ही दुकानदार लुक-छिपकर मिठाइयों तथा अन्य मीठे खाद्यान्नों में सैकरीन का प्रयोग करने लगे हैं। सैकरीन एक ऐसा कृत्रिम रसायन है जिसमें चीनी की अपेक्षा 550 गुनी अधिक मिठास होती है। गत दशक में विभिन्न देशों में हुए शोधों का निष्कर्ष है कि यह स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हानिकारक है। सन् 1973 में अमरीकी ‘फैडरलड्रग’ एजेन्सी ने सैकरीन के प्रभाव को जानने के लिए एक प्रयोग किया। कुछ चूहों को उनके आहार में सैकरीन की निश्चित मात्रा नियमित रूप से दी गई। अध्ययन में पाया गये कि उनमें से पचास प्रतिशत कैन्सर से तथा पच्चीस प्रतिशत ‘ब्लैडरट्यूमर’ से ग्रस्त हो गये। सैकरीन के हानिकारक प्रभावों को देखते हुए जापान, अमेरिका, कनाडा आदि देशों में उसके प्रयोग पर सख्ती से रोक लगा दी है। किन्तु अपने देश में ऐसी पाबन्दी अभी तक न लगने के कारण व्यवसायी वर्ग अधिक लाभ के लिए उसका उपयोग विपुल परिमाण में करते हैं।
यों तो मिलावट का जन्म तभी से हुआ माना जा सकता है जब से मनुष्य ने कच्चा आहार लेना बन्द कर उसे पकाने का तरीका अपनाना आरम्भ किया। जब कभी अपक्व भोजन किया जाता होगा, आहार में केवल फल शाक और अनाजों का ही प्रयोग किया जाता होगा तब तो किसी प्रकार मिलावट का प्रश्न ही नहीं रहता। पर जब से भोजन को पकाना आरम्भ किया गया और उसे पकाने योग्य बना कर बेचने का क्रम चला तब से उसमें मिलावट की सम्भावना उत्पन्न हुई। अब तक तो केवल अनाज, दालों और बने बनाये खाद्य पदार्थों में ही मिलावट की गुंजाइश रहती थी। पर जब से श्रम की बचत और समय की मितव्ययिता के ख्याल से रेडीमेड मसाले, बेसन आटा, तेल, घी और बनी बनायी खाद्य वस्तुओं का प्रयोग होने लगा तब से मिलावट की गुंजाइश और बढ़ गयी। गृहणियां आलस्यवश ही सही बाजार से पिसे-पिसाये मसाले और बनी बनायी दालें खरीदने लगीं और इस क्षेत्र में धन लोलुप सफेदपोश अपराधियों ने घुसपैठ की तभी से मिलावट अधिक बढ़ने लगी।
मिलावट अपराध है यह सभी कोई जानते हैं। दण्ड और कानून के उल्लंघन की सजा की तलवार तो मिलावट करने वालों पर हमेशा लटकती रहती हैं, पर वे जैसी कि आशा करते हैं, अधिक पैसा और मुनाफा मिलेगा ही पूरी नहीं होती। अर्थशास्त्र का सामान्य सिद्धान्त है कि कम मुनाफा लिया जाय और अधिक खपत की जाय तो ज्यादा लाभ होता है, अपेक्षाकृत अधिक मुनाफा कमाने के चक्कर में की खपत करने से ग्राहकों को प्रामाणिक वस्तु न मिलने के कारण उनका विश्वास उठ जाने से बिक्री घटेगी यह तो साधारण सी बात है। जिसे हर कोई समझता है। मिलावट करने वाला व्यापारी या दुकानदार अनैतिक व्यक्ति और अपराधी ही नहीं होता व्यापारिक दूर दर्शिता की दृष्टि से भी अन्धा ही सिद्ध होता है।
किसी भी वस्तु में कोई घटिया चीज मिलाते समय इस बात का ध्यान नहीं रखा जाता कि उसे खाने वाले के स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है। दुकानदार को तो अपने मुनाफे से ही मतलब रहता है। उन्हीं चीजों को घर के लोग भी प्रयोग में लाते हैं। जिससे मिलावट कर कमाया गया मुनाफा दवाओं और रोग के उपचारों में बराबर होता रहता है। कदाचित बेचने की अलग और घर पर प्रयोग करने की चीजें अलग-अलग रखी जाती हों तो भी यह नैतिक, व्यापारिक और कानूनी दृष्टि से अवांछनीय अदूरदर्शी और अपराधपूर्ण होता ही है।
विरोध सहयोग आर बहिष्कार के साथ-साथ हमें रचनात्मक दृष्टिकोण से भी सोचना चाहिए। वस्तुयें शुद्ध और मिलावट रहित मिलें इसके लिए उपभोक्ता अपने सहकारी भण्डार और दुकानें चालू कर सकते हैं। सरकार से भी इस दिशा में सहयोग मिल सकता है। स्वास्थ्य प्रद ताजी और शुद्ध वस्तुयें जनता को उपलब्ध कराने की व्यवस्था बनाना भी एक उत्कृष्ट समाज सेवा है मिलावट करने वाले व्यापारियों और उद्योगपतियों को सहयोग तथा प्रोत्साहन हमीं से मिलता है। मजदूर और नौकर के साथ उपभोक्ता भी तो हम ही हैं। यदि हम ही सहयोग न करें और न ऐसी वस्तुयें खरीदें तो दुकानदारों और व्यापारियों की क्या मजाल कि वे जबरन अपनी चीजें हमारे गले मढ़ दें। यदि हम उन्हें सहयोग न दें और उनका विरोध करें, सहयोग बन्द कर दें तो अकेला विक्रेता क्या कर सकता है।
मिलावट की समस्या का एक व्यवहारी समाधान यह भी हो सकता है कि उत्पादन का क्षेत्र व्यक्तिगत न रहकर सामाजिक बना दिया जाय। क्योंकि व्यक्तिगत क्षेत्र में इसका मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक मुनाफा रहता ऐसी स्थिति में कई बार आवश्यकता से अधिक वस्तुयें तैयार कर इकट्ठी कर ली जाती है। जो समय पर बिक नहीं पाती और काफी देर पड़े रहने से सड़ती-गलती जाती है। सड़ने-गलने से बचाने के लिए कई रासायनिक तरीके अपनाये जाते है। उन्हें सड़ने से भले ही बचा लें—पर उनमें बासीपन और विषाक्तता तो आ ही जाती है। व्यक्तिगत उत्पादन केन्द्रों में मिलावट करने की सुविधा भी काफी रहती है। क्योंकि यह सब परोक्ष में ही चलता है।
इसके विपरीत उत्पादन को सामूहिक क्षेत्र में ले जाने में सब सम्भावनायें निर्मूल हो जाती हैं। क्योंकि सामूहिक क्षेत्रों में उत्पादन लाभ के लिए किया जाता है। जहां लाभ नहीं उपादेयता ही दृष्टिकोण हो वहां सड़ने-गलने योग्य वस्तुयें बनायी ही नहीं जातीं। उपभोक्ताओं की मांग के अनुसार ही उत्पादन होता है और इतना तो होना ही चाहिए कि उत्पादन में लगी लागत किसी पर व्यक्तिगत रूप से न आये। सभी उपभोक्ता उसका व्यय भार उठायें। वही लाभ कमाने का दृष्टिकोण कहा जा सकता है, लागत खर्च निकालने का।
कुछ विचारशील और पढ़े लिखे उपभोक्ता मिल कर इस प्रकार की व्यवस्था आसानी से बना सकते हैं। सामान्य जनता को भी ऐसे संस्थानों से प्रामाणिक शुद्ध और ताजी वस्तुयें उचित दर पर मिलने का विश्वास हो जायगा तो कालान्तर में घाटे या आमदनी से अधिक खर्च का प्रश्न ही नहीं उठ सकता। इस प्रकार की व्यवस्था के लिए थोड़े बहुत विचारशील व्यक्तियों को जनहित की भावना से प्रेरित होकर आगे भर आने की आवश्यकता है।
प्रयोजनीय और खाद्य वस्तुओं से मिलावट रोकने के लिए लोकमत जागृत करने मिलावट करने वालों का विरोध, असहयोग बहिष्कार करने, तथा सहकारी उपभोक्ता स्टोर खोजने की आवश्यकता है और इससे भी आवश्यक है दृढ़ विश्वास, लगन, उत्साह और नुकसान उठाने का साहस करने की। तभी जन जीवन को रुग्ण बनाने वाले इस शोषण से बचाया जा सकेगा।
विश्व के अन्य देशों की तुलना में औसत आयु दर अपने देश की निम्नतम है। प्राप्त सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार देश के नागरिक की औसत आयु पचास वर्ष है। अमेरिका में यह औसत 60, रूस में 70 है। कुछ स्वास्थ्य विशारदों का मत है कि खाद्यान्नों में मिलावट से उत्पन्न होने वाली विषाक्तता धीरे-धीरे स्वास्थ्य की जड़े खोखली बनती है और निरन्तर मिलावटी खाद्यान्नों के खाते रहने से शरीर की जीवनी शक्ति कमजोर पड़ती आती है। शुद्ध आहार न मिल पाने के कारण कितने ही रोगों का प्रादुर्भाव होता है। आयु दर निम्नतम होने के कारण मिलावट को भी माना जाता है।
मिलावट के सन्दर्भ में ‘वीकलन्यूज’ नामक एक अमेरिकी पत्र लिखता है कि यह धन्धा भारत में अधिक प्रश्रय पा रहा है। कारण पत्र के सम्पादक ने यह बताया है कि शासकीय एवं गैर शासकीय सामूहिक स्तर पर मिलावट के विरुद्ध जिस सख्ती से कदम उठाया जाना चाहिए वह नहीं है। सामान्यतः इसे इतना बड़ा अपराध नहीं माना जाता जितना कि चोरी और डकैती को। जब मिलावट के कारण हजारों और लाखों व्यक्ति प्रति वर्ष अकाल मृत्यु मरते हैं। करोड़ों को शारीरिक तथा मानसिक व्याधियों से ग्रसित होना पड़ता है। हत्या आदि की घटनाओं में कुछ व्यक्तियों की मृत्यु होती है पर खाद्य पदार्थों में विजातीय द्रव्यों के सम्मिश्रण से लाखों को तिल-तिल तड़प कर मरना पड़ता है। उस अपराध को जघन्य अपराधों की श्रेणी में रखकर वैसी ही दण्ड की व्यवस्था बनायी जानी चाहिए। जैसा कि डकैती एवं हत्या के अपराधों के लिए है। मिलावट के धन्धे पर रोकथाम कर सकना भारत में तभी सम्भव है।’
कानूनी एवं प्रशासकीय स्तर पर तो ऐसी कठोर व्यवस्था बननी ही चाहिए। जनस्तर पर भी मिलावट के धन्धे में लगे व्यवसाइयों की भर्त्सना की जानी चाहिए। साथ ही ऐसी वैचारिक क्रान्ति की आवश्यकता है कि जन मानस अनीति से कमायी गयी सम्पन्नता की अपेक्षा ईमानदारी को अधिक प्रतिष्ठा दे। सम्मान यदि दिया ही जाय तो उन सम्पन्नों को जिन्होंने श्रमशीलता के आधार पर उपार्जन किया है तथा उसका सदुपयोग सदुद्देश्यों में कर रहे हैं। मिलावट ही नहीं उपार्जन के उन सभी अनैतिक स्रोतों को तिरस्कृत और हतोत्साहित किया जाना चाहिए जो समाज और देश के लिए हानिकारक हैं। श्रम और ईमानदारी से उपार्जित प्रामाणिक सम्पदा जो लोकहित में काम आये उसको ही सम्मानित किया जाना चाहिए।