Books - विज्ञान एवं अध्यात्म का समन्वित स्वरूप
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Language: HINDI
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जड़ और चेतन एक दूसरे से पृथक हैं ही नहीं
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इन दिनों अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय की चर्चा विज्ञ-समाज में सर्वत्र होती रहती है। इतने पर भी यह नहीं उजागर किया जाता कि उस प्रतिपादन का उद्देश्य और स्वरूप क्या है? और क्यों इसकी आवश्यकता समझी जा रही है?
वस्तुतः प्रश्न ही तद्-विषयक भ्रान्ति पर आधारित है। विज्ञान और अध्यात्म सदा से एक दूसरे के पूरक रहे हैं, विलग होने पर कोई भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाये नहीं रह सकता है। अस्तित्व किसी रूप में बने भी रहें तो उनमें से किसी की भी उपयोगिता का प्रमाण नहीं मिल सकता। सौर मण्डल को ही लें, उसमें नौ ग्रह और तैंतीस उपग्रह अब तक प्रकाश में आ चुके हैं। अगले दिनों इस संख्या में और भी अभिवृद्धि होने वाली है, अविज्ञातों को खोजा-निकाला जा रहा है। उस परिवार के किसी घटक में बुद्धिमान प्राणियों का अस्तित्व नहीं पाया गया है। इसका कारण एक ही हो सकता है कि या तो वहां जीवधारी इच्छाशक्ति से अनुकूल वातावरण बना नहीं सके अथवा प्रकृति की प्रतिकूलता के कारण वहां प्राणियों की समर्थ प्रजातियों का उद्भव संभव नहीं हो सका, इसे जड़ और चेतन की विलगता कह सकते हैं। ब्रह्माण्ड के अन्य ग्रह गोलकों की भी यही स्थिति रही होगी, जहां जीवन रहा होगा वहां सुविधा, समृद्धि और प्रगति के अनेक आधार खड़े हुए होंगे। पदार्थ को तोड़-मरोड़ कर खींच-घसीट कर जीवधारियों के लिए काम आ सकने योग्य बनाया गया होगा, इसके अभाव में पदार्थ अपनी अनगढ़ स्थिति में ही पड़ा होगा, वहां नीरवता के अतिरिक्त और कुछ भी दृष्टिगोचर न रहा होगा। इसका तात्पर्य यही है कि जड़-चेतन के मध्य वहां तालमेल बनने का सुयोग नहीं बन सका। जहां वह व्यवस्था रही है वहां हर परिस्थिति में जीवधारियों ने अपना अस्तित्व बनाये रखने और विभिन्न प्रकार की हलचलें करते रहने का प्रमाण दिया है।
पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव में असाधारण शीत है, फिर भी इन दोनों क्षेत्र में जीवधारियों के अपने-अपने ढंग के क्रिया-कलाप पाये गये हैं। इस सुयोग के अभाव में समुद्र के मध्य उठे हुए अनेक द्वीप अभी भी सुनसान पड़े हैं। वहां छोटे जीव-जन्तु भर किसी प्रकार जन्मे और बढ़ सके हैं। जड़ और चेतन के युग्म को ही विज्ञान और अध्यात्म की संज्ञा दी जाती है। जहां अकेला एक हो वहां निस्तब्धता के अतिरिक्त और क्या पाया जा सकता है, जलजीव भी उसी सुयोग का परिणाम है। आकाश में उड़ते रहने वाले जीवाणु-विषाणु आदि भी इसी तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि दोनों का मिलन ही उपयोगी हलचलों का केन्द्र हो सकता है। इससे प्रमाणित होता है कि जड़ और चेतन का मिलन ही हलचलों का केन्द्र है और वे महत्वपूर्ण तब बनती हैं जब उन दोनों को उभारने-सुधारने वाला विज्ञान एवं अध्यात्म उपयोगी सीमा तक विकसित हो सकता हो।
यह समन्वय-सुयोग अनादि और अनन्त है, जहां वे दोनों बिछुड़ जायं तो सर्वत्र न सही उस क्षेत्र में तो प्रलय के सूखे-गीले, गरम-ठण्डे दृश्य दिखाई ही देंगे। इसलिए दोनों के समन्वय के प्रश्न को उभारने में कोई प्रत्यक्ष दम नहीं है।
यदि सचेतन प्राणियों की उत्पत्ति से पूर्वकाल पर दृष्टि डाली जाय तो भी आदि कारण को खोजते-खोजते वहां पहुंचना पड़ेगा जहां चेतन की इच्छा या प्रेरणा के उपरान्त पदार्थ का अस्तित्व प्रकाश में आया। श्रुति वचनों में उसका उल्लेख भर है—‘एकोहम् बहुस्यामि’ सूत्र में यही प्रतिपादन है कि सृष्टा को शून्य स्थिति में रहना अखरा तो उसने इच्छा की, ‘एक से बहुत हो जाऊं, फलतः परा और अपरा प्रकृति के रूप में दो प्रवाह फूट पड़े और सृष्टि का आरम्भ हो गया। ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि के रचे जाने का अलंकारिक मिथक भी प्रकारान्तर से इसी स्थिति पर प्रकाश डालता है। इस प्रकार शास्त्र वचनों में भी इसी वस्तुस्थिति को उजागर किया गया है—‘ऋतं च सत्यं च....’ आदि वर्णनों में भी इसी उपक्रम का विस्तार किया गया है, यह अध्यात्म प्रधान पक्ष का प्रतिपादन हुआ।
पदार्थ विद्या भले ही अपने परिकर द्वारा ही विश्व को ओत-प्रोत सिद्ध करे, उसी को प्रधान माने—फिर भी यह स्वीकार किये बिना उनका कथन भी समग्र नहीं बन पड़ता कि कोई अदृश्य इच्छा शक्ति पदार्थ सत्ता का उद्भव, संचालन, अभिवर्धन और परिवर्तन जैसे खेल खिला रही है। यहां हर पदार्थ के पीछे एक सुव्यवस्था का समावेश है। परमाणु, जीवाणु, विषाणु स्तर के अदृश्य घटकों को भी किसी सुनियोजित रीति-नीति का प्रतिपादन करने के लिए विवश रहना पड़ता है। यदा-कदा उच्छृंखलता दीख पड़ती है, वह भी किन्हीं सशक्त नियमों के आधार पर ही दृश्यमान होती है, भले ही उन नियमों के सम्बन्ध में मनुष्य की जानकारी, कुछ आभास पाने तक ही सीमित क्यों न रही हो? पोले आकाश में असंख्य ग्रह गोलकों, वाष्पीभूत महामेघों के चक्रवातों की इकाइयां अधर में टंगी हुई हैं। गतिशीलता उनमें आकर्षण शक्ति बनाये हुए है, सबके बीच एक अत्यन्त सुव्यवस्थित क्रिया-प्रक्रिया काम कर रही है और अणु से लेकर विभु तक के पसरे वैभव का इस प्रकार संचालन किए हुए है कि उसे अकारण नहीं कह सकते, उसके पीछे निश्चित ही कोई सुनियोजित चेतना तालमेल बिठाये हुए है।
वनस्पतियों, प्राणियों, सूक्ष्म जीवियों, जलचरों की जीवन लीला और गतिविधियों पर गम्भीरतापूर्वक दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि यह सब आकस्मिक रूप से नहीं चल रहा है। हर घटक के पीछे कोई उच्चस्तरीय बुद्धिमत्ता काम कर रही है अन्यथा बिखराव और टकराव का ऐसा माहौल दीख पड़ता, जिसके कारण उत्पन्न हुई अव्यवस्था और अराजकता उड़ते गुबार के अतिरिक्त और कुछ भी दीख न पड़ती। किसी पदार्थ का कोई स्वरूप ही न बन पाता और न वह कुछ क्षणार्ध तक स्थिर ही रह पाता। सचेतन ही अचेतन पर नियन्त्रण कर सकता है। पदार्थ की छोटी इकाई के अन्तर्गत जिस प्रकार जितने परिकर काम करते और अपनी धुरी कक्षा में भ्रमण करते देखे जाते हैं, उनसे स्पष्ट है कि यह नियमित अनुशासन भी किसी व्यापक सत्ता का ही इच्छापूर्वक अवस्था के अन्तर्गत रखा गया खेल है। प्राणियों के शरीरों में देखे जाने वाले अंग-अवयव, रसायन-जीवाणु अपने-अपने कार्य में इतने अधिक तल्लीन हैं मानो किसी ने उन्हें किसी आश्चर्यजनक कम्प्यूटर की तरह सुनियोजित किया हो। प्राणियों को क्षुधा निवृत्ति और वंश-वृद्धि के कर्मों में इस प्रकार जोता हुआ है कि वे अपनी व्यस्त जीवनचर्या को सरसतापूर्वक पूर्ण करते रह सकें। इन दोनों प्रयोजनों के लिए आवश्यक साधनों का सृजन भी इस प्रकार किया गया है कि वे हर किसी को सरलतापूर्वक उपलब्ध हो सकें। इतना ही नहीं ऋतुचक्र भी इस प्रकार का विनिर्मित है कि उससे निबटने के लिए हर जीवधारी को अपने कौशल का, समुचित अभिवर्धन करने का अवसर प्राप्त होता रहे। वनस्पतियों और प्राणियों का एक दूसरे का पूरक बनकर रहना भी कितना विचित्र है कि यह विश्वास किये बिना रहा नहीं जाता कि यह समस्त विस्तार किसी बुद्धिमान तन्त्र के संरक्षण में चल रहा है।
शास्त्रीय प्रतिपादनों से लेकर वैज्ञानिक अनुसंधानों तक को अपने-अपने ढंग से एक ही निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ा है कि पदार्थ का उत्पादन और उसका क्रमबद्ध नियमन किसी सचेतन सत्ता का ही खेल है। इस प्रकार जड़ और चेतन दोनों का अत्यन्त सुव्यवस्थित होना सहज सिद्ध है, साथ ही यह भी प्रकट है कि दोनों पक्ष एक दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं जिसे सर्वथा जड़ समझा जाता है वह भी मृत नहीं है। पाषाण शिलायें और धातु खण्ड भी अपने अन्तराल में किसी स्तर का जीवन धारण किये हुये हैं और वे घटते, बढ़ते, बदलते रहते हैं। पूर्ण निर्जीव कहा जा सके, ऐसा तो यहां कुछ भी नहीं है। अग्नि का ज्वलन्त ज्वाल भाल भी नहीं। समुद्र के ज्वार-भाटे तक नहीं। पदार्थ में सन्निहित ‘गति या शक्ति’ एक सुनियोजित व्यवस्था क्रम के साथ इस प्रकार जुड़ी हुई है कि वे राई रत्ती भर भी व्यतिरेक बरतने की स्थिति में नहीं है। प्राणियों की संख्या-वृद्धि को नियन्त्रित रखने से लेकर उनके निर्वाह साधन जुटाने तक की सुव्यवस्था इस प्रकार बनी हुई है कि आश्चर्य होता है कि यह उपक्रम किस प्रकार बन गया। हर प्राणी की चेतना इस ढांचे में ढली है कि वे सुखपूर्वक जिये और दूसरों को सुव्यवस्थित रखने में योगदान कर सके।
चेतना का अस्तित्व सुनिश्चित है, वह ब्रह्माण्डव्यापी विराट् भी है और प्रत्येक प्राणी तथा परमाणु में अपने अस्तित्व का सुनियोजन के आधार पर परिचय भी देती है। इसी प्रकार पदार्थ को उसके विभिन्न रूपों में विद्यमान देखा जा सकता है। वायुभूत होने पर वह दृष्टिगोचर भले ही न होती हो, पर उसका परिचय तो ठोस द्रव और गैस के रूप में विद्यमान है ही, दोनों के बीच सघनता भी इतनी है कि एक के बिना दूसरे का काम चल ही नहीं सकता। उनका अस्तित्व भी जाना और समझा नहीं जा सकता, विलग होने की स्थिति में यहां कुछ भी शेष न रहेगा। ताप, शब्द और प्रकाश की जो तरंगें काम करती हैं जड़ चेतन को एक सूत्र में बांधती हैं, उनका भी कहीं अता-पता न चलेगा। क्षीरसागर में विष्णु के सो जाने पर महाप्रलय हो जाता है, क्षीरसागर और विष्णु जड़ चेतन के यही दो समन्वय अन्त में रह जाते हैं। आरम्भ में भी कमल पुष्प पर बैठे ब्रह्मा द्वारा सृष्टि सृजन का यही तात्पर्य है कि ब्रह्म और प्रकृति वैभव का मिल-जुलकर बना आधार ही सृष्टि के सृजन का मूल कारण बना।
कोई जड़ ऐसा नहीं है जिसमें चेतना को कोई न कोई अंश विद्यमान न हो। पत्थरों तक में मन्दगामी हलचल होती है, धातुओं तक को जंग लगती और क्षरण-परिवर्तन होता है। समुद्र उफनते हैं, हवा में अन्धड़ चलते हैं, पृथ्वी में भूकम्प आते हैं, आकाश में इन्द्रधनुष देखे जाते हैं, पानी बरसता है, भाप उड़ती है, मौसम बदलते हैं। इन सबके साथ एक सूक्ष्म नियम व्यवस्था काम करती है, उसे सचेतन का ही प्रकार कहा जा सकता है। पड़ी लकड़ी में से कुकुरमुत्ते उग पड़ते हैं, गोबर-कीचड़ में कृमियों का जन्म होने लगता है। यह सब तथ्य बताते हैं कि जड़ नितान्त निर्जीव एवं गति विहीन नहीं है। इसी प्रकार चेतन के सम्बन्ध में भी यही कहा जा सकता है कि उसका स्वरूप देखना तो दूर कल्पना तक कर सकना कठिन है। उथली चेतना होने के कारण मनुष्येत्तर प्राणी ईश्वर के स्वरूप और नियमों के सम्बन्ध में कोई कल्पना तक नहीं कर सकते। मनुष्य भी निष्कलंक ब्रह्म के सम्बन्ध में अपनी सुनिश्चित आस्था नहीं जमा पाता। धर्म धारणा और ध्यान साधना के माध्यम से ईश्वर के साथ सम्बन्ध जोड़ने की प्रक्रिया में उसे किसी न किसी आकार को कहीं न कहीं ठहरा हुआ कल्पित करना पड़ता है। विभिन्न सम्प्रदायों और साधना परम्पराओं ने ईश्वर का कोई न कोई ऐसा स्वरूप निर्धारित किया है, जिसका ध्यान बन पड़े और उसके साथ भक्ति-भावना का आरोपण सम्भव हो सके, नितान्त निराकार की कल्पना तक नहीं बन पड़ती। वेदान्त तक में, आत्म स्वरूप में ईश्वर की ज्योति प्रकाशित होने की मान्यता है। इसके बिना तद्-विषयक कोई चिन्तन-चेतना उभरती ही नहीं, निराकार मत वाले भी प्रकाश ज्योति को ईश्वर का स्वरूप मानकर काम चलाते हैं।
चेतन और जड़ का दो भागों में वर्गीकरण करते हुए इस तथ्य को समझने में सुविधा पड़ती है, पर वह वर्गीकरण ऐसा नहीं हो सकता जो नितान्त एकाकी हो। न तो हलचलों से, गणों से, सामर्थ्यों से रहित किसी जड़-पदार्थ की उपस्थिति ढूंढ़ी जा सकती है और न सर्वव्यापी ब्रह्म चेतना का स्वरूप विवेचन सम्भव है। ईश्वर को भी किसी नियम व्यवस्था से अनुशासित-अनुप्राणित ही माना जाता है, उसके अनुग्रह और कोप की मान्यता को हृदयंगम किया जाता है। स्वर्ग में, मुक्ति में उसके वैभव से मिल-जुलकर रहने की कल्पना है। भक्तजन ईश्वर से भी बदले में अपनी जैसी प्रेम भावना उपलब्ध होने की मान्यता अपनाये रहते हैं।
उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन—यह तीन गतिविधियां प्रत्येक पदार्थ और प्राणी में अनवरत रूप से होती रही हैं। इन हलचलों का केन्द्र सजीव सत्ता ही हो सकता है। वैज्ञानिक, परमाणुओं से बनी इस सृष्टि को मानते हैं, परमाणुओं का ढांचा भी सौरमण्डल जैसा है, उसके अन्तर्गत अनेकों इलेक्ट्रॉन-प्रोट्रॉन जैसे घटक ग्रह-उपग्रहों की भांति धुरी और कक्षा में दौड़ते रहते हैं। उनकी क्रिया-प्रक्रिया में जो तारतम्य रहता है उसे देखते हुए भी यही कहा जा सकता है कि गति, शक्ति और अनुशासन, निर्जीव पदार्थ अपने संबंध में स्वयं ही स्थापित और निर्धारित नहीं कर सकता।
इकोलॉजी सिद्धान्त के अनुसार समूची विश्व व्यवस्था में अति सघनता के साथ अनुशासन का समावेश है। सर्वत्र व्यवस्था ही व्यवस्था है, यहां तक की यदाकदा भूकम्प-तूफान जैसे व्यतिक्रम जो दीख पड़ते हैं वे भी उन विशिष्ट नियमों के साथ जुड़े हुए हैं जिनका मनुष्य की समझ अभी तक पूरी तरह पता नहीं लगा पाई है। जड़ को अव्यवस्थित होना चाहिए, किन्तु यहां किसी को भी वैसी छूट नहीं मिली हुई है। शरीर के जीवाणु, तन्तु ऊतक, घटक इस क्रमबद्धता का परिचय देते हैं कि कायिक ढांचा तक नियमबद्ध है। मनुष्य कभी-कभी नैतिक नियमों का उल्लंघन कर तात्कालिक लाभ उठाता देखा जाता है। इससे कर्मफल की व्यवस्था में संदेह होता है, पर कुछ ही समय में क्रिया की प्रतिक्रिया सामने आकर रहती है—इससे विदित है कि जड़ और चेतन का पारस्परिक समन्वय अविच्छिन्न है।
पदार्थ का प्रतिनिधित्व विज्ञान करता है और चेतना का अध्यात्म, दोनों के बीच सघन समन्वय न रहने पर तो यहां कुछ भी बन या चल न सकेगा। ऐसी दशा में यह मान्यता गलत है कि दोनों सत्तायें एक दूसरे से पृथक हैं, ऐसी दशा में यह चर्चा भी बाल-विनोद जैसी लगती है कि अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय होना चाहिए। जो विलग हैं ही नहीं, उनका समन्वय करने की आवश्यकता और चेष्टा भी किस प्रकार बन पड़ेगी?
वस्तुतः प्रश्न ही तद्-विषयक भ्रान्ति पर आधारित है। विज्ञान और अध्यात्म सदा से एक दूसरे के पूरक रहे हैं, विलग होने पर कोई भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाये नहीं रह सकता है। अस्तित्व किसी रूप में बने भी रहें तो उनमें से किसी की भी उपयोगिता का प्रमाण नहीं मिल सकता। सौर मण्डल को ही लें, उसमें नौ ग्रह और तैंतीस उपग्रह अब तक प्रकाश में आ चुके हैं। अगले दिनों इस संख्या में और भी अभिवृद्धि होने वाली है, अविज्ञातों को खोजा-निकाला जा रहा है। उस परिवार के किसी घटक में बुद्धिमान प्राणियों का अस्तित्व नहीं पाया गया है। इसका कारण एक ही हो सकता है कि या तो वहां जीवधारी इच्छाशक्ति से अनुकूल वातावरण बना नहीं सके अथवा प्रकृति की प्रतिकूलता के कारण वहां प्राणियों की समर्थ प्रजातियों का उद्भव संभव नहीं हो सका, इसे जड़ और चेतन की विलगता कह सकते हैं। ब्रह्माण्ड के अन्य ग्रह गोलकों की भी यही स्थिति रही होगी, जहां जीवन रहा होगा वहां सुविधा, समृद्धि और प्रगति के अनेक आधार खड़े हुए होंगे। पदार्थ को तोड़-मरोड़ कर खींच-घसीट कर जीवधारियों के लिए काम आ सकने योग्य बनाया गया होगा, इसके अभाव में पदार्थ अपनी अनगढ़ स्थिति में ही पड़ा होगा, वहां नीरवता के अतिरिक्त और कुछ भी दृष्टिगोचर न रहा होगा। इसका तात्पर्य यही है कि जड़-चेतन के मध्य वहां तालमेल बनने का सुयोग नहीं बन सका। जहां वह व्यवस्था रही है वहां हर परिस्थिति में जीवधारियों ने अपना अस्तित्व बनाये रखने और विभिन्न प्रकार की हलचलें करते रहने का प्रमाण दिया है।
पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव में असाधारण शीत है, फिर भी इन दोनों क्षेत्र में जीवधारियों के अपने-अपने ढंग के क्रिया-कलाप पाये गये हैं। इस सुयोग के अभाव में समुद्र के मध्य उठे हुए अनेक द्वीप अभी भी सुनसान पड़े हैं। वहां छोटे जीव-जन्तु भर किसी प्रकार जन्मे और बढ़ सके हैं। जड़ और चेतन के युग्म को ही विज्ञान और अध्यात्म की संज्ञा दी जाती है। जहां अकेला एक हो वहां निस्तब्धता के अतिरिक्त और क्या पाया जा सकता है, जलजीव भी उसी सुयोग का परिणाम है। आकाश में उड़ते रहने वाले जीवाणु-विषाणु आदि भी इसी तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि दोनों का मिलन ही उपयोगी हलचलों का केन्द्र हो सकता है। इससे प्रमाणित होता है कि जड़ और चेतन का मिलन ही हलचलों का केन्द्र है और वे महत्वपूर्ण तब बनती हैं जब उन दोनों को उभारने-सुधारने वाला विज्ञान एवं अध्यात्म उपयोगी सीमा तक विकसित हो सकता हो।
यह समन्वय-सुयोग अनादि और अनन्त है, जहां वे दोनों बिछुड़ जायं तो सर्वत्र न सही उस क्षेत्र में तो प्रलय के सूखे-गीले, गरम-ठण्डे दृश्य दिखाई ही देंगे। इसलिए दोनों के समन्वय के प्रश्न को उभारने में कोई प्रत्यक्ष दम नहीं है।
यदि सचेतन प्राणियों की उत्पत्ति से पूर्वकाल पर दृष्टि डाली जाय तो भी आदि कारण को खोजते-खोजते वहां पहुंचना पड़ेगा जहां चेतन की इच्छा या प्रेरणा के उपरान्त पदार्थ का अस्तित्व प्रकाश में आया। श्रुति वचनों में उसका उल्लेख भर है—‘एकोहम् बहुस्यामि’ सूत्र में यही प्रतिपादन है कि सृष्टा को शून्य स्थिति में रहना अखरा तो उसने इच्छा की, ‘एक से बहुत हो जाऊं, फलतः परा और अपरा प्रकृति के रूप में दो प्रवाह फूट पड़े और सृष्टि का आरम्भ हो गया। ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि के रचे जाने का अलंकारिक मिथक भी प्रकारान्तर से इसी स्थिति पर प्रकाश डालता है। इस प्रकार शास्त्र वचनों में भी इसी वस्तुस्थिति को उजागर किया गया है—‘ऋतं च सत्यं च....’ आदि वर्णनों में भी इसी उपक्रम का विस्तार किया गया है, यह अध्यात्म प्रधान पक्ष का प्रतिपादन हुआ।
पदार्थ विद्या भले ही अपने परिकर द्वारा ही विश्व को ओत-प्रोत सिद्ध करे, उसी को प्रधान माने—फिर भी यह स्वीकार किये बिना उनका कथन भी समग्र नहीं बन पड़ता कि कोई अदृश्य इच्छा शक्ति पदार्थ सत्ता का उद्भव, संचालन, अभिवर्धन और परिवर्तन जैसे खेल खिला रही है। यहां हर पदार्थ के पीछे एक सुव्यवस्था का समावेश है। परमाणु, जीवाणु, विषाणु स्तर के अदृश्य घटकों को भी किसी सुनियोजित रीति-नीति का प्रतिपादन करने के लिए विवश रहना पड़ता है। यदा-कदा उच्छृंखलता दीख पड़ती है, वह भी किन्हीं सशक्त नियमों के आधार पर ही दृश्यमान होती है, भले ही उन नियमों के सम्बन्ध में मनुष्य की जानकारी, कुछ आभास पाने तक ही सीमित क्यों न रही हो? पोले आकाश में असंख्य ग्रह गोलकों, वाष्पीभूत महामेघों के चक्रवातों की इकाइयां अधर में टंगी हुई हैं। गतिशीलता उनमें आकर्षण शक्ति बनाये हुए है, सबके बीच एक अत्यन्त सुव्यवस्थित क्रिया-प्रक्रिया काम कर रही है और अणु से लेकर विभु तक के पसरे वैभव का इस प्रकार संचालन किए हुए है कि उसे अकारण नहीं कह सकते, उसके पीछे निश्चित ही कोई सुनियोजित चेतना तालमेल बिठाये हुए है।
वनस्पतियों, प्राणियों, सूक्ष्म जीवियों, जलचरों की जीवन लीला और गतिविधियों पर गम्भीरतापूर्वक दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि यह सब आकस्मिक रूप से नहीं चल रहा है। हर घटक के पीछे कोई उच्चस्तरीय बुद्धिमत्ता काम कर रही है अन्यथा बिखराव और टकराव का ऐसा माहौल दीख पड़ता, जिसके कारण उत्पन्न हुई अव्यवस्था और अराजकता उड़ते गुबार के अतिरिक्त और कुछ भी दीख न पड़ती। किसी पदार्थ का कोई स्वरूप ही न बन पाता और न वह कुछ क्षणार्ध तक स्थिर ही रह पाता। सचेतन ही अचेतन पर नियन्त्रण कर सकता है। पदार्थ की छोटी इकाई के अन्तर्गत जिस प्रकार जितने परिकर काम करते और अपनी धुरी कक्षा में भ्रमण करते देखे जाते हैं, उनसे स्पष्ट है कि यह नियमित अनुशासन भी किसी व्यापक सत्ता का ही इच्छापूर्वक अवस्था के अन्तर्गत रखा गया खेल है। प्राणियों के शरीरों में देखे जाने वाले अंग-अवयव, रसायन-जीवाणु अपने-अपने कार्य में इतने अधिक तल्लीन हैं मानो किसी ने उन्हें किसी आश्चर्यजनक कम्प्यूटर की तरह सुनियोजित किया हो। प्राणियों को क्षुधा निवृत्ति और वंश-वृद्धि के कर्मों में इस प्रकार जोता हुआ है कि वे अपनी व्यस्त जीवनचर्या को सरसतापूर्वक पूर्ण करते रह सकें। इन दोनों प्रयोजनों के लिए आवश्यक साधनों का सृजन भी इस प्रकार किया गया है कि वे हर किसी को सरलतापूर्वक उपलब्ध हो सकें। इतना ही नहीं ऋतुचक्र भी इस प्रकार का विनिर्मित है कि उससे निबटने के लिए हर जीवधारी को अपने कौशल का, समुचित अभिवर्धन करने का अवसर प्राप्त होता रहे। वनस्पतियों और प्राणियों का एक दूसरे का पूरक बनकर रहना भी कितना विचित्र है कि यह विश्वास किये बिना रहा नहीं जाता कि यह समस्त विस्तार किसी बुद्धिमान तन्त्र के संरक्षण में चल रहा है।
शास्त्रीय प्रतिपादनों से लेकर वैज्ञानिक अनुसंधानों तक को अपने-अपने ढंग से एक ही निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ा है कि पदार्थ का उत्पादन और उसका क्रमबद्ध नियमन किसी सचेतन सत्ता का ही खेल है। इस प्रकार जड़ और चेतन दोनों का अत्यन्त सुव्यवस्थित होना सहज सिद्ध है, साथ ही यह भी प्रकट है कि दोनों पक्ष एक दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं जिसे सर्वथा जड़ समझा जाता है वह भी मृत नहीं है। पाषाण शिलायें और धातु खण्ड भी अपने अन्तराल में किसी स्तर का जीवन धारण किये हुये हैं और वे घटते, बढ़ते, बदलते रहते हैं। पूर्ण निर्जीव कहा जा सके, ऐसा तो यहां कुछ भी नहीं है। अग्नि का ज्वलन्त ज्वाल भाल भी नहीं। समुद्र के ज्वार-भाटे तक नहीं। पदार्थ में सन्निहित ‘गति या शक्ति’ एक सुनियोजित व्यवस्था क्रम के साथ इस प्रकार जुड़ी हुई है कि वे राई रत्ती भर भी व्यतिरेक बरतने की स्थिति में नहीं है। प्राणियों की संख्या-वृद्धि को नियन्त्रित रखने से लेकर उनके निर्वाह साधन जुटाने तक की सुव्यवस्था इस प्रकार बनी हुई है कि आश्चर्य होता है कि यह उपक्रम किस प्रकार बन गया। हर प्राणी की चेतना इस ढांचे में ढली है कि वे सुखपूर्वक जिये और दूसरों को सुव्यवस्थित रखने में योगदान कर सके।
चेतना का अस्तित्व सुनिश्चित है, वह ब्रह्माण्डव्यापी विराट् भी है और प्रत्येक प्राणी तथा परमाणु में अपने अस्तित्व का सुनियोजन के आधार पर परिचय भी देती है। इसी प्रकार पदार्थ को उसके विभिन्न रूपों में विद्यमान देखा जा सकता है। वायुभूत होने पर वह दृष्टिगोचर भले ही न होती हो, पर उसका परिचय तो ठोस द्रव और गैस के रूप में विद्यमान है ही, दोनों के बीच सघनता भी इतनी है कि एक के बिना दूसरे का काम चल ही नहीं सकता। उनका अस्तित्व भी जाना और समझा नहीं जा सकता, विलग होने की स्थिति में यहां कुछ भी शेष न रहेगा। ताप, शब्द और प्रकाश की जो तरंगें काम करती हैं जड़ चेतन को एक सूत्र में बांधती हैं, उनका भी कहीं अता-पता न चलेगा। क्षीरसागर में विष्णु के सो जाने पर महाप्रलय हो जाता है, क्षीरसागर और विष्णु जड़ चेतन के यही दो समन्वय अन्त में रह जाते हैं। आरम्भ में भी कमल पुष्प पर बैठे ब्रह्मा द्वारा सृष्टि सृजन का यही तात्पर्य है कि ब्रह्म और प्रकृति वैभव का मिल-जुलकर बना आधार ही सृष्टि के सृजन का मूल कारण बना।
कोई जड़ ऐसा नहीं है जिसमें चेतना को कोई न कोई अंश विद्यमान न हो। पत्थरों तक में मन्दगामी हलचल होती है, धातुओं तक को जंग लगती और क्षरण-परिवर्तन होता है। समुद्र उफनते हैं, हवा में अन्धड़ चलते हैं, पृथ्वी में भूकम्प आते हैं, आकाश में इन्द्रधनुष देखे जाते हैं, पानी बरसता है, भाप उड़ती है, मौसम बदलते हैं। इन सबके साथ एक सूक्ष्म नियम व्यवस्था काम करती है, उसे सचेतन का ही प्रकार कहा जा सकता है। पड़ी लकड़ी में से कुकुरमुत्ते उग पड़ते हैं, गोबर-कीचड़ में कृमियों का जन्म होने लगता है। यह सब तथ्य बताते हैं कि जड़ नितान्त निर्जीव एवं गति विहीन नहीं है। इसी प्रकार चेतन के सम्बन्ध में भी यही कहा जा सकता है कि उसका स्वरूप देखना तो दूर कल्पना तक कर सकना कठिन है। उथली चेतना होने के कारण मनुष्येत्तर प्राणी ईश्वर के स्वरूप और नियमों के सम्बन्ध में कोई कल्पना तक नहीं कर सकते। मनुष्य भी निष्कलंक ब्रह्म के सम्बन्ध में अपनी सुनिश्चित आस्था नहीं जमा पाता। धर्म धारणा और ध्यान साधना के माध्यम से ईश्वर के साथ सम्बन्ध जोड़ने की प्रक्रिया में उसे किसी न किसी आकार को कहीं न कहीं ठहरा हुआ कल्पित करना पड़ता है। विभिन्न सम्प्रदायों और साधना परम्पराओं ने ईश्वर का कोई न कोई ऐसा स्वरूप निर्धारित किया है, जिसका ध्यान बन पड़े और उसके साथ भक्ति-भावना का आरोपण सम्भव हो सके, नितान्त निराकार की कल्पना तक नहीं बन पड़ती। वेदान्त तक में, आत्म स्वरूप में ईश्वर की ज्योति प्रकाशित होने की मान्यता है। इसके बिना तद्-विषयक कोई चिन्तन-चेतना उभरती ही नहीं, निराकार मत वाले भी प्रकाश ज्योति को ईश्वर का स्वरूप मानकर काम चलाते हैं।
चेतन और जड़ का दो भागों में वर्गीकरण करते हुए इस तथ्य को समझने में सुविधा पड़ती है, पर वह वर्गीकरण ऐसा नहीं हो सकता जो नितान्त एकाकी हो। न तो हलचलों से, गणों से, सामर्थ्यों से रहित किसी जड़-पदार्थ की उपस्थिति ढूंढ़ी जा सकती है और न सर्वव्यापी ब्रह्म चेतना का स्वरूप विवेचन सम्भव है। ईश्वर को भी किसी नियम व्यवस्था से अनुशासित-अनुप्राणित ही माना जाता है, उसके अनुग्रह और कोप की मान्यता को हृदयंगम किया जाता है। स्वर्ग में, मुक्ति में उसके वैभव से मिल-जुलकर रहने की कल्पना है। भक्तजन ईश्वर से भी बदले में अपनी जैसी प्रेम भावना उपलब्ध होने की मान्यता अपनाये रहते हैं।
उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन—यह तीन गतिविधियां प्रत्येक पदार्थ और प्राणी में अनवरत रूप से होती रही हैं। इन हलचलों का केन्द्र सजीव सत्ता ही हो सकता है। वैज्ञानिक, परमाणुओं से बनी इस सृष्टि को मानते हैं, परमाणुओं का ढांचा भी सौरमण्डल जैसा है, उसके अन्तर्गत अनेकों इलेक्ट्रॉन-प्रोट्रॉन जैसे घटक ग्रह-उपग्रहों की भांति धुरी और कक्षा में दौड़ते रहते हैं। उनकी क्रिया-प्रक्रिया में जो तारतम्य रहता है उसे देखते हुए भी यही कहा जा सकता है कि गति, शक्ति और अनुशासन, निर्जीव पदार्थ अपने संबंध में स्वयं ही स्थापित और निर्धारित नहीं कर सकता।
इकोलॉजी सिद्धान्त के अनुसार समूची विश्व व्यवस्था में अति सघनता के साथ अनुशासन का समावेश है। सर्वत्र व्यवस्था ही व्यवस्था है, यहां तक की यदाकदा भूकम्प-तूफान जैसे व्यतिक्रम जो दीख पड़ते हैं वे भी उन विशिष्ट नियमों के साथ जुड़े हुए हैं जिनका मनुष्य की समझ अभी तक पूरी तरह पता नहीं लगा पाई है। जड़ को अव्यवस्थित होना चाहिए, किन्तु यहां किसी को भी वैसी छूट नहीं मिली हुई है। शरीर के जीवाणु, तन्तु ऊतक, घटक इस क्रमबद्धता का परिचय देते हैं कि कायिक ढांचा तक नियमबद्ध है। मनुष्य कभी-कभी नैतिक नियमों का उल्लंघन कर तात्कालिक लाभ उठाता देखा जाता है। इससे कर्मफल की व्यवस्था में संदेह होता है, पर कुछ ही समय में क्रिया की प्रतिक्रिया सामने आकर रहती है—इससे विदित है कि जड़ और चेतन का पारस्परिक समन्वय अविच्छिन्न है।
पदार्थ का प्रतिनिधित्व विज्ञान करता है और चेतना का अध्यात्म, दोनों के बीच सघन समन्वय न रहने पर तो यहां कुछ भी बन या चल न सकेगा। ऐसी दशा में यह मान्यता गलत है कि दोनों सत्तायें एक दूसरे से पृथक हैं, ऐसी दशा में यह चर्चा भी बाल-विनोद जैसी लगती है कि अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय होना चाहिए। जो विलग हैं ही नहीं, उनका समन्वय करने की आवश्यकता और चेष्टा भी किस प्रकार बन पड़ेगी?