Books - विज्ञान एवं अध्यात्म का समन्वित स्वरूप
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Language: HINDI
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वास्तविकता सिद्ध करने से कोई डरे क्यों?
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शरीर को स्थिर और समर्थ बनाये रखने के लिए आहार-विहार के नियम पालने पड़ते हैं। लोक व्यवहार की भी कुछ मर्यादायें और परम्परायें हैं, जिनका निर्वाह करते हुए ही कोई शिष्ट-सज्जन कहा जा सकता है और सभ्य समाज में अपनी जगह बना सकता है। अर्थशास्त्र से लेकर विज्ञान तक की अनेक विधायें अपने सिद्धान्तों के अनुरूप आचरण चाहती हैं। इन विधाओं की अवमानना करने पर प्रत्यक्ष जीवन में पग-पग पर हानि उठानी और भर्त्सना सहनी पड़ती है अनुशासन और प्रयोग विधान से विनिर्मित राजमार्ग पर चलते हुए ही कोई सुखी रह सकता है और प्रगति पथ पर अग्रसर होने का लाभ उठा सकता है।
अध्यात्म क्षेत्र का अपना स्वरूप और अपना अनुशासन है, जिसे पढ़-सुन लेने से काम नहीं चलता, वरन् उसके निर्धारणों को हृदयंगम करना और दृढ़तापूर्वक प्रयोग में लाना पड़ता है। उस सारी व्यवस्था को समझ पाने पर ही यह सम्भव हो सकता है कि प्रतिफलों से लाभान्वित हुआ जा सके, केवल कथोपकथनों की तोता रटन्त से तो कौतूहल मात्र बन पड़ता है। लाभ उठाने जैसी स्थिति तो बन ही नहीं पाती।
चेतन पक्ष को सुनियोजित-सुसंस्कृत बनाने की विधा को ‘अध्यात्म’ नाम से जाना जाता है। इसमें वह अनुशासन भी जुड़ा हुआ है, जिसको संयम या आत्मानुशासन नाम से जाना जाता है। यह न बनने पर जो शेष रह जाता है, उसे आडम्बर या कलेवर ही कह सकते हैं। रामलीला, आयोजन में बड़े आकार के रावण-कुम्भकरण आदि खड़े किए जाते हैं। उनसे कौतूहल भर होता है। अधिक से अधिक उन दैत्यों के सम्बन्ध में कुछ जानकारी मिलती है, पर यह नहीं होता कि वे पुतले अपने कलेवर के अनुरूप क्रिया-कृत्य पराक्रम-पुरुषार्थ करके दिखा सकें। यही बात आध्यात्म के सम्बन्ध में भी है। आमतौर से लोग उसके कलेवर भर का स्पर्श करने में रुचि लेते हैं। उसकी मर्यादाओं को जीवन में उतारने का प्रयत्न नहीं करते। फलतः जो कुछ बचा रहता है, उसे कलेवर की विडम्बना भर कहा जा सकता है। तथ्य और तत्व का समावेश न होने पर यह स्थिति बन नहीं पड़ती, जिसमें विज्ञान के समतुल्य या उससे भी अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध कर सकने की स्थिति बन सके। एक ओर सजीव हाथी खड़ा हो और दूसरी ओर वैसा ही कागज का पुतला बनाकर खड़ा कर दिया जाय, तो यह आशा नहीं की जा सकती कि तुलना करने पर दोनों की सामर्थ्य समान सिद्ध हो सकेगी, दोनों को समान महत्व का मूल्य मिल सकेगा, दोनों से समान काम लिया जा सकेगा। नकली का अधिक वरिष्ठ या प्रमुख सिद्ध करने का तो अवसर ही कहां आता है।
जब जड़ पदार्थों से लाभान्वित होने की, शरीरों को स्वस्थ रखने की, व्यापार-व्यवसाय की, कोई विधि-व्यवस्था हो सकती है, तो चेतना को सही और सुसंस्कृत बनाये रहने का भी सुनिश्चित अनुशासन रहेगा ही। शरीर की पृष्ठभूमि में प्राण काम करता है। प्राण दुर्बल हो जाने पर या विलग हो जाने पर शरीर महत्वहीन बन जाता है। इससे प्रकट है कि चेतना की, प्राण सत्ता की, विचारणा की अपनी समर्थता और उपयोगिता है। उसे उपेक्षा की स्थिति में नहीं रखा जा सकता है, जैसे-तैसे जहां-तहां उसे पड़ा नहीं रहने दिया जा सकता है। अनगढ़ बनी रहने पर तो वह जंग खाई हुई घड़ी की तरह समय बताने की अपनी क्षमता से वंचित ही बनी रहेगी। इस दुर्गति से चेतना क्षेत्र को बचाये रहने के लिए अध्यात्म विज्ञान का सुनियोजन हुआ। पदार्थ विज्ञानियों की तरह ऋषि-कल्प तपस्वियों ने अपने मानस को प्रयोगशाला बनाकर उन तथ्यों को खोज निकाला है, जिन्हें अपनाकर नर-वानर स्तर का एक सामान्य प्राणी किस प्रकार ऋद्धि-सिद्धियों का स्वामी, विश्व वसुधा का अधिष्ठाता बन सका। किस प्रकार उसने अपनी प्रसुप्त शक्तियों को खोजा और उन्हें जागृत करके देवमानव का पद पाया। अध्यात्म को जादू जैसा इन दिनों माना जाता है और उसे प्राप्त करने के लिए रहन-सहन किन्हीं विचित्रताओं से भरा बनाना पड़ता है, पर बात ऐसी बिल्कुल भी है नहीं। अध्यात्म विचारों की उत्कृष्टता अपनाने से आरम्भ होता है। इसका प्रभाव व्यक्तिगत चरित्र को उत्कृष्ट स्तर का देखे जाने में परिलक्षित होता है। यही उपलब्धि जब जन संपर्क में उतरती है जो आदर्शवादी व्यवहार कुशलता के रूप में दीख पड़ती है। इसी समग्र प्रयोजन को एक शब्द में चेतना की उत्कृष्टता भी कह सकते हैं। यही अध्यात्म है।
पदार्थ द्वारा मिल सकने वाले लाभों से सभी परिचित हैं। बलिष्ठ शरीर की उपयोगिता भी निरन्तर सिद्ध होती रहती है। सम्पत्ति के आधार पर इच्छित, सुविधा-साधन खरीदे जा सकते हैं। यह प्रत्यक्ष उपलब्धियों का माहात्म्य हुआ। इससे कहीं अधिक बढ़े-चढ़े विभूतियों के हैं। गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता को ही दार्शनिक भाषा में अध्यात्म कहा जाता है। उसके आधार पर जो मिल सकता है, उसकी जानकारी संसार में सृजन के प्रयोजनों में सफल हुए महामानवों की जीवन-गाथा का पर्यवेक्षण करते हुए सहज ही जानी जा सकती है।
इन दिनों देवताओं, भूत-प्रेतों, सिद्धि चमत्कारों की विचित्रताओं से भरी हुई कृतियों को ही अध्यात्म का स्वरूप जाना जाता है। मान्यताओं के क्षेत्र में उसकी परिधि परलोक तक सीमाबद्ध रहती है। स्वर्ग, मुक्ति के अतिरिक्त चमत्कारी सिद्धियों से उसे जोड़ा जा सकता है। मनोकामनायें पूर्ण करने, शाप-वरदान देने में भी उसकी भूमिका समझी जाती है। यह मान्यतायें सर्वथा अप्रासंगिक हैं। वास्तविकता इतनी भर है कि अध्यात्म विज्ञान के अनुरूप आचरण करने पर अदृश्य चेतना के भावना, मान्यता, आस्था, प्रज्ञा, निष्ठा, श्रद्धा पक्षों को उच्चस्तरीय बनाया जाता है। वे परिस्थिति होने पर इच्छा, आकांक्षा, प्रेरणा के रूप में बुद्धि क्षेत्र को देवोपम बनाती हैं। देवोपम से तात्पर्य है—उत्कृष्टता सम्पन्न आदर्शवादी चिन्तन और चरित्र। व्यक्तित्व का परिष्कार भी इसी को कहते हैं। प्रतिभा परिवर्धन भी इसी के साथ जुड़ा रहता है। इन विशेषताओं से सम्पन्न होने पर व्यक्ति उस स्तर का बन जाता है, जिसे श्रद्धेय, सम्माननीय, प्रामाणिक, अनुकरणीय, अभिनन्दनीय कहा जा सके। इसी स्तर पर पहुंचने के लिए जो पराक्रम एवं अनुशासन अपनाना पड़ता है, उसे अध्यात्म की ही फल-श्रुति समझना चाहिए। यह नकद धर्म है। इस क्षेत्र के प्रयासों के परिणाम हाथों-हाथ देखे जा सकते हैं। आत्म सन्तोष लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह इसकी तीन उपलब्धियां मानी जाती हैं, जो इस मार्ग पर चलने वालों को पग-पग पर मिलती जाती हैं। आत्मबल प्राप्त करने के लिए दो साधनायें निरन्तर करनी पड़ती हैं—एक है संयमशीलता, जिसे दूसरे शब्दों में तपश्चर्या भी कह सकते हैं। इसका प्रयोग है—पुण्य परमार्थ। लोक-मंगल, जन-कल्याण भी इसी आधार पर बन पड़ता है। संकीर्ण स्वार्थपरता यदि उदात्त उदारता में विकसित हो चले, तो समझना चाहिए कि अध्यात्म सही रूप में अपनाया गया और उल्लास भरा सत्परिणाम मिलते रहने की बात बन गई।
आत्म निर्माण, आत्मबल सम्पादन आदि की अलंकारिक फल-श्रुतियों और माहात्म्य-महत्वों का वर्णन दार्शनिक स्तर पर विशद रूप में होता रहता है। इस हेतु अलंकारिक कथानक भी कहे सुने जाते रहते हैं। उन्हें कई लोग भ्रमवश प्रकृति नियमों का अतिक्रमण भी मान बैठते हैं, पर वस्तुतः ऐसा कुछ है नहीं। विश्व व्यवस्था की शक्तिधारा सर्वत्र एक-सा काम करती है। व्यक्ति विशेष पर प्रसन्न-अप्रसन्न भी नहीं होती। मनुहार और उपहार का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उपासना साधना के नाम पर जो कुछ भी किया जाता है, उसका एक मात्र उद्देश्य व्यक्तित्व का विकास परिष्कार ही है। इतना बन पड़ने पर मनुष्य एक ऐसा चुम्बक बन जाता है, जो बहिरंग क्षेत्र की समृद्धियों और अन्तरंग की विभूतियों एवं सिद्धियों को अपने साथ खींचता और जोड़ता रहता है।
व्यक्ति चेतना की तरह ब्रह्माण्ड चेतना भी है। चिनगारी और ज्वाला की उपमा इसी प्रसंग में दी जाती है। परिष्कृत व्यक्तित्व जागृत चिनगारी है, जो अवसर का सुयोग मिलते ही ज्वाल-भाल एवं दावानल के रूप में सुविस्तृत बनती और असाधारण भूमिका निभाती देखी जाती है। ऐसे प्रसंगों का ही दैवी चमत्कार के रूप में उल्लेख होता रहता है।
अध्यात्म की वास्तविकता का स्वरूप एवं उपक्रम समझ लेने के उपरान्त यह स्पष्ट हो जाता है कि चेतन को महत्चेतना के साथ जोड़ने की यह प्रक्रिया आत्म संयम, अनुशासन, मर्यादापालन की तपश्चर्या से आरम्भ होती है और उत्कृष्ट आदर्शवादिता से भरे-पूरे चरित्र व्यवहार में अपना प्रमाण-परिचय पग-पग पर देती है। परिष्कृत आत्मा ही परमात्मा है। वेदान्त दर्शन में ‘अयमात्मा ब्रह्म’, ‘प्रज्ञानंब्रह्म’, ‘तत्वमसि’, ‘सोऽहम्’, ‘शिवोऽहम्’ जैसे सूत्रों द्वारा वास्तविकता का स्पष्टीकरण किया गया है। गई-गुजरी स्थिति में मनुष्य नर-वानर से अधिक और कुछ नहीं रहता। संचित कुसंस्कार और प्रचलन के प्रभाव मिलकर पतनोन्मुख प्रवाह उत्पन्न करते हैं। ढलान पर वैसे लोग क्रमशः नीचे की तरफ खिसकते रहते हैं। पतनोन्मुख इन्हीं प्रवृत्तियों को भव-बन्धन, नरक आदि नाम से जाना जाता है। असुर, शैतान, दैत्य, दानव आदि यही हैं। जन-साधारण पर छाये हुए इस कुहरे को हटाने को, उसके देव मानव स्तर को प्रकट करने वाले स्वरूप को ही ब्रह्म-निर्वाण कहते हैं। यही ईश्वर-दर्शन है। महामिलन भी इसी को कहते हैं। जीवनमुक्त उन्हीं को कहते हैं, जो अपनी चेतना को कषाय-कल्मषों से मुक्त करके निर्मल जल अथवा स्वच्छ दर्पण जैसा बना लें। उन्हीं पर आकाश का प्रतिबिम्ब यथावत् उतरता है। ईश्वर सान्निध्य इसी आधार पर बन पड़ता है। चुम्बक के साथ लोहे के टुकड़े ही सट पाते हैं। अधिक तापमान से प्रभावित हुआ कोयला ही हीरे के रूप में परिणत होता है। सद्गुणों के समुच्चय वाली विश्व-व्यापी चेतना ही परमात्मा है। उसी स्तर की आत्मायें ही सजातीय के साथ घुलने में समर्थ होती हैं। अध्यात्म का स्वरूप और उद्देश्य यही है। यह उपक्रम जहां, जितने अंश में बन पड़ रहा हो, समझना चाहिए कि वहां उतना ही भगवान का निवास है। असली और बड़ी मात्रा में होने पर ही महत्वपूर्ण सत्तायें अपना चमत्कार दिखाने में समर्थ होती हैं।
आध्यात्म आस्तिकता पर अवलम्बित है। आस्तिकता मर्यादाओं के परिपालन और वर्जनाओं से बचे रहने के रूप में प्रत्यक्ष देखी जाती है। कर्मफल पर विश्वास जमाना अध्यात्म का मूल उद्देश्य है। लोग सोचते हैं कि कुकर्मों का फल हाथों-हाथ नहीं मिला, तो पीछे कभी नहीं मिलेगा, इस बात पर क्यों विश्वास किया जाय? इसी विभ्रम के कारण आये दिन अनाचार की अभिवृद्धि होती देखी जाती है। यदि कर्मों के प्रतिफल का विश्वास यथावत् बना रहे तो फिर सदाचार पर अवलम्बित समाज में सर्वत्र सुख-शान्ति का वातावरण ही बना रहे।
इस स्तर के अध्यात्म का, विज्ञान का उद्देश्य सत्य की खोज, अविज्ञात का अनुसंधान और प्रगति के साधन जुटाना है। यदि यही कुछ अध्यात्म के द्वारा चेतना क्षेत्र में सम्पन्न किया जाता हो, तो विग्रह क्यों उठेगा। दोनों अपने-अपने क्षेत्र में काम करते हुए भी एक-दूसरे के पूरक समझे जाने लगेंगे। हवा आकाश में परिभ्रमण करती है और आहार दृश्यमान् खाद्य पदार्थों से विनिर्मित है। इतने भर से दोनों की भूमिका जीवन निर्वाह में समान स्तर की होती है। यदि लक्ष्य एक रहे, तो उन्हें विरोधी क्यों माना जायगा? उपलब्धियों का सदुपयोग और जो आगे की सम्भावनायें हैं, उनका अनुसंधान—यह कार्य दोनों महाशक्तियां अपने-अपने ढंग से सम्पन्न करती रहें तो उनके बीच विग्रह कहां रहा? कान सुनते हैं, आंखें देखती हैं। दोनों की कार्यप्रणाली अलग होते हुए भी काया का समग्र सुनियोजित रखने में उनकी भूमिका समान ही होती है। एक के अभाव में, दूसरे के होने पर भी समग्र क्षमता में भारी व्यवधान ही उत्पन्न हो जाता है।
अन्ध विश्वास फैलाने का आरोप दार्शनिक प्रतिपादनों पर लगता है, कारण कि उनके आधार पर जो कुछ कहा जाता है वह सर्वमान्य नहीं होता। मात्र एक वर्ग के लोग ही उसे यथार्थ मानते हैं। अपने को सच्चा और दूसरों को झूठा भी ठहराते हैं। कलह यहीं से आरम्भ होता है। जो बात प्रत्यक्ष प्रमाणित न की जा सके, उसे अपनी श्रद्धा के अनुरूप मान्यता देने में तो काई भी स्वतन्त्र है, पर उन्हें दबाव या प्रलोभन के आधार पर दूसरों पर थोपना अनुचित है। इसी अनौचित्य का विरोध प्रायः विज्ञान वर्ग द्वारा अध्यात्म पर होता रहता है। मरणोत्तर जीवन, सम्प्रदाय विशेष पर ईश्वर की अनुकम्पा या नाराजी जैसे प्रतिपादनों से सत्य की शोध में बाधा पड़ती है। प्रत्यक्षवाद का हिमायती बुद्धिवादी वर्ग इसी आधार पर अध्यात्म को अन्ध-विश्वासों पर अवलम्बित कहता और उसे अमान्य ठहराता है। इस प्रश्न पर सम्प्रदायवादी दार्शनिकों को भी नरम होना चाहिए। साथ ही अनुसंधान के क्षेत्र में उतरकर यह देखना चाहिए कि उनके प्रतिपादन नीतिशास्त्र और समाज सुनियोजन में किस सीमा तक सहायक सिद्ध होते हैं। सर्वसाधारण को उन मान्यताओं के सहारे किन सुव्यवस्थाओं की उपलब्धि होती है। तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण के आधार पर यदि अध्यात्म मान्यतायें सही सिद्ध की जा सकें, तो वे प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर भी खरी सिद्ध होंगी और उनका मान बौद्धिक तथा वैज्ञानिक प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर भी खरा सिद्ध होता चलेगा, फिर किसी को किसी पर आरोप लगाने का, आक्षेप थोपने की गुंजाइश न रहेगी।
अध्यात्म मान्यताओं में ऐसे अनेकों प्रसंग एवं प्रकरण जुड़ गए हैं, जो न तो अपनी यथार्थता सिद्ध कर पाते हैं और न उपयोगिता। मात्र शास्त्र वचन, परम्परा प्रचलन की दुहाई देकर दुराग्रह ही अपनाये रहते हैं यह स्थिति विचारशील वर्ग के सम्मुख उपहासास्पद बने, तो आश्चर्य ही क्या?
समय की मांग है कि इस सर्वव्यापी अवांछनीयता और अप्रामाणिकता के माहौल में हर मान्यता का नये सिरे से विवेचन निरीक्षण हो। जो अपनी उपयोगिता सिद्ध कर पाता है उसी को लोकमान्यता मिलती है। इस सन्दर्भ में अध्यात्म को स्वयं आत्म निरीक्षण परीक्षण करना चाहिए और ‘‘जो खरा है, वह अपना’’ वाला सिद्धान्त अपनाकर ऐसा कवच पहन लेना चाहिए कि जिस पर बुद्धिवाद का, प्रत्यक्षवाद का आक्रमण आघात न पहुंच सके।
अध्यात्म क्षेत्र का अपना स्वरूप और अपना अनुशासन है, जिसे पढ़-सुन लेने से काम नहीं चलता, वरन् उसके निर्धारणों को हृदयंगम करना और दृढ़तापूर्वक प्रयोग में लाना पड़ता है। उस सारी व्यवस्था को समझ पाने पर ही यह सम्भव हो सकता है कि प्रतिफलों से लाभान्वित हुआ जा सके, केवल कथोपकथनों की तोता रटन्त से तो कौतूहल मात्र बन पड़ता है। लाभ उठाने जैसी स्थिति तो बन ही नहीं पाती।
चेतन पक्ष को सुनियोजित-सुसंस्कृत बनाने की विधा को ‘अध्यात्म’ नाम से जाना जाता है। इसमें वह अनुशासन भी जुड़ा हुआ है, जिसको संयम या आत्मानुशासन नाम से जाना जाता है। यह न बनने पर जो शेष रह जाता है, उसे आडम्बर या कलेवर ही कह सकते हैं। रामलीला, आयोजन में बड़े आकार के रावण-कुम्भकरण आदि खड़े किए जाते हैं। उनसे कौतूहल भर होता है। अधिक से अधिक उन दैत्यों के सम्बन्ध में कुछ जानकारी मिलती है, पर यह नहीं होता कि वे पुतले अपने कलेवर के अनुरूप क्रिया-कृत्य पराक्रम-पुरुषार्थ करके दिखा सकें। यही बात आध्यात्म के सम्बन्ध में भी है। आमतौर से लोग उसके कलेवर भर का स्पर्श करने में रुचि लेते हैं। उसकी मर्यादाओं को जीवन में उतारने का प्रयत्न नहीं करते। फलतः जो कुछ बचा रहता है, उसे कलेवर की विडम्बना भर कहा जा सकता है। तथ्य और तत्व का समावेश न होने पर यह स्थिति बन नहीं पड़ती, जिसमें विज्ञान के समतुल्य या उससे भी अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध कर सकने की स्थिति बन सके। एक ओर सजीव हाथी खड़ा हो और दूसरी ओर वैसा ही कागज का पुतला बनाकर खड़ा कर दिया जाय, तो यह आशा नहीं की जा सकती कि तुलना करने पर दोनों की सामर्थ्य समान सिद्ध हो सकेगी, दोनों को समान महत्व का मूल्य मिल सकेगा, दोनों से समान काम लिया जा सकेगा। नकली का अधिक वरिष्ठ या प्रमुख सिद्ध करने का तो अवसर ही कहां आता है।
जब जड़ पदार्थों से लाभान्वित होने की, शरीरों को स्वस्थ रखने की, व्यापार-व्यवसाय की, कोई विधि-व्यवस्था हो सकती है, तो चेतना को सही और सुसंस्कृत बनाये रहने का भी सुनिश्चित अनुशासन रहेगा ही। शरीर की पृष्ठभूमि में प्राण काम करता है। प्राण दुर्बल हो जाने पर या विलग हो जाने पर शरीर महत्वहीन बन जाता है। इससे प्रकट है कि चेतना की, प्राण सत्ता की, विचारणा की अपनी समर्थता और उपयोगिता है। उसे उपेक्षा की स्थिति में नहीं रखा जा सकता है, जैसे-तैसे जहां-तहां उसे पड़ा नहीं रहने दिया जा सकता है। अनगढ़ बनी रहने पर तो वह जंग खाई हुई घड़ी की तरह समय बताने की अपनी क्षमता से वंचित ही बनी रहेगी। इस दुर्गति से चेतना क्षेत्र को बचाये रहने के लिए अध्यात्म विज्ञान का सुनियोजन हुआ। पदार्थ विज्ञानियों की तरह ऋषि-कल्प तपस्वियों ने अपने मानस को प्रयोगशाला बनाकर उन तथ्यों को खोज निकाला है, जिन्हें अपनाकर नर-वानर स्तर का एक सामान्य प्राणी किस प्रकार ऋद्धि-सिद्धियों का स्वामी, विश्व वसुधा का अधिष्ठाता बन सका। किस प्रकार उसने अपनी प्रसुप्त शक्तियों को खोजा और उन्हें जागृत करके देवमानव का पद पाया। अध्यात्म को जादू जैसा इन दिनों माना जाता है और उसे प्राप्त करने के लिए रहन-सहन किन्हीं विचित्रताओं से भरा बनाना पड़ता है, पर बात ऐसी बिल्कुल भी है नहीं। अध्यात्म विचारों की उत्कृष्टता अपनाने से आरम्भ होता है। इसका प्रभाव व्यक्तिगत चरित्र को उत्कृष्ट स्तर का देखे जाने में परिलक्षित होता है। यही उपलब्धि जब जन संपर्क में उतरती है जो आदर्शवादी व्यवहार कुशलता के रूप में दीख पड़ती है। इसी समग्र प्रयोजन को एक शब्द में चेतना की उत्कृष्टता भी कह सकते हैं। यही अध्यात्म है।
पदार्थ द्वारा मिल सकने वाले लाभों से सभी परिचित हैं। बलिष्ठ शरीर की उपयोगिता भी निरन्तर सिद्ध होती रहती है। सम्पत्ति के आधार पर इच्छित, सुविधा-साधन खरीदे जा सकते हैं। यह प्रत्यक्ष उपलब्धियों का माहात्म्य हुआ। इससे कहीं अधिक बढ़े-चढ़े विभूतियों के हैं। गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता को ही दार्शनिक भाषा में अध्यात्म कहा जाता है। उसके आधार पर जो मिल सकता है, उसकी जानकारी संसार में सृजन के प्रयोजनों में सफल हुए महामानवों की जीवन-गाथा का पर्यवेक्षण करते हुए सहज ही जानी जा सकती है।
इन दिनों देवताओं, भूत-प्रेतों, सिद्धि चमत्कारों की विचित्रताओं से भरी हुई कृतियों को ही अध्यात्म का स्वरूप जाना जाता है। मान्यताओं के क्षेत्र में उसकी परिधि परलोक तक सीमाबद्ध रहती है। स्वर्ग, मुक्ति के अतिरिक्त चमत्कारी सिद्धियों से उसे जोड़ा जा सकता है। मनोकामनायें पूर्ण करने, शाप-वरदान देने में भी उसकी भूमिका समझी जाती है। यह मान्यतायें सर्वथा अप्रासंगिक हैं। वास्तविकता इतनी भर है कि अध्यात्म विज्ञान के अनुरूप आचरण करने पर अदृश्य चेतना के भावना, मान्यता, आस्था, प्रज्ञा, निष्ठा, श्रद्धा पक्षों को उच्चस्तरीय बनाया जाता है। वे परिस्थिति होने पर इच्छा, आकांक्षा, प्रेरणा के रूप में बुद्धि क्षेत्र को देवोपम बनाती हैं। देवोपम से तात्पर्य है—उत्कृष्टता सम्पन्न आदर्शवादी चिन्तन और चरित्र। व्यक्तित्व का परिष्कार भी इसी को कहते हैं। प्रतिभा परिवर्धन भी इसी के साथ जुड़ा रहता है। इन विशेषताओं से सम्पन्न होने पर व्यक्ति उस स्तर का बन जाता है, जिसे श्रद्धेय, सम्माननीय, प्रामाणिक, अनुकरणीय, अभिनन्दनीय कहा जा सके। इसी स्तर पर पहुंचने के लिए जो पराक्रम एवं अनुशासन अपनाना पड़ता है, उसे अध्यात्म की ही फल-श्रुति समझना चाहिए। यह नकद धर्म है। इस क्षेत्र के प्रयासों के परिणाम हाथों-हाथ देखे जा सकते हैं। आत्म सन्तोष लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह इसकी तीन उपलब्धियां मानी जाती हैं, जो इस मार्ग पर चलने वालों को पग-पग पर मिलती जाती हैं। आत्मबल प्राप्त करने के लिए दो साधनायें निरन्तर करनी पड़ती हैं—एक है संयमशीलता, जिसे दूसरे शब्दों में तपश्चर्या भी कह सकते हैं। इसका प्रयोग है—पुण्य परमार्थ। लोक-मंगल, जन-कल्याण भी इसी आधार पर बन पड़ता है। संकीर्ण स्वार्थपरता यदि उदात्त उदारता में विकसित हो चले, तो समझना चाहिए कि अध्यात्म सही रूप में अपनाया गया और उल्लास भरा सत्परिणाम मिलते रहने की बात बन गई।
आत्म निर्माण, आत्मबल सम्पादन आदि की अलंकारिक फल-श्रुतियों और माहात्म्य-महत्वों का वर्णन दार्शनिक स्तर पर विशद रूप में होता रहता है। इस हेतु अलंकारिक कथानक भी कहे सुने जाते रहते हैं। उन्हें कई लोग भ्रमवश प्रकृति नियमों का अतिक्रमण भी मान बैठते हैं, पर वस्तुतः ऐसा कुछ है नहीं। विश्व व्यवस्था की शक्तिधारा सर्वत्र एक-सा काम करती है। व्यक्ति विशेष पर प्रसन्न-अप्रसन्न भी नहीं होती। मनुहार और उपहार का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उपासना साधना के नाम पर जो कुछ भी किया जाता है, उसका एक मात्र उद्देश्य व्यक्तित्व का विकास परिष्कार ही है। इतना बन पड़ने पर मनुष्य एक ऐसा चुम्बक बन जाता है, जो बहिरंग क्षेत्र की समृद्धियों और अन्तरंग की विभूतियों एवं सिद्धियों को अपने साथ खींचता और जोड़ता रहता है।
व्यक्ति चेतना की तरह ब्रह्माण्ड चेतना भी है। चिनगारी और ज्वाला की उपमा इसी प्रसंग में दी जाती है। परिष्कृत व्यक्तित्व जागृत चिनगारी है, जो अवसर का सुयोग मिलते ही ज्वाल-भाल एवं दावानल के रूप में सुविस्तृत बनती और असाधारण भूमिका निभाती देखी जाती है। ऐसे प्रसंगों का ही दैवी चमत्कार के रूप में उल्लेख होता रहता है।
अध्यात्म की वास्तविकता का स्वरूप एवं उपक्रम समझ लेने के उपरान्त यह स्पष्ट हो जाता है कि चेतन को महत्चेतना के साथ जोड़ने की यह प्रक्रिया आत्म संयम, अनुशासन, मर्यादापालन की तपश्चर्या से आरम्भ होती है और उत्कृष्ट आदर्शवादिता से भरे-पूरे चरित्र व्यवहार में अपना प्रमाण-परिचय पग-पग पर देती है। परिष्कृत आत्मा ही परमात्मा है। वेदान्त दर्शन में ‘अयमात्मा ब्रह्म’, ‘प्रज्ञानंब्रह्म’, ‘तत्वमसि’, ‘सोऽहम्’, ‘शिवोऽहम्’ जैसे सूत्रों द्वारा वास्तविकता का स्पष्टीकरण किया गया है। गई-गुजरी स्थिति में मनुष्य नर-वानर से अधिक और कुछ नहीं रहता। संचित कुसंस्कार और प्रचलन के प्रभाव मिलकर पतनोन्मुख प्रवाह उत्पन्न करते हैं। ढलान पर वैसे लोग क्रमशः नीचे की तरफ खिसकते रहते हैं। पतनोन्मुख इन्हीं प्रवृत्तियों को भव-बन्धन, नरक आदि नाम से जाना जाता है। असुर, शैतान, दैत्य, दानव आदि यही हैं। जन-साधारण पर छाये हुए इस कुहरे को हटाने को, उसके देव मानव स्तर को प्रकट करने वाले स्वरूप को ही ब्रह्म-निर्वाण कहते हैं। यही ईश्वर-दर्शन है। महामिलन भी इसी को कहते हैं। जीवनमुक्त उन्हीं को कहते हैं, जो अपनी चेतना को कषाय-कल्मषों से मुक्त करके निर्मल जल अथवा स्वच्छ दर्पण जैसा बना लें। उन्हीं पर आकाश का प्रतिबिम्ब यथावत् उतरता है। ईश्वर सान्निध्य इसी आधार पर बन पड़ता है। चुम्बक के साथ लोहे के टुकड़े ही सट पाते हैं। अधिक तापमान से प्रभावित हुआ कोयला ही हीरे के रूप में परिणत होता है। सद्गुणों के समुच्चय वाली विश्व-व्यापी चेतना ही परमात्मा है। उसी स्तर की आत्मायें ही सजातीय के साथ घुलने में समर्थ होती हैं। अध्यात्म का स्वरूप और उद्देश्य यही है। यह उपक्रम जहां, जितने अंश में बन पड़ रहा हो, समझना चाहिए कि वहां उतना ही भगवान का निवास है। असली और बड़ी मात्रा में होने पर ही महत्वपूर्ण सत्तायें अपना चमत्कार दिखाने में समर्थ होती हैं।
आध्यात्म आस्तिकता पर अवलम्बित है। आस्तिकता मर्यादाओं के परिपालन और वर्जनाओं से बचे रहने के रूप में प्रत्यक्ष देखी जाती है। कर्मफल पर विश्वास जमाना अध्यात्म का मूल उद्देश्य है। लोग सोचते हैं कि कुकर्मों का फल हाथों-हाथ नहीं मिला, तो पीछे कभी नहीं मिलेगा, इस बात पर क्यों विश्वास किया जाय? इसी विभ्रम के कारण आये दिन अनाचार की अभिवृद्धि होती देखी जाती है। यदि कर्मों के प्रतिफल का विश्वास यथावत् बना रहे तो फिर सदाचार पर अवलम्बित समाज में सर्वत्र सुख-शान्ति का वातावरण ही बना रहे।
इस स्तर के अध्यात्म का, विज्ञान का उद्देश्य सत्य की खोज, अविज्ञात का अनुसंधान और प्रगति के साधन जुटाना है। यदि यही कुछ अध्यात्म के द्वारा चेतना क्षेत्र में सम्पन्न किया जाता हो, तो विग्रह क्यों उठेगा। दोनों अपने-अपने क्षेत्र में काम करते हुए भी एक-दूसरे के पूरक समझे जाने लगेंगे। हवा आकाश में परिभ्रमण करती है और आहार दृश्यमान् खाद्य पदार्थों से विनिर्मित है। इतने भर से दोनों की भूमिका जीवन निर्वाह में समान स्तर की होती है। यदि लक्ष्य एक रहे, तो उन्हें विरोधी क्यों माना जायगा? उपलब्धियों का सदुपयोग और जो आगे की सम्भावनायें हैं, उनका अनुसंधान—यह कार्य दोनों महाशक्तियां अपने-अपने ढंग से सम्पन्न करती रहें तो उनके बीच विग्रह कहां रहा? कान सुनते हैं, आंखें देखती हैं। दोनों की कार्यप्रणाली अलग होते हुए भी काया का समग्र सुनियोजित रखने में उनकी भूमिका समान ही होती है। एक के अभाव में, दूसरे के होने पर भी समग्र क्षमता में भारी व्यवधान ही उत्पन्न हो जाता है।
अन्ध विश्वास फैलाने का आरोप दार्शनिक प्रतिपादनों पर लगता है, कारण कि उनके आधार पर जो कुछ कहा जाता है वह सर्वमान्य नहीं होता। मात्र एक वर्ग के लोग ही उसे यथार्थ मानते हैं। अपने को सच्चा और दूसरों को झूठा भी ठहराते हैं। कलह यहीं से आरम्भ होता है। जो बात प्रत्यक्ष प्रमाणित न की जा सके, उसे अपनी श्रद्धा के अनुरूप मान्यता देने में तो काई भी स्वतन्त्र है, पर उन्हें दबाव या प्रलोभन के आधार पर दूसरों पर थोपना अनुचित है। इसी अनौचित्य का विरोध प्रायः विज्ञान वर्ग द्वारा अध्यात्म पर होता रहता है। मरणोत्तर जीवन, सम्प्रदाय विशेष पर ईश्वर की अनुकम्पा या नाराजी जैसे प्रतिपादनों से सत्य की शोध में बाधा पड़ती है। प्रत्यक्षवाद का हिमायती बुद्धिवादी वर्ग इसी आधार पर अध्यात्म को अन्ध-विश्वासों पर अवलम्बित कहता और उसे अमान्य ठहराता है। इस प्रश्न पर सम्प्रदायवादी दार्शनिकों को भी नरम होना चाहिए। साथ ही अनुसंधान के क्षेत्र में उतरकर यह देखना चाहिए कि उनके प्रतिपादन नीतिशास्त्र और समाज सुनियोजन में किस सीमा तक सहायक सिद्ध होते हैं। सर्वसाधारण को उन मान्यताओं के सहारे किन सुव्यवस्थाओं की उपलब्धि होती है। तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण के आधार पर यदि अध्यात्म मान्यतायें सही सिद्ध की जा सकें, तो वे प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर भी खरी सिद्ध होंगी और उनका मान बौद्धिक तथा वैज्ञानिक प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर भी खरा सिद्ध होता चलेगा, फिर किसी को किसी पर आरोप लगाने का, आक्षेप थोपने की गुंजाइश न रहेगी।
अध्यात्म मान्यताओं में ऐसे अनेकों प्रसंग एवं प्रकरण जुड़ गए हैं, जो न तो अपनी यथार्थता सिद्ध कर पाते हैं और न उपयोगिता। मात्र शास्त्र वचन, परम्परा प्रचलन की दुहाई देकर दुराग्रह ही अपनाये रहते हैं यह स्थिति विचारशील वर्ग के सम्मुख उपहासास्पद बने, तो आश्चर्य ही क्या?
समय की मांग है कि इस सर्वव्यापी अवांछनीयता और अप्रामाणिकता के माहौल में हर मान्यता का नये सिरे से विवेचन निरीक्षण हो। जो अपनी उपयोगिता सिद्ध कर पाता है उसी को लोकमान्यता मिलती है। इस सन्दर्भ में अध्यात्म को स्वयं आत्म निरीक्षण परीक्षण करना चाहिए और ‘‘जो खरा है, वह अपना’’ वाला सिद्धान्त अपनाकर ऐसा कवच पहन लेना चाहिए कि जिस पर बुद्धिवाद का, प्रत्यक्षवाद का आक्रमण आघात न पहुंच सके।