Books - विज्ञान एवं अध्यात्म का समन्वित स्वरूप
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अध्यात्म का स्वरूप और प्रयोजन
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
इस विश्व ब्रह्माण्ड में दो शक्ति-सत्तायें आच्छादित हैं। एक जड़ दूसरी चेतन। इन्हीं को प्रकृति और पुरुष भी कहते हैं। स्थूल और सूक्ष्म भी। इन दोनों का पृथक-पृथक अस्तित्व और महत्व है, पर सुयोग तभी बनता है जब वे एक-दूसरे की सहायक बनकर संयुक्त शक्ति के रूप में विकसित होतीं और अपने चमत्कार दिखाती हैं।
उदाहरण के लिए शरीर को ही लिया जाय। काया पंच तत्वों द्वारा विनिर्मित है। अंग-अवयवों में रक्त-मांस, तन्तु-झिल्ली, अस्थि-मज्जा का मिलन-एकीकरण है। इसलिए उनसे इच्छानुरूप काम कराया जा सकता है। शरीर तन्त्र की प्रकृति की करामात ही इसे कह सकते हैं। इतने पर भी वह अपूर्ण है। उसके भीतर एक चेतना काम करती है। उसी का अचेतन भाग श्वांस-प्रश्वांस, निमेष-उन्मेष, आकुंचन-प्रकुंचन, सुषुप्ति-जागृति आदि की व्यवस्था बनता रहता है। उसी का दूसरा पक्ष है—सचेतन। जो सोचता, निर्णय करता और इच्छानुसार कार्य करने का आदेश देकर अनेकानेक क्रिया-कृत्य सम्पन्न करता है।
जब तक जड़-चेतन का संयोग है, तभी तक प्राणी जीवित रहता है। दोनों के विलग हो जाने पर मृत्यु हो जाती है। मरा हुआ शरीर देखने में यथावत् रहने पर भी सर्वथा निर्जीव हो जाता है। तेजी से सड़ने-गलने लगता है, ताकि उसके घटक पृथक-पृथक होकर अपनी मूल स्थिति में जा पहुंचें। निर्जीव शरीर बेकार है। शरीर रहित आत्मा अपना अस्तित्व भले ही बनाये रहती हो, पर उसका प्रकट परिचय देने तक की स्थिति में नहीं रहती। मरणोपरान्त अदृश्य प्राण चेतना किस रूप में रहती है? पुनर्जन्म से पूर्व उसे किस स्थिति में कहां रहना पड़ता है? उसका केवल अनुमान ही लगाया जाता रहता है। कदाचित आत्म-सत्ता कुछ अधिक सामर्थ्यवान रही होती तो उसने अपनी स्थिति पर ऐसा प्रकाश डाला होता जो हर किसी के लिए मान्य होता, पर आदिकाल से लेकर अद्यावधि इस सम्बन्ध में कुछ सुनिश्चित तथ्य हस्तगत हो नहीं सका है। आत्मायें भी अस्तित्व के रहते हुए शरीर साधन के बिना कुछ सुनिश्चित अभिव्यक्ति प्रकट नहीं कर पातीं। भूत-प्रेत के रूप में उनके सूक्ष्म शरीर की हरकतें ही यदा कदा प्रकाश में आती हैं। इतने पर भी यह प्रमाण नहीं मिलता कि मरण से लेकर पुनर्जन्म तक की अवधि में उन्हें कहां किस प्रकार रहना पड़ा और क्या करना पड़ा। कोई अनुमान लगाया भी गया हो तो मतावलम्बियों द्वारा अपने-अपने ढंग से प्रतिपादित करने पर अनिश्चय की स्थिति फिर जैसी की तैसी बन जाती है। भूत-प्रेतों तक के सम्बन्ध में उन्हें प्रभावित व्यक्ति की प्रगाढ़ मान्यता कहकर उपेक्षित कर दिया जाता है।
अभिप्राय इतना भर है कि जड़ और चेतन का समन्वय ही कोई सार्थक स्थिति का निर्माण करता है, अन्यथा इस विशाल में बिखरा पड़ा पदार्थ तत्व भी अपनी अस्त-व्यस्तता और कुरूपता का ही परिचय देता है। धरती पर ठोस रूप में, जलाशयों में द्रव रूप में और आकाश में वाष्पीभूत स्थिति में पदार्थ सत्ता बेतुके रूप में बिखरी पड़ी रहती है। थल प्रदेश, जिसके साथ मनुष्य का सम्पर्क सधा है वहां खड्डे-टोले जैसा ही कुछ अनगढ़ देखा पाया जाता है। वृक्ष-वनस्पति वहां हैं तो, पर उनकी क्रमबद्धता कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती। जलाशयों में समुद्र सबसे बड़ा है, पर वह इतना गहरा और खारा है कि उसका प्रयोग सर्वसाधारण के लिए किसी निमित्त उपयोग कर सकना संभव नहीं। आकाश में यों हवा का ही परिचय मिलता है, पर उन गैसों में भी विद्युत, एक्स-रे जैसी सूर्य द्वारा उत्पादित किरणों की भरमार है। इसका स्व-संचालित कोई विशेष उपयोग नहीं, कभी-कभी उस क्षेत्र में भी आंधी-तूफान जैसे उद्दण्ड प्रकरण उभरते रहते हैं। मेघ मालायें घुमड़ने और बिजली चमकने जैसे कौतूहलवर्धक दृश्य तो सामने आते हैं, पर उनकी शक्ति सामर्थ्य का ऐसा उपयोग नहीं बनता जिसे सराहा और उपयोगी कहा जा सके। कहीं अतिवृष्टि, कहीं अनावृष्टि। यहां तक कि समुद्रों से उठे बादल समुद्र पर ही बरसकर अपने बेतुकेपन का परिचय देते हैं। थल, जल और नभ के क्षेत्र में यदि चेतना का हस्तक्षेप न हुआ होता तो यहां अभी भी लगभग वैसा ही दीख पड़ता, जैसा अनादिकाल में किसी प्रकार विनिर्मित हुआ था।
कहने का तात्पर्य यह है कि जड़ और चेतन का संयोग ही सब प्रकार अभीष्ट है। जीवन यात्रा के सुसंचालन तक में चेतना की आवश्यकता पड़ती है, तभी वे सुन्दर, सुव्यवस्थित और उपयोगी होने का प्रमाण परिचय दे पाते हैं। भूमि को समतल बनाकर घास किस्म की वनस्पतियों को अन्न के रूप में खाद्य का प्रमुख आधार बना देना मनुष्य का ही कौशल है। खेत और उद्यान अपने आप नहीं बन पड़ते, उनमें मनुष्य का समुचित श्रम और कौशल नियोजित होता है। बीजों और फलों को प्रस्तुत करने और उपयोग में लिए जाने की कला मनुष्य की अपनी वृत्ति है। जलाशय जहां-तहां होते हैं। धरती के भीतर भी पानी बहुत गहरा है, उसे दैनिक उपयोग में लाने के लिए घरों में संग्रह कर रखना मनुष्य का अपना कौशल है। आकाश में विद्यमान हवा और तापमान से सन्तुलित लाभ लेने के लिए मकान उसी ने बनाये हैं। तापमान की चिनगारी से लेकर ज्वाला में बदल लेने की क्रिया का श्रेय मनुष्य को है। यद्यपि अग्नि एवं बिजली का अस्तित्व अनादिकाल से सृष्टि परिकर में विद्यमान था, पर उसका उद्घाटन तो मनुष्य ने ही किया है और उन सबका विविध प्रयोजनों के लिए उपयोग कर सकने का कौशल उसी के पुरुषार्थ ने सम्भव कर दिखाया है।
ऊपर कुछ प्रारम्भिक प्रत्यक्षीकरण और उत्पादनों की चर्चा है जिनमें यह बताना उद्देश्य है कि प्रकृति के ठोस, द्रव और व्यापक कलेवरों में शक्ति-सामर्थ्य कितनी ही क्यों न हो, पर उनका लाभ लेना मानवी चेतना के कौशल पर ही निर्भर रहा है। आरंभिककाल से लेकर अब तक प्रकृति की शक्तियों का रहस्योद्घाटन, सुनियोजन और महत्वपूर्ण उपयोग बन पड़ना संभव बनाने वाली कुशलता का नाम ही विज्ञान है। इस चमत्कारी उपलब्धि को जड़-चेतन का समन्वय ही कह सकते हैं। इसी के बल पर वह प्रगति सम्भव हुई है जिसके आधार पर इस धरातल पर सर्वत्र सुख-साधनों के अम्बार खड़े हो गये हैं। उनके सहारे मनुष्य अपने सर्वश्रेष्ठ, शक्ति सम्पन्न एवं धरातल का अधिष्ठाता बनाने का दावा करता देखा जाता है। यह दावा किसी सीमा तक सही भी है। वन्य पशुओं और मनुष्यों की तुलनात्मक समीक्षा करने पर सहज ही जाना जा सकता है कि पदार्थ को सुनियोजित करने की क्षमता-जिसे विज्ञान कहते हैं, कितना सशक्त-समर्थ और सुविधाओं से भरा-पूरा है।
पदार्थ की अपनी स्वतन्त्र सत्ता है। इसी प्रकार चेतना के भी स्रोत-उद्गम और कार्यक्षेत्र पृथक हैं। इस पृथकता के रहते हुए भी संसार इतना सुन्दर और सुविधा-साधनों से भरा-पूरा बन सका, उसका श्रेय उस विज्ञान को ही दिया जा सकता है जिसे पदार्थ से लाभान्वित होने की कुशलता कहा जाता है। सामान्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य कहीं अधिक सुखी-समृद्ध है, यह तभी बन पड़ा जब विज्ञान का उद्भव करना और उससे लाभ उठाने की प्रक्रिया को अधिकाधिक सफलतापूर्वक सम्पन्न करना सम्भव हुआ। इस मोटी जानकारी के उपरान्त एक और भी बड़ी बात विचारणीय रह जाती है कि पदार्थ का उपयोग जानना ही पर्याप्त नहीं उसका सदुपयोग भी समझा जाना चाहिए। यह विभाजन रेखा मात्र पदार्थ तक ही सीमित नहीं है, वरन् स्वयं चेतना के अपने आपे पर भी लागू होती है। इन दोनों महाशक्तियों का यदि सदुपयोग न बन पड़े तो फिर दूसरा पक्ष दुरुपयोग ही रह जाता है। विज्ञान को शक्ति और साधन उत्पन्न करने का श्रेय तो है, पर वह स्वयं इस स्थिति में नहीं है कि सदुपयोग और दुरुपयोग का अन्तर कर सके। देखा गया है कि तात्कालिक लाभ की संकीर्णता प्रायः ऐसे सघन आवरण से भरी-पूरी होती है कि उसे दूरवर्ती परिणामों की समझ-बूझ प्रायः नहीं के बराबर होती है। इसलिए प्रलोभनों, आकर्षणों, लिप्साओं की प्रबलता उपलब्ध शक्तियों का दुरुपयोग करने के लिए ही घसीट ले जाती है। जाल में फंसने वाली चिड़ियां, मछली का उदाहरण इस संदर्भ में प्रायः दिया जाता रहता है। चासनी में पंख फंसाकर प्राण गंवाने वाली मक्खी भी यही मूर्खता करती है। मनुष्यों में यह प्रचलन और भी अधिक है। जीभ का चटोरापन पेट खराब करने के उपरान्त स्वास्थ्य का ही सफाया कर देता है। कामुकता के लिए आतुर लोग जीवनी शक्ति को निचोड़ डालते हैं। बिना परिश्रम बहुत बड़ी सम्पदा अर्जित कर लेने के फेर में अपराधी कुकर्मों की श्रृंखला चल पड़ती है। तनिक-सी स्फूर्ति पाने के लिए लोग नशेबाजी के कुचक्र में फंसते—एक प्रकार से अपंग-अपाहिज बनकर रह जाते हैं। वैभव का विपुल संचय तृष्णा कहलाता है वासना के उपरान्त तृष्णा ही पदार्थ सम्पदा का बुरे किस्म का दुरुपयोग है। इसी त्रिदोष में यह अहंकार भी है, जो दूसरों की दृष्टि में अपने को बड़ा सिद्ध करने के लिए ऐसे विचित्र आडम्बर विनिर्मित करता है माना वही सबसे सुन्दर, बुद्धिमान, पराक्रमी और सम्पन्न हो। ठाट-बाट की खर्चीली साज-सज्जा इसी कुचक्र की प्रेरणा से खड़ी करनी पड़ती है। सस्ती वाहवाही लूटने के लिए नाम छपवाने, बड़े कहलाने के लिए ऐसी विडम्बनायें रचनी पड़ती हैं, जो सर्वथा निस्सार होते हुए भी प्राणप्रिय लगती हैं।
संक्षेप में यही है पदार्थ सम्पदा का दुरुपयोग। इसे विज्ञान वैभव को अनर्थ के लिए नियोजित करना कह सकते हैं। पतन तात्कालिक लाभ की आतुरता के साथ जुड़ा हुआ है। आमतौर से यही किया और अपनाया जाता है। फलस्वरूप व्यक्ति अपने सुदूर भविष्य को अन्धकारमय बनाता है। त्रास सहता है और आत्म प्रताड़ना के साथ-साथ लोक-भर्त्सना का भाजन बनता है। इसकी रोकथाम समाज, शासन द्वारा जो यत्किंचित् ही बन पड़ती है उसे सहज क्रम में ढाला या लुभाया जा सकता है। मात्र एक ही रोकथाम का उपाय है—दूरदर्शी विवेकशीलता पर आधारित नीतिमत्ता, मानव गरिमा के साथ जुड़ी हुई उत्कृष्टता। इसी को तत्वदर्शन की भाषा में अध्यात्म कहा गया है। पदार्थ से भी अधिक शक्तिवान है—चेतना। उसी का कौशल और चमत्कार है कि पदार्थ को अनगढ़ से सुगढ़ स्थिति तक पहुंचाने में सफलता प्राप्त हुई। फिर भी एक आश्चर्य और भी शेष रह जाता है कि विज्ञान की जन्मदात्री होने पर भी यह चेतना अपने आपके सम्बन्ध में भी कम दिग्भ्रान्त नहीं रहती। अपने को भी अपना मकड़जाल बुनकर फंसाने और असाधारण सन्त्रास सहते रहने के लिए बाधित होती है। यह और भी जटिल स्थिति है। दूसरों के सम्बन्ध में समीक्षा करना सरल पड़ता है। दूसरों के रूप का भला-बुरा वर्णन किया जा सकता है, पर आत्म-समीक्षा कैसे बन पड़े? अपने प्रति पक्षपात भी रहता है और सर्वोत्तम होने का आग्रह भी। ऐसी दशा में दृष्टिकोण गड़बड़ाता है, कुकल्पनायें उठती हैं। अपने को सही सिद्ध करने वाले अनेकानेक तर्क साथ देते हैं। बुद्धि का निर्णय कभी तदनुरूप ही होता है, जैसा भी कुछ मानस बन गया है। स्वभाव में, रुझान में, आदतों में प्रायः अनौचित्य का अंश ही अधिक देखा जाता है। पूर्व संचित कुसंस्कार और बहुसंख्यकों द्वारा अपनाया गया प्रचलन आमतौर से अपने चिन्तन को तदनुरूप ढाल लेता है। अपनी मान्यता और आस्था में ऐसी विशेषता है कि वह दूसरों के सभी परामर्शों को निरस्त कर देती है जो अपनी संचित मान्यताओं को निरस्त करती है।
ऐसी दशा में यह कठिनाई भी सामने आती है कि अपना दृष्टिकोण उत्कृष्ट आदर्शवादिता के ढांचे में कैसे ढले? व्यवहार में ऐसी शालीनता का समावेश कैसे हो जिसे मानवी गरिमा के उपयुक्त कहा जा सके। जिसके आधार पर चरित्र और व्यवहार किस प्रकार ऐसा बन सके, कि उपलब्ध साधनों का सदुपयोग बन पड़े? दूसरों के साथ सज्जनता स्तर का शिष्टाचार निभ सके।
यह ध्यान में रखने योग्य बात एक है कि लोग आदर्शों की बात का मौखिक समर्थन तो अपना बड़प्पन बघारने के लिए करते रहते हैं। वैसे धर्मोपदेश सुनकर उनके प्रति समर्थन भी व्यक्त कर देते हैं, पर मानते और करते वही रहते हैं जो पहले से ही मजबूती के साथ अपनी मान्यताओं में समाविष्ट कर रखा है। आत्म-सुधार के क्षेत्र में यही भारी संकट है। उपदेश, परामर्श, शास्त्र उल्लेख, आप्त वचन जब कान, मस्तिष्क तक टकराकर ही बाहर निकल जाय और उसका प्रभाव अन्तराल की गहराइयों तक न पहुंचे तो चेतना का परिष्कार किस आधार पर बन पड़े?
इस संदर्भ में एक ही आधार कारगर हो सका है और वह है, आत्म-समीक्षा निष्पक्ष भाव से कर सकने की क्षमता। आत्म-सुधार और आत्म-निर्माण के लिए उभारा गया प्रचण्ड साहस। अपने आपे का सुधार परिष्कार उस आत्मबल के पक्षधर तत्वदर्शन के माध्यम से ही हो सकता है, जिसे पुरातन भाषा में ‘आध्यात्म’ कहते हैं। विज्ञान वैभव का सदुपयोग और आत्म चेतना का परिष्कार ये दोनों ही प्रयोजन जिस आधार पर सिद्ध हो सकें उसे एक शब्द में अध्यात्म कहा जाता है। उच्चस्तरीय तत्वदर्शन भी। लोक व्यवहार में अध्यात्म और विज्ञान की दो पृथक धारायें बन गई हैं। दोनों ने अपने-अपने दुर्ग अलग-अलग खड़े कर लिए हैं। भ्रान्तियों दोनों पर ही अपने-अपने ढंग की सवार हैं। वे जिस भी स्थिति में हैं अपने को पूर्ण मानकर चल रहे हैं। जिस प्रकार बंटे हुए आदम स्तर के कबीले एक-दूसरे के प्रति सहयोग और सहानुभूति रखने की आवश्यकता नहीं समझते, उसी प्रकार दोनों वर्ग के सत्ताधारी यह सोच बना चले हैं कि वे अपने आप में पूर्ण हैं। उन्हें दूसरे पक्ष की उपयोगिता समझने के लिए चिन्तन के अवरुद्ध द्वार को खोलना चाहिए। यह न बन पड़ने पर दूसरे पक्ष को बिराना समझने के साथ-साथ वैमनस्य ही उपजता है। उस स्तर का मानस बन जाने पर यह भी प्रयास चल पड़ता है कि विपक्षी को निराधार और हेय ठहराने के लिए जितने तर्कों के तीर चलाये जा सकते हों, उन्हें चलाने में कोर-कसर न रखी जाय। पिछली शताब्दियों में यही होता भी रहा है। जब अध्यात्म का किला मजबूत था, तब उसके बुर्जों पर बैठे तोपची विज्ञान को आसुरी मायाजाल बताते रहे। शैतान की करतूत भी बताते रहे। अभ्यास प्रक्रिया की सीमा से आगे बढ़कर जब विज्ञान ने अपने नये अनुसंधानों को यथार्थवादी बताया तो उन्हें झुठलाया ही नहीं गया, वरन् त्रास देने में भी कुछ उठा न रखा गया। अब इस शताब्दी में विज्ञान ने बाजी मार ली है और अपने आविष्कारों के आधार पर मिलने वाली सुविधाओं के चमत्कार से सर्वसाधारण का मन मोह लिया है, तो उसने भी अपने विरोधी के प्रति कमर कसने में कोई-कसर नहीं रखी है।
वैज्ञानिक क्षेत्रों में अध्यात्म को अन्धविश्वास, कल्पनाओं की उड़ान और प्रतिगामियों का बौद्धिक षड़यन्त्र कहना शुरू कर दिया है। धर्म को अफीम की गोली और तत्वदर्शन को भ्रान्तियों की पिटारी ठहराना शुरू कर दिया है।
इस द्वन्द्व में मनुष्य जाति को असीम क्षति उठानी पड़ रही है। गाड़ी को खींचने वाले दो बैल यदि परस्पर सींग मारने पर उतर आयें तो यात्रा हो नहीं सकेगी। वे बैल भी आहत होकर उस उद्देश्य को चोट पहुंचायेंगे जिसके लिए दोनों गाड़ी में जुते और एक दिशा में चलकर एक लक्ष्य पूरा करने के लिए नियोजित हुए थे।
जब तक जड़-चेतन का संयोग है, तभी तक प्राणी जीवित रहता है। दोनों के विलग हो जाने पर मृत्यु हो जाती है। मरा हुआ शरीर देखने में यथावत् रहने पर भी सर्वथा निर्जीव हो जाता है। तेजी से सड़ने-गलने लगता है, ताकि उसके घटक पृथक-पृथक होकर अपनी मूल स्थिति में जा पहुंचें। निर्जीव शरीर बेकार है। शरीर रहित आत्मा अपना अस्तित्व भले ही बनाये रहती हो, पर उसका प्रकट परिचय देने तक की स्थिति में नहीं रहती। मरणोपरान्त अदृश्य प्राण चेतना किस रूप में रहती है? पुनर्जन्म से पूर्व उसे किस स्थिति में कहां रहना पड़ता है? उसका केवल अनुमान ही लगाया जाता रहता है। कदाचित आत्म-सत्ता कुछ अधिक सामर्थ्यवान रही होती तो उसने अपनी स्थिति पर ऐसा प्रकाश डाला होता जो हर किसी के लिए मान्य होता, पर आदिकाल से लेकर अद्यावधि इस सम्बन्ध में कुछ सुनिश्चित तथ्य हस्तगत हो नहीं सका है। आत्मायें भी अस्तित्व के रहते हुए शरीर साधन के बिना कुछ सुनिश्चित अभिव्यक्ति प्रकट नहीं कर पातीं। भूत-प्रेत के रूप में उनके सूक्ष्म शरीर की हरकतें ही यदा कदा प्रकाश में आती हैं। इतने पर भी यह प्रमाण नहीं मिलता कि मरण से लेकर पुनर्जन्म तक की अवधि में उन्हें कहां किस प्रकार रहना पड़ा और क्या करना पड़ा। कोई अनुमान लगाया भी गया हो तो मतावलम्बियों द्वारा अपने-अपने ढंग से प्रतिपादित करने पर अनिश्चय की स्थिति फिर जैसी की तैसी बन जाती है। भूत-प्रेतों तक के सम्बन्ध में उन्हें प्रभावित व्यक्ति की प्रगाढ़ मान्यता कहकर उपेक्षित कर दिया जाता है।
अभिप्राय इतना भर है कि जड़ और चेतन का समन्वय ही कोई सार्थक स्थिति का निर्माण करता है, अन्यथा इस विशाल में बिखरा पड़ा पदार्थ तत्व भी अपनी अस्त-व्यस्तता और कुरूपता का ही परिचय देता है। धरती पर ठोस रूप में, जलाशयों में द्रव रूप में और आकाश में वाष्पीभूत स्थिति में पदार्थ सत्ता बेतुके रूप में बिखरी पड़ी रहती है। थल प्रदेश, जिसके साथ मनुष्य का सम्पर्क सधा है वहां खड्डे-टोले जैसा ही कुछ अनगढ़ देखा पाया जाता है। वृक्ष-वनस्पति वहां हैं तो, पर उनकी क्रमबद्धता कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती। जलाशयों में समुद्र सबसे बड़ा है, पर वह इतना गहरा और खारा है कि उसका प्रयोग सर्वसाधारण के लिए किसी निमित्त उपयोग कर सकना संभव नहीं। आकाश में यों हवा का ही परिचय मिलता है, पर उन गैसों में भी विद्युत, एक्स-रे जैसी सूर्य द्वारा उत्पादित किरणों की भरमार है। इसका स्व-संचालित कोई विशेष उपयोग नहीं, कभी-कभी उस क्षेत्र में भी आंधी-तूफान जैसे उद्दण्ड प्रकरण उभरते रहते हैं। मेघ मालायें घुमड़ने और बिजली चमकने जैसे कौतूहलवर्धक दृश्य तो सामने आते हैं, पर उनकी शक्ति सामर्थ्य का ऐसा उपयोग नहीं बनता जिसे सराहा और उपयोगी कहा जा सके। कहीं अतिवृष्टि, कहीं अनावृष्टि। यहां तक कि समुद्रों से उठे बादल समुद्र पर ही बरसकर अपने बेतुकेपन का परिचय देते हैं। थल, जल और नभ के क्षेत्र में यदि चेतना का हस्तक्षेप न हुआ होता तो यहां अभी भी लगभग वैसा ही दीख पड़ता, जैसा अनादिकाल में किसी प्रकार विनिर्मित हुआ था।
कहने का तात्पर्य यह है कि जड़ और चेतन का संयोग ही सब प्रकार अभीष्ट है। जीवन यात्रा के सुसंचालन तक में चेतना की आवश्यकता पड़ती है, तभी वे सुन्दर, सुव्यवस्थित और उपयोगी होने का प्रमाण परिचय दे पाते हैं। भूमि को समतल बनाकर घास किस्म की वनस्पतियों को अन्न के रूप में खाद्य का प्रमुख आधार बना देना मनुष्य का ही कौशल है। खेत और उद्यान अपने आप नहीं बन पड़ते, उनमें मनुष्य का समुचित श्रम और कौशल नियोजित होता है। बीजों और फलों को प्रस्तुत करने और उपयोग में लिए जाने की कला मनुष्य की अपनी वृत्ति है। जलाशय जहां-तहां होते हैं। धरती के भीतर भी पानी बहुत गहरा है, उसे दैनिक उपयोग में लाने के लिए घरों में संग्रह कर रखना मनुष्य का अपना कौशल है। आकाश में विद्यमान हवा और तापमान से सन्तुलित लाभ लेने के लिए मकान उसी ने बनाये हैं। तापमान की चिनगारी से लेकर ज्वाला में बदल लेने की क्रिया का श्रेय मनुष्य को है। यद्यपि अग्नि एवं बिजली का अस्तित्व अनादिकाल से सृष्टि परिकर में विद्यमान था, पर उसका उद्घाटन तो मनुष्य ने ही किया है और उन सबका विविध प्रयोजनों के लिए उपयोग कर सकने का कौशल उसी के पुरुषार्थ ने सम्भव कर दिखाया है।
ऊपर कुछ प्रारम्भिक प्रत्यक्षीकरण और उत्पादनों की चर्चा है जिनमें यह बताना उद्देश्य है कि प्रकृति के ठोस, द्रव और व्यापक कलेवरों में शक्ति-सामर्थ्य कितनी ही क्यों न हो, पर उनका लाभ लेना मानवी चेतना के कौशल पर ही निर्भर रहा है। आरंभिककाल से लेकर अब तक प्रकृति की शक्तियों का रहस्योद्घाटन, सुनियोजन और महत्वपूर्ण उपयोग बन पड़ना संभव बनाने वाली कुशलता का नाम ही विज्ञान है। इस चमत्कारी उपलब्धि को जड़-चेतन का समन्वय ही कह सकते हैं। इसी के बल पर वह प्रगति सम्भव हुई है जिसके आधार पर इस धरातल पर सर्वत्र सुख-साधनों के अम्बार खड़े हो गये हैं। उनके सहारे मनुष्य अपने सर्वश्रेष्ठ, शक्ति सम्पन्न एवं धरातल का अधिष्ठाता बनाने का दावा करता देखा जाता है। यह दावा किसी सीमा तक सही भी है। वन्य पशुओं और मनुष्यों की तुलनात्मक समीक्षा करने पर सहज ही जाना जा सकता है कि पदार्थ को सुनियोजित करने की क्षमता-जिसे विज्ञान कहते हैं, कितना सशक्त-समर्थ और सुविधाओं से भरा-पूरा है।
पदार्थ की अपनी स्वतन्त्र सत्ता है। इसी प्रकार चेतना के भी स्रोत-उद्गम और कार्यक्षेत्र पृथक हैं। इस पृथकता के रहते हुए भी संसार इतना सुन्दर और सुविधा-साधनों से भरा-पूरा बन सका, उसका श्रेय उस विज्ञान को ही दिया जा सकता है जिसे पदार्थ से लाभान्वित होने की कुशलता कहा जाता है। सामान्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य कहीं अधिक सुखी-समृद्ध है, यह तभी बन पड़ा जब विज्ञान का उद्भव करना और उससे लाभ उठाने की प्रक्रिया को अधिकाधिक सफलतापूर्वक सम्पन्न करना सम्भव हुआ। इस मोटी जानकारी के उपरान्त एक और भी बड़ी बात विचारणीय रह जाती है कि पदार्थ का उपयोग जानना ही पर्याप्त नहीं उसका सदुपयोग भी समझा जाना चाहिए। यह विभाजन रेखा मात्र पदार्थ तक ही सीमित नहीं है, वरन् स्वयं चेतना के अपने आपे पर भी लागू होती है। इन दोनों महाशक्तियों का यदि सदुपयोग न बन पड़े तो फिर दूसरा पक्ष दुरुपयोग ही रह जाता है। विज्ञान को शक्ति और साधन उत्पन्न करने का श्रेय तो है, पर वह स्वयं इस स्थिति में नहीं है कि सदुपयोग और दुरुपयोग का अन्तर कर सके। देखा गया है कि तात्कालिक लाभ की संकीर्णता प्रायः ऐसे सघन आवरण से भरी-पूरी होती है कि उसे दूरवर्ती परिणामों की समझ-बूझ प्रायः नहीं के बराबर होती है। इसलिए प्रलोभनों, आकर्षणों, लिप्साओं की प्रबलता उपलब्ध शक्तियों का दुरुपयोग करने के लिए ही घसीट ले जाती है। जाल में फंसने वाली चिड़ियां, मछली का उदाहरण इस संदर्भ में प्रायः दिया जाता रहता है। चासनी में पंख फंसाकर प्राण गंवाने वाली मक्खी भी यही मूर्खता करती है। मनुष्यों में यह प्रचलन और भी अधिक है। जीभ का चटोरापन पेट खराब करने के उपरान्त स्वास्थ्य का ही सफाया कर देता है। कामुकता के लिए आतुर लोग जीवनी शक्ति को निचोड़ डालते हैं। बिना परिश्रम बहुत बड़ी सम्पदा अर्जित कर लेने के फेर में अपराधी कुकर्मों की श्रृंखला चल पड़ती है। तनिक-सी स्फूर्ति पाने के लिए लोग नशेबाजी के कुचक्र में फंसते—एक प्रकार से अपंग-अपाहिज बनकर रह जाते हैं। वैभव का विपुल संचय तृष्णा कहलाता है वासना के उपरान्त तृष्णा ही पदार्थ सम्पदा का बुरे किस्म का दुरुपयोग है। इसी त्रिदोष में यह अहंकार भी है, जो दूसरों की दृष्टि में अपने को बड़ा सिद्ध करने के लिए ऐसे विचित्र आडम्बर विनिर्मित करता है माना वही सबसे सुन्दर, बुद्धिमान, पराक्रमी और सम्पन्न हो। ठाट-बाट की खर्चीली साज-सज्जा इसी कुचक्र की प्रेरणा से खड़ी करनी पड़ती है। सस्ती वाहवाही लूटने के लिए नाम छपवाने, बड़े कहलाने के लिए ऐसी विडम्बनायें रचनी पड़ती हैं, जो सर्वथा निस्सार होते हुए भी प्राणप्रिय लगती हैं।
संक्षेप में यही है पदार्थ सम्पदा का दुरुपयोग। इसे विज्ञान वैभव को अनर्थ के लिए नियोजित करना कह सकते हैं। पतन तात्कालिक लाभ की आतुरता के साथ जुड़ा हुआ है। आमतौर से यही किया और अपनाया जाता है। फलस्वरूप व्यक्ति अपने सुदूर भविष्य को अन्धकारमय बनाता है। त्रास सहता है और आत्म प्रताड़ना के साथ-साथ लोक-भर्त्सना का भाजन बनता है। इसकी रोकथाम समाज, शासन द्वारा जो यत्किंचित् ही बन पड़ती है उसे सहज क्रम में ढाला या लुभाया जा सकता है। मात्र एक ही रोकथाम का उपाय है—दूरदर्शी विवेकशीलता पर आधारित नीतिमत्ता, मानव गरिमा के साथ जुड़ी हुई उत्कृष्टता। इसी को तत्वदर्शन की भाषा में अध्यात्म कहा गया है। पदार्थ से भी अधिक शक्तिवान है—चेतना। उसी का कौशल और चमत्कार है कि पदार्थ को अनगढ़ से सुगढ़ स्थिति तक पहुंचाने में सफलता प्राप्त हुई। फिर भी एक आश्चर्य और भी शेष रह जाता है कि विज्ञान की जन्मदात्री होने पर भी यह चेतना अपने आपके सम्बन्ध में भी कम दिग्भ्रान्त नहीं रहती। अपने को भी अपना मकड़जाल बुनकर फंसाने और असाधारण सन्त्रास सहते रहने के लिए बाधित होती है। यह और भी जटिल स्थिति है। दूसरों के सम्बन्ध में समीक्षा करना सरल पड़ता है। दूसरों के रूप का भला-बुरा वर्णन किया जा सकता है, पर आत्म-समीक्षा कैसे बन पड़े? अपने प्रति पक्षपात भी रहता है और सर्वोत्तम होने का आग्रह भी। ऐसी दशा में दृष्टिकोण गड़बड़ाता है, कुकल्पनायें उठती हैं। अपने को सही सिद्ध करने वाले अनेकानेक तर्क साथ देते हैं। बुद्धि का निर्णय कभी तदनुरूप ही होता है, जैसा भी कुछ मानस बन गया है। स्वभाव में, रुझान में, आदतों में प्रायः अनौचित्य का अंश ही अधिक देखा जाता है। पूर्व संचित कुसंस्कार और बहुसंख्यकों द्वारा अपनाया गया प्रचलन आमतौर से अपने चिन्तन को तदनुरूप ढाल लेता है। अपनी मान्यता और आस्था में ऐसी विशेषता है कि वह दूसरों के सभी परामर्शों को निरस्त कर देती है जो अपनी संचित मान्यताओं को निरस्त करती है।
ऐसी दशा में यह कठिनाई भी सामने आती है कि अपना दृष्टिकोण उत्कृष्ट आदर्शवादिता के ढांचे में कैसे ढले? व्यवहार में ऐसी शालीनता का समावेश कैसे हो जिसे मानवी गरिमा के उपयुक्त कहा जा सके। जिसके आधार पर चरित्र और व्यवहार किस प्रकार ऐसा बन सके, कि उपलब्ध साधनों का सदुपयोग बन पड़े? दूसरों के साथ सज्जनता स्तर का शिष्टाचार निभ सके।
यह ध्यान में रखने योग्य बात एक है कि लोग आदर्शों की बात का मौखिक समर्थन तो अपना बड़प्पन बघारने के लिए करते रहते हैं। वैसे धर्मोपदेश सुनकर उनके प्रति समर्थन भी व्यक्त कर देते हैं, पर मानते और करते वही रहते हैं जो पहले से ही मजबूती के साथ अपनी मान्यताओं में समाविष्ट कर रखा है। आत्म-सुधार के क्षेत्र में यही भारी संकट है। उपदेश, परामर्श, शास्त्र उल्लेख, आप्त वचन जब कान, मस्तिष्क तक टकराकर ही बाहर निकल जाय और उसका प्रभाव अन्तराल की गहराइयों तक न पहुंचे तो चेतना का परिष्कार किस आधार पर बन पड़े?
इस संदर्भ में एक ही आधार कारगर हो सका है और वह है, आत्म-समीक्षा निष्पक्ष भाव से कर सकने की क्षमता। आत्म-सुधार और आत्म-निर्माण के लिए उभारा गया प्रचण्ड साहस। अपने आपे का सुधार परिष्कार उस आत्मबल के पक्षधर तत्वदर्शन के माध्यम से ही हो सकता है, जिसे पुरातन भाषा में ‘आध्यात्म’ कहते हैं। विज्ञान वैभव का सदुपयोग और आत्म चेतना का परिष्कार ये दोनों ही प्रयोजन जिस आधार पर सिद्ध हो सकें उसे एक शब्द में अध्यात्म कहा जाता है। उच्चस्तरीय तत्वदर्शन भी। लोक व्यवहार में अध्यात्म और विज्ञान की दो पृथक धारायें बन गई हैं। दोनों ने अपने-अपने दुर्ग अलग-अलग खड़े कर लिए हैं। भ्रान्तियों दोनों पर ही अपने-अपने ढंग की सवार हैं। वे जिस भी स्थिति में हैं अपने को पूर्ण मानकर चल रहे हैं। जिस प्रकार बंटे हुए आदम स्तर के कबीले एक-दूसरे के प्रति सहयोग और सहानुभूति रखने की आवश्यकता नहीं समझते, उसी प्रकार दोनों वर्ग के सत्ताधारी यह सोच बना चले हैं कि वे अपने आप में पूर्ण हैं। उन्हें दूसरे पक्ष की उपयोगिता समझने के लिए चिन्तन के अवरुद्ध द्वार को खोलना चाहिए। यह न बन पड़ने पर दूसरे पक्ष को बिराना समझने के साथ-साथ वैमनस्य ही उपजता है। उस स्तर का मानस बन जाने पर यह भी प्रयास चल पड़ता है कि विपक्षी को निराधार और हेय ठहराने के लिए जितने तर्कों के तीर चलाये जा सकते हों, उन्हें चलाने में कोर-कसर न रखी जाय। पिछली शताब्दियों में यही होता भी रहा है। जब अध्यात्म का किला मजबूत था, तब उसके बुर्जों पर बैठे तोपची विज्ञान को आसुरी मायाजाल बताते रहे। शैतान की करतूत भी बताते रहे। अभ्यास प्रक्रिया की सीमा से आगे बढ़कर जब विज्ञान ने अपने नये अनुसंधानों को यथार्थवादी बताया तो उन्हें झुठलाया ही नहीं गया, वरन् त्रास देने में भी कुछ उठा न रखा गया। अब इस शताब्दी में विज्ञान ने बाजी मार ली है और अपने आविष्कारों के आधार पर मिलने वाली सुविधाओं के चमत्कार से सर्वसाधारण का मन मोह लिया है, तो उसने भी अपने विरोधी के प्रति कमर कसने में कोई-कसर नहीं रखी है।
वैज्ञानिक क्षेत्रों में अध्यात्म को अन्धविश्वास, कल्पनाओं की उड़ान और प्रतिगामियों का बौद्धिक षड़यन्त्र कहना शुरू कर दिया है। धर्म को अफीम की गोली और तत्वदर्शन को भ्रान्तियों की पिटारी ठहराना शुरू कर दिया है।
इस द्वन्द्व में मनुष्य जाति को असीम क्षति उठानी पड़ रही है। गाड़ी को खींचने वाले दो बैल यदि परस्पर सींग मारने पर उतर आयें तो यात्रा हो नहीं सकेगी। वे बैल भी आहत होकर उस उद्देश्य को चोट पहुंचायेंगे जिसके लिए दोनों गाड़ी में जुते और एक दिशा में चलकर एक लक्ष्य पूरा करने के लिए नियोजित हुए थे।