Books - विवाहोन्मादः समस्या और समाधान
Language: HINDI
खर्चीली शादियाँ परले सिरे की मूर्खता
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संसार में विवाहों के रस्म-रिवाज तो अलग-अलग तरह के हैं पर वे हैं सामान्य स्तर के और सादगी भरे ताकि गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले आसानी से उस कृत्य को बिना कोई अतिरिक्त कठिनाई उठाये सम्पन्न कर सकें ।
अमीरों में भी फिजुलखर्ची को एक प्रकार की उद्दण्डता माना जाता है । ओछे लोग ही उपलब्ध पैसे की होली जलाते और तमाशा बनाते हैं । समझदार पैसे का महत्त्व समझते हैं । उसका उपयोग ऐसे कामों में करते हैं जिनसे अपनी, अपनों की तथा सर्वसाधारण की भलाई हो सके । इन प्रयोजनों से रहित धमाल स्तर के कृत्यों में पैसा उड़ाना पुराने समय में भी बुरा समझा जाता था । अब जबकि समझदारी की कसौटी हर काम पर लगाई जा रही है अपव्यय को और भी अधिक निन्दनीय ठहराया जाने लगा है ।
अपव्ययों में नशेबाजी, फैशनपरस्ती, आवारागर्दी, अतिवादी विलासिता को गिना जाता है । इस प्रकार के प्रसंगों में जिन्हें पैसा उड़ाते देखा जाता है उनकी निन्दा होती है । कहा जाता है कि हराम की कमाई ही बेदर्दी से खर्च की जाती है । इन मान्यता के अनुरूप पैसे की अतिशबाजी जलाने वालों को अनीति उपार्जनकर्त्ता माना जाता है । इनके प्रति दर्शकों में ईष्र्या भी भड़कती है और निन्दा भी सहज ही होने लगती है । साम्यवादी प्रवाह का प्रभाव दूर-दूर तक पहुँचा है । राजा, सामन्त, जमींदार, साहूकार को उस लहर ने धराशायी कर दिया । सोचा जाता है कि पैसे का उपयोग अभावग्रस्तता को दूर करने एवं सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाने में होना चाहिए । इसके स्थान पर जो उसे फूँकते, उड़ाते, बर्बाद करते देखे जाते हैं, उनके प्रति समझदारी का सहज आक्रोश उभरता है । वह जमाना अब बहुत पीछे छूट गया जिसमें अमीरी को भयानक हाने का चिन्ह माना जाता था और उनकी फिजूल खर्ची को 'दरियादिली' के नाम से सराहा जाता था । अब तो बात ठीक इससे उलटी हो गई है ।
ऐसे समय में विवाह-शादियों के समय आँखों मूँद कर पैसा उड़ाना कहीं भी, किसी को भी अखरने वाला लगता है । भले ही वह अनुभवकर्त्ताओं की अपनी जेब से चर्ख न हुआ हो । बहुरूपिये अपने वास्तविक रूप से भिन्न प्रकार की शक्लें बनाते और बोलियाँ बोलते हैं । स्वाँग करने वाले श्रृंगार बदल कर वेश बदलते और अभिनय द्वारा दर्शकों का मनोरंजन करते हैं । बच्चे रामलीला देखकर भागते हैं वे वहाँ से कागज के गदा, खपच्चियों के धनुष और बन्दरों के मुखौटे खरीद कर लाते हैं । उन्हें दिखाते फिरने की उचक-मचक में खाना-पीना तक भूल जाते हैं ।
ऐसी ही बालक्रीड़ा वे लोग करते हैं जो ब्याह शादियों के सरंजाम जुटाते अथवा बारात में सजधर कर जाते हैं । वेश धारण की तरह उनके नखरे भी बदल जाते हैं और इस प्रकार ऐंठ-अकड़ की चाल-ढाल अपनाते हैं मानो कहीं से मुहर अशर्फियों का गड़ा हुआ खजाना उन्हें ही मिल गया हो । स्वाँग सभी ओछा बन जाता है पर तब तो हँसी रोके नहीं रुकती जब गरीबों द्वारा अमीरी का प्रदर्शन करने के लिए शेर की खाल ओढ़कर गधे को साथियों के सामने बनराज होने की डींग देखा जाता है । अपने विवाह-उत्सवों की आदि से अन्त तक सभी हरकतें इसी प्रकार होती देखी जाती है । यह सारी खिलवाड़ पूरी तरह महँगी फिजूलखर्च में भरी-पूरी होती है, जिसका तात्पर्य इस प्रसंग में किसी भी प्रकार सम्मिलित होने वाले का अपनी औकात से अधिक खर्च करना और अंततः दिवालिया बनने की ओर घिसटना है ।
सभी जानते हैं कि इस घोर महँगाई के जमाने में किसी भलेमानस का खर्च मुश्किल से चलता है । भोजन, वस्त्र और मकान खर्च ही इतना हो जाता है कि बच्चों की शिक्षा, दीक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलम्बन आदि के लिए जिन खर्चों की नितान्त आवश्यकता है उनमें भी कटौती करनी पड़ती है फिर अतिथि सत्कार से लेकर आकस्मिक खर्चे, तीज-त्यौहारों के खर्च इतने अधिक लगे रहते हैं कि कोई सद्गृहस्थ अपनी गाड़ी मुश्किल से खींच पाता है ।
औसत गृहस्थ को अपनी समर्थता के समय में साधारण पाँच लड़की-लड़कों के विवाह करने पड़ते हैं । वे सभी बढ़ती महँगाई के साथ अधिक खर्चीले होते जाते हैं । जिनके पास फालतू कमाई के स्रोत हैं उन्हें सूझता नहीं कि उस चोरी की आय का करें क्या? बैंक में डाल नहीं सकते । घर बनाने, व्यवसाय बढ़ाने में भी सरकारी जाँच-पड़ताल पीछे लगती है । इस प्रकार का जमा पैसा निकल भागने के लिए आतुर रहता है । विलासी अपव्ययों में शादियों की धूमधाम ही सरल पड़ती है । उसमें लोगों पर चौंकाने वाले बड़प्पन की छाप ढालने का अवसर भी मिलता है और चाटुकारों द्वारा प्रस्तुत की कई वाहवाही में भी मन प्रसन्न होता है । ऐसा कुछ तो उन्होंने सुना-समझा नहीं होता कि अपने आवश्यक खर्च से बचा हुआ पैसा किन्हीं ऐसे सत्कर्मों में भी लगाया जा सकता है जिसमें पिछड़ों को राहत मिले और सत्प्रवृत्तियों के बढ़ाने में उपयोगी बन पड़े । कृपणता और अवांछनीयता की संयुक्त कमाई सत्प्रयोजनों में लगने के लिए सहज तैयार नहीं होती । उसे दुर्व्यसनों के लेकर अहंकारी प्रदर्शन करने वाले ठाट-बाट ही रास आते हैं । इसके लिए शादियों में दरियादिली दिखाते हुए दोनों हाथ पैसा उलीचना सबसे सरल उपाय जान पड़ता है । वही होता भी है ।
एक उक्ति है कि घोड़ी द्वारा पैरों में लोहे की नाल ठुकवाते देखकर मेंढकी का भी मन नहीं माना । नकल उतारने के लिए उसका मन मचल उठा । उसने भी नाल ठोकने वाले के आगे पैर पसार दिये कहा मैं क्यों घोड़ी से पीछे रहूँगी । मैं भी नाल ठुके पैरों से सड़क पर दौड़ लगाऊँगी । मना करने पर भी वह न मानी और पैरों के फटने के साथ जान भी गँवा बैठी ।
विवाह-शादियों में भी ऐसा ही होता देखा गया है । फालतू पैसे वालों के ठाट-बाट के प्रदर्शन को देखकर गरीब लोग भी उनकी नकल बनाते हैं । कुटुम्ब, रिश्तेदार, संबंधी, पड़ोसी समुदाय में भरें हुए मसखरे तो दूसरों का छप्पर जलने हर हाथ सेंकने की फिकर में रहते हैं । वे भी उकसाने में कमी नहीं रहने देते । औकात के भीतर रहने की बात करने पर व्यंग्य बचन बोलते, उपहास उड़ाते हैं । इस दबाव में असमर्थों को भी समर्थों के समतुल्य बनाने के लिए वैसा ही ठाट रोपना पड़ता है । कहना न होगा कि पहली ही शादी में घर की जमा पूँजी चुक जाती है और अगली शेष शादियों के समय साधन कहाँ से जुटायें इसका उत्तर देने से अकल जवाब दे जाती है । बर्तन बेचने से लेकर कर्ज लेने तक के साधन जब समाप्त हो जाते हैं तो बेईमानी, चोरी, चालाकी का यदि अवसर बन पड़ता है तो उसे अपनाते हैं अन्यथा दरिद्रता के बीच पलने वाले बच्चे अविवाहित ही रह जाते हैं ।
देश में प्रायः एक करोड़ विवाह हर साल होते हैं । उनमें महँगे-सस्तों को मिलाकर २५ हजार के लगभग खर्च फिजूलखर्ची में नष्ट हो जाती है । जिसके चले जाने पर खुशहाली के सभी द्वार बन्द हो जाते हैं । थोड़ी बहुत कमाई बढ़ने के उपाय बन भी पड़े तो वे भी इसी अलाव में ईंधन पड़ने की तरह कुछ और चमक-दमक दिखाकर समाप्त हो जाते हैं दरिद्रता जहाँ की तहाँ बनी रहती है । प्रगति के कोई साधन बन ही नहीं पाते । पूँजी जुट न पाये तो किसी कारोबार का सुयोग कैसे बने? यह इतना बड़ा छिद्र है कि घड़े में कितना ही पानी क्यों न भरा जाय सभी फूटे पैंदे से होकर बह जायेगा । गरीबी भगाओ का लक्ष्य पूरा करने के लिए आजीविका बढ़ाना ही एक उपाय नहीं है । उसके साथ खर्चीली शादियों के प्रचलन को भी छेद बन्द करने की तरह समाप्त करना होगा ।
(विवाहोन्मादः समस्या और समाधान पृ सं ४.१०)