Books - विवाहोन्मादः समस्या और समाधान
Language: HINDI
अब बदलनी होंगी
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आदर्शों की स्थापना, पालन एवं उन्हें सुदृढ़ परिपक्व बनाने का अभ्यास विवाह का उद्देश्य है । आन्तरिक अनुकूलता ही इस उद्देश्य की पूर्ति में प्रधान साधन एवं योग्यता है । साथ ही, भौतिक-सामाजिक जीवन में सफलता तथा प्रगति के लिये उपयुक्त अनुरूपता और सहयोग की प्रवृत्तियों को देखा-परखा जाना चाहिए । जो भिन्नताएँ उद्देश्य पूर्ति में बाधक बनती हैं, उनका ध्यान रखा जाना चाहिए । गुण, कर्म एवं स्वभाव की अनुकूलता तथा सामंजस्य विचार ही इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । अन्य बाहरी भिन्नताएँ विवाह के लिये बाधक नहीं बननी चाहिए ।
व्यक्तित्व को परखने की कसौटियाँ इसी प्रकार की होनी चाहिए कि स्वभाव और चरित्र की छानबीन की जाये । इसके अतिरिक्त वे बाहरी भिन्नताएँ नगण्य समझी जानी चाहिए, जिनसे आपसी तालमेल बनाकर गृहस्थ-जीवन में आगे बढ़ने में कोई वास्तविक व्यवधान न उत्पन्न होते हों ।
जिस प्रकार जन्मपत्री के गुणों के मिलान में कोई दम नहीं, अपितु व्यक्तित्व में सन्निहित गुणों की अनुकूलता ही जीवन में काम आती है, उसी प्रकार आयु, कद, वजन के सम्बंध में रूढ़ हो गई अनावश्यक मान्यताओं का आग्रह भी किसी काम का नहीं । स्वभाव, प्रवृत्ति तथा जीवन-दृष्टि की अनुरूपता हो तो सफल दाम्पत्य-जीवन उम्र, ऊँचाई और भार की असमानताओं से पारस्परिक प्रेम ओर प्रगति में रंचमात्र भी फर्क नहीं पड़ता । यदि सिर्फ ऊपरी समानता भी देखनी हो, तो भी रहन-सहन का वातावरण, रुचियाँ, शौक, स्वास्थ्य, शैक्षणिक एवम् तकनीकी दक्षताएँ आदि दर्जनों बाहरी समानताएँ हैं, जो कद, आयु आदि की अपेक्षा बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण हैं
लड़का-लड़की से बड़ा ही हो, यह आग्रह अर्थहीन है । जब पत्नी को दबाकर रखा जाना जरुरी माना जाता था, तब शायद यह भी आवश्यक माना जाने लगा था कि लड़का -लड़की से उम्र में बड़ा हो, जिससे वह लड़की के व्यक्तित्व पर हावी हो जाय, उसे दबा सके । लड़की के व्यक्तित्व विकसित होने से पहले ही उसे ससुराल भेजकर वहाँ के अजनबी वातावरण में उसे इस प्रकार ढलने देना भी तब जरूरी माना जाता था, जिससे कि वह ससुराल वालों को शासक और स्वयं को शासित मानने लगे । जिनसे खून का रिश्ता नहीं, पहले से मैत्री नहीं, वे अपने को अन्न-वस्त्र आदि की सुविधाएँ दे रहे हैं, स्नेह-सम्मान भी कुछ दे देते हैं, यह सोचकर लड़की एहसानमंद होकर दबी रहे, जो पाती है, उसे अपने अधिकार नहीं, ससुराल वालों की कृपा माने किन्तु यह सहयोग-सहकार एवम् समानता का युग है । अब तो लड़की का विकसित व्यक्तित्व ही उसका वास्तविक गुण एवं पात्रता है । आज के जमाने में दबी-घुटी लड़की पति का साथ नहीं दे पाएगी । योग्य लड़के योग्य लड़की को ही पत्नी के रूप में पाने की इच्छा रखते हैं ।
लेकिन कई बार ऐसा होता है कि उम्र कम होने की रूढ़ि का आतंक अभिभावकों तथा लड़कों की इच्छा एवम् पसन्द के बीच व्यवधान बन जाता है । यह समाप्त होना चाहिए । लड़की की उम्र लड़के के बिल्कुल बराबर हो या अधिक भी हो तो उसमें कुछ भी अनुचित नहीं । पाश्चात्य देशों का भौंडा अनुकरण तो अपने यहाँ भी सीख लिया गया और उसी की उल्टी-सीधी नकल के रूप में लड़के लोग लड़कियाँ देखकर पसन्द करने की पहल भी करने लगे हैं । किन्तु वहाँ की अच्छाइयों तथा सही प्रवृत्तियों को मानने से अभी भी कतराया जाता है । पश्चिमी जगत में एक-दूसरे के गुणों, रुचियों की परख को देखकर विवाह की आपसी सहमति होने से उम्र कभी बाधा नहीं बनती । लड़की का अधिक उम्र का होना किसी भी हिचक का कारण नहीं बनता ।
कद के बारे में भी आग्रह इसी प्रकार का है । यदि दोनों के व्यक्तित्व में साम्य है, सामंजस्य की सम्भावनाएँ हैं । तो इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि लड़की लड़के से 30 सेण्टीमीटर छोटी है या बराबर है या थोड़ी बड़ी है । बाजार में देखने वालों में से कुछ लोगों को जोड़े की ऊँचाई का आनुपातिक सन्तुलन भाता है अथवा नहीं, इस आधार पर भला कभी जीवन सम्बंधी महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये जाने चाहिए । दोनों को जीवन ऐसी चालू बाजारू टिप्पणियों के सहारे नहीं, संसार की कठोर वास्तविकताओं के बीच जीना पड़ेगा, यह तथ्य सदा ध्यान में रखना आवश्यक है ।
वजन की भिन्नता भी ऐसी ही बेमतलब है । पति छरछरा है और पत्नी स्थूल अथवा पति मोटा-तगड़ा है, पत्नी दुबली-पतली, यह कोई गणना एवं विचार योग्य तथ्य नहीं है । क्योंकि इससे दोनों के आपसी रिश्तों तथा सामाजिक जीवन में कोई भी प्रभाव पड़ने वाला है नहीं, ऐसी भिन्नताओं को उपहास या टीका-टिप्पणी का विषय बनाना मात्र कुछ खाली दिमाग और निठल्ले-बेकार लोगों का स्वभाव होता है ।
इन भिन्नताओं के कारण हर प्रकार से अनुकूल और अनुरूप लड़के-लड़की का विवाह टाल देना हर दर्जे की मूर्खता और हानिकारक संकीर्णता ही मानी जानी चाहिए थी । परन्तु आज अभी स्थिति यह है कि अच्छे-खासे, समझदार कहे जाने वाले और प्रतिष्ठत लोग भी इन भिन्नताओं के कारण अपने बेटे या बेटी का रिश्ता टालकर अपेक्षाकृत कम उपयुक्त, किन्तु बाहरी समानताओं वाले रिश्ते तय कर लेते हैं, इसका कारण समाज की नुक्ताचीनी का काल्पनिक भय है । समाज के जो लोग ऐसी बेमतलब की नुक्ताचीनी करते रहते हैं, उनकी बातें सुनने और मानने लगें तो जीवन दूभर हो जायेगा ।
कद, वजन, आयु सम्बंधी रूढ़मान्यताओं का संबंध साथी के शरीर से ही है । इससे भिन्न, किन्तु इसी प्रकार अनुचित और भी अनेक भ्रान्त मान्यताएँ हैं; जो मात्र प्रचलन के आधार पर लोकस्वीकृति पाये हुए हैं । उनका तर्कसंगत आधार कुछ नहीं है । जैसे विधुर और विधवा के विवाह सम्बंधी यह रूढ़ि कि विधुर के पूर्व पत्नी से हुए बच्चे तो दूसरी पत्नी आकर पाले-सम्भाले किन्तु यदि विधुर किसी विधवा से ब्याह करे, तो उसके पूर्व के बच्चे वह न स्वीकार करे । बच्चे बाप से भी अधिक माँ के सगे और निकट होते हैं । अतः विधवा के बच्चे उसके साथ रहने ही चाहिए । कोई व्यक्ति जब उससे विवाह करे तो उसे उसके बच्चों की भी जिम्मेदारी सहज रूप में सहर्ष उठानी चाहिए उसमें लज्जा, संकोच या हिचक जैसी कोई भी बात है नहीं । ऐसा रहने पर, किन्हीं कारणों से ब्याह आवश्यक मानने वाले विधुर कई बार अपने अनुकूल विधवा से मात्र इसी कारण ब्याह नहीं कर पाते कि उसके भी पहले के बच्चे हैं ।
उपजातियों की भिन्नता से भी कई बार बहुत उपयुक्त रिश्ते टल जाते हैं और बेमेल बंधन बाँध दिये जाते हैं । एक तो जाति-बिरादरी की मान्यता ही संकीर्ण और भ्रान्त हैं । सोचा यह जाना चाहिए कि मनुष्य मात्र एक है । सांस्कृतिक, धार्मिक समानताएँ सोचनी हैं तो हिन्दूमात्र एक हैं यह विचार करना चाहिये जो लोग इतना नहीं कर पाते और जाति की जकड़न से मुक्त होने की दृष्टि अभी जिनमें विकसित नहीं हो सकी है, वे भी उपजाति का बंधन तो अवश्य ही अस्वीकार करें । क्योंकि उपजातियाँ पूरी तरह स्थान-विशेष के आधार पर बन गई हैं और उन पर आग्रह घोर अज्ञानता, इतिहास-बोध की कमी तथा मनुष्य के वास्तविक स्वरूप, विकास-क्रम एवं सामाजिक व्यवस्था-क्रम की गैरजानकारी का परिणाम है । ब्राह्मणों में जो लोग कन्नौज के आस-पास के थे वे कान्यकुब्ज हो गये, जो मालवा के थे वे मालवीय हो गये, जो सरयू नदी के उत्तर में बसते थे वे सरयूपारीण हो गये । अब उन्हीं के वंशजों द्वारा उन विशेषणों को चाहे जहाँ जाने पर भी ढोते फिरना तथा उसे ही रोटी-बेटी का सघन आधार एवं मापदण्ड बना रखना जड़-बुद्धि बने रहने के अतिरिक्त और कुछ नहीं । अन्य सब जातियों में भी उपजातीय विभाजनों के आधार मुख्यतः स्थानाधारित है । इतने छोटे-छोटे मानदण्डों को मानकर चलने से, इतनी संकरी परिधि में बँधे रहने से, प्रगति की उस दिशा में बाधाएँ पैदा होती हैं, जिस ओर मानव-समाज जा रहा है और भविष्य में जैसा उसका स्वरूप बनने वाला है ।
कृत्रिम विभाजनों और ओछी संकीर्णताओं पर तत्त्वदृष्टा मनीषी निरन्तर प्रहार करते रहे हैं और कर रहे हैं । समाज में अब जड़ता तथा ठहराव अधिक दिनों तक चलने का नहीं । ऐसी स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम इन संकीर्णताओं को तो तत्काल तिलांजलि दे देनी चाहिए, जो सामंजस्यपूर्ण गृहस्थ-जीवन प्रारम्भ करने के मार्ग तक में अड़चने-रुकावटें बनकर खड़ी होती रहती हैं । इन व्यवधानों के कारण मनुष्य का स्वयं का जीवन अधिक अनुकूल साथी से वंचित रहकर अभावग्रस्त बनता है और समाज को भी अधिक अच्छे नागरिक नहीं मिल पाते । उपयुक्त और उत्तम दम्पत्ति निश्चय ही अधिक योग्य संतति समाज को सौंपने में समर्थ होते हैं । इतने महत्त्वपूर्ण लाभों-अनुदानों से स्वयं को तथा समाज को वंचित रखने में जो कष्ट है, छोटी-छोटी भिन्नताओं को समाप्त करने के लिये साहसपूर्वक आगे बढ़ने में उससे कम ही कष्ट होता है और लाभ अनेक होते हैं । समाज के जाग्रत-जीवन्त वर्ग का समर्थन भी प्राप्त होता है । अतः इस दिशा में कदम बढ़ाना ही चाहिए ।