Books - व्यक्तित्व निर्माण युवा शिविर
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अन्य पूरक विषय
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(क) युग निर्माण में युवा शक्ति का सुनियोजन-
१. युग निर्माण अर्थात् आध्यात्मिक आंदोलन- युवाओं की रुचि धार्मिक, आध्यात्मिक आंदोलनों पर नहीं है। चूंकि युवा धर्म और आध्यात्म को एक समझते है तथा वर्तमान धार्मिक क्रियाकलापों को ही वास्तविक धर्म समझते है, अतः इनकी ओर युवाओं की रुचि नहीं रहती। जबकि धर्म और आध्यात्म अलग- अलग है तथा वर्तमान धार्मिक क्रियाकलाप धर्म का बाह्य स्वरूप मात्र है, वह उपासना पद्धति है। वास्तविक धर्म अर्थात् कर्तव्य होता है। उदाहरण- स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी प्रत्येक नागरिक का धर्म था...। अध्यात्म जीवन जीने की कला का नाम है, जीवन के समग्र विकास के लिए अनिवार्य आवश्यकता है।
२. क्या है व्यवहारिक अध्यात्म एवं क्यों आवश्यक है युवाओं के लिए- हमारे पास शक्ति की तीन मुख्य धाराएँ होती है। भौतिक शक्ति, धन शक्ति तथा विचार शक्ति। आज हम देखते है कि भौतिक शक्ति उद्दण्डता की ओर, धन की शक्ति व्यसनों की ओर तथा विचार की शक्ति कुचक्रों, घोटालों की ओर जा रही है। इन शक्तियों को यदि भटकने से, गलत रास्ते पर जाने से रोकना हो तो इन चेतना की शक्ति अर्थात् आध्यात्मिक शक्ति का नियंत्रण होना आवश्यक है और यही व्यवहारिक अध्यात्म है।
३.आध्यात्मिक आंदोलनों से युवाओं के कैरियर का क्या होगा?- वर्तमान में युवा पीढ़ी एवं उनके अभिभावकगण कैरियर को लेकर अत्यधिक चिन्तित रहते है। यह कैरियर है क्या? स्थूल संदर्भ में साधन- सामग्री को इच्छित स्थान तक पहुँचाने, ढोने वाले साधन को कैरियर कहते है। दूसरे रूपों में जीवन को भी कैरियर कहा जाता है। लाइफ कैरियर अर्थात जीवन का उद्देश्य।
सामान्य उद्देश्य- अपने आश्रितों के निर्वाह व्यवस्था हेतु सुख सुविधायें जुटाना। यह सामान्य कैरियर हुआ।
विशिष्ट कैरियर- अपने साथ- साथ समाज, राष्ट्र एवं मनुष्यता के के हित साधने के निर्वाह की भी जिम्मेदारी निभाने वाले व्यक्ति का जीवन श्रेष्ठ अर्थात् विशिष्ट कैरियर कहलाता है।
उच्च दक्षता की मशीन- कम इनपुट में अधिक आउटपुट देने वाला होता है। मनुष्य शरीर को भी भगवान ने उच्च दक्षता वाली बनाई है।
४. वर्तमान समय युवाओं के लिए टर्निंग प्वाइंट है-
अपने कैरियर को उच्च से उच्चतम में ले जाने अर्थात् जीवन लक्ष्य निर्धारण करने का यही सर्वोत्तम समय है। विद्यार्थी ११वीं कक्षा में तय करता है कि उसे इन्जीनियर बनना है कि डॉक्टर या प्रशासनिक अधिकारी। इसी आधार पर वह आगे पढ़ाई के लिए विषय का चयन करता है। ठीक इसी प्रकार युवाओं को जीवन लक्ष्य का निर्धारण करने का यही उपयुक्त अवसर है क्योंकि भौतिक उन्नति के सहारे जीवन का उद्देश्य प्राप्त नहीं किया जा सकता। जीवन के समग्र प्रगति के लिए भौतिक उन्नति के साथ- साथ आध्यात्मिक उन्नति आवश्यक है।
५. दशा और दिशा पर चिन्तन करें-
दशा पर सबकी नजर है, दिशा पर किसी का ध्यान नहीं। सर्वविदित है कि किसी व्यक्ति की आर्थिक स्थिति काफी मजबूत है, परंतु वह अनेक दुर्गुणों से भरा हुआ है जिसके कारण उसे न तो पारिवारिक सुख शांति मिल पाता है और नही लम्बे समय तब अपनी आर्थिक समृद्धि को बनाए रख पाता है। जबकि दूसरा व्यक्ति जिसके पास धन कम है लेकिन उसमें कोई दुर्व्यसन न होने के कारण अपनी श्रम के बदौलत धीरे- धीरे अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत कर लेता है, पारिवारिक आनंद की अनुभूति करता है। अतः सुखमय जीवन जीने के लिए दिशा पर ध्यान देना आवश्यक है।
६. स्वतंत्रता आंदोलन से हजार गुना बड़ा आंदोलन विचार क्रांति अभियान-
विचार परिवर्तन से ही जीवन परिवर्तन एवं जीवन परिवर्तन से जीवन लक्ष्य की प्राप्ति संभव होगी। समस्त दुःखों, समस्याओं का मूल कारण नकारात्मक चिंतन ही है। यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण बदल जाये तो यह संसार भी आनंदमय प्रतीत होगा। गुरु द्रोणाचार्य ने एक बार दुर्योधन को एक गाँव में भेजा और कहा कि उस गाँव में कितने सज्जन व्यक्ति है पता लगाकर आओ। उसी गाँव में युधिष्ठिर को भी भेजा कि उस गाँव में कितने दुर्जन व्यक्ति है पता लगाकर आओ। दुर्योधन वापस लौटकर बताया कि गुरुदेव उस गाँव में एक भी दुर्जन व्यक्ति नही है।
कहने का मतलब यह है कि अच्छा- खराब, यह अपने देखने का नजरिया है। हमारे चिंतन में सकारात्मक है तो सभी जगह अच्छे नजर आयेंगे अन्यथा सभी जगह खराब ही दीखेंगे। अतः परिष्कृत चिंतन से ही सभ्य समाज का निर्माण होगा। स्वतंत्रता आंदोलन मात्र एक राजनैतिक क्रांति थी जबकि रामराज्य की स्थापना के लिए सामाजिक एवं नैतिक क्रांति की आवश्यकता है और इसके लिए करनी होगी विचार क्रांति।
७. युग निर्माण क्या है? वह कैसे होगा?-
युग अर्थात् कालचक्र (समय) का निर्माण अर्थात् श्रेष्ठ समय का निर्माण। ऐसा परिवार, समाज व राष्ट्र जहाँ लोग एक दूसरे को ऊँचा उठाने में अपनी प्रतिभा, पुरुषार्थ, समय व धन का एक अंश नियमित लगाते हों ऐसे समाज की संरचना को श्रेष्ठ समाज एवं उस कालचक्र को श्रेष्ठ समय कहते है। इस श्रेष्ठ समय का निर्माण करना ही युग निर्माण है।
८. युवा शक्ति का नियोजन क्यों आवश्यक है?
विश्व में व्याप्त विपरीत परिस्थितियों का परिवर्तन करने हेतु समय- समय पर क्रांति का सूत्रपात करना पड़ा है और अब की सभी क्रांतियों में युवा शक्ति की भूमिका सर्वाधिक रही है। चाहे वह आर्थिक क्राँति हो या सामाजिक, आध्यात्मिक क्रांति हो या राजनैतिक सभी में युवा शक्ति का ही बोलबाला था। आज भी विश्व समाज को जो परिवर्तन करने में विचार क्रांति अभियान के लाल मशाल को विश्वव्यापी बनाने में युवा शक्ति का पुनः आह्वान है। यह आज की न सिर्फ आवश्यकता है बल्कि अनिवार्यता भी है।
९. युवा क्या करें? कैसे जुड़े इस अभियान से?
युवा रचनात्मक आन्दोलन के माध्यम से नव निर्माण की ओर अग्रसर हों। परन्तु किसी भी आन्दोलन को प्रारम्भ करने के पूर्व पहले स्वयं का निर्माण करें अर्थात व्यक्तित्व निर्माण। व्यक्तित्व निर्माण के चार सोपान है- साधना, स्वाध्याय, संयम व सेवा।
साधना- साधना के दो खण्ड प्रथम
उपासना- जीवन लक्ष्य की प्राप्ति हेतु प्राण शक्ति का अर्जन करना अर्थात अपने मनोबल, आत्मबल को मजबूत बनाना जिससे आप भौतिक एवं आध्यात्मिक दिशा में सफलता प्राप्त कर सकें।
जीवन साधना-उपासना से प्राप्त दिव्य शक्तियों को धारण करना, अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित अर्थात समय का प्रबन्धन एवं आहार- विहार का सात्विक बनाये रखना।
स्वाध्याय- प्रेरणा, प्रकाश व अपनी ज्ञान को हमेशा बढ़ाते रहने के लिए युवाओं को नित्य अध्ययन करने की आदत डालनी चाहिए।
संयम- सभी प्रकार की शक्तियों को संयमित करते हुए जीवन यापन करना।
सेवा- अपने अहंकार को गलाते हुए सामाजिक कार्यों के लिए स्वयं को प्रस्तुत करना।
१०. अभियान का व्यवहारिक स्वरूप अर्थात सप्तसूत्रीय आन्दोलन- साधना, शिक्षा, स्वास्थ्य स्वावलम्बन, पर्यावरण संरक्षण, व्यसन मुक्ति एवं कुरीति उन्मूलन, नारी जागरण।
(ख) प्रातः कालीन गोष्ठी (ध्यान के पश्चात् १५ मिनट)
गोष्ठी क्र. -१ (द्वितीय दिवस) याद रखें, आप विशेष है, सामान्य नहीं (आरम्भ में हल्की फुल्की बातें करें यथा- रात्रि में नींद आई प्रातः शौच स्नान की व्यवस्था ठीक बन गई? आदि।) विश्वास करें कि आप औरों से भिन्न है, विशेष है। आपको युग देवता महाकाल ने अपने लिए चयन किया है अतः आपको औरों से अलग बनना है, चलना है। आपको वापस वहाँ, जहाँ से आए है उस पुराने कुसंस्कारों, कुसंगों एवं विकारों के दलदल में नहीं फँसना है, इस बात को सदैव याद रखें। आपको युग ऋषि ने बहुत प्यार से यहाँ बुलाया है। आप नहीं जानते कि आपको यहाँ कौन सी विभूति मिलने वाली है।
परन्तु यहाँ वही लाभान्वित होगा जो जिज्ञासा व तन्मयता से शिविर के एक- एक शिक्षण को ग्रहण करेगा। जैसे बादल बरसने पर कटोरी, बाल्टी और ड्रम अपनी- अपनी पात्रता के अनुरूप ही बरसात का पानी ग्रहण कर पाते है वैसे ही आप कितना कुछ पा सकेंगे यह आपकी ग्रहणशीलता पर है। यहाँ तो ऋषि का अनुदान बरस रहा है।
विश्वास करें, ईश्वर ने जन्म से ही हमें शक्तिशाली बनाकर भेजा है। (कहानी- एक बालक गले में हीरा पहना है और भीख मांगता है। जब हीरे की कीमत की पहचान होती है तो मालामाल हो जाता है।) ईश्वर ने हमें क्या नहीं दिया है। अनमोल समय, श्रम की ताकत, आत्मविश्वास, इच्छा व विचार करने की शक्ति, बहुमूल्य शरीर आदि। ये सब हीरे जवाहरात से भी बढ़कर है। जब हमें अपनी ताकत और इन विभूतियों की पहचान हो जाएगी तो हम भी उस बालक की तरह मालामाल हो जाएँगे।
यदि हम अपने को कमजोर, हीन, दुर्भाग्यशाली, हारे हुए महसूस करते हैं तो केवल इसलिए कि हमें हमारी वास्तविक क्षमता की पहचान नहीं है, स्थिति का ज्ञान नहीं है। आपको यही पहचान कराने हेतु युग ऋषि ने यहाँ बुलाया है। अतः हर क्षण अपने को जागरूक रखें। हर क्षण प्रार्थना का यह भाव बना रहे कि हम जिस उद्देश्य से यहाँ आए है उसे पाने योग्य शक्ति और दृष्टि हमें मिल जाए।
इन छः दिनों में आप अपने जीवन का लक्ष्य निश्चित कर लें। ठान ले कि अब और अपने जीवन के लक्ष को व्यर्थ नहीं गंवाएंगे। स्वामी विवेकानन्द का आह्वान और दिव्य हुंकार-
उत्तिष्ठत्! जागृत!! प्राप्य वरान्निबोधत्!!! को पुनः पुनः याद करें और संकल्प पूर्वक तैयार हो जाये अपने पुनर्निर्माण के लिए।
विश्वास करें कि युग ऋषि की स्नेह, शक्ति एवं संरक्षण की छत्रछाया में आपके व्यक्तित्व को बड़े प्यार से तराशा जा रहा है, आपको एक कुशल शिल्पी की भाँति सूक्ष्म सत्ता के हाथों गढ़ा जा रहा है। यहाँ आप जो कुछ भी देखेंगे, महसूस करेंगे वह मात्र आदि शक्ति माता एवं ऋषि सत्ता चेतना का सूक्ष्म प्रवाह ही है। अपने को भाग्यशाली समझते हुए उन्मुख बनें रहे। जो विषय विभिन्न कालखण्डों में प्रस्तुत किये जा रहे है उन पर चिंतन करें और प्रशिक्षकों से खूब प्रश्न करें। आप जितना अधिक प्रश्न करेंगे उतना अधिक सीख सकेंगे।
प्रतिदिन निष्कासन तप करें। (प्रशिक्षक निष्कासन तप का अर्थ समझायें) आप यह न समझें कि आपको यहाँ गायत्री परिवार का बनाने के लिए पीले कपड़े पहनाने के लिए बुलाया गया है, लेकिन आपको युग निर्माण रूपी विशाल भवन का एक ईंट बनने का अवश्य ही आह्वान है। आप राष्ट्र निर्माण में, उज्ज्वल भविष्य की रचना की प्रक्रिया में आत्म निर्माण करते हुए सक्रिय भूमिका निभा सकें यह अपेक्षा तो है। यह अपेक्षा प्रत्येक जागृत आत्माओं से है और आप वहीं जागृत आत्मा है जो विशेष आमंत्रण पर यहाँ पहुँच पाये है।
गोष्ठी क्र.- २ (तृतीय दिवस)
ध्यान- क्यों, कैसे-
ऐसी मान्यता है कि जीवन की जितनी समस्याएँ है उसका अंतिम हल अपने भीतर ही है। रस का, आनंद का स्रोत मनुष्य के भीतर है। शक्ति का स्रोत अपने अंदर ही विद्यमान है। बाहर की आपाधापी में हमारा बहिर्मुखी व्यक्तित्व अत्यधिक व्यस्त हो जाता है। हम बाहर में सुख, प्रसन्नता और रस ढूँढ़ते है, शांति खोजते है पर आध्यात्म विज्ञान के जानकार, तत्त्वदर्शियों का कहना है कि इन सबको पाने के लिए अंतर्मुखी होकर अपने भीतर की ओर प्रवेश करना चाहिए।
ध्यान अपने स्व के साथ जुड़ने के लिए किया जाता है। ध्यान से चित्त में मन में जो कलुष, गंदगी जमी हुई है उसकी सफाई होती है। जब सफाई होती है तो व्यक्ति धीरे- धीरे ऊँचा उठता चला जाता है उसका रूपांतरण होने लगता है।
ध्यान से स्मरण शक्ति बढ़ती है, जीवनी शक्ति बढ़ती है, स्फूर्ति बढ़ जाती है। सत्प्रवृत्तियों, सत्कार्यों में मन लगता है, मन प्रफुल्लित होता है। अपने मन की चित्त की सफाई धुलाई के लिए ध्यान करने की परंपरा सभी धर्म संप्रदाय में है जप के साथ ध्यान करने पर मन एकाग्र होता है भटकाव से बच जाता है। जप व ध्यान में गहराई आने पर समझ विकसित होने लगती है।
जितनी कम उम्र संभव हो संयोग बने ध्यान का अभ्यास आरंभ कर देना चाहिए। जप ध्यान करना बूढ़ो का नहीं युवाओं का कार्य है। उम्र अधिक होने पर चित्त में बुराइयों की परत बहुत मोटी हो जाती है। कम आयु में अभ्यास आरंभ करने पर सफलता जल्दी मिलती है। सारे महापुरुषों ने बाल्यकाल से ही ध्यान किया था आध्यात्म को अपनाया था और अल्पायु में ही संसार में इतना काम कर गये जितना सामान्य मनुष्य कल्पना नहीं कर सकता।
ध्यान की विधियाँ है। अपना मन जिस विधि में लगे, रस आये वहीं ध्यान करें। सबको सब विधि में रस नहीं आता।
ध्यान की विधियाँ-
१. परम पूज्य गुरुदेव के निर्देशानुसार कराया जाने वाला ध्यान(कैसेट के माध्यम से)
२. स्वर्णिम सुर्योदय का ध्यान।
३. दीपक की बिन्दु योग(त्राटक)(ज्योति अवधारण से आज्ञाचक्र का जागरण)
४. अपने इष्ट आराध्य, गुरु का ध्यान।
५. गायत्री माता के स्वरूप का ध्यान।
६. देवात्मा हिमालय का ध्यान।
७. अपने भीतर आती- जाती श्वासों का ध्यान।
८. मस्तक पटल पर भाव की तूलिका से ऊँ लिखने का ध्यान।
९. नादयोग (सुनने) का ध्यान।
१०. शान्तिकुञ्ज आने और जाने का ध्यान।
११. दर्पण के सामने बैठकर अपने आप को देखना- दर्पण साधना। मै कौन हूँ ईश्वर का प्रतिरूप हूँ, ऐसा बार- बार चिंतन करना।
गोष्ठी क्र.- ३ (चतुर्थ दिवस) युग निर्माण सत्संकल्प
१. युग निर्माण के संस्थापक प. पू. गुरुदेव का संक्षिप्त परिचय (युग ऋषि के रूप में समझायें)
२. युग निर्माण योजना में एक नारा दिया गया है।
हमारा युग निर्माण सत्संकल्प- पूर्ण हो, पूर्ण हो, पूर्ण हो।
गीता के १८ अध्याय की भाँति युग निर्माण के १८ सत्संकल्प है जिसे युग निर्माण का घोषणा पत्र भी कहा जा सकता है। इसे इक्कीसवीं सदी का संविधान भी कहते है। इन्हीं १८ सत्संकल्प- सूत्र के सांचे में व्यक्ति व समाज के ढलने ढालने का लक्ष्य है। युग निर्माण जिसे लेकर गायत्री परिवार निष्ठापूर्वक आगे बढ़ रहा है, उसका बीज सत्संकल्प है। उसी आधार पर हमारी सारी विचारणा, योजना गतिविधियाँ एवं कार्यक्रम संचालित होते है।
संकल्प की शक्ति अपार है। इच्छा जब बुद्धि द्वारा परिष्कृत होकर दृढ़ निश्चय का रूप ले लेती है तब वह संकल्प कहलाती है। मन का केन्द्रीकरण जब किसी संकल्प पर हो जाता है तो उसके पूर्ति में विशेष कठिनाई नहीं रहती। भावनापूर्वक मनोबल के किसी दिशा में जुट जाने से सफलता सुनिश्चित हो जाती है। जब बुरे संकल्पों के लिए साधन जुट जाते है तो फिर सत्संकल्पों का कहना ही क्या?
आज प्रत्येक विचारशील व्यक्ति यह अनुभव करता है कि समाज में परिवर्तन की अनिवार्य आवश्यकता है पर यह आकांक्षा मात्र से पूर्ण नहीं हो सकती। इसके लिए सुनिश्चित दिशा निर्धारित करनी होगी एवं संगठित तरीके से मिलजुलकर कदम बढ़ाने होंगे। युग निर्माण सत्संकल्प का घोषणा पत्र इसी दिशा में एक सुनिश्चित कदम है। जिसमें सभी धर्म व संप्रदाय की आदर्श परंपरा के अनुरूप उनकी भावनाएँ व्यवस्थित ढंग से सरल भाषा में संक्षिप्त शब्दों में रखी गई है।
इसे हम ठीक तरह से समझे, उस पर मनन चिंतन करें तथा निश्चय करें कि हमें अपना जीवन इसी सॉचें में ढालना है।
आइये हमारे साथ संकल्प सूत्र को समझते हुए दुहरायें तथा नित्य पाठ करेंगे। (प्रशिक्षक टुकड़े- टुकड़े में शिविरार्थियों से युग निर्माण सत्संकल्प के १८ सूत्रों को दुहरवायें। युग निर्माण सत्संकल्प फोल्डर जिसमें मशाल की चित्र छपा हो सभी को बाँट दें। फोल्डर की पूर्व व्यवस्था बना लें।)
गोष्ठी क्र.- ४ (पंचम दिवस)
संगठन, सेवा- आज शिविर का पाँचवाँ दिन है इसे अंतिम दिन ही समझें। क्योंकि कल तो विदाई का दिन है। आज आपको दो फार्म दिये जायेंगे।
१. सत्प्रवृत्ति संवर्धन व दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन संकल्प पत्र एवं
२. आप युवाओं को संगठित करते हुए भविष्य की कार्य योजना को अपनाने हेतु युवा निर्माण एवं भावी कार्य योजना संकल्प पत्र।
आज सायंकालीन निर्धारित समय पर संगठन बनाने का कार्य करेंगे क्योंकि कोई भी अच्छा कार्य बिना आपस में संगठित हुए नहीं किया जा सकता। आपको यहाँ इस शिविर में लाभान्वित होने का अवसर मिला है वह भी गायत्री परिवार के कार्यकर्ताओं द्वारा आपस में सद्उद्देश्यों के लिए संगठित होने का ही परिणाम है।
अभी शिविर के दौरान आप लोगों के बीच अच्छी दोस्ती हो गयी होगी....। आपकी रुचियाँ भी एक है। क्या आप यहाँ से वापस लौटकर आपस में एक टीम बनाकर रहना चाहेंगे?.....। आपसे यही अपेक्षा है....कि आप लोग जो यहाँ से सीखे है है उसे अभ्यास में लायें। ग्रुप बनाकर यदि करेंगे तो अधिक उल्लास के साथ कर सकेंगे। संभव हो तो प्रायः योगाभ्यास एक साथ मिलकर एक जगह करें। इससे आपको देखकर और लोग भी सम्मिलित हो जायेगें।
यदि बाल संस्कार शाला चल रही होगी तो संस्कार शाला के विद्यार्थियों को भी अपने साथ शामिल किया जा सकता है। इस तरह आपके गाँव/मुहल्ले में योगशाला चल सकती है। आपमें से कोई भी योग का बेहतर अभ्यास करने वाले दो युवा उसके नेतृत्व की जिम्मेदारी लें लें तो गांव में क्रांति आ जायेगी। ऐसा कई स्थानों पर युवा शिविर के पश्चात् युवाओं द्वारा चलाया जा रहा है।
आप लोगों ने संस्कार शाला चलाने हेतु सहमति दी है सह बड़े ही हर्ष की बात है और युवा वर्ग के लिए गौरव की बात है। आज आपको बाल संस्कार शाला के आचार्य का प्रशिक्षण दिया जाना है।
इस समय दैवी चेतना द्वारा जागृत आत्माओं को प्रतिभाओं को आकुल- व्याकुल होकर ढूँढ रहा है और जो प्रतिभाएँ अपना समर्पण कर रही है युग निर्माण से जुड़ रही है उन्हें तराशा जा रहा है। उनका रूपांतरण वैसे ही हो रहा है जैसे खदान का कोयला हीरा बन जाता है। जैसे रत्नाकर डाकू से महर्षि वाल्मीकि बन गए। युग धर्म निभाने हेतु आपसे, प्रतिभाओं के समयदान एवं प्रतिभादान मांगने हेतु इस समय वैसे ही अपील की जा रही है जैसे एक समय वामन अवतार में भगवान ने राजा बलि से मांगा था।
आप सेवाकार्य में अपना योगदान देने का मानस बना रहे है यह बड़े ही सौभाग्य एवं प्रसन्नता की बात है।(सेवा से लाभ को समझायें। देखें व्याख्यान व्यक्तित्व निर्माण के सूत्र में सेवा पृ.क्र.३४)
(ग) शिक्षा और विद्या में अंतर-
शिक्षा-
१. बुद्धि व चतुराई प्रधान है।
२. इसकी प्राप्ति का आधार है चतुराई व बुद्धि की तीव्रता
३. शिक्षा जीवन को भव्य बनाती है।
४. यह माँ सरस्वती की आराधना है।
५. शिक्षा पाठ्यक्रम पर आधारित है इससे मस्तिष्कीय की क्षमता का विकास होता है और लौकिक सम्पत्ति, स्वावलंबन सुविधाएँ, साधन, पद- प्रतिष्ठा का लाभ मिलता है। अर्थोपार्जन की क्षमता बढ़ती है, परंतु विद्या रहित शिक्षा से ये सारे अहंकार पूर्ण हो जाते है।
६. सभी प्रकार से शिक्षित परंतु विद्या रहित व्यक्ति नाना प्रकार से दुःख पाते है।
७. यह अनगिनत प्राप्तियों उपलब्धियों के साथ घातक परिणाम भी सामने लाता है।
विद्या-
१. विद्या भावना प्रधान है।
२. इसकी प्राप्ति का आधार है वसुधैव कुटुंबकम् की भावना।
३. विद्या जीवन को (लोक परलोक दोनों को) दिव्य बनाती है।
४. विद्या गणेश जी साधना है।
५. विद्या का अर्थ विवेक व सद्भाव की शक्ति है इससे श्रद्धा विश्वास, अच्छा- बुरा, अनुचित- उचित, कर्तव्य- अकर्तव्य की पहचान होती है। आत्मा- परमात्मा, जन्म- मरण, लोक- परलोक वास्तविक ज्ञान का आधार विद्या है। आत्मीयता, परोपकार, शालीनता, सरलता, पवित्रता संयम विवेक, दया, करुणा, ममता, संवेदना, श्रद्धा भक्ति आदि दिव्य गुण विकसित होते ह।
६. इससे शुभ संस्कारों का जागरण एवं दिव्यता व श्रेष्ठता का विकास होता है। श्रेष्ठ मान्यताओं व आदर्शों का विकास व निर्माण होता है। व्यक्ति सब भाँति सुखी रहता है।
७. मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाता है, आंतरिक शक्तियों को जगाता है।
१. शिक्षा और विद्या में दोनों के समन्वय की आवश्यकता है। शिक्षा की चतुरता पर विवेक व आदर्श का अंकुश जरूरी है।
२.जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए शिक्षा को संस्कारित व विद्या को परिष्कृत व सामयिक करने की जरूरत है।
(समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादूरीपूर्वक अपनाये जाने वाले)
(घ) व्यक्तित्व निर्माण के व्यवहारिक सूत्र-
१. अपने दोषों को देखें व छोड़े, दूसरों के गुण देखें धारण करें।
२. अपनी बात स्पष्ट शब्दों में कहें। व्यर्थ की बातों विचारों से दूर रहें। बात बुरी लगे तो मौन रहें- तर्क- वितर्क न करें।
३. कुछ भी कार्य करने से पूर्व उस पर चिन्तन करें। दूरदर्शिता पूर्वक चिंतन करें।
४. स्पष्ट बातचीत, शब्दों की सुंदरता, हावभाव की शालीनता, व्यवहार की कुशलता आदि आकर्षक व्यक्तित्व की पहचान है।
५. दूसरों की बातों को ध्यान से सुनें फिर सोचे और फिर विचार कर उत्तर दें(विशेषतः बड़ों की)।
६. कभी अपनों को छोटा न समझें। अपनी महानता को पहचानें। आप विश्व हेतु प्रकाश है। जहाँ भी जाये फरिश्ते के समान प्रकाश शांति व शक्ति के प्रकम्पन फैलाते चलें।
७. जीवन में देना सीखें। सहयोग देना सहयोग पाना व्यक्ति का प्रमुख गुण है। Art of giving is actually art of living.
८. हर व्यक्ति के पास शक्ति है। आवश्यकता है उसे creative work में लगाने की। यह शक्ति नकारात्मक बातों में नष्ट न हो व्यक्तित्व का निखार विचारशीलता पर निर्भर है।
९. यदि आप किसी बात से परेशान हो तो उसके समाधान के लिए शांतिपूर्वक बैठकर समस्या पर विचार करें। गहराई पूर्वक चिंतन द्वारा आप जरूर समाधान पायेंगे अथवा समस्या ही नहीं रहेगी अथवा बड़ों की मदद भी ले सकते है।
१०. तनाव या थकावट में शिथिलीकरण या शवासन करें।
११. कंचे उचकाना, नाखून काटना, नाक में उँगली डालना, उँगलियाँ चटकाना, पैर हिलाना यह अच्छे व्यक्तित्व की निशानी नहीं है। बैठे व चलते समय कमर व कन्धे सीधे रखने की आदत डालें।
१२. स्वाध्याय करें, अपने गुणों व कमजोरियों की सूची बनायें। गुणों को एक-एक करके बढ़ाएँ व कमियों को विदाई करते चलें।
१३. दिन में कम से कम १० मिनट के लिए Silent sitting अवश्य करें। अपने मन चल रहे विचारों की प्रतिघण्टा जाँच करते रहें तथा व्यर्थ व नकारात्मक विचारों को निकालते रहें।
१४. चरित्रवान व सद्गुणी व्यक्तियों का संग करें। प्रतिदिन आधा घंटा सत्साहित्य का संकल्प पूर्वक अध्ययन करे।
१५. सफल महापुरुषों के जीवन चरित्र को पढ़े व प्रेरणा पायें। मनभर चर्चा करने के बजाए कणभर आचरण करना बेहतर है।
१६. ह्रदय की पवित्रता चरित्र का सौन्दर्य है। सत्य बोलें कथनी करनी से एक होकर अपनी प्रामाणिकता को बनाएँ रखें।
(ङ) मैकाले अंकल के भतीजे या भारतीय संस्कृति के प्रहरी?
गांधी जी के अनुसार- आज तक हम जीवित है क्योंकि हमारे पास संस्कार है। अनेकों आक्रमण के बाद भी हम अपनी संस्कृति की वजह से बच पायें है।
कहा जाता है कि अतीतकाल में सारे संसार में यूनान सबसे अधिक ज्ञान के लिए, मिस्र सबसे अधिक आर्थिक समृद्धि के लिए तथा रोम शक्ति के लिए प्रसिद्ध थे। परंतु ये सारे मिट गए।
यूनान मिस्र रोम, मिट गए जहाँ से।
कुछ बात है, जो हस्ती मिटती नहीं हमारी।।
अब पाश्चात्य अपसंस्कृति, भोगवादी चिंतन और जीवनशैली का आक्रमण भारतवर्ष झेल रहा है और इसे सहयोग करने में युवाओं की भूमिका बढ़- चढ़कर दिखाई देती है। आज हमारी साँस्कृतिक अस्मिता खतरे में है। अब सांस्कृतिक युद्ध चल रहा है। परन्तु यह बात आज के आधुनिक व नवीन पीढ़ी को समझ में नहीं आती। भारतवर्ष को बर्बाद करने का षड्यंत्र बहुत पुराना है। इसे हर विचारशील एवं राष्ट्र भक्त को जानना चाहिए।
सन् १८३५ में २ फरवरी को ब्रिटिश संसद में लार्ड मैकाले के भाषण का सार जो इस बात का प्रमाण है कि भारत व भारतीयता को नष्ट करने का षड्यंत्र रचा गया, आज हम उसी षड्यंत्र के शिकार है।
२ फरवरी १८३५ ब्रिटिश पार्लियामेण्ट में लार्ड मैकाले का उद्बोधन
मैने एक ओर से दूसरी ओर तक सम्पूर्ण भार का भ्रमण किया है और एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं देखा जो भिखारी है, चोर है। मैने इस देश में ऐसी सम्पदा, ऐसी उच्च नैतिक मूल्य, ऐसी प्रतिभा के लाग देखे कि मैं नहीं सोचता कि हम कभी भी इस देश को जीत पाएँगे जब तक कि इस देश की रीढ़ की हड्डी को ही न तोड़ दें जो कि इसकी आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत है। इसलिए मैं प्रस्तावित करता हूँ कि हम इस देश की प्राचीन शिक्षा पद्धति व संस्कृति बदल दें, क्योंकि यदि भारतीय यह सोचने लगें कि अंग्रेज व सब कुछ जो विदेशी है, अच्छा है, हमारे अपने से बहुत बड़ा है तो वे आत्मगौरव, अपनी भारतीय संस्कृति को खो देंगे और वे यह हो जाएँगे जो हम उन्हें चाहते हैं- सच्चे अर्थों में एक अधीनस्थ व शासित देश।
आज यदि लार्ड मैकाले की आत्मा यहाँ आकर देखे तो उसे आश्चर्यचकित होकर यही कहना पड़ेगा कि मैने तो कभी सोचा भी नहीं था भारत इतना बदल जाएगा।
आज वेशभूषा, खानपान, भाषा, शिष्टाचार, रीति रिवाज, जीवन की शैली, चिन्तन, रहन- सहन सब अंग्रेजियत के रंग में रंगता हुआ चला जा रहा है।
भारतमाता आज सांस्कृतिक गुलामी की जंजीरों में जकड़ी हुई तड़प रही है कि एक बार फिर से मेरा भगत, आजाद, बिस्मिल आ जाते। मेरी रक्षा करने एक बार फिर से गाँधी और तिलक अपनी माँ के प्रति फर्ज को याद करके मेरी सुधि ले लेते.......।
उनके सपूतों को पता नहीं कब फुर्सत मिलेगी, कब खुलेगी..... वे मैकाले अंकल के सपनों को भारत बनाकर अपनी माता की अस्मिता का अपहरण करने उसे नेस्तनाबूद कर देने में सहायक बनेंगे या संस्कृति के प्रहरी बनकर गाँधी की भांति एक बार पुनः सांस्कृतिक स्वतन्त्रता हेतु अपनी कुर्बानी देगें। कुर्बानी अर्थात सच्चे अर्थों में भारतीय बनना ........ संस्कृति, वेशभूषा, आचार विचार, जीवन शैली से भारतीय। गम्भीरता से विचार करें.....।
वरिष्ठों के लिए ज्ञातव्य
नव निर्माण के लिए आवश्यक विचारधारा हमने अन्तरंग का निर्झर खोदकर प्रवाहित की है। उससे जन- जन के मन को सींचने का कार्य हमारे उत्तराधिकारी करेंगे। विचार क्रांति की मशाल जलती रहनी चाहिए यह प्रकाश दूर- दूर तक फैलता रहना चाहिए। ऐसा न हो कि सहयोग का स्नेह न पाकर हमारी यह अमानत अपना अस्तित्व खो बैठें।
- अखण्ड ज्योति जून १९७१ पृ. ५७
(च) भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ
प्राचीन भारती तत्त्वदर्शियों ने हिन्दू संस्कृति का सूक्ष्म आधार जिन मान्यताओं पर रखा है वे संक्षेप में इस प्रकार से रखे जा सकते हैं-
क) सुख का केन्द्र आन्तरिक श्रेष्ठता- १. संसार की भौतिक सामग्री वासना या विषयों को तृप्त करने से नहीं बल्कि हमारी तृष्णाओं को बढ़ाने वाला है। (उदा.- ययाति) २. हिन्दू तत्त्ववेत्ताओं ने इस त्रुटि को देखकर तय किया कि स्थायी सुखों का केन्द्र सुख सामग्री नहीं आन्तरिक श्रेष्ठता है। (महापुरुषों का उदाहरण- स्वामी रामतीर्थ, विवेकानन्द) ३. इसी कारण आन्तरिक शुद्धि के लिए नाना विधान, त्याग बलिदान, संयम वे उपाय है जिनसे आन्तरिक शुद्धि में प्रमुख सहायता मिलती है।
ख) अपने साथ कड़ाई और दूसरों के साथ उदारता- १. अपनी वासनाओं व इन्द्रियों को संयमित करने वाला ही दूसरों का हाथ बंटा सकता है अन्यथा स्वहित या लोकहित नहीं कर सकते। जो मनुष्य इन्द्रियों और अपने मनोविकारों का दास है, उसे दोष अपनी ओर खींच लेते हैं।
बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वसंगति कर्षपि
(मनु -- २- १५)
इन्द्रियां बहुत बलवान है ये विद्वान को भी अपनी ओर बलात् खींच लेती है। २. कुप्रवृत्तियों को नियंत्रित न करने से अपनी शक्तियों का अपव्यय व क्षरण हो जाएगा। ३. आदर्श भारतीय- १ दम- इन्द्रियों के दमन। २. दान एवं यम इन तीनों का पालन करता है। दम- परम पवित्र व उत्तम है यह आत्मतेज को बढ़ाता है, पुरुषार्थ को बढ़ाता है। ४. भारतीय संस्कृति इन्द्रिय संयम के साथ- साथ दूसरों की सेवा सहायता, दूसरों के प्रति अधिक से अधिक उदार होना सिखाती है। ५. भारतीय संस्कृति का उपासक सदा निर्बलों, अपनी शरण में आए हुओं व अतिथि के सहायक होते हैं। (अतिथि देवो भव, गौतम बुद्ध का हंस की प्राण रक्षा करना, राजा शिवि का उदाहरण)
ग) सदभावों का विकास सेवा साधना-
१. भारतीय संस्कृति आत्मा में छिपे हुए सद्भावों के विकास पर अधिक जोर देती है। शीलं हि शरणं सौम्य सत् स्वभाव ही मनुष्य का रक्षक है। उसी से अच्छे नागरिक व अच्छे समाज का निर्माण होता है। २. आत्मा में साक्षात भगवान का निवास होता है। मनुष्य को ईश्वर रूप ही मानें उनका पूजन सम्मान करें। अपने आन्तरिक सद्भाव अमृत का प्रवाह बहें जिससे दूसरे भी अपने अपने व्यक्तित्व को अधिकाधिक विकसित करें।
घ) व्यक्तिगत आवश्यकताएँ घटाकर विश्वहित की ओर ध्यान-
१. अपनी निजी व्यक्तिगत आवश्यकताएँ घटाते रहना और समय शक्ति तथा योग्यता का अधिकांश भाग विश्वहित में लगाना हमारा आदर्श रहा है मिल बाँटकर खाएँ। २. भोजन वस्त्र- सादा मोटा, विलासिता दिखावापन से दूर, अलिप्त। कम सोना खाना। ३. राजा जनक- विदेह अनाशक्त गृहस्थ तुलाधार वैश्य, धम्र व्याध शूद्र थे। महर्षि याज्ञवल्क्य एक कोपीन और कमण्डलु, पूज्य गुरुदेव का उदाहरण। ४. विश्व प्रेम ऐसा अलौकिक दिव्य रस है, मरहम है जिसे लगाते ही सबके रोग दूर हो जाते हैं। ५. जीना है- तो आदर्श एवं उद्देश्य के लिए। विश्वहित के लिए जियो।
च) शुद्ध कमाई का प्रयोग-
१. परिश्रम और अनुशासन की कमाई पर जो, आलस्य प्रमाद से बचें, परिश्रम करते रहें, अनुशासन को मजबूती से पकड़े रहें, शुद्ध कमाई का उपयोग करें, ऋण न लें (चोरी है), पुण्य से कमाया हुआ धन ही सुख द
१. युग निर्माण अर्थात् आध्यात्मिक आंदोलन- युवाओं की रुचि धार्मिक, आध्यात्मिक आंदोलनों पर नहीं है। चूंकि युवा धर्म और आध्यात्म को एक समझते है तथा वर्तमान धार्मिक क्रियाकलापों को ही वास्तविक धर्म समझते है, अतः इनकी ओर युवाओं की रुचि नहीं रहती। जबकि धर्म और आध्यात्म अलग- अलग है तथा वर्तमान धार्मिक क्रियाकलाप धर्म का बाह्य स्वरूप मात्र है, वह उपासना पद्धति है। वास्तविक धर्म अर्थात् कर्तव्य होता है। उदाहरण- स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी प्रत्येक नागरिक का धर्म था...। अध्यात्म जीवन जीने की कला का नाम है, जीवन के समग्र विकास के लिए अनिवार्य आवश्यकता है।
२. क्या है व्यवहारिक अध्यात्म एवं क्यों आवश्यक है युवाओं के लिए- हमारे पास शक्ति की तीन मुख्य धाराएँ होती है। भौतिक शक्ति, धन शक्ति तथा विचार शक्ति। आज हम देखते है कि भौतिक शक्ति उद्दण्डता की ओर, धन की शक्ति व्यसनों की ओर तथा विचार की शक्ति कुचक्रों, घोटालों की ओर जा रही है। इन शक्तियों को यदि भटकने से, गलत रास्ते पर जाने से रोकना हो तो इन चेतना की शक्ति अर्थात् आध्यात्मिक शक्ति का नियंत्रण होना आवश्यक है और यही व्यवहारिक अध्यात्म है।
३.आध्यात्मिक आंदोलनों से युवाओं के कैरियर का क्या होगा?- वर्तमान में युवा पीढ़ी एवं उनके अभिभावकगण कैरियर को लेकर अत्यधिक चिन्तित रहते है। यह कैरियर है क्या? स्थूल संदर्भ में साधन- सामग्री को इच्छित स्थान तक पहुँचाने, ढोने वाले साधन को कैरियर कहते है। दूसरे रूपों में जीवन को भी कैरियर कहा जाता है। लाइफ कैरियर अर्थात जीवन का उद्देश्य।
सामान्य उद्देश्य- अपने आश्रितों के निर्वाह व्यवस्था हेतु सुख सुविधायें जुटाना। यह सामान्य कैरियर हुआ।
विशिष्ट कैरियर- अपने साथ- साथ समाज, राष्ट्र एवं मनुष्यता के के हित साधने के निर्वाह की भी जिम्मेदारी निभाने वाले व्यक्ति का जीवन श्रेष्ठ अर्थात् विशिष्ट कैरियर कहलाता है।
उच्च दक्षता की मशीन- कम इनपुट में अधिक आउटपुट देने वाला होता है। मनुष्य शरीर को भी भगवान ने उच्च दक्षता वाली बनाई है।
४. वर्तमान समय युवाओं के लिए टर्निंग प्वाइंट है-
अपने कैरियर को उच्च से उच्चतम में ले जाने अर्थात् जीवन लक्ष्य निर्धारण करने का यही सर्वोत्तम समय है। विद्यार्थी ११वीं कक्षा में तय करता है कि उसे इन्जीनियर बनना है कि डॉक्टर या प्रशासनिक अधिकारी। इसी आधार पर वह आगे पढ़ाई के लिए विषय का चयन करता है। ठीक इसी प्रकार युवाओं को जीवन लक्ष्य का निर्धारण करने का यही उपयुक्त अवसर है क्योंकि भौतिक उन्नति के सहारे जीवन का उद्देश्य प्राप्त नहीं किया जा सकता। जीवन के समग्र प्रगति के लिए भौतिक उन्नति के साथ- साथ आध्यात्मिक उन्नति आवश्यक है।
५. दशा और दिशा पर चिन्तन करें-
दशा पर सबकी नजर है, दिशा पर किसी का ध्यान नहीं। सर्वविदित है कि किसी व्यक्ति की आर्थिक स्थिति काफी मजबूत है, परंतु वह अनेक दुर्गुणों से भरा हुआ है जिसके कारण उसे न तो पारिवारिक सुख शांति मिल पाता है और नही लम्बे समय तब अपनी आर्थिक समृद्धि को बनाए रख पाता है। जबकि दूसरा व्यक्ति जिसके पास धन कम है लेकिन उसमें कोई दुर्व्यसन न होने के कारण अपनी श्रम के बदौलत धीरे- धीरे अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत कर लेता है, पारिवारिक आनंद की अनुभूति करता है। अतः सुखमय जीवन जीने के लिए दिशा पर ध्यान देना आवश्यक है।
६. स्वतंत्रता आंदोलन से हजार गुना बड़ा आंदोलन विचार क्रांति अभियान-
विचार परिवर्तन से ही जीवन परिवर्तन एवं जीवन परिवर्तन से जीवन लक्ष्य की प्राप्ति संभव होगी। समस्त दुःखों, समस्याओं का मूल कारण नकारात्मक चिंतन ही है। यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण बदल जाये तो यह संसार भी आनंदमय प्रतीत होगा। गुरु द्रोणाचार्य ने एक बार दुर्योधन को एक गाँव में भेजा और कहा कि उस गाँव में कितने सज्जन व्यक्ति है पता लगाकर आओ। उसी गाँव में युधिष्ठिर को भी भेजा कि उस गाँव में कितने दुर्जन व्यक्ति है पता लगाकर आओ। दुर्योधन वापस लौटकर बताया कि गुरुदेव उस गाँव में एक भी दुर्जन व्यक्ति नही है।
कहने का मतलब यह है कि अच्छा- खराब, यह अपने देखने का नजरिया है। हमारे चिंतन में सकारात्मक है तो सभी जगह अच्छे नजर आयेंगे अन्यथा सभी जगह खराब ही दीखेंगे। अतः परिष्कृत चिंतन से ही सभ्य समाज का निर्माण होगा। स्वतंत्रता आंदोलन मात्र एक राजनैतिक क्रांति थी जबकि रामराज्य की स्थापना के लिए सामाजिक एवं नैतिक क्रांति की आवश्यकता है और इसके लिए करनी होगी विचार क्रांति।
७. युग निर्माण क्या है? वह कैसे होगा?-
युग अर्थात् कालचक्र (समय) का निर्माण अर्थात् श्रेष्ठ समय का निर्माण। ऐसा परिवार, समाज व राष्ट्र जहाँ लोग एक दूसरे को ऊँचा उठाने में अपनी प्रतिभा, पुरुषार्थ, समय व धन का एक अंश नियमित लगाते हों ऐसे समाज की संरचना को श्रेष्ठ समाज एवं उस कालचक्र को श्रेष्ठ समय कहते है। इस श्रेष्ठ समय का निर्माण करना ही युग निर्माण है।
८. युवा शक्ति का नियोजन क्यों आवश्यक है?
विश्व में व्याप्त विपरीत परिस्थितियों का परिवर्तन करने हेतु समय- समय पर क्रांति का सूत्रपात करना पड़ा है और अब की सभी क्रांतियों में युवा शक्ति की भूमिका सर्वाधिक रही है। चाहे वह आर्थिक क्राँति हो या सामाजिक, आध्यात्मिक क्रांति हो या राजनैतिक सभी में युवा शक्ति का ही बोलबाला था। आज भी विश्व समाज को जो परिवर्तन करने में विचार क्रांति अभियान के लाल मशाल को विश्वव्यापी बनाने में युवा शक्ति का पुनः आह्वान है। यह आज की न सिर्फ आवश्यकता है बल्कि अनिवार्यता भी है।
९. युवा क्या करें? कैसे जुड़े इस अभियान से?
युवा रचनात्मक आन्दोलन के माध्यम से नव निर्माण की ओर अग्रसर हों। परन्तु किसी भी आन्दोलन को प्रारम्भ करने के पूर्व पहले स्वयं का निर्माण करें अर्थात व्यक्तित्व निर्माण। व्यक्तित्व निर्माण के चार सोपान है- साधना, स्वाध्याय, संयम व सेवा।
साधना- साधना के दो खण्ड प्रथम
उपासना- जीवन लक्ष्य की प्राप्ति हेतु प्राण शक्ति का अर्जन करना अर्थात अपने मनोबल, आत्मबल को मजबूत बनाना जिससे आप भौतिक एवं आध्यात्मिक दिशा में सफलता प्राप्त कर सकें।
जीवन साधना-उपासना से प्राप्त दिव्य शक्तियों को धारण करना, अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित अर्थात समय का प्रबन्धन एवं आहार- विहार का सात्विक बनाये रखना।
स्वाध्याय- प्रेरणा, प्रकाश व अपनी ज्ञान को हमेशा बढ़ाते रहने के लिए युवाओं को नित्य अध्ययन करने की आदत डालनी चाहिए।
संयम- सभी प्रकार की शक्तियों को संयमित करते हुए जीवन यापन करना।
सेवा- अपने अहंकार को गलाते हुए सामाजिक कार्यों के लिए स्वयं को प्रस्तुत करना।
१०. अभियान का व्यवहारिक स्वरूप अर्थात सप्तसूत्रीय आन्दोलन- साधना, शिक्षा, स्वास्थ्य स्वावलम्बन, पर्यावरण संरक्षण, व्यसन मुक्ति एवं कुरीति उन्मूलन, नारी जागरण।
(ख) प्रातः कालीन गोष्ठी (ध्यान के पश्चात् १५ मिनट)
गोष्ठी क्र. -१ (द्वितीय दिवस) याद रखें, आप विशेष है, सामान्य नहीं (आरम्भ में हल्की फुल्की बातें करें यथा- रात्रि में नींद आई प्रातः शौच स्नान की व्यवस्था ठीक बन गई? आदि।) विश्वास करें कि आप औरों से भिन्न है, विशेष है। आपको युग देवता महाकाल ने अपने लिए चयन किया है अतः आपको औरों से अलग बनना है, चलना है। आपको वापस वहाँ, जहाँ से आए है उस पुराने कुसंस्कारों, कुसंगों एवं विकारों के दलदल में नहीं फँसना है, इस बात को सदैव याद रखें। आपको युग ऋषि ने बहुत प्यार से यहाँ बुलाया है। आप नहीं जानते कि आपको यहाँ कौन सी विभूति मिलने वाली है।
परन्तु यहाँ वही लाभान्वित होगा जो जिज्ञासा व तन्मयता से शिविर के एक- एक शिक्षण को ग्रहण करेगा। जैसे बादल बरसने पर कटोरी, बाल्टी और ड्रम अपनी- अपनी पात्रता के अनुरूप ही बरसात का पानी ग्रहण कर पाते है वैसे ही आप कितना कुछ पा सकेंगे यह आपकी ग्रहणशीलता पर है। यहाँ तो ऋषि का अनुदान बरस रहा है।
विश्वास करें, ईश्वर ने जन्म से ही हमें शक्तिशाली बनाकर भेजा है। (कहानी- एक बालक गले में हीरा पहना है और भीख मांगता है। जब हीरे की कीमत की पहचान होती है तो मालामाल हो जाता है।) ईश्वर ने हमें क्या नहीं दिया है। अनमोल समय, श्रम की ताकत, आत्मविश्वास, इच्छा व विचार करने की शक्ति, बहुमूल्य शरीर आदि। ये सब हीरे जवाहरात से भी बढ़कर है। जब हमें अपनी ताकत और इन विभूतियों की पहचान हो जाएगी तो हम भी उस बालक की तरह मालामाल हो जाएँगे।
यदि हम अपने को कमजोर, हीन, दुर्भाग्यशाली, हारे हुए महसूस करते हैं तो केवल इसलिए कि हमें हमारी वास्तविक क्षमता की पहचान नहीं है, स्थिति का ज्ञान नहीं है। आपको यही पहचान कराने हेतु युग ऋषि ने यहाँ बुलाया है। अतः हर क्षण अपने को जागरूक रखें। हर क्षण प्रार्थना का यह भाव बना रहे कि हम जिस उद्देश्य से यहाँ आए है उसे पाने योग्य शक्ति और दृष्टि हमें मिल जाए।
इन छः दिनों में आप अपने जीवन का लक्ष्य निश्चित कर लें। ठान ले कि अब और अपने जीवन के लक्ष को व्यर्थ नहीं गंवाएंगे। स्वामी विवेकानन्द का आह्वान और दिव्य हुंकार-
उत्तिष्ठत्! जागृत!! प्राप्य वरान्निबोधत्!!! को पुनः पुनः याद करें और संकल्प पूर्वक तैयार हो जाये अपने पुनर्निर्माण के लिए।
विश्वास करें कि युग ऋषि की स्नेह, शक्ति एवं संरक्षण की छत्रछाया में आपके व्यक्तित्व को बड़े प्यार से तराशा जा रहा है, आपको एक कुशल शिल्पी की भाँति सूक्ष्म सत्ता के हाथों गढ़ा जा रहा है। यहाँ आप जो कुछ भी देखेंगे, महसूस करेंगे वह मात्र आदि शक्ति माता एवं ऋषि सत्ता चेतना का सूक्ष्म प्रवाह ही है। अपने को भाग्यशाली समझते हुए उन्मुख बनें रहे। जो विषय विभिन्न कालखण्डों में प्रस्तुत किये जा रहे है उन पर चिंतन करें और प्रशिक्षकों से खूब प्रश्न करें। आप जितना अधिक प्रश्न करेंगे उतना अधिक सीख सकेंगे।
प्रतिदिन निष्कासन तप करें। (प्रशिक्षक निष्कासन तप का अर्थ समझायें) आप यह न समझें कि आपको यहाँ गायत्री परिवार का बनाने के लिए पीले कपड़े पहनाने के लिए बुलाया गया है, लेकिन आपको युग निर्माण रूपी विशाल भवन का एक ईंट बनने का अवश्य ही आह्वान है। आप राष्ट्र निर्माण में, उज्ज्वल भविष्य की रचना की प्रक्रिया में आत्म निर्माण करते हुए सक्रिय भूमिका निभा सकें यह अपेक्षा तो है। यह अपेक्षा प्रत्येक जागृत आत्माओं से है और आप वहीं जागृत आत्मा है जो विशेष आमंत्रण पर यहाँ पहुँच पाये है।
गोष्ठी क्र.- २ (तृतीय दिवस)
ध्यान- क्यों, कैसे-
ऐसी मान्यता है कि जीवन की जितनी समस्याएँ है उसका अंतिम हल अपने भीतर ही है। रस का, आनंद का स्रोत मनुष्य के भीतर है। शक्ति का स्रोत अपने अंदर ही विद्यमान है। बाहर की आपाधापी में हमारा बहिर्मुखी व्यक्तित्व अत्यधिक व्यस्त हो जाता है। हम बाहर में सुख, प्रसन्नता और रस ढूँढ़ते है, शांति खोजते है पर आध्यात्म विज्ञान के जानकार, तत्त्वदर्शियों का कहना है कि इन सबको पाने के लिए अंतर्मुखी होकर अपने भीतर की ओर प्रवेश करना चाहिए।
ध्यान अपने स्व के साथ जुड़ने के लिए किया जाता है। ध्यान से चित्त में मन में जो कलुष, गंदगी जमी हुई है उसकी सफाई होती है। जब सफाई होती है तो व्यक्ति धीरे- धीरे ऊँचा उठता चला जाता है उसका रूपांतरण होने लगता है।
ध्यान से स्मरण शक्ति बढ़ती है, जीवनी शक्ति बढ़ती है, स्फूर्ति बढ़ जाती है। सत्प्रवृत्तियों, सत्कार्यों में मन लगता है, मन प्रफुल्लित होता है। अपने मन की चित्त की सफाई धुलाई के लिए ध्यान करने की परंपरा सभी धर्म संप्रदाय में है जप के साथ ध्यान करने पर मन एकाग्र होता है भटकाव से बच जाता है। जप व ध्यान में गहराई आने पर समझ विकसित होने लगती है।
जितनी कम उम्र संभव हो संयोग बने ध्यान का अभ्यास आरंभ कर देना चाहिए। जप ध्यान करना बूढ़ो का नहीं युवाओं का कार्य है। उम्र अधिक होने पर चित्त में बुराइयों की परत बहुत मोटी हो जाती है। कम आयु में अभ्यास आरंभ करने पर सफलता जल्दी मिलती है। सारे महापुरुषों ने बाल्यकाल से ही ध्यान किया था आध्यात्म को अपनाया था और अल्पायु में ही संसार में इतना काम कर गये जितना सामान्य मनुष्य कल्पना नहीं कर सकता।
ध्यान की विधियाँ है। अपना मन जिस विधि में लगे, रस आये वहीं ध्यान करें। सबको सब विधि में रस नहीं आता।
ध्यान की विधियाँ-
१. परम पूज्य गुरुदेव के निर्देशानुसार कराया जाने वाला ध्यान(कैसेट के माध्यम से)
२. स्वर्णिम सुर्योदय का ध्यान।
३. दीपक की बिन्दु योग(त्राटक)(ज्योति अवधारण से आज्ञाचक्र का जागरण)
४. अपने इष्ट आराध्य, गुरु का ध्यान।
५. गायत्री माता के स्वरूप का ध्यान।
६. देवात्मा हिमालय का ध्यान।
७. अपने भीतर आती- जाती श्वासों का ध्यान।
८. मस्तक पटल पर भाव की तूलिका से ऊँ लिखने का ध्यान।
९. नादयोग (सुनने) का ध्यान।
१०. शान्तिकुञ्ज आने और जाने का ध्यान।
११. दर्पण के सामने बैठकर अपने आप को देखना- दर्पण साधना। मै कौन हूँ ईश्वर का प्रतिरूप हूँ, ऐसा बार- बार चिंतन करना।
गोष्ठी क्र.- ३ (चतुर्थ दिवस) युग निर्माण सत्संकल्प
१. युग निर्माण के संस्थापक प. पू. गुरुदेव का संक्षिप्त परिचय (युग ऋषि के रूप में समझायें)
२. युग निर्माण योजना में एक नारा दिया गया है।
हमारा युग निर्माण सत्संकल्प- पूर्ण हो, पूर्ण हो, पूर्ण हो।
गीता के १८ अध्याय की भाँति युग निर्माण के १८ सत्संकल्प है जिसे युग निर्माण का घोषणा पत्र भी कहा जा सकता है। इसे इक्कीसवीं सदी का संविधान भी कहते है। इन्हीं १८ सत्संकल्प- सूत्र के सांचे में व्यक्ति व समाज के ढलने ढालने का लक्ष्य है। युग निर्माण जिसे लेकर गायत्री परिवार निष्ठापूर्वक आगे बढ़ रहा है, उसका बीज सत्संकल्प है। उसी आधार पर हमारी सारी विचारणा, योजना गतिविधियाँ एवं कार्यक्रम संचालित होते है।
संकल्प की शक्ति अपार है। इच्छा जब बुद्धि द्वारा परिष्कृत होकर दृढ़ निश्चय का रूप ले लेती है तब वह संकल्प कहलाती है। मन का केन्द्रीकरण जब किसी संकल्प पर हो जाता है तो उसके पूर्ति में विशेष कठिनाई नहीं रहती। भावनापूर्वक मनोबल के किसी दिशा में जुट जाने से सफलता सुनिश्चित हो जाती है। जब बुरे संकल्पों के लिए साधन जुट जाते है तो फिर सत्संकल्पों का कहना ही क्या?
आज प्रत्येक विचारशील व्यक्ति यह अनुभव करता है कि समाज में परिवर्तन की अनिवार्य आवश्यकता है पर यह आकांक्षा मात्र से पूर्ण नहीं हो सकती। इसके लिए सुनिश्चित दिशा निर्धारित करनी होगी एवं संगठित तरीके से मिलजुलकर कदम बढ़ाने होंगे। युग निर्माण सत्संकल्प का घोषणा पत्र इसी दिशा में एक सुनिश्चित कदम है। जिसमें सभी धर्म व संप्रदाय की आदर्श परंपरा के अनुरूप उनकी भावनाएँ व्यवस्थित ढंग से सरल भाषा में संक्षिप्त शब्दों में रखी गई है।
इसे हम ठीक तरह से समझे, उस पर मनन चिंतन करें तथा निश्चय करें कि हमें अपना जीवन इसी सॉचें में ढालना है।
आइये हमारे साथ संकल्प सूत्र को समझते हुए दुहरायें तथा नित्य पाठ करेंगे। (प्रशिक्षक टुकड़े- टुकड़े में शिविरार्थियों से युग निर्माण सत्संकल्प के १८ सूत्रों को दुहरवायें। युग निर्माण सत्संकल्प फोल्डर जिसमें मशाल की चित्र छपा हो सभी को बाँट दें। फोल्डर की पूर्व व्यवस्था बना लें।)
गोष्ठी क्र.- ४ (पंचम दिवस)
संगठन, सेवा- आज शिविर का पाँचवाँ दिन है इसे अंतिम दिन ही समझें। क्योंकि कल तो विदाई का दिन है। आज आपको दो फार्म दिये जायेंगे।
१. सत्प्रवृत्ति संवर्धन व दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन संकल्प पत्र एवं
२. आप युवाओं को संगठित करते हुए भविष्य की कार्य योजना को अपनाने हेतु युवा निर्माण एवं भावी कार्य योजना संकल्प पत्र।
आज सायंकालीन निर्धारित समय पर संगठन बनाने का कार्य करेंगे क्योंकि कोई भी अच्छा कार्य बिना आपस में संगठित हुए नहीं किया जा सकता। आपको यहाँ इस शिविर में लाभान्वित होने का अवसर मिला है वह भी गायत्री परिवार के कार्यकर्ताओं द्वारा आपस में सद्उद्देश्यों के लिए संगठित होने का ही परिणाम है।
अभी शिविर के दौरान आप लोगों के बीच अच्छी दोस्ती हो गयी होगी....। आपकी रुचियाँ भी एक है। क्या आप यहाँ से वापस लौटकर आपस में एक टीम बनाकर रहना चाहेंगे?.....। आपसे यही अपेक्षा है....कि आप लोग जो यहाँ से सीखे है है उसे अभ्यास में लायें। ग्रुप बनाकर यदि करेंगे तो अधिक उल्लास के साथ कर सकेंगे। संभव हो तो प्रायः योगाभ्यास एक साथ मिलकर एक जगह करें। इससे आपको देखकर और लोग भी सम्मिलित हो जायेगें।
यदि बाल संस्कार शाला चल रही होगी तो संस्कार शाला के विद्यार्थियों को भी अपने साथ शामिल किया जा सकता है। इस तरह आपके गाँव/मुहल्ले में योगशाला चल सकती है। आपमें से कोई भी योग का बेहतर अभ्यास करने वाले दो युवा उसके नेतृत्व की जिम्मेदारी लें लें तो गांव में क्रांति आ जायेगी। ऐसा कई स्थानों पर युवा शिविर के पश्चात् युवाओं द्वारा चलाया जा रहा है।
आप लोगों ने संस्कार शाला चलाने हेतु सहमति दी है सह बड़े ही हर्ष की बात है और युवा वर्ग के लिए गौरव की बात है। आज आपको बाल संस्कार शाला के आचार्य का प्रशिक्षण दिया जाना है।
इस समय दैवी चेतना द्वारा जागृत आत्माओं को प्रतिभाओं को आकुल- व्याकुल होकर ढूँढ रहा है और जो प्रतिभाएँ अपना समर्पण कर रही है युग निर्माण से जुड़ रही है उन्हें तराशा जा रहा है। उनका रूपांतरण वैसे ही हो रहा है जैसे खदान का कोयला हीरा बन जाता है। जैसे रत्नाकर डाकू से महर्षि वाल्मीकि बन गए। युग धर्म निभाने हेतु आपसे, प्रतिभाओं के समयदान एवं प्रतिभादान मांगने हेतु इस समय वैसे ही अपील की जा रही है जैसे एक समय वामन अवतार में भगवान ने राजा बलि से मांगा था।
आप सेवाकार्य में अपना योगदान देने का मानस बना रहे है यह बड़े ही सौभाग्य एवं प्रसन्नता की बात है।(सेवा से लाभ को समझायें। देखें व्याख्यान व्यक्तित्व निर्माण के सूत्र में सेवा पृ.क्र.३४)
(ग) शिक्षा और विद्या में अंतर-
शिक्षा-
१. बुद्धि व चतुराई प्रधान है।
२. इसकी प्राप्ति का आधार है चतुराई व बुद्धि की तीव्रता
३. शिक्षा जीवन को भव्य बनाती है।
४. यह माँ सरस्वती की आराधना है।
५. शिक्षा पाठ्यक्रम पर आधारित है इससे मस्तिष्कीय की क्षमता का विकास होता है और लौकिक सम्पत्ति, स्वावलंबन सुविधाएँ, साधन, पद- प्रतिष्ठा का लाभ मिलता है। अर्थोपार्जन की क्षमता बढ़ती है, परंतु विद्या रहित शिक्षा से ये सारे अहंकार पूर्ण हो जाते है।
६. सभी प्रकार से शिक्षित परंतु विद्या रहित व्यक्ति नाना प्रकार से दुःख पाते है।
७. यह अनगिनत प्राप्तियों उपलब्धियों के साथ घातक परिणाम भी सामने लाता है।
विद्या-
१. विद्या भावना प्रधान है।
२. इसकी प्राप्ति का आधार है वसुधैव कुटुंबकम् की भावना।
३. विद्या जीवन को (लोक परलोक दोनों को) दिव्य बनाती है।
४. विद्या गणेश जी साधना है।
५. विद्या का अर्थ विवेक व सद्भाव की शक्ति है इससे श्रद्धा विश्वास, अच्छा- बुरा, अनुचित- उचित, कर्तव्य- अकर्तव्य की पहचान होती है। आत्मा- परमात्मा, जन्म- मरण, लोक- परलोक वास्तविक ज्ञान का आधार विद्या है। आत्मीयता, परोपकार, शालीनता, सरलता, पवित्रता संयम विवेक, दया, करुणा, ममता, संवेदना, श्रद्धा भक्ति आदि दिव्य गुण विकसित होते ह।
६. इससे शुभ संस्कारों का जागरण एवं दिव्यता व श्रेष्ठता का विकास होता है। श्रेष्ठ मान्यताओं व आदर्शों का विकास व निर्माण होता है। व्यक्ति सब भाँति सुखी रहता है।
७. मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाता है, आंतरिक शक्तियों को जगाता है।
१. शिक्षा और विद्या में दोनों के समन्वय की आवश्यकता है। शिक्षा की चतुरता पर विवेक व आदर्श का अंकुश जरूरी है।
२.जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए शिक्षा को संस्कारित व विद्या को परिष्कृत व सामयिक करने की जरूरत है।
(समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादूरीपूर्वक अपनाये जाने वाले)
(घ) व्यक्तित्व निर्माण के व्यवहारिक सूत्र-
१. अपने दोषों को देखें व छोड़े, दूसरों के गुण देखें धारण करें।
२. अपनी बात स्पष्ट शब्दों में कहें। व्यर्थ की बातों विचारों से दूर रहें। बात बुरी लगे तो मौन रहें- तर्क- वितर्क न करें।
३. कुछ भी कार्य करने से पूर्व उस पर चिन्तन करें। दूरदर्शिता पूर्वक चिंतन करें।
४. स्पष्ट बातचीत, शब्दों की सुंदरता, हावभाव की शालीनता, व्यवहार की कुशलता आदि आकर्षक व्यक्तित्व की पहचान है।
५. दूसरों की बातों को ध्यान से सुनें फिर सोचे और फिर विचार कर उत्तर दें(विशेषतः बड़ों की)।
६. कभी अपनों को छोटा न समझें। अपनी महानता को पहचानें। आप विश्व हेतु प्रकाश है। जहाँ भी जाये फरिश्ते के समान प्रकाश शांति व शक्ति के प्रकम्पन फैलाते चलें।
७. जीवन में देना सीखें। सहयोग देना सहयोग पाना व्यक्ति का प्रमुख गुण है। Art of giving is actually art of living.
८. हर व्यक्ति के पास शक्ति है। आवश्यकता है उसे creative work में लगाने की। यह शक्ति नकारात्मक बातों में नष्ट न हो व्यक्तित्व का निखार विचारशीलता पर निर्भर है।
९. यदि आप किसी बात से परेशान हो तो उसके समाधान के लिए शांतिपूर्वक बैठकर समस्या पर विचार करें। गहराई पूर्वक चिंतन द्वारा आप जरूर समाधान पायेंगे अथवा समस्या ही नहीं रहेगी अथवा बड़ों की मदद भी ले सकते है।
१०. तनाव या थकावट में शिथिलीकरण या शवासन करें।
११. कंचे उचकाना, नाखून काटना, नाक में उँगली डालना, उँगलियाँ चटकाना, पैर हिलाना यह अच्छे व्यक्तित्व की निशानी नहीं है। बैठे व चलते समय कमर व कन्धे सीधे रखने की आदत डालें।
१२. स्वाध्याय करें, अपने गुणों व कमजोरियों की सूची बनायें। गुणों को एक-एक करके बढ़ाएँ व कमियों को विदाई करते चलें।
१३. दिन में कम से कम १० मिनट के लिए Silent sitting अवश्य करें। अपने मन चल रहे विचारों की प्रतिघण्टा जाँच करते रहें तथा व्यर्थ व नकारात्मक विचारों को निकालते रहें।
१४. चरित्रवान व सद्गुणी व्यक्तियों का संग करें। प्रतिदिन आधा घंटा सत्साहित्य का संकल्प पूर्वक अध्ययन करे।
१५. सफल महापुरुषों के जीवन चरित्र को पढ़े व प्रेरणा पायें। मनभर चर्चा करने के बजाए कणभर आचरण करना बेहतर है।
१६. ह्रदय की पवित्रता चरित्र का सौन्दर्य है। सत्य बोलें कथनी करनी से एक होकर अपनी प्रामाणिकता को बनाएँ रखें।
(ङ) मैकाले अंकल के भतीजे या भारतीय संस्कृति के प्रहरी?
गांधी जी के अनुसार- आज तक हम जीवित है क्योंकि हमारे पास संस्कार है। अनेकों आक्रमण के बाद भी हम अपनी संस्कृति की वजह से बच पायें है।
कहा जाता है कि अतीतकाल में सारे संसार में यूनान सबसे अधिक ज्ञान के लिए, मिस्र सबसे अधिक आर्थिक समृद्धि के लिए तथा रोम शक्ति के लिए प्रसिद्ध थे। परंतु ये सारे मिट गए।
यूनान मिस्र रोम, मिट गए जहाँ से।
कुछ बात है, जो हस्ती मिटती नहीं हमारी।।
अब पाश्चात्य अपसंस्कृति, भोगवादी चिंतन और जीवनशैली का आक्रमण भारतवर्ष झेल रहा है और इसे सहयोग करने में युवाओं की भूमिका बढ़- चढ़कर दिखाई देती है। आज हमारी साँस्कृतिक अस्मिता खतरे में है। अब सांस्कृतिक युद्ध चल रहा है। परन्तु यह बात आज के आधुनिक व नवीन पीढ़ी को समझ में नहीं आती। भारतवर्ष को बर्बाद करने का षड्यंत्र बहुत पुराना है। इसे हर विचारशील एवं राष्ट्र भक्त को जानना चाहिए।
सन् १८३५ में २ फरवरी को ब्रिटिश संसद में लार्ड मैकाले के भाषण का सार जो इस बात का प्रमाण है कि भारत व भारतीयता को नष्ट करने का षड्यंत्र रचा गया, आज हम उसी षड्यंत्र के शिकार है।
२ फरवरी १८३५ ब्रिटिश पार्लियामेण्ट में लार्ड मैकाले का उद्बोधन
मैने एक ओर से दूसरी ओर तक सम्पूर्ण भार का भ्रमण किया है और एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं देखा जो भिखारी है, चोर है। मैने इस देश में ऐसी सम्पदा, ऐसी उच्च नैतिक मूल्य, ऐसी प्रतिभा के लाग देखे कि मैं नहीं सोचता कि हम कभी भी इस देश को जीत पाएँगे जब तक कि इस देश की रीढ़ की हड्डी को ही न तोड़ दें जो कि इसकी आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत है। इसलिए मैं प्रस्तावित करता हूँ कि हम इस देश की प्राचीन शिक्षा पद्धति व संस्कृति बदल दें, क्योंकि यदि भारतीय यह सोचने लगें कि अंग्रेज व सब कुछ जो विदेशी है, अच्छा है, हमारे अपने से बहुत बड़ा है तो वे आत्मगौरव, अपनी भारतीय संस्कृति को खो देंगे और वे यह हो जाएँगे जो हम उन्हें चाहते हैं- सच्चे अर्थों में एक अधीनस्थ व शासित देश।
आज यदि लार्ड मैकाले की आत्मा यहाँ आकर देखे तो उसे आश्चर्यचकित होकर यही कहना पड़ेगा कि मैने तो कभी सोचा भी नहीं था भारत इतना बदल जाएगा।
आज वेशभूषा, खानपान, भाषा, शिष्टाचार, रीति रिवाज, जीवन की शैली, चिन्तन, रहन- सहन सब अंग्रेजियत के रंग में रंगता हुआ चला जा रहा है।
भारतमाता आज सांस्कृतिक गुलामी की जंजीरों में जकड़ी हुई तड़प रही है कि एक बार फिर से मेरा भगत, आजाद, बिस्मिल आ जाते। मेरी रक्षा करने एक बार फिर से गाँधी और तिलक अपनी माँ के प्रति फर्ज को याद करके मेरी सुधि ले लेते.......।
उनके सपूतों को पता नहीं कब फुर्सत मिलेगी, कब खुलेगी..... वे मैकाले अंकल के सपनों को भारत बनाकर अपनी माता की अस्मिता का अपहरण करने उसे नेस्तनाबूद कर देने में सहायक बनेंगे या संस्कृति के प्रहरी बनकर गाँधी की भांति एक बार पुनः सांस्कृतिक स्वतन्त्रता हेतु अपनी कुर्बानी देगें। कुर्बानी अर्थात सच्चे अर्थों में भारतीय बनना ........ संस्कृति, वेशभूषा, आचार विचार, जीवन शैली से भारतीय। गम्भीरता से विचार करें.....।
वरिष्ठों के लिए ज्ञातव्य
नव निर्माण के लिए आवश्यक विचारधारा हमने अन्तरंग का निर्झर खोदकर प्रवाहित की है। उससे जन- जन के मन को सींचने का कार्य हमारे उत्तराधिकारी करेंगे। विचार क्रांति की मशाल जलती रहनी चाहिए यह प्रकाश दूर- दूर तक फैलता रहना चाहिए। ऐसा न हो कि सहयोग का स्नेह न पाकर हमारी यह अमानत अपना अस्तित्व खो बैठें।
- अखण्ड ज्योति जून १९७१ पृ. ५७
(च) भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ
प्राचीन भारती तत्त्वदर्शियों ने हिन्दू संस्कृति का सूक्ष्म आधार जिन मान्यताओं पर रखा है वे संक्षेप में इस प्रकार से रखे जा सकते हैं-
क) सुख का केन्द्र आन्तरिक श्रेष्ठता- १. संसार की भौतिक सामग्री वासना या विषयों को तृप्त करने से नहीं बल्कि हमारी तृष्णाओं को बढ़ाने वाला है। (उदा.- ययाति) २. हिन्दू तत्त्ववेत्ताओं ने इस त्रुटि को देखकर तय किया कि स्थायी सुखों का केन्द्र सुख सामग्री नहीं आन्तरिक श्रेष्ठता है। (महापुरुषों का उदाहरण- स्वामी रामतीर्थ, विवेकानन्द) ३. इसी कारण आन्तरिक शुद्धि के लिए नाना विधान, त्याग बलिदान, संयम वे उपाय है जिनसे आन्तरिक शुद्धि में प्रमुख सहायता मिलती है।
ख) अपने साथ कड़ाई और दूसरों के साथ उदारता- १. अपनी वासनाओं व इन्द्रियों को संयमित करने वाला ही दूसरों का हाथ बंटा सकता है अन्यथा स्वहित या लोकहित नहीं कर सकते। जो मनुष्य इन्द्रियों और अपने मनोविकारों का दास है, उसे दोष अपनी ओर खींच लेते हैं।
बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वसंगति कर्षपि
(मनु -- २- १५)
इन्द्रियां बहुत बलवान है ये विद्वान को भी अपनी ओर बलात् खींच लेती है। २. कुप्रवृत्तियों को नियंत्रित न करने से अपनी शक्तियों का अपव्यय व क्षरण हो जाएगा। ३. आदर्श भारतीय- १ दम- इन्द्रियों के दमन। २. दान एवं यम इन तीनों का पालन करता है। दम- परम पवित्र व उत्तम है यह आत्मतेज को बढ़ाता है, पुरुषार्थ को बढ़ाता है। ४. भारतीय संस्कृति इन्द्रिय संयम के साथ- साथ दूसरों की सेवा सहायता, दूसरों के प्रति अधिक से अधिक उदार होना सिखाती है। ५. भारतीय संस्कृति का उपासक सदा निर्बलों, अपनी शरण में आए हुओं व अतिथि के सहायक होते हैं। (अतिथि देवो भव, गौतम बुद्ध का हंस की प्राण रक्षा करना, राजा शिवि का उदाहरण)
ग) सदभावों का विकास सेवा साधना-
१. भारतीय संस्कृति आत्मा में छिपे हुए सद्भावों के विकास पर अधिक जोर देती है। शीलं हि शरणं सौम्य सत् स्वभाव ही मनुष्य का रक्षक है। उसी से अच्छे नागरिक व अच्छे समाज का निर्माण होता है। २. आत्मा में साक्षात भगवान का निवास होता है। मनुष्य को ईश्वर रूप ही मानें उनका पूजन सम्मान करें। अपने आन्तरिक सद्भाव अमृत का प्रवाह बहें जिससे दूसरे भी अपने अपने व्यक्तित्व को अधिकाधिक विकसित करें।
घ) व्यक्तिगत आवश्यकताएँ घटाकर विश्वहित की ओर ध्यान-
१. अपनी निजी व्यक्तिगत आवश्यकताएँ घटाते रहना और समय शक्ति तथा योग्यता का अधिकांश भाग विश्वहित में लगाना हमारा आदर्श रहा है मिल बाँटकर खाएँ। २. भोजन वस्त्र- सादा मोटा, विलासिता दिखावापन से दूर, अलिप्त। कम सोना खाना। ३. राजा जनक- विदेह अनाशक्त गृहस्थ तुलाधार वैश्य, धम्र व्याध शूद्र थे। महर्षि याज्ञवल्क्य एक कोपीन और कमण्डलु, पूज्य गुरुदेव का उदाहरण। ४. विश्व प्रेम ऐसा अलौकिक दिव्य रस है, मरहम है जिसे लगाते ही सबके रोग दूर हो जाते हैं। ५. जीना है- तो आदर्श एवं उद्देश्य के लिए। विश्वहित के लिए जियो।
च) शुद्ध कमाई का प्रयोग-
१. परिश्रम और अनुशासन की कमाई पर जो, आलस्य प्रमाद से बचें, परिश्रम करते रहें, अनुशासन को मजबूती से पकड़े रहें, शुद्ध कमाई का उपयोग करें, ऋण न लें (चोरी है), पुण्य से कमाया हुआ धन ही सुख द