Books - युग परिवर्तन में ज्ञानयज्ञ की भूमिका
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सद्ज्ञान विस्तार हेतु अंशदान
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व्यक्ति शराब पीने में, सिनेमा देखने में पंद्रह रुपये खर्च करके आता है। अच्छे काम के लिए कहा जाए तो चवन्नी में ही उसका प्राण निकल जाता है। आदमी जिस चीज का मूल्य नहीं समझता, उसके लिए जरा भी खरच नहीं कर पाता। लेकिन अगर वह उसका मूल्य समझता हो, तो एक रोटी, आधी रोटी का टुकड़ा भी आसानी से खर्च कर सकता है। एक रोटी बीस पैसे की आती है। आधी रोटी तो हम कुत्ते को रोज ही फेंक देते हैं। आधी रोटी को फेंक देना कौन सी मुश्किल की बात है- अगर आदमी की समझ में आ जाए कि ज्ञान नाम की भी दुनिया में कोई चीज होती है। ज्ञान की भी उपयोगिता है। ज्ञान का भी समाज में कोई मूल्य है। अगर ये बातें उसकी समझ में आएँ, तो उसे यह समझाना है कि इस जमाने में ज्ञान कितना आवश्यक है। इससे पहले इसकी इतनी ज्यादा आवश्यकता कभी नहीं हुई।
किसी आदमी के दिमाग को तोड़ा या खोला जाए और उसको खोलकर पढ़ा जाए तो मालूम पड़ेगा कि इसका अस्सी- नब्बे फीसदी दिमाग पागल हो गया है। सारा मस्तिष्क विकृत जैसा है, इसमें सही सोचने की शैली और माद्दा जरा भी नहीं है। इसलिए हमको यह घोर प्रयत्न करना पड़ेगा कि हममें से हर आदमी एक घंटा समय उस साहित्य को दूसरे लोगों को पढ़ाने, सुनाने और समझाने के लिए और स्वयं अपने आपको पढ़ने, सुनने और समझने के लिए लगाए।
समयदान के साथ- साथ दस नए पैसे की जो बात कही गई है, वह रकम बहुत छोटी है, उससे भी कुछ काम चल सकता है। बंदूक किसी के पास हो और बारूद न हो, कारतूस न हो, तो क्या काम चलेगा? हमारे घरों में घरेलू पुस्तकालय होना ही चाहिए। यह बहुत बड़ी संपत्ति के बराबर है। किसी घर में जेवर है कि नहीं, गाय- भैंस है कि नहीं, मकान है कि नहीं, तसवीर है कि नहीं। यह बहुत पीछे की बात है। सबसे पहले यह देखा जाना चाहिए कि इसको बौद्धिक खुराक पूरा करने के लिए हमारे घर में चौका है कि नहीं है। जिस घर में चौका न हो, रोटी का इंतजाम न हो, आटा न हो, दाल न हो, वह कैसा घर? उस घर में आदमी जिएँगे कैसे? जिस तरीके से शरीर की भूख होती है, उसी तरीके से मन की भी भूख होती है और आत्मा की भी भूख होती है। मन और आत्मा की भूख को बुझाने के लिए जहाँ रसोड़ा (रसोई) न हो, चौका न हो, तो जानना चाहिए कि यह भूतों का घर है।
किसी आदमी के दिमाग को तोड़ा या खोला जाए और उसको खोलकर पढ़ा जाए तो मालूम पड़ेगा कि इसका अस्सी- नब्बे फीसदी दिमाग पागल हो गया है। सारा मस्तिष्क विकृत जैसा है, इसमें सही सोचने की शैली और माद्दा जरा भी नहीं है। इसलिए हमको यह घोर प्रयत्न करना पड़ेगा कि हममें से हर आदमी एक घंटा समय उस साहित्य को दूसरे लोगों को पढ़ाने, सुनाने और समझाने के लिए और स्वयं अपने आपको पढ़ने, सुनने और समझने के लिए लगाए।
समयदान के साथ- साथ दस नए पैसे की जो बात कही गई है, वह रकम बहुत छोटी है, उससे भी कुछ काम चल सकता है। बंदूक किसी के पास हो और बारूद न हो, कारतूस न हो, तो क्या काम चलेगा? हमारे घरों में घरेलू पुस्तकालय होना ही चाहिए। यह बहुत बड़ी संपत्ति के बराबर है। किसी घर में जेवर है कि नहीं, गाय- भैंस है कि नहीं, मकान है कि नहीं, तसवीर है कि नहीं। यह बहुत पीछे की बात है। सबसे पहले यह देखा जाना चाहिए कि इसको बौद्धिक खुराक पूरा करने के लिए हमारे घर में चौका है कि नहीं है। जिस घर में चौका न हो, रोटी का इंतजाम न हो, आटा न हो, दाल न हो, वह कैसा घर? उस घर में आदमी जिएँगे कैसे? जिस तरीके से शरीर की भूख होती है, उसी तरीके से मन की भी भूख होती है और आत्मा की भी भूख होती है। मन और आत्मा की भूख को बुझाने के लिए जहाँ रसोड़ा (रसोई) न हो, चौका न हो, तो जानना चाहिए कि यह भूतों का घर है।