Books - युवा क्रांति पथ
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Language: HINDI
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आध्यात्मिक प्रबंधन के सीखे जायँ गुर
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आज के युवाओं में आध्यात्मिक चेतना की आवश्यकता गहरी है। अपने साहस, शौर्य, दृढ़ता, लगन एवं श्रमशीलता के बावजूद यदि आज का युवा भटकाव से गुजर रहा है, तो उसका केवल एक ही कारण है, उसमें आध्यात्मिक चेतना का अभाव है। आध्यात्मिक जीवन दृष्टि न होने के कारण युवाओं की जिन्दगी के बारे में सोच काफी बौनी और उथली हो गयी है। उन्हें नजदीकी सुख और स्वार्थ तो नजर आते हैं; परन्तु त्याग, तप एवं सेवा में सुख व स्वार्थ गँवाने के दूरगामी सत्परिणाम वे नहीं निहार पाते। इक्कीसवीं सदी में अपने चरण रख चुके युवाओं को आज और अभी सब कुछ चाहिए। कल का धीरज उनमें नहीं। बड़ी कम्पनी, बड़ा पद और पैसा, यह उन्हें मिल भी जाय, तो शोहरत की दुनिया उन्हें लुभाती है। इसके लिए वे थोड़ा सा भी इंतजार करने के लिए तैयार नहीं हैं।
एक बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनी के सी.ई.ओ. सुशान्त कहते हैं कि कल किसने देखा है। हमें तो केवल आज पर भरोसा है। हम सारे सुखों को आज ही भोग लेना चाहते हैं। हालाँकि इस सुख भोग एवं अनियमित दिनचर्या में सुशान्त असमय ही कई बीमारियाँ गले लगा बैठे हैं। ब्लडप्रेशर, डायबिटीज जैसी कई तनावजन्य व्याधियाँ उन्हें घेरे हैं। सारे सुख के साधन मिलकर उन्हें गाढ़ी नींद नहीं दे पा रहे हैं। महाराज भतृहरि का कथन ‘भोगे रोगमयं’ उनके ऊपर चरितार्थ हो रहा है और अधिक की खोज में सुशान्त शारीरिक स्वास्थ्य एवं मानसिक शान्ति सब कुछ गँवा बैठे हैं। यह स्थिति अकेले सुशान्त की नहीं है। अनेकों युवा अपनी महत्वाकांक्षाओं की अति और धैर्य के अभाव के कारण इसी दौर से गुजर रहे हैं। इन युवाओं में से अनेकों को प्रबन्धन विशेषज्ञ कहा-माना जाता है। बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ इनकी सोच के चलते भारी मुनाफा कमाती हैं, लेकिन ये खुद बड़े घाटे में हैं; क्योंकि ये स्वयं अपने जीवन का सही प्रबन्धन नहीं कर पा रहे हैं।
अध्यात्म को जीवन प्रबन्धन कहें या जीवन जीने की कला या फिर इन दोनों का सार्थक समन्वय, यह कुछ ऐसा ही है। कई लोग अनजाने में अध्यात्म को धाॢमक मान्यताओं, पूजा-परम्पराओं, मंदिर-मस्जिद या गिरजाघर-गुरुद्वारे से जोड़ने की कोशिश करते हैं, जो सही नहीं है। हाँ, यह सच है कि धर्म व धाॢमकता की तकनीकें अध्यात्म में सहायक हैं। यह भी सच है कि अध्यात्म को धर्म जीवन का सार कहा जा सकता है; लेकिन इसके बावजूद किसी भी धर्म की संकीर्णताओं, कट्टरताओं, मान्यताओं एवं आग्रहों से अध्यात्म का कोई लेना देना नहीं है। अध्यात्म तो सार्थक व सम्पूर्ण जीवन दृष्टि का विकास है। यह जीवन का रूपान्तरण करने वाली ऐसी पवित्र प्रक्रिया है, जिससे बाहरी और आंतरिक जीवन की सभी शक्तियों की व्यवस्था, विकास व सुनियोजन होता है। यही नहीं रूपान्तरित जीवन विराट् से जुड़ने में समर्थ होता है। उसमें अलौकिक आलोक के अनेकों द्वार खुलते हैं।
भारत की धरती पर कई युवा व्यक्तित्वों ने इस अध्यात्म तत्त्व की अनुभूति करके अनेकों को इस ओर प्रेरित किया है। चमत्कारी युवा आध्यात्मिक प्रतिभा का सर्वोच्च प्रतिमान माने जाने वाले आचार्य शंकर, महाराष्ट्र के महान संत ज्ञानदेव महाराज, युग को अपने विचारों से परिवॢतत करने वाले स्वामी विवेकानन्द और इनके अलावा दूसरे भी कई युवा आध्यात्मिक प्रतिभाओं ने मानव जीवन में आध्यात्मिक आलोक का अवतरण किया है। यदा-कदा यह पुण्य-प्रवाह मन्द तो हुआ है, पर बन्द नहीं हुआ है। जो इसके यथार्थ को जानते हैं, उन्हें ज्ञात है कि अध्यात्म मानवीय जीवन को सम्पूर्ण, सार्थक, सर्वोत्तम, सर्वोच्च बनाने का अद्भुत विज्ञान है। साथ ही यह अपने देश की धरोहर है। इसे अब नयी युवा पीढ़ी को सौंपा जाय, यही उचित है। अध्यात्म चेतना के रहते आज के युवा निर्बल बने रहें अथवा उनकी सबलता-समर्थता भटकती रहे, यह ठीक नहीं है।
आज के युवा इससे बिल्कुल ही अपरिचित हैं, यह बात नहीं है। प्रबन्ध का कौशल सीख रहे युवाओं के बीच योग एवं वेदान्त की तकनीकें अपनायी जा रही हैं। प्रबन्धन के गुर सिखाने वाले गुरुओं ने आध्यात्मिक प्रयोगों व प्रक्रियाओं की महत्ता को खुले मन से स्वीकारा है, परन्तु उनकी नजर अभी सामान्य कार्यक्षमता में अभिवृद्धि, पारस्परिक समायोजन एवं नेतृत्व जैसी ऊपरी चीजों पर टिकी है। अध्यात्म के उच्चतर आयाम अभी भी अछूते हैं। इस ओर इन गुरुओं का ध्यान नहीं गया है। अंतर्प्रज्ञा, अतीन्द्रिय क्षमता आदि पराज्ञान की बातें अभी भी इनकी समझ से परे हैं। देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के मानवीय चेतना एवं योग विज्ञान विभाग ने युवाओं में आध्यात्मिक चेतना प्रवाहित करने की सार्थक पहल की है। इसने अध्यात्म के बाह्य एवं अंतरंग दोनों ही पहलुओं से युवाओं को जोड़ने के सरंजाम जुटाये हैं। यहाँ के विशेषज्ञों ने तदनुरूप योग एवं अध्यात्म के दो मॉडल विकसित किये हैं। पहला व्यावहारिक योग एवं समग्र स्वास्थ्य का मॉडल है। इससे योग एवं आध्यात्मिक तकनीक से शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य की उन्नति के विज्ञान को प्रवॢतत किया गया है। दूसरा मॉडल योग विज्ञान एवं मानव उत्कर्ष का है।
इसके अंतर्गत योग के द्वारा मानवीय क्षमता के अभिवर्द्धन एवं उसके नियोजन की तकनीकें सिखाई जाती हैं। इसमें युवाओं को सिद्धान्त के साथ प्रयोग की सूक्ष्मताओं से परिचित कराने की व्यवस्था है। प्रबन्धन एवं स्वास्थ्य से जुड़े अनेकों विशेषज्ञ प्रतिभाओं ने इन दोनों ही मॉडलों को युवाओं में आध्यात्मिक चेतना के अवतरण के लिए किया जाने वाला अद्भुत प्रयोग कहा है।
आज के दौर में कुछ विख्यात योग गुरुओं ने अपने प्रसार अभियान में योग के आठ अंगों में छः को काटकर योग को अपंग बना दिया है। वे केवल योग के दो ही अंग आसन एवं प्राणायाम को ही सब कुछ मानकर चल रहे हैं, पर देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के नीति निर्माताओं ने जीवन के सम्पूर्ण विकास के लिए योग को सम्पूर्ण रूप से स्वीकारा है। इतना ही नहीं, यहाँ युवा पीढ़ी अध्यात्म को समग्रता में समझ सके, इसके लिए योग, वेदान्त एवं तंत्र का सम्पूर्ण मॉडल तैयार किया गया है। इसके प्रभावों को परखने के लिए शरीर क्रिया विज्ञानपरक, मनोवैज्ञानिक एवं परामनोवैज्ञानिक प्रयोगों की समुचित वैज्ञानिक व्यवस्था की जा रही है।
उद्देश्य केवल इतना ही है कि युवा आध्यात्मिक चेतना से लाभान्वित हों। इस विश्वविद्यालय परिसर में युवाओं में आध्यात्मिक चेतना के अवतरण के लिए जो कुछ किया जा रहा है, उसके बारे में इतना तो निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि युवाओं की यह नयी पीढ़ी विवेकानन्द न सही, परन्तु विवेकानन्द के पथ का अनुगमन निश्चित ही करेगी। बाहर के कई विशेषज्ञों ने इन प्रयोगों को अद्भुत बताया है। उनके अनुसार इन प्रयोगों को व्यापक बनाया जाना चाहिए। इन्हें ‘‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’’ तक सीमित न रहकर ‘‘सर्वजनहिताय एवं सर्वजनसुखाय’’ तक प्रसारित होना चाहिए।
इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए विश्वविद्यालय ने आध्यात्मिक सिद्धान्त एवं प्रयोगों का दायरा योग का अध्ययन करने वाली युवा पीढ़ी से बढ़ा दिया है। इसके लिए जीवन के आध्यात्मिक प्रबन्धन के कुछ विशेष पैकेज तैयार किये गये हैं, जिनसे हर कोई लाभान्वित हो सकता है। मकसद केवल इतना ही है कि युवा पीढ़ी में ऐसा कोई न रहे जो आध्यात्मिक चेतना के स्पर्श से वंचित रह जाय। इस का प्रवाह प्रत्येक युवा तक पहुँचना ही चाहिए। गंगा की जलधारा से भी कहीं अधिक पावन इस पवित्र प्रवाह को देश के साथ समूची धरती पर प्रवाहित होना चाहिए; ताकि सम्पूर्ण युवा आध्यात्मिक चेतना के चरणों को अपने जीवन के अंतःपुर में आते अनुभव कर सकें। ऐसा हो सके, इसके लिए युवाओं को शक्ति-साधना के लिए आगे आना चाहिए। युवा बनें शक्ति साधक-यही नये युग का नव आह्वान है।
एक बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनी के सी.ई.ओ. सुशान्त कहते हैं कि कल किसने देखा है। हमें तो केवल आज पर भरोसा है। हम सारे सुखों को आज ही भोग लेना चाहते हैं। हालाँकि इस सुख भोग एवं अनियमित दिनचर्या में सुशान्त असमय ही कई बीमारियाँ गले लगा बैठे हैं। ब्लडप्रेशर, डायबिटीज जैसी कई तनावजन्य व्याधियाँ उन्हें घेरे हैं। सारे सुख के साधन मिलकर उन्हें गाढ़ी नींद नहीं दे पा रहे हैं। महाराज भतृहरि का कथन ‘भोगे रोगमयं’ उनके ऊपर चरितार्थ हो रहा है और अधिक की खोज में सुशान्त शारीरिक स्वास्थ्य एवं मानसिक शान्ति सब कुछ गँवा बैठे हैं। यह स्थिति अकेले सुशान्त की नहीं है। अनेकों युवा अपनी महत्वाकांक्षाओं की अति और धैर्य के अभाव के कारण इसी दौर से गुजर रहे हैं। इन युवाओं में से अनेकों को प्रबन्धन विशेषज्ञ कहा-माना जाता है। बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ इनकी सोच के चलते भारी मुनाफा कमाती हैं, लेकिन ये खुद बड़े घाटे में हैं; क्योंकि ये स्वयं अपने जीवन का सही प्रबन्धन नहीं कर पा रहे हैं।
अध्यात्म को जीवन प्रबन्धन कहें या जीवन जीने की कला या फिर इन दोनों का सार्थक समन्वय, यह कुछ ऐसा ही है। कई लोग अनजाने में अध्यात्म को धाॢमक मान्यताओं, पूजा-परम्पराओं, मंदिर-मस्जिद या गिरजाघर-गुरुद्वारे से जोड़ने की कोशिश करते हैं, जो सही नहीं है। हाँ, यह सच है कि धर्म व धाॢमकता की तकनीकें अध्यात्म में सहायक हैं। यह भी सच है कि अध्यात्म को धर्म जीवन का सार कहा जा सकता है; लेकिन इसके बावजूद किसी भी धर्म की संकीर्णताओं, कट्टरताओं, मान्यताओं एवं आग्रहों से अध्यात्म का कोई लेना देना नहीं है। अध्यात्म तो सार्थक व सम्पूर्ण जीवन दृष्टि का विकास है। यह जीवन का रूपान्तरण करने वाली ऐसी पवित्र प्रक्रिया है, जिससे बाहरी और आंतरिक जीवन की सभी शक्तियों की व्यवस्था, विकास व सुनियोजन होता है। यही नहीं रूपान्तरित जीवन विराट् से जुड़ने में समर्थ होता है। उसमें अलौकिक आलोक के अनेकों द्वार खुलते हैं।
भारत की धरती पर कई युवा व्यक्तित्वों ने इस अध्यात्म तत्त्व की अनुभूति करके अनेकों को इस ओर प्रेरित किया है। चमत्कारी युवा आध्यात्मिक प्रतिभा का सर्वोच्च प्रतिमान माने जाने वाले आचार्य शंकर, महाराष्ट्र के महान संत ज्ञानदेव महाराज, युग को अपने विचारों से परिवॢतत करने वाले स्वामी विवेकानन्द और इनके अलावा दूसरे भी कई युवा आध्यात्मिक प्रतिभाओं ने मानव जीवन में आध्यात्मिक आलोक का अवतरण किया है। यदा-कदा यह पुण्य-प्रवाह मन्द तो हुआ है, पर बन्द नहीं हुआ है। जो इसके यथार्थ को जानते हैं, उन्हें ज्ञात है कि अध्यात्म मानवीय जीवन को सम्पूर्ण, सार्थक, सर्वोत्तम, सर्वोच्च बनाने का अद्भुत विज्ञान है। साथ ही यह अपने देश की धरोहर है। इसे अब नयी युवा पीढ़ी को सौंपा जाय, यही उचित है। अध्यात्म चेतना के रहते आज के युवा निर्बल बने रहें अथवा उनकी सबलता-समर्थता भटकती रहे, यह ठीक नहीं है।
आज के युवा इससे बिल्कुल ही अपरिचित हैं, यह बात नहीं है। प्रबन्ध का कौशल सीख रहे युवाओं के बीच योग एवं वेदान्त की तकनीकें अपनायी जा रही हैं। प्रबन्धन के गुर सिखाने वाले गुरुओं ने आध्यात्मिक प्रयोगों व प्रक्रियाओं की महत्ता को खुले मन से स्वीकारा है, परन्तु उनकी नजर अभी सामान्य कार्यक्षमता में अभिवृद्धि, पारस्परिक समायोजन एवं नेतृत्व जैसी ऊपरी चीजों पर टिकी है। अध्यात्म के उच्चतर आयाम अभी भी अछूते हैं। इस ओर इन गुरुओं का ध्यान नहीं गया है। अंतर्प्रज्ञा, अतीन्द्रिय क्षमता आदि पराज्ञान की बातें अभी भी इनकी समझ से परे हैं। देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के मानवीय चेतना एवं योग विज्ञान विभाग ने युवाओं में आध्यात्मिक चेतना प्रवाहित करने की सार्थक पहल की है। इसने अध्यात्म के बाह्य एवं अंतरंग दोनों ही पहलुओं से युवाओं को जोड़ने के सरंजाम जुटाये हैं। यहाँ के विशेषज्ञों ने तदनुरूप योग एवं अध्यात्म के दो मॉडल विकसित किये हैं। पहला व्यावहारिक योग एवं समग्र स्वास्थ्य का मॉडल है। इससे योग एवं आध्यात्मिक तकनीक से शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य की उन्नति के विज्ञान को प्रवॢतत किया गया है। दूसरा मॉडल योग विज्ञान एवं मानव उत्कर्ष का है।
इसके अंतर्गत योग के द्वारा मानवीय क्षमता के अभिवर्द्धन एवं उसके नियोजन की तकनीकें सिखाई जाती हैं। इसमें युवाओं को सिद्धान्त के साथ प्रयोग की सूक्ष्मताओं से परिचित कराने की व्यवस्था है। प्रबन्धन एवं स्वास्थ्य से जुड़े अनेकों विशेषज्ञ प्रतिभाओं ने इन दोनों ही मॉडलों को युवाओं में आध्यात्मिक चेतना के अवतरण के लिए किया जाने वाला अद्भुत प्रयोग कहा है।
आज के दौर में कुछ विख्यात योग गुरुओं ने अपने प्रसार अभियान में योग के आठ अंगों में छः को काटकर योग को अपंग बना दिया है। वे केवल योग के दो ही अंग आसन एवं प्राणायाम को ही सब कुछ मानकर चल रहे हैं, पर देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के नीति निर्माताओं ने जीवन के सम्पूर्ण विकास के लिए योग को सम्पूर्ण रूप से स्वीकारा है। इतना ही नहीं, यहाँ युवा पीढ़ी अध्यात्म को समग्रता में समझ सके, इसके लिए योग, वेदान्त एवं तंत्र का सम्पूर्ण मॉडल तैयार किया गया है। इसके प्रभावों को परखने के लिए शरीर क्रिया विज्ञानपरक, मनोवैज्ञानिक एवं परामनोवैज्ञानिक प्रयोगों की समुचित वैज्ञानिक व्यवस्था की जा रही है।
उद्देश्य केवल इतना ही है कि युवा आध्यात्मिक चेतना से लाभान्वित हों। इस विश्वविद्यालय परिसर में युवाओं में आध्यात्मिक चेतना के अवतरण के लिए जो कुछ किया जा रहा है, उसके बारे में इतना तो निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि युवाओं की यह नयी पीढ़ी विवेकानन्द न सही, परन्तु विवेकानन्द के पथ का अनुगमन निश्चित ही करेगी। बाहर के कई विशेषज्ञों ने इन प्रयोगों को अद्भुत बताया है। उनके अनुसार इन प्रयोगों को व्यापक बनाया जाना चाहिए। इन्हें ‘‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’’ तक सीमित न रहकर ‘‘सर्वजनहिताय एवं सर्वजनसुखाय’’ तक प्रसारित होना चाहिए।
इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए विश्वविद्यालय ने आध्यात्मिक सिद्धान्त एवं प्रयोगों का दायरा योग का अध्ययन करने वाली युवा पीढ़ी से बढ़ा दिया है। इसके लिए जीवन के आध्यात्मिक प्रबन्धन के कुछ विशेष पैकेज तैयार किये गये हैं, जिनसे हर कोई लाभान्वित हो सकता है। मकसद केवल इतना ही है कि युवा पीढ़ी में ऐसा कोई न रहे जो आध्यात्मिक चेतना के स्पर्श से वंचित रह जाय। इस का प्रवाह प्रत्येक युवा तक पहुँचना ही चाहिए। गंगा की जलधारा से भी कहीं अधिक पावन इस पवित्र प्रवाह को देश के साथ समूची धरती पर प्रवाहित होना चाहिए; ताकि सम्पूर्ण युवा आध्यात्मिक चेतना के चरणों को अपने जीवन के अंतःपुर में आते अनुभव कर सकें। ऐसा हो सके, इसके लिए युवाओं को शक्ति-साधना के लिए आगे आना चाहिए। युवा बनें शक्ति साधक-यही नये युग का नव आह्वान है।