Saturday 22, March 2025
कृष्ण पक्ष अष्टमी, चैत्र 2025
पंचांग 22/03/2025 • March 22, 2025
चैत्र कृष्ण पक्ष अष्टमी, कालयुक्त संवत्सर विक्रम संवत 2082, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), फाल्गुन | अष्टमी तिथि 05:23 AM तक उपरांत नवमी | नक्षत्र मूल 03:23 AM तक उपरांत पूर्वाषाढ़ा | व्यातीपात योग 06:36 PM तक, उसके बाद वरीयान योग | करण बालव 04:59 PM तक, बाद कौलव 05:23 AM तक, बाद तैतिल |
मार्च 22 शनिवार को राहु 09:23 AM से 10:53 AM तक है | चन्द्रमा धनु राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 6:22 AM सूर्यास्त 6:25 PM चन्द्रोदय 1:04 AM चन्द्रास्त 11:56 AM अयन उत्तरायण द्रिक ऋतु वसंत
- विक्रम संवत - 2082, कालयुक्त
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - चैत्र
- अमांत - फाल्गुन
तिथि
- कृष्ण पक्ष अष्टमी
- Mar 22 04:24 AM – Mar 23 05:23 AM
- कृष्ण पक्ष नवमी
- Mar 23 05:23 AM – Mar 24 05:38 AM
नक्षत्र
- मूल - Mar 22 01:45 AM – Mar 23 03:23 AM
- पूर्वाषाढ़ा - Mar 23 03:23 AM – Mar 24 04:18 AM

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!! आज के दिव्य दर्शन 22 March 2025 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!

!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
मीरा इतनी हैरान हो रही थी, और उन्होंने देखा, हमारे जितने भी संबंधी आते हैं, यही कहते आते हैं, "भजन बेकार है, पैसा कमाओ, भजन बेकार है, दूसरी शादी कर लो।" यह सब वही सलाह देते चले आते हैं। कोई यह कहने नहीं आता, "मनुष्य का जीवन कैसे मिला है, इसका ठीक उपयोग करें।" ऐसी कोई सलाह नहीं देने आता। मुझे क्या करना चाहिए, इसके लिए मीरा ने एक पत्र गोस्वामी तुलसीदास जी को लिखा। उन्होंने कहा, "आप बताइए, मेरे सामने यह परिस्थिति है। जो भी आता है, सलाहकार, शुभचिंतक, यह कहता है, 'हम शुभचिंतक हैं आपके,' यह कहता है, 'हम हितैषी हैं आपके,' यह कहता है, 'हम आपके प्रति सद्भावना रखते हैं,' लेकिन सलाह यह देते हैं, 'मुझे भगवान से दूर रहना चाहिए और अपना जीवन पाप में, स्वार्थों में, चालाकियों में, घृणा में व्यतीत कर देना चाहिए।' बताइए, मैं क्या करूं? इन संबंधियों का क्या करूं? मैं संबंधी ही, मेरे लिए बैरी हो रहे हैं, मैं क्या करूं?"
गोस्वामी तुलसीदास जी को मीरा ने पत्र लिखा। मीरा और गोस्वामी तुलसीदास समकालीन थे। गोस्वामी तुलसीदास जी ने और तो कुछ जवाब नहीं दिया। चिट्ठी का, चिट्ठी को कोई पढ़ेगा तो क्या कहेगा? उन्होंने एक कविता बनाकर भेज दी। उसकी चिट्ठी के जवाब में, मीरा के जवाब में चिट्ठी, एक कविता भेजी। कविता कैसी सुंदर है, कैसी शानदार कविता है, बेटे, वह रोमांच पैदा कर देती है। क्या कविता है, देखिए:
"जाके प्रिय न राम वैदेही, तजिए तिनहि कोटि बैरी सम, यद्यपि परम सनेही बन तन भए मुद मंगल कारी, जिनके प्रिय न राम वैदेही, तजिए तिनहि कोटि बैरी सम, यद्यपि परम सनेही, पिता तज्यो प्रह्लाद, विभीषण बंधु, भरत महतारी, बलि गुरु तज्यो, कंत ब्रज, तजिए तिनहि कोटि बैरी सम, यद्यपि परम सनेही। " इतना साहस भीतर से हो आता है कि, बेटे, क्या है इसका नाम भगवान है, इसका नाम भगवान है जो भीतर से उदय होता है। तो एक ओर हिम्मत, एक ओर, एक ओर आदमी का साहस, एक ओर सिद्धांत, एक ओर आदर्श, एक ओर, और सारी दुनिया एक ओर, सारी दुनिया एक ओर। जब ऐसा भगवान आता है, तो क्या होता रहता है? सिद्धियां आती हैं, बेटे, सिद्धियां आती हैं।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
अमृत, पारस और कल्पवृक्ष यह तीनों महान् तत्त्व सर्वसाधारण के लिए सुलभ हैं। हम जितना उनसे दूर रहते हैं उतने ही ये हमारे लिए दुर्लभ हैं परन्तु जब हम इनकी ओर कदम बढ़ाते हैं तो यह अपने बिल्कुल पास, अत्यन्त निकट आ जाते हैं। जिस ओर मुँह न हो उधर की चीजों का कोई अस्तित्व दृष्टिगोचर नहीं होता। पीठ पीछे क्या वस्तु रखी हुई है, इसका पता नहीं चलता, किन्तु उलट कर जैसे ही हम मुँह फेरते हैं वैसे ही पीछे की चीज जो कुछ क्षण पहले तक अदृश्य थी, दिखाई देने लगती है। यह स्पष्ट है कि जिधर हमारी प्रवृत्ति होती है, जैसी हम इच्छा और आकांक्षाएँ करते हैं उसी के अनुरूप, वस्तुएँ भी उपलब्ध हो जाती है।
कहने को तो सभी कोई सुखदायक स्थिति में रहना और दु:खदायक स्थिति से बचना चाहते हैं, परन्तु यह हीन वीर्य चाहना, शेखचिल्ली के मनसूबों की तरह निष्फल और निरर्थक सिद्ध होती है। सच्ची चाहना की कसौटी यह है कि अभीष्ट वस्तु को प्राप्त करने की लगन अन्त:करण की गहराई तक समाई हुई हो। आकांक्षा की तीव्रता का स्पष्ट सबूत अभीष्ट वस्तु को प्राप्त करने के प्रयत्न में भी जान से जुट जाना है। धुन का पक्का, निश्चित मार्ग का दृढ़ प्रतिज्ञ पथिक अपनी अविचल साधना के द्वारा ऊँचे से ऊँ चे सुदूर लक्ष्य तक आसानी से पहुँच जाता है। इस विश्व में कोई वस्तु ऐसी नहीं है कि मनुष्य सच्चे मन से इच्छा करने पर भी उसे प्राप्त न कर सके। लोभवश अनावश्यक वस्तुओं के संचय की लालसा में प्रकृति के नियम कुछ बाधक भले ही बनें, परन्तु आत्मिक सद्गुणों के विकास द्वारा सात्विक आनन्द प्राप्त करने की आकांक्षा तो सर्वथा उचित और आवश्यक होने के कारण पूर्णतया सरल है, उसकी पूर्ति में ईश्वरीय सहायता प्राप्त होती है। आत्म-कल्याण करने वाले सत् प्रयासों में भगवान् सदा ही अपना सहयोग देते हैं।
अमृत, पारस और कल्पवृक्ष मनुष्य के लिए पूर्णतया सुलभ हैं बशर्ते कि उन्हें प्राप्त करने का सच्चे मन से प्रयत्न किया जाय। अपने अविनाशी होने का दृढ़ विश्वास चिन्तन और मनन द्वारा अपनी अन्त: चेतना में भली प्रकार बिठाया जा सकता है। यह विश्वास इतना मजबूत होना चाहिए कि जीवन के किसी भी प्रश्र पर विचार किया जाय तो उस समय यह विश्वास स्पष्ट रूप से बीच में आ उपस्थित हो कि—यह जीवन, हमारे महा जीवन, अनन्त जीवन का अंश मात्र है। महा जीवन के लाभ-हानि को प्रधानता देने की नीति के आधार पर जीवन की गुत्थियों को सुलझाना चाहिए, उसी के अनुसार कार्यक्रम बनाना चाहिए। जब इस प्रकार का हमारा दृष्टिकोण निश्चित हो जाता है तो जीवन अत्यन्त पवित्र, निर्मल, निष्पाप, शान्तिदायक एवं आनन्दमय हो जाता है। यही अमृत है।
प्रेम की दृष्टि से सबको देखना, आत्मीयता, उदारता, सहानुभूति, सेवा, क्षमा, दया, सुधार, कल्याण, परमार्थ, त्याग के भाव रखकर लोगों से व्यवहार करना ऐसा उत्तम कार्य है, जिसकी प्रतिक्रिया बड़ी उत्तम होती है। व्यक्ति आज्ञाकारी, प्रशंसक, सहायक और सेवक बन जाता है। प्रेम मनुष्य जीवन का पारस है, इसका स्पर्श होते ही नीरस, शुष्क, तुच्छ व्यक्तियों में भी महानता उद्भुत होने लगती है। रोती हुई दुनियाँ को हँसती सूरत में बदल देने का जादू प्रेम में ही है। इसीलिए उसे पारस कहते हैं।
परिश्रम से, उद्योग से, कष्ट सहन से, अध्यवसाय से, कठिन से कठिन लक्ष्य तक मनुष्य पहुँच जाता है। तप से सारी सम्पदाएँ मिलती हैं। शक्ति संचय, परिश्रम, उत्साह, दृढ़ता, लगन यही तप के लक्षण हैं, जिसे तप की आदत है कल्पवृक्ष उसकी मुट्ठी में हैं, उसकी कोई इच्छा अधूरी न रहेगी, वह जो चाहेगा, वही प्राप्त कर लेगा।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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