मनुष्य की उत्पत्ति चाहे जैसे भी हुई हो परन्तु यदि किसी मनुष्य से यह कहा जाय कि तुम्हारे पास मन नहीं है, तो वह इसे स्वीकार नहीं कर सकता। वह मन की परिभाषा भले ही न बता सके, उसकी उत्पत्ति, स्थिति और लय की स्थिति न बता सके, पर यह अवश्य बता सकता है कि उसके पास मन है। वैसे सत्य यही है कि मनुष्य ने मन और बुद्धि के माध्यम से ही पदार्थ पर नियंत्रण स्थापित कर प्रकृति पर विजय प्राप्त की है। आज वैज्ञानिक अनुसंधानों से भी यह बात प्रमाणित हो चुकी है।
अध्यात्म विज्ञान मन की एकाग्रता एवं उसके उपयोग की विशद् विवेचना करता है। मन का अन्वेषण, विश्लेषण, उपयोग का प्रयास उतना ही पुराना है, जितना कि अध्यात्म। मनुष्य के पास जो मानसिक शक्ति है उसका पूरा-पूरा उपयोग तो दूर रहा, दस प्रतिशत का उपयोग भी वह नहीं कर पाता। मानसिक शक्तियों के शोधकर्त्ता जीजफ बीराइन ने तो यहाँ तक कहा है कि हम जितनी अच्छी तरह परमाणु को जानते हैं, उसका पाँच प्रतिशत भी परमाणु को जानने वाले मन को नहीं जानते।
मनुष्य शब्द का अर्थ ही है मन वाला। सम्पूर्ण जीवन मन से ही संचालित होता है। मन के ही कारण मनुष्य पशु जीवन से ऊपर उठ जाता है और मन के ही कारण वह परमात्म तत्त्व की प्राप्ति से वंचित रहता है। जहाँ पशुता से ऊपर उठने के लिए मननशीलता का होना जरूरी है, वहीं दिव्यता तक, परमात्मा तक पहुँचने के लिए मन का न होना यानि ‘अमनी भावदशा’ का उपलब्ध होना आवश्यक है।
मन स्वभावतः ही चंचल है। मन की इसी वृत्ति का उल्लेख करते हुए श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से कहते हैं-
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन सधुसूदन। एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात्स्थितिं स्थिराम्॥
चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढ़म्। तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥
- गीता, 6/33-34
अर्थात्- हे मधुसूदन! जो यह योग आपने समभाव से कहा है मन के चंचल होने से मैं इसकी नित्य स्थिति को नहीं देखता हूँ। यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है। इसलिए उसको वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ।
तब श्री भगवान् कहते हैं-
असंशयं महाबाहो मनो दुनिग्रहं चलम्। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥ - गीता, 6/35
अर्थात्- हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला होता है। परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है।
यह अभ्यास और वैराग्य मात्र कुछ औपचारिकताओं का निर्वाह नहीं है, अपितु पूर्णतया अध्यात्म विज्ञान का प्रयोगसिद्ध मनोदैहिक तथा वैयक्तिक- सामाजिक क्रिया-कलाप है। जो शरीर और मन को, मन और आत्मा को तथा आत्मा और परमात्मा को जोड़ता है। यह व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठित होकर वृहद् आदर्श की ओर उन्मुख करता है। ये दो तत्त्व मात्र संकेत नहीं हैं, वरन् उन मनीषियों की स्वअर्जित अनुभूति है, जिन्होंने मात्र शास्त्रज्ञान अर्जित नहीं किया, अपितु प्रयोग और परीक्षण करके मन को देखा और समझा है, उस पर नियंत्रण प्राप्त किया है।
जिस प्रकार सुनार धधकती अग्नि में सोने को तपाता है, फिर ठण्डा करता है, फिर तपाता है। यह सोने का तप ही है, जिसमें तपकर वह शुद्ध होता है, निखरता है, कुँदन बनता है। उसका सारा मैल दूर हो जाता है और एक आभा, एक चमक आ जाती है। मनुष्य को भी मन पर चढ़े अनेक आवरणों को परत-दर-परत उसी प्रकार हटाते चलना चाहिए। परिष्कृत हुआ मन ही परमात्ममय होने की समर्थता प्राप्त कर पाता है।
मन को एकाग्र करने से तात्पर्य दमन से कदापि नहीं है। दमन से तो मन की वृत्तियाँ और भी चंचल हो उठती हैं, क्योंकि यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है कि जिस चीज को जितना दबाने का प्रयास किया जाता है वह उतना ही शक्तिशाली हो जाता है। मन को साँसारिक विषय वासनाओं से धीरे-धीरे परमात्मा की ओर एकाग्र करना चाहिए। परमात्मा के सतत स्मरण से मन निर्मल होता चला जाता है। ऐसा जीवन उस मार्ग से बचता है, जिस पर उसके भटकने की संभावना होती है। परमात्मा का सतत स्मरण कितना महिमावान् है, इसे तो उसका स्मरण करने वाला मन ही जान सकता है।
मन जो कल्पनाएँ करता है यदि वे पूरी होती रहें तो हमारे लिए ही अनेकानेक मुसीबतें खड़ी हो सकती हैं। यह तो प्रकृति की कृपा है कि मन जो इच्छा करता है वह तत्काल नहीं हो जाता। तब तक ऐसा नहीं होता जब तक हम प्रयास नहीं करते। ऐसे में यदि हमारा मन वैसी इच्छा करे जो हमारे लिए ही नहीं, दूसरों के लिए भी कल्याणकारी हो, तो मन के दमन का सवाल ही नहीं उठेगा।
मन का जीवन दीर्घ है, पर आत्मा का जीवन तो असीम और अनन्त है। फिर क्यों न हम महान् विचारों का मनन करें, जिससे आध्यात्मिक विकास त्वरित गति से हो। मन को प्रशिक्षित करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य है। ज्ञान या विज्ञान के रूप में यही वह लक्ष्य है, जो जीवन को अर्थ देता है। वही ज्ञान वास्तव में मूल्यवान है, जो जीवन को परमात्मा की ओर ले जाता है।
अपने दैनिक जीवन में आध्यात्मिकता को लाना निश्चय ही अत्यन्त कठिन है। विशेष रूप से जब हमारी सम्पूर्ण दिनचर्या शरीर भाव के इर्द-गिर्द घूम रही हो। ऐसे में शरीर को स्वयं से भिन्न किसी अन्य वस्तु के रूप में देखना असम्भव नहीं तो दुष्कर अवश्य है। पर इस दुष्कर कार्य को सरल बनाती है, मन की एकाग्रता। निःसंदेह मन की एकाग्रता से ही हम साधारण से साधारण परिस्थिति एवं क्रिया-कलापों में आध्यात्मिकता की झलक पाने में समर्थ हो सकते हैं।
आध्यात्मिक जीवन का पथ लम्बा अवश्य है, लक्ष्य तक पहुँचने के लिए कई जीवन आवश्यक हैं, किन्तु मन की गहराई में परमात्मा को बिठाकर कई जीवन के चक्करदार रास्ते से बचा जा सकता है। यही पूर्णता प्राप्ति का राजमार्ग है। पूर्णमदः पूर्णमिदं का यही संदेश है। मन ठीक उसी प्रकार कार्य करता है जैसे कि अग्नि। चाहें तो हम उसका सदुपयोग करें या दुरुपयोग। अपने मन को एकाग्र कर हम उपनिषद् के इस वाक्य को अपने जीवन की अनुभूति में बदल सकते हैं, जिसमें कहा गया है- ‘मनुष्यों! उठो, जागो, और श्रेष्ठत्व प्राप्त करो, जो परमात्मा ने तुम्हारे लिए सुरक्षित कर रखा है।’
पूज्यवर द्वारा बताए उपाय
परम पूज्य गुरुदेव पं० श्रीराम शर्मा जी आचार्य के पास भी कई लोग अपनी जिज्ञासाएँ उसी प्रकार की लेकर आते थे। मन नहीं लगता, भागता है। पूज्यवर उसे उदीयमान सूर्य की पीतवर्णी किरणों में स्नान- अपने को ईंधन मानकर आग में समर्पण का भाव पैदा करने को तथा मानसिक गायत्री जाप करने को कहते थे। व्यक्ति- व्यक्ति के लिए उनके पास ध्यान की पद्धतियाँ थी। सबसे पहला सुझाव वे देते थे कि हम स्वाध्याय की वृत्ति विकसित करें, ताकि हमारा मन सतत श्रेष्ठ विचारों में स्नान करता रहे। इससे धारणा पक्की बनेगी और ध्यान टिकेगा। उनने कभी किसी को निराश नहीं किया। किन्हीं को उनने माँ गायत्री का, किसी को विराट आकाश का वा किसी को स्वयं उनका (गुरुदेव का) ध्यान करने को कहा। मन क्रमशः इससे एकाग्र हो सुपर चेतन की यात्रा करने लगता था, अब भी उनकी सूक्ष्म व कारण सत्ता पर ध्यान केन्द्रित करने से साधको को वही अनुभूति हो सकती है। सही बात यही है कि ९५ से ९९ प्रतिशत व्यक्तियों का चंचल मन पहला कदम तो पूरा कर लेता है- एकाग्रता का, पर अचेतन से सुपर चेतन की यात्रा नहीं कर पाता।