2 जून 2020 (ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी संवत् 2077) से 20 जून 2021 (गायत्री जयंती संवत् 2078) तक
एक वर्षीय गायत्री अभियान साधना अनुष्ठान की यह साधना साधकों को अपने घर पर रह कर ही संपन्न करनी है । इस के लिए शांतिकुंज नहीं आना होगा । पंजीयन करने का उद्देश्य सभी साधकों की सूचना एकत्र करना एवं शांतिकुंज स्तर पर दोष परिमार्जन एवं संरक्षण एवं मार्गदर्शन की व्यवस्था करना है ।
एक वर्षीय गायत्री अभियान साधना अनुष्ठान की यह साधना साधकों को अपने घर पर रह कर ही संपन्न करनी है । इस के लिए शांतिकुंज नहीं आना होगा । पंजीयन करने का उद्देश्य सभी साधकों की सूचना एकत्र करना एवं शांतिकुंज स्तर पर दोष परिमार्जन एवं संरक्षण एवं मार्गदर्शन की व्यवस्था करना है ।
आत्मीय परिजन ,
दैनंदिन जीवन में निरन्तर व्यस्त रहने वाले अध्यात्म पथ के समस्त पथिकों हेतु यह आत्मशक्ति संवर्धन एवं जीवन साधना के लिए मिला विशिष्ट अवसर है। साधना ही तो आत्मबल संवर्धन, आत्मशोधन, भाव संवेदनाओं के जागरण, सेवाभाव के उद्गम, सकारात्मक चिन्तन के अभ्यास, वातावरण परिष्कार आदि का प्रमुख आधार है। इसलिए शान्तिकुञ्ज द्वारा परिजनों से गायत्री मंत्र के जप और तप सहित एक वर्षीय ‘अभियान साधना’ करने की अपील की गई।
महत्व
गायत्री को पंचमुखी कहा जाता है। कई चित्रों में अलंकारिक रूप से गायत्री के पाँच मुख दिखलाये जाते हैं। वास्तव में यह पाँच विभाग हैं- (१) ॐ (२) भूर्भव: स्व: (३) तत्सवितुर्वरेण्यं (४) भगो र्देवस्य घीमहि (५) धियो यो न: प्रचोदयात्। यज्ञोपवीत के पाँच भाग हैं- तीन सूत्र, चौथी मध्यग्रन्थि, पाँचवी ब्रह्मग्रंथि। पाँच देवता भी प्रसिद्ध हैं। ॐ-गणेश। व्याहृति-भवानी। प्रथम चरण-ब्रह्मा। द्वितीय चरण-विष्णु। तृतीय चरण-महेश। यह पाँच देवता गायत्री के पाँच प्रमुख शक्तिपुंज कहे जा सकते हैं। प्रकृति के संचालक पाँच तत्व (पृथ्वी, जल, अग्रि, वायु, आकाश), जीव के पाँच कोष (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोष)। पाँच ज्ञानेन्द्र्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, चैतन्य पञ्चक (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आत्मा) इस प्रकार की पंच प्रवृत्तियाँ गायत्री के पाँच भागों में प्रस्फुटित, प्रेरित, प्रसारित होती हैं। इन्हीं आधारों पर वेदमाता गायत्री को पंचमुखी कहा गया है।
पंचमुखी माता की उपासना एक नैष्ठिक अनुष्ठान है, जिसे ‘गायत्री अभियान साधना’ कहते हैं, जो पाँच लाख जप का होता है। यह एक वर्ष की तपश्चर्या साधक का उपासनीय महाशक्ति से तादात्म्य करा देती है। श्रद्धा और विश्वासपूर्वक की हुई अभियान की साधना अपना फल दिखाये बिना नहीं रहती। यह एक ऐसी तपस्या है, जो साधक को गायत्री शक्ति से भर देती है। फलस्वरूप साधक अपने अंदर, बाहर और चारों ओर एक दैवी वातावरण का अनुभव करता है।
#अभियान की विधि
एक वर्ष में पाँच लाख जप एवं प्राण संवर्धक तप पूरा करने का अभियान किसी भी मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी से आरंभ किया जा सकता है। गायत्री का आविर्भाव ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी को हुआ है। इसलिये उसका उपवास पुण्य दूसरे दिन एकादशी को माना जाता है। अभियान आरंभ करने के लिये यही मुहूर्त सबसे उत्तम है। वैसे किसी माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी से इसका शुभारम्भ किया जा सकता है। जिस एकादशी से आरंभ किया जाये, एक वर्ष बाद उसी एकादशी को समाप्त करना चाहिये।
जप का क्रम : जैसे कि लिखा जा चुका है, इस साधना में एक वर्ष की अवधि में पाँच लाख गायत्री मंत्र का जप पूरा करना होता है। महाविज्ञान में प्रतिदिन दस माला, हर रविवार को 15 माला तथा तीन नवरात्रों और 24 एकादशियों में 24 माला करने से पाँच लाख का जप पूरा होने का नियम बताया गया है। पूज्य गुरुदेव से परिजनों ने निवेदन किया कि एकादशी तथा रविवार आदि के दिन अधिक जप न करके उसके स्थान पर 365 दिनों में समान मालाओं का क्रम बना लें, तो कैसा रहे? उन्होंने इसकी सहमति प्रदान कर दी। वर्ष के 365 दिनों में मालाएँ बाँटें तो 14 माला प्रतिदिन से जप पूरा हो जाता है।
इस वर्ष गायत्री जयन्ती 1 जून को है। अगले वर्ष (सन् 2021 में) गायत्री जयन्ती 20 जून को पड़ती है। इसलिए अभियान साधना के लिए कुल 384 दिन या 55 सप्ताह मिल जाते हैं। इसलिए 24000 जप के तीन अनुष्ठानों के साथ भी 12 माला नित्य करने से जप संख्या की पूर्ति हो जाती है।
यदि चौबीस हज़ार का कोई भी अनुष्ठान न करें तो प्रति सप्ताह 91 माला का जप करने से काम चल जाता है।
अस्तु जो परिजन एक वर्ष की अभियान साधना में भाग लेना चाहते हैं, वे प्रतिदिन 14 माला या नवरात्र अनुष्ठानों के साथ प्रतिदिन 12 माला जप करने का नियम बना सकते हैं।
{ साधना में जप का क्रम इस तरह रहेगा } -
एक वर्षीय अभियान साधना में गायत्री महामंत्र जप की व्यवस्था
कुल मंत्र जप : पाँच लाख
गायत्री महाविज्ञान के अनुसार
तीनों नवरात्रों में : 24000 के अनुष्ठान
प्रत्येक एकादशी : 24 माला
प्रत्येक रविवार : 15 माला
शेष सभी दिन : 10 माला
अधिक मास युक्त इस वर्ष के लिए वैकल्पिक व्यवस्था
तीनों नवरात्रों में : 24000 के अनुष्ठान
शेष सभी दिन : 12 माला
अथवा
बिना किसी अनुष्ठान के प्रत्येक सप्ताह में 91 माला
# कुछ नियम
साधना काल में निभाने योग्य कुछ नियम इस प्रकार हैं।
• एक वर्ष में किए जाने वाले नौ दिवसीय 24000 जप अनुष्ठानों में पलंग पर सोना, दूसरे व्यक्ति से हजामत बनवाना, चमड़े का जूता पहनना, मद्य-माँस का सेवन आदि बातें विशेष रूप से वर्जित हैं। शेष दिनों सामान्य जीवन क्रम रखा जा सकता है। उसमें किसी विशेष तपश्चयार्ओं का प्रतिबंध नहीं है।
• महीने में एक बार शुक्ल पक्ष की एकादशी अथवा किसी रविवार को 108 मंत्रों से हवन कर लेना चाहिये। हवन का क्रम ‘दैनिक हवन विधि’ पुस्तिका के अनुसार किया जा सकता है।
• अभियान एक प्रकार का लक्ष्यवेध है। इसके लिये किसी पथ-प्रदर्शक एवं शिक्षक की नियुक्ति आवश्यक है, जिससे कि बीच-बीच में जो अनुभव हों, उनके संबंध में परामर्श किया जाता रहे। कई बार जब भी प्रगति में बाधा उपस्थित होती है तो उसका उपाय अनुभवी मार्गदर्शक से जाना जा सकता है। इसके लिये शान्तिकुञ्ज में पंजीयन कराने वालों के संरक्षण, दोष परिमार्जन की व्यवस्था बन जाती है।
• शुद्ध होकर प्रात:-सायं दोनों समय जप किया जा सकता है। प्रात:काल उपासना में अधिक समय लगाना चाहिये, संध्या के लिये तो कम भाग ही छोड़ना चाहिये।
• साधना के बीच सूतक, यात्रा, बीमारी आदि के दिनों में बिना माला के मानसिक जप चालू रखना चाहिये। किसी दिन साधना छूट जाने पर उसकी पूर्ति अगले दिन की जा सकती है।
• फिर भी यदि वर्ष के अंत में कुछ जप कम रह जाये तो उसके लिये ऐसा हो सकता है कि उतने मंत्र अपने लिये किसी से उधार जपाये जा सकते हैं जो सुविधाजनक ढंग से लौटा दिये जायें। इस प्रकार हवन आदि की कोई असुविधा पड़े तो वह इसी प्रकार सहयोग के आधार पर पूरी की जा सकती है। किसी साधक की साधना खण्डित न होने देने एवं उसका संकल्प पूरा कराने के लिये मिशन की पत्रिकाओं से समुचित उत्साह, पथ प्रदर्शन तथा सहयोग मिल जाता है। इस तपस्या के लिये जिनके मन में उत्साह है, उन्हें यह शुभारंभ कर ही देना चाहिये। आगे चल कर माता अपने आप सँभाल लेती है। यह निश्चित है कि शुभारंभ का परिणाम शुभ ही होता है।
#तप साधनाएँ
जप साधना के साथ तप साधना जोड़कर जीवन में संव्याप्त दुष्प्रवृत्तियों के निवारण तथा सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन के तेजस्वी क्रम को भी अपनाना चाहिए। नवरात्र साधना में 9 दिन तक निर्धारित सभी तपश्चर्या निभा ली जाती हैं। एक वर्ष तक उन सबको निभाना सामान्य साधक के लिए कठिन हो जाता है। इसलिए वर्ष के 12 महीनों में हर माह कुछ तपश्चर्याएँ अपनाए रहने के लिए कहा गया है।
# ज्ञातव्य :
• तपस्या की अग्नि पापों के समूहों को निश्चित रूप से गलाकर नरम कर देती है, बदल कर मनभावन बना देती है अथवा जला कर भस्म कर देती है।
• तपस्वी में एक नयी परम सात्विक अग्नि पैदा होती है। इस अग्नि को दैवी विद्युत शक्ति, आत्मतेज, तपोबल आदि नामों से पुकारते हैं।
• इस बल से अंत:करण में छिपी हुई सुप्त शक्तियाँ जाग्रत् होती हैं।
• स्फूर्ति, साहस, उत्साह, धैर्य, दूरदर्शिता, संयम, सन्मार्ग में प्रवृत्ति आदि दिव्य गुणों का विकास होता है।
• कुसंस्कार, कुविचार, कुटेव, कुकर्म से छुटकारा पाने के लिये तप:श्चर्या रामबाण अस्त्र है।
• तप:श्चर्या द्वारा आत्ममंथन से उच्च आध्यात्मिक तत्त्वों की वृद्धि होती है।
• अग्नि से तप कर सोना निर्मल बनता है। तप से तपा हुआ मनुष्य भी पापमुक्त, तेजस्वी और विवेकवान बन जाता है।
तपों में से प्रत्येक का प्रयोग करने के लिये अनेक रीतियाँ हो सकती हैं। उन्हें थोड़ी-थोड़ी अवधि के लिये निर्धारित करके अपना अभ्यास और साहस बढ़ाना चाहिये। आरंभ में थोड़ा और सरल तप अपनाने से पीछे दीर्घकाल तक और कठिन तप साधना करना भी सुलभ हो जाता है।
गायत्री महाविज्ञान में इस साधना के साथ पापनाशक, शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ 12 प्रकार की बताई गई हैं। उनमें से प्रतिमाह एक-दो का अभ्यास साधा जा सकता है।
1. अस्वाद तप : भोजन में स्वादवर्धक तत्त्वों (नमक, चीनी, मसाले आदि) में एक-दो या सभी को हटा देना अस्वाद तप कहलाता है। इससे इंद्रिय निग्रह, मनोनिग्रह सधता और मनोबल बढ़ता है।
2. तितिक्षा तप : सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि को सहते रहने का अभ्यास क्रमश: बनाना। इससे जीवनी शक्ति बढ़ती है, जो तमाम विकारों-विषाणुओं से शरीर की रक्षा कर लेती है।
3. कर्षण तप : प्राप्त सुविधाओं पर आश्रित न रहकर स्वावलम्बी बनकर रहने का अभ्यास। ब्रह्ममुहूर्त में उठकर कठोर अनुशासनों के साथ जीने के प्रयोग करना।
4. उपवास : आहार को शुद्ध, सात्विक बनाने के साथ ही उसकी कम से कम मात्रा से काम चलाना। अन्न की अपेक्षा फल, शाक, दूध, छाछ आदि पर रहने के संकल्पित प्रयास।
5. गव्य कल्प : जिन्हें देसी गाय के उत्पाद नियम से उपलब्ध हों, वे यह तप कर सकते हैं। इसमें गोबर, गौमूत्र आदि से मालिश करके नहाने तथा गौ के दूध, दही, घी आदि का ही सेवन करने का विधान होता है। दूध गर्म करने तथा यज्ञ करने के लिए भी गोबर के कण्डों का ही उपयोग किया जाता है। तीन माह इसे करने से जीवन के कल्प जैैसा लाभ मिलता है।
6. प्रदातव्य तप : लोगमंगल के लिए सत्पात्रों को दान देना। अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन को कम से कम अपने लिए तथा अधिक से अधिक लोकहित के लिए प्रयुक्त करना।
7. निष्कासन तप : इसमें अपने अंदर की बुराइयों, कमियों को पहचानना, उन्हें खुले दिल से स्वीकार करना होता है। इससे मन हल्का होता है तथा आत्म-परिष्कार, आत्मोन्नति के पथ प्रशस्त होते हैं। ईसाइयों में इसे ‘कन्फेशन’ तथा इस्लाम में ‘तौबा’ करना कहते हैं। इसके लिए गुरु, विश्वस्त मित्र या परिजनों के सामने इन्हें प्रकट करना और न दोहराने का संकल्प करना होता है। नैष्ठिक साधक शान्तिकुञ्ज को भी एक विश्वस्त मित्र मान सकते हैं।
8. साधना तप : कोई भी जप अथवा पाठ का अनुष्ठान इस तप का अंग होता है। एक वर्षीय जप साधना के साथ गायत्री चालीसा, गायत्री गीता, गायत्री स्मृति, गायत्री सहस्त्रनाम, प्रज्ञोपनिषद आदि के पाठ का कोई क्रम शामिल किया जा सकता है।
9. ब्रह्मचर्य तप : शारीरिक के साथ मानसिक ब्रह्मचर्य का पालन करना। इसके लिए सबसे अच्छा उपाय मन को आध्यात्मिक एवं नैतिक विचारों में लगाए रहना है। गुरु एवं इष्ट के गुणों का सतत स्मरण इसमें बहुत उपयोगी सिद्ध होता है।
10. चान्द्रायण तप : अधिकांश साधक यह तप समय-समय पर पूर्ण या अर्ध चान्द्रायण के रूप में करते रहते हैं। अभियान साधना वर्ष में भी सुविधानुसार किसी माह इसे करना चाहिए।
11. मौन तप : गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने मौन को मानसिक तप माना है। इससे शक्ति का क्षरण तो रुकता ही है, वृत्तियाँ अंतमुर्खी भी होती हैं। प्रति सप्ताह में एक दिन, प्रति माह कुछ दिन या वर्ष भर के किसी माह में सुविधानुसार तप साधना की जा सकती है।
12. अर्जन तप : अपने अंदर नए गुणों या नए कौशल का विकास करना इस तप के अंतर्गत आता है। विद्यार्थी नयी विद्याएँ सीखने के लिए जो कष्ट सहते हैं, संयम बरतते हैं, वह सभी इस तप के अंग होते हैं। इससे अपनी योग्यता तो बढ़ती ही है, लोकमंगल के लिए नए मार्ग भी खुलते हैं।
उपरोक्त अनुशासनों के पालन में अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान रखें, अधिक कठोर अभ्यास से स्वास्थ्य संबंधी कष्ट हो सकता है अत: तदनुसार कार्य करें। एक वर्षीय अभियान साधना के साधक उक्त में से किन्हीं भी तपों का अभ्यास निर्धारित अवधि में क्रमश: एक-एक करके अथवा रुचि अनुसार कुछ को एक साथ मिलाकर कर सकते हैं। तप-साधना से उत्पन्न तप-शक्ति से साधना के उत्कृष्ट परिणाम अवश्य मिलते हैं। ***