Tuesday 26, November 2024
कृष्ण पक्ष एकादशी, मार्गशीर्ष 2024
पंचांग 26/11/2024 • November 26, 2024
मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष एकादशी, पिंगल संवत्सर विक्रम संवत 2081, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), कार्तिक | एकादशी तिथि 03:47 AM तक उपरांत द्वादशी | नक्षत्र हस्त 04:34 AM तक उपरांत चित्रा | प्रीति योग 02:13 PM तक, उसके बाद आयुष्मान योग | करण बव 02:25 PM तक, बाद बालव 03:48 AM तक, बाद कौलव |
नवम्बर 26 मंगलवार को राहु 02:38 PM से 03:56 PM तक है | चन्द्रमा कन्या राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 6:56 AM सूर्यास्त 5:13 PM चन्द्रोदय 2:17 AM चन्द्रास्त 2:21 PM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु हेमंत
- विक्रम संवत - 2081, पिंगल
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - मार्गशीर्ष
- अमांत - कार्तिक
तिथि
- कृष्ण पक्ष एकादशी - Nov 26 01:02 AM – Nov 27 03:47 AM
- कृष्ण पक्ष द्वादशी - Nov 27 03:47 AM – Nov 28 06:24 AM
नक्षत्र
- हस्त - Nov 26 01:24 AM – Nov 27 04:34 AM
- चित्रा - Nov 27 04:34 AM – Nov 28 07:36 AM
Jab Man Shaant hoga Tabhee Eeshvar Kee Upasthiti Mahasoos Hogee.
Tum Use Avashya Pa Loge
174_Tyag_ya_Swarth_2.mp4
Story of Raja Ranti Dev |
Virodh Bhi Karna Padega
विपत्ति, दुख या वेदनामय जीवन एक बड़ा शिक्षक है। यह वह स्थिति है जिसमें चारों ओर से कष्ट आते हैं, आर्थिक स्थिति बिगड़ जाती है, मन दुखी रहता है और कहीं से कोई सहारा नहीं दीखता। विपत्ति ऐसी घटनाओं का क्रम है, जो सफलता का शत्रु है और आनन्द को नष्ट करने वाला है। यह दुःख की मनः स्थिति है।
विपत्ति दूसरे रूप में एक वरदान सिद्ध होती है। जो व्यक्ति धैर्य बनाये रखता है, वह अन्ततः विजयी होता है। विपत्ति से हमारी इच्छा शक्ति में वृद्धि होती है और सहिष्णुता प्राप्त होती है। इससे हमारा मन ईश्वर की ओर प्रवृत्त होता है। अन्ततः इससे वैराग्य की प्राप्ति होती है। सत्य की पहली सीढ़ी है। विपत्ति वह गुरु है जो मनुष्य को उद्योगी और परिश्रमशील बनाता है। इससे मनुष्य की सोई हुई शक्तियाँ जाग्रत हो जाती हैं, साधारण कार्य करती हुई शक्ति तीव्र हो जाती हैं और जागरुकता प्राप्त होती है। समृद्धि के प्रकाश में आनन्द मनाना साधारण सी बात है, किन्तु प्रतिकूलता और विपत्ति में स्थिर बुद्धि रखना।
आप विपत्ति में चिंतित न रहें, धैर्य धारण करें, प्रसन्न मुद्रा बनाएँ, हँसते रहें आत्मा से शक्ति खींच कर अपनी समस्याओं को नवीन रूप में विचार करें। आपकी आत्मा में विपत्ति से जूझने की अनन्त शक्ति है। इसे अनुभव करें।
सोच कर देखिए, प्रशान्त सागर में रह कर क्या कोई सफल नाविक बन सकता है? सागर की उत्ताल लहरों से जूझ कर आँधी तूफान को झेल कर ही बड़े कप्तान बनते हैं विपत्ति के समुद्र में ही आप जीवन के कप्तान बनते हैं। आपके धैर्य, साहस, लगन, शक्ति , अध्यवसाय की परीक्षा विपत्तियों के भयंकर तूफानों में ही होती है। विपत्ति में चारों ओर से घिर कर हम नई नई बातें खोजते हैं, नई खोजें करते हैं, खूब सोचते विचारते और अपने व्यक्ति त्व का विकास करते हैं। विपत्ति हमारे मित्रों को परखने की सच्ची कसौटी है। विपत्ति एक ऐसा साँचा है, जो हमें नए सिरे से ढालता है और विषम परिस्थितियों से युद्ध करना सिखाता है।
विपत्ति संसार के बड़े बड़े महात्माओं, राजनीतिज्ञों, विद्वानों पर आई है। वे उसमें तपे, पिसे, कुटे और मजबूत बने हैं। फिर आप क्यों निराश होते हैं? काले बादलों की तरह वह हवा में उड़ जाने वाली क्षणिक वस्तु है। यह तो आपकी इच्छाशक्ति और दृढ़ता की परीक्षा लेने के लिए आती है।
अखण्ड ज्योति, अप्रैल 1955 पृष्ठ 19
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
Aap Hamare Sath Mil Jaeiye |
Aastikta Vyavhar Me Utregi To Hi Sankat Mitenge
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन
आज का सद्चिंतन (बोर्ड)
आज का सद्वाक्य
नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन
!! आज के दिव्य दर्शन 26 November 2024 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
संकल्प की शक्ति विचार और कर्म दोनों के बीच में एक इकाई है दोनों के बीच में एक वो है सम्बद्ध की श्रृंखला उसका नाम है विचार हमको ये हुकुम दिया गया कि हम विचारों को फैला दें। हम लोगों से यह कहें उनको विचार देते देते मुद्दतें हो गई, कथा सुनाते सुनाते मुद्दतें हो गई, भागवत कहते कहते मुद्दतें हो गई, अखबार छापते छापते मुद्दतें हो गई और यह मुद्दतें ही हो जाएंगी कोई प्रभाव नहीं होगा। अगर इन विचारों को क्रिया के रूप में परिणत करने के लिए जो पहला काम है वो संकल्प के रूप में नहीं लोगे। वृक्ष और बीज इन दोनों के बीच की एक और इकाई है उसका नाम है अंकुर।अंकुर क्या होता है अंकुर बेटे न है वृक्ष न है बीज। वृक्ष जब विकसित होता है बीज जब विकसित होता है वृक्ष के रूप में तो वह एक उसकी इकाई बना लेता है काहे की इकाई बना लेता है उसकी बन जाता है अंकुर अंकुर से मालूम पड़ता है हां साहब बीज सही है और देखिए बीज ने इनको शक्ल दिखा दी अब ये बन जाएगा संकल्प किसे कहते हैं संकल्प कहते हैं अंकुर को |
अखण्ड-ज्योति से
योगी अरविन्द का कथन है- प्रेम में असीम बल होता है। वह किसी के सामने हारता नहीं। कठिनाइयाँ उसे झुकाती नहीं। परीक्षा का तापमान उसे गला नहीं पाता, चाहे कितना ही उग्र क्यों न हो?
सच्चे प्रेम में विरह की गुंजाइश नहीं। सच्चे से तात्पर्य है ईश्वरीय प्रेम। मानवी प्रेम स्वल्प होता है साथ ही आकाँक्षाओं से भरा हुआ। इन आकाँक्षाओं के मार्ग में अड़चन आती है उसी का नाम विरह होता है। जहाँ विरह के लक्षण उभर रहे हों, समझना चाहिए कि वह मानवी है। समझा उसे कुछ भी गया हो। ईश्वरीय प्रेम में जहाँ विरह आड़े आये समझना चाहिए वहाँ मानवी को ईश्वरीय समझने की भूल हुई है।
प्रेम में अनुदान की विपुलता होती है। प्रतिपादन की न उसने इच्छा होती है न शिकायत। भगवान से प्यार करने का तात्पर्य है उसकी दुनिया के पीड़ित पक्ष की सेवा करना। सेवा अपनी एकाँगी कृति है। उसे मनुष्य कभी भी- कितनी भी बार कर सकता है। उसे, जब जो जितना भी करता है उसका प्रेम उतनी ही परिपक्व होता जाता है। परिपक्व प्रेम स्वयं तो बलिष्ठ होता ही है साथ ही प्रेमी को भी शक्ति प्रदान करता है।
ईश्वरीय प्रेम अपने आपमें सामर्थ्य का पुंज है। वह मनुष्य से भी किया जा सकता है। व्यापक सत्ता से भी। आदर्शों से भी और उनसे भी जो उठाने में सहायता देने की अपेक्षा करते हैं। हर हालत में प्रेमी अपने कर्तृत्व पर गर्व करता है। उसे बल की अनुभूति होती है। कठिनाइयों में तपकर वह खरा उतरता और अधिक चमकता है। उसे प्रतिपक्ष से कुछ आशा नहीं होती क्योंकि वह स्वयं भी सामर्थ्यवान है।
प्रेम को स्वीकारा या सराहा नहीं गया, जो ऐसी इच्छा करता है उसी को प्रेम काँटों पर चलना प्रतीत होता है। विरह भी उसी को सहन करना पड़ता है। विरह और इच्छा एक ही बात है। प्रेम करने वाले इच्छा नहीं करते। वे सदा देने की बात सोचते हैं। क्योंकि सच्चे प्रेम में असीम बल होता है। जो स्वयं सामर्थ्य का पुंज है वह दूसरे से क्या माँगेगा और क्यों माँगेगा?
प्रेम का स्वरूप समझा जाना चाहिए और उसकी प्रकृति का अनुभव करना चाहिए कि वह देने के अतिरिक्त और कुछ चाहता ही नहीं। देने वाले के मार्ग में कोई अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकता। करना चाहे तो भी यह सम्भव नहीं। क्योंकि प्रेम की सामर्थ्य असीम है। उसका जितना सुयोग किया जाय उतनी ही बलिष्ठता की अनुभूति होती है। ऐसी बलिष्ठता जो न हारती है और न शिकायत करती है।
विरह प्रकारान्तर से शिकायत करना है। जिससे जो चाहा गया था वह उसने उतनी मात्रा में नहीं दिया, इसी का नाम विरह है। जब लेने का, माँगने का, चाहने का प्रश्न ही नहीं तो कितना भी किया जायेगा आनन्द ही मिलता रहेगा। यह हो सकता है कि कम दिया गया हो, कच्चे मन से दिया गया है, तब आनन्द की मात्रा में कमी हो सकती है। कम दर्जे का प्रेम कम आनन्द दे यह बात समझ में आने की है। किन्तु विरह किस बात का? रुदन क्यों? यह तो दीनता का चिन्ह है। प्रेमी दीन नहीं हो सकता। जो दी है वह प्रेमी कैसा?
अखण्ड ज्योति, नवम्बर 1984
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