एक ही दिन में मिले तीन जीवनदान
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बचपन से ही साधना में मेरी गहरी रुचि थी। ध्यान मुझे स्वतः सिद्ध था। तरह- तरह के अनुभव होते थे, जिन्हें किसी से कहने में भी मुझे डर लगता था। पर धीरे- धीरे उनका अर्थ समझ में आने लगा। एक दिन न जाने कहाँ से एक महात्मा मस्तीचक आए और धूनी जलाकर बैठ गए। उनका नाम था- बाबा हरिहर दास। उनसे प्रभावित होकर मैंने दीक्षा लेने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा- मैं तुम्हारा गुरु नहीं हो सकता हूँ। तुम्हारे गुरु इस धरती पर अवतरित हो चुके हैं। मेरा उद्धार भी तुम्हारे गुरु के द्वारा ही होना है। एक दिन वे मथुरा से यहाँ आएँगे और इसी मिट्टी की कुटिया में आकर मेरा उद्धार करेंगे।
बाबा हरिहर दास ने जिस दिन मुझे यह बात बताई, उस दिन के पहले से ही मेरे सपने में एक महापुरुष का आना शुरू हो चुका था। वे खादी के धोती- कुर्ते में नंगे पाँव आया करते थे। उनके चेहरे से अलौकिक आभा टपकती रहती थी। जब भी वे मेरे सपने में आते, मैं यंत्रचालित- सा उनके चरणों में अपना माथा टेक देता। फिर वे मेरा सिर सहलाकर मुझे आशीर्वाद देते और बिना कुछ कहे वापस चले जाते।
वर्षों तक यही क्रम चलता रहा। लेकिन एक रात ऐसी भी आयी, जब उन्होंने अपना मौन तोड़ दिया। अंतरंगता से आप्लावित शब्दों में उन्होंने मुझसे कहा- अभी कितने दिन यहाँ रहना है। मैं वहाँ तुम्हारी राह देख रहा हूँ।
तभी से एक अनजानी- सी बेचैनी मेरे भीतर घर कर गई। अब तक मुझे इसका आभास हो चुका था कि यही मेरे पूर्व जन्म के गुरु हैं। लेकिन प्रश्र यह था कि इस अवतारी चेतना को मैं कहाँ खोजूँ? कुछ ही दिनों बाद दैवयोग से मैं मथुरा पहुँचा। वहीं पर मुझे मिले बार- बार मेरे सपने में आने वाले मेरे परम पूज्य गुरुदेव- युगऋषि श्रीराम शर्मा आचार्य!
पहली ही मुलाकात में उनसे मुझे ऐसा प्यार मिला कि मैं उन्हीं का होकर रह गया। उनके पास रहते- रहते करीब चार वर्ष बीत गए थे। आचार्यश्री के मार्गदर्शन में साधना और उपासना के बल पर मैं अपने जीवन में होने वाली अनेक घटनाओं के बारे में जानने लग गया था।
इसी क्रम में एक दिन मुझे अपनी मृत्यु के समय का ज्ञान हो गया। तब मैंने पूज्य गुरुदेव से कहा- इस शरीर से आपकी सेवा अगले तीन- चार महीने तक ही हो सकेगी। गुरुदेव ने पूछा- ऐसा क्यों? मैंने मुस्कुराते हुए कहा- मेरी मृत्यु होने वाली है। मरने के बाद भूत बनकर शायद आपकी सेवा कर सकूँ, पर इस शरीर से तो सेवा नहीं हो पाएगी। जवाब में पूज्य गुरुदेव भी मुस्कराने लगे। उन्होंने कहा- तुम्हें इसी शरीर से मेरा काम करना है।
कुछ दिन और बीत गए। मृत्यु को कुछ और करीब आया जानकर मैंने पूज्य गुरुदेव के सामने फिर से यही बात दुहराई। गुरुदेव झल्ला उठे। उन्होंने डपटते हुए पूछा- अच्छा बता, तेरी मृत्यु कैसे होगी? मैंने कहा- आज से ठीक दो महीने बाद मुझे एक साँप काट लेगा और उसी से मेरी मृत्यु हो जाएगी। मेरी बात सुनकर उनकी झल्लाहट कुछ और बढ़ गई। उन्होंने कहा- तू अपना काम करता चल। मरने की बकवास छोड़ दे। मुझे लगा कि गुरुदेव का इशारा शरीर की नश्वरता की ओर है। मैं भी करीब आती हुई मौत को भूलकर अपने काम में मगन हो गया।
महीने- डेढ़ महीने बाद तो मैं इस बात को पूरी तरह से भूल गया था कि मौत मेरी तरफ तेजी से बढ़ती आ रही है। आखिरकार वह दिन भी आ ही गया जिसे नियति ने मेरी मृत्यु के लिए निर्धारित कर रखा था। सुबह के समय मैं, शरण जी तथा दो- तीन अन्य परिजनों के साथ नीम के पेड़ के नीचे बैठा था। गुरुदेव सामने के कमरे में थे। हम सब उनके बाहर निकलने का ही इन्तजार कर रहे थे। समय बीतता जा रहा था, पर वे बाहर निकलने का नाम नहीं ले रहे थे। विलम्ब होता देख मैं उधर जाने की सोच ही रहा था कि अचानक पेड़ से एक भयंकर विषधर सर्प मेरे सिर पर गिरा। उसी क्षण मुझे अपनी ध्यानावस्था में देखा हुआ दृश्य याद आ गया कि आज मुझे मृत्यु से कोई बचा नहीं सकता है। पर आश्चर्य! उस काले साँप का फन मेरी आँखों के आगे नाच रहा था। उस काले साँप ने दो- तीन बार अपने फन से मेरे सिर पर और छाती पर प्रहार किया, पर काट नहीं सका। ऐसा लगा कि किसी ने उसके फन को नाथ कर रख दिया है।
अपने जीवन में समय को पूरी तरह से साध लेने वाले मेरे गुरुदेव समय के बीत जाने पर भी आज कमरे से बाहर क्यों नहीं निकले, यह बात अब मेरी समझ में आ चुकी थी। डसने की कोशिश में असफल हुआ वह साँप धीरे- धीरे मेरे शरीर पर सरकता हुआ नीचे आ गया। अब तक वहाँ कुछ और लोग भी जमा हो गए थे। सबने मिलकर उस साँप को मार दिया। तब तक वहाँ इस बात को लेकर कोहराम मच गया कि शुक्ला जी को साँप ने काट खाया है। गुरुदेव अपने कमरे से निकले। इन सारी बातों से अनजान बनते हुए उन्होंने पूछा -क्या हुआ शुक्ला? मैंने मरे हुए साँप को दिखाते हुए कहा- यह सर्प मेरा काल बनकर आया था। लगता है मैं बच गया। गुरुदेव ने गंभीर स्वर में कहा- इस सर्प को मारना नहीं चाहिए था। किसने मारा? किसी ने मुँह नहीं खोला। सभी सिर झुकाए खड़े रहे। वातावरण को सहज बनाने के लिए गुरुदेव बोले- खैर, जाने दो। स्नान कर लो। पूज्यवर की शक्ति सामर्थ्य से अभिभूत होकर मैं स्नान करने के लिए चल पड़ा।
उस दिन भी रोज की भाँति ही दोपहर के बाद वाले कार्यक्रम में परम वन्दनीया माताजी के गायन में मुझे तबले पर संगत करनी थी। मंच पर सारी व्यवस्था हो चुकी थी। तबला, हारमोनियम रखे जा चुके थे। माताजी के लिए माइक सेट करना था। जैसे ही मैंने माइक को पकड़कर उठाना चाहा, मेरा हाथ माइक से चिपक गया। माइक में २४० बोल्ट का करंट दौड़ रहा था। अपनी पूरी ताकत लगाकर मैंने हाथ झटकना चाहा, पर झटक नहीं सका। फिर मैं चीखकर बोला- लाइन काटो। मुझे लगा कि अब मेरी मृत्यु निश्चित है। सुबह साँप से तो मैं बच गया था, पर बिजली के इस करंट से बचना असंभव है। लेकिन मेरे और मेरी मौत के बीच तो पूज्य गुरुदेव की तपश्चर्या की ताकत दीवार बनकर खड़ी थी। उन्होंने भेदक दृष्टि से बिजली के तार की ओर देखा और तार का कनेक्शन कट गया। माइक ने मेरा हाथ छोड़ दिया और मैं झटके से नीचे गिर पड़ा। सब लोग दौड़कर मेरे पास आ गए। पूज्य गुरुदेव भी स्थिर चाल से चले आ रहे थे। लोगों ने उन्हें रास्ता दिया। उन्होंने पास आकर पूछा- कैसे हो बेटे? बोलना चाहकर भी मैं कुछ बोल नहीं सका। ऐसा लग रहा था, जैसे पूरे शरीर को लकवा मार गया हो।
डॉक्टर बुलाये गए। उन्होंने कहा- बिजली का झटका बहुत जोर का लगा है। इसका असर मस्तिष्क पर भी पड़ सकता है। ठीक होने में कम से कम तीन महीने तो लग ही जाएँगे। डॉक्टर के चले जाने के बाद पूज्य गुरुदेव ने कहा -इसके सारे शरीर में सरसों के तेल से मालिश करो।
संगीत का कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया। मैं अकेले में बिस्तर पर लेटा हुआ गुरुसत्ता की सर्वसमर्थता पर मुग्ध हो रहा था। कुछ ही घण्टों के दौरान दो बार काल मुझे निगलने के लिए आया और दोनों बार उन्होंने मुझे मौत के मुँह से बाहर निकाल लिया। मैं उनके प्रति कृतज्ञता के भाव में डूबता जा रहा था कि न जाने कब आँखों में गहरी नींद समाती चली गई। आधी रात के बाद अचानक मेरी नींद टूटी। ऐसा लगा कि कोई मेरी छाती पर बैठकर मुझे जान से मारने की कोशिश कर रहा है और मैं अब कुछ ही क्षणों का मेहमान हूँ। एक ही दिन में तीसरी बार मैं अपनी मृत्यु को करीब से देख रहा था। दोपहर बाद के बिजली के झटके ने मेरी सारी ताकत पहले ही निचोड़ ली थी। इसीलिए चाहकर भी मैं कोई प्रतिकार नहीं कर सका। जब मुझे लगा कि अगली कोई भी साँस मेरी अन्तिम साँस साबित हो सकती है, तो मेरे मुँह से सिर्फ दो ही शब्द निकले- हे गुरुदेव! उनका नाम लेना भर था कि मेरी छाती पर सवार मेरा काल शून्य में विलीन हो गया। इस प्रकार परम पूज्य गुरुदेव ने विधि के विधान को चुनौती देकर एक ही दिन में तीन- तीन बार मुझे नया जीवन दिया।
सुबह होते ही पत्नी ने पूज्य गुरुदेव के कल के आदेश का पालन करने की तत्परता दिखाई। सरसों के तेल की मालिश शुरू हुई। बीस मिनट की मालिश में ही एक चौथाई आराम मिल गया। मालिश का यह क्रम करीब एक हफ्ते तक चलता रहा। डॉक्टर साहब ने तो जोर देकर कहा था कि मुझे ठीक होने में कम से कम तीन महीने लग जायेंगे, लेकिन आठवें दिन ही मैं अपने आपको पहले से भी अधिक ताकतवर महसूस करने लगा था। उनकी दवा धरी की धरी ही रह गई थी।
रमेशचन्द्र शुक्ल मस्तीचक, (बिहार)
अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
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